श्रीरामचरित मानस- लंकाकांड, मासपारायण, पच्चीसवाँ विश्राम
श्रीरामचरित
मानस- लंकाकांड, मासपारायण, पच्चीसवाँ विश्राम
श्रीरामचरित मानस- लंकाकांड, मासपारायण, पच्चीसवाँ विश्राम
श्री
रामचरित मानस
षष्टम सोपान
(लंकाकांड)
रामं
कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं
ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं
सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वंदे
कंदावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्॥ 1॥
कामदेव के
शत्रु शिव के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरनेवाले,
कालरूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान,
योगियों के स्वामी (योगीश्वर),
ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृंद के एकमात्र देवता (रक्षक),
जलवाले मेघ के समान सुंदर श्याम,
कमल के से नेत्रवाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव राम की मैं वंदना करता
हूँ॥ 1॥
शंखेन्द्वाभमतीवसुंदरतनुं
शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं
गंगाशशांकप्रियम्।
काशीशं
कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं
गिरिजापतिं गुणनिधिं कंदर्पहं शंकरम्॥ 2॥
शंख और
चंद्रमा की-सी कांति के अत्यंत सुंदर शरीरवाले, व्याघ्रचर्म के वस्त्रवाले, काल के समान (अथवा काले रंग के) भयानक सर्पों का भूषण धारण
करनेवाले,
गंगा और चंद्रमा के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप समूह का नाश करनेवाले,
कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करनेवाले,
पार्वती पति वंदनीय शंकर को मैं नमस्कार करता हूँ॥ 2॥
यो ददाति सतां
शंभुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।
खलानां
दंडकृद्योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे॥ 3॥
जो सत पुरुषों
को अत्यंत दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों को दंड देनेवाले हैं,
वे कल्याणकारी शंभु मेरे कल्याण का विस्तार करें॥ 3॥
दो० - लव
निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।
भजसि न मन
तेहि राम को कालु जासु कोदंड॥
लव,
निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचंड बाण हैं और काल जिनका धनुष है,
हे मन! तू उन राम को क्यों नहीं भजता?
सो० - सिंधु
बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलंबु
केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु॥
समुद्र के वचन
सुनकर प्रभु राम ने मंत्रियों को बुलाकर ऐसा कहा - अब विलंब किसलिए हो रहा है?
सेतु (पुल) तैयार करो, जिससे सेना उतरे।
सुनहु भानुकुल
केतु जामवंत कर जोरि कह।
नाथ नाम तव
सेतु नर चढ़ि भव सागर तरहिं॥
जाम्बवान ने
हाथ जोड़कर कहा - हे सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ानेवाले) राम! सुनिए।
हे नाथ! (सबसे बड़ा) सेतु तो आपका नाम ही है, जिस पर चढ़कर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसाररूपी समुद्र
से पार हो जाते हैं।
यह लघु जलधि
तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥
प्रभु प्रताप
बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥
फिर यह
छोटा-सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर फिर पवनकुमार हनुमान ने कहा - प्रभु का प्रताप
भारी बड़वानल (समुद्र की आग) के समान है। इसने पहले समुद्र के जल को सोख लिया था,
तव रिपु नारि
रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥
सुनि अति
उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥
परंतु आपके
शत्रुओं की स्त्रियों के आँसुओं की धारा से यह फिर भर गया और उसी से खारा भी हो
गया। हनुमान की यह अत्युक्ति (अलंकारपूर्ण युक्ति) सुनकर वानर रघुनाथ की ओर देखकर
हर्षित हो गए।
जामवंत बोले
दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप
सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥
जाम्बवान ने
नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई (और कहा -) मन में राम के
प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, (रामप्रताप से) कुछ भी परिश्रम नहीं होगा।
बोलि लिए कपि
निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥
राम चरन पंकज
उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू॥
फिर वानरों के
समूह को बुला लिया (और कहा -) आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिए। अपने हृदय में राम
के चरण-कमलों को धारण कर लीजिए और सब भालू और वानर एक खेल कीजिए।
धावहु मर्कट
बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥
सुनि कपि भालु
चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा॥
विकट वानरों
के समूह (आप) दौड़ जाइए और वृक्षों तथा पर्वतों के समूहों को उखाड़ लाइए। यह सुनकर
वानर और भालू हूह (हुँकार) करके और रघुनाथ के प्रतापसमूह की (अथवा प्रताप के पुंज
राम की) जय पुकारते हुए चले।
दो० - अति
उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल
नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ॥ 1॥
बहुत
ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह ही (उखाड़कर) उठा लेते हैं और ला-लाकर
नल-नील को देते हैं। वे अच्छी तरह गढ़कर (सुंदर) सेतु बनाते हैं॥ 1॥
सैल बिसाल आनि
कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥
देखि सेतु अति
सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥
वानर
बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु
की अत्यंत सुंदर रचना देखकर कृपासिंधु राम हँसकर वचन बोले -
परम रम्य
उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ
संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना॥
यह (यहाँ की)
भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिव
की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान संकल्प है।
सुनि कपीस बहु
दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए॥
लिंग थापि
बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥
राम के वचन
सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत-से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिंग की स्थापना
करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया। (फिर भगवान बोले -) शिव के समान मुझको दूसरा कोई
प्रिय नहीं है।
सिव द्रोही मम
भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
संकर बिमुख
भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥
जो शिव से
द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकर से विमुख
होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है।
दो० -
संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं
कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥ 2॥
जिनको शंकर
प्रिय हैं, परंतु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिव के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते)
हैं,
वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥ 2॥
जे रामेस्वर
दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
जो गंगाजलु
आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥
जो मनुष्य
(मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वर का दर्शन करेंगे,
वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे। और जो गंगाजल लाकर इन
पर चढ़ावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात मेरे साथ एक हो जाएगा)।
होइ अकाम जो
छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि संकर देइहि॥
मम कृत सेतु
जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥
जो छल छोड़कर
और निष्काम होकर रामेश्वर की सेवा करेंगे, उन्हें शंकर मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का
दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसाररूपी समुद्र से तर जाएगा।
राम बचन सब के
जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए॥
गिरिजा रघुपति
कै यह रीती। संतत करहिं प्रनत पर प्रीती॥
राम के वचन
सबके मन को अच्छे लगे। तदनंतर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। (शिव
कहते हैं -) हे पार्वती! रघुनाथ की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते
हैं।
बाँधा सेतु
नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूड़हिं आनहि
बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥
चतुर नल और
नील ने सेतु बाँधा। राम की कृपा से उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। जो
पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान (स्वयं तैरनेवाले और दूसरों को पार ले
जानेवाले) हो गए।
महिमा यह न
जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥
यह न तो
समुद्र की महिमा वर्णन की गई है, न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है।
दो० - श्री
रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे
राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥ 3॥
श्री रघुवीर
के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे राम को छोड़कर जो किसी दूसरे स्वामी
को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मंदबुद्धि हैं।
बाँधि सेतु
अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥
चली सेन कछु
बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥
नल-नील ने
सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखने पर वह कृपानिधान राम के मन को (बहुत ही)
अच्छा लगा। सेना चली, जिसका कुछ वर्णन नहीं हो सकता। योद्धा वानरों के समुदाय गरज
रहे हैं।
सेतुबंध ढिग
चढ़ि रघुराई। चितव कृपाल सिंधु बहुताई॥
देखन कहुँ
प्रभु करुना कंदा। प्रगट भए सब जलचर बृंदा॥
कृपालु रघुनाथ
सेतुबंध के तट पर चढ़कर समुद्र का विस्तार देखने लगे। करुणाकंद (करुणा के मूल)
प्रभु के दर्शन के लिए सब जलचरों के समूह प्रकट हो गए (जल के ऊपर निकल आए)।
मकर नक्र नाना
झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला॥
अइसेउ एक
तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं॥
बहुत तरह के
मगर,
नाक (घड़ियाल), मच्छ और सर्प थे, जिनके सौ-सौ योजन के बहुत बड़े विशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी
जंतु थे,
जो उनको भी खा जाएँ। किसी-किसी के डर से तो वे भी डर रहे
थे।
प्रभुहि
बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे॥
तिन्ह कीं ओट
न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी॥
वे सब
(वैर-विरोध भूलकर) प्रभु के दर्शन कर रहे हैं, हटाने से भी नहीं हटते। सबके मन हर्षित हैं;
सब सुखी हो गए। उनकी आड़ के कारण जल नहीं दिखाई पड़ता। वे
सब भगवान का रूप देखकर (आनंद और प्रेम में) मग्न हो गए।
चला कटकु
प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥
प्रभु की
आज्ञा पाकर सेना चली। वानर सेना की विपुलता (अत्यधिक संख्या) को कौन कह सकता है?
दो० –
सेतु बंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।
अपर जलचरन्हि
ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं॥ 4॥
सेतुबंध पर
बड़ी भीड़ हो गई, इससे कुछ वानर आकाश मार्ग से उड़ने लगे और दूसरे (कितने ही)
जलचर जीवों पर चढ़-चढ़कर पार जा रहे हैं॥ 4॥
अस कौतुक
बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई॥
सेन सहित उतरे
रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥
कृपालु रघुनाथ
(तथा लक्ष्मण) दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले। रघुवीर सेना सहित समुद्र
के पार हो गए। वानरों और उनके सेनापतियों की भीड़ कही नहीं जा सकती।
सिंधु पार
प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥
खाहु जाइ फल
मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए॥
प्रभु ने
समुद्र के पार डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी कि तुम जाकर सुंदर फल-मूल खाओ।
यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े।
सब तरु फरे
राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥
खाहिं मधुर फल
बिटप हलावहिं। लंका सन्मुख सिखर चलवाहिं॥
राम के हित
(सेवा) के लिए सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु - समय की गति को छोड़कर फल उठे। वानर-भालू मीठे
फल खा रहे हैं, वृक्षों को हिला रहे हैं और पर्वतों के शिखरों को लंका की ओर फेंक रहे हैं।
जहँ कहुँ फिरत
निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥
दसनन्हि काटि
नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना॥
घूमते-घूमते
जहाँ कहीं किसी राक्षस को पा जाते हैं तो सब उसे घेरकर खूब नाच नचाते हैं और
दाँतों से उसके नाक-कान काटकर, प्रभु का सुयश कहकर (अथवा कहलाकर) तब उसे जाने देते हैं।
जिन्ह कर नासा
कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता॥
सुनत श्रवन
बारिधि बंधाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना॥
जिन राक्षसों
के नाक और कान काट डाले गए, उन्होंने रावण से सब समाचार कहा। समुद्र (पर सेतु) का बाँधा
जाना कानों से सुनते ही रावण घबड़ाकर दसों मुखों से बोल उठा -
दो० - बाँध्यो
बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस।
सत्य तोयनिधि
कंपति उदधि पयोधि नदीस॥ 5॥
वननिधि,
नीरनिधि, जलधि, सिंधु, वारीश, तोयनिधि, कंपति, उदधि, पयोधि, नदीश को क्या सचमुच ही बाँध लिया?॥ 5॥
निज बिकलता
बिचारि बहोरी॥ बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥
मंदोदरीं
सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥
फिर अपनी
व्याकुलता को समझकर (ऊपर से) हँसता हुआ, भय को भुलाकर, रावण महल को गया। (जब) मंदोदरी ने सुना कि प्रभु राम आ गए
हैं और उन्होंने खेल में ही समुद्र को बँधवा लिया है,
कर गहि पतिहि
भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी॥
चरन नाइ सिरु
अंचलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा॥
(तब) वह हाथ पकड़कर, पति को अपने महल में लाकर परम मनोहर वाणी बोली। चरणों में
सिर नवाकर उसने अपना आँचल पसारा और कहा - हे प्रियतम! क्रोध त्याग कर मेरा वचन
सुनिए।
नाथ बयरु कीजे
ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥
तुम्हहि
रघुपतिहि अंतर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥
हे नाथ! वैर
उसी के साथ करना चाहिए, जिससे बुद्धि और बल के द्वारा जीत सके। आप में और रघुनाथ
में निश्चय ही कैसा अंतर है, जैसा जुगनू और सूर्य में!
अति बल मधु
कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत संघारे॥
जेहिं बलि बाँधि
सहस भुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा॥
जिन्होंने
(विष्णु रूप से) अत्यंत बलवान मधु और कैटभ (दैत्य) मारे और (वराह और नृसिंह रूप
से) महान शूरवीर दिति के पुत्रों (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) का संहार किया;
जिन्होंने (वामन रूप से) बलि को बाँधा और (परशुराम रूप से)
सहस्रबाहु को मारा, वे ही (भगवान) पृथ्वी का भार हरण करने के लिए (रामरूप में)
अवतीर्ण (प्रकट) हुए हैं!
