श्रीरामचरित मानस- उत्तरकांड मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम
श्रीरामचरित
मानस- उत्तरकांड मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम
श्रीरामचरित मानस- उत्तरकांड मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम
श्री
रामचरित मानस
सप्तम सोपान
(उत्तरकांड)
सिव बिरंचि
कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।
अस जियँ जानि
भजहिं मुनि माया पति भगवान॥ 62(ख)॥
यह माया जब
शिव और ब्रह्मा को भी मोह लेती है, तब दूसरा बेचारा क्या चीज है? जी में ऐसा जानकर ही मुनि लोग उस माया के स्वामी भगवान का
भजन करते हैं॥ 62(ख)॥
गयउ गरुड़ जहँ
बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा॥
देखि सैल
प्रसन्न मन भयउ। माया मोह सोच सब गयऊ॥
गरुड़ वहाँ गए
जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्तिवाले काकभुशुंडि बसते थे। उस पर्वत को देखकर
उनका मन प्रसन्न हो गया और (उसके दर्शन से ही) सब माया,
मोह तथा सोच जाता रहा।
करि तड़ाग
मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना॥
बृद्ध बृद्ध
बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए॥
तालाब में
स्नान और जलपान करके वे प्रसन्नचित्त से वटवृक्ष के नीचे गए। वहाँ राम के सुंदर
चरित्र सुनने के लिए बूढ़े-बूढ़े पक्षी आए हुए थे।
कथा अरंभ करै
सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा॥
आवत देखि सकल
खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा॥
भुशुंडि कथा
आरंभ करना ही चाहते थे कि उसी समय पक्षीराज गरुड़ वहाँ जा पहुँचे। पक्षियों के
राजा गरुड़ को आते देखकर काकभुशुंडि सहित सारा पक्षी समाज हर्षित हुआ।
अति आदर खगपति
कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा॥
करि पूजा समेत
अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा॥
उन्होंने
पक्षीराज गरुड़ का बहुत ही आदर-सत्कार किया और स्वागत (कुशल) पूछकर बैठने के लिए
सुंदर आसन दिया। फिर प्रेम सहित पूजा कर के कागभुशुंडि मधुर वचन बोले -
दो० - नाथ
कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।
आयसु देहु सो
करौं अब प्रभु आयहु केहि काज॥ 63(क)॥
हे नाथ ! हे
पक्षीराज ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आप जो आज्ञा दें मैं अब वही करूँ।
हे प्रभो ! आप किस कार्य के लिए आए हैं?॥ 63(क)॥
सदा कृतारथ
रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।
जेहि कै
अस्तुति सादर निज मुख कीन्ह महेस॥ 63(ख)॥
पक्षीराज
गरुड़ ने कोमल वचन कहे - आप तो सदा ही कृतार्थरूप हैं,
जिनकी बड़ाई स्वयं महादेव ने आदरपूर्वक अपने मुख से की है॥ 63(ख)॥
सुनहु तात
जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥
देखि परम पावन
तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम॥
हे तात! सुनिए,
मैं जिस कारण से आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी
प्राप्त हो गए। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह संदेह और अनेक प्रकार के
भ्रम सब जाते रहे।
अब श्रीराम
कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि॥
सादर तात
सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही॥
अब हे तात! आप
मुझे श्री राम की अत्यंत पवित्र करनेवाली, सदा सुख देनेवाली और दुःखसमूह का नाश करनेवाली कथा सादरसहित
सुनाइए। हे प्रभो! मैं बार-बार आप से यही विनती करता हूँ।
सुनत गरुड़ कै
गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता॥
भयउ तास मन
परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा॥
गरुड़ की
विनम्र,
सरल, सुंदर प्रेमयुक्त, सुप्रद और अत्यंत पवित्र वाणी सुनते ही भुशुंडि के मन में
परम उत्साह हुआ और वे रघुनाथ के गुणों की कथा कहने लगे।
प्रथमहिं अति
अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी॥
पुनि नारद कर
मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा॥
हे भवानी!
