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शोभाढ्यं
पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्
पाणौ
नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं
जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्॥ 1॥
मोर के कंठ की
आभा के समान (हरिताभ) नीलवर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ, ब्राह्मण (भृगु) के चरणकमल के चिह्न से सुशोभित,
शोभा से पूर्ण, पीतांबरधारी, कमल नेत्र, सदा परम प्रसन्न, हाथों में बाण और धनुष धारण किए हुए,
वानर समूह से युक्त भाई लक्ष्मण से सेवित,
स्तुति किए जाने योग्य, जानकी के पति, रघुकुल श्रेष्ठ, पुष्पक विमान पर सवार राम को मैं निरंतर नमस्कार करता हूँ॥ 1॥
कोसलेन्द्रपदकन्जमंजुलौ
कोमलावजमहेशवन्दितौ।
जानकीकरसरोजलालितौ
चिन्तकस्य मनभृंगसंगिनौ॥ 2॥
कोसलपुरी के
स्वामी राम के सुंदर और कोमल दोनों चरणकमल ब्रह्मा और शिव द्वारा वंदित हैं,
जानकी के करकमलों से दुलराए हुए हैं और चिंतन करनेवाले के
मनरूपी भौंरे के नित्य संगी हैं अर्थात चिंतन करने वालों का मनरूपी भ्रमर सदा उन
चरणकमलों में बसा रहता है॥ 2॥
कुंदइन्दुदरगौरसुन्दरं
अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
कारुणीककलकन्जलोचनं
नौमि शंकरमनंगमोचनम्॥ 3॥
कुंद के फूल,
चंद्रमा और शंख के समान सुंदर गौरवर्ण,
जगज्जननी पार्वती के पति, वांछित फल के देनेवाले, (दुखियों पर सदा), दया करनेवाले, सुंदर कमल के समान नेत्रवाले, कामदेव से छुड़ानेवाले (कल्याणकारी) शंकर को मैं नमस्कार
करता हूँ॥ 3॥
दो० - रहा एक
दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ
सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग॥
राम के लौटने
की अवधि का एक ही दिन बाकी रह गया, नगर के लोग बहुत आर्त हैं। राम के वियोग में दुबले हुए
स्त्री-पुरुष जहाँ-तहाँ सोच (विचार) कर रहे हैं (कि क्या बात है राम क्यों नहीं
आए)।
सगुन होहिं
सुंदर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगवन
जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर॥
इतने में सब
सुंदर शकुन होने लगे और सबके मन प्रसन्न हो गए। नगर भी चारों ओर से रमणीक हो गया।
मानो ये सब के सब चिह्न प्रभु के आगमन को जना रहे हैं।
कौसल्यादि
मातु सब मन अनंद अस होइ।
आयउ प्रभु
श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ॥
कौसल्या आदि
सब माताओं के मन में ऐसा आनंद हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है कि सीता और
लक्ष्मण सहित प्रभु राम आ गए।
भरत नयन भुज
दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन
हरष अति लागे करन बिचार॥
भरत की दाहिनी
आँख और दाहिनी भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन जानकर उनके मन में अत्यंत
हर्ष हुआ और वे विचार करने लगे -
रहेउ एक दिन
अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा॥
कारन कवन नाथ
नहिं आयउ। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ॥
प्राणों की
आधाररूप अवधि का एक ही दिन शेष रह गया। यह सोचते ही भरत के मन में अपार दुःख हुआ।
क्या कारण हुआ कि नाथ नहीं आए? प्रभु ने कुटिल जानकर मुझे कहीं भुला तो नहीं दिया?
अहह धन्य
लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी॥
कपटी कुटिल
मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा॥
अहा हा!
लक्ष्मण बड़े धन्य एवं बड़भागी हैं, जो राम के चरणारविंद के प्रेमी हैं (अर्थात उनसे अलग नहीं
हुए)। मुझे तो प्रभु ने कपटी और कुटिल पहचान लिया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नहीं लिया।
जौं करनी
समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी॥
जन अवगुन
प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥
(बात भी ठीक ही है, क्योंकि) यदि प्रभु मेरी करनी पर ध्यान दें तो सौ करोड़
(असंख्य) कल्पों तक भी मेरा निस्तार (छुटकारा) नहीं हो सकता। (परंतु आशा इतनी ही
है कि) प्रभु सेवक का अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबंधु हैं और अत्यंत ही कोमल
स्वभाव के हैं।
मोरे जियँ
भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई॥
बीतें अवधि
रहहिं जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना॥
अतएव मेरे
हृदय में ऐसा पक्का भरोसा है कि राम अवश्य मिलेंगे, (क्योंकि) मुझे शकुन बड़े शुभ हो रहे हैं। किंतु अवधि बीत
जाने पर यदि मेरे प्राण रह गए तो जगत में मेरे समान नीच कौन होगा?
दो० - राम
बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि
पवनसुत आइ गयउ जनु पोत॥ 1(क)॥
राम के विरह
समुद्र में भरत का मन डूब रहा था, उसी समय पवनपुत्र हनुमान ब्राह्मण का रूप धरकर इस प्रकार आ
गए,
मानो (उन्हें डूबने से बचाने के लिए) नाव आ गई हो॥ 1(क)॥
बैठे देखि
कुसासन जटा मुकुट कृस गात॥
राम राम
रघुपति जपत स्रवत नयन जलजात॥ 1(ख)॥
हनुमान ने
दुर्बल शरीर भरत को जटाओं का मुकुट बनाए, राम! राम! रघुपति! जपते और कमल के समान नेत्रों से
(प्रेमाश्रुओं) का जल बहाते कुश के आसन पर बैठे देखा॥ 1(ख)॥
देखत हनूमान
अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ॥
मन महँ बहुत
भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी॥
उन्हें देखते
ही हनुमान अत्यंत हर्षित हुए। उनका शरीर पुलकित हो गया,
नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बरसने लगा। मन में बहुत
प्रकार से सुख मानकर वे कानों के लिए अमृत के समान वाणी बोले -
जासु बिरहँ
सोचहु दिन राती। रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥
रघुकुल तिलक
सुजन सुखदाता। आयउ कुसल देव मुनि त्राता॥
जिनके विरह
में आप दिन-रात सोच करते (घुलते) रहते हैं और जिनके गुणसमूहों की पंक्तियों को आप
निरंतर रटते रहते हैं, वे ही रघुकुल के तिलक, सज्जनों को सुख देनेवाले और देवताओं तथा मुनियों के रक्षक
राम सकुशल आ गए।
रिपु रन जीति
सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥
सुनत बचन
बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा॥
शत्रु को रण
में जीतकर सीता और लक्ष्मण सहित प्रभु आ रहे हैं; देवता उनका सुंदर यश गा रहे हैं। ये वचन सुनते ही भरत सारे
दुःख भूल गए। जैसे प्यासा आदमी अमृत पाकर प्यास के दुःख को भूल जाए।
को तुम्ह तात
कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए॥
मारुत सुत मैं
कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥
(भरत ने पूछा -) हे तात! तुम कौन हो? और कहाँ से आए हो? (जो) तुमने मुझको (ये) परम प्रिय (अत्यंत आनंद देनेवाले) वचन
सुनाए। (हनुमान ने कहा) हे कृपानिधान! सुनिए, मैं पवन का पुत्र और जाति का वानर हूँ,
मेरा नाम हनुमान है।
दीनबंधु
रघुपति कर किंकर। सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर॥
मिलत प्रेम
नहिं हृदयँ समाता। नयन स्रवतजल पुलकित गाता॥
मैं दीनों के
बंधु रघुनाथ का दास हूँ। यह सुनते ही भरत उठकर आदरपूर्वक हनुमान से गले लगकर मिले।
मिलते समय प्रेम हृदय में नहीं समाता। नेत्रों से (आनंद और प्रेम के आँसुओं का) जल
बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया।
कपि तव दरस
सकल दुख बीते। मिले आजुमोहि राम पिरीते॥
बार बार बूझी
कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुन भ्राता॥
(भरत ने कहा -) हे हनुमान! तुम्हारे दर्शन से मेरे समस्त दुःख समाप्त हो गए
(दुःखों का अंत हो गया)। (तुम्हारे रूप में) आज मुझे प्यारे राम ही मिल गए। भरत ने
बार-बार कुशल पूछी (और कहा -) हे भाई! सुनो, (इस शुभ संवाद के बदले में) तुम्हें क्या दूँ?
एहि संदेस
सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं॥
नाहिन तात
उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही॥
इस संदेश के
समान (इसके बदले में देने लायक पदार्थ) जगत में कुछ भी नहीं है,
मैंने यह विचार कर देख लिया है। (इसलिए) हे तात! मैं तुमसे
किसी प्रकार भी उऋण नहीं हो सकता। अब मुझे प्रभु का चरित्र (हाल) सुनाओ।
तब हनुमंत नाइ
पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा॥
कहु कपि कबहुँ
कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं॥
तब हनुमान ने
भरत के चरणों में मस्तक नवाकर रघुनाथ की सारी गुणगाथा कही। (भरत ने पूछा -) हे
हनुमान! कहो, कृपालु स्वामी राम कभी मुझ जैसे दास की याद भी करते हैं?
छं० - निज दास
ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्यो।
सुनि भरत बचन
बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो॥
रघुबीर निज
मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ
बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो॥
रघुवंश के
भूषण राम क्या कभी अपने दास की भाँति मेरा स्मरण करते रहे हैं?
भरत के अत्यंत नम्र वचन सुनकर हनुमान पुलकित शरीर होकर उनके
चरणों पर गिर पड़े (और मन में विचारने लगे कि) जो चराचर के स्वामी हैं,
वे रघुवीर अपने मुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते हैं,
वे भरत ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों न हों?
दो० - राम
प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि
मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात॥ 2(क)॥
(हनुमान ने कहा -) हे नाथ! आप राम को प्राणों के समान प्रिय हैं,
हे तात! मेरा वचन सत्य है। यह सुनकर भरत बार-बार मिलते हैं,
हृदय में हर्ष समाता नहीं है॥ 2(क)॥
सो० - भरत चरन
सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
कही कुसल सब
जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि॥ 2(ख)॥
फिर भरत के
चरणों में सिर नवाकर हनुमान तुरंत ही राम के पास (लौट) गए और जाकर उन्होंने सब
कुशल कही। तब प्रभु हर्षित होकर विमान पर चढ़कर चले॥ 2(ख)॥
हरषि भरत
कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए॥
पुनि मंदिर
महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई॥
इधर भरत भी
हर्षित होकर अयोध्यापुरी में आए और उन्होंने गुरु को सब समाचार सुनाया। फिर राजमहल
में खबर जनाई कि रघुनाथ कुशलपूर्वक नगर को आ रहे हैं।
सुनत सकल
जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाईं॥
समाचार
पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए॥
खबर सुनते ही
सब माताएँ उठ दौड़ीं। भरत ने प्रभु की कुशल कहकर सबको समझाया। नगर निवासियों ने यह
समाचार पाया, तो स्त्री-पुरुष सभी हर्षित होकर दौड़े।
दधि दुर्बा
रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मंगल मूला॥
भरि भरि हेम
थार भामिनी। गावत चलिं सिंधुरगामिनी॥
(राम के स्वागत के लिए) दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मंगल के मूल नवीन तुलसीदल आदि वस्तुएँ सोने की थालों
में भर-भरकर हथिनी की-सी चालवाली सौभाग्यवती स्त्रियाँ (उन्हें लेकर) गाती हुई
चलीं।
जे जैसेहिं
तैसेहिं उठि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं॥
एक एकन्ह कहँ
बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई॥
जो जैसे हैं
(जहाँ जिस दशा में हैं) वे वैसे ही (वहीं से उसी दशा में) उठ दौड़ते हैं। (देर हो
जाने के डर से) बालकों और बूढ़ों को कोई साथ नहीं लाते। एक-दूसरे से पूछते हैं -
भाई! तुमने दयालु रघुनाथ को देखा है?
अवधपुरी प्रभु
आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी॥
बहइ सुहावन
त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा॥
प्रभु को आते
जानकर अवधपुरी संपूर्ण शोभाओं की खान हो गई। तीनों प्रकार की सुंदर वायु बहने लगी।
सरयू अति निर्मल जलवाली हो गईं (अर्थात सरयू का जल अत्यंत निर्मल हो गया)।
दो० - हरषित
गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत।
चले भरत मन
प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत॥ 3(क)॥
गुरु वशिष्ठ,
कुटुंबी, छोटे भाई शत्रुघ्न तथा ब्राह्मणों के समूह के साथ हर्षित
होकर भरत अत्यंत प्रेमपूर्ण मन से कृपाधाम राम के सामने अर्थात उनकी अगवानी के लिए
चले॥ 3(क)॥
बहुतक चढ़ीं
अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
देखि मधुर सुर
हरषित करहिं सुमंगल गान॥ 3(ख)॥
बहुत-सी
स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ीं आकाश में विमान देख रही हैं और उसे देखकर हर्षित होकर
मीठे स्वर से सुंदर मंगल गीत गा रही हैं॥ 3(ख)॥
राका ससि
रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान।
बढ़्यो
कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान॥ 3(ग)॥
रघुनाथ
पूर्णिमा के चंद्रमा हैं तथा अवधपुर समुद्र है, जो उस पूर्णचंद्र को देखकर हर्षित हो रहा है और शोर करता
हुआ बढ़ रहा है (इधर-उधर दौड़ती हुई) स्त्रियाँ उसकी तरंगों के समान लगती हैं॥ 3(ग)॥
इहाँ भानुकुल
कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥
सुनु कपीस
अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा॥
यहाँ (विमान
पर से) सूर्य कुलरूपी कमल को प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य राम वानरों को मनोहर नगर
दिखला रहे हैं। (वे कहते हैं -) हे सुग्रीव! हे अंगद! हे लंकापति विभीषण! सुनो। यह
पुरी पवित्र है और यह देश सुंदर है।
जद्यपि सब
बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना॥
अवधपुरी सम
प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ॥
यद्यपि सबने
बैकुंठ की बड़ाई की है - यह वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है,
परंतु अवधपुरी के समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है। यह बात
(भेद) कई-कोई (बिरले ही) जानते हैं।
जन्मभूमि मम
पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
जा मज्जन ते
बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा॥
यह सुहावनी
पुरी मेरी जन्मभूमि है। इसके उत्तर दिशा में जीवों को पवित्र करनेवाली सरयू नदी
बहती है,
जिसमें स्नान करने से मनुष्य बिना परिश्रम के ही मेरे समीप
निवास (सामीप्य मुक्ति) पा जाते हैं।
अति प्रिय
मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी॥
हरषे सब कपि
सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥
यहाँ के
निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधाम को देनेवाली
है। प्रभु की वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए (और कहने लगे कि) जिस अवध की स्वयं
राम ने बड़ाई की, वह (अवश्य ही) धन्य है।
दो० - आवत
देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान।
नगर निकट
प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान॥ 4(क)॥
कृपा सागर
भगवान राम ने सब लोगों को आते देखा, तो प्रभु ने विमान को नगर के समीप उतरने की प्रेरणा की। तब
वह पृथ्वी पर उतरा॥ 4(क)॥
उतरि कहेउ
प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।
प्रेरित राम
चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु॥ 4(ख)॥
विमान से
उतरकर प्रभु ने पुष्पक विमान से कहा कि तुम अब कुबेर के पास जाओ। राम की प्रेरणा
से वह चला; उसे (अपने स्वामी के पास जाने का) हर्ष है और प्रभु राम से अलग होने का अत्यंत
दुःख भी॥ 4(ख)॥
आए भरत संग सब
लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा॥
बामदेव बसिष्ट
मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक॥
भरत के साथ सब
लोग आए। श्री रघुवीर के वियोग से सबके शरीर दुबले हो रहे हैं। प्रभु ने वामदेव,
वशिष्ठ आदि मुनिश्रेष्ठों को देखा,
तो उन्होंने धनुष-बाण पृथ्वी पर रखकर -
धाइ धरे गुर
चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह॥
भेंटि कुसल
बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया॥
छोटे भाई
लक्ष्मण सहित दौड़कर गुरु के चरणकमल पकड़ लिए; उनके रोम-रोम अत्यंत पुलकित हो रहे हैं। मुनिराज वशिष्ठ ने
(उठाकर) उन्हें गले लगाकर कुशल पूछी। (प्रभु ने कहा -) आप ही की दया में हमारी
कुशल है।
सकल द्विजन्ह
मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा॥
गहे भरत पुनि
प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज॥
धर्म की धुरी
धारण करनेवाले रघुकुल के स्वामी राम ने सब ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें मस्तक
नवाया। फिर भरत ने प्रभु के वे चरणकमल पकड़े जिन्हें देवता,
मुनि, शंकर और ब्रह्मा (भी) नमस्कार करते हैं।
परे भूमि नहिं
उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए॥
स्यामल गात
रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े॥
भरत पृथ्वी पर
पड़े हैं,
उठाए उठते नहीं। तब कृपासिंधु राम ने उन्हें जबर्दस्ती
उठाकर हृदय से लगा लिया। (उनके) साँवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए। नवीन कमल के समान
नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं के) जल की बाढ़ आ गई।
छं० - राजीव
लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
अति प्रेम
हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी॥
प्रभु मिलत
अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
जनु प्रेम अरु
सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही॥
कमल के समान
नेत्रों से जल बह रहा है। सुंदर शरीर में पुलकावली (अत्यंत) शोभा दे रही है।
त्रिलोकी के स्वामी प्रभु राम छोटे भाई भरत को अत्यंत प्रेम से हृदय से लगाकर
मिले। भाई से मिलते समय प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं,
उसकी उपमा मुझसे कही नहीं जाती। मानो प्रेम और श्रृंगार
शरीर धारण करके मिले और श्रेष्ठ शोभा को प्राप्त हुए।
बूझत कृपानिधि
कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई॥
सुनु सिवा सो
सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई॥
अब कुसल
कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
बूड़त बिरह
बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो॥
कृपानिधान राम
भरत से कुशल पूछते हैं; परंतु आनंदवश भरत के मुख से वचन शीघ्र नहीं निकलते। (शिव ने
कहा -) हे पार्वती! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरत को मिल रहा था) वचन और मन से परे है,
उसे वही जानता है जो उसे पाता है। (भरत ने कहा -) हे कोसलनाथ!
