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रामचरित मानस
षष्टम सोपान
(लंकाकांड)
कालरूप खल बन
दहन गुनागार घनबोध।
सिव बिरंचि
जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध॥ 48(ख)॥
जो कालस्वरूप
हैं,
दुष्टों के समूहरूपी वन के भस्म करनेवाले (अग्नि) हैं,
गुणों के धाम और ज्ञानघन हैं एवं शिव और ब्रह्मा भी जिनकी
सेवा करते हैं, उनसे वैर कैसा?॥ 48(ख)॥
परिहरि बयरु
देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही॥
ताके बचन बान
सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे॥
(अतः) वैर छोड़कर उन्हें जानकी को दे दो और कृपानिधान परम स्नेही राम का भजन
करो। रावण को उसके वचन बाण के समान लगे। (वह बोला -) अरे अभागे! मुँह काला करके
(यहाँ से) निकल जा।
बूढ़ भएसि न त
मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही॥
तेहिं अपने मन
अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना॥
तू बूढ़ा हो
गया,
नहीं तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आँखों को अपना मुँह न
दिखला। रावण के ये वचन सुनकर उसने (माल्यवान ने) अपने मन में ऐसा अनुमान किया कि
इसे कृपानिधान राम अब मारना ही चाहते हैं।
सो उठि गयउ
कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा॥
कौतुक प्रात
देखिअहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा॥
वह रावण को
दुर्वचन कहता हुआ उठकर चला गया। तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला - सबेरे मेरी करामात
देखना। मैं बहुत कुछ करूँगा; थोड़ा क्या कहूँ? (जो कुछ वर्णन करूँगा थोड़ा ही होगा।)
सुनि सुत बचन
भरोसा आवा। प्रीति समेत अंक बैठावा॥
करत बिचार भयउ
भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा॥
पुत्र के वचन
सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने प्रेम के साथ उसे गोद में बैठा लिया। विचार
करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर फिर चारों दरवाजों पर जा लगे।
कोपि कपिन्ह
दुर्घट गढ़ु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥
बिबिधायुध धर
निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए॥
वानरों ने
क्रोध करके दुर्गम किले को घेर लिया। नगर में बहुत ही कोलाहल (शोर) मच गया। राक्षस
बहुत तरह के अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौड़े और उन्होंने किले पर पहाड़ों के शिखर
ढहाए।
छं० - ढाहे
महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि
पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले॥
मर्कट बिकट भट
जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि
गढ़ पर चलावहि जहँ सो तहँ निसिचर हए॥
उन्होंने
पर्वतों के करोड़ों शिखर ढहाए, अनेक प्रकार से गोले चलने लगे। वे गोले ऐसा घहराते हैं जैसे
वज्रपात हुआ हो (बिजली गिरी हो) और योद्धा ऐसे गरजते हैं,
मानो प्रलयकाल के बादल हों। विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं,
कट जाते हैं (घायल हो जाते हैं),
उनके शरीर जर्जर (चलनी) हो जाते हैं,
तब भी वे लटते नहीं (हिम्मत नहीं हारते)। वे पहाड़ उठाकर
उसे किले पर फेंकते हैं। राक्षस जहाँ के तहाँ (जो जहाँ होते हैं,
वहीं) मारे जाते हैं।
दो० - मेघनाद
सुनि श्रवन अस गढु पुनि छेंका आइ।
उतर्यो बीर
दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ॥ 49॥
मेघनाद ने
कानों से ऐसा सुना कि वानरों ने आकर फिर किले को घेर लिया है। तब वह वीर किले से
उतरा और डंका बजाकर उनके सामने चला॥ 49॥
कहँ कोसलाधीस
द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता॥
कहँ नल नील
दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा॥
(मेघनाद ने पुकारकर कहा -) समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों
भाई कहाँ हैं? नल,
नील, द्विविद, सुग्रीव और बल की सीमा अंगद और हनुमान कहाँ हैं?
कहाँ बिभीषनु
भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही॥
अस कहि कठिन
बान संधाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने॥
भाई से द्रोह
करनेवाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्ट को तो हठपूर्वक (अवश्य ही)
मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुष पर कठिन बाणों का संधान किया और अत्यंत क्रोध करके
उसे कान तक खींचा।
सर समूह सो
छाड़ै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥
जहँ तहँ परत
देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर॥
वह बाणों के
समूह छोड़ने लगा। मानो बहुत-से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे हों। जहाँ-तहाँ वानर
गिरते दिखाई पड़ने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके।
जहँ तहँ भागि
चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा॥
सो कपि भालु न
रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा॥
रीछ-वानर
जहाँ-तहाँ भाग चले। सबको युद्ध की इच्छा भूल गई। रणभूमि में ऐसा एक भी वानर या
भालू नहीं दिखाई पड़ा, जिसको उसने प्राणमात्र अवशेष न कर दिया हो (अर्थात जिसके
केवल प्राणमात्र ही न बचे हों; बल, पुरुषार्थ सारा जाता न रहा हो)।
दो० - दस दस
सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि
गर्जा मेघनाद बल धीर॥ 50॥
फिर उसने सबको
दस-दस बाण मारे, वानर वीर पृथ्वी पर गिर पड़े। बलवान और धीर मेघनाद सिंह के समान नाद करके
गरजने लगा॥ 50॥
देखि पवनसुत
कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला॥
महासैल एक
तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा॥
सारी सेना को
बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़
आता हो। उन्होंने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ लिया और बड़े ही क्रोध के साथ
उसे मेघनाद पर छोड़ा।
आवत देखि गयउ
नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई॥
बार बार पचार
हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना॥
पहाड़ को अपनी
ओर आते देखकर वह आकाश में उड़ गया। (उसके) रथ, सारथी और घोड़े सब नष्ट हो गए (चूर-चूर हो गए)। हनुमान उसे
बार-बार ललकारते हैं। पर वह निकट नहीं आता, क्योंकि वह उनके बल का मर्म जानता था।
रघुपति निकट
गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥
अस्त्र सस्त्र
आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥
(तब) मेघनाद रघुनाथ के पास गया और उसने (उनके प्रति) अनेकों प्रकार के
दुर्वचनों का प्रयोग किया। (फिर) उसने उन पर अस्त्र-शस्त्र तथा और सब हथियार चलाए।
प्रभु ने खेल में ही सबको काटकर अलग कर दिया।
देखि प्रताप
मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना॥
जिमि कोउ करै
गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥
राम का प्रताप
(सामर्थ्य) देखकर वह मूर्ख लज्जित हो गया और अनेकों प्रकार की माया करने लगा। जैसे
कोई व्यक्ति छोटा-सा साँप का बच्चा हाथ में लेकर गरुड़ को डरावे और उससे खेल करे।
दो० - जासु
प्रबल माया बस सिव बिरंचि बड़ छोट।
ताहि दिखावइ
निसिचर निज माया मति खोट॥ 51॥
शिव और
ब्रह्मा तक बड़े-छोटे (सभी) जिनकी अत्यंत बलवान माया के वश में हैं,
नीच बुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है॥ 51॥
नभ चढ़ि बरष
बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति
पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥
आकाश में
(ऊँचे) चढ़कर वह बहुत-से अंगारे बरसाने लगा। पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने
लगीं। अनेक प्रकार के पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर 'मारो, काटो' की आवाज करने लगीं।
बिष्टा पूय
रुधिर कच हाड़ा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥
बरषि धूरि
कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥
वह कभी तो
विष्ठा,
पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत-से पत्थर फेंक देता
था। फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता
था।
कपि अकुलाने
माया देखें। सब कर मरन बना ऐहि लेखें॥
कौतुक देखि
राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥
माया देखकर
वानर अकुला उठे। वे सोचने लगे कि इस हिसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना। यह
कौतुक देखकर राम मुसकराए। उन्होंने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गए हैं।
एक बान काटी
सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥
कृपादृष्टि
कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥
तब राम ने एक
ही बाण से सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अंधकार के समूह को हर लेता है। तदनंतर उन्होंने
कृपाभरी दृष्टि से वानर-भालुओं की ओर देखा, (जिससे) वे ऐसे प्रबल हो गए कि रण में रोकने पर भी नहीं
रुकते थे।
दो० - आयसु
मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले
क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥ 52॥
राम से आज्ञा
माँगकर,
अंगद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए लक्ष्मण
क्रुद्ध होकर चले॥ 52॥
छतज नयन उर
बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन
सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥
उनके लाल
नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर
कुछ ललाई लिए हुए है। इधर रावण ने भी बड़े-बड़े योद्धा भेजे,
जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े।
भूधर नख
बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल
जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥
पर्वत,
नख और वृक्षरूपी हथियार धारण किए हुए वानर 'राम की जय' पुकारकर दौड़े। वानर और राक्षस सब जोड़ी से जोड़ी भिड़ गए।
इधर और उधर दोनों ओर जय की इच्छा कम न थी (अर्थात प्रबल थी)।
मुठिकन्ह
लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥
मारु मारु धरु
धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥
वानर उनको
घूँसों और लातों से मारते हैं, दाँतों से काटते हैं। विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते
भी हैं। 'मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, सिर तोड़ दो और भुजाऐँ पकड़कर उखाड़ लो'।
असि रव पूरि
रही नव खंडा। धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥
देखहिं कौतुक
नभ सुर बृंदा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा॥
नवों खंडों
में ऐसी आवाज भर रही है। प्रचंड रुंड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे हैं। आकाश में
देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनंद।
दो० - रुधिर
गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।
जनु अँगार
रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥ 53॥
खून गड्ढों
में भर-भरकर जम गया है और उस पर धूल उड़कर पड़ रही है (वह दृश्य ऐसा है) मानो
अंगारों के ढेरों पर राख छा रही हो॥ 53॥
घायल बीर
बिराजहिं कैसे। कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद
द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥
घायल वीर कैसे
शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलाश के पेड़। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यंत क्रोध
करके एक-दूसरे से भिड़ते हैं।
एकहि एक सकइ
नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवंत तब
भयउ अनंता। भंजेउ रथ सारथी तुरंता॥
एक-दूसरे को
(कोई किसी को) जीत नहीं सकता। राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है,
तब भगवान अनंत (लक्ष्मण) क्रोधित हुए और उन्होंने तुरंत
उसके रथ को तोड़ डाला और सारथी को टुकड़े-टुकड़े कर दिए!
नाना बिधि
प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज
मन अनुमाना। संकठ भयउ हरिहि मम प्राना॥
शेष (लक्ष्मण)
उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे। राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए। रावणपुत्र
मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण संकट आ बना,
ये मेरे प्राण हर लेंगे।
बीरघातिनी
छाड़िसि साँगी। तेजपुंज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई
सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥
तब उसने
वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मण की छाती में लगी। शक्ति लगने से
उन्हें मूर्च्छा आ गई। तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया।
दो० - मेघनाद
सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष
किमि उठै चले खिसिआइ॥ 54॥
मेघनाद के
समान सौ करोड़ (अगणित) योद्धा उन्हें उठा रहे हैं, परंतु जगत के आधार शेष (लक्ष्मण) उनसे कैसे उठते?
तब वे लजाकर चले गए॥ 54॥
सुनु गिरिजा
क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥
सक संग्राम
जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥
(शिव कहते हैं -) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों
भुवनों को तुरंत ही जला डालती है और देवता, मनुष्य तथा समस्त चराचर (जीव) जिनकी सेवा करते हैं,
उनको संग्राम में कौन जीत सकता है?
यह कौतूहल
जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई॥
संध्या भय
फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी॥
इस लीला को
वही जान सकता है, जिस पर राम की कृपा हो। संध्या होने पर दोनों ओर की सेनाएँ
लौट पड़ीं, सेनापति अपनी-अपनी सेनाएँ सँभालने लगे।
व्यापक ब्रह्म
अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ
हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुःख माना॥
व्यापक,
ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान राम ने पूछा -
लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर
प्रभु ने बहुत ही दुःख माना।
जामवंत कह बैद
सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥
धरि लघु रूप
गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता॥
जाम्बवान ने
कहा - लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए?
हनुमान छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही
उठा लाए।
दो० - राम
पदारबिंद सिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि
औषधी जाहु पवनसुत लेन॥ 55॥
सुषेण ने आकर
राम के चरणारविंदों में सिर नवाया। उसने पर्वत और औषध का नाम बताया,
(और कहा कि) हे पवनपुत्र!
औषधि लेने जाओ॥ 55॥
राम चरन सरसिज
उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥
उहाँ दूत एक
मरमु जनावा। रावनु कालनेमि गृह आवा॥
राम के
चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान अपना बल बखानकर (अर्थात मैं अभी लिए
आता हूँ,
ऐसा कहकर) चले। उधर एक गुप्तचर ने रावण को इस रहस्य की खबर
दी। तब रावण कालनेमि के घर आया।
दसमुख कहा
मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना॥
देखत तुम्हहि
नगरु जेहिं जारा। तासु पंथ को रोकन पारा॥
रावण ने उसको
सारा मर्म (हाल) बतलाया। कालनेमि ने सुना और बार-बार सिर पीटा (खेद प्रकट किया)।
(उसने कहा -) तुम्हारे देखते-देखते जिसने नगर जला डाला,
उसका मार्ग कौन रोक सकता है?
भजि रघुपति
करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना॥
नील कंज तनु
सुंदर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा॥
रघुनाथ का भजन
करके तुम अपना कल्याण करो! हे नाथ! झूठी बकवास छोड़ दो। नेत्रों को आनंद देनेवाले
नीलकमल के समान सुंदर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो।
मैं तैं मोर
मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू॥
काल ब्याल कर
भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई॥
मैं-तू
(भेद-भाव) और ममतारूपी मूढ़ता को त्याग दो। महामोह (अज्ञान)रूपी रात्रि में सो रहे
हो,
सो जाग उठो, जो कालरूपी सर्प का भी भक्षक है,
कहीं स्वप्न में भी वह रण में जीता जा सकता है?