तासु बिरोध न
कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा॥
हे नाथ! उनका
विरोध न कीजिए, जिनके हाथ में काल, कर्म और जीव सभी हैं।
दो० - रामहि
सौंपि जानकी नाइ कमल पद माथ।
सुत कहुँ राज
समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ॥ 6॥
(राम) के चरण कमलों में सिर नवाकर (उनकी शरण में जाकर) उनको जानकी सौंप दीजिए
और आप पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर रघुनाथ का भजन कीजिए॥ 6॥
नाथ दीनदयाल
रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई॥
चाहिअ करन सो
सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते॥
हे नाथ!
रघुनाथ तो दीनों पर दया करनेवाले हैं। सम्मुख (शरण में) जाने पर तो बाघ भी नहीं
खाता। आपको जो कुछ करना चाहिए था, वह सब आप कर चुके। आपने देवता,
राक्षस तथा चर-अचर सभी को जीत लिया।
संत कहहिं असि
नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन॥
तासु भजनु
कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता॥
हे दशमुख!
संतजन ऐसी नीति कहते हैं कि चौथेपन (बुढ़ापे) में राजा को वन में चला जाना चाहिए।
हे स्वामी! वहाँ (वन में) आप उनका भजन कीजिए जो सृष्टि के रचनेवाले,
पालनेवाले और संहार करनेवाले हैं।
सोइ रघुबीर
प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी॥
मुनिबर जतनु
करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी॥
हे नाथ! आप
विषयों की सारी ममता छोड़कर उन्हीं शरणागत पर प्रेम करनेवाले भगवान का भजन कीजिए।
जिनके लिए श्रेष्ठ मुनि साधन करते हैं और राजा राज्य छोड़कर वैरागी हो जाते हैं -
सोइ कोसलाधीस
रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया॥
जौं पिय मानहु
मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन॥
वही कोसलाधीश
रघुनाथ आप पर दया करने आए हैं। हे प्रियतम! यदि आप मेरी सीख मान लेंगे,
तो आपका अत्यंत पवित्र और सुंदर यश तीनों लोकों में फैल
जाएगा।
दो० - अस कहि
नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात।
नाथ भजहु
रघुनाथहि अचल होइ अहिवात॥ 7॥
ऐसा कहकर,
नेत्रों में (करुणा का) जल भरकर और पति के चरण पकड़कर,
काँपते हुए शरीर से मंदोदरी ने कहा - हे नाथ! रघुनाथ का भजन
कीजिए,
जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाए॥ 7॥
तब रावन
मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥
सुनु तैं
प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥
तब रावण ने
मंदोदरी को उठाया और वह दुष्ट उससे अपनी प्रभुता कहने लगा - हे प्रिये! सुन,
तूने व्यर्थ ही भय मान रखा है। बता तो जगत में मेरे समान
योद्धा है कौन?
बरुन कुबेर
पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥
देव दनुज नर
सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें॥
वरुण,
कुबेर, पवन, यमराज आदि सभी दिक्पालों को तथा काल को भी मैंने अपनी
भुजाओं के बल से जीत रखा है। देवता, दानव और मनुष्य सभी मेरे वश में हैं। फिर तुझको यह भय किस
कारण उत्पन्न हो गया?
नाना बिधि
तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई॥
मंदोदरीं
हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना॥
मंदोदरी ने
उसे बहुत तरह से समझाकर कहा (किंतु रावण ने उसकी एक भी बात न सुनी) और वह फिर सभा
में जाकर बैठ गया। मंदोदरी ने हृदय में ऐसा जान लिया कि काल के वश होने से पति को
अभिमान हो गया है।
सभाँ आइ
मंत्रिन्ह तेहिं बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा॥
कहहिं सचिव
सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा॥
सभा में आकर
उसने मंत्रियों से पूछा कि शत्रु के साथ किस प्रकार से युद्ध करना होगा?
मंत्री कहने लगे - हे राक्षसों के नाथ! हे प्रभु! सुनिए,
आप बार-बार क्या पूछते हैं?
कहहु कवन भय
करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥
कहिए तो (ऐसा)
कौन-सा बड़ा भय है, जिसका विचार किया जाए? (भय की बात ही क्या है?) मनुष्य और वानर-भालू तो हमारे भोजन (की सामग्री) हैं।
दो० - सब के
बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।
नीति बिरोध न
करिअ प्रभु मंत्रिन्ह मति अति थोरि॥ 8॥
कानों से सबके
वचन सुनकर (रावण का पुत्र) प्रहस्त हाथ जोड़कर कहने लगा - हे प्रभु! नीति के
विरुद्ध कुछ भी नहीं करना चाहिए, मंत्रियों में बहुत ही थोड़ी बुद्धि है॥ 8॥
कहहिं सचिव सठ
ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥
बारिधि नाघि
एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा॥
ये सभी मूर्ख
(खुशामदी) ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। हे नाथ! इस प्रकार की बातों से पूरा
नहीं पड़ेगा। एक ही बंदर समुद्र लाँघकर आया था। उसका चरित्र सब लोग अब भी मन-ही-मन
गाया करते हैं (स्मरण किया करते हैं)।
छुधा न रही
तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू॥
सुनत नीक आगें
दुःख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा॥
उस समय तुम
लोगों में से किसी को भूख न थी? (बंदर तो तुम्हारा भोजन ही हैं,
फिर) नगर जलाते समय उसे पकड़कर क्यों नहीं खा लिया?
इन मंत्रियों ने स्वामी (आप) को ऐसी सम्मति सुनाई है जो
सुनने में अच्छी है पर जिससे आगे चलकर दुःख पाना होगा।
जेहिं बारीस
बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला॥
सो भनु मनुज
खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई॥
जिसने
खेल-ही-खेल में समुद्र बँधा लिया और जो सेना सहित सुबेल पर्वत पर आ उतरा है। हे
भाई! कहो वह मनुष्य है, जिसे कहते हो कि हम खा लेंगे? सब गाल फुला-फुलाकर (पागलों की तरह) वचन कह रहे हैं!
तात बचन मम
सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।
प्रिय बानी जे
सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं॥
हे तात! मेरे
वचनों को बहुत आदर से (बड़े गौर से) सुनिए। मुझे मन में कायर न समझ लीजिएगा। जगत
में ऐसे मनुष्य झुंड-के-झुंड (बहुत अधिक) हैं, जो प्यारी (मुँह पर मीठी लगनेवाली) बात ही सुनते और कहते
हैं।
बचन परम हित
सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥
प्रथम बसीठ
पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती॥
हे प्रभो!
सुनने में कठोर परंतु (परिणाम में) परम हितकारी वचन जो सुनते और कहते हैं,
वे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं। नीति सुनिए,
(उसके अनुसार) पहले दूत
भेजिए,
और (फिर) सीता को देकर राम से प्रीति (मेल) कर लीजिए।
दो० - नारि
पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि।
नाहिं त
सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि॥ 9॥
यदि वे स्त्री
पाकर लौट जाएँ, तब तो (व्यर्थ) झगड़ा न बढ़ाइए। नहीं तो (यदि न फिरें तो) हे तात! सम्मुख
युद्धभूमि में उनसे हठपूर्वक (डटकर) मार-काट कीजिए॥ 9॥
यह मत जौं
मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा॥
सुत सन कह
दसकंठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई॥
हे प्रभो! यदि
आप मेरी यह सम्मति मानेंगे, तो जगत में दोनों ही प्रकार से आपका सुयश होगा। रावण ने
गुस्से में भरकर पुत्र से कहा - अरे मूर्ख! तुझे ऐसी बुद्धि किसने सिखाई?
अबहीं ते उर
संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई॥
सुनि पितु
गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा॥
अभी से हृदय
में संदेह (भय) हो रहा है? हे पुत्र! तू तो बाँस की जड़ में घमोई हुआ (तू मेरे वंश के
अनुकूल या अनुरूप नहीं हुआ)। पिता की अत्यंत घोर और कठोर वाणी सुनकर प्रहस्त ये
कड़े वचन कहता हुआ घर को चला गया।
हित मत तोहि न
लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसें॥
संध्या समय
जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा॥
हित की सलाह
आपको कैसे नहीं लगती (आप पर कैसे असर नहीं करती), जैसे मृत्यु के वश हुए (रोगी) को दवा नहीं लगती। संध्या का
समय जानकर रावण अपनी बीसों भुजाओं को देखता हुआ महल को चला।
लंका सिखर उपर
आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा॥
बैठ जाइ तेहिं
मंदिर रावन। लागे किंनर गुन गन गावन॥
लंका की चोटी
पर एक अत्यंत विचित्र महल था। वहाँ नाच-गान का अखाड़ा जमता था। रावण उस महल में
जाकर बैठ गया। किन्नर उसके गुणसमूहों को गाने लगे।
बाजहिं ताल
पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना॥
ताल (करताल),
पखावज (मृदंग) और बीणा बज रहे हैं। नृत्य में प्रवीण
अप्सराएँ नाच रही हैं।
दो० - सुनासीर
सत सरिस सो संतत करइ बिलास।
परम प्रबल
रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास॥ 10॥
वह निरंतर
सैकड़ों इंद्रों के समान भोग-विलास करता रहता है। यद्यपि (राम-सरीखा) अत्यंत प्रबल
शत्रु सिर पर है, फिर भी उसको न तो चिंता है और न डर ही है॥ 10॥
इहाँ सुबेल
सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥
सिखर एक उतंग
अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥
यहाँ रघुवीर
सुबेल पर्वत पर सेना की बड़ी भीड़ (बड़े समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा,
परम रमणीय, समतल और विशेष रूप से उज्ज्वल शिखर देखकर -
तहँ तरु किसलय
सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥
ता पर रुचिर
मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला॥
वहाँ लक्ष्मण
ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिए। उस पर सुंदर
और कोमल मृग छाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु राम विराजमान थे।
प्रभु कृत सीस
कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निषंगा॥
दुहुँ कर कमल
सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना॥
प्रभु राम
वानरराज सुग्रीव की गोद में अपना सिर रखे हैं। उनकी बाईं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर
तरकस (रखा) है। वे अपने दोनों करकमलों से बाण सुधार रहे हैं। विभीषण कानों से लगकर
सलाह कर रहे हैं।
बड़भागी अंगद
हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना॥
प्रभु पाछें
लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन॥
परम भाग्यशाली
अंगद और हनुमान अनेकों प्रकार से प्रभु के चरण कमलों को दबा रहे हैं। लक्ष्मण कमर
में तरकस कसे और हाथों में धनुष-बाण लिए वीरासन से प्रभु के पीछे सुशोभित हैं।
दो० - ऐहि
बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर
एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥ 11(क)॥
इस प्रकार
कृपा,
रूप (सौंदर्य) और गुणों के धाम राम विराजमान हैं। वे मनुष्य
धन्य हैं जो सदा इस ध्यान में लौ लगाए रहते हैं॥ 11(क)॥
पूरब दिसा
बिलोकि प्रभु देखा उदित मयंक।
कहत सबहि
देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक॥ 11(ख)॥
पूर्व दिशा की
ओर देखकर प्रभु राम ने चंद्रमा को उदय हुआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे - चंद्रमा को
तो देखो। कैसा सिंह के समान निडर है!॥ 11(ख)॥
पूरब दिसि
गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥
मत्त नाग तम
कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी॥
पूर्व
दिशारूपी पर्वत की गुफा में रहनेवाला, अत्यंत प्रताप, तेज और बल की राशि यह चंद्रमारूपी सिंह अंधकाररूपी मतवाले
हाथी के मस्तक को विदीर्ण करके आकाशरूपी वन में निर्भय विचर रहा है।
बिथुरे नभ
मुकुताहल तारा। निसि सुंदरी केर सिंगारा॥
कह प्रभु ससि
महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई॥
आकाश में बिखरे
हुए तारे मोतियों के समान हैं, जो रात्रिरूपी सुंदर स्त्री के श्रृंगार हैं। प्रभु ने कहा
- भाइयो! चंद्रमा में जो कालापन है, वह क्या है? अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कहो।
कह सुग्रीव
सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥
मारेउ राहु
ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई॥
सुग्रीव ने
कहा - हे रघुनाथ! सुनिए। चंद्रमा में पृथ्वी की छाया दिखाई दे रही है। किसी ने कहा
- चंद्रमा को राहु ने मारा था। वही (चोट का) काला दाग हृदय पर पड़ा हुआ है।
कोउ कह जब
बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
छिद्र सो
प्रगट इंदु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥
कोई कहता है -
जब ब्रह्मा ने (कामदेव की स्त्री) रति का मुख बनाया, तब उसने चंद्रमा का सार भाग निकाल लिया (जिससे रति का मुख
तो परम सुंदर बन गया, परंतु चंद्रमा के हृदय में छेद हो गया)। वही छेद चंद्रमा के
हृदय में वर्तमान है, जिसकी राह से आकाश की काली छाया उसमें दिखाई पड़ती है।
प्रभु कह गरल
बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥
बिष संजुत कर
निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी॥
प्रभु राम ने
कहा - विष चंद्रमा का बहुत प्यारा भाई है, इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है।
विषयुक्त अपने किरण समूह को फैलाकर वह वियोगी नर-नारियों को जलाता रहता है।
दो० - कह
हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु
उर बसति सोइ स्यामता अभास॥ 12(क)॥
हनुमान ने कहा
- हे प्रभो! सुनिए, चंद्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुंदर श्याम मूर्ति
चंद्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चंद्रमा में है॥ 12(क)॥
पवन तनय के
बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि
अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान॥ 12(ख)॥
पवनपुत्र
हनुमान के वचन सुनकर सुजान राम हँसे। फिर दक्षिण की ओर देखकर कृपानिधान प्रभु बोले
- ॥ 12(ख)॥
देखु विभीषन
दच्छिन आसा। घन घमंड दामिनी बिलासा॥
मधुर मधुर
गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा॥
हे विभीषण!
दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल कैसा घुमड़ रहा है और बिजली चमक रही है। भयानक बादल
मीठे-मीठे (हल्के-हल्के) स्वर से गरज रहा है। कहीं कठोर ओलों की वर्षा न हो!
कहत विभीषन
सुनहु कृपाला। होइ न तड़ित न बारिद माला॥
लंका सिखर उपर
आगारा। तहँ दसकंधर देख अखारा॥
विभीषण बोले -
हे कृपालु! सुनिए, यह न तो बिजली है, न बादलों की घटा। लंका की चोटी पर एक महल है। दशग्रीव रावण
वहाँ (नाच-गान का) अखाड़ा देख रहा है।
छत्र मेघडंबर
सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥
मंदोदरी श्रवन
ताटंका। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका॥
रावण ने सिर
पर मेघडंबर (बादलों के डंबर-जैसा विशाल और काला) छत्र धारण कर रखा है। वही मानो
बादलों की काली घटा है। मंदोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं,
हे प्रभो! वही मानो बिजली चमक रही है।
बाजहिं ताल
मृदंग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहू सुरभूपा।
प्रभु मुसुकान
समुझि अभिमाना। चाप चढ़ाइ बान संधाना॥
हे देवताओं के
सम्राट! सुनिए, अनुपम ताल और मृदंग बज रहे हैं। वही मधुर (गर्जन) ध्वनि है। रावण का अभिमान
समझकर प्रभु मुसकराए। उन्होंने धनुष चढ़ाकर उस पर बाण का संधान किया।
दो० - छत्र
मुकुट तांटक तब हते एकहीं बान।
सब कें देखत
महि परे मरमु न कोऊ जान॥ 13(क)॥
और एक ही बाण
से (रावण के) छत्र-मुकुट और (मंदोदरी के) कर्णफूल काट गिराए। सबके देखते-देखते वे
जमीन पर आ पड़े, पर इसका भेद (कारण) किसी ने नहीं जाना॥ 13(क)॥
अस कौतुक करि
राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग।
रावन सभा ससंक
सब देखि महा रसभंग॥ 13(ख)॥
ऐसा चमत्कार
करके राम का बाण (वापस) आकर (फिर) तरकस में जा घुसा। यह महान रस-भंग (रंग में भंग)
देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गई॥ 13(ख)॥
कंप न भूमि न
मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।
सोचहिं सब निज
हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी॥
न भूकंप हुआ,
न बहुत जोर की हवा (आँधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही
नेत्रों से देखे। (फिर ये छत्र, मुकुट और कर्णफूल कैसे कटकर गिर पड़े?)
सभी अपने-अपने हृदय में सोच रहे हैं कि यह बड़ा भयंकर
अपशकुन हुआ!
दसमुख देखि
सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।
सिरउ गिरे
संतत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही॥
सभा को भयतीत
देखकर रावण ने हँसकर युक्ति रचकर ये वचन कहे - सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर
शुभ होता रहा है, उसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा?
सयन करहु निज
निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई॥
मंदोदरी सोच
उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ॥
अपने-अपने घर
जाकर सो रहो (डरने की कोई बात नहीं है) तब सब लोग सिर नवाकर घर गए। जब से कर्णफूल
पृथ्वी पर गिरा, तब से मंदोदरी के हृदय में सोच बस गया।
सजल नयन कह
जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥
कंत राम बिरोध
परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ मन धरहू॥
नेत्रों में
जल भरकर,
दोनों हाथ जोड़कर वह (रावण से) कहने लगी - हे प्राणनाथ!
मेरी विनती सुनिए। हे प्रियतम! राम से विरोध छोड़ दीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन
में हठ न पकड़े रहिए।
दो० -
बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना
बेद कर अंग अंग प्रति जासु॥ 14॥
मेरे इन वचनों
पर विश्वास कीजिए कि ये रघुकुल के शिरोमणि राम विश्व रूप हैं - (यह सारा विश्व
उन्हीं का रूप है) वेद जिनके अंग-अंग में लोकों की कल्पना करते हैं॥ 14॥
पद पाताल सीस
अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥
भृकुटि बिलास
भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥
पाताल (जिन
विश्व रूप भगवान का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य
भिन्न-भिन्न अंगों पर है। भयंकर काल जिनका भृकुटि संचालन (भौंहों का चलना) है।
सूर्य नेत्र है, बादलों का समूह बाल है।
जासु घ्रान
अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥
श्रवन दिसा दस
बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी॥
अश्विनी कुमार
जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं।
दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी
है।
अधर लोभ जम
दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥
आनन अनल
अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा॥
लोभ जिनका अधर
(होठ) है,
यमराज भयानक दाँत है। माया हँसी है,
दिक्पाल भुजाएँ हैं। अग्नि मुख है,
वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है।
रोम राजि
अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा॥
उदर उदधि अधगो
जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना॥
अठारह प्रकार
की असंख्य वनस्पतियाँ जिनकी रोमावली हैं, पर्वत अस्थियाँ हैं, नदियाँ नसों का जाल हैं, समुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचे की इंद्रियाँ हैं। इस
प्रकार प्रभु विश्वमय हैं, अधिक कल्पना (ऊहापोह) क्या की जाए?
दो० - अहंकार
सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास
सचराचर रूप राम भगवान॥ 15(क)॥
शिव जिनका
अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चंद्रमा मन हैं और महान (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं
चराचर रूप भगवान राम ने मनुष्य रूप में निवास किया है॥ 15(क)॥
अस बिचारि
सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ।
प्रीति करहु
रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ॥ 15(ख)॥
हे प्राणपति!
सुनिए,
ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोड़कर रघुवीर के चरणों में
प्रेम कीजिए, जिससे मेरा सुहाग न जाए॥ 15(ख)॥
बिहँसा नारि
बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥
नारि सुभाउ
सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥
पत्नी के वचन
कानों से सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला -) अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान
है! स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं
-
साहस अनृत
चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया॥
रिपु कर रूप
सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा॥
साहस,
झूठ, चंचलता, माया (छल), भय (डरपोकपन), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र (विराट) रूप
गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया।
सो सब प्रिया
सहज बस मोरें। समुझि परा अब प्रसाद तोरें॥
जानिउँ प्रिया
तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई॥
हे प्रिये! वह
सब (यह चराचर विश्व तो) स्वभाव से ही मेरे वश में है। तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ
पड़ा। हे प्रिये! तेरी चतुराई मैं जान गया। तू इस प्रकार (इसी बहाने) मेरी प्रभुता
का बखान कर रही है।
तव बतकही गूढ़
मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि॥
मंदोदरि मन
महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ॥
हे मृगनयनी!
तेरी बातें बड़ी गूढ़ (रहस्यभरी) हैं, समझने पर सुख देनेवाली और सुनने से भय छुड़ानेवाली हैं।
मंदोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है।
दो० - ऐहि
बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध।
सहज असंक
लंकपति सभाँ गयउ मद अंध॥ 16(क)॥
इस प्रकार (अज्ञानवश)
बहुत-से विनोद करते हुए रावण को सबेरा हो गया। तब स्वभाव से ही निडर और घमंड में
अंधा लंकापति सभा में गया॥ 16(क)॥
सो० - फूलइ
फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न
चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥ 16(ख)॥
यद्यपि बादल
अमृत-सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के
समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता॥ 16(ख)॥
इहाँ प्रात
जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥
कहहु बेगि का
करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई॥
यहाँ (सुबेल
पर्वत पर) प्रातःकाल रघुनाथ जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि
शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए? जाम्बवान ने राम के चरणों में सिर नवाकर कहा -
सुनु सर्बग्य
सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मंत्र कहउँ
निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥
हे सर्वज्ञ (सब
कुछ जाननेवाले)! हे सबके हृदय में बसनेवाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि,
बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार
सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए!
नीक मंत्र सब
के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि
बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा॥
यह अच्छी सलाह
सबके मन में जँच गई। कृपा के निधान राम ने अंगद से कहा - हे बल,
बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के
लिए लंका जाओ।
बहुत बुझाइ
तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥
काजु हमार
तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥
तुमको बहुत
समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना जिससे हमारा काम
हो और उसका कल्याण हो।
दो० - प्रभु
अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ।
सोइ गुन सागर
ईस राम कृपा जा कर करहु॥ 17(क)॥
प्रभु की
आज्ञा सिर चढ़ाकर और उनके चरणों की वंदना करके अंगद उठे (और बोले -) हे भगवान राम!
आप जिस पर कृपा करें, वही गुणों का समुद्र हो जाता है॥ 17(क)॥
स्वयंसिद्ध सब
काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि
जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥ 17(ख)॥
स्वामी,
सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं; यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है (जो मुझे अपने कार्य पर
भेज रहे हैं)। ऐसा विचार कर युवराज अंगद का हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥ 17(ख)॥
बंदि चरन उर
धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई॥
प्रभु प्रताप
उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका॥
चरणों की
वंदना करके और भगवान की प्रभुता हृदय में धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले। प्रभु के
प्रताप को हृदय में धारण किए हुए रणबाँकुरे वीर बालिपुत्र स्वाभाविक ही निर्भय
हैं।
पुर पैठत रावन
कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेटा॥
बातहिं बात
करष बढ़ि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥
लंका में
प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेंट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था। बातों-ही-बातों में दोनों में झगड़ा
बढ़ गया (क्योंकि) दोनों ही अतुलनीय बलवान थे और फिर दोनों की युवावस्था थी।
तेहिं अंगद
कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निसिचर निकर
देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥
उसने अंगद पर
लात उठाई। अंगद ने (वही) पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार गिराया)।
राक्षस के समूह भारी योद्धा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले,
वे डर के मारे पुकार भी न मचा सके।
एक एक सन मरमु
न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥
भयउ कोलाहल
नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहिं जारी॥
एक-दूसरे को
मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावण के पुत्र) का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं।
(रावण-पुत्र की मृत्यु जानकर और राक्षसों को भय के मारे भागते देखकर) नगरभर में
कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है।
अब धौं कहा
करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा॥
बिनु पूछें
मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥
सब अत्यंत
भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अंगद
को (रावण के दरबार की) राह बता देते हैं। जिसे ही वे देखते हैं,
वही डर के मारे सूख जाता है।
दो० - गयउ सभा
दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।
सिंह ठवनि इत
उत चितव धीर बीर बल पुंज॥ 18॥
राम के चरण
कमलों का स्मरण करके अंगद रावण की सभा के द्वार पर गए और वे धीर,
वीर और बल की राशि अंगद सिंह की-सी एड़ (शान) से इधर-उधर
देखने लगे॥ 18॥
तुरत निसाचर
एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा॥
सुनत बिहँसि
बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥
तुरंत ही
उन्होंने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सूचित किया। सुनते ही
रावण हँसकर बोला - बुला लाओ, (देखें) कहाँ का बंदर है।
आयसु पाइ दूत
बहु धाए। कपिकुंजरहि बोलि लै आए॥
अंगद दीख
दसानन बैसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें॥
आज्ञा पाकर
बहुत-से दूत दौड़े और वानरों में हाथी के समान अंगद को बुला लाए। अंगद ने रावण को
ऐसे बैठे हुए देखा, जैसे कोई प्राणयुक्त (सजीव) काजल का पहाड़ हो!