आपने आर्त्त (दुःखी) जानकर दास को दर्शन दिए, इससे अब कुशल है। विरह समुद्र में डूबते हुए मुझको
कृपानिधान ने हाथ पकड़कर बचा लिया!
दो० - पुनि
प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत
मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥ 5॥
फिर प्रभु
हर्षित होकर शत्रुघ्न को हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मण और भरत दोनों भाई
परम प्रेम से मिले॥ 5॥
भरतानुज लछिमन
पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे॥
सीता चरन भरत
सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा॥
फिर लक्ष्मण
शत्रुघ्न से गले लगकर मिले और इस प्रकार विरह से उत्पन्न दुःसह दुःख का नाश किया।
फिर भाई शत्रुघ्न सहित भरत ने सीता के चरणों में सिर नवाया और परम सुख प्राप्त
किया।
प्रभु बिलोकि
हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी॥
प्रेमातुर सब
लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥
प्रभु को
देखकर सब अयोध्यावासी हर्षित हुए। वियोग से उत्पन्न सब दुःख नष्ट हो गए। सब लोगों
को प्रेम विह्वल (और मिलने के लिए अत्यंत आतुर) देखकर खर के शत्रु कृपालु राम ने
एक चमत्कार किया।
अमित रूप
प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला॥
कृपादृष्टि
रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी॥
उसी समय
कृपालु राम असंख्य रूपों में प्रकट हो गए और सबसे (एक ही साथ) यथायोग्य मिले।
रघुवीर ने कृपा की दृष्टि से देखकर सब नर-नारियों को शोक से रहित कर दिया।
छन महिं सबहि
मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
एहि बिधि सबहि
सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा॥
भगवान क्षण
मात्र में सबसे मिल लिए। हे उमा! यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। इस प्रकार शील और
गुणों के धाम राम सबको सुखी करके आगे बढ़े।
कौसल्यादि
मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई॥
कौसल्या आदि
माताएँ ऐसे दौड़ीं मानो नई ब्यायी हुई गौएँ अपने बछड़ों को देखकर दौड़ी हों।
छं० - जनु
धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।
दिन अंत पुर
रुख स्रवत थन हुंकार करि धावत भईं॥
अति प्रेम
प्रभु सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
गइ बिषम बिपति
बियोगभव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे॥
मानो नई
ब्यायी हुई गौएँ अपने छोटे बछड़ों को घर पर छोड़ परवश होकर वन में चरने गई हों और
दिन का अंत होने पर (बछड़ों से मिलने के लिए) हुंकार करके थन से दूध गिराती हुईं
नगर की ओर दौड़ी हों। प्रभु ने अत्यंत प्रेम से सब माताओं से मिलकर उनसे बहुत
प्रकार के कोमल वचन कहे। वियोग से उत्पन्न भयानक विपत्ति दूर हो गई और सबने (भगवान
से मिलकर और उनके वचन सुनकर) अगणित सुख और हर्ष प्राप्त किए।
दो० - भेंटेउ
तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत
कैकई हृदयँ बहुत सकुचानि॥ 6(क)॥
सुमित्रा अपने
पुत्र लक्ष्मण की राम के चरणों में प्रीति जानकर उनसे मिलीं। राम से मिलते समय
कैकेयी हृदय में बहुत सकुचाईं॥ 6(क)॥
लछिमन सब
मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकइ कहँ पुनि
पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ॥ 6(ख)॥
लक्ष्मण भी सब
माताओं से मिलकर और आशीर्वाद पाकर हर्षित हुए। वे कैकेयी से बार-बार मिले,
परंतु उनके मन का क्षोभ (रोष) नहीं जाता॥ 6(ख)॥
सासुन्ह सबनि
मिली बैदेही । चरनन्हि लाग हरषु अति तेही॥
देहिं असीस
बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता॥
जानकी सब
सासुओं से मिलीं और उनके चरणों में लगकर उन्हें अत्यंत हर्ष हुआ। सासुएँ कुशल
पूछकर आशीष दे रही हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल हो।
सब रघुपति मुख
कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं॥
कनक थार आरती
उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं॥
सब माताएँ
रघुनाथ का कमल-सा मुखड़ा देख रही हैं। (नेत्रों से प्रेम के आँसू उमड़े आते हैं,
परंतु) मंगल का समय जानकर वे आँसुओं के जल को नेत्रों में
ही रोक रखती हैं। सोने के थाल से आरती उतारती हैं और बार-बार प्रभु के अंगों की ओर
देखती हैं।
नाना भाँति
निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं॥
कौसल्या पुनि
पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि॥
अनेकों प्रकार
से निछावरें करती हैं और हृदय में परमानंद तथा हर्ष भर रही हैं। कौसल्या बार-बार
कृपा के समुद्र और रणधीर रघुवीर को देख रही हैं।
हृदयँ बिचारति
बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा॥
अति सुकुमार
जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे॥
वे बार-बार
हृदय में विचारती हैं कि इन्होंने लंकापति रावण को कैसे मारा?
मेरे ये दोनों बच्चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो
ब़ड़े भारी योद्धा और महान बली थे।
दो० - लछिमन
अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।
परमानंद मगन
मन पुनि पुनि पुलकित गातु॥ 7॥
लक्ष्मण और
सीता सहित प्रभु राम को माता देख रही हैं। उनका मन परमानंद में मग्न है और शरीर
बार-बार पुलकित हो रहा है॥ 7॥
लंकापति कपीस
नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला॥
हनुमदादि सब
बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा॥
लंकापति
विभीषण,
वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान और अंगद तथा हनुमान आदि सभी उत्तम स्वभाववाले वीर
वानरों ने मनुष्यों के मनोहर शरीर धारण कर लिए।
भरत सनेह सील
ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा॥
देखि नगरबासिन्ह
कै रीती। सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीती॥
वे सब भरत के
प्रेम,
सुंदर, स्वभाव (त्याग के) व्रत और नियमों की अत्यंत प्रेम से
आदरपूर्वक बड़ाई कर रहे हैं। और नगरवासियों की (प्रेम,
शील और विनय से पूर्ण) रीति देखकर वे सब प्रभु के चरणों में
उनके प्रेम की सराहना कर रहे हैं।
पुनि रघुपति
सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए॥
गुर बसिष्ट
कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे॥
फिर रघुनाथ ने
सब सखाओं को बुलाया और सबको सिखाया कि मुनि के चरणों में लगो। ये गुरु वशिष्ठ
हमारे कुलभर के पूज्य हैं। इन्हीं की कृपा से रण में राक्षस मारे गए हैं।
ए सब सखा
सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥
मम हित लागि
जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥
(फिर गुरु से कहा -) हे मुनि! सुनिए। ये सब मेरे सखा हैं। ये संग्रामरूपी
समुद्र में मेरे लिए बेड़े (जहाज) के समान हुए। मेरे हित के लिए इन्होंने अपने
जन्म तक हार दिए (अपने प्राणों तक को होम दिया)। ये मुझे भरत से भी अधिक प्रिय
हैं।
सुनि प्रभु
बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए॥
प्रभु के वचन
सुनकर सब प्रेम और आनंद में मग्न हो गए। इस प्रकार पल-पल में उन्हें नए-नए सुख
उत्पन्न हो रहे हैं।
दो० - कौसल्या
के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।
आसिष दीन्हे
हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ॥ 8(क)॥
फिर उन लोगों
ने कौसल्या के चरणों में मस्तक नवाए। कौसल्या ने हर्षित होकर आशीषें दीं (और कहा
-) तुम मुझे रघुनाथ के समान प्यारे हो॥ 8(क)॥
सुमन बृष्टि
नभ संकुल भवन चले सुखकंद।
चढ़ी अटारिन्ह
देखहिं नगर नारि नर बृंद॥ 8(ख)॥
आनंदकंद राम
अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि से छा गया। नगर के स्त्री-पुरुषों के
समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं॥ 8(ख)॥
कंचन कलस
बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥
बंदनवार पताका
केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू॥
सोने के कलशों
को विचित्र रीति से (मणि-रत्नादि से) अलंकृत कर और सजाकर सब लोगों ने अपने-अपने
दरवाजों पर रख लिया। सब लोगों ने मंगल के लिए बंदनवार,
ध्वजा और पताकाएँ लगाईं।
बीथीं सकल
सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।
नाना भाँति
सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे॥
सारी गलियाँ
सुगंधित द्रवों से सिंचाई गईं। गजमुक्ताओं से रचकर बहुत-सी चौकें पुराई गईं।
अनेकों प्रकार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हर्षपूर्वक नगर में बहुत-से डंके बजने
लगे।
जहँ तहँ नारि
निछावरि करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं॥
कंचन थार
आरतीं नाना। जुबतीं सजें करहिं सुभ गाना॥
स्त्रियाँ
जहाँ-तहाँ निछावर कर रही हैं, और हृदय में हर्षित होकर आशीर्वाद देती हैं। बहुत-सी युवती
(सौभाग्यवती) स्त्रियाँ सोने के थालों में अनेकों प्रकार की आरती सजाकर मंगलगान कर
रही हैं।
करहिं आरती
आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें॥
पुर सोभा
संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना॥
वे आर्तिहर
(दुःखों को हरनेवाले) और सूर्यकुलरूपी कमलवन को प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य राम की
आरती कर रही हैं। नगर की शोभा, संपत्ति और कल्याण का वेद, शेष और सरस्वती वर्णन करते हैं -
तेउ यह चरित
देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं॥
परंतु वे भी
यह चरित्र देखकर ठगे-से रह जाते हैं (स्तंभित हो रहते हैं)। (शिव कहते हैं -) हे
उमा! तब भला मनुष्य उनके गुणों को कैसे कह सकते हैं।
दो० - नारि
कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भएँ
बिगसत भईं निरखि राम राकेस॥ 9(क)॥
स्त्रियाँ
कुमुदनी हैं, अयोध्या सरोवर है और रघुनाथ का विरह सूर्य है (इस विरह-सूर्य के ताप से वे
मुरझा गई थीं)। अब उस विरहरूपी सूर्य के अस्त होने पर रामरूपी पूर्णचंद्र को
निरखकर वे खिल उठीं॥ 9(क)॥
होहिं सगुन
सुभ बिबिधि बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि
सनाथ करि भवन चले भगवान॥ 9(ख)॥
अनेक प्रकार
के शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाश में नगाड़े बज रहे हैं। नगर के पुरुषों और स्त्रियों
को सनाथ (दर्शन द्वारा कृतार्थ) करके भगवान राम महल को चले॥ 9(ख)॥
प्रभु जानी
कैकई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी॥
ताहि प्रबोधि
बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा॥
(शिव कहते हैं -) हे भवानी! प्रभु ने जान लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो गई
हैं। (इसलिए), वे पहले उन्हीं के महल को गए और उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। फिर हरि ने
अपने महल को गमन किया।
कृपासिंधु जब
मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए॥
गुर बसिष्ट
द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई॥
कृपा के
समुद्र राम जब अपने महल को गए, तब नगर के स्त्री-पुरुष सब सुखी हुए। गुरु वशिष्ठ ने
ब्राह्मणों को बुला लिया (और कहा -) आज शुभ घड़ी, सुंदर दिन आदि सभी शुभ योग हैं।
सब द्विज देहु
हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन॥
मुनि बसिष्ट
के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए॥
आप सब
ब्राह्मण हर्षित होकर आज्ञा दीजिए, जिसमें रामचंद्र सिंहासन पर विराजमान हों। वशिष्ठ मुनि के
सुहावने वचन सुनते ही सब ब्राह्मणों को बहुत ही अच्छे लगे।
कहहिं बचन
मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका॥
अब मुनिबर
बिलंब नहिं कीजै। महाराज कहँ तिलक करीजै॥
वे सब अनेकों
ब्राह्मण कोमल वचन कहने लगे कि राम का राज्याभिषेक संपूर्ण जगत को आनंद देनेवाला
है। हे मुनिश्रेष्ठ! अब विलंब न कीजिए और महाराज का तिलक शीघ्र कीजिए।
दो० - तब मुनि
कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु
बाजि गज तुरत सँवारे जाइ॥ 10(क)॥
तब मुनि ने
सुमंत्र से कहा, वे सुनते ही हर्षित होकर चले। उन्होंने तुरंत ही जाकर अनेकों रथ,
घोड़े और हाथी सजाए,॥ 10(क)॥
जहँ तहँ धावन
पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत
बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ॥ 10(ख)॥
और जहाँ-तहाँ
(सूचना देनेवाले) दूतों को भेजकर मांगलिक वस्तुएँ मँगाकर फिर हर्ष के साथ आकर
वशिष्ठ के चरणों में सिर नवाया॥ 10(ख)॥
अवधपुरी अति
रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई॥
राम कहा
सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई॥
अवधपुरी बहुत
ही सुंदर सजाई गई। देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी। राम ने सेवकों को
बुलाकर कहा कि तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को स्नान कराओ।
सुनत बचन जहँ
तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए॥
पुनि
करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे॥
भगवान के वचन
सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ दौड़े और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया।
फिर करुणानिधान राम ने भरत को बुलाया और उनकी जटाओं को अपने हाथों से सुलझाया।
अन्हवाए प्रभु
तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई॥
भरत भाग्य
प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई॥
तदनंतर
भक्तवत्सल कृपालु प्रभु रघुनाथ ने तीनों भाइयों को स्नान कराया। भरत का भाग्य और
प्रभु की कोमलता का वर्णन अरबों शेष भी नहीं कर सकते।
पुनि निज जटा
राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए॥
करि मज्जन
प्रभु भूषन साजे। अंग अनंग देखि सत लाजे॥
फिर राम ने
अपनी जटाएँ खोलीं और गुरु की आज्ञा माँगकर स्नान किया। स्नान करके प्रभु ने आभूषण
धारण किए। उनके (सुशोभित) अंगों को देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गए।
दो० - सासुन्ह
सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।
दिब्य बसन बर
भूषन अँग अँग सजे बनाइ॥ 11(क)॥
(इधर) सासुओं ने जानकी को आदर के साथ तुरंत ही स्नान कराके उनके अंग-अंग में
दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भली-भाँति सजा दिए (पहना दिए)॥ 11(क)॥
राम बाम दिसि
सोभति रमा रूप गुन खानि।
देखि मातु सब
हरषीं जन्म सुफल निज जानि॥ 11(ख)॥
राम के बायीं
ओर रूप और गुणों की खान रमा (जानकी) शोभित हो रही हैं। उन्हें देखकर सब माताएँ
अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं॥ 11(ख)॥
सुनु खगेस
तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद।
चढ़ि बिमान आए
सब सुर देखन सुखकंद॥ 11(ग)॥
(काकभुशुंडि कहते हैं -) हे पक्षीराज गरुड़! सुनिए,
उस समय ब्रह्मा, शिव और मुनियों के समूह तथा विमानों पर चढ़कर सब देवता
आनंदकंद भगवान के दर्शन करने के लिए आए॥ 11(ग)॥
प्रभु बिलोकि
मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिंघासन मागा॥
रबि सम तेज सो
बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई॥
प्रभु को
देखकर मुनि वशिष्ठ के मन में प्रेम भर आया। उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन
मँगवाया,
जिसका तेज सूर्य के समान था। उसका सौंदर्य वर्णन नहीं किया
जा सकता। ब्राह्मणों को सिर नवाकर राम उस पर विराज गए।
जनकसुता समेत
रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई॥
बेद मंत्र तब
द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे॥
जानकी सहित
रघुनाथ को देखकर मुनियों का समुदाय अत्यंत ही हर्षित हुआ। तब ब्राह्मणों ने
वेदमंत्रों का उच्चारण किया। आकाश में देवता और मुनि 'जय हो, जय हो' ऐसी पुकार करने लगे।
प्रथम तिलक
बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा॥
सुत बिलोकि
हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी॥
(सबसे) पहले मुनि वशिष्ठ ने तिलक किया। फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को (तिलक
करने की) आज्ञा दी। पुत्र को राजसिंहासन पर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने
बार-बार आरती उतारी।
बिप्रन्ह दान
बिबिधि बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे॥
सिंघासन पर
त्रिभुअन साईं। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं॥
उन्होंने
ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए और संपूर्ण याचकों को अयाचक बना दिया
(मालामाल कर दिया)। त्रिभुवन के स्वामी राम को (अयोध्या के) सिंहासन पर (विराजित)
देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए।
छं० - नभ दुंदुभीं
बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।
नाचहिं अपछरा
बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं॥
भरतादि अनुज
बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।
गहें छत्र
चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते॥
आकाश में
बहुत-से नगाड़े बज रहे हैं। गंधर्व और किन्नर गा रहे हैं। अप्सराओं के झुंड-के-झुंड
नाच रही हैं। देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं। भरत,
लक्ष्मण और शत्रुघ्न, विभीषण, अंगद, हनुमान और सुग्रीव आदि सहित क्रमशः छत्र,
चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और शक्ति लिए हुए सुशोभित हैं।
श्री सहित
दिनकर बंस भूषन काम बहु छबि सोहई।
नव अंबुधर बर
गात अंबर पीत सुर मन मोहई॥
मुकुटांगदादि
बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन
बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे॥
सीता सहित
सूर्यवंश के विभूषण राम के शरीर में अनेकों कामदेवों की छवि शोभा दे रही है। नवीन
जलयुक्त मेघों के समान सुंदर श्याम शरीर पर पीतांबर देवताओं के मन को भी मोहित कर
रहा है। मुकुट, बाजूबंद आदि विचित्र आभूषण अंग-अंग में सजे हुए हैं। कमल के समान नेत्र हैं,
चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं;
जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं।
दो० - वह सोभा
समाज सुख कहत न बनइ खगेस।
बरनहिं सारद
सेष श्रुति सो रस जान महेस॥ 12(क)॥
हे पक्षीराज
गरुड़ ! वह शोभा, वह समाज और वह सुख मुझसे कहते नहीं बनता। सरस्वती,
शेष और वेद निरंतर उसका वर्णन करते हैं,
और उसका रस (आनंद) महादेव ही जानते हैं॥ 12(क)॥
भिन्न भिन्न
अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद
तब आए जहँ श्रीराम॥ 12(ख)॥
सब देवता
अलग-अलग स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले गए। तब भाटों का रूप धारण करके चारों
वेद वहाँ आए जहाँ श्रीराम थे॥ 12(ख)॥
प्रभु सर्बग्य
कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ
मरम कछु लगे करन गुन गान॥ 12(ग)॥
कृपानिधान
सर्वज्ञ प्रभु ने (उन्हें पहचानकर) उनका बहुत ही आदर किया। इसका भेद किसी ने कुछ
भी नहीं जाना। वेद गुणगान करने लगे॥ 12(ग)॥
छं० - जय सगुन
निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि
प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥
अवतार नर
संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल
दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥
सगुण और
निर्गुण रूप! हे अनुपम रूप-लावण्ययुक्त! हे राजाओं के शिरोमणि! आपकी जय हो। आपने
रावण आदि प्रचंड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला।
आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुःखों को भस्म कर
दिया। हे दयालु! हे शरणागत की रक्षा करनेवाले प्रभो! आपकी जय हो। मैं शक्ति (सीता)
सहित शक्तिमान आपको नमस्कार करता हूँ।
तव बिषम माया
बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
भव पंथ भ्रमत
अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥
जे नाथ करि
करुना बिलोकि त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।
भव खेद छेदन
दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥
हे हरे! आपकी
दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए)
दिन-रात अनंत भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैं। हे नाथ! इनमें से जिनको आपने
कृपा करके (कृपादृष्टि से) देख लिया, वे (माया-जनित) तीनों प्रकार के दुःखों से छूट गए। हे
जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल राम! हमारी रक्षा कीजिए। हम आपको नमस्कार करते
हैं।
जे ग्यान मान
बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर
दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी॥
बिस्वास करि
सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव
बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे॥
जिन्होंने
मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु (के भय) को
हरनेवाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि! उन्हें देव-दुर्लभ (देवताओं को भी बड़ी कठिनता से
प्राप्त होनेवाले, ब्रह्मा आदि के ) पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते
देखते हैं। (परंतु) जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके आपके दास हो रहते
हैं,
वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागर से तर
जाते हैं। हे नाथ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं।
जे चरन सिव अज
पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता
मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥
ध्वज कुलिस
अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद
मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥
जो चरण शिव और
ब्रह्मा के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर (शिला बनी
हुई) गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई; जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वंदित,
त्रैलोक्य को पवित्र करनेवाली देवनदी गंगा निकलीं और ध्वजा,
वज्र अंकुश और कमल, इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय काँटे
चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं; हे मुकुंद! हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों
चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं।
अब्यक्तमूलमनादि
तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा
पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥
फल जुगल बिधि
कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत
नवल नित संसार बिटप नमामहे॥
वेद-शास्त्रों
ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है; जो (प्रवाह रूप से) अनादि है, जिसके चार त्वचाएँ, छह तने, पचीस शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत-से फूल हैं;
जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं;
जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है; जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं;
ऐसे संसार वृक्ष स्वरूप (विश्व रूप में प्रकट) आपको हम
नमस्कार करते हैं।
जे ब्रह्म
अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।
ते कहहुँ
जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥
करुनायतन
प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म
बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥
ब्रह्म अजन्मा
है,
अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है - (जो इस
प्रकार कहकर उस) ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें,
किंतु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं। हे
करुणा के धाम प्रभो! हे सद्गुणों की खान! हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन,
वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम
करें।
दो० - सब के
देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अंतर्धान भए
पुनि गए ब्रह्म आगार॥ 13(क)॥
वेदों ने सबके
देखते यह श्रेष्ठ विनती की। फिर वे अंतर्धान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए॥ 13(क)॥
बैनतेय सुनु
संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद
गिरा पूरित पुलक सरीर॥ 13(ख)॥
(काकभुशुंडि कहते हैं -) हे गरुड़ ! सुनिए, तब शिव वहाँ आए जहाँ रघुवीर थे और गद्ग द् वाणी से स्तुति
करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया - ॥ 13(ख)॥
छं० - जय राम
रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस
रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥
हे राम! हे
रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म-मरण के संताप का नाश करनेवाले! आपकी जय हो;
आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे
अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता
हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए।
दससीस बिनासन
बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
रजनीचर बृंद
पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे॥
हे दस सिर और
बीस भुजाओंवाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महान रोगों (कष्टों) को दूर
करनेवाले राम! राक्षस समूहरूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाणरूपी अग्नि के प्रचंड तेज से भस्म हो गए।
महि मंडल मंडन
चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।
मद मोह महा
ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥
आप पृथ्वी
मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं; आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं। महान मद,
मोह और ममतारूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए
आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं।
मनजात किरात
निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
हति नाथ अनाथनि
पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥
कामदेवरूपी
भील ने मनुष्यरूपी हिरनों के हृदय में कुभोगरूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है।
हे नाथ! हे (पाप-ताप का हरण करनेवाले) हरे ! उसे मारकर विषयरूपी वन में भूल पड़े
हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए।
बहु रोग बियोगन्हि
लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए॥
भव सिंधु अगाध
परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥
लोग बहुत-से
रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल
हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं।
अति दीन मलीन
दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं॥
अवलंब भवंत
कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥
जिन्हें आपके
चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यंत दीन,
मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं। और जिन्हें आपकी लीला-कथा
का आधार है, उनको संत और भगवान सदा प्रिय लगने लगते हैं।
नहिं राग न
लोभ न मान मदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
एहि ते तव
सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥
उनमें न राग
(आसक्ति) है, न लोभ; न मान है, न मद। उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है। इसी से मुनि लोग योग (साधन)
का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं।
करि प्रेम
निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥
सम मानि
निरादर आदरही। सब संतु सुखी बिचरंति मही॥
वे
प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं
और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं।
मुनि मानस
पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपामि
नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥
हे मुनियों के
मनरूपी कमल के भ्रमर! हे महान रणधीर एवं अजेय रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण
ग्रहण करता हूँ) हे हरि! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। आप
जन्म-मरणरूपी रोग की महान औषध और अभिमान के शत्रु हैं।
गुन सील कृपा
परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
रघुनंद निकंदय
द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीनजनं॥
आप गुण,
शील और कृपा के परम स्थान हैं। आप लक्ष्मीपति हैं,
मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूँ। हे रघुनंदन! (आप जन्म-मरण,
सुख-दुःख, राग-द्वेषादि) द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए। हे पृथ्वी का
पालन करनेवाले राजन। इस दीन जन की ओर भी दृष्टि डालिए।
दो० - बार बार
बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज
अनपायनी भगति सदा सतसंग॥ 14(क॥
मैं आपसे
बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों
का सत्संग सदा प्राप्त हो। हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए॥ 14(क)॥
बरनि उमापति
राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु
कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास॥ 14(ख)॥
राम के गुणों
का वर्णन करके उमापति महादेव हर्षित होकर कैलास को चले गए। तब प्रभु ने वानरों को
सब प्रकार से सुख देनेवाले डेरे दिलवाए॥ 14(ख)॥
सुनु खगपति यह
कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी॥
महाराज कर सुभ
अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका॥
हे गरुड़!
सुनिए,
यह कथा (सबको) पवित्र करनेवाली है,
(दैहिक,
दैविक, भौतिक) तीनों प्रकार के तापों का और जन्म-मृत्यु के भय का
नाश करनेवाली है। महाराज राम के कल्याणमय राज्याभिषेक का चरित्र (निष्कामभाव से)
सुनकर मनुष्य वैराग्य और ज्ञान प्राप्त करते हैं।
जे सकाम नर
सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं॥
सुर दुर्लभ
सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं॥
और जो मनुष्य
सकामभाव से सुनते और जो गाते हैं, वे अनेकों प्रकार के सुख और संपत्ति पाते हैं। वे जगत में
देवदुर्लभ सुखों को भोगकर अंतकाल में रघुनाथ के परमधाम को जाते हैं।
सुनहिं
बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई॥
खगपति राम कथा
मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी॥
इसे जो
जीवन्मुक्त, विरक्त और विषयी सुनते हैं, वे (क्रमशः) भक्ति, मुक्ति और नवीन संपत्ति (नित्य नए भोग) पाते हैं। हे पक्षीराज
गरुड़! मैंने अपनी बुद्धि की पहुँच के अनुसार रामकथा वर्णन की है,
जो (जन्म-मरण) भय और दुःख को हरनेवाली है।
बिरति बिबेक
भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुंदर तरनी॥
नित नव मंगल
कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी॥
यह वैराग्य,
विवेक और भक्ति को दृढ़ करनेवाली है तथा मोहरूपी नदी (को
पार करने) के लिए सुंदर नाव है। अवधपुरी में नित-नए मंगलोत्सव होते हैं। सभी
वर्गों के लोग हर्षित रहते हैं।
नित नइ प्रीति
राम पद पंकज। सब कें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज॥
मंगल बहु
प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए॥
राम के
चरणकमलों में - जिन्हें शिव, मुनिगण और ब्रह्मा भी नमस्कार करते हैं - सबकी नित्य नवीन
प्रीति है। भिक्षुकों को बहुत प्रकार के वस्त्राभूषण पहनाए गए और ब्राह्मणों ने
नाना प्रकार के दान पाए।
दो० -
ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।
जात न जाने
दिवस तिन्ह गए मास षट बीति॥ 15॥
वानर सब
ब्रह्मानंद में मग्न हैं। प्रभु के चरणों में सबका प्रेम है। उन्होंने दिन जाते
जाने ही नहीं और (बात-की-बात में) छह महीने बीत गए॥ 15॥
बिसरे गृह
सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माहीं॥
तब रघुपति सब
सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए॥
उन लोगों को
अपने घर भूल ही गए। (जाग्रत की तो बात ही क्या) उन्हें स्वप्न में भी घर की सुध
(याद) नहीं आती, जैसे संतों के मन में दूसरों से द्रोह करने की बात कभी नहीं आती। तब रघुनाथ ने
सब सखाओं को बुलाया। सबने आकर आदर सहित सिर नवाया।
परम प्रीति
समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे॥
तुम्ह अति
कीन्हि मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई॥
बड़े ही प्रेम
से राम ने उनको अपने पास बैठाया और भक्तों को सुख देनेवाले कोमल वचन कहे - तुम
लोगों ने मेरी बड़ी सेवा की है। मुँह पर किस प्रकार तुम्हारी बड़ाई करूँ?
ताते मोहि
तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे॥
अनुज राज
संपति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही॥
मेरे हित के
लिए तुम लोगों ने घरों को तथा सब प्रकार के सुखों को त्याग दिया। इससे तुम मुझे
अत्यंत ही प्रिय लग रहे हो। छोटे भाई, राज्य, संपत्ति, जानकी, अपना शरीर, घर, कुटुंब और मित्र -
सब मम प्रिय
नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहउँ मोर यह बाना॥
सब कें प्रिय
सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती॥
ये सभी मुझे
प्रिय हैं, परंतु तुम्हारे समान नहीं। मैं झूठ नहीं कहता, यह मेरा स्वभाव है। सेवक सभी को प्यारे लगते हैं,
यह नीति (नियम) है। (पर) मेरा तो दास पर (स्वाभाविक ही)
विशेष प्रेम है।
दो० - अब गृह
जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत
सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥ 16॥
हे सखागण! अब
सब लोग घर जाओ; वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करनेवाला
जानकर अत्यंत प्रेम करना॥ 16॥
सुनि प्रभु
बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए॥
एकटक रहे जोरि
कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे॥
प्रभु के वचन
सुनकर सब-के-सब प्रेममग्न हो गए। हम कौन हैं और कहाँ हैं?
यह देह की सुध भी भूल गई। वे प्रभु के सामने हाथ जोड़कर
टकटकी लगाए देखते ही रह गए। अत्यंत प्रेम के कारण कुछ कह नहीं सकते।
परम प्रेम
तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिधि बिधि ग्यान बिसेषा॥
प्रभु सन्मुख
कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं॥
प्रभु ने उनका
अत्यंत प्रेम देखा, (तब) उन्हें अनेकों प्रकार से विशेष ज्ञान का उपदेश दिया।
प्रभु के सम्मुख वे कुछ कह नहीं सकते। बार-बार प्रभु के चरणकमलों को देखते हैं।
तब प्रभु भूषन
बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए॥
सुग्रीवहि
प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए॥
तब प्रभु ने
अनेक रंगों के अनुपम और सुंदर गहने-कपड़े मँगवाए। सबसे पहले भरत ने अपने हाथ से
सँवारकर सुग्रीव को वस्त्राभूषण पहनाए।
प्रभु प्रेरित
लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए॥
अंगद बैठ रहा
नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला॥
फिर प्रभु की
प्रेरणा से लक्ष्मण ने विभीषण को गहने-कपड़े पहनाए, जो रघुनाथ के मन को बहुत ही अच्छे लगे। अंगद बैठे ही रहे,
वे अपनी जगह से हिले तक नहीं। उनका उत्कट प्रेम देखकर प्रभु
ने उनको नहीं बुलाया।
दो० - जामवंत
नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम
रूप सब चले नाइ पद माथ॥ 17(क)॥
जाम्बवान और
नील आदि सबको रघुनाथ ने स्वयं भूषण-वस्त्र पहनाए। वे सब अपने हृदयों में राम के
रूप को धारण करके उनके चरणों में मस्तक नवाकर चले॥ 17(क)॥
तब अंगद उठि
नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत
बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रसबोरि॥ 17(ख)॥
तब अंगद उठकर
सिर नवाकर, नेत्रों में जल भरकर और हाथ जोड़कर अत्यंत विनम्र तथा मानो प्रेम के रस में
डुबोए हुए (मधुर) वचन बोले - ॥ 17(ख)॥
सुनु सर्बग्य
कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो॥
मरती बेर नाथ
मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली॥
हे सर्वज्ञ!
हे कृपा और सुख के समुद्र! हे दीनों पर दया करनेवाले! हे आर्तों के बंधु! सुनिए!
हे नाथ! मरते समय मेरा पिता बालि मुझे आपकी ही गोद में डाल गया था।
असरन सरन
बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी॥
मोरें तुम्ह
प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥
अतः हे भक्तों
के हितकारी! अपना अशरण-शरण विरद (बाना) याद करके मुझे त्यागिए नहीं। मेरे तो
स्वामी,
गुरु, पिता और माता सब कुछ आप ही हैं। आपके चरणकमलों को छोड़कर
मैं कहाँ जाऊँ?
तुम्हहि
बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा॥
बालक ग्यान
बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना॥
हे महाराज! आप
ही विचारकर कहिए, प्रभु (आप) को छोड़कर घर में मेरा क्या काम है?