दो० - सुनि
दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।
राम दूत कर
मरौं बरु यह खल रत मल भार॥ 56॥
उसकी ये बातें
सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ। तब कालनेमि ने मन में विचार किया कि (इसके हाथ से
मरने की अपेक्षा) राम के दूत के हाथ से ही मरूँ तो अच्छा है। यह दुष्ट तो पाप समूह
में रत है॥ 56॥
अस कहि चला
रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया॥
मारुतसुत देखा
सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥
वह मन-ही-मन
ऐसा कहकर चला और उसने मार्ग में माया रची। तालाब, मंदिर और सुंदर बाग बनाया। हनुमान ने सुंदर आश्रम देखकर
सोचा कि मुनि से पूछकर जल पी लूँ, जिससे थकावट दूर हो जाए।
राच्छस कपट
बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा॥
जाइ पवनसुत
नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा॥
राक्षस वहाँ
कपट (से मुनि) का वेष बनाए विराजमान था। वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को
मोहित करना चाहता था। मारुति ने उसके पास जाकर मस्तक नवाया। वह राम के गुणों की
कथा कहने लगा।
होत महा रन
रावन रामहिं। जितिहहिं राम न संसय या महिं॥
इहाँ भएँ मैं
देखउँ भाई। ग्यानदृष्टि बल मोहि अधिकाई॥
(वह बोला -) रावण और राम में महान युद्ध हो रहा है। राम जीतेंगे,
इसमें संदेह नहीं है। हे भाई! मैं यहाँ रहता हुआ ही सब देख
रहा हूँ। मुझे ज्ञानदृष्टि का बहुत बड़ा बल है।
मागा जल तेहिं
दीन्ह कमंडल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल॥
सर मज्जन करि
आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु॥
हनुमान ने
उससे जल माँगा, तो उसने कमंडलु दे दिया। हनुमान ने कहा - थोड़े जल से मैं तृप्त नहीं होने का।
तब वह बोला - तालाब में स्नान करके तुरंत लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूँ,
जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो।
दो० - सर पैठत
कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि
दिब्य तनु चली गगन चढ़ि जान॥ 57॥
तालाब में
प्रवेश करते ही एक मादा मगर ने अकुलाकर उसी समय हनुमान का पैर पकड़ लिया। हनुमान
ने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़कर आकाश को चली॥ 57॥
कपि तव दरस
भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥
मुनि न होइ यह
निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥
(उसने कहा -) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। हे तात! श्रेष्ठ
मुनि का शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि नहीं है, घोर निशाचर है। मेरा वचन सत्य मानो।
अस कहि गई
अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥
कह कपि मुनि
गुरदछिना लेहू। पाछें हमहिं मंत्र तुम्ह देहू॥
ऐसा कहकर
ज्यों ही वह अप्सरा गई, त्यों ही हनुमान निशाचर के पास गए। हनुमान ने कहा - हे
मुनि! पहले गुरुदक्षिणा ले लीजिए। पीछे आप मुझे मंत्र दीजिएगा।
सिर लंगूर
लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥
राम राम कहि
छाड़ेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥
हनुमान ने
उसके सिर को पूँछ में लपेटकर उसे पछाड़ दिया। मरते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर
प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोड़े। यह (उसके मुँह से राम-राम का उच्चारण)
सुनकर हनुमान मन में हर्षित होकर चले।
देखा सैल न
औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
गहि गिरि निसि
नभ धावत भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥
उन्होंने
पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान ने एकदम से पर्वत को ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर
हनुमान रात ही में आकाश मार्ग से दौड़ चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गए।
दो० - देखा
भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक
मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥ 58॥
भरत ने आकाश
में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान
तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा॥ 58॥
परेउ मुरुछि
महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥
सुनि प्रिय
बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥
बाण लगते ही
हनुमान 'राम, राम, रघुपति' का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरत उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान के पास आए।
बिकल बिलोकि
कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन
भए दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी॥
हनुमान को
व्याकुल देखकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया,
पर वे जागते न थे! तब भरत का मुख उदास हो गया। वे मन में बड़े
दुःखी हुए और नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भरकर ये वचन बोले -
जेहिं बिधि
राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुःख दीन्हा॥
जौं मोरें मन
बच अरु काया॥ प्रीति राम पद कमल अमाया॥
जिस विधाता ने
मुझे राम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन,
वचन और शरीर से राम के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो,
तौ कपि होउ
बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि
बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा॥
और यदि रघुनाथ
मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते ही
कपिराज हनुमान 'कोसलपति राम की जय हो, जय हो' कहते हुए उठ बैठे।
सो० - लीन्ह
कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय
समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥ 59॥
भरत ने वानर
(हनुमान) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंद तथा प्रेम के
आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतिलक राम का स्मरण करके भरत के हृदय में प्रीति समाती
न थी॥ 59॥
तात कुसल कहु
सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
लकपि सब चरित
समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥
(भरत बोले -) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान राम की
कुशल कहो। वानर (हनुमान) ने संक्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरत दुःखी हुए और मन
में पछताने लगे।
अहह दैव मैं
कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु
मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥
हा दैव! मैं
जगत में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर
मन में धीरज धरकर बलवीर भरत हनुमान से बोले -
तात गहरु
होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढ़ु मम सायक
सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥
हे तात! तुमको
जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड़ जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे
बाण पर चढ़ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम राम हैं।
सुनि कपि मन
उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव
बिचारि बहोरी। बंदि चरन कह कपि कर जोरी॥
भरत की यह बात
सुनकर (एक बार तो) हनुमान के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे
चलेगा?
(किंतु) फिर राम के प्रभाव
का विचार करके वे भरत के चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले -
दो० - तव
प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु
पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥ 60(क)॥
हे नाथ! हे
प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और
भरत के चरणों की वंदना करके हनुमान चले॥ 60(क)॥
भरत बाहु बल
सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात
सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥ 60(ख)॥
भरत के बाहुबल,
शील (सुंदर स्वभाव), गुण और प्रभु के चरणों में अपार प्रेम की मन-ही-मन बारंबार
सराहना करते हुए मारुति हनुमान चले जा रहे हैं॥ 60(ख)॥
उहाँ राम
लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥
अर्ध राति गइ
कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥
वहाँ लक्ष्मण
को देखकर राम साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले - आधी रात बीत चुकी है,
हनुमान नहीं आए। यह कहकर राम ने छोटे भाई लक्ष्मण को उठाकर
हृदय से लगा लिया।
सकहु न दुखित
देखि मोहि काउ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥
मम हित लागि
तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥
(और बोले -) हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा स्वभाव सदा
से ही कोमल था। मेरे हित के लिए तुमने माता-पिता को भी छोड़ दिया और वन में जाड़ा,
गरमी और हवा सब सहन किया।
सो अनुराग
कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥
जौं जनतेउँ बन
बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥
हे भाई! वह
प्रेम अब कहाँ है? मेरे व्याकुलतापूर्वक वचन सुनकर उठते क्यों नहीं?
यदि मैं जानता कि वन में भाई का विछोह होगा तो मैं पिता का
वचन (जिसका मानना मेरे लिए परम कर्तव्य था) उसे भी न मानता।
सुत बित नारि
भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥
अस बिचारि
जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥
पुत्र,
धन, स्त्री, घर और परिवार - ये जगत में बार-बार होते और जाते हैं,
परंतु जगत में सहोदर भाई बार-बार नहीं मिलता। हृदय में ऐसा
विचार कर हे तात! जागो।
जथा पंख बिनु
खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥
अस मम जिवन
बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही॥
जैसे पंख बिना
पक्षी,
मणि बिना सर्प और सूँड़ बिना श्रेष्ठ हाथी अत्यंत दीन हो
जाते हैं,
हे भाई! यदि कहीं जड़ दैव मुझे जीवित रखे तो तुम्हारे बिना
मेरा जीवन भी ऐसा ही होगा।
जैहउँ अवध कौन
मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई॥
बरु अपजस
सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥
स्त्री के लिए
प्यारे भाई को खोकर, मैं कौन-सा मुँह लेकर अवध जाऊँगा?
मैं जगत में बदनामी भले ही सह लेता (कि राम में कुछ भी
वीरता नहीं है जो स्त्री को खो बैठे)। स्त्री की हानि से (इस हानि को देखते) कोई
विशेष क्षति नहीं थी।
अब अपलोकु
सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥
निज जननी के
एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा॥
अब तो हे
पुत्र! मेरा निष्ठुर और कठोर हृदय यह अपयश और तुम्हारा शोक दोनों ही सहन करेगा। हे
तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र और उसके प्राणाधार हो।
सौंपेसि मोहि
तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥
उतरु काह
दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥
सब प्रकार से
सुख देनेवाला और परम हितकारी जानकर उन्होंने तुम्हें हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था।
मैं अब जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगा? हे भाई! तुम उठकर मुझे सिखाते (समझाते) क्यों नहीं?
बहु बिधि सोचत
सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥
उमा एक अखंड
रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥
सोच से
छुड़ानेवाले राम बहुत प्रकार से सोच कर रहे हैं। उनके कमल की पंखुड़ी के समान
नेत्रों से (विषाद के आँसुओं का) जल बह रहा है। (शिव कहते हैं -) हे उमा! रघुनाथ
एक (अद्वितीय) और अखंड (वियोगरहित) हैं। भक्तों पर कृपा करनेवाले भगवान ने (लीला
करके) मनुष्य की दशा दिखलाई है।
दो० - प्रभु
प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान
जिमि करुना महँ बीर रस॥ 61॥
प्रभु के
(लीला के लिए किए गए) प्रलाप को कानों से सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए।
(इतने में ही) हनुमान आ गए, जैसे करुण रस (के प्रसंग) में वीर रस (का प्रसंग) आ गया हो॥
61॥
हरषि राम
भेटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
तुरत बैद तब
कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥
राम हर्षित
होकर हनुमान से गले लगकर मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं।
तब वैद्य (सुषेण) ने तुरंत उपाय किया, (जिससे) लक्ष्मण हर्षित होकर उठ बैठे।
हृदयँ लाइ
प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥
कपि पुनि बैद
तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥
प्रभु भाई को
हृदय से लगाकर मिले। भालू और वानरों के समूह सब हर्षित हो गए। फिर हनुमान ने वैद्य
को उसी प्रकार वहाँ पहुँचा दिया, जिस प्रकार वे उस बार (पहले) उसे ले आए थे।
यह बृत्तांत
दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥
ब्याकुल
कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥
यह समाचार जब
रावण ने सुना, तब उसने अत्यंत विषाद से बार-बार सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास
गया और बहुत-से उपाय करके उसने उसको जगाया।
जागा निसिचर
देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुंभकरन बूझा
कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥
कुंभकर्ण जगा
(उठ बैठा)। वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो।
कुंभकर्ण ने पूछा - हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं?
कथा कही सब
तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब
निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे॥
उस अभिमानी
(रावण) ने उससे जिस प्रकार से वह सीता को हर लाया था (तब से अब तक की) सारी कथा
कही। (फिर कहा -) हे तात! वानरों ने सब राक्षस मार डाले। बड़े-बड़े योद्धाओं का भी
संहार कर डाला।
दुर्मुख
सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर
आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥
दुर्मुख,
देवशत्रु (देवांतक), मनुष्य भक्षक (नरांतक), भारी योद्धा अतिकाय और अकंपन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर
वीर रणभूमि में मारे गए।
दो० - सुनि
दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि
आनि अब सठ चाहत कल्यान॥ 62॥
तब रावण के
वचन सुनकर कुंभकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला - अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर
लाकर अब कल्याण चाहता है?॥ 62॥
भल न कीन्ह
तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात
त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥
हे राक्षसराज!
तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर राम को भजो तो कल्याण होगा।
हैं दससीस
मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बंधु तैं
कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥
हे रावण!
जिनके हनुमान-सरीखे सेवक हैं, वे रघुनाथ क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया।
कीन्हेहु
प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरंचि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि
मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥
हे स्वामी!
तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान
कहा था,
वह मैं तुझसे कहता; पर अब तो समय जाता रहा।
अब भरि अंक
भेंटु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात
सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥
हे भाई! अब तो
(अंतिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों
को छुड़ानेवाले श्याम शरीर, कमल नेत्र राम के जाकर दर्शन करूँ।
दो० - राम रूप
गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।
रावन मागेउ
कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥ 63॥
राम के रूप और
गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया। फिर रावण से
करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए॥ 63॥
महिष खाइ करि
मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥
कुंभकरन
दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥
भैंसे खाकर और
मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से
पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़कर चला। सेना भी साथ नहीं ली।
देखि बिभीषनु
आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ
हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो॥
उसे देखकर
विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठाकर उसने
हृदय से लगा लिया और रघुनाथ का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे।
तात लात रावन
मोहि मारा। कहत परम हित मंत्र बिचारा॥
तेहिं गलानि
रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥
(विभीषण ने कहा -) हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात
मारी। उसी ग्लानि के मारे मैं रघुनाथ के पास चला आया। दीन देखकर प्रभु के मन को
मैं (बहुत) प्रिय लगा।
सुनु भयउ
कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तैं
धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥
(कुंभकर्ण ने कहा -) हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही
है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया।
बंधु बंस तैं
कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥
हे भाई! तूने
अपने कुल को देदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र राम को भजा।
दो० - बचन
कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर
सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर॥ 64॥
मन,
वचन और कर्म से कपट छोड़कर रणधीर राम का भजन करना। हे भाई!
मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता; इसलिए अब तुम जाओ॥ 64॥
बंधु बचन सुनि
चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥
नाथ भूधराकार
सरीरा। कुंभकरन आवत रनधीरा॥
भाई के वचन सुनकर
विभीषण लौट गए और वहाँ आए जहाँ त्रिलोकी के भूषण राम थे। (विभीषण ने कहा -) हे
नाथ! पर्वत के समान (विशाल) देहवाला रणधीर कुंभकर्ण आ रहा है।
एतना कपिन्ह
सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना॥
लिए उठाइ बिटप
अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर॥
वानरों ने जब
कानों से इतना सुना, तब वे बलवान किलकिलाकर (हर्षध्वनि करके) दौड़े। वृक्ष और
पर्वत (उखाड़कर) उठा लिए और (क्रोध से) दाँत कटकटाकर उन्हें उसके ऊपर डालने लगे।
कोटि कोटि
गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा॥
मुर्यो न मनु
तनु टर्यो न टार्यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो॥
रीछ-वानर
एक-एक बार में ही करोड़ों पहाड़ों के शिखरों से उस पर प्रहार करते हैं,
परंतु इससे न तो उसका मन ही मुड़ा (विचलित हुआ) और न शरीर
ही टाले टला, जैसे मदार के फलों की मार से हाथी पर कुछ भी असर नहीं होता!