पहले तो उन्होंने बड़े ही प्रेम से रामचरित मानस सरोवर का रूपक समझाकर कहा। फिर
नारद का अपार मोह और फिर रावण का अवतार कहा।
प्रभु अवतार
कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई॥
फिर प्रभु के
अवतार की कथा वर्णन की। तदनंतर मन लगाकर राम की बाल लीलाएँ कहीं।
दो० - बालचरित
कहि बिबिधि बिधि मन महँ परम उछाह।
रिषि आगवन
कहेसि पुनि श्रीरघुबीर बिबाह॥ 64॥
मन में परम
उत्साह भरकर अनेकों प्रकार की बाल लीलाएँ कहकर, फिर ऋषि विश्वामित्र का अयोध्या आना और श्री रघुवीर का
विवाह वर्णन किया॥ 64॥
बहुरि राम
अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा॥
पुरबासिन्ह कर
बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा॥
फिर राम के
राज्याभिषेक का प्रसंग फिर राजा दशरथ के वचन से राजरस (राज्याभिषेक के आनंद) में
भंग पड़ना, फिर नगर निवासियों का विरह, विषाद और राम-लक्ष्मण का संवाद (बातचीत) कहा।
बिपिन गवन
केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥
बालमीक प्रभु
मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥
राम का वन गमन,
केवट का प्रेम, गंगा से पार उतरकर प्रयाग में निवास,
वाल्मीकि और प्रभु राम का मिलन और जैसे भगवान चित्रकूट में
बसे,
वह सब कहा।
सचिवागवन नगर
नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना॥
करि नृप
क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहाँ प्रभु सुख रासी॥
फिर मंत्री
सुमंत्र का नगर में लौटना, राजा दशरथ का मरण, भरत का (ननिहाल से) अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत
वर्णन किया। राजा की अंत्येष्टि क्रिया करके नगर निवासियों को साथ लेकर भरत वहाँ
गए जहाँ सुख की राशि प्रभु राम थे।
पुनि रघुपति
बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए॥
भरत रहनि
सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी॥
फिर रघुनाथ ने
उनको बहुत प्रकार से समझाया, जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आए,
यह सब कथा कही। भरत की नंदीग्राम में रहने की रीति,
इंद्रपुत्र जयंत की नीच करनी और फिर प्रभु राम और अत्रि का
मिलाप वर्णन किया।
दो० - कहि
बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग।
बरनि सुतीछन
प्रीति पुनि प्रभ अगस्ति सतसंग॥ 65॥
जिस प्रकार
विराध का वध हुआ और शरभंग ने शरीर त्याग किया, वह प्रसंग कहकर, फिर सुतीक्ष्ण का प्रेम वर्णन करके प्रभु और अगस्त्य का
सत्संग वृत्तांत कहा॥ 65॥
कहि दंडक बन
पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई॥
पुनि प्रभु
पंचबटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा॥
दंडक वन का
पवित्र करना कहकर फिर भुशुंडि ने गृध्रराज के साथ मित्रता का वर्णन किया। फिर जिस
प्रकार प्रभु ने पंचवटी में निवास किया और सब मुनियों के भय का नाश किया,
पुनि लछिमन
उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा॥
खर दूषन बध
बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना॥
और फिर जैसे
लक्ष्मण को अनुपम उपदेश दिया और शूर्पणखा को कुरूप किया,
वह सब वर्णन किया। फिर खर-दूषण वध और जिस प्रकार रावण ने सब
समाचार जाना, वह बखानकर कहा,
दसकंधर मारीच
बतकही। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही॥
पुनि माया
सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना॥
तथा जिस
प्रकार रावण और मारीच की बातचीत हुई, वह सब उन्होंने कही। फिर माया सीता का हरण और श्री रघुवीर
के विरह का कुछ वर्णन किया।
पुनि प्रभु
गीध क्रिया जिमि कीन्हीं। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही॥
बहुरि बिरह
बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा॥
फिर प्रभु ने
गिद्ध जटायु की जिस प्रकार क्रिया की, कबंध का वध करके शबरी को परमगति दी और फिर जिस प्रकार
विरह-वर्णन करते हुए रघुवीर पंपासर के तीर पर गए, वह सब कहा।
दो० - प्रभु
नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।
पुनि सुग्रीव
मिताई बालि प्रान कर भंग॥ 66(क)॥
प्रभु और नारद
का संवाद और मारुति के मिलने का प्रसंग कहकर फिर सुग्रीव से मित्रता और बालि के
प्राणनाश का वर्णन किया॥ 66(क)॥
कपिहि तिलक
करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।
बरनन बर्षा
सरद अरु राम रोष कपि त्रास॥ 66(ख)॥
सुग्रीव का
राजतिलक करके प्रभु ने प्रवर्षण पर्वत पर निवास किया,
वह तथा वर्षा और शरद का वर्णन,
राम का सुग्रीव पर रोष और सुग्रीव का भय आदि प्रसंग कहे॥ 66(ख)॥
जेहि बिधि
कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिदि धाए॥
बिबर प्रबेस
कीन्ह जेहि भाँति। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती॥
जिस प्रकार
वानरराज सुग्रीव ने वानरों को भेजा और वे सीता की खोज में जिस प्रकार सब दिशाओं
में गए,
जिस प्रकार उन्होंने बिल में प्रवेश किया और फिर जैसे
वानरों को संपाती मिला, वह कथा कही।
सुनि सब कथा
समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा॥
लंकाँ कपि
प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा॥
संपाती से सब
कथा सुनकर पवनपुत्र हनुमान जिस तरह अपार समुद्र को लाँघ गए,
फिर हनुमान ने जैसे लंका में प्रवेश किया और फिर जैसे सीता
को धीरज दिया, सो सब कहा।
बन उजारि
रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥
आए कपि सब जहँ
रघुराई। बैदेही की कुसल सुनाई॥
अशोक वन को
उजाड़कर,
रावण को समझाकर, लंकापुरी को जलाकर फिर जैसे उन्होंने समुद्र को लाँघा और
जिस प्रकार सब वानर वहाँ आए जहाँ रघुनाथ थे और आकर जानकी की कुशल सुनाई,
सेन समेति जथा
रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥
मिला बिभीषन
जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई॥
फिर जिस
प्रकार सेना सहित रघुवीर जाकर समुद्र के तट पर उतरे और जिस प्रकार विभीषण आकर उनसे
मिले,
वह सब और समुद्र के बाँधने की कथा उसने सुनाई।
दो० - सेतु
बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।
गयउ बसीठी
बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार॥ 67(क)॥