हे नाथ! इस ज्ञान, बुद्धि और बल से हीन बालक तथा दीन सेवक को शरण में रखिए।
नीचि टहल गृह
कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ॥
अस कहि चरन
परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही॥
मैं घर की सब
नीची-से-नीची सेवा करूँगा और आपके चरणकमलों को देख-देखकर भवसागर से तर जाऊँगा। ऐसा
कहकर वे राम के चरणों में गिर पड़े (और बोले -) हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए। हे
नाथ! अब यह न कहिए कि तू घर जा।
दो० - अंगद
बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।
प्रभु उठाइ उर
लायउ सजल नयन राजीव॥ 18(क)॥
अंगद के
विनम्र वचन सुनकर करुणा की सीमा प्रभु रघुनाथ ने उनको उठाकर हृदय से लगा लिया।
प्रभु के नेत्र कमलों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥ 18(क)॥
निज उर माल
बसन मनि बालितनय पहिराइ।
बिदा कीन्हि
भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ॥ 18(ख)॥
तब भगवान ने
अपने हृदय की माला, वस्त्र और मणि (रत्नों के आभूषण) बालि पुत्र अंगद को पहनाकर
और बहुत प्रकार से समझाकर उनकी विदाई की॥ 18(ख)॥
भरत अनुज
सौमित्रि समेता। पठवन चले भगत कृत चेता॥
अंगद हृदयँ
प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा॥
भक्त की करनी
को याद करके भरत छोटे भाई शत्रुघ्न और लक्ष्मण सहित उनको पहुँचाने चले। अंगद के
हृदय में थोड़ा प्रेम नहीं है (अर्थात बहुत अधिक प्रेम है)। वे फिर-फिरकर राम की
ओर देखते हैं।
बार बार कर
दंड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा॥
राम बिलोकनि
बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी॥
और बार-बार
दंडवत-प्रणाम करते हैं। मन में ऐसा आता है कि राम मुझे रहने को कह दें। वे राम के
देखने की,
बोलने की, चलने की तथा हँसकर मिलने की रीति को याद कर-करके सोचते हैं
(दुःखी होते हैं)।
प्रभु रुख
देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पंकज राखी॥
अति आदर सब
कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए॥
किंतु प्रभु
का रुख देखकर, बहुत-से विनय वचन कहकर तथा हृदय में चरणकमलों को रखकर वे चले। अत्यंत आदर के
साथ सब वानरों को पहुँचाकर भाइयों सहित भरत लौट आए।
तब सुग्रीव
चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना॥
दिन दस करि
रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा॥
तब हनुमान ने
सुग्रीव के चरण पकड़कर अनेक प्रकार से विनती की और कहा - हे देव! दस (कुछ) दिन
रघुनाथ की चरणसेवा करके फिर मैं आकर आपके चरणों के दर्शन करूँगा।
पुन्य पुंज
तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा॥
अस कहि कपि सब
चले तुरंता। अंगद कहइ सुनहु हनुमंता॥
(सुग्रीव ने कहा -) हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो (जो भगवान ने तुमको अपनी
सेवा में रख लिया)। जाकर कृपाधाम राम की सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल
पड़े। अंगद ने कहा - हे हनुमान! सुनो -
दो० - कहेहु
दंडवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार
रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि॥ 19(क)॥
मैं तुमसे हाथ
जोड़कर कहता हूँ, प्रभु से मेरी दंडवत कहना और रघुनाथ को बार-बार मेरी याद
कराते रहना॥ 19(क)॥
अस कहि चलेउ
बालिसुत फिरि आयउ हनुमंत।
तासु प्रीति
प्रभु सन कही मगन भए भगवंत॥ 19(ख)॥
ऐसा कहकर
बालिपुत्र अंगद चले, तब हनुमान लौट आए और आकर प्रभु से उनका प्रेम वर्णन किया।
उसे सुनकर भगवान प्रेममग्न हो गए॥ 19(ख)॥
कुलिसहु चाहि
कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस
राम कर समुझि परइ कहु काहि॥ 19(ग)॥
(काकभुशुंडि कहते हैं -) हे गरुड़! राम का चित्त वज्र से भी अत्यंत कठोर और फूल
से भी अत्यंत कोमल है। तब कहिए, वह किसकी समझ में आ सकता है?॥ 19(ग)॥
पुनि कृपाल
लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा॥
जाहु भवन मम
सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू॥
फिर कृपालु
राम ने निषादराज को बुला लिया और उसे भूषण, वस्त्र प्रसाद में दिए। (फिर कहा -) अब तुम भी घर जाओ,
वहाँ मेरा स्मरण करते रहना और मन,
वचन तथा कर्म से धर्म के अनुसार चलना।
तुम्ह मम सखा
भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता॥
बचन सुनत उपजा
सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी॥
तुम मेरे
मित्र हो और भरत के समान भाई हो। अयोध्या में सदा आते-जाते रहना। यह वचन सुनते ही
उसको भारी सुख उत्पन्न हुआ। नेत्रों में (आनंद और प्रेम के आँसुओं का) जल भरकर वह
चरणों में गिर पड़ा।
चरन नलिन उर
धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा॥
रघुपति चरित
देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी॥
फिर भगवान के
चरणकमलों को हृदय में रखकर वह घर आया और आकर अपने कुटुंबियों को उसने प्रभु का
स्वभाव सुनाया। रघुनाथ का यह चरित्र देखकर अवधपुरवासी बार-बार कहते हैं कि सुख की
राशि राम धन्य हैं।
राम राज बैठें
त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका॥
बयरु न कर
काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई॥
राम के राज्य
पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता। राम के
प्रताप से सबकी विषमता (आंतरिक भेदभाव) मिट गई।
दो० -
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा
पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग॥ 20॥
सब लोग
अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद मार्ग पर चलते हैं
और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है॥ 20॥
दैहिक दैविक
भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं
परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
राम-राज्य में
दैहिक,
दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर
प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने
धर्म का पालन करते हैं।
चारिउ चरन
धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं॥
राम भगति रत
नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी॥
धर्म अपने चारों
चरणों (सत्य, शौच,
दया और दान) से जगत में परिपूर्ण हो रहा है;
स्वप्न में भी कहीं पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी
रामभक्ति के परायण हैं और सभी परम गति (मोक्ष) के अधिकारी हैं।
अल्पमृत्यु
नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥
नहिं दरिद्र
कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥
छोटी अवस्था
में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुंदर और नीरोग
हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ
लक्षणों से हीन ही है।
सब निर्दंभ
धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥
सब गुनग्य
पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी॥
सभी दंभरहित
हैं,
धर्मपरायण हैं और पुण्यात्मा हैं। पुरुष और स्त्री सभी चतुर
और गुणवान हैं। सभी गुणों का आदर करनेवाले और पंडित हैं तथा सभी ज्ञानी हैं। सभी
कृतज्ञ (दूसरे के किए हुए उपकार को माननेवाले) हैं, कपट-चतुराई (धूर्तता) किसी में नहीं है।
दो० - राम राज
नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।
काल कर्म
सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं॥ 21॥
(काकभुशुंडि कहते हैं -) हे पक्षीराज गुरुड़! सुनिए। राम के राज्य में जड़,
चेतन सारे जगत में काल, कर्म स्वभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुःख किसी को भी नहीं
होते (अर्थात इनके बंधन में कोई नहीं है)॥ 21॥
भूमि सप्त
सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला॥
भुअन अनेक रोम
प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू॥
अयोध्या में
रघुनाथ सात समुद्रों की मेखला (करधनी) वाली पृथ्वी के एक मात्र राजा हैं। जिनके
एक-एक रोम में अनेकों ब्रह्मांड हैं, उनके लिए सात द्वीपों की यह प्रभुता कुछ अधिक नहीं है।
सो महिमा
समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी॥
सोउ महिमा
खगेस जिन्ह जानी॥ फिरि एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी॥
बल्कि प्रभु
की उस महिमा को समझ लेने पर तो यह कहने में (कि वे सात समुद्रों से घिरी हुई सप्त
द्वीपमयी पृथ्वी के एकछत्र सम्राट हैं) उनकी बड़ी हीनता होती है,
परंतु हे गरुड़! जिन्होंने वह महिमा जान भी ली है,
वे भी फिर इस लीला में बड़ा प्रेम मानते हैं।
सोउ जाने कर
फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला॥
राम राज कर
सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा॥
क्योंकि उस
महिमा को भी जानने का फल यह लीला (इस लीला का अनुभव) ही है,
इंद्रियों का दमन करनेवाले श्रेष्ठ महामुनि ऐसा कहते हैं।
रामराज्य की सुख संपत्ति का वर्णन शेष और सरस्वती भी नहीं कर सकते।
सब उदार सब पर
उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी॥
एकनारि ब्रत
रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी॥
सभी नर-नारी
उदार हैं,
सभी परोपकारी हैं और ब्राह्मणों के चरणों के सेवक हैं। सभी
पुरुष मात्र एक पत्नीव्रती हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी मन,
वचन और कर्म से पति का हित करनेवाली हैं।
दो० - दंड
जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि
सुनिअ अस रामचंद्र कें राज॥ 22॥
रामचंद्र के
राज्य में दंड केवल संन्यासियों के हाथों में है और भेद नाचने वालों के नृत्य समाज
में है और 'जीतो'
शब्द केवल मन के जीतने के लिए ही सुनाई पड़ता है (अर्थात
राजनीति में शत्रुओं को जीतने तथा चोर-डाकुओं आदि को दमन करने के लिए साम,
दान, दंड और भेद - ये चार उपाय किए जाते हैं। रामराज्य में कोई
शत्रु है ही नहीं, इसलिए 'जीतो' शब्द केवल मन के जीतने के लिए कहा जाता है। कोई अपराध करता
ही नहीं,
इसलिए दंड किसी को नहीं होता, दंड शब्द केवल संन्यासियों के हाथ में रहनेवाले दंड के लिए
ही रह गया है तथा सभी अनुकूल होने के कारण भेदनीति की आवश्यकता ही नहीं रह गई। भेद,
शब्द केवल सुर-ताल के भेद के लिए ही कामों में आता है)॥ 22॥
फूलहिं फरहिं
सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग गज पंचानन॥
खग मृग सहज
बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥
वनों में
वृक्ष सदा फूलते और फलते हैं। हाथी और सिंह (वैर भूलकर) एक साथ रहते हैं। पक्षी और
पशु सभी ने स्वाभाविक वैर भुलाकर आपस में प्रेम बढ़ा लिया है।
कूजहिं खग मृग
नाना बृंदा। अभय चरहिं बन करहिं अनंदा॥
सीतल सुरभि
पवन बह मंदा। गुंजत अलि लै चलि मकरंदा॥
पक्षी कूजते
(मीठी बोली बोलते) हैं, भाँति-भाँति के पशुओं के समूह वन में निर्भय विचरते और आनंद
करते हैं। शीतल, मंद,
सुगंधित पवन चलता रहता है। भौंरे पुष्पों का रस लेकर चलते
हुए गुंजार करते जाते हैं।
लता बिटप
मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्रवहीं॥
ससि संपन्न
सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी॥
बेलें और
वृक्ष माँगने से ही मधु (मकरंद) टपका देते हैं। गौएँ मनचाहा दूध देती हैं। धरती
सदा खेती से भरी रहती है। त्रेता में सत्ययुग की करनी (स्थिति) हो गई।
प्रगटीं
गिरिन्ह बिबिधि मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी॥
सरिता सकल
बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी॥
समस्त जगत के
आत्मा भगवान को जगत का राजा जानकर पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें
प्रकट कर दीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल और सुखप्रद स्वादिष्ट जल बहाने लगीं।
सागर निज
मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥
सरसिज संकुल
सकल तड़ागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा॥
समुद्र अपनी
मर्यादा में रहते हैं। वे लहरों द्वारा किनारों पर रत्न डाल देते हैं,
जिन्हें मनुष्य पा जाते हैं। सब तालाब कमलों से परिपूर्ण
हैं। दसों दिशाओं के विभाग (अर्थात सभी प्रदेश) अत्यंत प्रसन्न हैं।
दो० - बिधु
महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद
देहिं जल रामचंद्र कें राज॥ 23॥
रामचंद्र के
राज्य में चंद्रमा अपनी (अमृतमयी) किरणों से पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं। सूर्य
उतना ही तपते हैं, जितने की आवश्यकता होती है और मेघ माँगने से (जब जहाँ जितना
चाहिए उतना ही) जल देते हैं॥ 23॥
कोटिन्ह
बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे॥
श्रुति पथ
पालक धर्म धुरंधर। गुनातीत अरु भोग पुरंदर॥
प्रभु राम ने
करोड़ों अश्वमेध यज्ञ किए और ब्राह्मणों को अनेकों दान दिए। राम वेदमार्ग के
पालनेवाले, धर्म की धुरी को धारण करनेवाले, (प्रकृतिजन्य सत्त्व, रज और तम) तीनों गुणों से अतीत और भोगों (ऐश्वर्य) में
इंद्र के समान हैं।
पति अनुकूल
सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता॥
जानति
कृपासिंधु प्रभुताई॥ सेवति चरन कमल मन लाई॥
शोभा की खान,
सुशील और विनम्र सीता सदा पति के अनुकूल रहती हैं। वे
कृपासागर राम की प्रभुता (महिमा) को जानती हैं और मन लगाकर उनके चरणकमलों की सेवा
करती हैं।
जद्यपि गृहँ
सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी॥
निज कर गृह
परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई॥
यद्यपि घर में
बहुत-से (अपार) दास और दासियाँ हैं और वे सभी सेवा की विधि में कुशल हैं,
तथापि (स्वामी की सेवा का महत्त्व जाननेवाली) सीता घर की सब
सेवा अपने ही हाथों से करती हैं और रामचंद्र की आज्ञा का अनुसरण करती हैं।
जेहि बिधि
कृपासिंधु सुख मानइ। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ॥
कौसल्यादि
सासु गृह माहीं। सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं॥
कृपासागर राम
जिस प्रकार से सुख मानते हैं, श्री (सीता) वही करती हैं; क्योंकि वे सेवा की विधि को जाननेवाली हैं। घर में कौसल्या
आदि सभी सासुओं की सीता सेवा करती हैं, उन्हें किसी बात का अभिमान और मद नहीं है।
उमा रमा
ब्रह्मादि बंदिता। जगदंबा संततमनिंदिता॥
(शिव कहते हैं -) हे उमा! जगज्जननी रमा (सीता) ब्रह्मा आदि देवताओं से वंदित और
सदा अनिंदित (सर्वगुण संपन्न) हैं।
दो० - जासु
कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ।
राम पदारबिंद
रति करति सुभावहि खोइ॥ 24॥
देवता जिनका
कृपाकटाक्ष चाहते हैं, परंतु वे उनकी ओर देखती भी नहीं,
वे ही लक्ष्मी (जानकी) अपने (महामहिम) स्वभाव को छोड़कर राम
के चरणारविंद में प्रीति करती हैं॥ 24॥
सेवहिं सानकूल
सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई॥
प्रभु मुख कमल
बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं॥
सब भाई अनुकूल
रहकर उनकी सेवा करते हैं। राम के चरणों में उनकी अत्यंत अधिक प्रीति है। वे सदा
प्रभु का मुखारविंद ही देखते रहते हैं कि कृपालु राम कभी हमें कुछ सेवा करने को
कहें।
राम करहिं
भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती॥
हरषित रहहिं
नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा॥
राम भी भाइयों
पर प्रेम करते हैं और उन्हें नाना प्रकार की नीतियाँ सिखलाते हैं। नगर के लोग
हर्षित रहते हैं और सब प्रकार के देवदुर्लभ (देवताओं को भी कठिनता से प्राप्त होने
योग्य) भोग भोगते हैं।
अहनिसि बिधिहि
मनावत रहहीं। श्री रघुबीर चरन रति चहहीं॥
दुइ सुत सुंदर
सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए॥
वे दिन-रात
ब्रह्मा को मनाते रहते हैं और (उनसे) श्री रघुवीर के चरणों में प्रीति चाहते हैं।
सीता के लव और कुश - ये दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनका वेद-पुराणों ने वर्णन किया है।
दोउ बिजई बिनई
गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥
दुइ दुइ सुत
सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे॥
वे दोनों ही
विजयी (विख्यात योद्धा), नम्र और गुणों के धाम हैं और अत्यंत सुंदर हैं,
मानो हरि के प्रतिबिंब ही हों। दो-दो पुत्र सभी भाइयों के
हुए,
जो बड़े ही सुंदर, गुणवान और सुशील थे।
दो० - ग्यान
गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ
सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार॥ 25॥
जो (बौद्धिक)
ज्ञान,
वाणी और इंद्रियों से परे और अजन्मा है तथा माया,
मन और गुणों के परे है, वही सच्चिदानंदघन भगवान श्रेष्ठ नरलीला करते हैं॥ 25॥
प्रातकाल सरऊ
करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन॥
बेद पुरान
बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥
प्रातःकाल
सरयू में स्नान करके ब्राह्मणों और सज्जनों के साथ सभा में बैठते हैं। वशिष्ठ वेद
और पुराणों की कथाएँ वर्णन करते हैं और राम सुनते हैं,
यद्यपि वे सब जानते हैं।