तब मारुतसुत
मुठिका हन्यो। परयो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो॥
पुनि उठि
तेहिं मारेउ हनुमंता। घुर्मित भूतल परेउ तुरंता॥
तब हनुमान ने
उसे एक घूँसा मारा; जिससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और सिर पीटने
लगा। फिर उसने उठकर हनुमान को मारा। वे चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े।
पुनि नल नीलहि
अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि॥
चली बलीमुख
सेन पराई। अति भय त्रसित न कोउ समुहाई॥
फिर उसने
नल-नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और दूसरे योद्धाओं को भी जहाँ-तहाँ पटककर डाल
दिया। वानर सेना भाग चली। सब अत्यंत भयभीत हो गए, कोई सामने नहीं आता।
दो० - अंगदादि
कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
काँख दाबि
कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव॥ 65॥
सुग्रीव समेत
अंगदादि वानरों को मूर्च्छित करके फिर वह अपरिमित बल की सीमा कुंभकर्ण वानरराज
सुग्रीव को काँख में दाबकर चला॥ 65॥
उमा करत
रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला॥
भृकुटि भंग जो
कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥
(शिव कहते हैं -) हे उमा! रघुनाथ वैसे ही नरलीला कर रहे हैं,
जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो। जो भौंह के
इशारे मात्र से (बिना परिश्रम के) काल को भी खा जाता है,
उसे कहीं ऐसी लड़ाई शोभा देती है?
जग पावनि
कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं॥
मुरुछा गइ
मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा॥
भगवान (इसके
द्वारा) जगत को पवित्र करनेवाली वह कीर्ति फैलाएँगे जिसे गा-गाकर मनुष्य भवसागर से
तर जाएँगे। मूर्च्छा जाती रही, तब मारुति हनुमान जागे और फिर वे सुग्रीव को खोजने लगे।
सुग्रीवहु कै
मुरुछा बीती। निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥
काटेसि दसन
नासिका काना। गरजि अकास चलेउ तेहिं जाना॥
सुग्रीव की भी
मूर्च्छा दूर हुई, तब वे (मुर्दे-से होकर) खिसक गए (काँख से नीचे गिर पड़े)।
कुंभकर्ण ने उनको मृतक जाना। उन्होंने कुंभकर्ण के नाक-कान दाँतों से काट लिए और
फिर गरज कर आकाश की ओर चले, तब कुंभकर्ण ने जाना।
गहेउ चरन गहि
भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा॥
पुनि आयउ
प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना॥
उसने सुग्रीव
का पैर पकड़कर उनको पृथ्वी पर पछाड़ दिया। फिर सुग्रीव ने बड़ी फुर्ती से उठकर
उसको मारा और तब बलवान सुग्रीव प्रभु के पास आए और बोले - कृपानिधान प्रभु की जय
हो,
जय हो, जय हो।
नाक कान काटे
जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी॥
सहज भीम पुनि
बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा॥
नाक-कान काटे
गए,
ऐसा मन में जानकर बड़ी ग्लानि हुई;
और वह क्रोध करके लौटा। एक तो वह स्वभाव (आकृति) से ही
भयंकर था और फिर बिना नाक-कान का होने से और भी भयानक हो गया। उसे देखते ही वानरों
की सेना में भय उत्पन्न हो गया।
दो० - जय जय
जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह।
एकहि बार तासु
पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह॥ 66॥
'रघुवंशमणि की जय हो, जय हो' ऐसा पुकारकर वानर हूह करके दौड़े और सबने एक ही साथ उस पर
पहाड़ और वृक्षों के समूह छोड़े॥ 66॥
कुंभकरन रन
रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥
कोटि कोटि कपि
धरि धरि खाई। जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई॥
रण के उत्साह
में कुंभकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा
हो। वह करोड़-करोड़ वानरों को एक साथ पकड़कर खाने लगा! (वे उसके मुँह में इस तरह
घुसने लगे) मानो पर्वत की गुफा में टिड्डियाँ समा रही हों।
कोटिन्ह गहि
सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा॥
मुख नासा
श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा॥
करोड़ों
(वानरों) को पकड़कर उसने शरीर से मसल डाला। करोड़ों को हाथों से मलकर पृथ्वी की
धूल में मिला दिया। (पेट में गए हुए) भालू और वानरों के ठट्ट-के-ठट्ट उसके मुख,
नाक और कानों की राह से निकल-निकलकर भाग रहे हैं।
रन मद मत्त
निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु ऐहि बिधि अर्पा॥
मुरे सुभट सब
फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे॥
रण के मद में
मत्त राक्षस कुंभकर्ण इस प्रकार गर्वित हुआ, मानो विधाता ने उसको सारा विश्व अर्पण कर दिया हो,
और उसे वह ग्रास कर जाएगा। सब योद्धा भाग खड़े हुए,
वे लौटाए भी नहीं लौटते। आँखों से उन्हें सूझ नहीं पड़ता और
पुकारने से सुनते नहीं!
कुंभकरन कपि
फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी॥
देखी राम बिकल
कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई॥
कुंभकर्ण ने
वानर सेना को तितर-बितर कर दिया। यह सुनकर राक्षस सेना भी दौड़ी। राम ने देखा कि
अपनी सेना व्याकुल है और शत्रु की नाना प्रकार की सेना आ गई है।
दो० - सुनु
सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन।
मैं देखउँ खल
बल दलहि बोले राजिवनैन॥ 67॥
तब कमलनयन राम
बोले - हे सुग्रीव! हे विभीषण! और हे लक्ष्मण! सुनो, तुम सेना को सँभालना। मैं इस दुष्ट के बल और सेना को देखता
हूँ॥ 67॥
कर सारंग साजि
कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥
प्रथम कीन्हि
प्रभु धनुष टंकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥
हाथ में
शार्गंधनुष और कमर में तरकस सजाकर रघुनाथ शत्रु सेना को दलन करने चले। प्रभु ने
पहले तो धनुष का टंकार किया, जिसकी भयानक आवाज सुनते ही शत्रु दल बहरा हो गया।
सत्यसंध
छाँड़े सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥
जहँ तहँ चले
बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा॥
फिर
सत्यप्रतिज्ञ राम ने एक लाख बाण छोड़े। वे ऐसे चले मानो पंखवाले काल सर्प चले हों।
जहाँ-तहाँ बहुत-से बाण चले, जिनसे भयंकर राक्षस योद्धा कटने लगे।
कटहिं चरन उर
सिर भुजदंडा। बहुतक बीर होहिं सत खंडा॥
घुर्मि घुर्मि
घायल महि परहीं। उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं॥
उनके चरण,
छाती, सिर और भुजदंड कट रहे हैं। बहुत-से वीरों के सौ-सौ टुकड़े
हो जाते हैं। घायल चक्कर खा-खाकर पृथ्वी पर पड़ रहे हैं। उत्तम योद्धा फिर सँभलकर
उठते और लड़ते हैं।
लागत बान जलद
जिमि गाजहिं। बहुतक देखि कठिन सर भाजहिं॥
रुंड प्रचंड
मुंड बिनु धावहिं। धरु धरु मारु मारु धुनि गावहिं॥
बाण लगते ही
वे मेघ की तरह गरजते हैं। बहुत-से तो कठिन बाणों को देखकर ही भाग जाते हैं। बिना
मुंड (सिर) के प्रचंड रुंड (धड़) दौड़ रहे हैं और 'पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो' का शब्द करते हुए गा (चिल्ला) रहे हैं।
दो० - छन महुँ
प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच।
पुनि रघुबीर
निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच॥ 68॥
प्रभु के
बाणों ने क्षण मात्र में भयानक राक्षसों को काटकर रख दिया। फिर वे सब बाण लौटकर
रघुनाथ के तरकस में घुस गए॥ 68॥
कुंभकरन मन
दीख बिचारी। हति छन माझ निसाचर धारी॥
भा अति
क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा॥
कुंभकर्ण ने
मन में विचार कर देखा कि राम ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला। तब
वह महाबली वीर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने गंभीर सिंहनाद किया।
कोपि महीधर
लेइ उपारी। डारइ जहँ मर्कट भट भारी॥
आवत देखि सैल
प्रभु भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे॥
वह क्रोध करके
पर्वत उखाड़ लेता है और जहाँ भारी-भारी वानर योद्धा होते हैं,
वहाँ डाल देता है। बड़े-बड़े पर्वतों को आते देखकर प्रभु ने
उनको बाणों से काटकर धूल के समान (चूर-चूर) कर डाला।
पुनि धनु तानि
कोपि रघुनायक। छाँड़े अति कराल बहु सायक॥
तनु महुँ
प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीं॥
फिर रघुनाथ ने
क्रोध करके धनुष को तानकर बहुत-से अत्यंत भयानक बाण छोड़े। वे बाण कुंभकर्ण के
शरीर में घुसकर (पीछे से इस प्रकार) निकल जाते हैं (कि उनका पता नहीं चलता),
जैसे बिजलियाँ बादल में समा जाती हैं।
सोनित स्रवत
सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे॥
बिकल बिलोकि
भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए॥
उसके काले
शरीर से रुधिर बहता हुआ ऐसे शोभा देता है, मानो काजल के पर्वत से गेरु के पनाले बह रहे हों। उसे
व्याकुल देखकर रीछ-वानर दौड़े। वे ज्यों ही निकट आए, त्यों ही वह हँसा,
दो० - महानाद
करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ
गजराज इव सपथ करइ दससीस॥ 69॥
और बड़ा घोर
शब्द करके गरजा तथा करोड़-करोड़ वानरों को पकड़कर वह गजराज की तरह उन्हें पृथ्वी
पर पटकने लगा और रावण की दुहाई देने लगा॥ 69॥
भागे भालु
बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥
चले भागि कपि
भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥
यह देखकर
रीछ-वानरों के झुंड ऐसे भागे जैसे भेड़िए को देखकर भेड़ों के झुंड! (शिव कहते हैं
-) हे भवानी! वानर-भालू व्याकुल होकर आर्तवाणी से पुकारते हुए भाग चले।
यह निसिचर
दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई॥
कृपा बारिधर
राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥
(वे कहने लगे -) यह राक्षस दुर्भिक्ष के समान है, जो अब वानर कुलरूपी देश में पड़ना चाहता है। हे कृपारूपी जल
के धारण करनेवाले मेघ रूप राम! हे खर के शत्रु! हे शरणागत के दुःख हरनेवाले! रक्षा
कीजिए,
रक्षा कीजिए!
सकरुन बचन
सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना॥
राम सेन निज
पाछें घाली। चले सकोप महा बलसाली॥
करुणा भरे वचन
सुनते ही भगवान धनुष-बाण सुधारकर चले। महाबलशाली राम ने सेना को अपने पीछे कर लिया
और वे (अकेले) क्रोधपूर्वक चले (आगे बढ़े)।
खैंचि धनुष सर
सत संधाने। छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा
रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा॥
उन्होंने धनुष
को खींचकर सौ बाण संधान किए। बाण छूटे और उसके शरीर में समा गए। बाणों के लगते ही
वह क्रोध में भरकर दौड़ा। उसके दौड़ने से पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी हिलने लगी।
लीन्ह एक
तेंहि सैल उपाटी। रघुकुलतिलक भुजा सोइ काटी॥
धावा बाम बाहु
गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी॥
उसने एक पर्वत
उखाड़ लिया। रघुकुल तिलक राम ने उसकी वह भुजा ही काट दी। तब वह बाएँ हाथ में पर्वत
को लेकर दौड़ा। प्रभु ने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दी।
काटें भुजा
सोह खल कैसा। पच्छहीन मंदर गिरि जैसा॥
उग्र बिलोकनि
प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रैलोका॥
भुजाओं के कट
जाने पर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पंख का मंदराचल पहाड़ हो। उसने उग्र दृष्टि से
प्रभु को देखा। मानो तीनों लोकों को निगल जाना चाहता हो।
दो० - करि
चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि।
गगन सिद्ध सुर
त्रासित हा हा हेति पुकारि॥ 70॥
वह बड़े जोर
से चिग्घाड़ करके मुँह फैलाकर दौड़ा। आकाश में सिद्ध और देवता डरकर हा! हा! हा! इस
प्रकार पुकारने लगे॥ 70॥
सभय देव
करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजंत सरासुन तान्यो॥
बिसिख निकर
निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ॥
करुणानिधान
भगवान ने देवताओं को भयभीत जाना। तब उन्होंने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख
को बाणों के समूह से भर दिया। तो भी वह महाबली पृथ्वी पर न गिरा।
सरन्हि भरा
मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा॥
तब प्रभु कोपि
तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा॥
मुख में बाण
भरे हुए वह (प्रभु के) सामने दौड़ा। मानो कालरूपी सजीव तरकस ही आ रहा हो। तब प्रभु
ने क्रोध करके तीक्ष्ण बाण लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया।
सो सिर परेउ
दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें॥
धरनि धसइ धर
धाव प्रचंडा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा॥
वह सिर रावण
के आगे जा गिरा। उसे देखकर रावण ऐसा व्याकुल हुआ जैसे मणि के छूट जाने पर सर्प।
कुंभकर्ण का प्रचंड धड़ दौड़ा, जिससे पृथ्वी धँसी जाती थी। तब प्रभु ने काटकर उसके दो
टुकड़े कर दिए।
परे भूमि जिमि
नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर॥
तासु तेज
प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचंभव माना॥
वानर-भालू और
निशाचरों को अपने नीचे दबाते हुए वे दोनों टुकड़े पृथ्वी पर ऐसे पड़े जैसे आकाश से
दो पहाड़ गिरे हों। उसका तेज प्रभु राम के मुख में समा गया। (यह देखकर) देवता और
मुनि सभी ने आश्चर्य माना।
सुर दुंदुभीं
बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं॥
करि बिनती सुर
सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए॥
देवता नगाड़े
बजाते,
हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत-से फूल बरसा रहे हैं।
विनती करके सब देवता चले गए। उसी समय देवर्षि नारद आए।
गगनोपरि हरि
गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए॥
बेगि हतहु खल
कहि मुनि गए। राम समर महि सोभत भए॥
आकाश के ऊपर
से उन्होंने हरि के सुंदर वीर रसयुक्त गुणसमूह का गान किया,
जो प्रभु के मन को बहुत ही भाया। मुनि यह कहकर चले गए कि अब
दुष्ट रावण को शीघ्र मारिए। (उस समय) राम रणभूमि में आकर (अत्यंत) सुशोभित हुए।
छं० - संग्राम
भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी।
श्रम बिंदु
मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी॥
भुज जुगल फेरत
सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने।
कह दास तुलसी
कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने॥
अतुलनीय
बलवाले कोसलपति रघुनाथ रणभूमि में सुशोभित हैं। मुख पर पसीने की बूँदें हैं,
कमल समान नेत्र कुछ लाल हो रहे हैं। शरीर पर रक्त के कण हैं,
दोनों हाथों से धनुष-बाण फिरा रहे हैं। चारों ओर रीछ-वानर
सुशोभित हैं। तुलसीदास कहते हैं कि प्रभु की इस छवि का वर्णन शेष भी नहीं कर सकते,
जिनके बहुत-से (हजार) मुख हैं।
दो० - निसिचर
अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर
मंदमति जे न भजहिं श्रीराम॥ 71॥
(शिव कहते हैं -) हे गिरिजे! कुंभकर्ण, जो नीच राक्षस और पाप की खान था,
उसे भी राम ने अपना परमधाम दे दिया। अतः वे मनुष्य (निश्चय
ही) मंदबुद्धि हैं, जो उन श्री राम को नहीं भजते॥ 71॥
दिन के अंत
फिरीं द्वौ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥
राम कृपाँ कपि
दल बल बाढ़ा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा॥
दिन का अंत
होने पर दोनों सेनाएँ लौट पड़ीं। (आज के युद्ध में) योद्धाओं को बड़ी थकावट हुई।
परंतु राम की कृपा से वानर सेना का बल उसी प्रकार बढ़ गया,
जैसे घास पाकर अग्नि बहुत बढ़ जाती है।
छीजहिं निसिचर
दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥
बहु बिलाप
दसकंधर करई। बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई॥
उधर राक्षस
दिन-रात इस प्रकार घटते जा रहे हैं जिस प्रकार अपने ही मुख से कहने पर पुण्य घट
जाते हैं। रावण बहुत विलाप कर रहा है। बार-बार भाई (कुंभकर्ण) का सिर कलेजे से
लगाता है।
रोवहिं नारि
हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी॥
मेघनाद तेहि
अवसर आयउ। कहि बहु कथा पिता समुझायउ॥
स्त्रियाँ
उसके बड़े भारी तेज और बल को बखान करके हाथों से छाती पीट-पीटकर रो रही हैं। उसी
समय मेघनाद आया और उसने बहुत-सी कथाएँ कहकर पिता को समझाया।
देखेहु कालि
मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़ाई॥
इष्टदेव सैं
बल रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ॥
(और कहा -) कल मेरा पुरुषार्थ देखिएगा। अभी बहुत बड़ाई क्या करूँ?
