श्रीरामचरित मानस- लंकाकांड, मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम

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श्री रामचरित मानस

           षष्टम सोपान

          (लंकाकांड)

 

तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥

सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥

उसी रात त्रिजटा ने सीता के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनकर सीता के हृदय में बड़ा भय हुआ।

मुख मलीन उपजी मन चिंता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥

होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुःखदाता॥

(उनका) मुख उदास हो गया, मन में चिंता उत्पन्न हो गई। तब सीता त्रिजटा से बोलीं - हे माता! बताती क्यों नहीं? क्या होगा? संपूर्ण विश्व को दुःख देनेवाला यह किस प्रकार मरेगा?

रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई। बिधि बिपरीत चरित सब करई॥

मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौं हरि पद कमल बिछोही॥

रघुनाथ के बाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता। विधाता सारे चरित्र विपरीत (उलटे) ही कर रहा है। (सच बात तो यह है कि) मेरा दुर्भाग्य ही उसे जिला रहा है, जिसने मुझे भगवान के चरणकमलों से अलग कर दिया है।

जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥

जेहिं बिधि मोहि दुःख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥

जिसने कपट का झूठा स्वर्ण मृग बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर रूठा हुआ है, जिस विधाता ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और लक्ष्मण को कड़वे वचन कहलाए,

रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥

ऐसेहुँ दुःख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना॥

जो रघुनाथ के विरहरूपी बड़े विषैले बाणों से तक-तककर मुझे बहुत बार मारकर, अब भी मार रहा है; और ऐसे दुःख में भी जो मेरे प्राणों को रख रहा है, वही विधाता उस (रावण) को जिला रहा है, दूसरा कोई नहीं।

बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥

कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सुरारी॥

कृपानिधान राम की याद कर-करके जानकी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं। त्रिजटा ने कहा - हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा।

प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही॥

परंतु प्रभु उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते कि इसके हृदय में जानकी (आप) बसती हैं।

छं० - एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।

मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥

सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।

अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥

(वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। अतः रावण के हृदय में बाण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीता के मन में अत्यंत हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा - हे सुंदरी! महान संदेह का त्याग कर दो; अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा -

दो० - काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।

तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥ 99

सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान (अंतर्यामी) राम रावण के हृदय में बाण मारेंगे॥ 99

अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥

राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥

ऐसा कहकर और सीता को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। राम के स्वभाव का स्मरण करके जानकी को अत्यंत विरह व्यथा उत्पन्न हुई।

निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँति। जुग सम भई सिराति न राती॥

करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी॥

वे रात्रि की और चंद्रमा की बहुत प्रकार से निंदा कर रही हैं (और कह रही हैं -) रात युग के समान बड़ी हो गई, वह बीतती ही नहीं। जानकी राम के विरह में दुःखी होकर मन ही मन भारी विलाप कर रही हैं।

जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥

सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥

जब विरह के मारे हृदय में दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फड़क उठे। शकुन समझकर उन्होंने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु रघुवीर अवश्य मिलेंगे।

इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा।

सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही। धिग धिग अधम मंदमति तोही॥

यहाँ आधी रात को रावण (मूर्च्छा से) जगा और अपने सारथी पर रुष्ट होकर कहने लगा - अरे मूर्ख! तूने मुझे रणभूमि से अलग कर दिया। अरे अधम! अरे मंदबुद्धि! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है!

तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा॥

सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा॥

सारथी ने चरण पकड़कर रावण को बहुत प्रकार से समझाया। सबेरा होते ही वह रथ पर चढ़कर फिर दौड़ा। रावण का आना सुनकर वानरों की सेना में बड़ी खलबली मच गई।

जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥

वे भारी योद्धा जहाँ-तहाँ से पर्वत और वृक्ष उखाड़कर (क्रोध से) दाँत कटकटाकर दौड़े।

छं० - धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।

अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥

बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।

चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तन ब्याकुल कियो॥

विकट और विकराल वानर-भालू हाथों में पर्वत लिए दौड़े। वे अत्यंत क्रोध करके प्रहार करते हैं। उनके मारने से राक्षस भाग चले। बलवान वानरों ने शत्रु की सेना को विचलित करके फिर रावण को घेर लिया। चारों ओर से चपेटे मारकर और नखों से शरीर विदीर्ण कर वानरों ने उसको व्याकुल कर दिया॥

दो० - देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।

अंतरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥ 100

वानरों को बड़ा ही प्रबल देखकर रावण ने विचार किया और अंतर्धान होकर क्षणभर में उसने माया फैलाई॥ 100

छं० - जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥

बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥

जब उसने पाखंड (माया) रचा, तब भयंकर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए!

जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥

करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥

योगिनियाँ एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपड़ी लिए ताजा खून पीकर नाचने और बहुत तरह के गीत गाने लगीं।

धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥

मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥

वे 'पक़ड़ो, मारो' आदि घोर शब्द बोल रही हैं। चारों ओर (सब दिशाओं में) यह ध्वनि भर गई। वे मुख फैलाकर खाने दौड़ती हैं। तब वानर भागने लगे।

जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥

भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥

वानर भागकर जहाँ भी जाते हैं, वहीं आग जलती देखते हैं। वानर-भालू व्याकुल हो गए। फिर रावण बालू बरसाने लगा।

जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥

लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥

वानरों को जहाँ-तहाँ थकित (शिथिल) कर रावण फिर गरजा। लक्ष्मण और सुग्रीव सहित सभी वीर अचेत हो गए।

हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥

ऐहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥

हा राम! हा रघुनाथ! पुकारते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैं। इस प्रकार सब का बल तोड़कर रावण ने फिर दूसरी माया रची।

प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥

तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥

उसने बहुत-से हनुमान प्रकट किए, जो पत्थर लिए दौड़े। उन्होंने चारों ओर दल बनाकर राम को जा घेरा।

मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥

दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥

वे पूँछ उठाकर कटकटाते हुए पुकारने लगे, 'मारो, पकड़ो, जाने न पावे'। उनके लंगूर (पूँछ) दसों दिशाओं में शोभा दे रहे हैं और उनके बीच में कोसलराज राम हैं।