अनुजन्ह संजुत
भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीं॥
भरत सत्रुहन
दोनउ भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई॥
वे भाइयों को
साथ लेकर भोजन करते हैं। उन्हें देखकर सभी माताएँ आनंद से भर जाती हैं। भरत और
शत्रुघ्न दोनों भाई हनुमान सहित उपवनों में जाकर,
बूझहिं बैठि
राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा॥
सुनत बिमल गुन
अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं॥
वहाँ बैठकर
राम के गुणों की कथाएँ पूछते हैं और हनुमान अपनी सुंदर बुद्धि से उन गुणों में
गोता लगाकर उनका वर्णन करते हैं। राम के निर्मल गुणों को सुनकर दोनों भाई अत्यंत
सुख पाते हैं और विनय करके बार-बार कहलवाते हैं।
सब कें गृह
गृह होहिं पुराना। राम चरित पावन बिधि नाना॥
नर अरु नारि
राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिं॥
सबके यहाँ
घर-घर में पुराणों और अनेक प्रकार के पवित्र रामचरित्रों की कथा होती है। पुरुष और
स्त्री सभी राम का गुणगान करते हैं और इस आनंद में दिन-रात का बीतना भी नहीं जान
पाते।
दो० - अवधपुरी
बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं
कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज॥ 26॥
जहाँ भगवान
राम स्वयं राजा होकर विराजमान हैं, उस अवधपुरी के निवासियों के सुख-संपत्ति के समुदाय का वर्णन
हजारों शेष भी नहीं कर सकते॥ 26॥
नारदादि
सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा॥
दिन प्रति सकल
अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं॥
नारद आदि और
सनक आदि मुनीश्वर सब कोसलराज राम के दर्शन के लिए प्रतिदिन अयोध्या आते हैं और उस
(दिव्य) नगर को देखकर वैराग्य भुला देते हैं।
जातरूप मनि
रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं॥
पुर चहुँ पास
कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर॥
(दिव्य) स्वर्ण और रत्नों से बनी हुई अटारियाँ हैं। उनमें (मणि-रत्नों की) अनेक
रंगों की सुंदर ढली हुई फर्शें हैं। नगर के चारों ओर अत्यंत सुंदर परकोटा बना है,
जिस पर सुंदर रंग-बिरंगे कँगूरे बने हैं।
नव ग्रह निकर
अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई॥
लमहि बहु रंग
रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा॥
मानो नवग्रहों
ने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावती को आकर घेर लिया हो। पृथ्वी (सड़कों) पर अनेकों
रंगों के (दिव्य) काँचों (रत्नों) की गच बनाई (ढाली) गई है,
जिसे देखकर श्रेष्ठ मुनियों के भी मन नाच उठते हैं।
धवल धाम ऊपर
नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत॥
बहु मनि रचित
झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं॥
उज्ज्वल महल
ऊपर आकाश को चूम (छू) रहे हैं। महलों पर के कलश (अपने दिव्य प्रकाश से) मानो सूर्य,
चंद्रमा के प्रकाश की भी निंदा (तिरस्कार) करते हैं। (महलों
में) बहुत-सी मणियों से रचे हुए झरोखे सुशोभित हैं और घर-घर में मणियों के दीपक
शोभा पा रहे हैं।
छं० - मनि दीप
राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
मनि खंभ भीति
बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुंदर मनोहर
मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार
द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
घरों में
मणियों के दीपक शोभा दे रहे हैं। मूँगों की बनी हुई देहलियाँ चमक रही हैं। मणियों
(रत्नों) के खंभे हैं। मरकतमणियों (पन्नों) से जड़ी हुई सोने की दीवारें ऐसी सुंदर
हैं मानो ब्रह्मा ने खास तौर से बनाई हों। महल सुंदर,
मनोहर और विशाल हैं। उनमें सुंदर स्फटिक के आँगन बने हैं।
प्रत्येक द्वार पर बहुत-से खरादे हुए हीरों से जड़े हुए सोने के किंवाड़ हैं।
दो० - चारु
चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।
राम चरित जे
निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ॥ 27॥
घर-घर में
सुंदर चित्रशालाएँ हैं, जिनमें राम के चरित्र बड़ी सुंदरता के साथ सँवारकर अंकित
किए हुए हैं। जिन्हें मुनि देखते हैं, तो वे उनके भी चित्त को चुरा लेते हैं॥ 27॥
सुमन बाटिका
सबहिं लगाईं। बिबिध भाँति करि जतन बनाईं॥
लता ललित बहु
जाति सुहाईं। फूलहिं सदा बसंत कि नाईं॥
सभी लोगों ने
भिन्न-भिन्न प्रकार की पुष्पों की वाटिकाएँ यत्न करके लगा रखी हैं,
जिनमें बहुत जातियों की सुंदर और ललित लताएँ सदा वसंत की
तरह फूलती रहती हैं।
गुंजत मधुकर
मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिधि सदा बह सुंदर।
नाना खग
बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए॥
भौंरे मनोहर
स्वर से गुंजार करते हैं। सदा तीनों प्रकार की सुंदर वायु बहती रहती है। बालकों ने
बहुत-से पक्षी पाल रखे हैं, जो मधुर बोली बोलते हैं और उड़ने में सुंदर लगते हैं।
मोर हंस सारस
पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत॥
जहँ तहँ
देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं॥
मोर,
हंस, सारस और कबूतर घरों के ऊपर बड़ी ही शोभा पाते हैं। वे पक्षी
(मणियों की दीवारों में और छत में) जहाँ-तहाँ अपनी परछाईं देखकर (वहाँ दूसरे पक्षी
समझकर) बहुत प्रकार से मधुर बोली बोलते और नृत्य करते हैं।
सुक सारिका
पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक॥
राज दुआर सकल
बिधि चारू। बीथीं चौहट रुचिर बजारू॥
बालक
तोता-मैना को पढ़ाते हैं कि कहो - 'राम' 'रघुपति' 'जनपालक'। राजद्वार सब प्रकार से सुंदर है। गलियाँ,
चौराहे और बाजार सभी सुंदर हैं।
छं० - बाजार
रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप
रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥
बैठे बजाज
सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब
सच्चरि सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥
सुंदर बाजार
है,
जो वर्णन करते नहीं बनता; वहाँ वस्तुएँ बिना ही मूल्य मिलती हैं। जहाँ स्वयं
लक्ष्मीपति राजा हों, वहाँ की संपत्ति का वर्णन कैसे किया जाए?
बजाज (कपड़े का व्यापार करनेवाले),
सराफ (रुपए-पैसे का लेन-देन करनेवाले) आदि वणिक (व्यापारी)
बैठे हुए ऐसे जान प़ड़ते हैं मानो अनेक कुबेर हों। स्त्री,
पुरुष बच्चे और बूढ़े जो भी हैं,
सभी सुखी, सदाचारी और सुंदर हैं।
दो० - उत्तर
दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बाँधे घाट
मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर॥ 28॥
नगर के उत्तर
दिशा में सरयू बह रही है, जिनका जल निर्मल और गहरा है। मनोहर घाट बँधे हुए हैं,
किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है॥ 28॥
दूरि फराक
रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा॥
पनिघट परम
मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना॥
अलग कुछ दूरी
पर वह सुंदर घाट है, जहाँ घोड़ों और हाथियों के ठट्ट-के-ठट्ट जल पिया करते हैं।
पानी भरने के लिए बहुत-से (जनाने) घाट हैं, जो बड़े ही मनोहर हैं। वहाँ पुरुष स्नान नहीं करते।
राजघाट सब
बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर॥
तीर तीर
देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर॥
राजघाट सब
प्रकार से सुंदर और श्रेष्ठ है, जहाँ चारों वर्णों के पुरुष स्नान करते हैं। सरयू के
किनारे-किनारे देवताओं के मंदिर हैं, जिनके चारों ओर सुंदर उपवन (बगीचे) हैं।
कहुँ कहुँ
सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी॥
तीर तीर
तुलसिका सुहाई। बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई॥
नदी के किनारे
कहीं-कहीं विरक्त और ज्ञानपरायण मुनि और संन्यासी निवास करते हैं। सरयू के
किनारे-किनारे सुंदर तुलसी के झुंड-के-झुंड बहुत-से पेड़ मुनियों ने लगा रखे हैं।
पुर सोभा कछु
बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई॥
देखत पुरी
अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा॥
नगर की शोभा
तो कुछ कही नहीं जाती। नगर के बाहर भी परम सुंदरता है। अयोध्यापुरी के दर्शन करते
ही संपूर्ण पाप भाग जाते हैं। (वहाँ) वन, उपवन, बावलियाँ और तालाब सुशोभित हैं।
छं० - बापीं
तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर
नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥
बहु रंग कंज
अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य
पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥
अनुपम
बावलियाँ,
तालाब और मनोहर तथा विशाल कुएँ शोभा दे रहे हैं,
जिनकी सुंदर (रत्नों की) सीढ़ियाँ और निर्मल जल देखकर देवता
और मुनि तक मोहित हो जाते हैं। (तालाबों में) अनेक रंगों के कमल खिल रहे हैं,
अनेकों पक्षी कूज रहे हैं और भौंरे गुंजार कर रहे हैं।
(परम) रमणीय बगीचे कोयल आदि पक्षियों की (सुंदर बोली से) मानो राह चलने वालों को
बुला रहे हैं।
दो० - रमानाथ
जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख
संपदा रहीं अवध सब छाइ॥ 29॥
स्वयं
लक्ष्मीपति भगवान जहाँ राजा हों, उस नगर का कहीं वर्णन किया जा सकता है?
अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-संपत्तियाँ अयोध्या
में छा रही हैं॥ 29॥
जहँ तहँ नर
रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं॥
भजहु प्रनत
प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि॥
लोग जहाँ-तहाँ
रघुनाथ के गुण गाते हैं और बैठकर एक-दूसरे को यही सीख देते हैं कि शरणागत का पालन
करनेवाले राम को भजो; शोभा, शील, रूप और गुणों के धाम रघुनाथ को भजो।
जलज बिलोचन
स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि॥
धृत सर रुचिर
चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि॥
कमलनयन और
साँवले शरीरवाले को भजो। पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करती हैं उसी प्रकार
अपने सेवकों की रक्षा करनेवाले को भजो। सुंदर बाण, धनुष और तरकस धारण करनेवाले को भजो। संतरूपी कमलवन के
(खिलाने के) सूर्य रूप रणधीर राम को भजो।
काल कराल
ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि॥
लोभ मोह
मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥
कालरूपी भयानक
सर्प के भक्षण करनेवाले राम रूप गरुड़ को भजो। निष्कामभाव से प्रणाम करते ही ममता
का नाश कर देनेवाले राम को भजो। लोभ-मोहरूपी हरिनों के समूह के नाश करनेवाले राम
किरात को भजो। कामदेवरूपी हाथी के लिए सिंह रूप तथा सेवकों को सुख देनेवाले राम को
भजो।
संसय सोक
निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि॥
जनकसुता समेत
रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि॥
संशय और
शोकरूपी घने अंधकार का नाश करनेवाले राम रूप सूर्य को भजो। राक्षसरूपी घने वन को
जलानेवाले राम रूप अग्नि को भजो। जन्म-मृत्यु के भय को नाश करनेवाले जानकी समेत
रघुवीर को क्यों नहीं भजते?
बहु बासना मसक
हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि॥
मुनि रंजन
भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥
बहुत-सी
वासनाओंरूपी मच्छरों को नाश करनेवाले राम रूप हिमराशि (बर्फ के ढेर) को भजो। नित्य
एकरस,
अजन्मा और अविनाशी रघुनाथ को भजो। मुनियों को आनंद देनेवाले,
पृथ्वी का भार उतारनेवाले और तुलसीदास के उदार (दयालु)
स्वामी राम को भजो।
दो० - एहि
बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकूल सब पर
रहहिं संतत कृपानिधान॥ 30॥
इस प्रकार नगर
के स्त्री-पुरुष राम का गुण-गान करते हैं और कृपानिधान राम सदा सब पर अत्यंत प्रसन्न
रहते हैं॥ 30॥
जब ते राम
प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥
पूरि प्रकास
रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥
(काकभुशुंडि कहते हैं -) हे पक्षीराज गरुड़! जब से रामप्रतापरूपी अत्यंत प्रचंड
सूर्य उदित हुआ, तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे बहुतों को सुख और बहुतों
के मन में शोक हुआ।
जिन्हहि सोक
ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी॥
अघ उलूक जहँ
तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥
जिन-जिन को
शोक हुआ,
उन्हें मैं बखानकर कहता हूँ (सर्वत्र प्रकाश छा जाने से)
पहले तो अविद्यारूपी रात्रि नष्ट हो गई। पापरूपी उल्लू जहाँ-तहाँ छिप गए और
काम-क्रोधरूपी कुमुद मुँद गए।
बिबिध कर्म
गुन काल सुभाउ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ॥
मत्सर मान मोह
मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥
भाँति-भाँति
के (बंधनकारक) कर्म, गुण, काल और स्वभाव - ये चकोर हैं, जो (रामप्रतापरूपी सूर्य के प्रकाश में) कभी सुख नहीं पाते।
मत्सर (डाह), मान,
मोह और मदरूपी जो चोर हैं, उनका हुनर (कला) भी किसी ओर नहीं चल पाता।
धरम तड़ाग
ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना॥
सुख संतोष
बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका॥
धर्मरूपी
तालाब में ज्ञान, विज्ञान - ये अनेकों प्रकार के कमल खिल उठे। सुख,
संतोष, वैराग्य और विवेक - ये अनेकों चकवे शोकरहित हो गए।
दो० - यह
प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढ़हिं
प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥ 31॥
यह
रामप्रतापरूपी सूर्य जिसके हृदय में जब प्रकाश करता है,
तब जिनका वर्णन पीछे से किया गया है,
वे (धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक) बढ़ जाते हैं और जिनका वर्णन पहले किया
गया है,
वे (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि) नाश को प्राप्त होते (नष्ट हो जाते) हैं॥ 31॥
भ्रातन्ह सहित
रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा॥
सुंदर उपबन
देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥
एक बार भाइयों
सहित राम परम प्रिय हनुमान को साथ लेकर सुंदर उपवन देखने गए। वहाँ के सब वृक्ष
फूले हुए और नए पत्तों से युक्त थे।
जानि समय
सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए॥
ब्रह्मानंद
सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥
सुअवसर जानकर
सनकादि मुनि आए, जो तेज के पुंज, सुंदर गुण और शील से युक्त तथा सदा ब्रह्मानंद में लवलीन
रहते हैं। देखने में तो वे बालक लगते हैं, परंतु हैं बहुत समय के।
रूप धरें जनु
चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा॥
आसा बसन ब्यसन
यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥
मानो चारों
वेद ही बालक रूप धारण किए हों। वे मुनि समदर्शी और भेदरहित हैं। दिशाएँ ही उनके
वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन है कि जहाँ रघुनाथ की चरित्र कथा होती है वहाँ जाकर
वे उसे अवश्य सुनते हैं।
तहाँ रहे
सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी॥
राम कथा
मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥
(शिव कहते हैं -) हे भवानी! सनकादि मुनि वहाँ गए थे (वहीं से चले आ रहे थे)
जहाँ ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य रहते थे। श्रेष्ठ मुनि ने राम की बहुत-सी कथाएँ
वर्णन की थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करने में उसी प्रकार समर्थ हैं,
जैसे अरणि लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है।
दो० - देखि
राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि
पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह॥ 32॥
सनकादि
मुनियों को आते देखकर राम ने हर्षित होकर दंडवत किया और स्वागत (कुशल) पूछकर प्रभु
ने (उनके) बैठने के लिए अपना पीतांबर बिछा दिया॥ 32॥
कीन्ह दंडवत
तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई॥
मुनि रघुपति
छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी॥
फिर हनुमान
सहित तीनों भाइयों ने दंडवत की, सबको बड़ा सुख हुआ। मुनि रघुनाथ की अतुलनीय छवि देखकर उसी
में मग्न हो गए। वे मन को रोक न सके।
स्यामल गात
सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन॥
एकटक रहे
निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं॥
वे
जन्म-मृत्यु (के चक्र) से छुड़ानेवाले, श्याम शरीर, कमलनयन, सुंदरता के धाम राम को टकटकी लगाए देखते ही रह गए,
पलक नहीं मारते और प्रभु हाथ जोड़े सिर नवा रहे हैं।
तिन्ह कै दसा
देखि रघुबीरा। स्रवत नयन जल पुलक सरीरा॥
कर गहि प्रभु
मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे॥
उनकी
(प्रेमविह्वल) दशा देखकर (उन्हीं की भाँति) रघुनाथ के नेत्रों से भी (प्रेमाश्रुओं
का) जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया। तदनंतर प्रभु ने हाथ पकड़कर श्रेष्ठ
मुनियों को बैठाया और परम मनोहर वचन कहे-
आजु धन्य मैं
सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा॥
बड़े भाग पाइब
सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥
हे मुनीश्वरो!