हे तात! मैंने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था,
वह बल (और रथ) अब तक आपको नहीं दिखलाया था।
एहि बिधि
जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥
इति कपि भालु
काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा॥
इस प्रकार
डींग मारते हुए सबेरा हो गया। लंका के चारों दरवाजों पर बहुत-से वानर आ डटे। इधर
काल के समान वीर वानर-भालू हैं और उधर अत्यंत रणधीर राक्षस।
लरहिं सुभट
निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू॥
दोनों ओर के
योद्धा अपनी-अपनी जय के लिए लड़ रहे हैं। हे गरुड़! उनके युद्ध का वर्णन नहीं किया
जा सकता।
दो० - मेघनाद
मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास।
गर्जेउ
अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास॥ 72॥
मेघनाद उसी
(पूर्वोक्त) मायामय रथ पर चढ़कर आकाश में चला गया और अट्टहास करके गरजा,
जिससे वानरों की सेना में भय छा गया॥ 72॥
सक्ति सूल
तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥
डारइ परसु
परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥
वह शक्ति,
शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शस्त्र एवं वज्र आदि बहुत-से आयुध चलाने तथा फरसे,
परिघ, पत्थर आदि डालने और बहुत-से बाणों की वृष्टि करने लगा।
दस दिसि रहे
बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई॥
धरु धरु मारु
सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना॥
आकाश में दसों
दिशाओं में बाण छा गए, मानो मघा नक्षत्र के बादलों ने झड़ी लगा दी हो। 'पकड़ो, पकड़ो, मारो' ये शब्द सुनाई पड़ते हैं। पर जो मार रहा है,
उसे कोई नहीं जान पाता।
गहि गिरि तरु
अकास कपि धावहिं। देखहिं तेहि न दुखित फिरि आवहिं॥
अवघट घाट बाट
गिरि कंदर। माया बल कीन्हेसि सर पंजर॥
पर्वत और
वृक्षों को लेकर वानर आकाश में दौड़कर जाते हैं। पर उसे देख नहीं पाते,
इससे दुःखी होकर लौट आते हैं। मेघनाद ने माया के बल से
अटपटी घाटियों, रास्तों और पर्वतों-कंदराओं को बाणों के पिंजरे बना दिए (बाणों से छा दिया)।
जाहिं कहाँ
ब्याकुल भए बंदर। सुरपति बंदि परे जनु मंदर॥
मारुतसुत अंगद
नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला॥
अब कहाँ जाएँ,
यह सोचकर (रास्ता न पाकर) वानर व्याकुल हो गए। मानो पर्वत
इंद्र की कैद में पड़े हों। मेघनाद ने मारुति हनुमान,
अंगद, नल और नील आदि सभी बलवानों को व्याकुल कर दिया।
पुनि लछिमन
सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥
पुनि रघुपति
सैं जूझै लागा। सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा॥
फिर उसने
लक्ष्मण,
सुग्रीव और विभीषण को बाणों से मारकर उनके शरीर को छलनी कर
दिया। फिर वह रघुनाथ से लड़ने लगा। वह जो बाण छोड़ता है,
वे साँप होकर लगते हैं।
ब्याल पास बस
भए खरारी। स्वबस अनंत एक अबिकारी॥
नट इव कपट
चरित कर नाना। सदा स्वतंत्र एक भगवाना॥
जो स्वतंत्र,
अनंत, एक (अखंड) और निर्विकार हैं, वे खर के शत्रु राम (लीला से) नागपाश के वश में हो गए (उससे
बँध गए)। राम सदा स्वतंत्र, एक, (अद्वितीय) भगवान हैं। वे नट की तरह अनेकों प्रकार के
दिखावटी चरित्र करते हैं।
रन सोभा लगि
प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥
रण की शोभा के
लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बाँध लिया, किंतु उससे देवताओं को बड़ा भय हुआ।
दो० - गिरिजा
जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास।
सो कि बंध तर
आवइ ब्यापक बिस्व निवास॥ 73॥
(शिव कहते हैं -) हे गिरिजे! जिनका नाम जपकर मुनि भव (जन्म-मृत्यु) की फाँसी को
काट डालते हैं, वे सर्वव्यापक और विश्वनिवास (विश्व के आधार) प्रभु कहीं बंधन में आ सकते हैं?॥ 73॥
चरित राम के
सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥
अस बिचारि जे
तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी॥
हे भवानी! राम
की इस सगुण लीलाओं के विषय में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क (निर्णय) नहीं किया
जा सकता। ऐसा विचार कर जो तत्त्वज्ञानी और विरक्त पुरुष हैं,
वे सब तर्क (शंका) छोड़कर राम का भजन ही करते हैं।
ब्याकुल कटकु
कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥
जामवंत कह खल
रहु ठाढ़ा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा॥
मेघनाद ने
सेना को व्याकुल कर दिया। फिर वह प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा। इस पर
जाम्बवान ने कहा - अरे दुष्ट! खड़ा रह। यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध बढ़ा।
बूढ़ जानि सठ
छाँड़ेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥
अस कहि तरल
त्रिसूल चलायो। जामवंत कर गहि सोइ धायो॥
अरे मूर्ख!
मैंने बूढ़ा जानकर तुझको छोड़ दिया था। अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है?
ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया। जाम्बवान उसी
त्रिशूल को हाथ से पकड़कर दौड़ा।
मारिसि मेघनाद
कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥
पुनि रिसान
गहि चरन फिरायो। महि पछारि निज बल देखरायो॥
और उसे मेघनाद
की छाती पर दे मारा। वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। जाम्बवान
ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकड़कर उसको घुमाया और पृथ्वी पर पटककर उसे अपना बल
दिखलाया।
बर प्रसाद सो
मरइ न मारा। तब गहि पद लंका पर डारा॥
इहाँ देवरिषि
गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो॥
(किंतु) वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता। तब जाम्बवान ने उसका पैर पकड़कर
उसे लंका पर फेंक दिया। इधर देवर्षि नारद ने गरुड़ को भेजा। वे तुरंत ही राम के
पास आ पहुँचे।
दो० - खगपति
सब धरि खाए माया नाग बरुथ।
माया बिगत भए
सब हरषे बानर जूथ॥ 74(क)॥
पक्षीराज
गरुड़ सब माया-सर्पों के समूहों को पकड़कर खा गए। तब सब वानरों के झुंड माया से
रहित होकर हर्षित हुए॥ 74(क)॥
गहि गिरि पादप
उपल नख धाए कीस रिसाइ।
चले तमीचर
बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ॥ 74(ख)॥
पर्वत,
वृक्ष, पत्थर और नख धारण किए वानर क्रोधित होकर दौड़े। निशाचर
विशेष व्याकुल होकर भाग चले और भागकर किले पर चढ़ गए॥ 74(ख)॥
मेघनाद कै
मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥
तुरत गयउ
गिरिबर कंदरा। करौं अजय मख अस मन धरा॥
मेघनाद की
मूर्च्छा छूटी, (तब) पिता को देखकर उसे बड़ी शर्म लगी। मैं अजय (अजेय होने को) यज्ञ करूँ,
ऐसा मन में निश्चय करके वह तुरंत श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में
चला गया।
इहाँ बिभीषन
मंत्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा॥
मेघनाद मख करइ
अपावन। खल मायावी देव सतावन॥
यहाँ विभीषण
ने यह सलाह विचारी (और राम से कहा -) हे अतुलनीय बलवान उदार प्रभो! देवताओं को
सतानेवाला दुष्ट, मायावी मेघनाद अपवित्र यज्ञ कर रहा है।
जौं प्रभु
सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥
सुनि रघुपति
अतिसय सुख माना। बोले अंगदादि कपि नाना॥
हे प्रभो! यदि
वह यज्ञ सिद्ध हो पाएगा तो हे नाथ! फिर मेघनाद जल्दी जीता न जा सकेगा। यह सुनकर
रघुनाथ ने बहुत सुख माना और अंगदादि बहुत-से वानरों को बुलाया (और कहा -)।
लछिमन संग
जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई॥
तुम्ह लछिमन
मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुःख अति मोही॥
हे भाइयो! सब
लोग लक्ष्मण के साथ जाओ और जाकर यज्ञ को विध्वंस करो। हे लक्ष्मण! संग्राम में तुम
उसे मारना। देवताओं को भयभीत देखकर मुझे बड़ा दुःख है।
मारेहु तेहि
बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई॥
जामवंत
सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन॥
हे भाई! सुनो,
उसको ऐसे बल और बुद्धि के उपाय से मारना,
जिससे निशाचर का नाश हो। हे जाम्बवान,
सुग्रीव और विभीषण! तुम तीनों जने सेना समेत (इनके) साथ
रहना।
जब रघुबीर
दीन्हि अनुसासन। कटि निषंग कसि साजि सरासन॥
प्रभु प्रताप
उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा॥
(इस प्रकार) जब रघुवीर ने आज्ञा दी, तब कमर में तरकस कसकर और धनुष सजाकर (चढ़ाकर) रणधीर लक्ष्मण
प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण करके मेघ के समान गंभीर वाणी बोले -
जौं तेहि आजु
बंधे बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥
जौं सत संकर
करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर ई॥
यदि मैं आज
उसे बिना मारे आऊँ, तो रघुनाथ का सेवक न कहलाऊँ। यदि सैकड़ों शंकर भी उसकी
सहायता करें तो भी रघुवीर की दुहाई है; आज मैं उसे मार ही डालूँगा।
दो० - रघुपति
चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत।
अंगद नील मयंद
नल संग सुभट हनुमंत॥ 75॥
रघुनाथ के
चरणों में सिर नवाकर शेषावतार लक्ष्मण तुरंत चले। उनके साथ अंगद,
नील, मयंद, नल और हनुमान आदि उत्तम योद्धा थे॥ 75॥
जाइ कपिन्ह सो
देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥
कीन्ह कपिन्ह
सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥
वानरों ने
जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है। वानरों ने सब यज्ञ
विध्वंस कर दिया। फिर भी जब वह नहीं उठा, तब वे उसकी प्रशंसा करने लगे।
तदपि न उठइ
धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई॥
लै त्रिसूल
धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे॥
इतने पर भी वह
न उठा,
(तब) उन्होंने जाकर उसके
बाल पकड़े और लातों से मार-मारकर वे भाग चले। वह त्रिशूल लेकर दौड़ा,
तब वानर भागे और वहाँ आ गए, जहाँ आगे लक्ष्मण खड़े थे।
आवा परम क्रोध
कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥
कोपि मरुतसुत
अंगद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए॥
वह अत्यंत
क्रोध का मारा हुआ आया और बार-बार भयंकर शब्द करके2 नगरजने लगा। मारुति (हनुमान) और अंगद क्रोध करके दौड़े।
उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को धरती पर गिरा दिया।
प्रभु कहँ
छाँड़ेसि सूल प्रचंडा। सर हति कृत अनंत जुग खंडा॥
उठि बहोरि
मारुति जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥
फिर उसने
प्रभु लक्ष्मण पर त्रिशूल छोड़ा। अनंत (लक्ष्मण) ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर
दिए। हनुमान और युवराज अंगद फिर उठकर क्रोध करके उसे मारने लगे,
उसे चोट न लगी।
फिरे बीर रिपु
मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा॥
आवत देखि
क्रुद्ध जनु काला। लछिमन छाड़े बिसिख कराला॥
शत्रु
(मेघनाद) मारे नहीं मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर चिग्घाड़ करके दौड़ा। उसे क्रुद्ध काल की तरह आता
देखकर लक्ष्मण ने भयानक बाण छोड़े।
देखेसि आवत
पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अंतरधाना॥
बिबिध बेष धरि
करइ लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥
वज्र के समान
बाणों को आते देखकर वह दुष्ट तुरंत अंतर्धान हो गया और फिर भाँति-भाँति के रूप
धारण करके युद्ध करने लगा। वह कभी प्रकट होता था और कभी छिप जाता था।
देखि अजय रिपु
डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
लछिमन मन अस
मंत्र दृढ़ावा। ऐहि पापिहि मैं बहुत खेलावा॥
शत्रु को
पराजित न होता देखकर वानर डरे। तब सर्पराज शेष (लक्ष्मण) बहुत क्रोधित हुए।
लक्ष्मण ने मन में यह विचार दृढ़ किया कि इस पापी को मैं बहुत खेला चुका (अब और
अधिक खेलाना अच्छा नहीं, अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिए)।
सुमिरि
कोसलाधीस प्रतापा। सर संधान कीन्ह करि दापा॥
छाड़ा बान माझ
उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥
कोसलपति राम
के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मण ने वीरोचित दर्प करके बाण का संधान किया। बाण
छोड़ते ही उसकी छाती के बीच में लगा। मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया।
दो० - रामानुज
कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान।
धन्य धन्य तव
जननी कह अंगद हनुमान॥ 76॥
राम के छोटे
भाई लक्ष्मण कहाँ हैं? राम कहाँ हैं? ऐसा कहकर उसने प्राण छोड़ दिए। अंगद और हनुमान कहने लगे -
तेरी माता धन्य है, धन्य है, (जो तू लक्ष्मण के हाथों मरा और मरते समय राम-लक्ष्मण को
स्मरण करके तूने उनके नामों का उच्चारण किया)॥ 76॥
बिनु प्रयास
हनुमान उठायो। लंका द्वार राखि पुनि आयो॥
तासु मरन सुनि
सुर गंधर्बा। चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा॥
हनुमान ने
उसको बिना ही परिश्रम के उठा लिया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए। उसका मरना
सुनकर देवता और गंधर्व आदि सब विमानों पर चढ़कर आकाश में आए।
बरषि सुमन
दुंदुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं॥
जय अनंत जय
जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा॥
वे फूल बरसाकर
नगाड़े बजाते हैं और श्री रघुनाथ का निर्मल यश गाते हैं। हे अनंत! आपकी जय हो,
हे जगदाधार! आपकी जय हो। हे प्रभो! आपने सब देवताओं का
(महान विपत्ति से) उद्धार किया।
अस्तुति करि
सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिंधु पहिं आए॥
सुत बध सुना
दसानन जबहीं। मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥
देवता और
सिद्ध स्तुति करके चले गए, तब लक्ष्मण कृपा के समुद्र राम के पास आए। रावण ने ज्यों ही
पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
मंदोदरी रुदन
कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥
रनगर लोग सब
ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकंधर पोचा॥
मंदोदरी छाती
पीट-पीटकर और बहुत प्रकार से पुकार-पुकारकर बड़ा भारी विलाप करने लगी। नगर के सब
लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे।
दो० - तब
दसकंठ बिबिधि बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत
सब देखहु हृदयँ बिचारि॥ 77॥
तब रावण ने सब
स्त्रियों को अनेकों प्रकार से समझाया कि समस्त जगत का यह (दृश्य) रूप नाशवान है,
हृदय में विचारकर देखो॥ 77॥
तिन्हहि ग्यान
उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन॥
पर उपदेस कुसल
बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥
रावण ने उनको
ज्ञान का उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र हैं। दूसरों को उपदेश
देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं,
जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं।
निसा सिरानि
भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥
सुभट बोलाइ
दसानन बोला। रन सन्मुख जाकर मन डोला॥
रात बीत गई,
सबेरा हुआ। रीछ-वानर (फिर) चारों दरवाजों पर जा डटे।
योद्धाओं को बुलाकर दशमुख रावण ने कहा - लड़ाई में शत्रु के सम्मुख जिसका मन
डाँवाडोल हो,
सो अबहीं बरु
जाउ पराई। संजुग बिमुख भएँ न भलाई॥
निज भुज बल
मैं बयरु बढ़ावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा॥
अच्छा है वह
अभी भाग जाए। युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है। मैंने अपनी
भुजाओं के बल पर बैर बढ़ाया है। जो शत्रु चढ़ आया है,
उसको मैं (अपने ही) उत्तर दे लूँगा।
अस कहि मरुत
बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥
चले बीर सब
अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली॥
ऐसा कहकर उसने
पवन के समान तेज चलनेवाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लड़ाई के) बाजे बजने लगे। सब
अतुलनीय बलवान वीर ऐसे चले मानो काजल की आँधी चली हो।
असगुन अमित
होहिं तेहि काला। गनइ न भुज बल गर्ब बिसाला॥
उस समय असंख्य
अपशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता
नहीं है।
छं० - अति
गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते
बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥
गोमाय गीध
कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत
उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥
अत्यंत गर्व
के कारण वह शकुन-अपशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा
रथ से गिर पड़ते हैं। घोड़े, हाथी साथ छोड़कर चिग्घाड़ते हुए भाग जाते हैं। सियार,
गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे
हैं। उल्लू ऐसे अत्यंत भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो काल के दूत हों (मृत्यु का संदेसा सुना रहे हों)।
दो० - ताहि कि
संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत
मोहबस राम बिमुख रति काम॥ 78॥
जो जीवों के
द्रोह में रत है, मोह के वश हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्न में भी संपत्ति,
शुभ शकुन और चित्त की शांति हो सकती है?॥ 78॥
चलेउ निसाचर
कटकु अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥
बिबिधि भाँति
बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥
राक्षसों की
अपार सेना चली। चतुरंगिणी सेना की बहुत-सी टुकड़ियाँ हैं। अनेकों प्रकार के वाहन,
रथ और सवारियाँ हैं तथा बहुत-से रंगों की अनेकों पताकाएँ और
ध्वजाएँ हैं।
चले मत्त गज
जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥
बरन बरन
बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया॥
मतवाले
हाथियों के बहुत-से झुंड चले। मानो पवन से प्रेरित हुए वर्षा ऋतु के बादल हों।
रंग-बिरंगे बाना धारण करनेवाले वीरों के समूह हैं, जो युद्ध में बड़े शूरवीर हैं और बहुत प्रकार की माया जानते
हैं।
अति बिचित्र
बाहिनी बिराजी। बीर बसंत सेन जनु साजी॥
चलत कटक
दिगसिंधुर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥
अत्यंत
विचित्र फौज शोभित है। मानो वीर वसंत ने सेना सजाई हो। सेना के चलने से दिशाओं के
हाथी डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गए और पर्वत डगमगाने लगे।
उठी रेनु रबि
गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥
पनव निसान घोर
रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥
इतनी धूल उड़ी
कि सूर्य छिप गए। (फिर सहसा) पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी। ढोल और नगाड़े भीषण
ध्वनि से बज रहे हैं; जैसे प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों।
भेरि नफीरि
बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई॥
केहरि नाद बीर
सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥
भेरी,
नफीरी (तुरही) और शहनाई में योद्धाओं को सुख देनेवाला मारू
राग बज रहा है। सब वीर सिंहनाद करते हैं और अपने-अपने बल पौरुष का बखान कर रहे
हैं।
कहइ दसानन
सुनहू सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥
हौं मारिहउँ
भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई॥
रावण ने कहा -
हे उत्तम योद्धाओ! सुनो! तुम रीछ-वानरों के ठट्ट को मसल डालो। और मैं दोनों
राजकुमार भाइयों को मारूँगा। ऐसा कहकर उसने अपनी सेना सामने चलाई।
यह सुधि सकल
कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर ई॥
जब सब वानरों
ने यह खबर पाई, तब वे राम की दुहाई देते हुए दौड़े।
छं० - धाए
बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ
उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते॥
नख दसन सैल
महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं।
जय राम रावन
मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥
वे विशाल और
काल के समान कराल वानर-भालू दौड़े। मानो पंखवाले पर्वतों के समूह उड़ रहे हों। वे
अनेक वर्णों के हैं। नख, दाँत, पर्वत और बड़े-बड़े वृक्ष ही उनके हथियार हैं। वे बड़े
बलवान हैं और किसी का भी डर नहीं मानते। रावणरूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह रूप राम
का जय-जयकार करके वे उनके सुंदर यश का बखान करते हैं।
दो० - दुहु
दिसि जय जयकार करि निज जोरी जानि।
भिरे बीर इत
रामहि उत रावनहि बखानि॥ 79॥
दोनों ओर के
योद्धा जय-जयकार करके अपनी-अपनी जोड़ी जान (चुन) कर इधर रघुनाथ का और उधर रावण का
बखान करके परस्पर भिड़ गए॥ 79॥
रावनु रथी
बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति
मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा॥
रावण को रथ पर
और रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में
संदेह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे)। राम के चरणों की वंदना
करके वे स्नेहपूर्वक कहने लगे।
नाथ न रथ नहि
तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह
कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥
हे नाथ! आपके
न रथ है,
न तन की रक्षा करनेवाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान
वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान राम ने कहा - हे सखे! सुनो,
जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है।
सौरज धीरज
तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम
परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥
शौर्य और
धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल,
विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार - ये चार उसके
घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समतारूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं।
ईस भजनु सारथी
सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि
सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
ईश्वर का भजन
ही (उस रथ को चलानेवाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान
फरसा है,
बुद्धि प्रचंड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है।
अमल अचल मन
त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद
बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥
निर्मल
(पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना),
(अहिंसादि) यम और (शौचादि)
नियम - ये बहुत-से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान
विजय का दूसरा उपाय नहीं है।
सखा धर्ममय अस
रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥
हे सखे! ऐसा
धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है।
दो० - महा अजय
संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ
होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥ 80(क)॥
हे
धीरबुद्धिवाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान दुर्जय शत्रु को भी
जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥ 80(क)॥
सुनि प्रभु
बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि
उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज॥ 80(ख)॥
प्रभु के वचन
सुनकर विभीषण ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिए (और कहा -) हे कृपा और सुख के
समूह राम! आपने इसी बहाने मुझे (महान) उपदेश दिया॥ 80(ख)॥
उत पचार
दसकंधर इत अंगद हनुमान।
लरत निसाचर
भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥ 80(ग)॥
उधर से रावण
ललकार रहा है और इधर से अंगद और हनुमान। राक्षस और रीछ-वानर अपने-अपने स्वामी की
दुहाई देकर लड़ रहे हैं॥ 80(ग)॥
सुर ब्रह्मादि
सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥
हमहू उमा रहे
तेहिं संगा। देखत राम चरित रन रंगा॥
ब्रह्मा आदि
देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढ़े हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं।
(शिव कहते हैं -) हे उमा! मैं भी उस समाज में था और राम के रण-रंग (रणोत्साह) की
लीला देख रहा था।
सुभट समर रस
दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन
भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥
दोनों ओर के
योद्धा रण-रस में मतवाले हो रहे हैं। वानरों को राम का बल है,
इससे वे जयशील हैं (जीत रहे हैं)। एक-दूसरे से भिड़ते और
ललकारते हैं और एक-दूसरे को मसल-मसलकर पृथ्वी पर डाल देते हैं।
मारहिं काटहिं
धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं॥
उदर बिदारहिं
भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥
वे मारते,
काटते, पकड़ते और पछाड़ देते हैं और सिर तोड़कर उन्हीं सिरों से
दूसरों को मारते हैं। पेट फाड़ते हैं, भुजाएँ उखाड़ते हैं और योद्धाओं को पैर पकड़कर पृथ्वी पर
पटक देते हैं।
निसिचर भट महि
गाड़हिं भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥
बीर बलीमुख
जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥
राक्षस योद्धाओं
को भालू पृथ्वी में गाड़ देते हैं और ऊपर से बहुत-सी बालू डाल देते हैं। युद्ध में
शत्रुओं से विरुद्ध हुए वीर वानर ऐसे दिखाई पड़ते हैं मानो बहुत-से क्रोधित काल
हों।
छं० -
क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं
निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं॥
मारहिं
चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं
मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं॥
क्रोधित हुए
काल के समान वे वानर खून बहते हुए शरीरों से शोभित हो रहे हैं। वे बलवान वीर
राक्षसों की सेना के योद्धाओं को मसलते और मेघ की तरह गरजते हैं। डाँटकर चपेटों से
मारते,
दाँतों से काटकर लातों से पीस डालते हैं। वानर-भालू
चिग्घाड़ते और ऐसा छल-बल करते हैं, जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जाएँ।
धरि गाल
फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रह्लादपति
जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं॥
धरु मारु काटु
पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन
ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥
वे राक्षसों
के गाल पकड़कर फाड़ डालते हैं, छाती चीर डालते हैं और उनकी अँतड़ियाँ निकालकर गले में डाल
लेते हैं। वे वानर ऐसे दिख पड़ते हैं मानो प्रह्लाद के स्वामी नृसिंह भगवान अनेकों
शरीर धारण करके युद्ध के मैदान में क्रीड़ा कर रहे हों। पकड़ो,
मारो, काटो, पछाड़ो आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वी में भर (छा) गए हैं।
राम की जय हो, जो सचमुच तृण से वज्र और वज्र से तृण कर देते हैं (निर्बल को सबल और सबल को
निर्बल कर देते हैं)।
दो० - निज दल
बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढ़ि चलेउ
दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥ 81॥
अपनी सेना को
विचलित होते हुए देखा, तब बीस भुजाओं में दस धनुष लेकर रावण रथ पर चढ़कर गर्व करके
'लौटो, लौटो' कहता हुआ चला॥ 81॥
धायउ परम
क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर॥
गहि कर पादप
उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥
रावण अत्यंत
क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुँकार करते हुए (लड़ने के लिए) उसके सामने चले।
उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक ही साथ डाले।
लागहिं सैल
बज्र तन तासू। खंड खंड होइ फूटहिं आसू॥
चला न अचल रहा
रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी॥
पर्वत उसके
वज्रतुल्य शरीर में लगते ही तुरंत टुकड़े-टुकड़े होकर फूट जाते हैं। अत्यंत क्रोधी
रणोन्मत्त रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा, (अपने स्थान से) जरा भी नहीं हिला।
इत उत झपटि
दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥
चले पराइ भालु
कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना॥
उसे बहुत ही
क्रोध हुआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर योद्धाओं को मसलने लगा। अनेकों
वानर-भालू 'हे अंगद! हे हनुमान! रक्षा करो, रक्षा करो' (पुकारते हुए) भाग चले।
पाहि पाहि
रघुबीर गोसाईं। यह खल खाइ काल की नाईं॥
तेहिं देखे कपि
सकल पराने। दसहुँ चाप सायक संधाने॥
हे रघुवीर! हे
गोसाईं! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। यह दुष्ट काल की भाँति हमें खा रहा है। उसने
देखा कि सब वानर भाग छूटे, तब (रावण ने) दसों धनुषों पर बाण संधान किए।
छं० - संधानि
धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं।
रहे पूरि सर
धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं॥
भयो अति
कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना
सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे॥
उसने धनुष पर
संधान करके बाणों के समूह छोड़े। वे बाण सर्प की तरह उड़कर जा लगते थे।
पृथ्वी-आकाश और दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भर रहे हैं। वानर भागें तो कहाँ?