छं० - तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।

जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही॥

प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।

रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥

उनके बीच में कोसलराज का सुंदर श्याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल वृक्ष के लिए अनेक इंद्रधनुषों की श्रेष्ठ बाड़ (घेरा) बनाई गई हो। प्रभु को देखकर देवता हर्ष और विषादयुक्त हृदय से 'जय, जय, जय' ऐसा बोलने लगे। तब रघुवीर ने क्रोध करके एक ही बाण में निमेषमात्र में रावण की सारी माया हर ली।

माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।

सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥

श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।

सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥

माया दूर हो जाने पर वानर-भालू हर्षित हुए और वृक्ष तथा पर्वत ले-लेकर सब लौट पड़े। राम ने बाणों के समूह छोड़े, जिनसे रावण के हाथ और सिर फिर कट-कटकर पृथ्वी पर गिर पड़े। श्री राम और रावण के युद्ध का चरित्र यदि सैकड़ों शेष, सरस्वती, वेद और कवि अनेक कल्पों तक गाते रहें, तो भी उसका पार नहीं पा सकते।

दो० - ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास।

जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास॥ 101(क)॥

उसी चरित्र के कुछ गुणगण मंद बुद्धि तुलसीदास ने कहे हैं, जैसे मक्खी भी अपने पुरुषार्थ के अनुसार आकाश में उड़ती है॥ 101(क)॥

काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस।

प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥ 101(ख)॥

सिर और भुजाएँ बहुत बार काटी गईं। फिर भी वीर रावण मरता नहीं। प्रभु तो खेल कर रहे हैं; परंतु मुनि, सिद्ध और देवता उस क्लेश को देखकर (प्रभु को क्लेश पाते समझकर) व्याकुल हैं॥ 101(ख)॥

काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥

मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥

काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब राम ने विभीषण की ओर देखा।

उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥

सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥

(शिव कहते हैं -) हे उमा! जिसकी इच्छा मात्र से काल भी मर जाता है, वही प्रभु सेवक की प्रीति की परीक्षा ले रहे हैं। (विभीषण ने कहा -) हे सर्वज्ञ! हे चराचर के स्वामी! हे शरणागत के पालन करनेवाले! हे देवता और मुनियों को सुख देनेवाले! सुनिए -

नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥

सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥

इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है। विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु रघुनाथ ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए।

असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥

बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥

उस समय नाना प्रकार के अपशकुन होने लगे। बहुत-से गदहे, सियार और कुत्ते रोने लगे। जगत के दुःख (अशुभ) को सूचित करने के लिए पक्षी बोलने लगे। आकाश में जहाँ-तहाँ केतु (पुच्छल तारे) प्रकट हो गए।

दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥

मंदोदरि उर कंपति भारी। प्रतिमा स्रवहिं नयन मग बारी॥

दसों दिशाओं में अत्यंत दाह होने लगा (आग लगने लगी)। बिना ही पर्व (योग) के सूर्यग्रहण होने लगा। मंदोदरी का हृदय बहुत काँपने लगा। मूर्तियाँ नेत्र-मार्ग से जल बहाने लगीं।

छं० - प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।

बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥

उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहिं जय जए।

सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥

मूर्तियाँ रोने लगीं, आकाश से वज्रपात होने लगे, अत्यंत प्रचंड वायु बहने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूल की वर्षा करने लगे। इस प्रकार इतने अधिक अमंगल होने लगे कि उनको कौन कह सकता है? अपरिमित उत्पात देखकर आकाश में देवता व्याकुल होकर जय-जय पुकार उठे। देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु रघुनाथ धनुष पर बाण संधान करने लगे।

दो० - खैंचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।

रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥ 102

कानों तक धनुष को खींचकर रघुनाथ ने इकतीस बाण छोड़े। वे राम के बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों॥ 102

सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥

लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥

एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुंड (धड़) पृथ्वी पर नाचने लगा।

धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥

गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥

धड़ प्रचंड वेग से दौड़ता है, जिससे धरती धँसने लगी। तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। मरते समय रावण बड़े घोर शब्द से गरजकर बोला - राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!

डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥

धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥

रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई। समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा।

मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥

प्रबिसे सब निषंग महुँ जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई॥

रावण की भुजाओं और सिरों को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर राम थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए।

तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन॥

जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥

रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिव और ब्रह्मा हर्षित हुए। ब्रह्मांड भर में जय-जय की ध्वनि भर गई। प्रबल भुजदंडोंवाले रघुवीर की जय हो।

बरषहिं सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥

देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं - कृपालु की जय हो, मुकुंद की जय हो, जय हो!

छं० - जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।

खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥

सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।

संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही॥

हे कृपा के कंद! हे मोक्षदाता मुकुंद! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्वों के हरनेवाले! हे शरणागत को सुख देनेवाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करनेवाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करनेवाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमि में राम के अंगों ने बहुत-से कामदेवों की शोभा प्राप्त की।

सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।

जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥

भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।

जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥

सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच-बीच में अत्यंत मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशो‍भित हो रहे हैं। राम अपने भुजदंडों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर रुधिर के कण अत्यंत सुंदर लगते हैं। मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत-सी ललमुनियाँ चिड़ियाँ अपने महान सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों।

दो० - कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृंद।

भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकुंद॥ 103

प्रभु राम ने कृपादृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया। वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुंद की जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥ 103

पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥

जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥

पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई उठ दौड़ीं और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं।

पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥

उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥

पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं।

तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥

सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥

(वे कहती हैं -) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है!

बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥

भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥

वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो।

जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥

राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥

तुम्हारी प्रभुता जगत भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुंबियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। राम के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोनेवाला भी न रह गया।

तव बस बिधि प्रचंड सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥

अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥

हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किंतु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात उचित ही है)।

काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥

हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना।

छं० - जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।

जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥

आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।

तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥

दैत्यरूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात हरि को तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म राम ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ।

दो० - अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।

जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥ 104

अहह! नाथ! रघुनाथ के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान ने तुमको वह गति दी, जो योगिसमाज को भी दुर्लभ है॥ 104

मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥

अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥

मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थवादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहनेवाले) श्रेष्ठ मुनि थे।

भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी॥

रुदन करत देखीं सब नारी। गयउ बिभीषनु मनु दुःख भारी॥

वे सभी रघुनाथ को नेत्र भरकर निरखकर प्रेममग्न हो गए और अत्यंत सुखी हुए। अपने घर की सब स्त्रियों को रोती हुई देखकर विभीषण के मन में बड़ा भारी दुःख हुआ और वे उनके पास गए।