पुल बाँधकर
जिस प्रकार वानरों की सेना समुद्र के पार उतरी और जिस प्रकार वीर श्रेष्ठ
बालिपुत्र अंगद दूत बनकर गए वह सब कहा॥ 67(क)॥
निसिचर कीस
लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।
कुंभकरन घननाद
कर बल पौरुष संघार॥ 67(ख)॥
फिर राक्षसों
और वानरों के युद्ध का अनेकों प्रकार से वर्णन किया। फिर कुंभकर्ण और मेघनाद के बल,
पुरुषार्थ और संहार की कथा कही॥ 67(ख)॥
निसिचर निकर
मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना॥
रावन बध
मंदोदरि सोका। राज बिभीषन देव असोका॥
नाना प्रकार
के राक्षस समूहों के मरण तथा रघुनाथ और रावण के अनेक प्रकार के युद्ध का वर्णन
किया। रावण वध, मंदोदरी का शोक, विभीषण का राज्याभिषेक और देवताओं का शोकरहित होना कहकर,
सीता रघुपति
मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्हि अस्तुति कर जोरी॥
पुनि पुष्पक
चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता॥
फिर सीता और
रघुनाथ का मिलाप कहा। जिस प्रकार देवताओं ने हाथ जोड़कर स्तुति की और फिर जैसे
वानरों समेत पुष्पक विमान पर चढ़कर कृपाधाम प्रभु अवधपुरी को चले,
वह कहा।
जेहि बिधि राम
नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए॥
कहेसि बहोरि
राम अभिषेका। पुर बरनत नृपनीति अनेका॥
जिस प्रकार
राम अपने नगर (अयोध्या) में आए, वे सब उज्ज्वल चरित्र काकभुशुंडि ने विस्तारपूर्वक वर्णन
किए। फिर उन्होंने राम का राज्याभिषेक कहा। (शिव कहते हैं -) अयोध्यापुरी का और
अनेक प्रकार की राजनीति का वर्णन करते हुए -
कथा समस्त
भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी॥
सुनि सब राम
कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा॥
भुशुंडि ने वह
सब कथा कही जो हे भवानी! मैंने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर गरुड़ मन में बहुत
उत्साहित (आनंदित) होकर वचन कहने लगे -
दो० - गयउ मोर
संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।
भयउ राम पद
नेह तव प्रसाद बायस तिलक॥ 68(क)॥
रघुनाथ के सब
चरित्र मैंने सुने, जिससे मेरा संदेह जाता रहा। हे काकशिरोमणि! आपके अनुग्रह से
राम के चरणों में मेरा प्रेम हो गया॥ 68(क)॥
मोहि भयउ अति
मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।
चिदानंद संदोह
राम बिकल कारन कवन॥ 68(ख)॥
युद्ध में
प्रभु का नागपाश से बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हो गया था कि राम तो सच्चिदानंदघन
हैं,
वे किस कारण व्याकुल हैं॥ 68(ख)॥
देखि चरित अति
नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥
सोई भ्रम अब
हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥
बिलकुल ही
लौकिक मनुष्यों का-सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में भारी संदेह हो गया। मैं अब उस
भ्रम (संदेह) को अपने लिए हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझ पर यह बड़ा
अनुग्रह किया।
जो अति आतप
ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई॥
जौं नहिं होत
मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥
जो धूप से
अत्यंत व्याकुल होता है, वही वृक्ष की छाया का सुख जानता है। हे तात! यदि मुझे
अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता?
सुनतेउँ किमि
हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई॥
निगमागम पुरान
मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा॥
और कैसे
अत्यंत विचित्र यह सुंदर हरिकथा सुनता; जो आपने बहुत प्रकार से गाई है?
वेद, शास्त्र और पुराणों का यही मत है;
सिद्ध और मुनि भी यही कहते हैं,
इसमें संदेह नहीं कि -
संत बिसुद्ध
मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही॥
राम कृपाँ तव
दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ॥
शुद्ध (सच्चे)
संत उसी को मिलते हैं, जिसे राम कृपा करके देखते हैं। राम की कृपा से मुझे आपके
दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया।
दो० - सुनि
बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग।
पुलक गात लोचन
सजल मन हरषेउ अति काग॥ 69(क)॥
पक्षीराज
गरुड़ की विनय और प्रेमयुक्त वाणी सुनकर काकभुशुंडि का शरीर पुलकित हो गया,
उनके नेत्रों मंे जल भर आया और वे मन में अत्यंत हर्षित हुए॥
69(क)॥
श्रोता सुमति
सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति
गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास॥ 69(ख॥
हे उमा! सुंदर
बुद्धिवाले सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन
अत्यंत गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को भी प्रकट कर देते हैं॥ 69(ख)॥
बोलेउ
काकभुसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी॥
सब बिधि नाथ
पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे॥
काकभुशुंडि ने
फिर कहा - पक्षीराज पर उनका प्रेम कम न था (अर्थात बहुत था) - हे नाथ! आप सब
प्रकार से मेरे पूज्य हैं और रघुनाथ के कृपापात्र हैं।
तुम्हहि न
संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥
पठइ मोह मिस
खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥
आपको न संदेह
है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ! आपने तो मुझ पर दया की है। हे पक्षीराज! मोह
के बहाने रघुनाथ ने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है।
तुम्ह निज मोह
कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥
नारद भव
बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥
हे पक्षियों
के स्वामी! आपने अपना मोह कहा, सो हे गोसाईं! यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारद,
शिव, ब्रह्मा और सनकादि जो आत्मतत्त्व के मर्मज्ञ और उसका उपदेश
करनेवाले श्रेष्ठ मुनि हैं।
मोह न अंध
कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥
तृस्नाँ केहि
न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥
उनमें से भी
किस-किस को मोह ने अंधा (विवेकशून्य) नहीं किया? जगत में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया हो?
तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया?
क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया?
दो० - ग्यानी
तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ
बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥ 70(क)॥
इस संसार में
ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि,
विद्वान और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने विडंबना (मिट्टी पलीद) न की हो॥ 70(क)॥
श्री मद बक्र
न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के
नैन सर को अस लाग न जाहि॥ 70(ख)॥
लक्ष्मी के मद
ने किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया?
ऐसा कौन है जिसे मृगनयनी (युवती स्त्री) के नेत्र बाण न लगे
हों॥ 70(ख)॥
गुन कृत
सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥
जोबन ज्वर
केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा॥
(रज,
तम आदि) गुणों का किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआ?
ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोड़ा हो। यौवन के
ज्वर ने किसे आपे से बाहर नहीं किया? ममता ने किस के यश का नाश नहीं किया?
मच्छर काहि
कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा॥
चिंता साँपिनि
को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥
मत्सर (डाह)
ने किसको कलंक नहीं लगाया? शोकरूपी पवन ने किसे नहीं हिला दिया?
चिंतारूपी साँपिन ने किसे नहीं खा लिया?
जगत में ऐसा कौन है, जिसे माया न व्यापी हो?
कीट मनोरथ
दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा॥
सुत बित लोक
ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥
मनोरथ क्रीड़ा
है,
शरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान कौन है,
जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो?
पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की - इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी
बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)?
यह सब माया कर
परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा॥
सिव चतुरानन
जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं॥
यह सब माया का
बड़ा बलवान परिवार है। यह अपार है, इसका वर्णन कौन कर सकता है? शिव और ब्रह्मा भी जिससे डरते हैं,
तब दूसरे जीव तो किस गिनती में हैं?
दो० - ब्यापि
रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति
कामादि भट दंभ कपट पाषंड॥ 71(क)॥
माया की
प्रचंड सेना संसार भर में छाई हुई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं और दंभ,
कपट और पाखंड योद्धा हैं॥ 71(क)॥
सो दासी
रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।
छूट न राम
कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥ 71(ख)॥
वह माया
रघुवीर की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर वह मिथ्या ही है,
किंतु वह राम की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं
प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥ 71(ख)॥
जो माया सब
जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा॥
सोइ प्रभु
भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा॥
जो माया सारे
जगत को नचाती है और जिसका चरित्र (करनी) किसी ने नहीं लख पाया,
हे खगराज गरुड़! वही माया प्रभु राम की भृकुटी के इशारे पर
अपने समाज (परिवार) सहित नटी की तरह नाचती है।
सोइ
सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूप बल धामा॥
ब्यापक
ब्याप्य अखंड अनंता। अकिल अमोघसक्ति भगवंता॥
राम वही
सच्चिदानंदघन हैं जो अजन्मे, विज्ञानस्वरूप, रूप और बल के धाम, सर्वव्यापक एवं व्याप्य (सर्वरूप),
अखंड, अनंत, संपूर्ण, अमोघशक्ति (जिसकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती) और छह
ऐश्वर्यों से युक्त भगवान हैं।
अगुन अदभ्र
गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता॥
निर्मम
निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा॥
वे निर्गुण
(माया के गुणों से रहित), महान, वाणी और इंद्रियों से परे, सब कुछ देखनेवाले, निर्दोष, अजेय, ममतारहित, निराकार, मोहरहित, नित्य, मायारहित, सुख की राशि,
प्रकृति पार
प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी॥
इहाँ मोह कर
कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं॥
प्रकृति से
परे,
प्रभु (सर्वसमर्थ), सदा सबके हृदय में बसनेवाले, इच्छारहित विकाररहित, अविनाशी ब्रह्म हैं। यहाँ (राम में) मोह का कारण ही नहीं
है। क्या अंधकार का समूह कभी सूर्य के सामने जा सकता है?