अत्यंत कोलाहल मच गया। वानर-भालूओं की सेना व्याकुल होकर
आर्त्त पुकार करने लगी - हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीड़ितों के बंधु! हे सेवकों
की रक्षा करके उनके दुःख हरनेवाले हरि!
दो० - निज दल
बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ।
लछिमन चले
क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥ 82॥
अपनी सेना को
व्याकुल देखकर कमर में तरकस कसकर और हाथ में धनुष लेकर रघुनाथ के चरणों पर मस्तक
नवाकर लक्ष्मण क्रोधित होकर चले॥ 82॥
रे खल का
मारसि कपि भालु। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
खोजत रहेउँ
तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती॥
(लक्ष्मण ने पास जाकर कहा -) अरे दुष्ट! वानर भालूओं को क्या मार रहा है?
मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ। (रावण ने कहा -) अरे मेरे पुत्र के घातक!
मैं तुझी को ढूँढ़ रहा था। आज तुझे मारकर (अपनी) छाती ठंडी करूँगा।
अस कहि
छाड़ेसि बान प्रचंडा। लछिमन किए सकल सत खंडा॥
कोटिन्ह आयुध
रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥
ऐसा कहकर उसने
प्रचंड बाण छोड़े। लक्ष्मण ने सबके सैकड़ों टुकड़े कर डाले। रावण ने करोड़ों
अस्त्र-शस्त्र चलाए। लक्ष्मण ने उनको तिल के बराबर करके काटकर हटा दिया।
पुनि निज
बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यंदनु भंजि सारथी मारा॥
सत सत सर मारे
दस भाला। गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला॥
फिर अपने
बाणों से (उस पर) प्रहार किया और (उसके) रथ को तोड़कर सारथी को मार डाला। (रावण
के) दसों मस्तकों में सौ-सौ बाण मारे। वे सिरों में ऐसे पैठ गए मानो पहाड़ के
शिखरों में सर्प प्रवेश कर रहे हों।
पुनि सत सर
मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥
उठा प्रबल
पुनि मुरुछा जागी। छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी॥
फिर सौ बाण
उसकी छाती में मारे। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे कुछ भी होश न रहा। फिर मूर्च्छा छूटने पर वह प्रबल रावण
उठा और उसने वह शक्ति चलाई जो ब्रह्मा ने उसे दी थी।
छं० - सो
ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही।
पर्यो बीर
बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही॥
ब्रह्मांड भवन
बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी।
तेहि चह उठावन
मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी॥
वह ब्रह्मा की
दी हुई प्रचंड शक्ति लक्ष्मण की ठीक छाती में लगी। वीर लक्ष्मण व्याकुल होकर गिर
पड़े। तब रावण उन्हें उठाने लगा, पर उसके अतुलित बल की महिमा यों ही रह गई,
(व्यर्थ हो गई,
वह उन्हें उठा न सका)। जिनके एक ही सिर पर ब्रह्मांडरूपी
भवन धूल के एक कण के समान विराजता है, उन्हें मूर्ख रावण उठाना चाहता है! वह तीनों भुवनों के
स्वामी लक्ष्मण को नहीं जानता।
दो० - देखि
पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि
हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥ 83॥
यह देखकर
पवनपुत्र हनुमान कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमान के आते ही रावण ने उन पर अत्यंत
भयंकर घूँसे का प्रहार किया॥ 83॥
जानु टेकि कपि
भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥
मुठिका एक
ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥
हनुमान घुटने
टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं। और फिर क्रोध से भरे हुए सँभलकर उठे। हनुमान ने रावण को
एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो।
मुरुछा गै
बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥
धिग धिग मम
पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही॥
मूर्च्छा भंग
होने पर फिर वह जागा और हनुमान के बड़े भारी बल को सराहने लगा। (हनुमान ने कहा -)
मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है,
जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया।
अस कहि लछिमन
कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो॥
कह रघुबीर
समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता॥
ऐसा कहकर और
लक्ष्मण को उठाकर हनुमान रघुनाथ के पास ले आए। यह देखकर रावण को आश्चर्य हुआ।
रघुवीर ने (लक्ष्मण से) कहा - हे भाई! हृदय में समझो,
तुम काल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो।
सुनत बचन उठि
बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला॥
पुनि कोदंड
बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥
ये वचन सुनते
ही कृपालु लक्ष्मण उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाश को चली गई। लक्ष्मण फिर धनुष-बाण
लेकर दौड़े और बड़ी शीघ्रता से शत्रु के सामने आ पहुँचे।
छं० - आतुर
बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर्यो धरनि
दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥
सारथी दूसर
घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो।
रघुबीर बंधु
प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥
फिर उन्होंने
बड़ी ही शीघ्रता से रावण के रथ को चूर-चूर कर और सारथी को मारकर उसे (रावण को)
व्याकुल कर दिया। सौ बाणों से उसका हृदय बेध दिया, जिससे रावण अत्यंत व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब
दूसरा सारथी उसे रथ में डालकर तुरंत ही लंका को ले गया। प्रताप के समूह रघुवीर के
भाई लक्ष्मण ने फिर आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया।
दो० - उहाँ
दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध
बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥ 84॥
वहाँ (लंका
में) रावण मूर्च्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। वह मूर्ख और अत्यंत अज्ञानी हठवश
रघुनाथ से विरोध करके विजय चाहता है॥ 84॥
इहाँ बिभीषन
सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥
नाथ करइ रावन
एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥
यहाँ विभीषण
ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर रघुनाथ को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा
है। उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा।
पठवहु नाथ
बेगि भट बंदर। करहिं बिधंस आव दसकंधर॥
प्रात होत
प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अंगद सब धाए॥
हे नाथ! तुरंत
वानर योद्धाओं को भेजिए; जो यज्ञ का विध्वंस करें, जिससे रावण युद्ध में आए। प्रातःकाल होते ही प्रभु ने वीर
योद्धाओं को भेजा। हनुमान और अंगद आदि सब (प्रधान वीर) दौड़े।
कौतुक कूदि
चढ़े कपि लंका। पैठे रावन भवन असंका॥
जग्य करत
जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥
वानर खेल से
ही कूदकर लंका पर जा चढ़े और निर्भय होकर रावण के महल में जा घुसे। ज्यों ही उसको
यज्ञ करते देखा, त्यों ही सब वानरों को बहुत क्रोध हुआ।
रन ते निलज
भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा॥
अस कहि अंगद
मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता॥
(उन्होंने कहा -) अरे ओ निर्लज्ज! रणभूमि से घर भाग आया और यहाँ आकर बगुले
का-सा ध्यान लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अंगद ने लात मारी। पर उसने इनकी ओर देखा भी नहीं,
उस दुष्ट का मन स्वार्थ में अनुरक्त था।
छं० - नहिं
चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि
निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥
तब उठेउ
क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह
बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥
जब उसने नहीं
देखा,
तब वानर क्रोध करके उसे दाँतों से पकड़कर (काटने और) लातों
से मारने लगे। स्त्रियों को बाल पकड़कर घर से बाहर घसीट लाए,
वे अत्यंत ही दीन होकर पुकारने लगीं। तब रावण काल के समान
क्रोधित होकर उठा और वानरों को पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी बीच में वानरों ने यज्ञ
विध्वंस कर डाला, यह देखकर वह मन में हारने लगा (निराश होने लगा)।
दो० - जग्य
बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर
क्रुद्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥ 85॥
यज्ञ विध्वंस
करके सब चतुर वानर रघुनाथ के पास आ गए। तब रावण जीने की आशा छोड़कर क्रोधित होकर
चला॥ 85॥
चलत होहिं अति
असुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥
भयउ कालबस
काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥
चलते समय
अत्यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरों पर बैठने लगे।
किंतु वह काल के वश था, इससे किसी भी अपशकुन को नहीं मानता था। उसने कहा - युद्ध का
डंका बजाओ।
चली तमीचर अनी
अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥
प्रभु सन्मुख
धाए खल कैसें। सलभ समूह अनल कहँ जैसें॥
निशाचरों की
अपार सेना चली। उसमें बहुत-से हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभु के सामने कैसे दौड़े,
जैसे पतंगों के समूह अग्नि की ओर (जलने के लिए) दौड़ते हैं।
इहाँ देवतन्ह
अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥
अब जनि राम
खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही॥
इधर देवताओं
ने स्तुति की कि हे राम! इसने हमको दारुण दुःख दिए हैं। अब आप इसे (अधिक) न
खेलाइए। जानकी बहुत ही दुःखी हो रही हैं।
देव बचन सुनि
प्रभु मुसुकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना॥
जटा जूट दृढ़
बाँधें माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥
देवताओं के
वचन सुनकर प्रभु मुसकराए। फिर रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे। मस्तक पर जटाओं के जूड़े
को कसकर बाँधे हुए हैं, उसके बीच-बीच में पुष्प गूँथे हुए शोभित हो रहे हैं।
अरुन नयन
बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥
कटितट परिकर
कस्यो निषंगा। कर कोदंड कठिन सारंगा॥
लाल नेत्र और
मेघ के समान श्याम शरीरवाले और संपूर्ण लोकों के नेत्रों को आनंद देनेवाले हैं। प्रभु
ने कमर में फेंटा तथा तरकस कस लिया और हाथ में कठोर शार्गंधनुष ले लिया।
छं० - सारंग
कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदंड पीन
मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥
कह दास तुलसी
जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्मांड
दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥
प्रभु ने हाथ
में शार्गंधनुष लेकर कमर में बाणों की खान (अक्षय) सुंदर तरकस कस लिया। उनके
भुजदंड पुष्ट हैं और मनोहर चौड़ी छाती पर ब्राह्मण (भृगु) के चरण का चिह्न शोभित
है। तुलसीदास कहते हैं, ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण हाथ में लेकर फिराने लगे,
त्यों ही ब्रह्मांड, दिशाओं के हाथी,
कच्छप, शेष, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे।
दो० - सोभा
देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार।
जय जय जय
करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥ 86॥
(भगवान की) शोभा देखकर देवता हर्षित होकर फूलों की अपार वर्षा करने लगे और शोभा,
शक्ति और गुणों के धाम करुणानिधान प्रभु की जय हो,
जय हो, जय हो (ऐसा पुकारने लगे)॥ 86॥
एहीं बीच
निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी॥
देखि चले
सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥
इसी बीच में
निशाचरों की अत्यंत घनी सेना कसमसाती हुई (आपस में टकराती हुई) आई। उसे देखकर वानर
योद्धा इस प्रकार (उसके) सामने चले जैसे प्रलयकाल के बादलों के समूह हों।
बहु कृपान
तरवारि चमंकहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं॥
गज रथ तुरग
चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा॥
बहुत-से कृपाल
और तलवारें चमक रही हैं। मानो दसों दिशाओं में बिजलियाँ चमक रही हों। हाथी,
रथ और घोड़ों का कठोर चिंग्घाड़ ऐसा लगता है मानो बादल
भयंकर गर्जन कर रहे हों।
कपि लंगूर
बिपुल नभ छाए। मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए॥
उठइ धूरि
मानहुँ जलधारा। बान बुंद भै बृष्टि अपारा॥
वानरों की
बहुत-सी पूँछें आकाश में छाई हुई हैं। (वे ऐसी शोभा दे रही हैं) मानो सुंदर इंद्रधनुष
उदय हुए हों। धूल ऐसी उठ रही है मानो जल की धारा हो। बाणरूपी बूँदों की अपार
वृष्टि हुई।
दुहुँ दिसि
पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥
रघुपति कोपि
बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई॥
दोनों ओर से
योद्धा पर्वतों का प्रहार करते हैं। मानो बारंबार वज्रपात हो रहा हो। रघुनाथ ने
क्रोध करके बाणों की झड़ी लगा दी, (जिससे) राक्षसों की सेना घायल हो गई।
लागत बान बीर
चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥
स्रवहिं सैल
जनु निर्झर भारी। सोनित सरि कादर भयकारी॥
बाण लगते ही
वीर चीत्कार कर उठते हैं और चक्कर खा-खाकर जहाँ-तहाँ पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं।
उनके शरीर से ऐसे खून बह रहा है मानो पर्वत के भारी झरनों से जल बह रहा हो। इस
प्रकार डरपोकों को भय उत्पन्न करनेवाली रुधिर की नदी बह चली।
छं० - कादर
भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।
दोउ कूल दल रथ
रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥
जलजंतु गज
पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने।
सर सक्ति तोमर
सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने॥
डरपोकों को भय
उपजानेवाली अत्यंत अपवित्र रक्त की नदी बह चली। दोनों दल उसके दोनों किनारे हैं।
रथ रेत है और पहिए भँवर हैं। वह नदी बहुत भयावनी बह रही है। हाथी,
पैदल, घोड़े, गधे तथा अनेकों सवारियाँ हैं, जिनकी गिनती कौन करे, नदी के जल जंतु हैं। बाण, शक्ति और तोमर सर्प हैं, धनुष तरंगें हैं और ढाल बहुत-से कछुवे हैं।
दो० - बीर
परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि
डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥ 87॥
वीर पृथ्वी पर
इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी-किनारे के वृक्ष ढह रहे हों। बहुत-सी मज्जा बह रही
है,
वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते हैं,
वहाँ उत्तम योद्धाओं के मन में सुख होता है॥ 87॥
मज्जहिं भूत
पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला॥
काक कंक लै
भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥
भूत,
पिशाच और बेताल, बड़े-बड़े झोंटोंवाले महान भयंकर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण)
उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते हैं और एक-दूसरे से
छीनकर खा जाते हैं।
एक कहहिं ऐसिउ
सौंघाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥
कहँरत भट घायल
तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥
एक (कोई) कहते
हैं,
अरे मूर्खो! ऐसी सस्ती (बहुतायत) है,
फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती?