भुजा बिटप सिर
सृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना॥
मुख नासिका
नयन अरु काना। गिरि कंदरा खोह अनुमाना॥
भुजाएँ
वृक्षों के और सिर पर्वतों के शिखरों के समान हैं। रोमावली मानो बहुत-सी लताएँ
हैं। मुँह, नाक,
नेत्र और कान पर्वत की कंदराओं और खोहों के बराबर हैं।
गयउ सभाँ मन
नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा॥
उठे सभासद कपि
कहुँ देखी। रावन उर भा क्रोध बिसेषी॥
अत्यंत बलवान
बाँके वीर बालिपुत्र अंगद सभा में गए, वे मन में जरा भी नहीं झिझके। अंगद को देखते ही सब सभासद उठ
खड़े हुए। यह देखकर रावण के हृदय में बड़ा क्रोध हुआ।
दो० - जथा मत्त
गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ।
राम प्रताप
सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥ 19॥
जैसे मतवाले
हाथियों के झुंड में सिंह (निःशंक होकर) चला जाता है,
वैसे ही राम के प्रताप का हृदय में स्मरण करके वे (निर्भय)
सभा में सिर नवाकर बैठ गए॥ 19॥
कह दसकंठ कवन
तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर॥
मम जनकहि तोहि
रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥
रावण ने कहा -
अरे बंदर! तू कौन है? (अंगद ने कहा -) हे दशग्रीव! मैं रघुवीर का दूत हूँ। मेरे
पिता से और तुमसे मित्रता थी। इसलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ।
उत्तम कुल
पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥
बर पायहु
कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥
तुम्हारा
उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। शिव की और ब्रह्मा की तुमने बहुत प्रकार से
पूजा की है। उनसे वर पाए हैं और सब काम सिद्ध किए हैं। लोकपालों और सब राजाओं को तुमने
जीत लिया है।
नृप अभिमान
मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा॥
अब सुभ कहा
सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥
राजमद से या
मोहवश तुम जगज्जननी सीता को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हितभरी सलाह)
सुनो! (उसके अनुसार चलने से) प्रभु राम तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे।
दसन गहहु तृन
कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी॥
सादर जनकसुता
करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥
दाँतों में
तिनका दबाओ, गले में कुल्हाड़ी डालो और कुटुंबियों सहित अपनी स्त्रियों को साथ लेकर,
आदरपूर्वक जानकी को आगे करके, इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो -
दो० -
प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत
प्रभु अभय करैगो तोहि॥ 20॥
और 'हे शरणागत के पालन करनेवाले रघुवंश शिरोमणि राम! मेरी रक्षा
कीजिए,
रक्षा कीजिए।' (इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो।) आर्त पुकार सुनते ही प्रभु
तुमको निर्भय कर देंगे॥ 20॥
रे कपिपोत
बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी॥
कहु निज नाम
जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई॥
(रावण ने कहा -) अरे बंदर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु
को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता। किस नाते से
मित्रता मानता है?
अंगद नाम बालि
कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेटा॥
अंगद बचन सुनत
सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना॥
(अंगद ने कहा -) मेरा नाम अंगद है, मैं बालि का पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी?
अंगद का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया (और बोला -) हाँ,
मैं जान गया (मुझे याद आ गया),
बालि नाम का एक बंदर था।
अंगद तहीं
बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥
गर्भ न गयहु
ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु॥
अरे अंगद! तू
ही बालि का लड़का है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बाँस के लिए अग्नि रूप ही
पैदा हुआ! गर्भ में ही क्यों न नष्ट हो गया? तू व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुँह से तपस्वियों का दूत
कहलाया!
अब कहु कुसल
बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अंगद कहई॥
दिन दस गएँ
बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई॥
अब बालि की
कुशल तो बता, वह (आजकल) कहाँ है? तब अंगद ने हँसकर कहा - दस (कुछ) दिन बीतने पर (स्वयं ही)
बालि के पास जाकर, अपने मित्र को हृदय से लगाकर, उसी से कुशल पूछ लेना।
राम बिरोध
कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद
होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥
राम से विरोध
करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनाएँगे। हे मूर्ख! सुन,
भेद उसी के मन में पड़ सकता है,
(भेद नीति उसी पर अपना
प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों।
दो० - हम कुल
घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।
अंधउ बधिर न
अस कहहिं नयन कान तव बीस॥ 21॥
सच है,
मैं तो कुल का नाश करनेवाला हूँ और हे रावण! तुम कुल के
रक्षक हो। अंधे-बहरे भी ऐसी बात नहीं कहते, तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान हैं!॥ 21॥
सिव बिरंचि
सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥
तासु दूत होइ
हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा॥
शिव,
ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की
सेवा (करना) चाहते हैं, उनका दूत होकर मैंने कुल को डुबा दिया?
अरे ऐसी बुद्धि होने पर भी तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता?
सुनि कठोर
बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी॥
खल तव कठिन
बचन सब सहऊँ। नीति धर्म मैं जानत अहऊँ॥
वानर (अंगद)
की कठोर वाणी सुनकर रावण आँखें तरेरकर (तिरछी करके) बोला - अरे दुष्ट! मैं तेरे सब
कठोर वचन इसीलिए सह रहा हूँ कि मैं नीति और धर्म को जानता हूँ (उन्हीं की रक्षा कर
रहा हूँ)।
कह कपि
धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी॥
देखी नयन दूत
रखवारी। बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी॥
अंगद ने कहा -
तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है। (वह यह कि) तुमने पराई स्त्री की चोरी की
है! और दूत की रक्षा की बात तो अपनी आँखों से देख ली। ऐसे धर्म के व्रत को धारण
(पालन) करनेवाले तुम डूबकर मर नहीं जाते!
कान नाक बिनु
भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी॥
धर्मसीलता तव
जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बड़भागी॥
नाक-कान से
रहित बहिन को देखकर तुमने धर्म विचारकर ही तो क्षमा कर दिया था! तुम्हारी
धर्मशीलता जग-जाहिर है। मैं भी बड़ा भाग्यवान हूँ, जो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया?
दो० - जनि
जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु।
लोकपाल बल
बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु॥ 22(क)॥
(रावण ने कहा -) अरे जड़ जंतु वानर! व्यर्थ बक-बक न कर,
अरे मूर्ख! मेरी भुजाएँ तो देख। ये सब लोकपालों के विशाल
बलरूपी चंद्रमा को ग्रसने के लिए राहु हैं॥ 22(क)॥
पुनि नभ सर मम
कर निकर कमलन्हि पर करि बास।
सोभत भयउ मराल
इव संभु सहित कैलास॥ 22(ख)॥
फिर (तूने
सुना ही होगा कि) आकाशरूपी तालाब में मेरी भुजाओंरूपी कमलों पर बसकर शिव सहित
कैलास हंस के समान शोभा को प्राप्त हुआ था!॥ 22(ख)॥
तुम्हरे कटक
माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद॥
तब प्रभु नारि
बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुःख दुखी मलीना॥
अरे अंगद! सुन,
तेरी सेना में बता, ऐसा कौन योद्धा है, जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में
बलहीन हो रहा है। और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है।
तुम्ह सुग्रीव
कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥
जामवंत मंत्री
अति बूढ़ा। सो कि होइ अब समरारूढ़ा॥
तुम और
सुग्रीव,
दोनों (नदी) तट के वृक्ष हो (रहा) मेरा छोटा भाई विभीषण,
(सो) वह भी बड़ा डरपोक है।
मंत्री जाम्बवान बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाई में क्या चढ़ (उद्यत हो) सकता है?
सिल्पि कर्म
जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला॥
आवा प्रथम
नगरु जेहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा॥
नल-नील तो
शिल्प-कर्म जानते हैं (वे लड़ना क्या जानें?)। हाँ, एक वानर जरूर महान बलवान है, जो पहले आया था और जिसने लंका जलाई थी। यह वचन सुनते ही
बालि पुत्र अंगद ने कहा -
सत्य बचन कहु
निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा॥
रावण नगर अल्प
कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई॥
हे राक्षसराज!
सच्ची बात कहो! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया?
रावण (जैसे जगद्विजयी योद्धा) का नगर एक छोटे-से वानर ने
जला दिया। ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगा?
जो अति सुभट
सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन॥
चलइ बहुत सो
बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई॥
हे रावण!
जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा-सा दौड़कर चलनेवाला हरकारा है। वह
बहुत चलता है, वीर नहीं है। उसको तो हमने (केवल) खबर लेने के लिए भेजा था।
दो० - सत्य
नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ
सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥ 23(क)॥
क्या सचमुच ही
उस वानर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला?
मालूम होता है, इसी डर से वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं छिप
रहा!॥ 23(क)॥
सत्य कहहि
दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें
कटक अस तो सन लरत जो सोह॥ 23(ख)॥
हे रावण! तुम
सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेना में कोई
भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे लड़ने में शोभा पाए॥ 23(ख)॥
प्रीति बिरोध
समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध
मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥ 23(ग)॥
प्रीति और वैर
बराबरीवाले से ही करना चाहिए, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेढ़कों को मारे,
तो क्या उसे कोई भला कहेगा?॥ 23(ग)॥
जद्यपि लघुता
राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष।
तदपि कठिन
दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥ 23(घ)॥
यद्यपि
तुम्हें मारने में राम की लघुता है और बड़ा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो,
क्षत्रिय जाति का क्रोध बड़ा कठिन होता है॥ 23(घ)॥
बक्र उक्ति
धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सड़सिन्ह
मनहुँ काढ़त भट दससीस॥ 23(ङ)॥
वक्रोक्तिरूपी
धनुष से वचनरूपी बाण मारकर अंगद ने शत्रु का हृदय जला दिया। वीर रावण उन बाणों को
मानो प्रत्युत्तररूपी सँड़सियों से निकाल रहा है॥ 23(ङ)॥
हँसि बोलेउ
दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक।
जो प्रतिपालइ
तासु हित करइ उपाय अनेक॥ 23(च)॥
तब रावण हँसकर
बोला - बंदर में यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है,
उसका वह अनेकों उपायों से भला करने की चेष्टा करता है॥ 23(च)॥
धन्य कीस जो
निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥
नाचि कूदि करि
लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई॥
बंदर को धन्य
है,
जो अपने मालिक के लिए लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता है।
नाच-कूदकर, लोगों को रिझाकर, मालिक का हित करता है। यह उसकी धर्म निपुणता है।
अंगद
स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥
मैं गुन गाहक
परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥
हे अंगद! तेरी
जाति स्वामिभक्त है (फिर भला) तू अपने मालिक के गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा?
मैं गुणग्राहक (गुणों का आदर करनेवाला) और परम सुजान
(समझदार) हूँ, इसी से तेरी जली-कटी बक-बक पर कान (ध्यान) नहीं देता।
कह कपि तव गुन
गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥
बन बिधंसि सुत
बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥
अंगद ने कहा -
तुम्हारी सच्ची गुणग्राहकता तो मुझे हनुमान ने सुनाई थी। उसने अशोक वन में विध्वंस
(तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्र को मारकर नगर को जला दिया था। तो भी (तुमने अपनी गुणग्राहकता
के कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया।
सोइ बिचारि तव
प्रकृति सुहाई। दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई॥
देखेउँ आइ जो
कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥
तुम्हारा वही
सुंदर स्वभाव विचार कर, हे दशग्रीव! मैंने कुछ धृष्टता की है। हनुमान ने जो कुछ कहा
था,
उसे आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है,
न क्रोध है और न चिढ़ है।
जौं असि मति
पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ
खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही॥
(रावण बोला -) अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू बाप को खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अंगद ने
कहा - पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता। परंतु अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी
समझ में आ गई!
बालि बिमल जस
भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥
कहु रावन रावन
जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥
अरे नीच
अभिमानी! बालि के निर्मल यश का पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। रावण!
यह तो बता कि जगत में कितने रावण हैं? मैंने जितने रावण अपने कानों से सुन रखे हैं,
उन्हें सुन -
बलिहि जितन एक
गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक
मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई॥
एक रावण तो
बलि को जीतने पाताल में गया था, तब बच्चों ने उसे घुड़साल में बाँध रखा। बालक खेलते थे और
जा-जाकर उसे मारते थे। बलि को दया लगी, तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया।
एक बहोरि
सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा॥
कौतुक लागि
भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा॥
फिर एक रावण
को सहस्रबाहु ने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक विशेष प्रकार के (विचित्र) जंतु की
तरह (समझकर) पकड़ लिया। तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया। तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर
उसे छुड़ाया।
दो० - एक कहत
मोहि सकुच अति रहा बालि कीं काँख।
इन्ह महुँ
रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख॥ 24॥
एक रावण की
बात कहने में तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है - वह (बहुत दिनों तक) बालि की काँख में
रहा था। इनमें से तुम कौन-से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ॥ 24॥
सुनु सठ सोइ
रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला॥
जान उमापति
जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई॥
(रावण ने कहा -) अरे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान रावण हूँ, जिसकी भुजाओं की लीला (करामात) कैलास पर्वत जानता है। जिसकी
शूरता उमापति महादेव जानते हैं, जिन्हें अपने सिररूपी पुष्प चढ़ा-चढ़ाकर मैंने पूजा था।
सिर सरोज निज
करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी॥
भुज बिक्रम
जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला॥
सिररूपी कमलों
को अपने हाथों से उतार-उतारकर मैंने अगणित बार त्रिपुरारि शिव की पूजा की है। अरे
मूर्ख! मेरी भुजाओं का पराक्रम दिग्पाल जानते हैं, जिनके हृदय में वह आज भी चुभ रहा है।
जानहिं दिग्गज
उर कठिनाई। जब जब भिरउँ जाइ बरिआई॥
जिन्ह के दसन
कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे॥
दिग्गज
(दिशाओं के हाथी) मेरी छाती की कठोरता को जानते हैं। जिनके भयानक दाँत,
जब-जब जाकर मैं उनसे जबरदस्ती भिड़ा,
मेरी छाती में कभी नहीं फूटे (अपना चिह्न भी नहीं बना सके),
बल्कि मेरी छाती से लगते ही वे मूली की तरह टूट गए।
जासु चलत
डोलति इमि धरनी। चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी॥
सोइ रावन जग
बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी॥
जिसके चलते
समय पृथ्वी इस प्रकार हिलती है जैसे मतवाले हाथी के चढ़ते समय छोटी नाव! मैं वही
जगत प्रसिद्ध प्रतापी रावण हूँ। अरे झूठी बकवास करनेवाले! क्या तूने मुझको कानों
से कभी सुना?
