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ब्राह्मणगीता १५
पूर्व में आपने - भगवान श्रीकृष्ण व
अर्जुन के संवाद रूप श्रीमद्भगवदगीता,गर्भगीता, अनुगीता का उपदेश किया, पढ़ा। अब महाभारत
के आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व) में ब्राह्मणगीता १४ तक पठन किये। यह ब्राह्मण व
ब्राह्मणी के मध्य का संवाद है अतः इसे ब्राह्मणगीता कहा जाता है। यहाँ इसका श्लोक
सहित हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है। हिन्दी अनुवाद लिए krishnakosh.org साभार व्यक्त करते हुए, अब ब्राह्मणगीता १५ व अंतिम भाग का श्रवण और पठन
करते हैं इसमें भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा ब्राह्मण, ब्राह्मणी
और क्षेत्रज्ञ का रहस्य बतलाते हुए ब्राह्मण गीता का उपसंहार का वर्णन है।
ब्राह्मणगीता १५
कृष्णेनार्जुनंप्रति
ब्राह्मणीब्राह्मणशब्दनिर्दिष्टयोः क्रमेणि बुद्धिमनस्त्वकथनम्।। 1 ।।
ब्राह्मण उवाच।
नेदमल्पात्मना शक्यं वेदितुं
वाऽकृतात्मना।
बहु चाल्पं च संक्षिप्तं विस्तृतं च
मतं मम।।
उपायं तं मम ब्रूहि येनैषा लभ्यते
मतिः।
तन्मन्ये कारणं कर्म यत एषा
प्रवर्तते।।
ब्राह्मण उवाच।
अरणीं ब्राह्मणीं विद्धि
गुरुरस्योत्तरारणिः।
तपःश्रुतेभिमथिनी ज्ञानाग्निर्जायते
ततः।।
ब्राह्मणयुवाच।
यदिदं ब्रह्मणो लिङ्गं क्षेत्रज्ञ
इति संज्ञितम्।
ग्रहीतुं येन यच्छक्यं लक्षणं तस्य
तद्वद।।
ब्राह्मण उवाच।
अलिङ्गो निर्गुणश्चैव कारणं नास्य
विग्रहे।
उपायमेव वक्ष्यामि येन गृह्येत
भावना।।
सम्यगप्युपदिष्टस्य ह्यमृतस्येव
तृप्यसे।
कर्मबुद्धिरबुद्धित्वाज्ज्ञानलिङ्गान्निपातितः।
इदं कार्यमिदं नेति न मोक्षेषूपदिश्यते।
पश्यतः शृण्वतो
बुद्धिरात्मनैवोपजायते।।
यावन्त इह
शक्येरंस्तावतोंऽसान्प्रकल्पयेत्।
अव्यक्तान्व्यक्तरूपांश्च शतशोऽथ
सहस्रशः।।
सर्वानुमानयुक्तांश्च
सर्वान्प्रत्यक्षहेतुकान्।
यतः परं न विद्येत ततोऽभ्यासे
भविष्यति।।
श्रीभगवानुवाच।
ततस्तु तस्या ब्राह्मण्या मतिः
क्षेत्रज्ञसंशये।
क्षेत्रज्ञानेन परतः
क्षेत्रज्ञोऽन्यः प्रवर्तते।।
अर्जुन उवाच।
क्व नु सा ब्राह्मणि कृष्ण क्व चासौ
ब्राह्मणर्षभः।
याभ्यां सिद्धिरियं प्राप्ता तावुभौ
वद मेऽच्युत।।
श्रीभगवानुवाच।
मनो मे ब्राह्मणं विद्धि बुद्धिं मे
विद्धि ब्राह्मणीम्।
क्षेत्रज्ञ इति यश्चोक्तः सोऽहमेव
धनंजय।।
।। इति श्रीमन्महाभारते
आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि ब्राह्मणगीता १५ पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।।
ब्राह्मणगीता १५ हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मणी बोली- नाथ! मेरी बुद्धि
थोड़ी और अन्त:करण अशुद्ध है, अत: आपने संक्षेप
में जिस महान् ज्ञान का उपदेश किया है, उस बिखरे हुए उपदेश
को समझना मेरे लिये कठिन है। मैं तो उसे सुनकर भी धारण न कर सकी। अत: आप कोई ऐसा
उपाय बताइये, जिससे मुझे भी यह बुद्धि प्राप्त हो। मेरा
विश्वास है कि वह उपाय आप ही से ज्ञात हो सकता है। ब्राह्मण ने कहा- देवि! तुम
बुद्धि को नीचे की अरणी और गुरु को ऊपर की अरणी समझो। तपस्या और वेद-वदान्त के
श्रवण मनन द्वारा मन्थन करने पर उन अरणियों से ज्ञान रूप अग्नि प्रकट होती है।
ब्राह्मणी ने पूछा- नाथ! क्षेत्रज्ञ नाम से प्रसद्धि शरीरान्वर्तर्ती जीवात्मा को
जो ब्रह्म का स्वरूप बताया जाता है, यह बात कैसे सम्भव है?