घायल योद्धा तट पर पड़े कराह रहे हैं,
मानो जहाँ-तहाँ अर्धजल (वे व्यक्ति जो मरने के समय आधे जल
में रखे जाते हैं) पड़े हों।
खैचहिं गीध
आँत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥
बहु भट बहहिं
चढ़े खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥
गीध आँतें
खींच रहे हैं, मानो मछली मार नदी तट पर से चित्त लगाए हुए (ध्यानस्थ होकर) बंसी खेल रहे हों
(बंसी से मछली पकड़ रहे हों)। बहुत-से योद्धा बहे जा रहे हैं और पक्षी उन पर चढ़े
चले जा रहे हैं। मानो वे नदी में नावरि (नौकाक्रीड़ा) खेल रहे हों।
जोगिनि भरि
भरि खप्पर संचहिं। भूति पिसाच बधू नभ नंचहिं॥
भट कपाल करताल
बजावहिं। चामुंडा नाना बिधि गावहिं॥
योगिनियाँ
खप्परों में भर-भरकर खून जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचों की स्त्रियाँ आकाश में नाच
रही हैं। चामुंडाएँ योद्धाओं की खोपड़ियों का करताल बजा रही हैं और नाना प्रकार से
गा रही हैं।
जंबुक निकर
कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥
कोटिन्ह रुंड
मुंड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥
गीदड़ों के
समूह कट-कट शब्द करते हुए मुरदों को काटते, खाते, हुआँ-हुआँ करते और पेट भर जाने पर एक-दूसरे को डाँटते हैं।
करोड़ों धड़ बिना सिर के घूम रहे हैं और सिर पृथ्वी पर पड़े जय-जय बोल रहे हैं।
छं० -
बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह
खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥
बानर निसाचर
निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
संग्राम अंगन
सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥
मुंड (कटे
सिर) जय-जय बोल बोलते हैं और प्रचंड रुंड (धड़) बिना सिर के दौड़ते हैं। पक्षी
खोपड़ियों में उलझ-उलझकर परस्पर लड़े मरते हैं; उत्तम योद्धा दूसरे योद्धाओं को ढहा रहे हैं। राम बल से
दर्पित हुए वानर राक्षसों के झुंडों को मसले डालते हैं। राम के बाण समूहों से मरे
हुए योद्धा लड़ाई के मैदान में सो रहे हैं।
दो० - रावन
हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार।
मैं अकेल कपि
भालु बहु माया करौं अपार॥ 88॥
रावण ने हृदय
में विचारा कि राक्षसों का नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं,
इसलिए मैं अब अपार माया रचूँ॥ 88॥
देवन्ह
प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥
सुरपति निज रथ
तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥
देवताओं ने
प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बड़ा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ। (फिर
क्या था) इंद्र ने तुरंत अपना रथ भेज दिया। (उसका सारथी) मातलि हर्ष के साथ उसे ले
आया।
तेज पुंज रथ
दिब्य अनूपा। हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा॥
चंचल तुरग
मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी॥
उस दिव्य
अनुपम और तेज के पुंज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा राम हर्षित होकर चढ़े।
उसमें चार चंचल, मनोहर, अजर,
अमर और मन की गति के समान शीघ्र चलनेवाले (देवलोक के) घोड़े
जुते थे।
रथारूढ़
रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥
सही न जाइ
कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी॥
रघुनाथ को रथ
पर चढ़े देखकर वानर विशेष बल पाकर दौड़े। वानरों की मार सही नहीं जाती। तब रावण ने
माया फैलाई।
सो माया
रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची॥
देखी कपिन्ह
निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी॥
एक रघुवीर के
ही वह माया नहीं लगी। सब वानरों ने और लक्ष्मण ने भी उस माया को सच मान लिया।
वानरों ने राक्षसी सेना में भाई लक्ष्मण सहित बहुत-से रामों को देखा।
छं० - बहु राम
लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे।
जनु चित्र
लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥
निज सेन चकित
बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी।
माया हरी हरि
निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥
बहुत-से
राम-लक्ष्मण देखकर वानर-भालू मन में मिथ्या डर से बहुत ही डर गए। लक्ष्मण सहित वे
मानो चित्रलिखे-से जहाँ-के-तहाँ खड़े देखने लगे। अपनी सेना को आश्चर्यचकित देखकर
कोसलपति भगवान हरि (दुःखों के हरनेवाले राम) ने हँसकर धनुष पर बाण चढ़ाकर,
पल भर में सारी माया हर ली। वानरों की सारी सेना हर्षित हो
गई।
दो० - बहुरि
राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर।
द्वंदजुद्ध
देखहु सकल श्रमित भए अति बीर॥ 89॥
फिर राम सबकी
ओर देखकर गंभीर वचन बोले - हे वीरो! तुम सब बहुत ही थक गए हो,
इसलिए अब (मेरा और रावण का) द्वंद्व युद्ध देखो॥ 89॥
अस कहि रथ
रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा॥
तब लंकेस
क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥
ऐसा कहकर
रघुनाथ ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय
में क्रोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हुआ सामने दौड़ा।
जीतेहु जे भट
संजुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं॥
रावन नाम जगत
जस जाना। लोकप जाकें बंदीखाना॥
(उसने कहा -) अरे तपस्वी! सुनो, तुमने युद्ध में जिन योद्धाओं को जीता है,
मैं उनके समान नहीं हूँ। मेरा नाम रावण है,
मेरा यश सारा जगत जानता है, लोकपाल तक जिसके कैदखाने में पड़े हैं।
खर दूषन बिराध
तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥
निसिचर निकर
सुभट संघारेहु। कुंभकरन घननादहि मारेहु॥
तुमने खर,
दूषण और विराध को मारा! बेचारे बालि का व्याध की तरह वध
किया। बड़े-बड़े राक्षस योद्धाओं के समूह का संहार किया और कुंभकर्ण तथा मेघनाद को
भी मारा।
आजु बयरु सबु
लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाही॥
आजु करउँ खलु
काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले॥
अरे राजा! यदि
तुम रण से भाग न गए तो आज मैं (वह) सारा वैर निकाल लूँगा। आज मैं तुम्हें निश्चय
ही काल के हवाले कर दूँगा। तुम कठिन रावण के पाले पड़े हो।
सुनि दुर्बचन
कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥
सत्य सत्य सब
तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई॥
रावण के
दुर्वचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपानिधान राम ने हँसकर यह वचन कहा - तुम्हारी
सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कुल सच है। पर अब व्यर्थ बकवास न करो,
अपना पुरुषार्थ दिखलाओ।
छं० - जनि
जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ
पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद
एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं
कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥
व्यर्थ बकवास
करके अपने सुंदर यश का नाश न करो। क्षमा करना, तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो! संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं - पाटल
(गुलाब),
आम और कटहल के समान। एक (पाटल) फूल देते हैं,
एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं एक (कटहल) में केवल फल ही
लगते हैं। इसी प्रकार (पुरुषों में) एक कहते हैं (करते नहीं),
दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं,
पर वाणी से कहते नहीं।
दो० - राम बचन
सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान।
बयरु करत नहिं
तब डरे अब लागे प्रिय प्रान॥ 90॥
राम के वचन
सुनकर वह खूब हँसा (और बोला -) मुझे ज्ञान सिखाते हो?
उस समय वैर करते तो नहीं डरे, अब प्राण प्यारे लग रहे हैं॥ 90॥
कहि दुर्बचन
क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़ै सर॥
नानाकार
सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥
दुर्वचन कहकर
रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा। अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा,
विदिशा तथा आकाश और पृथ्वी में,
सब जगह छा गए।
पावक सर
छाँड़ेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥
छाड़िसि तीब्र
सक्ति खिसिआई। बान संग प्रभु फेरि चलाई॥
रघुवीर ने
अग्निबाण छोड़ा, (जिससे) रावण के सब बाण क्षणभर में भस्म हो गए। तब उसने खिसियाकर तीक्ष्ण शक्ति
छोड़ी,
(किंतु) राम ने उसको बाण के
साथ वापस भेज दिया।
कोटिन्ह चक्र
त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै॥
निफल होहिं
रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसें॥
वह करोड़ों
चक्र और त्रिशूल चलाता है, परंतु प्रभु उन्हें बिना ही परिश्रम काटकर हटा देते हैं।
रावण के बाण किस प्रकार निष्फल होते हैं, जैसे दुष्ट मनुष्य के सब मनोरथ!
तब सत बान
सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥
राम कृपा करि
सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा॥
तब उसने राम
के सारथी को सौ बाण मारे। वह राम की जय पुकारकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। राम ने कृपा
करके सारथी को उठाया। तब प्रभु अत्यंत क्रोध को प्राप्त हुए।
छं० - भए
क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।
कोदंड धुनि
अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे॥
मंदोदरी उर
कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे।
चिक्करहिं
दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥
युद्ध में
शत्रु के विरुद्ध रघुनाथ क्रोधित हुए, तब तरकस में बाण कसमसाने लगे (बाहर निकलने को आतुर होने
लगे)। उनके धनुष का अत्यंत प्रचंड शब्द (टंकार) सुनकर मनुष्यभक्षी सब राक्षस
वातग्रस्त हो गए (अत्यंत भयभीत हो गए)। मंदोदरी का हृदय काँप उठा,
समुद्र, कच्छप, पृथ्वी और पर्वत डर गए। दिशाओं के हाथी पृथ्वी को दाँतों से
पकड़कर चिग्घाड़ने लगे। यह कौतुक देखकर देवता हँसे।
दो० - तानेउ
चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल।
राम मारगन गन
चले लहलहात जनु ब्याल॥ 91॥
धनुष को कान
तक तानकर राम ने भयानक बाण छोड़े। राम के बाण समूह ऐसे चले मानो सर्प लहलहाते
(लहराते) हुए जा रहे हों॥ 91॥
चले बान सपच्छ
जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥
रथ बिभंजि हति
केतु पताका। गर्जा अति अंतर बल थाका॥
बाण ऐसे चले
मानो पंखवाले सर्प उड़ रहे हों। उन्होंने पहले सारथी और घोड़ों को मार डाला। फिर
रथ को चूर-चूर करके ध्वजा और पताकाओं को गिरा दिया। तब रावण बड़े जोर से गरजा,
पर भीतर से उसका बल थक गया था।
तुरत आन रथ
चढ़ि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना॥
बिफल होहिं सब
उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥
तुरंत दूसरे
रथ पर चढ़कर खिसियाकर उसने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छोड़े। उसके सब उद्योग
वैसे ही निष्फल हो गए, जैसे परद्रोह में लगे हुए चित्तवाले मनुष्य के होते हैं।
तब रावन दस
सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥
तुरग उठाइ
कोपि रघुनायक। खैंचि सरासन छाँड़े सायक॥
तब रावण ने दस
त्रिशूल चलाए और राम के चारों घोड़ों को मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। घोड़ों को
उठाकर रघुनाथ ने क्रोध करके धनुष खींचकर बाण छोड़े।
रावन सिर सरोज
बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥
दस दस बान भाल
दस मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे॥
रावण के
सिररूपी कमल वन में विचरण करनेवाले रघुवीर के बाणरूपी भ्रमरों की पंक्ति चली। राम
ने उसके दसों सिरों में दस-दस बाण मारे, जो आर-पार हो गए और सिरों से रक्त के पनाले बह चले।
स्रवत रुधिर
धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना॥
तीस तीर
रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे॥
रुधिर बहते
हुए ही बलवान रावण दौड़ा। प्रभु ने फिर धनुष पर बाण संधान किया। रघुवीर ने तीस बाण
मारे और बीसों भुजाओं समेत दसों सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा दिए।
काटतहीं पुनि
भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥
प्रभु बहु बार
बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए॥
(सिर और हाथ) काटते ही फिर नए हो गए। राम ने फिर भुजाओं और सिरों को काट
गिराया। इस तरह प्रभु ने बहुत बार भुजाएँ और सिर काटे,
परंतु काटते ही वे तुरंत फिर नए हो गए।
पुनि पुनि
प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा॥
रहे छाइ नभ
सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू॥
प्रभु बार-बार
उसकी भुजा और सिरों को काट रहे हैं, क्योंकि कोसलपति राम बड़े कौतुकी हैं। आकाश में सिर और बाहु
ऐसे छा गए हैं, मानो असंख्य केतु और राहु हों।
छं० - जनु
राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर
प्रचंड लागहिं भूमि गिरत न पावहीं॥
एक एक सर सिर
निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं।
जनु कोपि
दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं॥
मानो अनेकों
राहु और केतु रुधिर बहाते हुए आकाश मार्ग से दौड़ रहे हों। रघुवीर के प्रचंड बाणों
के (बार-बार) लगने से वे पृथ्वी पर गिरने नहीं पाते। एक-एक बाण से समूह-के-समूह
सिर छिदे हुए आकाश में उड़ते ऐसे शोभा दे रहे हैं मानो सूर्य की किरणें क्रोध करके
जहाँ-तहाँ राहुओं को पिरो रही हों।
दो० - जिमि
जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि होहिं अपार।
सेवत बिषय
बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥ 92॥
जैसे-जैसे
प्रभु उसके सिरों को काटते हैं, वैसे-ही-वैसे वे अपार होते जाते हैं। जैसे विषयों का सेवन
करने से काम (उन्हें भोगने की इच्छा) दिन-प्रतिदिन नया-नया बढ़ता जाता है॥ 92॥
दसमुख देखि
सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी॥
गर्जेउ मूढ़
महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥
सिरों की बाढ़
देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बड़ा गहरा क्रोध हुआ। वह महान अभिमानी मूर्ख
गरजा और दसों धनुषों को तानकर दौड़ा।
समर भूमि
दसकंधर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥
दंड एक रथ
देखि न परेउ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥
रणभूमि में
रावण ने क्रोध किया और बाण बरसाकर रघुनाथ के रथ को ढँक दिया। एक दंड (घड़ी) तक रथ
दिखलाई न पड़ा, मानो कुहरे में सूर्य छिप गया हो।
हाहाकार
सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥
सर निवारि
रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिसि गगन महि पाटे॥
जब देवताओं ने
हाहाकार किया, तब प्रभु ने क्रोध करके धनुष उठाया और शत्रु के बाणों को हटाकर उन्होंने शत्रु
के सिर काटे और उनसे दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्वी सबको पाट दिया।
काटे सिर नभ
मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥
कहँ लछिमन
सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा॥
काटे हुए सिर
आकाश मार्ग से दौड़ते हैं और जय-जय की ध्वनि करके भय उत्पन्न करते हैं। 'लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव कहाँ हैं?
कोसलपति रघुवीर कहाँ हैं?'