दो० - तेहि
रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर
खर्ब खल अब जाना तव ग्यान॥ 25॥
उस (महान
प्रतापी और जगत प्रसिद्ध) रावण को (मुझे) तू छोटा कहता है और मनुष्य की बड़ाई करता
है?
अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर! अब मैंने तेरा ज्ञान जान लिया॥ 25॥
सुनि अंगद
सकोप कह बानी। बोलु संभारि अधम अभिमानी॥
सहसबाहु भुज
गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा॥
रावण के ये
वचन सुनकर अंगद क्रोध सहित वचन बोले - अरे नीच अभिमानी! सँभालकर (सोच-समझकर) बोल।
जिनका फरसा सहस्रबाहु की भुजाओंरूपी अपार वन को जलाने के लिए अग्नि के समान था,
जासु परसु
सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा॥
तासु गर्ब
जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा॥
जिनके
फरसारूपी समुद्र की तीव्र धारा में अनगिनत राजा अनेकों बार डूब गए,
उन परशुराम का गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया,
अरे अभागे दशशीश! वे मनुष्य क्यों कर हैं?
राम मनुज कस
रे सठ बंगा। धन्वी कामु नदी पुनि गंगा॥
पसु सुरधेनु
कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा॥
क्यों रे
मूर्ख उद्दण्ड! राम मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गंगा क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड़ है? अन्न भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है?
बैनतेय खग अहि
सहसानन। चिंतामनि पुनि उपल दसानन॥
सुनु मतिमंद
लोक बैकुंठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुंठा॥
गरुड़ क्या
पक्षी हैं? शेष क्या सर्प हैं? अरे रावण! चिंतामणि भी क्या पत्थर है?
अरे ओ मूर्ख! सुन, बैकुंठ भी क्या लोक है? और रघुनाथ की अखंड भक्ति क्या (और लाभों-जैसा ही) लाभ है?
दो० - सेन
सहित तव मान मथि बन उजारि पुर जारि।
कस रे सठ
हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि॥ 26॥
सेना समेत
तेरा मान मथकर, अशोक वन को उजाड़कर, नगर को जलाकर और तेरे पुत्र को मारकर जो लौट गए (तू उनका
कुछ भी न बिगाड़ सका), क्यों रे दुष्ट! वे हनुमान क्या वानर हैं?॥ 26॥
सुनु रावन
परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिंधु रघुराई॥
जौं खल भएसि
राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥
अरे रावण!
चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपा के समुद्र रघुनाथ का तू भजन क्यों नहीं करता?
अरे दुष्ट! यदि तू राम का वैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और
रुद्र भी नहीं बचा सकेंगे।
मूढ़ बृथा जनि
मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला॥
तव सिर निकर
कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागें॥
हे मूढ़!
व्यर्थ गाल न मार (डींग न हाँक)। राम से वैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा कि तेरे
सिर-समूह राम के बाण लगते ही वानरों के आगे पृथ्वी पर पड़ेंगे,
ते तव सिर
कंदुक सम नाना। खेलिहहिं भालु कीस चौगाना॥
जबहिं समर
कोपिहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक॥
और रीछ-वानर
तेरे उन गेंद के समान अनेकों सिरों से चौगान खेलेंगे। जब रघुनाथ युद्ध में कोप
करेंगे और उनके अत्यंत तीक्ष्ण बहुत-से बाण छूटेंगे,
तब कि चलिहि
अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा॥
सुनत बचन रावन
परजरा। जरत महानल जनु घृत परा॥
तब क्या तेरा
गाल चलेगा? ऐसा विचार कर उदार (कृपालु) राम को भज। अंगद के ये वचन सुनकर रावण बहुत अधिक
जल उठा। मानो जलती हुई प्रचंड अग्नि में घी पड़ गया हो।
दो० - कुंभकरन
अस बंधु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि।
मोर पराक्रम
नहिं सुनेहि जितेऊँ चराचर झारि॥ 27॥
(वह बोला - अरे मूर्ख!) कुंभकर्ण-जैसा मेरा भाई है,
इंद्र का शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद मेरा पुत्र है! और मेरा
पराक्रम तो तूने सुना ही नहीं कि मैंने संपूर्ण जड़-चेतन जगत को जीत लिया है!॥ 27॥
सठ साखामृग
जोरि सहाई। बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई॥
नाघहिं खग
अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा॥
रे दुष्ट!
वानरों की सहायता जोड़कर राम ने समुद्र बाँध लिया; बस, यही उसकी प्रभुता है। समुद्र को तो अनेकों पक्षी भी लाँघ
जाते हैं। पर इसी से वे सभी शूरवीर नहीं हो जाते। अरे मूर्ख बंदर! सुन -
मम भुज सागर
बल जल पूरा। जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा॥
बीस पयोधि
अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा॥
मेरा एक-एक
भुजारूपी समुद्र बलरूपी जल से पूर्ण है, जिसमें बहुत-से शूरवीर देवता और मनुष्य डूब चूके हैं। (बता,)
कौन ऐसा शूरवीर है, जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समुद्रों का पार पा जाएगा?
दिगपालन्ह मैं
नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा॥
जौं पै समर
सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा॥
अरे दुष्ट!
मैंने दिक्पालों तक से जल भरवाया और तू एक राजा का मुझे सुयश सुनाता है! यदि तेरा
मालिक,
जिसकी गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है,
संग्राम में लड़नेवाला योद्धा है -
तौ बसीठ पठवत
केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा॥
हरगिरि मथन
निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू॥
तो (फिर) वह
दूत किसलिए भेजता है? शत्रु से प्रीति (संधि) करते उसे लाज नहीं आती?
(पहले) कैलास का मथन
करनेवाली मेरी भुजाओं को देख। फिर अरे मूर्ख वानर! अपने मालिक की सराहना करना।
दो० - सूर कवन
रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति
हरष बहु बार साखि गौरीस॥ 28॥
रावण के समान
शूरवीर कौन है? जिसने अपने हाथों से सिर काट-काटकर अत्यंत हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि
में होम दिया! स्वयं गौरीपति शिव इस बात के साक्षी हैं॥ 28॥
जरत बिलोकेउँ
जबहि कपाला। बिधि के लिखे अंक निज भाला॥
नर कें कर आपन
बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥
मस्तकों के
जलते समय जब मैंने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे,
तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर,
विधाता की वाणी (लेख को) असत्य जानकर मैं हँसा।
सोउ मन समुझि
त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें॥
आन बीर बल सठ
मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागें॥
उस बात को
समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मन में डर नहीं है। (क्योंकि मैं समझता हूँ कि) बूढ़े
ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा
छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है!
कह अंगद सलज्ज
जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥
लाजवंत तव सहज
सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ॥
अंगद ने कहा -
अरे रावण! तेरे समान लज्जावान जगत में कोई नहीं है। लज्जाशीलता तो तेरा सहज स्वभाव
ही है। तू अपने मुँह से अपने गुण कभी नहीं कहता।
सिर अरु सैल
कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कहीं॥
सो भुजबल
राखेहु उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली॥
सिर काटने और
कैलास उठाने की कथा चित्त में चढ़ी हुई थी, इससे तूने उसे बीसों बार कहा। भुजाओं के उस बल को तूने हृदय
में ही टाल (छिपा) रखा है, जिससे तूने सहस्रबाहु, बलि और बालि को जीता था।
सुनु मतिमंद
देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा॥
इंद्रजालि
कहुँ कहिअ न बीरा। काटइ निज कर सकल सरीरा॥
अरे
मंदबुद्धि! सुन, अब बस कर। सिर काटने से भी क्या कोई शूरवीर हो जाता है?
इंद्रजाल रचनेवाले को वीर नहीं कहा जाता,
यद्यपि वह अपने ही हाथों अपना सारा शरीर काट डालता है!
दो० - जरहिं
पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद।
ते नहिं सूर
कहावहिं समुझि देखु मतिमंद॥ 29॥
अरे
मंदबुद्धि! समझकर देख। पतंगे मोहवश आग में जल मरते हैं,
गदहों के झुंड बोझ लादकर चलते हैं;
पर इस कारण वे शूरवीर नहीं कहलाते॥ 29॥
अब जनि
बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही॥
दसमुख मैं न
बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥
अरे दुष्ट! अब
बतबढ़ाव मत कर; मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूत की तरह (संधि करने) नहीं
आया हूँ। रघुवीर ने ऐसा विचार कर मुझे भेजा है -
बार बार अस
कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला॥
मन महुँ समुझि
बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥
कृपालु राम
बार-बार ऐसा कहते हैं कि सियार के मारने से सिंह को यश नहीं मिलता। अरे मूर्ख!
प्रभु के (उन) वचनों को मन में समझकर (याद करके) ही मैंने तेरे कठोर वचन सहे हैं।
नाहिं त करि
मुख भंजन तोरा। लैं जातेउँ सीतहि बरजोरा॥
जानेउँ तव बल
अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी॥
नहीं तो तेरे
मुँह तोड़कर मैं सीता को जबरदस्ती ले जाता। अरे अधम! देवताओं के शत्रु! तेरा बल तो
मैंने तभी जान लिया जब तू सूने में पराई स्त्री को हर (चुरा) लाया।
तैं निसिचर
पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता॥
जौं न राम
अपमानहिं डरऊँ। तोहि देखत अस कौतुक करउँ॥
तू राक्षसों
का राजा और बड़ा अभिमानी है। परंतु मैं तो रघुनाथ के सेवक (सुग्रीव) का दूत (सेवक
का भी सेवक) हूँ। यदि मैं राम के अपमान से न डरूँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा
करूँ कि -
दो० - तोहि
पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह
समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ॥ 30॥
तुझे जमीन पर
पटककर,
तेरी सेना का संहार कर और तेरे गाँव को चौपट (नष्ट-भ्रष्ट)
करके,
अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियों सहित जानकी को ले जाऊँ॥ 30॥
जौं अस करौं
तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस
कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥
यदि ऐसा करूँ,
तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ
भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़ा,
सदा रोगबस
संतत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥
तनु पोषक
निंदक अघ खानी। जीवत सव सम चौदह प्रानी॥
नित्य का रोगी,
निरंतर क्रोधयुक्त रहनेवाला, भगवान विष्णु से विमुख, वेद और संतों का विरोधी, अपने ही शरीर का पोषण करनेवाला,
पराई निंदा करनेवाला और पाप की खान (महान पापी) - ये चौदह
प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं।
अस बिचारि खल
बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही॥
सुनि सकोप कह
निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा॥
अरे दुष्ट!
ऐसा विचार कर मैं तुझे नहीं मारता। अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर (मुझे गुस्सा न
दिला)। अंगद के वचन सुनकर राक्षस राज रावण दाँतों से होठ काटकर,
क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला -
रे कपि अधम
मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़ि कहसी॥
कटु जल्पसि
जड़ कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें॥
अरे नीच बंदर!
अब तू मरना ही चाहता है! इसी से छोटे मुँह बड़ी बात कहता है। अरे मूर्ख बंदर! तू
जिसके बल पर कड़ुए वचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है।
दो० - अगुन
अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुःख अरु
जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास॥ 31(क)॥
उसे गुणहीन और
मानहीन समझकर ही तो पिता ने वनवास दे दिया। उसे एक तो वह (उसका) दुःख,
उस पर युवती स्त्री का विरह और फिर रात-दिन मेरा डर बना
रहता है॥ 31(क)॥
जिन्ह के बल
कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर
दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक॥ 31(ख)॥
जिनके बल का
तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं। अरे मूढ़! जिद्द
छोड़कर समझ (विचार कर)॥ 31(ख)॥
जब तेहिं
कीन्हि राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा॥
हरि हर निंदा
सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥
जब उसने राम
की निंदा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हुए, क्योंकि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो अपने कानों से भगवान
विष्णु और शिव की निंदा सुनता है, उसे गो वध के समान पाप होता है।
कटकटान
कपिकुंजर भारी। दुहु भुजदंड तमकि महि मारी॥
डोलत धरनि
सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥
वानर श्रेष्ठ
अंगद बहुत जोर से कटकटाए (शब्द किया) और उन्होंने तमककर (जोर से) अपने दोनों
भुजदंडों को पृथ्वी पर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, (जिससे बैठे हुए) सभासद गिर पड़े और भयरूपी पवन (भूत) से
ग्रस्त होकर भाग चले।
गिरत सँभारि
उठा दसकंधर। भूतल परे मुकुट अति सुंदर॥
कछु तेहिं लै
निज सिरन्हि सँवारे। कछु अंगद प्रभु पास पबारे॥
रावण
गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यंत सुंदर मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े। कुछ तो उसने
उठाकर अपने सिरों पर सुधारकर रख लिए और कुछ अंगद ने उठाकर प्रभु राम के पास फेंक
दिए।
आवत मुकुट
देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे॥
की रावन करि
कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए॥
मुकुटों को
आते देखकर वानर भागे। (सोचने लगे) विधाता! क्या दिन में ही उल्कापात होने लगा
(तारे टूटकर गिरने लगे)? अथवा क्या रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं,
जो बड़े धाए के साथ (वेग से) आ रहे हैं?