बंधु दसा बिलोकि दुःख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥

लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो॥

उन्होंने भाई की दशा देखकर दुःख किया। तब प्रभु राम ने छोटे भाई को आज्ञा दी (कि जाकर विभीषण को धैर्य बँधाओ)। लक्ष्मण ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया। तब विभीषण प्रभु के पास लौट आए।

कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥

कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी॥

प्रभु ने उनको कृपापूर्ण दृष्टि से देखा (और कहा -) सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टि क्रिया करो। प्रभु की आज्ञा मानकर और हृदय में देश और काल का विचार करके विभीषण ने विधिपूर्वक सब क्रिया की।

दो० - मंदोदरी आदि सब देह तिलांजलि ताहि।

भवन गईं रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥ 105

मंदोदरी आदि सब स्त्रियाँ उसे (रावण को) तिलांजलि देकर मन में रघुनाथ के गुणसमूहों का वर्णन करती हुई महल को गईं॥ 105

आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥

तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला॥

सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥

पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥

सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर पुनः सिर नवाया। तब कृपा के समुद्र राम ने छोटे भाई लक्ष्मण को बुलाया। रघुनाथ ने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अंगद, नल, नील जाम्बवान और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषण के साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। पिता के वचनों के कारण मैं नगर में नहीं आ सकता। पर अपने ही समान वानर और छोटे भाई को भेजता हूँ।

तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥

सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥

प्रभु के वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उन्होंने जाकर राजतिलक की सारी व्यवस्था की। आदर के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की।

जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥

तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे॥

सभी ने हाथ जोड़कर उनको सिर नवाए। तदनंतर विभीषण सहित सब प्रभु के पास आए। तब रघुवीर ने वानरों को बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया।

छं० - किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।

पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो॥

मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।

संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥

भगवान ने अमृत के समान यह वाणी कहकर सबको सुखी किया कि तुम्हारे ही बल से यह प्रबल शत्रु मारा गया और विभीषण ने राज्य पाया। इसके कारण तुम्हारा यश तीनों लोकों में नित्य नया बना रहेगा। जो लोग मेरे सहित तुम्हारी शुभ कीर्ति को परम प्रेम के साथ गाएँगे, वे बिना ही परिश्रम इस अपार संसार का पार पा जाएँगे।

दो० - प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज।

बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज॥ 106

प्रभु के वचन कानों से सुनकर वानर-समूह तृप्त नहीं होते। वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरण कमलों को पकड़ते हैं॥ 106

पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥

समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥

फिर प्रभु ने हनुमान को बुला लिया। भगवान ने कहा तुम लंका जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल-समाचार लेकर तुम चले आओ।

तब हनुमंत नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥

बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥

तब हनुमान नगर में आए। यह सुनकर राक्षस दौड़े। उन्होंने बहुत प्रकार से हनुमान की पूजा की और फिर जानकी को दिखला दिया।

दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥

कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥

हनुमान ने ( सीता को ) दूर से ही प्रणाम किया। जानकी ने पहचान लिया कि यह वही रघुनाथ का दूत है (और पूछा -) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे प्रभु छोटे भाई और वानरों की सेना सहित कुशल से तो हैं?

सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥

अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥

(हनुमान ने कहा -) हे माता! कोसलपति राम सब प्रकार से सकुशल हैं। उन्होंने संग्राम में दस सिरवाले रावण को जीत लिया है और विभीषण ने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमान के वचन सुनकर सीता के हृदय में हर्ष छा गया।

छं० - अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।

का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥

सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।

रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥

जानकी के हृदय में अत्यंत हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं हे हनुमान! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकों में और कुछ भी नहीं है! (हनुमान ने कहा -) हे माता! सुनिए, मैंने आज निःसंदेह सारे जगत का राज्य पा लिया, जो मैं रण में शत्रु को जीतकर भाई सहित निर्विकार राम को देख रहा हूँ।

दो० - सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत।

सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥ 107

(जानकी ने कहा -) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और हे हनुमान! शेष (लक्ष्मण) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझ पर प्रसन्न रहें॥ 107

अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥

तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥

हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब राम के पास जाकर हनुमान ने जानकी का कुशल समाचार सुनाया।

सुनि संदेसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥

मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥

सूर्य कुलभूषण राम ने संदेश सुनकर युवराज अंगद और विभीषण को बुला लिया (और कहा -) पवनपुत्र हनुमान के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ।

तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥

बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥

वे सब तुरंत ही वहाँ गए, जहाँ सीता थीं। सब-की-सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषण ने शीघ्र ही उन लोगों को समझा दिया। उन्होंने बहुत प्रकार से सीता को स्नान कराया,

बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥

ता पर हरषि चढ़ी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥

बहुत प्रकार के गहने पहनाए और फिर वे एक सुंदर पालकी सजाकर ले आए। सीता प्रसन्न होकर सुख के धाम प्रियतम राम का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढ़ीं।

बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥

देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥

चारों ओर हाथों में छड़ी लिए रक्षक चले। सबके मनों में परम उल्लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करने के लिए आए, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौड़े।

कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥

देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥

रघुवीर ने कहा हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माता की तरह देखें। गोसाईं राम ने हँसकर ऐसा कहा।

सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥

सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥

प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत-से फूल बरसाए। सीता (के असली स्वरूप) को पहले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी भगवान उनको प्रकट करना चाहते हैं।

दो० - तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।

सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥ 108

इसी कारण करुणा के भंडार राम ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हे सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥ 108

प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥

लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥

प्रभु के वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र सीता बोलीं - हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर्माचरण में सहायक) बनो और तुरंत आग तैयार करो।

सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी॥

लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥

सीता की विरह, विवेक, धर्म और नीति से सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मण के नेत्रों में जल भर आया। वे दोनों हाथ जोड़े खड़े रहे। वे भी प्रभु से कुछ कह नहीं सकते।

देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥

पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥

फिर राम का रुख देखकर लक्ष्मण दौड़े और आग तैयार करके बहुत-सी लकड़ी ले आए। अग्नि को खूब बढ़ी हुई देखकर जानकी के हृदय में हर्ष हुआ। उन्हें भय कुछ भी नहीं हुआ।

जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥

तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना॥

(सीता ने लीला से कहा -) यदि मन, वचन और कर्म से मेरे हृदय में रघुवीर को छोड़कर दूसरी गति (अन्य किसी का आश्रय) नहीं है, तो अग्निदेव जो सबके मन की गति जानते हैं, (मेरे भी मन की गति जानकर) मेरे लिए चंदन के समान शीतल हो जाएँ।

छं० - श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।

जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥

प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।

प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥

प्रभु राम का स्मरण करके और जिनके चरण महादेव के द्वारा वंदित हैं तथा जिनमें सीता की अत्यंत विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपति की जय बोलकर जानकी ने चंदन के समान शीतल हुई अग्नि में प्रवेश किया। प्रतिबिंब (सीता की छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलंक प्रचंद अग्नि में जल गए। प्रभु के इन चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाश में खड़े देखते हैं।

धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।

जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥

सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।

नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥

तब अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में और जगत में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीता) का हाथ पकड़ उन्हें राम को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु भगवान को लक्ष्मी समर्पित की थी। वे सीता राम के वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यंत ही सुंदर है। मानो नए खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो।

दो० - बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।

गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान॥ 109(क)॥

देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे। आकाश में डंके बजने लगे। किन्नर गाने लगे। विमानों पर चढ़ी अप्सराएँ नाचने लगीं॥ 109(क)॥

जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।

देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥ 109(ख)॥

जानकी सहित प्रभु राम की अपरिमित और अपार शोभा देखकर रीछ-वानर हर्षित हो गए और सुख के सार रघुनाथ की जय बोलने लगे॥ 109(ख)॥

तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥

आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥

तब रघुनाथ की आज्ञा पाकर इंद्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनंतर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानो बड़े परमार्थी हों।

दीन बंधु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥

बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥

हे दीनबंधु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! आपने देवताओं पर बड़ी दया की। विश्व के द्रोह में तत्पर यह दुष्ट, कामी और कुमार्ग पर चलनेवाला रावण अपने ही पाप से नष्ट हो गया।

तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥

अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥

आप समरूप, ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एकरस, स्वभाव से ही उदासीन (शत्रु-मित्र-भावरहित), अखंड, निर्गुण (मायिक गुणों से रहित), अजन्मे, निष्पाप, निर्विकार, अजेय, अमोघशक्ति (जिनकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती) और दयामय हैं।

मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥

जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥

आपने ही मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किए। हे नाथ! जब-जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेकों शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश किया।

यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही॥

अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरें मन बिसमय आवा॥

यह दुष्ट मलिन हृदय, देवताओं का नित्य शत्रु, काम, लोभ और मद के परायण तथा अत्यंत क्रोधी था। ऐसे अधमों के शिरोमणि ने भी आपका परम पद पा लिया। इस बात का हमारे मन में आश्चर्य हुआ।

हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥

भव प्रबाहँ संतत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥

हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरंतर भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पड़े हैं। अब हे प्रभो! हम आपकी शरण में आ गए हैं, हमारी रक्षा कीजिए।

दो० - करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।

अति सप्रेम तन पु‍लकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥ 110

विनती करके देवता और सिद्ध सब जहाँ-के-तहाँ हाथ जोड़े खड़े रहे। तब अत्यंत प्रेम से पुलकित शरीर होकर ब्रह्मा स्तुति करने लगे - ॥ 110

छं० - जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥

भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥

हे नित्य सुखधाम और (दुखों को हरनेवाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथ! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए सिंह के समान हैं। हे नाथ! हे सर्वव्यापक! आप गुणों के समुद्र और परम चतुर हैं।

तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी॥

जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥

आपके शरीर की अनेकों कामदेवों के समान, परंतु अनुपम छवि है। सिद्ध, मुनीश्वर और कवि आपके गुण गाते रहते हैं। आपका यश पवित्र है। आपने रावणरूपी महासर्प को गरुड़ की तरह क्रोध करके पकड़ लिया।

जन रंजन भंजन सोक भयं। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥

अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं॥

हे प्रभो! आप सेवकों को आनंद देनेवाले, शोक और भय का नाश करनेवाले, सदा क्रोधरहित और नित्य ज्ञान स्वरूप हैं। आपका अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुणोंवाला, पृथ्वी का भार उतारनेवाला और ज्ञान का समूह है।

अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥

रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा॥

(किंतु अवतार लेने पर भी) आप नित्य, अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वितीय) और अनादि हैं। हे करुणा की खान राम! मैं आपको बड़े ही हर्ष के साथ नमस्कार करता हूँ। हे रघुकुल के आभूषण! हे दूषण राक्षस को मारनेवाले तथा समस्त दोषों को हरनेवाले! विभिषण दीन था, उसे आपने (लंका का) राजा बना दिया।

गुन ध्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥

भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं। खल बृंद निकंद महा कुसलं॥

हे गुण और ज्ञान के भंडार! हे मानरहित! हे अजन्मा, व्यापक और मायिक विकारों से रहित राम! मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ। आपके भुजदंडों का प्रताप और बल प्रचंड है। दुष्ट समूह के नाश करने में आप परम निपुण हैं।

बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं॥

भव तारन कारन काज परं। मन संभव दारुन दोष हरं॥

हे बिना ही कारण दीनों पर दया तथा उनका हित करनेवाले और शोभा के धाम! मैं जानकी सहित आपको नमस्कार करता हूँ। आप भवसागर से तारनेवाले हैं, कारणरूपा प्रकृति और कार्यरूप जगत दोनों से परे हैं और मन से उत्पन्न होनेवाले कठिन दोषों को हरनेवाले हैं।

सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जलजारुन लोचन भूपबरं॥

सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं॥

आप मनोहर बाण, धनुष और तरकस धारण करनेवाले हैं। (लाल) कमल के समान रक्तवर्ण आपके नेत्र हैं। आप राजाओं में श्रेष्ठ, सुख के मंदिर, सुंदर, (लक्ष्मी) के वल्लभ तथा मद (अहंकार), काम और झूठी ममता के नाश करनेवाले हैं।

अनवद्य अखंड न गोचर गो। सब रूप सदा सब होइ न गो॥

इति बेद बदंति न दंतकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा॥

आप अनिंद्य या दोषरहित हैं, अखंड हैं, इंद्रियों के विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते हुए भी आप वह सब कभी हुए ही नहीं, ऐसा वेद कहते हैं। यह (कोई) दंतकथा (कोरी कल्पना) नहीं है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश अलग-अलग हैं और अलग नहीं भी हैं, वैसे ही आप भी संसार से भिन्न तथा अभिन्न दोनों ही हैं।

कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखंति तवानन सादर ए॥

धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥

हे व्यापक प्रभो! ये सब वानर कृतार्थ रूप हैं, जो आदरपूर्वक ये आपका मुख देख रहे हैं। (और) हे हरे! हमारे (अमर) जीवन और देव (दिव्य) शरीर को धिक्कार है, जो हम आपकी भक्ति से रहित हुए संसार में (सांसारिक विषयों में) भूले पड़े हैं।

अब दीनदयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥

जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुःख सो सुख मानि सुखी चरिऐ॥

हे दीनदयालु! अब दया कीजिए और मेरी उस विभेद उत्पन्न करनेवाली बुद्धि को हर लीजिए, जिससे मैं विपरीत कर्म करता हूँ और जो दुःख है, उसे सुख मानकर आनंद से विचरता हूँ।

खल खंडन मंडन रम्य छमा। पद पंकज सेवित संभु उमा॥

नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनांबुज प्रेमु सदा सुभदं॥

आप दुष्टों का खंडन करनेवाले और पृथ्वी के रमणीय आभूषण हैं। आपके चरण-कमल शिव-पार्वती द्वारा सेवित हैं। हे राजाओं के महाराज! मुझे यह वरदान दीजिए कि आपके चरण कमलों में सदा मेरा कल्याणदायक (अनन्य) प्रेम हो।

दो० - बिनय कीन्ह चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।

सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात॥ 111

इस प्रकार ब्रह्मा ने अत्यंत प्रेम-पुलकित शरीर से विनती की। शोभा के समुद्र राम के दर्शन करते-करते उनके नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे॥ 111

तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥

अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा॥

उसी समय दशरथ वहाँ आए। पुत्र (राम) को देखकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मण सहित प्रभु ने उनकी वंदना की और तब पिता ने उनको आशीर्वाद दिया।

तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ॥

सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी॥

(राम ने कहा -) हे तात! यह सब आपके पुण्यों का प्रभाव है, जो मैंने अजेय राक्षसराज को जीत लिया। पुत्र के वचन सुनकर उनकी प्रीति अत्यंत बढ़ गई। नेत्रों में जल छा गया और रोमावली खड़ी हो गई।

रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना॥

ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो॥

रघुनाथ ने पहले के (जीवित काल के) प्रेम को विचारकर, पिता की ओर देखकर ही उन्हें अपने स्वरूप का दृढ़ ज्ञान करा दिया। हे उमा! दशरथ ने भेद-भक्ति में अपना मन लगाया था, इसी से उन्होंने (कैवल्य) मोक्ष नहीं पाया।

सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥

बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा॥

सगुण स्वरूप की उपासना करनेवाले भक्त इस प्रकार मोक्ष लेते भी नहीं। उनको राम अपनी भक्ति देते हैं। प्रभु को (इष्टबुद्धि से) बार-बार प्रणाम करके दशरथ हर्षित होकर देवलोक को चले गए।

दो० - अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।

सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस॥ 112

छोटे भाई लक्ष्मण और जानकी सहित परम कुशल प्रभु कोसलाधीश की शोभा देखकर देवराज इंद्र मन में हर्षित होकर स्तुति करने लगे - ॥ 112

छं० - जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम॥

धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप॥

शोभा के धाम, शरणागत को विश्राम देनेवाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किए हुए, प्रबल प्रतापी भुजदंडोंवाले राम की जय हो!

जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि॥

यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल नाथ॥

हे खरदूषण के शत्रु और राक्षसों की सेना के मर्दन करनेवाले! आपकी जय हो! हे नाथ! आपने इस दुष्ट को मारा, जिससे सब देवता सनाथ (सुरक्षित) हो गए।

जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार॥

जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल॥

हे भूमि का भार हरनेवाले! हे अपार श्रेष्ठ महिमावाले! आपकी जय हो। हे रावण के शत्रु! हे कृपालु! आपकी जय हो। आपने राक्षसों को बेहाल (तहस-नहस) कर दिया।

लंकेस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गंधर्ब॥

मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पंथ सब कें लाग॥

लंकापति रावण को अपने बल का बहुत घमंड था। उसने देवता और गंधर्व सभी को अपने वश में कर लिया था और वह मुनि, सिद्ध, मनुष्य, पक्षी और नाग आदि सभी के हठपूर्वक (हाथ धोकर) पीछे पड़ गया था।

परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट॥

अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल॥

वह दूसरों से द्रोह करने में तत्पर और अत्यंत दुष्ट था। उस पापी ने वैसा ही फल पाया। अब हे दीनों पर दया करनेवाले! हे कमल के समान विशाल नेत्रोंवाले! सुनिए।

मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान॥

अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुःख पुंज॥

मुझे अत्यंत अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है, पर अब प्रभु (आप) के चरण कमलों के दर्शन करने से दुःख-समूह का देनेवाला मेरा वह अभिमान जाता रहा।

कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव॥

मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप॥

कोई उन निर्गुन ब्रह्म का ध्यान करते हैं जिन्हें वेद अव्यक्त (निराकार) कहते हैं। परंतु हे श्री राम! मुझे तो आपका यह सगुण कोसलराज-स्वरूप ही प्रिय लगता है।

बै‍देहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत॥

मोहि जानिऐ निज दास। दे भक्ति रमानिवास॥

जानकी और छोटे भाई लक्ष्मण सहित मेरे हृदय में अपना घर बनाइए। हे रमानिवास! मुझे अपना दास समझिए और अपनी भक्ति दीजिए।

छं० - दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।

सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं॥

सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुजतनु अतुलितबलं।

ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं॥

हे रमानिवास! हे शरणागत के भय को हरनेवाले और उसे सब प्रकार का सुख देनेवाले! मुझे अपनी भक्ति दीजिए। हे सुख के धाम! हे अनेकों कामदेवों की छविवाले रघुकुल के स्वामी राम! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे देवसमूह को आनंद देनेवाले, (जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख आदि) द्वंद्वों के नाश करनेवाले, मनुष्य शरीरधारी, अतुलनीय बलवाले, ब्रह्मा और शिव आदि से सेवनीय, करुणा से कोमल राम! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