छं० - कहँ
रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।
संधानि धनु
रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥
सिर मालिका कर
कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सरि
मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं॥
'राम कहाँ हैं?' यह कहकर सिरों के समूह दौड़े, उन्हें देखकर वानर भाग चले। तब धनुष संधान करके रघुकुलमणि
राम ने हँसकर बाणों से उन सिरों को भलीभाँति बेध डाला। हाथों में मुंडों की मालाएँ
लेकर बहुत-सी कालिकाएँ झुंड-की-झुंड मिलकर इकट्ठी हुईं और वे रुधिर की नदी में
स्नान करके चलीं। मानो संग्रामरूपी वटवृक्ष की पूजा करने जा रही हों।
दो० - पुनि
दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड।
चली बिभीषन
सन्मुख मनहुँ काल कर दंड॥ 93॥
फिर रावण ने
क्रोधित होकर प्रचंड शक्ति छोड़ी। वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल (यमराज) का
दंड हो॥ 93॥
आवत देखि
सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन
पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥
अत्यंत भयानक
शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है,
राम ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह
शक्ति स्वयं सह ली।
लागि सक्ति
मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥
देखि बिभीषन
प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥
शक्ति लगने से
उन्हें कुछ मूर्च्छा हो गई। प्रभु ने तो यह लीला की, पर देवताओं को व्याकुलता हुई। प्रभु को श्रम (शारीरिक कष्ट)
प्राप्त हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौड़े।
रे कुभाग्य सठ
मंद कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥
सादर सिव कहुँ
सीस चढ़ाए। एक एक के कोटिन्ह पाए॥
(और बोले -) अरे अभागे! मूर्ख, नीच दुर्बुद्धि! तूने देवता, मनुष्य, मुनि, नाग सभी से विरोध किया। तूने आदर सहित शिव को सिर चढ़ाए।
इसी से एक-एक के बदले में करोड़ों पाए।
तेहि कारन खल
अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥
राम बिमुख सठ
चहसि संपदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥
उसी कारण से
अरे दुष्ट! तू अब तक बचा है, (किंतु) अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है। अरे मूर्ख! तू राम
विमुख होकर संपत्ति (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचों-बीच गदा मारी।
छं० - उर माझ
गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर्यो।
दस बदन सोनित
स्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर्यो॥
द्वौ भिरे
अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।
रघुबीर बल
दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥
बीच छाती में
कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके दसों मुखों से
रुधिर बहने लगा; वह अपने को फिर संभालकर क्रोध में भरा हुआ दौड़ा। दोनों अत्यंत बलवान योद्धा
भिड़ गए और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे। रघुवीर के बल से
गर्वित विभीषण उसको (रावण-जैसे जगद्विजयी योद्धा को) पासंग के बराबर भी नहीं
समझते।
दो० - उमा
बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।
सो अब भिरत
काल ज्यों श्री रघुबीर प्रभाउ॥ 94॥
(शिव कहते हैं -) हे उमा! विभीषण क्या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता
था?
परंतु अब वही काल के समान उससे भिड़ रहा है। यह श्री रघुवीर
का ही प्रभाव है॥ 94॥
देखा श्रमित
बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥
रथ तुरंग
सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥
विभीषण को
बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से
रावण के रथ, घोड़े और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी।
ठाढ़ रहा अति
कंपित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥
पुनि रावन कपि
हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥
रावण खड़ा रहा,
पर उसका शरीर अत्यंत काँपने लगा। विभीषण वहाँ गए,
जहाँ सेवकों के रक्षक राम थे। फिर रावण ने ललकारकर हनुमान
को मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाश में चले गए।
गहिसि पूँछ
कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥
लरत अकास जुगल
सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा॥
रावण ने पूँछ
पकड़ ली,
हनुमान उसको साथ लिए ऊपर उड़े। फिर लौटकर महाबलवान हनुमान
उससे भिड़ गए। दोनों समान योद्धा आकाश में लड़ते हुए एक-दूसरे को क्रोध करके मारने
लगे।
सोहहिं नभ छल
बल बहु करहीं। कज्जलगिरि सुमेरु जनु लरहीं॥
बुधि बल
निसिचर परइ न पारयो। तब मारुतसुत प्रभु संभार्यो॥
दोनों बहुत-से
छल-बल करते हुए आकाश में ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो कज्जलगिरि और सुमेरु पर्वत लड़
रहे हों। जब बुद्धि और बल से राक्षस गिराए न गिरा तब मारुति हनुमान ने प्रभु को
स्मरण किया।
छं० - संभारि
श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।
महि परत पुनि
उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो॥
हनुमंत संकट
देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।
रन मत्त रावन
सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले॥
श्री रघुवीर
का स्मरण करके धीर हनुमान ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोनों पृथ्वी पर गिरते और
फिर उठकर लड़ते हैं; देवताओं ने दोनों की 'जय-जय' पुकारी। हनुमान पर संकट देखकर वानर-भालू क्रोधातुर होकर
दौड़े,
किंतु रण-मद-माते रावण ने सब योद्धाओं को अपनी प्रचंड
भुजाओं के बल से कुचल और मसल डाला।
दो० - तब
रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड।
कपि बल प्रबल
देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड॥ 95॥
तब रघुवीर के
ललकारने पर प्रचंड वीर वानर दौड़े। वानरों के प्रबल दल को देखकर रावण ने माया
प्रकट की॥ 95॥
अंतरधान भयउ
छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥
रघुपति कटक
भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥
क्षणभर के लिए
वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। रघुनाथ की सेना में
जितने रीछ-वानर थे, उतने ही रावण जहाँ-तहाँ (चारों ओर) प्रकट हो गए।
देखे कपिन्ह
अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा॥
भागे बानर
धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा॥
वानरों ने
अपरिमित रावण देखे। भालू और वानर सब जहाँ-तहाँ (इधर-उधर) भाग चले। वानर धीरज नहीं
धरते। हे लक्ष्मण! हे रघुवीर! बचाइए, बचाइए, यों पुकारते हुए वे भागे जा रहे हैं।
दहँ दिसि
धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥
डरे सकल सुर
चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई॥
दसों दिशाओं
में करोड़ों रावण दौड़ते हैं और घोर, कठोर भयानक गर्जन कर रहे हैं। सब देवता डर गए और ऐसा कहते
हुए भाग चले कि हे भाई! अब जय की आशा छोड़ दो!
सब सुर जिते
एक दसकंधर। अब बहु भए तकहु गिरि कंदर॥
रहे बिरंचि
संभु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥
एक ही रावण ने
सब देवताओं को जीत लिया था, अब तो बहुत-से रावण हो गए हैं। इससे अब पहाड़ की गुफाओं का
आश्रय लो (अर्थात उनमें छिप रहो)। वहाँ ब्रह्मा, शंभु और ज्ञानी मुनि ही डटे रहे,
जिन्होंने प्रभु की कुछ महिमा जानी थी।
छं० - जाना
प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे।
चले बिचलि
मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे॥
हनुमंत अंगद
नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे।
मर्दहिं दसानन
कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे॥
जो प्रभु का
प्रताप जानते थे, वे निर्भय डटे रहे। वानरों ने शत्रुओं (बहुत-से रावणों) को
सच्चा ही मान लिया। (इससे) सब वानर-भालू विचलित होकर 'हे कृपालु! रक्षा कीजिए' (यों पुकारते हुए) भय से व्याकुल होकर भाग चले। अत्यंत बलवान
रणबाँकुरे हनुमान, अंगद, नील और नल लड़ते हैं और कपटरूपी भूमि से अंकुर की भाँति
उपजे हुए कोटि-कोटि योद्धा रावणों को मसलते हैं।
दो० - सुर
बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस।
सजि सारंग एक
सर हते सकल दससीस॥ 96॥
देवताओं और
वानरों को विकल देखकर कोसलपति राम हँसे और शार्गंधनुष पर एक बाण चढ़ाकर (माया के
बने हुए) सब रावणों को मार डाला॥ 96॥
प्रभु छन महुँ
माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥
रावनु एकु
देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥
प्रभु ने
क्षणभर में सब माया काट डाली। जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार की राशि फट जाती
है (नष्ट हो जाती है)। अब एक ही रावण को देखकर देवता हर्षित हुए और उन्होंने लौटकर
प्रभु पर बहुत-से पुष्प बरसाए।
भुज उठाइ
रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे॥
प्रभु बलु पाइ
भालु कपि धाए। तरल तमकि संजुग महि आए॥
रघुनाथ ने
भुजा उठाकर सब वानरों को लौटाया। तब वे एक-दूसरे को पुकार-पुकार कर लौट आए। प्रभु
का बल पाकर रीछ-वानर दौड़ पड़े। जल्दी से कूदकर वे रणभूमि में आ गए।
अस्तुति करत
देवतन्हि देखें। भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें॥
सठहु सदा
तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोपि गगन पर धायल॥
देवताओं को
राम की स्तुति करते देख कर रावण ने सोचा, मैं इनकी समझ में एक हो गया। (परंतु इन्हें यह पता नहीं कि
इनके लिए मैं एक ही बहुत हूँ) और कहा - अरे मूर्खो! तुम तो सदा के ही मेरे मरैल
(मेरी मार खानेवाले) हो। ऐसा कहकर वह क्रोध करके आकाश पर (देवताओं की ओर) दौड़ा।
हाहाकार करत
सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे॥
देखि बिकल सुर
अंगद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो॥
देवता हाहाकार
करते हुए भागे। (रावण ने कहा -) दुष्टो! मेरे आगे से कहाँ जा सकोगे?
देवताओं को व्याकुल देखकर अंगद दौड़े और उछलकर रावण का पैर
पकड़कर (उन्होंने) उसको पृथ्वी पर गिरा दिया।
छं० - गहि
भूमि पार्यो लात मार्यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो।
संभारि उठि
दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो॥
करि दाप चाप
चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई।
किए सकल भट
घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई॥
उसे पकड़कर
पृथ्वी पर गिराकर लात मारकर बालिपुत्र अंगद प्रभु के पास चले गए। रावण सँभलकर उठा
और बड़े भंयकर कठोर शब्द से गरजने लगा। वह दर्प करके दसों धनुष चढ़ाकर उन पर
बहुत-से बाण संधान करके बरसाने लगा। उसने सब योद्धाओं को घायल और भय से व्याकुल कर
दिया और अपना बल देखकर वह हर्षित होने लगा।
दो० - तब
रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप।
काटे बहुत
बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप॥ 97॥
तब रघुनाथ ने
रावण के सिर, भुजाएँ, बाण और धनुष काट डाले। पर वे फिर बहुत बढ़ गए, जैसे तीर्थ में किए हुए पाप बढ़ जाते हैं (कई गुना अधिक
भयानक फल उत्पन्न करते हैं)!॥ 97॥
सिर भुज बाढ़ि
देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥
मरत न मूढ़
कटेहुँ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥
शत्रु के सिर
और भुजाओं की बढ़ती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं के और
सिरों के कटने पर भी नहीं मरता, (ऐसा कहते हुए) भालू और वानर योद्धा क्रोध करके दौड़े।
बालितनय
मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥
बिटप महीधर
करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा॥
बालिपुत्र
अंगद,
मारुति हनुमान, नल, नील, वानरराज सुग्रीव और द्विविद आदि बलवान उस पर वृक्ष और
पर्वतों का प्रहार करते हैं। वह उन्हीं पर्वतों और वृक्षों को पकड़कर वानरों को
मारता है।
एक नखन्हि
रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी।
तब नल नील
सिरन्हि चढ़ि गयऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ॥
कोई एक वानर
नखों से शत्रु के शरीर को फाड़कर भाग जाते हैं, तो कोई उसे लातों से मारकर। तब नल और नील रावण के सिरों पर
चढ़ गए और नखों से उसके ललाट को फाड़ने लगे।
रुधिर देखि
बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी॥
गहे न जाहिं
करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं॥
खून देखकर उसे
हृदय में बड़ा दुःख हुआ। उसने उनको पकड़ने के लिए हाथ फैलाए,
पर वे पकड़ में नहीं आते, हाथों के ऊपर-ऊपर ही फिरते हैं मानो दो भौंरे कमलों के वन
में विचरण कर रहे हों।
कोपि कूदि
द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥
पुनि सकोप दस
धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे॥
तब उसने क्रोध
करके उछलकर दोनों को पकड़ लिया। पृथ्वी पर पटकते समय वे उसकी भुजाओं को मरोड़कर
भाग छूटे। फिर उसने क्रोध करके हाथों में दसों धनुष लिए और वानरों को बाणों से
मारकर घायल कर दिया।
हनुमदादि
मुरुछित करि बंदर। पाइ प्रदोष हरष दसकंधर॥
मुरुछित देखि
सकल कपि बीरा। जामवंत धायउ रनधीरा॥
हनुमान आदि सब
वानरों को मूर्च्छित करके और संध्या का समय पाकर रावण हर्षित हुआ। समस्त
वानर-वीरों को मूर्च्छित देखकर रणधीर जाम्बवान दौड़े।
संग भालु भूधर
तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥
भयउ क्रुद्ध
रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना॥
जाम्बवान के
साथ जो भालू थे, वे पर्वत और वृक्ष धारण किए रावण को ललकार-ललकार कर मारने लगे। बलवान रावण
क्रोधित हुआ और पैर पकड़-पकड़कर वह अनेकों योद्धाओं को पृथ्वी पर पटकने लगा।
देखि भालुपति
निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥
जाम्बवान ने
अपने दल का विध्वंस देखकर क्रोध करके रावण की छाती में लात मारी।
छं० - उर लात
घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा।
गहि भालु
बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥
मुरुछित
बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो॥
निसि जानि
स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करय भयो॥
छाती में लात
का प्रचंड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने बीसों
हाथों में भालूओं को पकड़ रखा था। (ऐसा जान पड़ता था) मानो रात्रि के समय भौंरे
कमलों में बसे हुए हों। उसे मूर्च्छित देखकर, फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान प्रभु के पास चले। रात्रि
जानकर सारथी रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा।
दो० - मुरुछा
बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास।
निसिचर सकल
रावनहि घेरि रहे अति त्रास॥ 98॥
मूर्च्छा दूर
होने पर सब रीछ-वानर प्रभु के पास आए। उधर सब राक्षसों ने बहुत ही भयभीत होकर रावण
को घेर लिया॥ 98॥
श्री राम चरित
मानस- लंकाकांड, मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम समाप्त॥
शेष जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- लंकाकांड मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस लंकाकांड, मासपारायण, पच्चीसवाँ विश्राम
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