कह प्रभु हँसि
जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू॥
ए किरीट
दसकंधर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे॥
प्रभु ने
(उनसे) हँसकर कहा - मन में डरो नहीं। ये न उल्का हैं,
न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई! ये तो रावण
के मुकुट हैं; जो बालिपुत्र अंगद के फेंके हुए आ रहे हैं।
दो० - तरकि
पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास।
कौतुक देखहिं
भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास॥ 32(क)॥
पवन पुत्र
हनुमान ने उछलकर उनको हाथ से पकड़ लिया और लाकर प्रभु के पास रख दिया। रीछ और वानर
तमाशा देखने लगे। उनका प्रकाश सूर्य के समान था॥ 32(क)॥
उहाँ सकोपि
दसानन सब सन कहत रिसाइ।
धरहु कपिहि
धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ॥ 32(ख)॥
वहाँ (सभा
में) क्रोधयुक्त रावण सबसे क्रोधित होकर कहने लगा कि - बंदर को पकड़ लो और पकड़कर
मार डालो। अंगद यह सुनकर मुसकराने लगे॥ 32(ख)॥
एहि बधि बेगि
सुभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥
मर्कटहीन करहु
महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई॥
(रावण फिर बोला -) इसे मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहाँ कहीं रीछ-वानरों को
पाओ,
वहीं खा डालो। पृथ्वी को बंदरों से रहित कर दो और जाकर
दोनों तपस्वी भाइयों (राम-लक्ष्मण) को जीते-जी पकड़ लो।
पुनि सकोप
बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा॥
मरु गर काटि
निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती॥
(रावण के ये कोपभरे वचन सुनकर) तब युवराज अंगद क्रोधित होकर बोले - तुझे गाल
बजाते लाज नहीं आती! अरे निर्लज्ज! अरे कुलनाशक! गला काटकर (आत्महत्या करके) मर
जा! मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती!
रे त्रिय चोर
कुमारग गामी। खल मल रासि मंदमति कामी॥
सन्यपात
जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबस खल मनुजादा॥
अरे स्त्री के
चोर! अरे कुमार्ग पर चलनेवाले! अरे दुष्ट, पाप की राशि, मंद बुद्धि और कामी! तू सन्निपात में क्या दुर्वचन बक रहा
है?
अरे दुष्ट राक्षस! तू काल के वश हो गया है!
याको फलु
पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागें॥
रामु मनुज
बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी॥
इसका फल तू
आगे वानर और भालुओं के चपेटे लगने पर पावेगा। राम मनुष्य हैं,
ऐसा वचन बोलते ही, अरे अभिमानी! तेरी जीभें नहीं गिर पड़तीं?
गिरिहहिं रसना
संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीं॥
इसमें संदेह
नहीं है कि तेरी जीभें (अकेले नहीं वरन) सिरों के साथ रणभूमि में गिरेंगी।
सो० - सो नर
क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहुँ लोचन
अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़॥ 33(क)॥
रे दशकंध!
जिसने एक ही बाण से बालि को मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे कुजाति, अरे जड़! बीस आँखें होने पर भी तू अंधा है। तेरे जन्म को
धिक्कार है॥ 33(क)॥
तव सोनित कीं
प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउँ तोहि
तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम॥ 33(ख)॥
राम के बाण
समूह तेरे रक्त की प्यास से प्यासे हैं। (वे प्यासे ही रह जाएँगे) इस डर से,
अरे कड़वी बकवास करनेवाले नीच राक्षस! मैं तुझे छोड़ता हूँ॥
33(ख)॥
मैं तव दसन
तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥
असि रिस होति
दसउ मुख तोरौं। लंका गहि समुद्र महँ बोरौं॥
मैं तेरे दाँत
तोड़ने में समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? रघुनाथ ने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि तेरे
दसों मुँह तोड़ डालूँ और (तेरी) लंका को पकड़कर समुद्र में डुबो दूँ।
गूलरि फल समान
तव लंका। बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका॥
मैं बानर फल
खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा॥
तेरी लंका
गूलर के फल के समान है। तुम सब कीड़े उसके भीतर (अज्ञानवश) निडर होकर बस रहे हो।
मैं बंदर हूँ, मुझे इस फल को खाते क्या देर थी? पर उदार (कृपालु) राम ने वैसी आज्ञा नहीं दी।
जुगुति सुनत
रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई॥
बालि न कबहुँ
गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा॥
अंगद की
युक्ति सुनकर रावण मुसकराया (और बोला -) अरे मूर्ख! बहुत झूठ बोलना तूने कहाँ से
सीखा?
बालि ने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा। जान पड़ता है तू
तपस्वियों से मिलकर लबार हो गया है।
साँचेहुँ मैं
लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा॥
समुझि राम
प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा॥
(अंगद ने कहा -) अरे बीस भुजावाले! यदि तेरी दसों जीभें मैंने नहीं उखाड़ लीं
तो सचमुच मैं लबार ही हूँ। राम के प्रताप को समझकर (स्मरण करके) अंगद क्रोधित हो
उठे और उन्होंने रावण की सभा में प्रण करके (दृढ़ता के साथ) पैर रोप दिया।
जौं मम चरन
सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥
सुनहु सुभट सब
कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा॥
(और कहा -) अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो राम लौट जाएँगे,
मैं सीता को हार गया। रावण ने कहा - हे सब वीरो! सुनो,
पैर पकड़कर बंदर को पृथ्वी पर पछाड़ दो।
इंद्रजीत आदिक
बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥
झपटहिं करि बल
बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई॥
इंद्रजीत
(मेघनाद) आदि अनेकों बलवान योद्धा जहाँ-तहाँ से हर्षित होकर उठे। वे पूरे बल से
बहुत-से उपाय करके झपटते हैं। पर पैर टलता नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थान पर जा बैठ जाते हैं।
पुनि उठि
झपटहिं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥
पुरुष कुजोगी
जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी॥
(काकभुशुंडि कहते हैं -) वे देवताओं के शत्रु (राक्षस) फिर उठकर झपटते हैं।
परंतु हे सर्पों के शत्रु गरुड़! अंगद का चरण उनसे वैसे ही नहीं टलता जैसे कुयोगी
(विषयी) पुरुष मोहरूपी वृक्ष को नहीं उखाड़ सकते।
दो० - कोटिन्ह
मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरै न
कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ॥ 34(क)॥
करोड़ों वीर
योद्धा जो बल में मेघनाद के समान थे, हर्षित होकर उठे। वे बार-बार झपटते हैं,
पर वानर का चरण नहीं उठता, तब लज्जा के मारे सिर नवाकर बैठ जाते हैं॥ 34(क)॥
भूमि न छाँड़त
कपि चरन देखत रिपु मद भाग।
कोटि बिघ्न ते
संत कर मन जिमि नीति न त्याग॥ 34(ख)॥
जैसे करोड़ों
विघ्न आने पर भी संत का मन नीति को नहीं छोड़ता, वैसे ही वानर (अंगद) का चरण पृथ्वी को नहीं छोड़ता। यह
देखकर शत्रु (रावण) का मद दूर हो गया!॥ 34(ख)॥
कपि बल देखि
सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥
गहत चरन कह
बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा॥
अंगद का बल
देखकर सब हृदय में हार गए। तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा। जब वह अंगद का
चरण पकड़ने लगा, तब बालि कुमार अंगद ने कहा - मेरा चरण पकड़ने से तेरा बचाव नहीं होगा!
गहसि न राम
चरन सठ जाई॥ सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥
भयउ तेजहत
श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥
अरे मूर्ख -
तू जाकर राम के चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मन में बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी
श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे मध्याह्न में चंद्रमा दिखाई देता है।
सिंघासन बैठेउ
सिर नाई। मानहुँ संपति सकल गँवाई॥
जगदातमा
प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा॥
वह सिर नीचा
करके सिंहासन पर जा बैठा। मानो सारी संपत्ति गँवाकर बैठा हो। राम जगतभर के आत्मा
और प्राणों के स्वामी हैं। उनसे विमुख रहनेवाला शांति कैसे पा सकता है?
उमा राम की
भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा॥
तृन ते कुलिस
कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई॥
(शिव कहते हैं -) हे उमा! जिन राम के भ्रूविलास (भौंह के इशारे) से विश्व
उत्पन्न होता है और फिर नाश को प्राप्त होता है; जो तृण को वज्र और वज्र को तृण बना देते हैं (अत्यंत निर्बल
को महान प्रबल और महान प्रबल को अत्यंत निर्बल कर देते हैं),
उनके दूत का प्रण, कहो, कैसे टल सकता है?
पुनि कपि कही
नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना॥
रिपु मद मथि
प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥
फिर अंगद ने
अनेकों प्रकार से नीति कही। पर रावण नहीं माना; क्योंकि उसका काल निकट आ गया था। शत्रु के गर्व को चूर करके
अंगद ने उसको प्रभु राम का सुयश सुनाया और फिर वह राजा बालि का पुत्र यह कहकर चल
दिया -
हतौं न खेत
खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़ाई॥
प्रथमहिं तासु
तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥
रणभूमि में
तुझे खेला-खेलाकर न मारूँ तब तक अभी (पहले से) क्या बड़ाई करूँ। अंगद ने पहले ही
(सभा में आने से पूर्व ही) उसके पुत्र को मार डाला था। वह संवाद सुनकर रावण दुःखी
हो गया।
जातुधान अंगद
पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥
अंगद का प्रण
(सफल) देखकर सब राक्षस भय से अत्यंत ही व्याकुल हो गए।
दो० - रिपु बल
धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज।
पुलक सरीर नयन
जल गहे राम पद कंज॥ 35(क)॥
शत्रु के बल
का मर्दन कर, बल की राशि बालि पुत्र अंगद ने हर्षित होकर आकर राम के चरणकमल पकड़ लिए। उनका
शरीर पुलकित है और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल भरा है॥ 35(क)॥
साँझ जानि
दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।
मंदोदरीं
रावनहिं बहुरि कहा समुझाइ॥ 35(ख)॥
संध्या हो गई,
जानकर दशग्रीव बिलखता हुआ (उदास होकर) महल में गया। मंदोदरी
ने रावण को समझाकर फिर कहा - ॥ 35(ख)॥
कंत समुझि मन
तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥
रामानुज लघु
रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥
हे कांत! मन
में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड़ दो। आप से और रघुनाथ से युद्ध शोभा नहीं
देता। उनके छोटे भाई ने एक जरा-सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है।
पिय तुम्ह
ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा॥
कौतुक सिंधु
नाघि तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका॥
हे प्रियतम!
आप उन्हें संग्राम में जीत पाएँगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समुद्र लाँघकर वह वानरों में सिंह (हनुमान) आपकी
लंका में निर्भय चला आया!
रखवारे हति
बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा॥
जारि सकल पुर
कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥
रखवालों को
मारकर उसने अशोक वन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उसने अक्षयकुमार को मार डाला और
संपूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था?
अब पति मृषा
गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु॥
पति रघुपतिहि
नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुलबल जानहु॥
अब हे स्वामी!
झूठ (व्यर्थ) गाल न मारिए (डींग न हाँकिए) मेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिए।
हे पति! आप रघुपति को (निरा) राजा मत समझिए, बल्कि अग-जगनाथ (चराचर के स्वामी) और अतुलनीय बलवान जानिए।
बान प्रताप
जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥
जनक सभाँ
अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥
राम के बाण का
प्रताप तो नीच मारीच भी जानता था। परंतु आपने उसका कहना भी नहीं माना। जनक की सभा
में अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल और अतुलनीय बलवाले आप भी थे।
भंजि धनुष
जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही॥
सुरपति सुत
जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा॥
वहाँ शिव का
धनुष तोड़कर राम ने जानकी को ब्याहा, तब आपने उनको संग्राम में क्यों नहीं जीता?
इंद्रपुत्र जयंत उनके बल को कुछ-कुछ जानता है। राम ने
पकड़कर,
केवल उसकी एक आँख ही फोड़ दी और उसे जीवित ही छोड़ दिया।
सूपनखा कै गति
तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिसेषी॥
शूर्पणखा की
दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदय में (उनसे लड़ने की बात सोचते) विशेष (कुछ
भी) लज्जा नहीं आती!