दो० - भगत
हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन
परम प्राकृत नर अनुरूप॥ 72(क)॥
भगवान प्रभु
राम ने भक्तों के लिए राजा का शरीर धारण किया और साधारण मनुष्यों के-से अनेकों परम
पावन चरित्र किए॥ 72(क)॥
जथा अनेक बेष
धरि नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव
देखावइ आपुन होइ न सोइ॥ 72(ख)॥
जैसे कोई नट
(खेल करनेवाला) अनेक वेष धारण करके नृत्य करता है, और वही-वही (जैसा वेष होता है,
उसी के अनुकूल) भाव दिखलाता है,
पर स्वयं वह उनमें से कोई हो नहीं जाता,॥ 72(ख)॥
असि रघुपति
लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी॥
जे मति मलिन
बिषय बस कामी। प्रभु पर मोह धरहिं इमि स्वामी॥
हे गरुड़! ऐसी
ही रघुनाथ की यह लीला है, जो राक्षसों को विशेष मोहित करनेवाली और भक्तों को सुख
देनेवाली है। हे स्वामी! जो मनुष्य मलिन बुद्धि, विषयों के वश और कामी हैं, वे ही प्रभु पर इस प्रकार मोह का आरोप करते हैं।
नयन दोष जा
कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई॥
जब जेहि दिसि
भ्रम होई खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा॥
जब किसी को
नेत्र-दोष होता है, तब वह चंद्रमा को पीले रंग का कहता है। हे पक्षीराज! जब
जिसे दिशाभ्रम होता है, तब वह कहता है कि सूर्य पश्चिम में उदय हुआ है।
नौकारूढ़ चलत
जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा॥
बालक भ्रमहिं
न भ्रमहिं गृहादी। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी॥
नौका पर चढ़ा
हुआ मनुष्य जगत को चलता हुआ देखता है और मोहवश अपने को अचल समझता है। बालक घूमते
(चक्राकार दौड़ते) हैं, घर आदि नहीं घूमते। पर वे आपस में एक-दूसरे को झूठा कहते
हैं।
हरि बिषइक अस
मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा॥
माया बस
मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी॥
हे गरुड़! हरि
के विषय में मोह की कल्पना भी ऐसी ही है, भगवान में तो स्वप्न में भी अज्ञान का प्रसंग (अवसर) नहीं
है,
किंतु जो माया के वश, मंद बुद्धि और भाग्यहीन हैं और जिनके हृदय पर अनेकों प्रकार
के परदे पड़े हैं।
ते सठ हठ बस
संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं॥
वे मूर्ख हठ
के वश होकर संदेह करते हैं और अपना अज्ञान राम पर आरोपित करते हैं।
दो० - काम
क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि
जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप॥ 73(क)॥
जो काम,
क्रोध, मद और लोभ में रत हैं और दुःख रूप घर में आसक्त हैं,
वे रघुनाथ को कैसे जान सकते हैं?
वे मूर्ख तो अंधकाररूपी कुएँ में पड़े हुए हैं॥ 73(क)॥
निर्गुन रूप
सुलभ अति सगुन जान नहिं कोई।
सुगम अगम नाना
चरित सुनि मुनि मन भ्रम होई॥ 73(ख)॥
निर्गुण रूप
अत्यंत सुलभ (सहज ही समझ में आ जानेवाला) है, परंतु (गुणातीत दिव्य) सगुण रूप को कोई नहीं जानता। इसलिए
उन सगुण भगवान के अनेक प्रकार के सुगम और अगम चरित्रों को सुनकर मुनियों के भी मन
को भ्रम हो जाता है॥ 73(ख)॥
सुनु खगेस
रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई॥
जेहि बिधि मोह
भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥
हे पक्षीराज
गरुड़! रघुनाथ की प्रभुता सुनिए। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वह सुहावनी कथा कहता
हूँ। हे प्रभो! मुझे जिस प्रकार मोह हुआ, वह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ।
राम कृपा भाजन
तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता॥
ताते नहिं कछु
तुम्हहि दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ॥
हे तात! आप
राम के कृपा पात्र हैं। हरि के गुणों में आपकी प्रीति है,
इसीलिए आप मुझे सुख देनेवाले हैं। इसी से मैं आप से कुछ भी
नहीं छिपाता और अत्यंत रहस्य की बातें आपको गाकर सुनाता हूँ।
सुनहु राम कर
सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥
संसृत मूल
सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥
राम का सहज
स्वभाव सुनिए। वे भक्त में अभिमान कभी नहीं रहने देते। क्योंकि अभिमान जन्म-मरण
रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों तथा समस्त शोकों का देनेवाला है।
ताते करहिं
कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी॥
जिमि सिसु तन
ब्रन होई गोसाईं। मातु चिराव कठिन की नाईं॥
इसीलिए कृपानिधि
उसे दूर कर देते हैं; क्योंकि सेवक पर उनकी बहुत ही अधिक ममता है। हे गोसाईं!
