वज्रसूचिका उपनिषद्
वज्रसुचिकोपनिषद ( वज्रसूचि उपनिषद्
)या वज्रसूचिका उपनिषत् एक संक्षिप्त उपनिषद है
जो की सामवेद से सम्बद्ध है ! इसमें
कुल ९ मंत्र हैं !
इस उपनिषद् में सर्वप्रथम चारों
वर्णों में से ब्राह्मण की प्रधानता का उल्लेख किया गया है तथा ब्राह्मण कौन है,
इसके लिए कई प्रश्न किये गए हैं !
क्या ब्राह्मण जीव है ?
शरीर है, जाति है, ज्ञान
है, कर्म है, या धार्मिकता है ?
अंत में ‘ब्राह्मण’ की परिभाषा बताते हुए उपनिषदकार कहते हैं
कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व
से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है ! चूँकि आत्मतत्व सत्,
चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है,
इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही (सच्चा) ब्राह्मण कहा
जा सकता है !
॥ वज्रसूचिका उपनिषद् ॥
शान्तिपाठ
यज्ञ्ज्ञानाद्यान्ति मुनयो
ब्राह्मण्यं परमाद्भुतम्।
तत्रैपद्ब्रह्मतत्त्वमहमस्मीति
चिन्तये॥
अब हम उस ज्ञान पद पर चर्चा करते
हैं जिसे ब्रह्मतत्व कहा जाता है और जिस परम अद्भुत “ब्राह्मण्यं” के जानने में मुनिगण पूरी जिंदगी
(आद्यान्ति) लगा देते हैं
चित्सदानन्दरूपाय
सर्वधीवृत्तिसाक्षिणे ।
नमो वेदान्तवेद्याय
ब्रह्मणेऽनन्तरूपिणे ॥
सच्चिदानन्दस्वरूप,
सबकी बुद्धिका साक्षी, वेदान्तके द्वारा
जाननेयोग्य और अनन्त रूपोंवाले ब्रह्मको मैं नमस्कार करता हूँ।
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि
वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च
सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदंमाऽहं ब्रह्म
निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं
मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु
धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ।
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसका भावार्थ नीचे(अंत में) दिया गया है ।
॥ वज्रसूचिका उपनिषद् ॥
ॐ वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि
शास्त्रमज्ञानभेदनम् ।
दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं
ज्ञानचक्षुषाम् ॥ १॥
अज्ञान नाशक,
ज्ञानहीनों के दूषण, ज्ञान नेत्र वालों के
भूषन रूप वज्रसूची उपनिषद का वर्णन करता हूँ॥१॥
ब्राह्मक्षत्रियवैष्यशूद्रा इति
चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव
प्रधान इति वेदवचनानुरूपं
स्मृतिभिरप्युक्तम् ।
तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो
नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं
ज्ञानं किं कर्म किं धार्मिक इति ॥२
॥
ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं! इन
वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है, ऐसा वेद वचन है और स्मृति
में भी वर्णित है!
अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि
ब्राह्मण कौन हैं? क्या वह जीव है
अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है?
तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेत्
तन्न ।
अतीतानागतानेकदेहानां
जीवस्यैकरूपत्वात् एकस्यापि
कर्मवशादनेकदेहसंभवात्
सर्वशरीराणां जीवस्यैकरूपत्वाच्च ।
तस्मात न जीवो ब्राह्मण इति ॥३॥
इस स्थिति में यदि सर्वप्रथम जीव को
ही ब्राह्मण माने (कि ब्राह्मण जीव है), तो
यह सम्भव नहीं है; क्योंकि भूतकाल और भविष्यकाल में अनेक जीव
हुए हैं व होंगे। उन सबका स्वरूप भी एक जैसा ही होता है। जीव एक होने पर भी
स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में, जीवों में एकत्व रहता है, इसलिए जीव को ब्राह्मण
नहीं कह सकते॥३॥
तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेत् तन्न
।
आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां
पञ्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरूपत्वात
जरामरणधर्माधर्मादिसाम्यदर्शनत
ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो
रक्तवर्णो
वैश्यः पीतवर्णः शद्रः कृष्णवर्णः
इति नियमाभावात ।
पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां
ब्रह्महत्यादिदोषसंभवाच्च ।
तस्मात् न देहो ब्राह्मण इति ॥ ॥४॥
क्या शरीर ब्राह्मण है?
नहीं, यह भी नहीं हो सकता। चाण्डाल से लेकर
सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात् पाञ्चभौतिक होते हैं, उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी समान होते हैं।
ब्राह्मण-गौर वर्ण, क्षत्रिय-रक्त वर्ण, वैश्य-पीत वर्ण और शूद्र-कृष्ण वर्ण वाला ही हो, ऐसा
कोई नियम देखने में नहीं आता तथा (यदि शरीर ब्राह्मण है तो) पिता, भाई के शरीर के दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या आदि को दोष
भी लग सकता है। अस्तु, शरीर का ब्राह्मण होना सम्भव नहीं
है॥४॥
तर्हि जाति ब्राह्मण इति चेत् तन्न
।
तत्र
जात्यन्तरजन्तुष्वनेकजातिसंभवात
महर्षयो बहवः सन्ति ।
ऋष्यशृङ्गो मृग्याः,
कौशिकः कुशात्,
जाम्बूको जाम्बूकात्,
वाल्मीको वाल्मीकात्,
व्यासः कैवर्तकन्यकायाम्,
शशपृष्ठात् गौतमः,
वसिष्ठ उर्वश्याम्,
अगस्त्यः कलशे जात इति शतत्वात् ।
एतेषां जात्या विनाप्यग्रे
ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति ।
तस्मात् नजाति ब्राह्मण इति ॥५॥
क्या जाति ब्राह्मण है?