दो० - बधि
बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबंध।
बालि एक सर मार्यो
तेहि जानहु दसकंध॥ 36॥
जिन्होंने
विराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबंध को भी मार डाला;
और जिन्होंने बालि को एक ही बाण से मार दिया,
हे दशकंध! आप उन्हें (उनके महत्त्व को) समझिए!॥ 36॥
जेहिं जलनाथ
बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर
कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥
जिन्होंने खेल
से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े,
उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ानेवाले) करुणामय
भगवान ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा।
सभा माझ जेहिं
तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥
अंगद हनुमत
अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके॥
जिसने बीच सभा
में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुंड में आकर सिंह (उसे
छिन्न-भिन्न कर डालता है)। रण में बाँके अत्यंत विकट वीर अंगद और हनुमान जिनके
सेवक हैं,
तेहि कहँ पिय
पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥
अहह कंत कृत
राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा॥
हे पति!
उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मान,
ममता और मद का बोझ ढो रहे हैं! हा प्रियतम! आपने राम से
विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न
होता।
काल दंड गहि
काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि
आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥
काल दंड
(लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है। हे स्वामी! जिसका काल
(मरण-समय) निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है।
दो० - दुइ सुत
मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिंधु
रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥ 37॥
आपके दो पुत्र
मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति
(समाप्ति) कर दीजिए (राम से वैर त्याग दीजिए); और हे नाथ! कृपा के समुद्र रघुनाथ को भजकर निर्मल यश लीजिए॥
37॥
नारि बचन सुनि
बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥
बैठ जाइ
सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥
स्त्री के बाण
के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर
अत्यंत अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा।
इहाँ राम
अंगदहि बोलावा। आइ चरन पंकज सिरु नावा॥
अति आदर समीप
बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी॥
यहाँ (सुबेल
पर्वत पर) राम ने अंगद को बुलाया। उन्होंने आकर चरणकमलों में सिर नवाया। बड़े आदर
से उन्हें पास बैठाकर खर के शत्रु कृपालु राम हँसकर बोले -
बालितनय कौतुक
अति मोही। तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही॥
रावनु जातुधान
कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका॥
हे बालि के
पुत्र! मुझे बड़ा कौतूहल है। हे तात! इसी से मैं तुमसे पूछता हूँ,
सत्य कहना। जो रावण राक्षसों के कुल का तिलक है और जिसके
अतुलनीय बाहुबल की जगतभर में धाक है,
तासु मुकुट
तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए॥
सुनु सर्बग्य
प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप गुन चारी॥
उसके चार
मुकुट तुमने फेंके। हे तात! बताओ, तुमने उनको किस प्रकार से पाया! (अंगद ने कहा -) हे
सर्वज्ञ! हे शरणागत को सुख देनेवाले! सुनिए। वे मुकुट नहीं हैं। वे तो राजा के चार
गुण हैं।
साम दान अरु
दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥
नीति धर्म के
चरन सुहाए। अस जियँ जानि पहिं आए॥
हे नाथ! वेद
कहते हैं कि साम, दान, दंड और भेद - ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं। ये
नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं। (किंतु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में
जानकर ये नाथ के पास आ गए हैं।
दो० - धर्महीन
प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस।
तेहि परिहरि
गुन आए सुनहु कोसलाधीस॥ 38(क)॥
दशशीश रावण
धर्महीन,
प्रभु के पद से विमुख और काल के वश में है,
इसलिए हे कोसलराज! सुनिए, वे गुण रावण को छोड़कर आपके पास आ गए हैं॥ 38(क)॥
परम चतुरता
श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।
समाचार पुनि
सब कहे गढ़ के बालिकुमार॥ 38(ख)॥
अंगद की परम
चतुरता (पूर्ण उक्ति) कानों से सुनकर उदार राम हँसने लगे। फिर बालि पुत्र ने किले
के (लंका के) सब समाचार कहे॥ 38(ख)॥
रिपु के
समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए॥
लंका बाँके
चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा॥
जब शत्रु के
समाचार प्राप्त हो गए, तब राम ने सब मंत्रियों को पास बुलाया (और कहा -) लंका के
चार बड़े विकट दरवाजे हैं। उन पर किस तरह आक्रमण किया जाए,
इस पर विचार करो।
तब कपीस
रिच्छेस बिभीषन। सुमरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन॥
करि बिचार
तिन्ह मंत्र दृढ़ावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा॥
तब वानरराज
सुग्रीव,
ऋक्षपति जाम्बवान और विभीषण ने हृदय में सूर्य कुल के भूषण
रघुनाथ का स्मरण किया और विचार करके उन्होंने कर्तव्य निश्चित किया। वानरों की
सेना के चार दल बनाए।
जथाजोग
सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे॥
प्रभु प्रताप
कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिंघनाद करि धाए॥
और उनके लिए
यथायोग्य (जैसे चाहिए वैसे) सेनापति नियुक्त किए। फिर सब यूथपतियों को बुला लिया
और प्रभु का प्रताप कहकर सबको समझाया, जिसे सुनकर वानर, सिंह के समान गर्जना करके दौड़े।
हरषित राम चरन
सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं॥
गर्जहिं
तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा॥
वे हर्षित
होकर राम के चरणों में सिर नवाते हैं और पर्वतों के शिखर ले-लेकर सब वीर दौड़ते
हैं। 'कोसलराज रघुवीर की जय हो' पुकारते हुए भालू और वानर गरजते और ललकारते हैं।
जानत परम
दुर्ग अति लंका। प्रभु प्रताप कपि चले असंका॥
घटाटोप करि
चहुँ दिसि घेरी॥ मुखहिं निसार बजावहिं भेरी॥
लंका को
अत्यंत श्रेष्ठ (अजेय) किला जानते हुए भी वानर प्रभु राम के प्रताप से निडर होकर
चले। चारों ओर से घिरी हुई बादलों की घटा की तरह लंका को चारों दिशाओं से घेरकर वे
मुँह से डंके और भेरी बजाने लगे।
दो० - जयति
राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं
सिंहनाद कपि भालु महा बल सींव॥ 39॥
महान बल की
सीमा वे वानर-भालू सिंह के समान ऊँचे स्वर से 'राम की जय', 'लक्ष्मण की जय', 'वानरराज सुग्रीव की जय' - ऐसी गर्जना करने लगे॥ 39॥
लंकाँ भयउ
कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी॥
देखहु बनरन्ह
केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई॥
लंका में बड़ा
भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अत्यंत अहंकारी रावण ने उसे सुनकर कहा - वानरों की
ढिठाई तो देखो! यह कहते हुए हँसकर उसने राक्षसों की सेना बुलाई।
आए कीस काल के
प्रेरे। छुधावंत सब निसिचर मेरे॥
बअस कहि
अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठें अहार बिधि दीन्हा॥
बंदर काल की
प्रेरणा से चले आए हैं। मेरे राक्षस सभी भूखे हैं। विधाता ने इन्हें घर बैठे भोजन
भेज दिया। ऐसा कहकर उस मूर्ख ने अट्टहास किया (वह बड़े जोर से ठहाका मारकर हँसा)।
सुभट सकल
चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू॥
उमा रावनहि अस
अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना॥
(और बोला -) हे वीरो! सब लोग चारों दिशाओं में जाओ और रीछ-वानर सबको
पकड़-पकड़कर खाओ। (शिव कहते हैं -) हे उमा! रावण को ऐसा अभिमान था जैसा टिटिहिरी
पक्षी पैर ऊपर की ओर करके सोता है (मानो आकाश को थाम लेगा)।
चले निसाचर
आयसु मागी। गहि कर भिंडिपाल बर साँगी॥
तोमर मुद्गर
परसु प्रचंडा। सूल कृपान परिघ गिरिखंडा॥
आज्ञा माँगकर
और हाथों में उत्तम भिंदिपाल, साँगी (बरछी), तोमर, मुद्गर, प्रचंड फरसे, शूल, दुधारी तलवार, परिघ और पहाड़ों के टुकड़े लेकर राक्षस चले।
जिमि अरुनोपल
निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी॥
चोंच भंग दुःख
तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा॥
जैसे मूर्ख
मांसाहारी पक्षी लाल पत्थरों का समूह देखकर उस पर टूट पड़ते हैं,
(पत्थरों पर लगने से) चोंच
टूटने का दुःख उन्हें नहीं सूझता, वैसे ही ये बेसमझ राक्षस दौड़े।
दो० - नानायुध
सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि
चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर॥ 40॥
अनेकों प्रकार
के अस्त्र-शस्त्र और धनुष-बाण धारण किए करोड़ों बलवान और रणधीर राक्षस वीर परकोटे
के कँगूरों पर चढ़ गए॥ 40॥
कोट कँगूरन्हि
सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे॥
बाजहिं ढोल
निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ॥
वे परकोटे के
कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डंके
आदि बज रहे हैं, (जिनकी) ध्वनि सुनकर योद्धाओं के मन में (लड़ने का) चाव होता है।
बाजहिं भेरि
नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥
देखिन्ह जाइ
कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा॥
अगणित नफीरी
और भेरी बज रही है, (जिन्हें) सुनकर कायरों के हृदय में दरारें पड़ जाती हैं।
उन्होंने जाकर अत्यंत विशाल शरीरवाले महान योद्धा वानर और भालुओं के ठट्ट (समूह)
देखे।
धावहिं गनहिं
न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा॥
कटकटाहिं
कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं॥
(देखा कि) वे रीछ-वानर दौड़ते हैं, औघट (ऊँची-नीची, विकट) घाटियों को कुछ नहीं गिनते। पकड़कर पहाड़ों को फोड़कर
रास्ता बना लेते हैं। करोड़ों योद्धा कटकटाते और गरजते हैं। दाँतों से ओंठ काटते
और खूब डपटते हैं।
उत रावन इत
राम ई। जयति जयति जय परी लराई॥
निसिचर सिखर
समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं॥
उधर रावण की
और इधर राम की दुहाई बोली जा रही है। 'जय' 'जय' 'जय' की ध्वनि होते ही लड़ाई छिड़ गई। राक्षस पहाड़ों के ढेर के
ढेर शिखरों को फेंकते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड़ लेते हैं और वापस उन्हीं की ओर
चलाते हैं।
छं० - धरि
कुधर खंड प्रचंड मर्कट भालु गढ़ पर डारहीं।
झपटहिं चरन
गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं॥
अति तरल तरुन
प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए।
कपि भालु चढ़ि
मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए॥
प्रचंड वानर
और भालू पर्वतों के टुकड़े ले-लेकर किले पर डालते हैं। वे झपटते हैं और राक्षसों
के पैर पकड़कर उन्हें पृथ्वी पर पटककर भाग चलते हैं और फिर ललकारते हैं। बहुत ही
चंचल और बड़े तेजस्वी वानर-भालू बड़ी फुर्ती से उछलकर किले पर चढ़-चढ़कर गए और
जहाँ-तहाँ महलों में घुसकर राम का यश गाने लगे।
दो० - एकु एकु
निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।
ऊपर आपु हेठ
भट गिरहिं धरनि पर आइ॥ 41॥
फिर एक-एक
राक्षस को पकड़कर वे वानर भाग चले। ऊपर आप और नीचे (राक्षस) योद्धा - इस प्रकार वे
(किले से) धरती पर आ गिरते हैं॥ 41॥
राम प्रताप
प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा॥
चढ़े दुर्ग
पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर॥
राम के प्रताप
से प्रबल वानरों के झुंड राक्षस योद्धाओं के समूह-के-समूह मसल रहे हैं। वानर फिर
जहाँ-तहाँ किले पर चढ़ गए और प्रताप में सूर्य के समान रघुवीर की जय बोलने लगे।
चले निसाचर
निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई॥
हाहाकार भयउ
पुर भारी। रोवहिं बालक आतुर नारी॥
राक्षसों के
झुंड वैसे ही भाग चले जैसे जोर की हवा चलने पर बादलों के समूह तितर-बितर हो जाते
हैं। लंका नगरी में बड़ा भारी हाहाकार मच गया। बालक, स्त्रियाँ और रोगी (असमर्थता के कारण) रोने लगे।
सब मिलि देहिं
रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी॥
निज दल बिचल
सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लंकेस रिसाना॥
सब मिलकर रावण
को गालियाँ देने लगे कि राज्य करते हुए इसने मृत्यु को बुला लिया। रावण ने जब अपनी
सेना का विचलित होना कानों से सुना, तब (भागते हुए) योद्धाओं को लौटाकर वह क्रोधित होकर बोला -
जो रन बिमुख
सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना॥
सर्बसु खाइ
भोग करि नाना। समर भूमि भए बल्लभ प्राना॥
मैं जिसे रण
से पीठ देकर भागा हुआ अपने कानों सुनूँगा, उसे स्वयं भयानक दुधारी तलवार से मारूँगा। मेरा सब कुछ खाया,
भाँति-भाँति के भोग किए और अब रणभूमि में प्राण प्यारे हो
गए!