सुनिए,
आज मैं धन्य हूँ। आपके दर्शनों ही से (सारे) पाप नष्ट हो
जाते हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है,
जिससे बिना ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता
है।
दो० - संत संग
अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि
कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥ 33॥
संत का संग
मोक्ष (भव-बंधन से छूटने) का और कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का
मार्ग है। संत, कवि और पंडित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी सद्ग्रंथ ऐसा कहते हैं॥ 33॥
सुनि प्रभु
बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी॥
जय भगवंत अनंत
अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय॥
प्रभु के वचन
सुनकर चारों मुनि हर्षित होकर, पुलकित शरीर से स्तुति करने लगे - हे भगवन! आपकी जय हो। आप
अंतरहित,
विकाररहित, पापरहित, अनेक (सब रूपों में प्रकट), एक (अद्वितीय) और करुणामय हैं।
जय निर्गुन जय
जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर॥
जय इंदिरा रमन
जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर॥
हे निर्गुण!
आपकी जय हो। हे गुण के समुद्र! आपकी जय हो, जय हो। आप सुख के धाम, (अत्यंत) सुंदर और अति चतुर हैं। हे लक्ष्मीपति! आपकी जय हो।
हे पृथ्वी के धारण करनेवाले! आपकी जय हो। आप उपमारहित,
अजन्मे, अनादि और शोभा की खान हैं।
ग्यान निधान
अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद॥
तग्य कृतग्य
अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन॥
आप ज्ञान के
भंडार,
(स्वयं) मानरहित और (दूसरों
को) मान देनेवाले हैं। वेद और पुराण आपका पावन सुंदर यश गाते हैं। आप तत्त्व के
जाननेवाले, की हुई सेवा को माननेवाले और अज्ञान का नाश करनेवाले हैं। हे निरंजन (मायारहित)!
आपके अनेकों (अनंत) नाम हैं और कोई नाम नहीं है (अर्थात आप सब नामों के परे हैं)।
सर्ब सर्बगत
सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय
द्वंद बिपति
भव फंद बिभंजय। हृदि बसि राम काम मद गंजय॥
आप सर्वरूप
हैं,
सब में व्याप्त हैं और सबके हृदयरूपी घर में सदा निवास करते
हैं;
(अतः) आप हमारा परिपालन
कीजिए। (राग-द्वेष, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्व, विपत्ति और जन्म-मत्यु के जाल को काट दीजिए। हे राम! आप
हमारे हृदय में बसकर काम और मद का नाश कर दीजिए।
दो० - परमानंद
कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति
अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥ 34॥
आप परमानंद
स्वरूप,
कृपा के धाम और मन की कामनाओं को परिपूर्ण करनेवाले हैं। हे
श्री राम! हमको अपनी अविचल प्रेमा-भक्ति दीजिए॥ 34॥
देहु भगति
रघुपति अति पावनि। त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि॥
प्रनत काम
सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥
हे रघुनाथ! आप
हमें अपनी अत्यंत पवित्र करनेवाली और तीनों प्रकार के तापों और जन्म-मरण के
क्लेशों का नाश करनेवाली भक्ति दीजिए। हे शरणागतों की कामना पूर्ण करने के लिए
कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप प्रभो! प्रसन्न होकर हमें यही वर दीजिए।
भव बारिधि
कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक॥
मन संभव दारुन
दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय॥
हे रघुनाथ! आप
जन्म-मृत्यु रूप समुद्र को सोखने के लिए अगस्त्य मुनि के समान हैं। आप सेवा करने
में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देनेवाले हैं। हे दीनबंधो! मन से उत्पन्न दारुण
दुःखों का नाश कीजिए और (हममें) समदृष्टि का विस्तार कीजिए।
आस त्रास
इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥
भूप मौलि मनि
मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी॥
आप (विषयों
की) आशा,
भय और ईर्ष्या आदि के निवारण करनेवाले हैं तथा विनय,
विवेक और वैराग्य के विस्तार करनेवाले हैं। हे राजाओं के
शिरोमणि एवं पृथ्वी के भूषण राम! संसृति (जन्म-मृत्यु के प्रवाह) रूपी नदी के लिए
नौकारूप अपनी भक्ति प्रदान कीजिए।
मुनि मन मानस
हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर॥
रघुकुल केतु
सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥
हे मुनियों के
मनरूपी मानसरोवर में निरंतर निवास करनेवाले हंस! आपके चरणकमल ब्रह्मा और शिव के
द्वारा वंदित हैं। आप रघुकुल के केतु, वेदमर्यादा के रक्षक और काल, कर्म, स्वभाव तथा गुण (रूप बंधनों) के भक्षक (नाशक) हैं।
तारन तरन हरन
सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥
आप तरन-तारन (स्वयं
तरे हुए और दूसरों को तारनेवाले) तथा सब दोषों को हरनेवाले हैं। तीनों लोकों के
विभूषण आप ही तुलसीदास के स्वामी हैं।
दो० - बार-बार
अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन
सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ॥ 35॥
प्रेम सहित
बार-बार स्तुति करके और सिर नवाकर तथा अपना अत्यंत मनचाहा वर पाकर सनकादि मुनि
ब्रह्मलोक को गए॥ 35॥
सनकादिक बिधि
लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिर नाए॥
पूछत प्रभुहि
सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं॥
सनकादि मुनि
ब्रह्मलोक को चले गए। तब भाइयों ने राम के चरणों में सिर नवाया। सब भाई प्रभु से
पूछते सकुचाते हैं। (इसलिए) सब हनुमान की ओर देख रहे हैं।
सुनी चहहिं
प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी॥
अंतरजामी
प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना॥
वे प्रभु
केमुख की वाणी सुनना चाहते हैं, जिसे सुनकर सारे भ्रमों का नाश हो जाता है। अंतर्यामी प्रभु
सब जान गए और पूछने लगे - कहो हनुमान! क्या बात है?
जोरि पानि कह
तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता॥
नाथ भरत कछु
पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं॥
तब हनुमान हाथ
जोड़कर बोले - हे दीनदयालु भगवान! सुनिए। हे नाथ! भरत कुछ पूछना चाहते हैं,
पर प्रश्न करते मन में सकुचा रहे हैं।
तुम्ह जानहु
कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ॥
सुनि प्रभु
बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना॥
(भगवान ने कहा -) हनुमान! तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीच
में कभी भी कोई अंतर (भेद) है? प्रभु के वचन सुनकर भरत ने उनके चरण पकड़ लिए (और कहा -) हे
नाथ! हे शरणागत के दुःखों को हरनेवाले! सुनिए।
दो० - नाथ न
मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा
तुम्हारिहि कृपानंद संदोह॥ 36॥
हे नाथ! न तो
मुझे कुछ संदेह है और न स्वप्न में भी शोक और मोह है। हे कृपा और आनंद के समूह! यह
केवल आपकी ही कृपा का फल है॥ 36॥
करउँ कृपानिधि
एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई॥
संतन्ह कै
महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई॥
तथापि हे
कृपानिधान! मैं आप से एक धृष्टता करता हूँ। मैं सेवक हूँ और आप सेवक को सुख
देनेवाले हैं (इससे मेरी धृष्टता को क्षमा कीजिए और मेरे प्रश्न का उत्तर देकर सुख
दीजिए)। हे रघुनाथ! वेद-पुराणों ने संतों की महिमा बहुत प्रकार से गाई है।
श्रीमुख तुम्ह
पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई॥
सुना चहउँ
प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन॥
आपने भी
श्रीमुख से उनकी बड़ाई की है और उन पर प्रभु (आप) का प्रेम भी बहुत है। हे प्रभो!
मैं उनके लक्षण सुनना चाहता हूँ। आप कृपा के समुद्र हैं और गुण तथा ज्ञान में
अत्यंत निपुण हैं।
संत असंत भेद
बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई॥
संतन्ह के
लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता॥
हे शरणागत का
पालन करनेवाले! संत और असंत के भेद अलग-अलग करके मुझको समझाकर कहिए। (राम ने कहा
-) हे भाई! संतों के लक्षण (गुण) असंख्य हैं, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं।
संत असंतन्हि
कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय
सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
संत और असंतों
की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो,
कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही
वृक्षों को काटना है); किंतु चंदन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटनेवाली
कुल्हाड़ी को) सुगंध से सुवासित कर देता है।
दो० - ताते
सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत
घनहिं परसु बदन यह दंड॥ 37॥
इसी गुण के
कारण चंदन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी
के मुख को यह दंड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं॥ 37॥
बिषय अलंपट
सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु
बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी॥
संत विषयों
में लंपट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं। उन्हें पराया दुःख देखकर
दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे (सबमें, सर्वत्र, सब समय) समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है,
वे मद से रहित और वैराग्यवान होते हैं तथा लोभ,
क्रोध, हर्ष और भय का त्याग किए हुए रहते हैं।
कोमलचित
दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद
आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥
उनका चित्त
बड़ा कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं तथा मन,
वचन और कर्म से मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं।
सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मेरे
प्राणों के समान हैं।
बिगत काम मम
नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता
मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥
उनको कोई
कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते हैं। शांति,
वैराग्य, विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं। उनमें शीलता,
सरलता, सबके प्रति मित्र भाव और ब्राह्मण के चरणों में प्रीति होती
है,
जो धर्मों को उत्पन्न करनेवाली है।
ए सब लच्छन
बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर॥
सम दम नियम
नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥
हे तात! ये सब
लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना। जो शम (मन के निग्रह),
दम (इंद्रियों के निग्रह), नियम और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर
वचन नहीं बोलते,
दो० - निंदा
अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम
प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज॥ 38॥
जिन्हें निंदा
और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है,
वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान
प्रिय हैं॥ 38॥
सुनहु असंतन्ह
केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ॥
तिन्ह कर संग
सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि घालइ हरहाई॥
अब असंतों
(दुष्टों) का स्वभाव सुनो; कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिए। उनका संग सदा दुःख
देनेवाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी जाति की) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गाय को
अपने संग से नष्ट कर डालती है।
खलन्ह हृदयँ
अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी॥
जहँ कहुँ
निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥
दुष्टों के
हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई संपत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते
हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निंदा सुन पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पड़ी निधि
(खजाना) पा ली हो।
काम क्रोध मद
लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥
बयरु अकारन सब
काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों॥
वे काम,
क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी,
कपटी, कुटिल और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसी से
वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है उसके साथ बुराई भी करते हैं।
झूठइ लेना
झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।
बोलहिं मधुर
बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा॥
उनका झूठा ही
लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है
(अर्थात वे लेने-देने के व्यवहार में झूठ का आश्रय लेकर दूसरों का हक मार लेते हैं
अथवा झूठी डींग हाँका करते हैं कि हमने लाखों रुपए ले लिए,
करोड़ों का दान कर दिया। इसी प्रकार खाते हैं चने की रोटी
और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आए। अथवा चबेना चबाकर रह जाते हैं और कहते हैं
हमें बढ़िया भोजन से वैराग्य है, इत्यादि। मतलब यह कि वे सभी बातों में झूठ ही बोला करते
हैं)। जैसे मोर (बहुत मीठा बोलता है, परंतु उस) का हृदय ऐसा कठोर होता है कि वह महान विषैले
साँपों को भी खा जाता है। वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं (परंतु हृदय के
बड़े ही निर्दयी होते हैं)।
दो० - पर
द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर
पापमय देह धरें मनुजाद॥ 39॥
वे दूसरों से
द्रोह करते हैं और पराई स्त्री, पराए धन तथा पराई निंदा में आसक्त रहते हैं। वे पामर और
पापमय मनुष्य नर-शरीर धारण किए हुए राक्षस ही हैं॥ 39॥
लोभइ ओढ़न
लोभइ डासन। सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न॥
काहू की जौं
सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई॥
लोभ ही उनका
ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात लोभ ही से वे सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे
पशुओं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते हैं, उन्हें यमपुर का भय नहीं लगता। यदि किसी की बड़ाई सुन पाते
हैं,
तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते हैं मानों उन्हें जूड़ी आ गई
हो।
जब काहू कै
देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती॥
स्वारथ रत
परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी॥
और जब किसी की
विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगतभर के राजा हो गए हों। वे
स्वार्थपरायण, परिवारवालों के विरोधी, काम और लोभ के कारण लंपट और अत्यंत क्रोधी होते हैं।
मातु पिता गुर
बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं॥
करहिं मोह बस
द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा॥
वे माता,
पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी को नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही
रहते हैं,
(साथ ही अपने संग से)
दूसरों को भी नष्ट करते हैं। मोहवश दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें न संतों का
संग अच्छा लगता है, न भगवान की कथा ही सुहाती है।
अवगुन सिंधु
मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी॥
बिप्र द्रोह
पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा॥
वे अवगुणों के
समुद्र,
मंद बुद्धि, कामी (रागयुक्त), वेदों के निंदक और जबर्दस्ती पराए धन के स्वामी (लूटनेवाले)
होते हैं। वे दूसरों से द्रोह तो करते ही हैं; परंतु ब्राह्मण से विशेष रूप से करते हैं। उनके हृदय में
दंभ और कपट भरा रहता है, परंतु वे ऊपर से सुंदर वेष धारण किए रहते हैं।
दो० - ऐसे अधम
मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं।
द्वापर कछुक बृंद
बहु होइहहिं कलिजुग माहिं॥ 40॥
ऐसे नीच और
दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते। द्वापर में थोड़े से होंगे और
कलियुग में तो इनके झुंड-के-झुंड होंगे॥ 40॥
पर हित सरिस
धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल
पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥
हे भाई!
दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई
नीचता (पाप) नहीं है। हे तात! समस्त पुराणों और वेदों का यह निर्णय (निश्चित
सिद्धांत) मैंने तुमसे कहा है, इस बात को पंडित लोग जानते हैं।
नर सरीर धरि
जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा॥
लकरहिं मोह बस
नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना॥
मनुष्य का
शरीर धारण करके जो लोग दूसरों को दुःख पहुँचाते हैं, उनको जन्म-मृत्यु के महान संकट सहने पड़ते हैं। मनुष्य
मोहवश स्वार्थपरायण होकर अनेकों पाप करते हैं, इसी से उनका परलोक नष्ट हुआ रहता है।
कालरूप तिन्ह
कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फलदाता॥
अस बिचारि जे
परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने॥
हे भाई! मैं
उनके लिए कालरूप (भयंकर) हूँ और उनके अच्छे और बुरे कर्मों का (यथायोग्य) फल
देनेवाला हूँ! ऐसा विचार कर जो लोग परम चतुर हैं वे संसार (के प्रवाह) को दुःख रूप
जानकर मुझे ही भजते हैं।
त्यागहिं कर्म
सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
संत असंतन्ह
के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे॥
इसी से वे शुभ
और अशुभ फल देनेवाले कर्मों को त्यागकर देवता, मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं। (इस प्रकार)
मैंने संतों और असंतों के गुण कहे। जिन लोगों ने इन गुणों को समझ रखा है,
वे जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते।
दो० - सुनहु
तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न
देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥ 41॥
हे तात! सुनो,
माया से रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई
वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ,
इन्हें देखना ही अविवेक है॥ 41॥
श्रीमुख बचन
सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई॥
करहिं बिनय
अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा॥
भगवान के
श्रीमुख से ये वचन सुनकर सब भाई हर्षित हो गए। प्रेम उनके हृदयों में समाता नहीं।
वे बार-बार बड़ी विनती करते हैं। विशेषकर हनुमान के हृदय में अपार हर्ष है।
पुनि रघुपति
निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए॥
बार बार नारद
मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं॥
तदनंतर राम अपने
महल को गए। इस प्रकार वे नित्य नई लीला करते हैं। नारद मुनि अयोध्या में बार-बार
आते हैं और आकर राम के पवित्र चरित्र गाते हैं।
नित नव चरित
देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं॥
सुनि बिरंचि
अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं॥
मुनि यहाँ से नित्य
नए-नए चरित्र देखकर जाते हैं और ब्रह्मलोक में जाकर सब कथा कहते हैं। ब्रह्मा
सुनकर अत्यंत सुख मानते हैं (और कहते हैं -) हे तात! बार-बार राम के गुणों का गान
करो।
सनकादिक
नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं॥
सुनि गुन गान
समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी॥
सनकादि मुनि
नारद की सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं,
परंतु राम का गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधि को भूल
जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे (रामकथा सुनने के) श्रेष्ठ अधिकारी हैं।
दो० -
जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।
जे हरि कथाँ न
करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान॥ 42॥
सनकादि मुनि
जैसे जीवन्मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान (ब्रह्म-समाधि) छोड़कर राम के
चरित्र सुनते हैं। यह जानकर भी जो हरि की कथा से प्रेम नहीं करते,
उनके हृदय (सचमुच ही) पत्थर (के समान) हैं॥ 42॥
एक बार रघुनाथ
बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए॥
बैठे गुर मुनि
अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भंजन॥
एक बार रघुनाथ
के बुलाए हुए गुरु वशिष्ठ, ब्राह्मण और अन्य सब नगरनिवासी सभा में आए। जब गुरु,
मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन यथायोग्य बैठ गए,
तब भक्तों के जन्म-मरण को मिटानेवाले राम वचन बोले -
सुनहु सकल
पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी॥
नहिं अनीति
नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई॥
हे समस्त
नगरनिवासियो! मेरी बात सुनिए। यह बात मैं हृदय में कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ। न
अनीति की बात कहता हूँ और न इसमें कुछ प्रभुता ही है। इसलिए (संकोच और भय छोड़कर,
ध्यान देकर) मेरी बातों को सुन लें और (फिर) यदि आप को
अच्छी लगे, तो उसके अनुसार करें!