दो० - अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।

काह करौं सुनि ‍प्रिय बचन बोले दीनदयाल॥ 113

हे कृपालु! अब मेरी ओर कृपा करके (कृपा दृष्टि से) देखकर आज्ञा दीजिए कि मैं क्या (सेवा) करूँ! इंद्र के ये प्रिय वचन सुनकर दीनदयालु राम बोले॥ 113

सुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे॥

मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना॥

हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पड़े हैं। इन्होंने मेरे हित के लिए अपने प्राण त्याग दिए। हे सुजान देवराज! इन सबको जिला दो।

सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥

प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई॥

(काकभुशुंडि कहते हैं -) हे गरुड़! सुनिए प्रभु के ये वचन अत्यंत गहन (गूढ़) हैं। ज्ञानी मुनि ही इन्हें जान सकते हैं। प्रभु राम त्रिलोकी को मारकर जिला सकते हैं। यहाँ तो उन्होंने केवल इंद्र को बड़ाई दी है।

सुधा बरषि कपि भालु जियाए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए॥

सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर॥

इंद्र ने अमृत बरसाकर वानर-भालूओं को जिला दिया। सब ‍हर्षित होकर उठे और प्रभु के पास आए। अमृत की वर्षा दोनों ही दलों पर हुई। पर रीछ-वानर ही जीवित हुए, राक्षस नहीं।

रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए छूट भव बंधन॥

सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा॥

क्योंकि राक्षस के मन तो मरते समय रामाकार हो गए थे। अत वे मुक्त हो गए, उनके भव-बंधन छूट गए। किंतु वानर और भालू तो सब देवांश (भगवान की लीला के परिकर) थे। इसलिए वे सब रघुनाथ की इच्छा से जीवित हो गए।

राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी॥

खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न॥

राम के समान दीनों का हित करनेवाला कौन है? जिन्होंने सारे राक्षसों को मुक्त कर दिया! दुष्ट, पापों के घर और कामी रावण ने भी वह गति पाई जिसे श्रेष्ठ मुनि भी नहीं पाते।

दो० - सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान।

देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान॥ 114(क)॥

फूलों की वर्षा करके सब देवता सुंदर विमानों पर चढ़-चढ़कर चले। तब सुअवसर जानकर सुजान शिव प्रभु राम के पास आए - ॥ 114(क)॥

परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।

पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि॥ 114(ख)॥

और परम प्रेम से दोनों हाथ जोड़कर, कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, पुलकित शरीर और गद्गुद्‍ वाणी से त्रिपुरारी शिव विनती करने लगे - ॥ 114(ख)॥

छं० - मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥

मोह महा घन पटल प्रभंजन। संसय बिपिन अनल सुर रंजन॥

हे रघुकुल के स्वामी! सुंदर हाथों में श्रेष्ठ धनुष और सुंदर बाण धारण किए हुए आप मेरी रक्षा कीजिए। आप महामोहरूपी मेघसमूह के (उड़ाने के) लिए प्रचंड पवन हैं, संशयरूपी वन के (भस्म करने के) लिए अग्नि हैं और देवताओं को आनंद देनेवाले हैं।

अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥

काम क्रोध मद गज पंचानन। बसहु निरंतर जन मन कानन॥

आप निर्गुण, सगुण, दिव्य गुणों के धाम और परम सुंदर हैं। भ्रमरूपी अंधकार के (नाश के) लिए प्रबल प्रतापी सूर्य हैं। काम, क्रोध और मदरूपी हाथियों के (वध के) लिए सिंह के समान आप इस सेवक के मनरूपी वन में निरंतर वास कीजिए।

बिषय मनोरथ पुंज कंज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥

भव बारिधि मंदर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर॥

विषयकामनाओं के समूहरूपी कमलवन के (नाश के) लिए आप प्रबल पाला हैं, आप उदार और मन से परे हैं। भवसागर (को मथने) के लिए आप मंदराचल पर्वत हैं। आप हमारे परम भय को दूर कीजिए और हमें दुस्तर संसार सागर से पार कीजिए।

स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बंधु प्रनतारति मोचन॥

अनुज जानकी सहित निरंतर। बसहु राम नृप मम उर अंतर॥

मुनि रंजन महि मंडल मंडन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन॥

हे श्यामसुंदर-शरीर! हे कमलनयन! हे दीनबंधु! हे शरणागत को दुःख से छुड़ानेवाले! हे राजा राम! आप छोटे भाई लक्ष्मण और जानकी सहित निरंतर मेरे हृदय के अंदर निवास कीजिए। आप मुनियों को आनंद देनेवाले, पृथ्वीमंडल के भूषण, तुलसीदास के प्रभु और भय का नाश करनेवाले हैं।

दो० - नाथ जबहिं कोसलपुरीं हो‍इहि तिलक तुम्हार।

कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार॥ 115

हे नाथ! जब अयोध्यापुरी में आपका राजतिलक होगा, तब हे कृपासागर! मैं आपकी उदार लीला देखने आऊँगा॥ 115

करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥

नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥

जब शिव विनती करके चले गए, तब विभीषण प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कोमल वाणी से बोले - हे शार्गंधनुष के धारण करनेवाले प्रभो! मेरी विनती सुनिए -

सकुल सदल प्रभु रावन मार्‌यो। पावन जस त्रिभुवन विस्तार्‌यो॥

दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥

आपने कुल और सेना सहित रावण का वध किया, त्रिभुवन में अपना पवित्र यश फैलाया और मुझ दीन, पापी, बुद्धिहीन और जातिहीन पर बहुत प्रकार से कृपा की।

अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे॥

देखि कोस मंदिर संपदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा॥

अब हे प्रभु! इस दास के घर को पवित्र कीजिए और वहाँ चलकर स्नान कीजिए, जिससे युद्ध की थकावट दूर हो जाए। हे कृपालु! खजाना, महल और संपत्ति का निरीक्षण कर प्रसन्नतापूर्वक वानरों को दीजिए।

सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥

सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥

हे नाथ! मुझे सब प्रकार से अपना लीजिए और फिर हे प्रभो! मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरी को पधारिए। विभीषण के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु प्रभु के दोनों विशाल नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया।

दो० - तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।

भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥ 116(क)॥

(राम ने कहा -) हे भाई! सुनो, तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह सच बात है। पर भरत की दशा याद करके मुझे एक-एक पल कल्प के समान बीत रहा है॥ 116(क)॥

तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि।

देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि॥ 116(ख)॥

तपस्वी के वेष में कृश (दुबले) शरीर से निरंतर मेरा नाम जप कर रहे हैं। हे सखा! वही उपाय करो जिससे मैं जल्दी-से-जल्दी उन्हें देख सकूँ। मैं तुमसे निहोरा (अनुरोध) करता हूँ॥ 116(ख)॥

बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।

सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर॥ 116(ग)॥

यदि अवधि बीत जाने पर जाता हूँ तो भाई को जीता न पाऊँगा। छोटे भाई भरत की प्रीति का स्मरण करके प्रभु का शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥ 166(ग)॥

करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं।

पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं॥ 116(घ)॥

(राम ने फिर कहा -) हे विभीषण! तुम कल्पभर राज्य करना, मन में मेरा निरंतर स्मरण करते रहना। फिर तुम मेरे उस धाम को पा जाओगे, जहाँ सब संत जाते हैं॥ 116(घ)॥

सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के॥

बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥

राम के वचन सुनते ही विभीषण ने हर्षित होकर कृपा के धाम राम के चरण पकड़ लिए। सभी वानर-भालू हर्षित हो गए और प्रभु के चरण पकड़कर उनके निर्मल गुणों का बखान करने लगे।

बहुरि विभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो॥

लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा॥

फिर विभीषण महल को गए और उन्होंने मणियों के समूहों (रत्नों) से और वस्त्रों से विमान को भर लिया। फिर उस पुष्पक विमान को लाकर प्रभु के सामने रखा। तब कृपासागर राम ने हँसकर कहा -

चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥

नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अंबर सबही॥

हे सखा विभीषण! सुनो, विमान पर चढ़कर, आकाश में जाकर वस्त्रों और गहनों को बरसा दो। तब (आज्ञा सुनते) ही विभीषण ने आकाश में जाकर सब मणियों और वस्त्रों को बरसा दिया।

जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं॥

हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता॥

जिसके मन को जो अच्छा लगता है, वह वही ले लेता है। मणियों को मुँह में लेकर वानर फिर उन्हें खाने की चीज न समझकर उगल देते हैं। यह तमाशा देखकर परम विनोदी और कृपा के धाम राम, श्री (सीता) और लक्ष्मण सहित हँसने लगे।

दो० - मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।

कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद॥ 117(क)॥

जिनको मुनि ध्यान में भी नहीं पाते, जिन्हें वेद नेति-नेति कहते हैं, वे ही कृपा के समुद्र राम वानरों के साथ अनेकों प्रकार के विनोद कर रहे हैं॥ 117(क)॥

उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।

राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥ 117(ख)॥

(शिव कहते हैं -) हे उमा! अनेकों प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करने पर भी राम वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं॥ 117(ख)॥

भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥

नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥

भालूओं और वानरों ने कपड़े-गहने पाए और उन्हें पहन-पहनकर वे रघुनाथ के पास आए। अनेकों जातियों के वानरों को देखकर कोसलपति राम बार-बार हँस रहे हैं।

चितइ सबन्हि पर कीन्ही दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया॥

तुम्हरें बल मैं रावनु मार्‌यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार्‌यो॥

रघुनाथ ने कृपा दृष्टि से देखकर सब पर दया की। फिर वे कोमल वचन बोले - हे भाइयो! तुम्हारे ही बल से मैंने रावण को मारा और फिर विभीषण का राजतिलक किया।

निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥

सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर॥

अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा स्मरण करते रहना और किसी से डरना नहीं। ये वचन सुनते ही सब वानर प्रेम में विह्वल होकर हाथ जोड़कर आदरपूर्वक बोले -

प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरें होत बचन सुनि मोहा॥

दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा॥

प्रभो! आप जो कुछ भी कहें, आपको सब सोहता है। पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है। हे रघुनाथ! आप तीनों लोकों के ईश्वर हैं। हम वानरों को दीन जानकर ही आपने सनाथ (कृतार्थ) किया है।

सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं॥

देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा॥

प्रभु के (ऐसे) वचन सुनकर हम लाज के मारे मरे जा रहे हैं। कहीं मच्छर भी गरुड़ का हित कर सकते हैं? राम का रुख देखकर रीछ-वानर प्रेम में मग्न हो गए। उनकी घर जाने की इच्छा नहीं है।

दो० - प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।

हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥ 118(क)॥

परंतु प्रभु की प्रेरणा (आज्ञा) से सब वानर-भालू राम के रूप को हृदय में रखकर और अनेकों प्रकार से विनती करके हर्ष और विषाद सहित घर को चले॥ 118(क)॥

कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान।

सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥ 118(ख)॥

वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान, अंगद, नल और हनुमान तथा विभीषण सहित और जो बलवान वानर सेनापति हैं,118(ख)॥

कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि॥

सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥ 118(ग)॥

वे कुछ कह नहीं सकते; प्रेमवश नेत्रों में जल भर-भरकर, नेत्रों का पलक मारना छोड़कर (टकटकी लगाए) सम्मुख होकर राम की ओर देख रहे हैं॥ 118(ग)॥

अतिसय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥

मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥

रघुनाथ ने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमान पर चढ़ा लिया। तदनंतर मन-ही-मन विप्रचरणों में सिर नवाकर उत्तर दिशा की ओर विमान चलाया।

चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥

सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥

विमान के चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई रघुवीर की जय कह रहे हैं। विमान में एक अत्यंत ऊँचा मनोहर सिंहासन है। उस पर श्री (सीता) सहित प्रभु राम विराजमान हो गए।

राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृंग जनु घन दामिनी॥

रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥

पत्नी सहित राम ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सुमेरु के शिखर पर बिजली सहित श्याम मेघ हो। सुंदर विमान बड़ी शीघ्रता से चला। देवता हर्षित हुए और उन्होंने फूलों की वर्षा की।

परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी॥

सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥

अत्यंत सुख देनेवाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) वायु चलने लगी। समुद्र, तालाब और नदियों का जल निर्मल हो गया। चारों ओर सुंदर शकुन होने लगे। सबके मन प्रसन्न हैं, आकाश और दिशाएँ निर्मल हैं।

कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता॥

हनूमान अंगद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे॥

रघुवीर ने कहा - हे सीते! रणभूमि देखो। लक्ष्मण ने यहाँ इंद्र को जीतनेवाले मेघनाद को मारा था। हनुमान और अंगद के मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर रणभूमि में पड़े हैं।

कुंभकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुःखदाई॥

देवताओं और मुनियों को दुःख देनेवाले कुंभकर्ण और रावण दोनों भाई यहाँ मारे गए।

दो० - इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम।

सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥ 119(क)॥

मैंने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम शिव की स्थापना की। तदनंतर कृपानिधान राम ने सीता सहित रामेश्वर महादेव को प्रणाम किया॥ 119(क)॥

जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम।

सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥ 119(ख)॥

वन में जहाँ-तहाँ करुणा सागर राम ने निवास और विश्राम किया था, वे सब स्थान प्रभु ने जानकी को दिखलाए और सबके नाम बतलाए॥ 119(ख)॥

तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा॥

कुंभजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना॥

विमान शीघ्र ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुंदर दंडकवन था और अगस्त्य आदि बहुत-से मुनिराज रहते थे। राम इन सबके स्थानों में गए।

सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा॥

तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा॥

संपूर्ण ऋषियों से आशीर्वाद पाकर जगदीश्वर राम चित्रकूट आए। वहाँ मुनियों को संतुष्ट किया। (फिर) विमान वहाँ से आगे तेजी के साथ चला।

बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥

पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता॥

फिर राम ने जानकी को कलियुग के पापों का हरण करनेवाली सुहावनी यमुना के दर्शन कराए। फिर पवित्र गंगा के दर्शन किए। राम ने कहा - हे सीते! इन्हें प्रणाम करो।

तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥

देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी॥

पुनि देखु अवधपुरि अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥

फिर तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन से ही करोड़ों जन्मों के पाप भाग जाते हैं। फिर परम पवित्र त्रिवेणी के दर्शन करो, जो शोकों को हरनेवाली और हरि के परम धाम (पहुँचने) के लिए सीढ़ी के समान है। फिर अत्यंत पवित्र अयोध्यापुरी के दर्शन करो, जो तीनों प्रकार के तापों और भव (आवागमनरूपी) रोग का नाश करनेवाली है।

दो० - सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।

सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥ 120(क)॥

यों कहकर कृपालु राम ने सीता सहित अवधपुरी को प्रणाम किया। सजल नेत्र और पुलकित शरीर होकर राम बार-बार हर्षित हो रहे हैं॥ 120(क)॥

पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।

कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥ 120(ख)॥

फिर त्रिवेणी में आकर प्रभु ने हर्षित होकर स्नान किया और वानरों सहित ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए॥ 120(ख)॥

प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥

भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥

तदनंतर प्रभु ने हनुमान को समझाकर कहा - तुम ब्रह्मचारी का रूप धरकर अवधपुरी को जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना।

तुरत पवनसुत गवनत भयऊ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥

नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥

पवनपुत्र हनुमान तुरंत ही चल दिए। तब प्रभु भरद्वाज के पास गए। मुनि ने (इष्ट बुद्धि से) उनकी अनेकों प्रकार से पूजा की और स्तुति की और फिर (लीला की दृष्टि से) आशीर्वाद दिया।

मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी। चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी॥

इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥

दोनों हाथ जोड़कर तथा मुनि के चरणों की वंदना करके प्रभु विमान पर चढ़कर फिर (आगे) चले। यहाँ जब निषादराज ने सुना कि प्रभु आ गए, तब उसने 'नाव कहाँ है? नाव कहाँ है?' पुकारते हुए लोगों को बुलाया।

सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥

तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥

इतने में ही विमान गंगा को लाँघकर (इस पार) आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर वह किनारे पर उतरा। तब सीता बहुत प्रकार से गंगा की पूजा करके फिर उनके चरणों पर गिरीं।

दीन्हि असीस हरषि मन गंगा। सुंदरि तव अहिवात अभंगा॥

सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख संकुल॥

गंगा ने मन में हर्षित होकर आशीर्वाद दिया - हे सुंदरी! तुम्हारा सुहाग अखंड हो। भगवान के तट पर उतरने की बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेम में विह्वल होकर दौड़ा। परम सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया,

प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥

प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥

और जानकी सहित प्रभु को देखकर वह (आनंद-समाधि में मग्न होकर) पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे शरीर की सुधि न रही। रघुनाथ ने उसका परम प्रेम देखकर उसे उठाकर हर्ष के साथ हृदय से लगा लिया।

छं० - लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापति।

बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥

अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे।

सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥

सुजानों के राजा (शिरोमणि), लक्ष्मीकांत, कृपानिधान भगवान ने उसको हृदय से लगा लिया और अत्यंत निकट बैठकर कुशल पूछी। वह विनती करने लगा - आपके जो चरणकमल ब्रह्मा और शंकर से सेवित हैं, उनके दर्शन करके मैं अब सकुशल हूँ। हे सुखधाम! हे पूर्णकाम राम! मैं आपको नमस्कार करता हूँ, नमस्कार करता हूँ।

सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।

मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥

यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।

कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥

सब प्रकार से नीच उस निषाद को भगवान ने भरत की भाँति हृदय से लगा लिया। तुलसीदास कहते हैं - इस मंदबुद्धि ने (मैंने) मोहवश उस प्रभु को भुला दिया। रावण के शत्रु का यह पवित्र करनेवाला चरित्र सदा ही राम के चरणों में प्रीति उत्पन्न करनेवाला है। यह कामादि विकारों को हरनेवाला और (भगवान के स्वरूप का) विशेष ज्ञान उत्पन्न करनेवाला है। देवता, सिद्ध और मुनि आनंदित होकर इसे गाते हैं।

दो० - समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।

बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥ 121(क)॥

जो सुजान लोग रघुवीर की समर विजय संबंधी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥ 121(क)॥

यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार।

श्री रघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार॥ 121(ख)॥

अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर है। इसमें श्री रघुनाथ के नाम को छोड़कर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है॥ 121(ख)॥

 

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः।

कलियुग के समस्त पापों का नाश करनेवाले श्री रामचरितमानस का यह छठा सोपान समाप्त हुआ। (लंकाकांड समाप्त)

श्री राम चरित मानस- लंकाकांड, मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम समाप्त॥

शेष जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- उत्तरकांड मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम

पूर्व पढ़े- रामचरितमानस लंकाकांड, मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम

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