उग्र बचन सुनि
सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने॥
सन्मुख मरन
बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा॥
रावण के उग्र
(कठोर) वचन सुनकर सब वीर डर गए और लज्जित होकर क्रोध करके युद्ध के लिए लौट चले।
रण में (शत्रु के) सम्मुख (युद्ध करते हुए) मरने में ही वीर की शोभा है। (यह
सोचकर) तब उन्होंने प्राणों का लोभ छोड़ दिया।
दो० - बहु
आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि।
ब्याकुल किए
भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारि॥ 42॥
बहुत-से
अस्त्र-शस्त्र धारण किए, सब वीर ललकार-ललकारकर भिड़ने लगे। उन्होंने परिघों और
त्रिशूलों से मार-मारकर सब रीछ-वानरों को व्याकुल कर दिया॥ 42॥
भय आतुर कपि
भागत लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे॥
कोउ कह कहँ
अंगद हनुमंता। कहँ नल नील दुबिद बलवंता॥
(शिव कहते हैं -) वानर भयातुर होकर (डर के मारे घबड़ाकर) भागने लगे,
यद्यपि हे उमा! आगे चलकर (वे ही) जीतेंगे। कोई कहता है -
अंगद-हनुमान कहाँ हैं? बलवान नल, नील और द्विविद कहाँ हैं?
निज दल बिकल
सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥
मेघनाद तहँ
करइ लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई॥
हनुमान ने जब
अपने दल को विकल (भयभीत) हुआ सुना, उस समय वे बलवान पश्चिम द्वार पर थे। वहाँ उनसे मेघनाद
युद्ध कर रहा था। वह द्वार टूटता न था, बड़ी भारी कठिनाई हो रही थी।
पवनतनय मन भा
अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा॥
कूदि लंक गढ़
ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा॥
तब पवनपुत्र
हनुमान के मन में बड़ा भारी क्रोध हुआ। वे काल के समान योद्धा बड़े जोर से गरजे और
कूदकर लंका के किले पर आ गए और पहाड़ लेकर मेघनाद की ओर दौड़े।
भंजेउ रथ
सारथी निपाता। ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता॥
दुसरें सूत
बिकल तेहि जाना। स्यंदन घालि तुरत गृह आना॥
रथ तोड़ डाला,
सारथी को मार गिराया और मेघनाद की छाती में लात मारी। दूसरा
सारथी मेघनाद को व्याकुल जानकर, उसे रथ में डालकर, तुरंत घर ले आया।
दो० - अंगद
सुना पवनसुत गढ़ पर गयउ अकेल।
रन बाँकुरा
बालिसुत तरकि चढ़ेउ कपि खेल॥ 43॥
इधर अंगद ने
सुना कि पवनपुत्र हनुमान किले पर अकेले ही गए हैं, तो रण में बाँके बालि पुत्र वानर के खेल की तरह उछलकर किले
पर चढ़ गए॥ 43॥
जुद्ध बिरुद्ध
क्रुद्ध द्वौ बंदर। राम प्रताप सुमिरि उर अंतर॥
रावन भवन चढ़े
द्वौ धाई। करहिं कोसलाधीस ई॥
युद्ध में
शत्रुओं के विरुद्ध दोनों वानर क्रुद्ध हो गए। हृदय में राम के प्रताप का स्मरण करके
दोनों दौड़कर रावण के महल पर जा चढ़े और कोसलराज राम की दुहाई बोलने लगे।
कलस सहित गहि
भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा॥
नारि बृंद कर
पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती॥
उन्होंने कलश
सहित महल को पकड़कर ढहा दिया। यह देखकर राक्षसराज रावण डर गया। सब स्त्रियाँ हाथों
से छाती पीटने लगीं (और कहने लगीं -) अब की बार दो उत्पाती वानर (एक साथ) आ गए
हैं।
कपिलीला करि
तिन्हहि डेरावहिं। रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं॥
पुनि कर गहि
कंचन के खंभा। कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा॥
वानरलीला करके
(घुड़की देकर) दोनों उनको डराते हैं और रामचंद्र का सुंदर यश सुनाते हैं। फिर सोने
के खंभों को हाथों से पकड़कर उन्होंने (परस्पर) कहा कि अब उत्पात आरंभ किया जाए।
गर्जि परे
रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी॥
काहुहि लात
चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू॥
वे गरजकर
शत्रु की सेना के बीच में कूद पड़े और अपने भारी भुजबल से उसका मर्दन करने लगे।
किसी की लात से और किसी की थप्पड़ से खबर लेते हैं (और कहते हैं कि) तुम राम को
नहीं भजते, उसका यह फल लो।
दो० - एक एक
सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड।
रावन आगें
परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड॥ 44॥
एक को दूसरे
से (रगड़कर) मसल डालते हैं और सिरों को तोड़कर फेंकते हैं। वे सिर जाकर रावण के
सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं, मानो दही के कुंड फूट रहे हों॥ 44॥
महा महा मुखिआ
जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥
कहइ बिभीषनु
तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा॥
जिन बड़े-बड़े
मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड़ पाते हैं, उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रभु के पास फेंक देते हैं। विभीषण
उनके नाम बतलाते हैं और राम उन्हें भी अपना धाम (परम पद) दे देते हैं।
खल मनुजाद
द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी॥
उमा राम
मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर॥
ब्राह्मणों का
मांस खानेवाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं,
जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं (परंतु सहज में नहीं
पाते)। (शिव कहते हैं -) हे उमा! राम बड़े ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। (वे
सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही, स्मरण तो करते ही हैं।
देहिं परम गति
सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी॥
अस प्रभु सुनि
न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमंद ते परम अभागी॥
ऐसा हृदय में
जानकर वे उन्हें परमगति (मोक्ष) देते हैं। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और) कौन
हैं?
प्रभु का ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्याग कर उनका
भजन नहीं करते, वे अत्यंत मंद बुद्धि और परम भाग्यहीन हैं।
अंगद अरु
हनुमंत प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥
लंकाँ द्वौ
कपि सोहहिं कैसें। मथहिं सिंधु दुइ मंदर जैसें॥
राम ने कहा कि
अंगद और हनुमान किले में घुस गए हैं। दोनों वानर लंका में (विध्वंस करते) कैसे
शोभा देते हैं, जैसे दो मंदराचल समुद्र को मथ रहे हों।
दो० - भुज बल
रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत।
कूदे जुगल
बिगत श्रम आए जहँ भगवंत॥ 45॥
भुजाओं के बल
से शत्रु की सेना को कुचलकर और मसलकर, फिर दिन का अंत होता देखकर हनुमान और अंगद दोनों कूद पड़े
और श्रम थकावट रहित होकर वहाँ आ गए, जहाँ भगवान राम थे॥ 45॥
प्रभु पद कमल
सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए॥
राम कृपा करि
जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥
उन्होंने
प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाए। उत्तम योद्धाओं को देखकर रघुनाथ मन में बहुत
प्रसन्न हुए। राम ने कृपा करके दोनों को देखा, जिससे वे श्रमरहित और परम सुखी हो गए।
गए जानि अंगद
हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना॥
जातुधान
प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस ई॥
अंगद और
हनुमान को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पड़े। राक्षसों ने प्रदोष (सायं) काल
का बल पाकर रावण की दुहाई देते हुए वानरों पर धावा किया।
निसिचर अनी
देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे॥
द्वौ दल प्रबल
पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥
राक्षसों की
सेना आती देखकर वानर लौट पड़े और वे योद्धा जहाँ-तहाँ कटकटाकर भिड़ गए। दोनों ही
दल बड़े बलवान हैं। योद्धा ललकार-ललकारकर ल़ड़ते हैं,
कोई हार नहीं मानते।
महाबीर निसिचर
सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे॥
सबल जुगल दल
समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा॥
सभी राक्षस
महान वीर और अत्यंत काले हैं और वानर विशालकाय तथा अनेकों रंगों के हैं। दोनों ही
दल बलवान हैं और समान बलवाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लड़ते हैं और खेल करते
(वीरता दिखलाते) हैं।
प्राबिट सरद
पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥
अनिप अकंपन
अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया॥
(राक्षस और वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं) मानो क्रमशः वर्षा और शरद
ऋतु में बहुत-से बादल पवन से प्रेरित होकर लड़ रहे हों। अकंपन और अतिकाय इन
सेनापतियों ने अपनी सेना को विचलित होते देखकर माया की।
भयउ निमिष महँ
अति अँधिआरा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥
पलभर में
अत्यंत अंधकार हो गया। खून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी।
दो० - देखि
निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार।
एकहि एक न
देखई जहँ तहँ करहिं पुकार॥ 46॥
दसों दिशाओं
में अत्यंत घना अंधकार देखकर वानरों की सेना में खलबली पड़ गई। एक को एक (दूसरा)
नहीं देख सकता और सब जहाँ-तहाँ पुकार रहे हैं॥ 46॥
सकल मरमु
रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना॥
समाचार सब कहि
समुझाए। सुनत कोपि कपिकुंजर धाए॥
रघुनाथ सब
रहस्य जान गए। उन्होंने अंगद और हनुमान को बुला लिया और सब समाचार कहकर समझाया।
सुनते ही वे दोनों कपिश्रेष्ठ क्रोध करके दौड़े।
पुनि कृपाल
हँसि चाप चढ़ावा। पावक सायक सपदि चलावा॥
भयउ प्रकास
कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं॥
फिर कृपालु
राम ने हँसकर धनुष चढ़ाया और तुरंत ही अग्निबाण चलाया,
जिससे प्रकाश हो गया, कहीं अँधेरा नहीं रह गया। जैसे ज्ञान के उदय होने पर (सब
प्रकार के) संदेह दूर हो जाते हैं।
भालु बलीमुख
पाई प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा॥
हनूमान अंगद
रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे॥
भालू और वानर
प्रकाश पाकर श्रम और भय से रहित तथा प्रसन्न होकर दौड़े। हनुमान और अंगद रण में
गरज उठे। उनकी हाँक सुनते ही राक्षस भाग छूटे।
भागत भट
पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी॥
गहि पद डारहिं
सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीं॥
भागते हुए
राक्षस योद्धाओं को वानर और भालू पकड़कर पृथ्वी पर दे मारते हैं और अद्भुत
(आश्चर्यजनक) करनी करते हैं (युद्धकौशल दिखलाते हैं)। पैर पकड़कर उन्हें समुद्र
में डाल देते हैं। वहाँ मगर, साँप और मच्छ उन्हें पकड़-पकड़कर खा डालते हैं।
दो० - कछु
मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।
गर्जहिं भालु
बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ॥ 47॥
कुछ मारे गए,
कुछ घायल हुए, कुछ भागकर गढ़ पर चढ़ गए। अपने बल से शत्रुदल को विचलित
करके रीछ और वानर (वीर) गरज रहे हैं॥ 47॥
निसा जानि कपि
चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी॥
राम कृपा करि
चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥
रात हुई जानकर
वानरों की चारों सेनाएँ (टुकड़ियाँ) वहाँ आईं जहाँ कोसलपति राम थे। राम ने ज्यों
ही सबको कृपा करके देखा त्यों ही ये वानर श्रमरहित हो गए।
उहाँ दसानन सचिव
हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे॥
आधा कटकु
कपिन्ह संघारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा॥
वहाँ (लंका
में) रावण ने मंत्रियों को बुलाया और जो योद्धा मारे गए थे,
उन सबको सबसे बताया। (उसने कहा -) वानरों ने आधी सेना का
संहार कर दिया! अब शीघ्र बताओ, क्या विचार (उपाय) करना चाहिए?
माल्यवंत अति
जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मंत्री बर॥
बोला बचन नीति
अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥
माल्यवंत (नाम
का एक) अत्यंत बूढ़ा राक्षस था। वह रावण की माता का पिता (अर्थात उसका नाना) और
श्रेष्ठ मंत्री था। वह अत्यंत पवित्र नीति के वचन बोला - हे तात! कुछ मेरी सीख भी
सुनो -
जब ते तुम्ह
सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी॥
बेद पुरान
जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥
जब से तुम
सीता को हर लाए हो, तब से इतने अपशकुन हो रहे हैं कि उनका वर्णन नहीं किया जा
सकता। वेद-पुराणों ने जिनका यश गाया है, उन राम से विमुख होकर किसी ने सुख नहीं पाया।
दो० -
हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे
सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान॥ 48(क)॥
भाई
हिरण्यकशिपु सहित हिरण्याक्ष को बलवान मधु-कैटभ को जिन्होंने मारा था,
वे ही कृपा के समुद्र भगवान (रामरूप से) अवतरित हुए हैं॥ 48(क)॥
श्री राम चरित
मानस- लंकाकांड, मासपारायण, पच्चीसवाँ विश्राम समाप्त॥
शेष जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- लंकाकांड मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस सुंदरकांड, मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम
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