सोइ सेवक
प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई॥
जौं अनीति कछु
भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥
वही मेरा सेवक
है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने। हे भाई! यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ
तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक देना।
बड़ें भाग
मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम
मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥
बड़े भाग्य से
यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी
दुर्लभ है (कठिनता से मिलता है)। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर
भी जिसने परलोक न बना लिया,
दो० - सो
परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहि कर्महि
ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥ 43॥
वह परलोक में
दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर,
कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥ 43॥
एहि तन कर फल
बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ
बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
हे भाई! इस
शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है। (इस जगत के भोगों की तो बात ही क्या)
स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुःख देनेवाला है। अतः जो लोग मनुष्य
शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं।
ताहि कबहुँ भल
कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ
चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥
जो पारसमणि को
खोकर बदले में घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान) नहीं कहता। यह अविनाशी जीव
(अंडज,
स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज) चार खानों और चौरासी लाख योनियों में
चक्कर लगाता रहता है।
फिरत सदा माया
कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि
करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
माया की
प्रेरणा से काल, कर्म,
स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वश में हुआ) यह सदा भटकता
रहता है। बिना ही कारण स्नेह करनेवाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्य का
शरीर देते हैं।
नर तनु भव
बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर
दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
यह मनुष्य का
शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है।
सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से
मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं,
दो० - जो न
तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक
मंदमति आत्माहन गति जाइ॥ 44॥
जो मनुष्य ऐसे
साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति
को प्राप्त होता है॥ 44॥
जौं परलोक
इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहू॥
सुलभ सुखद
मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥
यदि परलोक में
और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो। हे
भाई! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है।
ग्यान अगम
प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु
पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥
ज्ञान अगम
(दुर्गम) है, (और) उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मन के
लिए कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी लेता है,
तो वह भी भक्तिरहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता।
भक्ति सुतंत्र
सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज
बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥
भक्ति
स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है। परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी
इसे नहीं पा सकते। और पुण्यसमूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति
(जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है।
पुन्य एक जग
महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
सानुकूल तेहि
पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥
जगत में पुण्य
एक ही है,
(उसके समान) दूसरा नहीं। वह
है - मन,
कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणों की पूजा करना। जो कपट
का त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है, उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं।
दो० - औरउ एक
गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना
नर भगति न पावइ मोरि॥ 45॥
और भी एक
गुप्त मत है, मैं उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शंकर के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं
पाता॥ 45॥
कहहु भगति पथ
कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।
सरल सुभाव न
मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥
कहो तो,
भक्ति मार्ग में कौन-सा परिश्रम है?
इसमें न योग की आवश्यकता है, न यज्ञ, जप, तप और उपवास की! (यहाँ इतना ही आवश्यक है कि) सरल स्वभाव हो,
मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखे।
मोर दास कहाइ
नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा॥
बहुत कहउँ का
कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई॥
मेरा दास
कहलाकर यदि कोई मनुष्यों की आशा करता है, तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है? (अर्थात उसकी मुझ पर आस्था बहुत ही निर्बल है।) बहुत बात
बढ़ाकर क्या हूँ? हे भाइयो! मैं तो इसी आचरण के वश में हूँ।
बैर न बिग्रह
आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा॥
अनारंभ अनिकेत
अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी॥
न किसी से वैर
करे,
न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रखे, न भय ही करे। उसके लिए सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं। जो कोई
भी आरंभ (फल की इच्छा से कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घर में ममता नहीं है),
जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो (भक्ति करने में) निपुण और विज्ञानवान है।
प्रीति सदा
सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा॥
भगति पच्छ हठ
नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई॥
संतजनों के
संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मन में सब विषय यहाँ तक कि स्वर्ग और मुक्ति तक
(भक्ति के सामने) तृण के समान हैं, जो भक्ति के पक्ष में हठ करता है,
पर (दूसरे के मत का खंडन करने की) मूर्खता नहीं करता तथा
जिसने सब कुतर्कों को दूर बहा दिया है,
दो० - मम गुन
ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ
जानइ परानंद संदोह॥ 46॥
जो मेरे
गुणसमूहों के और मेरे नाम के परायण है, एवं ममता, मद और मोह से रहित है, उसका सुख वही जानता है, जो (परमात्मारूप) परमानंदराशि को प्राप्त है॥ 46॥
सुनत सुधा सम
बचन राम के । गहे सबनि पद कृपाधाम के॥
जननि जनक गुर
बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे॥
राम के अमृत
के समान वचन सुनकर सबने कृपाधाम के चरण पकड़ लिए (और कहा -) हे कृपानिधान! आप
हमारे माता, पिता,
गुरु, भाई सब कुछ हैं और प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं।
तनु धनु धाम
राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी॥
असि सिख तुम्ह
बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ॥
और हे शरणागत
के दुःख हरनेवाले राम! आप ही हमारे शरीर, धन, घर-द्वार और सभी प्रकार से हित करनेवाले हैं। ऐसी शिक्षा
आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता। माता-पिता (हितैषी हैं और शिक्षा भी देते हैं)
परंतु वे भी स्वार्थपरायण हैं (इसलिए ऐसी परम हितकारी शिक्षा नहीं देते)।
हेतु रहित जग
जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
स्वारथ मीत
सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
हे असुरों के
शत्रु! जगत में बिना हेतु के (निःस्वार्थ) उपकार करनेवाले तो दो ही हैं - एक आप,
दूसरे आपके सेवक। जगत में (शेष) सभी स्वार्थ के मित्र हैं।
हे प्रभो! उनमें स्वप्न में भी परमार्थ का भाव नहीं है।
सब के बचन
प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने॥
निज निज गृह
गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई॥
सबके प्रेम रस
में सने हुए वचन सुनकर रघुनाथ हृदय में हर्षित हुए। फिर आज्ञा पाकर सब प्रभु की
सुंदर बातचीत का वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गए।
दो० - उमा
अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्म
सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप॥ 47॥
(शिव कहते हैं -) हे उमा! अयोध्या में रहनेवाले पुरुष और स्त्री सभी कृतार्थस्वरूप
हैं;
जहाँ स्वयं सच्चिदानंदघन ब्रह्म रघुनाथ राजा हैं॥ 47॥
एक बार बसिष्ट
मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए॥
अति आदर
रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा॥
एक बार मुनि
वशिष्ठ वहाँ आए जहाँ सुंदर सुख के धाम राम थे। रघुनाथ ने उनका बहुत ही आदर-सत्कार
किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया।
राम सुनहु
मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥
देखि देखि
आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा॥
मुनि ने हाथ
जोड़कर कहा - हे कृपासागर राम! मेरी कुछ विनती सुनिए! आपके आचरणों (मनुष्योचित
चरित्रों) को देख-देखकर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) होता है।
महिमा अमिति
बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना॥
उपरोहित्य
कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा॥
हे भगवन! आपकी
महिमा की सीमा नहीं है, उसे वेद भी नहीं जानते। फिर मैं किस प्रकार कह सकता हूँ?
पुरोहिती का कर्म (पेशा) बहुत ही नीचा है। वेद,
पुराण और स्मृति सभी इसकी निंदा करते हैं।
जब न लेउँ मैं
तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही॥
परमातमा
ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा॥
जब मैं उसे
(सूर्यवंश की पुरोहिती का काम) नहीं लेता था, तब ब्रह्मा ने मुझे कहा था - हे पुत्र! इससे तुमको आगे चलकर
बहुत लाभ होगा। स्वयं ब्रह्म परमात्मा मनुष्य रूप धारण कर रघुकुल के भूषण राजा
होंगे।
दो० - तब मैं
हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।
जा कुहँ करिअ
सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन॥ 48॥
तब मैंने हृदय
में विचार किया कि जिसके लिए योग, यज्ञ, व्रत और दान किए जाते हैं उसे मैं इसी कर्म से पा जाऊँगा;
तब तो इसके समान दूसरा कोई धर्म ही नहीं है॥ 48॥
जप तप नियम
जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा॥
ग्यान दया दम
तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन॥
जप,
तप, नियम, योग, अपने-अपने (वर्णाश्रम के) धर्म,
श्रुतियों से उत्पन्न (वेदविहित) बहुत-से शुभ कर्म,
ज्ञान, दया, दम (इंद्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जहाँ तक वेद और संतजनों ने धर्म कहे हैं
(उनके करने का) -
आगम निगम
पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका॥
तव पद पंकज
प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर॥
(तथा) हे प्रभो! अनेक तंत्र, वेद और पुराणों के पढ़ने और सुनने का सर्वोत्तम फल एक ही है
और सब साधनों का भी यही एक सुंदर फल है कि आपके चरणकमलों में सदा-सर्वदा प्रेम हो।
छूटइ मल कि
मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ॥
प्रेम भगति जल
बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई॥
मैल से धोने
से क्या मैल छूटता है? जल के मथने से क्या कोई घी पा सकता है?
(उसी प्रकार) हे रघुनाथ!
प्रेमभक्तिरूपी (निर्मल) जल के बिना अंतःकरण का मल कभी नहीं जाता।
सोइ सर्बग्य
तग्य सोइ पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित॥
दच्छ सकल
लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई॥
वही सर्वज्ञ
है,
वही तत्त्वज्ञ और पंडित है, वही गुणों का घर और अखंड विज्ञानवान है;
वही चतुर और सब सुलक्षणों से युक्त है,
जिसका आपके चरण कमलों में प्रेम है।
दो० - नाथ एक
बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म
प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥ 49॥
हे नाथ! हे राम!
मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिए। प्रभु (आप) के चरणकमलों में मेरा प्रेम
जन्म-जन्मांतर में भी कभी न घटे॥ 49॥
अस कहि मुनि
बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए॥
हनूमान
भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता॥
ऐसा कहकर मुनि
वशिष्ठ घर आए। वे कृपासागर राम के मन को बहुत ही अच्छे लगे। तदनंतर सेवकों को सुख
देनेवाले राम ने हनुमान तथा भरत आदि भाइयों को साथ लिया,
पुनि कृपाल
पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए॥
देखि कृपा करि
सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे॥
और फिर कृपालु
राम नगर के बाहर गए और वहाँ उन्होंने हाथी, रथ और घोड़े मँगवाए। उन्हें देखकर कृपा करके प्रभु ने सबकी
सराहना की और उनको जिस-जिसने चाहा, उस-उसको उचित जानकर दिया।
हरन सकल श्रम
प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई॥
भरत दीन्ह निज
बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥
संसार के सभी
श्रमों को हरनेवाले प्रभु ने (हाथी, घोड़े आदि बाँटने में) श्रम का अनुभव किया और (श्रम मिटाने
को) वहाँ गए जहाँ शीतल अमराई (आमों का बगीचा) थी। वहाँ भरत ने अपना वस्त्र बिछा
दिया। प्रभु उस पर बैठ गए और सब भाई उनकी सेवा करने लगे।
मारुतसुत तब
मारुत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई॥
हनूमान सम
नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥
गिरिजा जासु
प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई॥
उस समय
पवनपुत्र हनुमान पवन (पंखा) करने लगे। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में
(प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। (शिव कहने लगे -) हे गिरिजे! हनुमान के समान न तो
कोई बड़भागी है और न कोई राम के चरणों का प्रेमी ही है,
जिनके प्रेम और सेवा की (स्वयं) प्रभु ने अपनेमुख से
बार-बार बड़ाई की है।
दो० - तेहिं
अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।
गावन लगे राम
कल कीरति सदा नबीन॥ 50॥
उसी अवसर पर
नारदमुनि हाथ में वीणा लिए हुए आए। वे राम की सुंदर और नित्य नवीन रहनेवाली कीर्ति
गाने लगे॥ 50॥
मामवलोकय पंकज
लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन॥
नील तामरस
स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि॥
कृपापूर्वक
देख लेने मात्र से शोक के छुड़ानेवाले हे कमलनयन! मेरी ओर देखिए (मुझ पर भी
कृपादृष्टि कीजिए) हे हरि! आप नीलकमल के समान श्यामवर्ण और कामदेव के शत्रु महादेव
के हृदय कमल के मकरंद (प्रेम रस) के पान करनेवाले भ्रमर हैं।
जातुधान बरूथ
बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन॥
भूसुर ससि नव
बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक॥
आप राक्षसों
की सेना के बल को तोड़नेवाले हैं। मुनियों और संतजनों को आनंद देनेवाले और पापों
का नाश करनेवाले हैं। ब्राह्मणरूपी खेती के लिए आप नए मेघसमूह हैं और शरणहीनों को
शरण देनेवाले तथा दीन जनों को अपने आश्रय में ग्रहण करनेवाले हैं।
भुज बल बिपुल
भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित॥
रावनारि सुखरूप
भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर॥
अपने बाहुबल
से पृथ्वी के बड़े भारी बोझ को नष्ट करनेवाले, खर-दूषण और विराध के वध करने में कुशल,
रावण के शत्रु, आनंदस्वरूप, राजाओं में श्रेष्ठ और दशरथ के कुलरूपी कुमुदिनी के चंद्रमा
राम! आपकी जय हो।
सुजस पुरान
बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम॥
कारुनीक
ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन॥
आपका सुंदर यश
पुराणों,
वेदों में और तंत्रादि शास्त्रों में प्रकट है। देवता,
मुनि और संतों के समुदाय उसे गाते हैं। आप करुणा करनेवाले
और झूठे मद का नाश करनेवाले, सब प्रकार से कुशल (निपुण) अयोध्या के भूषण ही हैं।
कलि मल मथन
नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन॥
आपका नाम
कलियुग के पापों को मथ डालनेवाला और ममता को मारनेवाला है। हे तुलसीदास के प्रभु!
शरणागत की रक्षा कीजिए।
दो० - प्रेम
सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम।
सोभासिंधु हृदयँ
धरि गए जहाँ बिधि धाम॥ 51॥
राम के
गुणसमूहों का प्रेमपूवक वर्णन करके मुनि नारद शोभा के समुद्र प्रभु को हृदय में
धरकर जहाँ ब्रह्मलोक है वहाँ चले गए॥ 51॥
गिरिजा सुनहु
बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा॥
राम चरित सत
कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा॥
(शिव कहते हैं -) हे गिरिजे! सुनो, मैंने यह उज्ज्वल कथा, जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह डाली। राम के चरित्र सौ करोड़ (अथवा) अपार
हैं। श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते।
राम अनंत अनंत
गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी॥
जल सीकर महि
रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं॥
भगवान राम
अनंत हैं;
उनके गुण अनंत हैं; जन्म, कर्म और नाम भी अनंत हैं। जल की बूँदें और पृथ्वी के रजकण
चाहे गिने जा सकते हों, पर रघुनाथ के चरित्र वर्णन करने से नहीं चूकते।
बिमल कथा हरि
पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी॥
उमा कहिउँ सब
कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई॥
यह पवित्र कथा
भगवान के परम पद को देनेवाली है। इसके सुनने से अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे
उमा! मैंने वह सब सुंदर कथा कही जो काकभुशुंडि ने गरुड़ को सुनाई थी।
कछुक राम गुन
कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी॥
सुनि सुभ कथा
उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी॥
मैंने राम के
कुछ थोड़े-से गुण बखान कर कहे हैं। हे भवानी! सो कहो,
अब और क्या कहूँ? राम की मंगलमयी कथा सुनकर पार्वती हर्षित हुईं और अत्यंत
विनम्र तथा कोमल वाणी बोलीं -
धन्य धन्य मैं
धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी॥
हे
त्रिपुरारि। मैं धन्य हूँ, धन्य-धन्य हूँ जो मैंने जन्म-मृत्यु के भय को हरण करनेवाले
राम के गुण (चरित्र) सुने।
दो० - तुम्हरी
कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।
जानेउँ राम
प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह॥ 52(क)॥
हे कृपाधाम!