जैसे बच्चे के शरीर में फोड़ा हो जाता है, तो माता उसे कठोर हदय की भाँति चिरा डालती है।
दो० - जदपि
प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास
हित जननी गनति न सो सिसु पीर॥ 74(क)॥
यद्यपि बच्चा
पहले (फोड़ा चिराते समय) दुःख पाता है और अधीर होकर रोता है,
तो भी रोग के नाश के लिए माता बच्चे की उस पीड़ा को कुछ भी
नहीं गिनती (उसकी परवाह नहीं करती और फोड़े को चिरवा ही डालती है)॥ 74(क)॥
तिमि रघुपति
निज दास कर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे
प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि॥ 74(ख)॥
उसी प्रकार
रघुनाथ अपने दास का अभिमान उसके हित के लिए हर लेते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि ऐसे
प्रभु को भ्रम त्यागकर क्यों नहीं भजते॥ 74(ख)॥
राम कृपा आपनि
जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥
जब जब राम
मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥
हे पक्षीराज
गरुड़! राम की कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँ,
मन लगाकर सुनिए। जब-जब राम मनुष्य शरीर धारण करते हैं और
भक्तों के लिए बहुत-सी लीलाएँ करते हैं।
तब तब अवधपुरी
मैं जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥
जन्म महोत्सव
देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥
तब-तब मैं
अयोध्यापुरी जाता हूँ और उनकी बाल लीला देखकर हर्षित होता हूँ। वहाँ जाकर मैं जन्म
महोत्सव देखता हूँ और (भगवान की शिशु लीला में) लुभाकर पाँच वर्ष तक वहीं रहता
हूँ।
इष्टदेव मम
बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
निज प्रभु बदन
निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥
बालक रूप राम
मेरे इष्टदेव हैं, जिनके शरीर में अरबों कामदेवों की शोभा है। हे गरुड़! अपने
प्रभु का मुख देख-देखकर मैं नेत्रों को सफल करता हूँ।
लघु बायस बपु
धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहु रंगा॥
छोटे-से कौए
का शरीर धरकर और भगवान के साथ-साथ फिरकर मैं उनके भाँति-भाँति के बाल चरित्रों को
देखा करता हूँ।
दो० - लरिकाईं
जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ।
जूठनि परइ
अजिर महँ सो उठाई करि खाउँ॥ 75(क)॥
लड़कपन में वे
जहाँ-जहाँ फिरते हैं, वहाँ-वहाँ मैं साथ-साथ उड़ता हूँ और आँगन में उनकी जो जूठन
पड़ती है,
वही उठाकर खाता हूँ॥ 75(क)॥
एक बार अतिसय
सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु
लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥ 75(ख)॥
एक बार रघुवीर
ने सब चरित्र बहुत अधिकता से किए। प्रभु की उस लीला का स्मरण करते ही काकभुशुंडि
का शरीर (प्रेमानंदवश) पुलकित हो गया॥ 75(ख)॥
कहइ भसुंड
सुनहु खगनायक। राम चरित सेवक सुखदायक॥
नृप मंदिर
सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती॥
भुशुंडि कहने
लगे - हे पक्षीराज! सुनिए, राम का चरित्र सेवकों को सुख देनेवाला है। (अयोध्या का)
राजमहल सब प्रकार से सुंदर है। सोने के महल में नाना प्रकार के रत्न जड़े हुए हैं।
बरनि न जाइ
रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई॥
बाल बिनोद करत
रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई॥
सुंदर आँगन का
वर्णन नहीं किया जा सकता, जहाँ चारों भाई नित्य खेलते हैं। माता को सुख देनेवाले
बालविनोद करते हुए रघुनाथ आँगन में विचर रहे हैं।
मरकत मृदुल
कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा॥
नव राजीव अरुन
मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना॥
मरकत मणि के
समान हरिताभ श्याम और कोमल शरीर है। अंग-अंग में बहुत-से कामदेवों की शोभा छाई हुई
है। नवीन (लाल) कमल के समान लाल-लाल कोमल चरण हैं। सुंदर अँगुलियाँ हैं और नख अपनी
ज्योति से चंद्रमा की कांति को हरनेवाले हैं।
ललित अंक
कुलिसादिक चारी। नूपुर चारु मधुर रवकारी॥
चारु पुरट मनि
रचित बनाई। कटि किंकिनि कल मुखर सुहाई॥
(तलवे में) वज्रादि (वज्र, अंकुश, ध्वजा और कमल) के चार सुंदर चिह्न हैं,
चरणों में मधुर शब्द करनेवाले सुंदर नूपुर हैं,
मणियों, रत्नों से जड़ी हुई सोने की बनी हुई सुंदर करधनी का शब्द
सुहावना लग रहा है।
दो० - रेखा
त्रय सुंदर उदर नाभी रुचिर गँभीर।
उर आयत भ्राजत
बिबिधि बाल बिभूषन चीर॥ 76॥
उदर पर सुंदर
तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं, नाभि सुंदर और गहरी है। विशाल वक्षस्थल पर अनेकों प्रकार के
बच्चों के आभूषण और वस्त्र सुशोभित हैं॥ 76॥
अरुन पानि नख
करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥
कंध बाल केहरि
दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा॥
लाल-लाल
हथेलियाँ,
नख और अँगुलियाँ मन को हरनेवाले हैं और विशाल भुजाओं पर
सुंदर आभूषण हैं। बालसिंह (सिंह के बच्चे) के-से कंधे और शंख के समान (तीन रेखाओं
से युक्त) गला है। सुंदर ठुड्डी है और मुख तो छवि की सीमा ही है।
कलबल बचन अधर
अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे॥
ललित कपोल
मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा॥
कलबल (तोतले)
वचन हैं,
लाल-लाल ओंठ हैं। उज्ज्वल, सुंदर और छोटी-छोटी (ऊपर और नीचे) दो-दो दंतुलियाँ हैं।
सुंदर गाल, मनोहर नासिका और सब सुखों को देनेवाली चंद्रमा की (अथवा सुख देनेवाली समस्त
कलाओं से पूर्ण चंद्रमा की) किरणों के समान मधुर मुसकान है।
नील कंज लोचन
भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥
बिकट भृकुटि
सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए॥
नीले कमल के
समान नेत्र जन्म-मृत्यु (के बंधन) से छुड़ानेवाले हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक
सुशोभित है। भौंहें टेढ़ी हैं, कान सम और सुंदर हैं, काले और घुँघराले केशों की छवि छा रही है।
पीत झीनि
झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही॥
रूप रासि नृप
अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी॥
पीली और महीन
झँगुली शरीर पर शोभा दे रही है। उनकी किलकारी और चितवन मुझे बहुत ही प्रिय लगती
है। राजा दशरथ के आँगन में विहार करनेवाले रूप की राशि राम अपनी परछाहीं देखकर नाचते
हैं,
मोहि सन करहिं
बिबिधि बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा॥
किलकत मोहि
धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥
और मुझसे बहुत
प्रकार के खेल करते हैं, जिन चरित्रों का वर्णन करते मुझे लज्जा आती है! किलकारी
मारते हुए जब वे मुझे पकड़ने दौड़ते और मैं भाग चलता,
तब मुझे पूआ दिखलाते थे।
दो० - आवत
निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।
जाऊँ समीप गहन
पद फिरि फिरि चितइ पराहिं॥ 77(क)॥
मेरे निकट आने
पर प्रभु हँसते हैं और भाग जाने पर रोते हैं और जब मैं उनका चरण स्पर्श करने के
लिए पास जाता हूँ, तब वे पीछे फिर-फिरकर मेरी ओर देखते हुए भाग जाते हैं॥ 77(क)॥
प्राकृत सिसु
इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र
करत प्रभु चिदानंद संदोह॥ 77(ख)॥
साधारण
बच्चों-जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शंका) हुआ कि सच्चिदानंदघन प्रभु यह कौन
(महत्त्व का) चरित्र (लीला) कर रहे हैं॥ 77(ख)॥
एतना मन आनत
खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥
सो माया न
दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥
हे पक्षीराज!
मन में इतनी (शंका) लाते ही रघुनाथ के द्वारा प्रेरित माया मुझ पर छा गई। परंतु वह
माया न तो मुझे दुःख देनेवाली हुई और न दूसरे जीवों की भाँति संसार में डालनेवाली
हुई।
नाथ इहाँ कछु
कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना॥
ग्यान अखंड एक
सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥
हे नाथ! यहाँ
कुछ दूसरा ही कारण है। हे भगवान के वाहन गरुड़! उसे सावधान होकर सुनिए। एक सीतापति
राम ही अखंड ज्ञानस्वरूप हैं और जड़-चेतन सभी जीव माया के वश हैं।
जौं सब कें रह
ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस॥
माया बस्य जीव
अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी॥
यदि जीवों को
एकरस (अखंड) ज्ञान रहे, तो कहिए, फिर ईश्वर और जीव में भेद ही कैसा?
अभिमानी जीव माया के वश है और वह (सत्त्व,
रज, तम - इन) तीनों गुणों की खान माया ईश्वर के वश में है।
परबस जीव
स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता॥
मुधा भेद
जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥
जीव परतंत्र
है,
भगवान स्वतंत्र हैं; जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत्
है तथापि वह भगवान के भजन बिना करोड़ों उपाय करने पर भी नहीं जा सकता।
दो० -
रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि
सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥ 78(क)॥
रामचंद्र के
भजन बिना जो मोक्ष पद चाहता है, वह मनुष्य ज्ञानवान होने पर भी बिना पूँछ और सींग का पशु
है॥ 78(क)॥
राकापति षोड़स
उअहिं तारागन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह
दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥ 78(ख)॥
सभी तारागणों
के साथ सोलह कलाओं से पूर्ण चंद्रमा उदय हो और जितने पर्वत हैं उन सब में दावाग्नि
लगा दी जाए, तो भी सूर्य के उदय हुए बिना रात्रि नहीं जा सकती॥ 78(ख)॥
ऐसेहिं हरि
बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥
हरि सेवकहि न
ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥
हे पक्षीराज!
इसी प्रकार हरि के भजन बिना जीवों का क्लेश नहीं मिटता। हरि के सेवक को अविद्या
नहीं व्यापती। प्रभु की प्रेरणा से उसे विद्या व्यापती है।
ताते नास न
होइ दास कर। भेद भगति बाढ़इ बिहंगबर॥
भ्रम तें चकित
राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥
हे
पक्षीश्रेष्ठ! इससे दास का नाश नहीं होता और भेद-भक्ति बढ़ती है। राम ने मुझे जब
भ्रम से चकित देखा, तब वे हँसे। वह विशेष चरित्र सुनिए।
तेहि कौतुक कर
मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥
जानु पानि धाए
मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना॥
उस खेल का
मर्म किसी ने नहीं जाना, न छोटे भाइयों ने और न माता-पिता ने ही। वे श्याम शरीर और
लाल-लाल हथेली और चरणतलवाले बाल रूप राम घुटने और हाथों के बल मुझे पकड़ने को
दौड़े।
तब मैं भागि
चलेउँ उरगारी। राम गहन कहँ भुजा पसारी॥
जिमि जिमि
दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥
हे सर्पों के
शत्रु गरुड़! तब मैं भाग चला। राम ने मुझे पकड़ने के लिए भुजा फैलाई। मैं
जैसे-जैसे आकाश में दूर उड़ता, वैसे-वैसे ही वहाँ हरि की भुजा को अपने पास देखता था।
दो० -
ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।
जुग अंगुल कर
बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥ 79(क)॥
मैं ब्रह्मलोक
तक गया और जब उड़ते हुए मैंने पीछे की ओर देखा, तो हे तात! राम की भुजा में और मुझमें केवल दो ही अंगुल की
दूरी थी॥ 79(क)॥
सप्ताबरन भेद
करि जहाँ लगें गति मोरि।
गयउँ तहाँ
प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि॥ 79(ख)॥
सातों आवरणों
को भेदकर जहाँ तक मेरी गति थी वहाँ तक मैं गया। पर वहाँ भी प्रभु की भुजा को (अपने
पीछे) देखकर मैं व्याकुल हो गया॥ 79(ख)॥111
मूदेउँ नयन
त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ॥
मोहि बिलोकि
राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥
जब मैं भयभीत
हो गया,
तब मैंने आँखें मूँद लीं। फिर आँखें खोलकर देखते ही अवधपुरी
में पहुँच गया। मुझे देखकर राम मुसकराने लगे। उनके हँसते ही मैं तुरंत उनके मुख
में चला गया।
उदर माझ सुनु
अंडज राया। देखउँ बहु ब्रह्मांड निकाया॥
अति बिचित्र
तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥
हे पक्षीराज!