नहीं, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि विभिन्न जातियों एवं जन्तुओं में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति
वर्णित है। जैसे- मृगी से श्रृंगी ऋषि की, कुश से कौशिक की,
जम्बूक से जाम्बूक की, वल्मीक (बाँबी) से
वाल्मीकि की, मल्लाह (धीवर) कन्या (मत्स्यगन्धा) से वेदव्यास
की, शशक पृष्ठ से गौतम की, उर्वशी नामक
अप्सरा से वसिष्ठ की, कुम्भ (कलश) से अगस्त्य ऋषि की
उत्पत्ति वर्णित है। इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही
प्रकाण्ड विद्वान् हुए हैं, इसलिए जाति विशेष भी ब्राह्मण
नहीं हो सकती॥५॥
तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेत्
तन्न ।
क्षत्रियादयोऽपि
परमार्थदर्शिनोऽभिज्ञा बहवः सन्ति ।
तस्मात न ज्ञानं ब्राह्मण इति ॥६॥
क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाए?
ऐसा भी नहीं हो सकता; क्योंकि बहुत से
क्षत्रिय (राजा जनक) आदि भी परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं (होते हैं)। अस्तु,
ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं हो सकता॥६॥
तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेत् तन्न
।
सर्वेषां प्राणिनां
प्रारब्धसञ्चितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शनात्कर्माभिप्रेरिताः
सन्तो जनाः क्रियाः कुर्वन्तीति ।
तस्मात् न कर्म ब्राह्मण इति ॥७॥
तो क्या कर्म को ब्राह्मण कहा जाए?
नहीं, ऐसा भी सम्भव नहीं है; क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध और
आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया
करते हैं। अतः कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता॥७॥
तर्हि धार्मिको ब्राह्मण इति चेत्
तन्न ।
क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः
सन्ति ।
तस्मात् न धार्मिको ब्राह्मण इति
॥८॥
क्या धार्मिक ब्राह्मण हो सकता है?
यह भी सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; क्योंकि
क्षत्रिय आदि बहुत से लोग स्वर्ण आदि का दान करते रहते हैं। अतः धार्मिक भी
ब्राह्मण नहीं हो सकता॥८॥
तर्हि को वा ब्रह्मणो नाम ।
यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं
जातिगुणक्रियाहीनं
षडूषिड्भावेत्यादिसर्वदोषरहितं
सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं
स्वयं
निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन
वर्तमानमन्तर्यहिश्चाकाशवदनुस्यूतमखण्डानन्दस्वभावमप्रमेयं
अनुभवैकवेद्यमपरोक्षतया भासमानं
करतळामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य
कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः
शमदमादिसम्पन्नो
भाव मात्सर्य तृष्णा आशा मोहादिरहितो
दम्भाहङ्कारदिभिरसंस्पृष्टचेता
वर्तत
एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मणेति
श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणाभ्यामभिप्रायः
अन्यथा हि
ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नास्त्येव ।
सच्चिदानान्दमात्मानमद्वितीयं
ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् ॥९॥
तब ब्राह्मण किसे माना जाय?
जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त न हो; जाति,
गुण और क्रिया से भी युक्त न हो; षड् ऊर्मियों
और षड्भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनन्द स्वरूप, स्वयं
निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला, अशेष कल्पों को आधार रूप,
समस्त प्राणियों के अन्त में निवास करने वाला, अन्दर-बाहर आकाशवत् संव्याप्त; अखण्ड आनन्दवान्,
अप्रमेय, अनुभवगम्य, अप्रत्यक्ष
भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत् परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला;
काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला; शम-दम आदि से सम्पन्न; मात्सर्य, तृष्णा, आशा, मोह आदि भावों से
रहित; दम्भ, अहङ्कार आदि दोषों से
चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है; ऐसा श्रुति, स्मृति-पुराण और इतिहास का अभिप्राय है।
इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो
सकता। आत्मा ही सत्-चित् और आनन्द स्वरूप तथा अद्वितीय है। इस प्रकार के ब्रह्मभाव
से सम्पन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है। यही उपनिषद् का मत है॥९॥
वज्रसूचिका उपनिषद्
शान्तिपाठ
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि
वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च
सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदंमाऽहं ब्रह्म
निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं
मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु
धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ।
मेरे सभी अंग पुष्ट हों तथा मेरे
वाक्,
प्राण, चक्षु, श्रोत,
बल तथा सम्पूर्ण इन्द्रियां पुष्ट हों। यह सब उपनिषद्वेद्य ब्रह्म
है । मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ तथा ब्रह्म मेरा निराकरण न करें अर्थात मैं
ब्रह्म से विमुख न होऊं और ब्रह्म मेरा परित्याग न करें। इस प्रकार हमारा परस्पर
अनिराकरण हो, अनिराकरण हो । उपनिषदों मे जो धर्म हैं वे
आत्मज्ञान में लगे हुए मुझ मे स्थापित हों। मुझ मे स्थापित हों।
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
भगवान् शांति स्वरुप हैं अत: वह
मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो
प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें।
॥ इति वज्रसूचिका उपनिषद् समाप्त ॥
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