क्योंकि जीवात्मा ब्रह्म के नियन्त्रण में रहता है और जो जिसके
नियन्त्रण में रहता है, वह उसका स्वरूप हो, ऐसा कभी नहीं देखा गया। ब्राह्मण ने कहा- देवि! क्षेत्रज्ञ वास्वत में देह
सम्बन्ध से रहित और निर्गुण है, क्योंकि उसके सगुण और साकार
होने का कोई कारण नहीं दिखायी देता। अत: मैं वह उपाय बताता हूँ जिससे वह ग्रहण
किया जा सकता है अथवा नहीं भी किया जा सकता। उस क्षेत्र का साक्षात्कार करने के
लिये पूर्ण उपाय देखा गया है। वह यह है कि उसे देखने की क्रिया का त्याग कर देने
से भौरों के द्वारा गन्ध की भाँति वह अपने आप जाना जाता है। किंतु कर्म विषयक
बुद्धि वास्तव में बुद्धि न होने के कारण ज्ञान के सदृश प्रतीत होती है तो भी वह
ज्ञान नहीं है। (अत: क्रिया द्वारा उसका साक्षात्कार नहीं हो सकता)। यह कर्तव्य है,
यह कर्तव्य नहीं है- यह बात मोक्ष के साधनों में नहीं कही जाती। जिन
साधनों में देखने और सुनने वाले की बुद्धि आत्मा के स्वरूप में निश्चित होती है,
वही यथार्थ साधन है। यहाँ जितनी कल्पनाएँ की जा सकती हैं, उतने ही सैकड़ों और हजारों अव्यक्त और व्यक्त रूप अंशों की कल्पना कर लें।
वे सभी प्रत्यक्ष प्रतीत होने वाले पदार्थ वास्तविक अर्थयुक्त नहीं हो सकते। जिससे
परे कुछ भी नहीं है, उसका साक्षात्कार तो ‘नेति-नेति’ अर्थात यह भी नहीं, यह भी नहीं इस अभ्यास के अन्त में ही होगा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-
पार्थ! उसके बाद उस ब्राह्मणी की बुद्धि, जो क्षेत्रज्ञ के
संशय से युक्त थी, क्षेत्र के ज्ञान से अतीत क्षेत्रज्ञों से
युक्त हुई। अर्जुन ने पूछा- श्रीकृष्ण! वह ब्राह्मणी कौन थी और वह श्रेष्ठ
ब्राह्मण कौन था? अच्युत! जिन दोनों के द्वारा यह सिद्धि
प्राप्त की गयी, उन दोनों का परिचय मुझ बताइये। भगवान
श्रीकृष्ण बोल- अर्जुन! मेरे मन को तो तुम ब्राह्मण समझो और मेरी बुद्धि को
ब्राह्मणी समझो एवं जिसको क्षेत्रज्ञ ऐसा कहा गया है, वह मैं
ही हूँ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक
पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता १५ विषयक ३५वाँ अध्याय पूरा हुआ।
इति: ब्राह्मणगीता सम्पूर्ण।।
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