अब आपकी कृपा से मैं कृतकृत्य हो गई। अब मुझे मोह नहीं रह गया। हे प्रभु! मैं
सच्चिदानंदघन प्रभु राम के प्रताप को जान गई॥ 52(क)॥
नाथ तवानन ससि
स्रवत कथा सुधा रघुबीर।
श्रवन पुटन्हि
मन पान करि नहिं अघात मतिधीर॥ 52(ख)॥
हे नाथ! आपका
मुखरूपी चंद्रमा रघुवीर की कथारूपी अमृत बरसाता है। हे मतिधीर! मेरा मन कर्णपुटों
से उसे पीकर तृप्त नहीं होता॥ 52(ख)॥
राम चरित जे
सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं॥
जीवनमुक्त
महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ॥
राम के चरित्र
सुनते-सुनते जो तृप्त हो जाते हैं (बस कर देते हैं), उन्होंने तो उसका विशेष रस जाना ही नहीं। जो जीवन्मुक्त
महामुनि हैं, वे भी भगवान के गुण निरंतर सुनते रहते हैं।
भव सागर चह
पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा॥
बिषइन्ह कहँ
पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा॥
जो संसाररूपी
सागर का पार पाना चाहता है, उसके लिए तो राम की कथा दृढ़ नौका के समान है। हरि के
गुणसमूह तो विषयी लोगों के लिए भी कानों को सुख देनेवाले और मन को आनंद देनेवाले
हैं।
श्रवनवंत अस
को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं॥
ते जड़ जीव
निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती॥
जगत में
कानवाला ऐसा कौन है जिसे रघुनाथ के चरित्र न सुहाते हों। जिन्हें रघुनाथ की कथा
नहीं सुहाती, वे मूर्ख जीव तो अपनी आत्मा की हत्या करनेवाले हैं।
हरिचरित्र
मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा॥
तुम्ह जो कही
यह कथा सुहाई। कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई॥
हे नाथ! आपने
रामचरित्र मानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पाया। आपने जो यह कहा कि यह सुंदर
कथा काकभुशुंडि ने गरुड़ से कही थी -
दो० - बिरति
ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।
बायस तन
रघुपति भगति मोहि परम संदेह॥ 53॥
सो कौए का
शरीर पाकर भी काकभुशुंडि वैराग्य, ज्ञान और विज्ञान में दृढ़ हैं,
उनका राम के चरणों में अत्यंत प्रेम है और उन्हें रघुनाथ की
भक्ति भी प्राप्त है, इस बात का मुझे परम संदेह हो रहा है॥ 53॥
नर सहस्र महँ
सुनहु पुरारी। कोउ एक होई धर्म ब्रतधारी॥
धर्मसील कोटिक
महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई॥
हे
त्रिपुरारि! सुनिए, हजारों मनुष्यों में कोई एक धर्म के व्रत का धारण करनेवाला
होता है और करोड़ों धर्मात्माओं में कोई एक विषय से विमुख (विषयों का त्यागी) और
वैराग्य परायण होता है।
कोटि बिरक्त
मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई॥
ग्यानवंत
कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ॥
श्रुति कहती
है कि करोड़ों विरक्तों में कोई एक ही सम्यक (यथार्थ) ज्ञान को प्राप्त करता है।
और करोड़ों ज्ञानियों में कोई एक ही जीवन मुक्त होता है। जगत में कोई विरला ही ऐसा
(जीवन मुक्त) होगा।
तिन्ह सहस्र
महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्म लीन बिग्यानी॥
धर्मसील
बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी॥
हजारों
जीवनमुक्तों में भी सब सुखों की खान, ब्रह्म में लीन विज्ञानवान पुरुष और भी दुर्लभ है।
धर्मात्मा, वैराग्यवान, ज्ञानी, जीवन मुक्त और ब्रह्मलीन -
सत ते सो
दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया॥
सो हरिभगति
काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई॥
इन सबमें भी
हे देवाधिदेव महादेव! वह प्राणी अत्यंत दुर्लभ है जो मद और माया से रहित होकर राम
की भक्ति के परायण हो। हे विश्वनाथ! ऐसी दुर्लभ हरि भक्ति को कौआ कैसे पा गया,
मुझे समझाकर कहिए।
दो० - राम
परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।
नाथ कहहु केहि
कारन पायउ काक सरीर॥ 54॥
हे नाथ! कहिए,
(ऐसे) रामपरायण,
ज्ञाननिरत, गुणधाम और धीरबुद्धि भुशुंडि ने कौए का शरीर किस कारण पाया?॥ 54॥
यह प्रभु चरित
पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा॥
तुम्ह केहि
भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी॥
हे कृपालु!
बताइए,
उस कौए ने प्रभु का यह पवित्र और सुंदर चरित्र कहाँ पाया?
और हे कामदेव के शत्रु! यह भी बताइए,
आपने इसे किस प्रकार सुना? मुझे बड़ा भारी कौतूहल हो रहा है।
गरुड़
महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।
तेहिं केहि
हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई॥
गरुड़ तो महान
ज्ञानी,
सद्गुणों की राशि, हरि के सेवक और उनके अत्यंत निकट रहनेवाले (उनके वाहन ही)
हैं। उन्होंने मुनियों के समूह को छोड़कर, कौए से जाकर हरिकथा किस कारण सुनी?
कहहु कवन बिधि
भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा॥
गौरि गिरा
सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई॥
कहिए,
काकभुशुंडि और गरुड़ इन दोनों हरिभक्तों की बातचीत किस
प्रकार हुई? पार्वती की सरल, सुंदर वाणी सुनकर शिव सुख पाकर आदर के साथ बोले -
धन्य सती पावन
मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी॥
सुनहु परम
पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा॥
हे सती! तुम
धन्य हो;
तुम्हारी बुद्धि अत्यंत पवित्र है। रघुनाथ के चरणों में
तुम्हारा कम प्रेम नहीं है (अत्यधिक प्रेम है)। अब वह परम पवित्र इतिहास सुनो,
जिसे सुनने से सारे लोक के भ्रम का नाश हो जाता है।
उपजइ राम चरन
बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा॥
तथा राम के
चरणों में विश्वास उत्पन्न होता है और मनुष्य बिना ही परिश्रम संसाररूपी समुद्र से
तर जाता है।
दो० - ऐसिअ
प्रस्न बिहंगपति कीन्हि काग सन जाइ।
सो सब सादर
कहिहउँ सुनहु उमा मन लाई॥ 55॥
पक्षीराज
गरुड़ ने भी जाकर काकभुशुंडि से प्रायः ऐसे ही प्रश्न किए थे। हे उमा! मैं वह सब
आदरसहित कहूँगा, तुम मन लगाकर सुनो॥ 55॥
मैं जिमि कथा
सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि॥
प्रथम दच्छ
गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा॥
मैंने जिस
प्रकार वह भव (जन्म-मृत्यु) से छुड़ानेवाली कथा सुनी,
हे सुमुखी! हे सुलोचनी! वह प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा
अवतार दक्ष के घर हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती था।
दच्छ जग्य तव
भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना॥
मम अनुचरन्ह
कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा॥
दक्ष के यज्ञ
में तुम्हारा अपमान हुआ। तब तुमने अत्यंत क्रोध करके प्राण त्याग दिए थे;
और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ विध्वंस कर दिया था। वह सारा
प्रसंग तुम जानती ही हो।
तब अति सोच
भयउ मन मोरें। दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें॥
सुंदर बन गिरि
सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउँ बेरागा॥
तब मेरे मन
में बड़ा सोच हुआ और हे प्रिये! मैं तुम्हारे वियोग से दुःखी हो गया। मैं विरक्त
भाव से सुंदर वन, पर्वत, नदी और तालाबों का कौतुक (दृश्य) देखता फिरता था।
गिरि सुमेर
उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुंदर भूरी॥
तासु कनकमय
सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए॥
सुमेरु पर्वत
की उत्तर दिशा में, और भी दूर, एक बहुत ही सुंदर नील पर्वत है। उसके सुंदर स्वर्णमय शिखर
हैं,
(उनमें से) चार सुंदर शिखर
मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे।
तिन्ह पर एक
एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला॥
सैलोपरि सर
सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा॥
उन शिखरों में
एक-एक पर बरगद, पीपल,
पाकर और आम का एक-एक विशाल वृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुंदर
तालाब शोभित है; जिसकी मणियों की सीढ़ियाँ देखकर मन मोहित हो जाता है।
दो० - सीतल
अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग।
कूजत कल रव
हंस गन गुंजत मंजुल भृंग॥ 56॥
उसका जल शीतल,
निर्मल और मीठा है; उसमें रंग-बिरंगे बहुत-से कमल खिले हुए हैं,
हंसगण मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुंदर गुंजार कर
रहे हैं॥ 56॥
तेहिं गिरि
रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई॥
माया कृत गुन
दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका॥
उस सुंदर
पर्वत पर वही पक्षी (काकभुशुंडि) बसता है। उसका नाश कल्प के अंत में भी नहीं होता।
मायारचित अनेकों गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक,
रहे ब्यापि
समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं॥
तहँ बसि हरिहि
भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा॥
जो सारे जगत
में छा रहे हैं, उस पर्वत के पास भी कभी नहीं फटकते। वहाँ बसकर जिस प्रकार वह काग हरि को भजता
है,
हे उमा! उसे प्रेम सहित सुनो।
पीपर तरु तर
ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई॥
आँब छाँह कर
मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा॥
वह पीपल के
वृक्ष के नीछे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जपयज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक
पूजा करता है। हरि के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है।
बर तर कह हरि
कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा॥
राम चरित
बिचित्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना॥
बरगद के नीचे
वह हरि की कथाओं के प्रसंग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वह
विचित्र रामचरित्र को अनेकों प्रकार से प्रेम सहित आदरपूर्वक गान करता है।
सुनहिं सकल
मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला॥
जब मैं जाइ सो
कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा॥
सब निर्मल
बुद्धिवाले हंस, जो सदा उस तालाब पर बसते हैं, उसे सुनते हैं। जब मैंने वहाँ जाकर यह कौतुक (दृश्य) देखा,
तब मेरे हृदय में विशेष आनंद उत्पन्न हुआ।
दो० - तब कछु
काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि
रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास॥ 57॥
तब मैंने हंस
का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ निवास किया और रघुनाथ के गुणों को आदर सहित सुनकर
फिर कैलास को लौट आया॥ 57॥
गिरिजा कहेउँ
सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा॥
अब सो कथा
सुनहु जेहि हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू॥
हे गिरिजे!
मैंने वह सब इतिहास कहा कि जिस समय मैं काकभुशुंडि के पास गया था। अब वह कथा सुनो
जिस कारण से पक्षीे कुल की ध्वजा गरुड़ उस काग के पास गए थे।
जब रघुनाथ
कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा॥
इंद्रजीत कर
आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो॥
जब रघुनाथ ने
ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करने से मुझे लज्जा होती है - मेघनाद के हाथों
अपने को बँधा लिया - तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा।
बंधन काटि गयो
उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा॥
प्रभु बंधन
समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती॥
सर्पों के
भक्षक गरुड़ बंधन काटकर गए, तब उनके हृदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के
बंधन को स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुड़ बहुत प्रकार से विचार करने लगे -
ब्यापक ब्रह्म
बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा॥
सो अवतार
सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं॥
जो व्यापक,
विकाररहित, वाणी के पति और माया-मोह से परे ब्रह्म परमेश्वर हैं,
मैंने सुना था कि जगत में उन्हीं का अवतार है। पर मैंने उस
(अवतार) का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा।
दो० - भव बंधन
ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्ब निसाचर
बाँधेउ नागपास सोइ राम॥ 58॥
जिनका नाम
जपकर मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाते हैं, उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बाँध लिया॥ 58॥
नाना भाँति
मनहिं समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा॥
खेद खिन्न मन
तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई॥
गरुड़ ने
अनेकों प्रकार से अपने मन को समझाया। पर उन्हें ज्ञान नहीं हुआ,
हृदय में भ्रम और भी अधिक छा गया। (संदेहजनित) दुःख से
दुःखी होकर, मन में कुतर्क बढ़ाकर वे तुम्हारी ही भाँति मोहवश हो गए।
ब्याकुल गयउ
देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं॥
सुनि नारदहि
लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया॥
व्याकुल होकर
वे देवर्षि नारद के पास गए और मन में जो संदेह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर नारद को अत्यंत दया आई। (उन्होंने
कहा -) हे गरुड़! सुनिए! राम की माया बड़ी ही बलवती है।
जो ग्यानिन्ह
कर चित अपहरई। बरिआईं बिमोह मन करई॥
जेहिं बहु बार
नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही॥
जो ज्ञानियों
के चित्त को भी भली-भाँति हरण कर लेती है और उनके मन में जबर्दस्ती बड़ा भारी मोह
उत्पन्न कर देती है, तथा जिसने मुझको भी बहुत बार नचाया है,
हे पक्षीराज! वही माया आपको भी व्याप गई है।
महामोह उपजा
उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥
चतुरानन पहिं
जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होई निदेसा॥
हे गरुड़!
आपके हृदय में बड़ा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। यह मेरे समझाने से तुरंत नहीं
मिटेगा। अतः हे पक्षीराज! आप ब्रह्मा के पास जाइए और वहाँ जिस काम के लिए आदेश
मिले,
वही कीजिएगा।
दो० - अस कहि
चले देवरिषि करत राम गुन गान।
हरि माया बल
बरनत पुनि पुनि परम सुजान॥ 59॥
ऐसा कहकर परम
सुजान देवर्षि नारद राम का गुणगान करते हुए और बारंबार हरि की माया का बल वर्णन
करते हुए चले॥ 59॥
तब खगपति
बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ॥
सुनि बिरंचि
रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा॥
तब पक्षीराज
गरुड़ ब्रह्मा के पास गए और अपना संदेह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्मा ने
राम को सिर नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके मन में अत्यंत प्रेम छा गया।
मन महूँ करइ
बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता॥
हरि माया कर
अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा॥
ब्रह्मा मन
में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी माया के वश हैं। भगवान की माया का
प्रभाव असीम है, जिसने मुझ तक को अनेकों बार नचाया है।
अग जगमय जग मम
उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा॥
तब बोले बिधि
गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई॥
यह सारा चराचर
जगत तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ,
तब गरुड़ को मोह होना कोई आश्चर्य (की बात) नहीं है। तदनंतर
ब्रह्मा सुंदर वाणी बोले - राम की महिमा को महादेव जानते हैं।
बैनतेय संकर
पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू॥
तहँ होइहि तव
संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी॥
हे गरुड़! तुम
शंकर के पास जाओ। हे तात! और कहीं किसी से न पूछना। तुम्हारे संदेह का नाश वहीं
होगा। ब्रह्मा का वचन सुनते ही गरुड़ चल दिए।
दो० - परमातुर
बिहंगपति आयउ तब मो पास।
जात रहेउँ
कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास॥ 60॥
तब बड़ी
आतुरता (उतावली) से पक्षीराज गरुड़ मेरे पास आए। हे उमा! उस समय मैं कुबेर के घर
जा रहा था और तुम कैलास पर थीं॥ 60॥
तेहिं मम पद
सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा॥
सुनि ता करि
बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥
गरुड़ ने
आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना संदेह सुनाया। हे भवानी!
उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा -
मिलेहु गरुड़
मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥
तबहिं होइ सब
संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा॥
हे गरुड़! तुम
मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँ?
सब संदेहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्संग किया
जाए।
सुनिअ तहाँ
हरिकथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई॥
जेहि महुँ आदि
मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना॥
और वहाँ
(सत्संग में) सुंदर हरिकथा सुनी जाए जिसे मुनियों ने अनेकों प्रकार से गाया है और
जिसके आदि, मध्य और अंत में भगवान राम ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं।
नित हरि कथा
होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई॥
जाइहि सुनत
सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा॥
हे भाई! जहाँ
प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब संदेह दूर हो
जाएगा और तुम्हें राम के चरणों में अत्यंत प्रेम होगा।
दो० - बिनु
सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु
राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥ 61॥
सत्संग के
बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना राम के चरणों
में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता॥ 61॥
मिलहिं न
रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥
उत्तर दिसि
सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला॥
बिना प्रेम के
केवल योग,
तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से रघुनाथ नहीं मिलते। (अतएव
तुम सत्संग के लिए वहाँ जाओ जहाँ) उत्तर दिशा में एक सुंदर नील पर्वत है। वहाँ परम
सुशील काकभुशुंडि रहते हैं।
राम भगति पथ
परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥
राम कथा सो
कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर॥
वे रामभक्ति
के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं और बहुत काल के हैं। वे निरंतर राम की कथा
कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदर सहित सुनते हैं।
जाइ सुनहु तहँ
हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी॥
मैं जब तेहि
सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई॥
वहाँ जाकर हरि
के गुणसमूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा।
मैंने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया।
ताते उमा न
मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा॥
होइहि कीन्ह
कबहुँ अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना॥
हे उमा! मैंने
उसको इसीलिए नहीं समझाया कि मैं रघुनाथ की कृपा से उसका मर्म (भेद) पा गया था।
उसने कभी अभिमान किया होगा, जिसको कृपानिधान राम नष्ट करना चाहते हैं।
कछु तेहि ते
पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥
प्रभु माया
बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥
फिर कुछ इस
कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रखा कि पक्षी पक्षी की ही बोली समझते हैं। हे
भवानी! प्रभु की माया (बड़ी ही) बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले?
दो० - ग्यानी
भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
ताहि मोह माया
नर पावँर करहिं गुमान॥ 62(क)॥
जो ज्ञानियों
में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान के वाहन हैं,
उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य
मूर्खतावश घमंड किया करते हैं॥ 62(क)॥
श्री राम चरित
मानस- उत्तरकांड, मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम समाप्त॥
शेष जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- उत्तरकांड मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस लंकाकांड, मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम
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