सुनिए,
मैंने उनके पेट में बहुत-से ब्रह्मांडों के समूह देखे। वहाँ
(उन ब्रह्मांडों में) अनेकों विचित्र लोक थे, जिनकी रचना एक-से-एक की बढ़कर थी।
कोटिन्ह
चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा॥
अगनित लोकपाल
जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥
करोड़ों
ब्रह्मा और शिव, अनगिनत तारागण, सूर्य और चंद्रमा, अनगिनत लोकपाल, यम और काल, अनगिनत विशाल पर्वत और भूमि,
सागर सरि सर
बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा॥
सुर मुनि
सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर॥
असंख्य समुद्र,
नदी, तालाब और वन तथा और भी नाना प्रकार की सृष्टि का विस्तार
देखा। देवता, मुनि,
सिद्ध, नाग, मनुष्य, किन्नर तथा चारों प्रकार के जड़ और चेतन जीव देखे।
दो० - जो नहिं
देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।
सो सब अद्भुत
देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ॥ 80(क)॥
जो कभी न देखा
था,
न सुना था और जो मन में भी नहीं समा सकता था (अर्थात जिसकी
कल्पना भी नहीं की जा सकती थी), वही सब अद्भुत सृष्टि मैंने देखी। तब उसका किस प्रकार वर्णन
किया जाए!॥ 80(क)॥
एक एक
ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक।
एहि बिधि देखत
फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक॥ 80(ख)॥
मैं एक-एक
ब्रह्मांड में एक-एक सौ वर्ष तक रहता। इस प्रकार मैं अनेकों ब्रह्मांड देखता फिरा॥
80(ख)॥
लोक लोक प्रति
भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता॥
नर गंधर्ब भूत
बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला॥
प्रत्येक लोक
में भिन्न-भिन्न ब्रह्मा, भिन्न-भिन्न विष्णु, शिव, मनु, दिक्पाल, मनुष्य, गंधर्व, भूत, वैताल, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, सर्प,
देव दनुज गन
नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती॥
महि सरि सागर
सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना॥
तथा नाना जाति
के देवता एवं दैत्यगण थे। सभी जीव वहाँ दूसरे ही प्रकार के थे। अनेक पृथ्वी,
नदी, समुद्र, तालाब, पर्वत तथा सब सृष्टि वहाँ दूसरी-ही-दूसरी प्रकार की थी।
अंडकोस प्रति
प्रति निज रूपा। दाखेउँ जिनस अनेक अनूपा॥
अवधपुरी प्रति
भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी॥
प्रत्येक
ब्रह्मांड में मैंने अपना रूप देखा तथा अनेकों अनुपम वस्तुएँ देखीं। प्रत्येक भुवन
में न्यारी ही अवधपुरी, भिन्न ही सरयू और भिन्न प्रकार के ही नर-नारी थे।
दसरथ कौसल्या
सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता॥
प्रति
ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा॥
हे तात! सुनिए,
दशरथ, कौसल्या और भरत आदि भाई भी भिन्न-भिन्न रूपों के थे। मैं
प्रत्येक ब्रह्मांड में रामावतार और उनकी अपार बाल लीलाएँ देखता फिरता।
दो० - भिन्न
भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।
अगनित भुवन
फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन॥ 81(क)॥
हे हरिवाहन!
मैंने सभी कुछ भिन्न-भिन्न और अत्यंत विचित्र देखा। मैं अनगिनत ब्रह्मांडों में
फिरा,
पर प्रभु राम को मैंने दूसरी तरह का नहीं देखा॥ 81(क)॥
सोइ सिसुपन
सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।
भुवन भुवन
देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर॥ 81(ख)॥
सर्वत्र वही
शिशुपन,
वही शोभा और वही कृपालु रघुवीर! इस प्रकार मोहरूपी पवन की
प्रेरणा से मैं भुवन-भुवन में देखता-फिरता था॥ 81(ख)॥
भ्रमत मोहि
ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका॥
फिरत फिरत निज
आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ॥
अनेक
ब्रह्मांडों में भटकते मुझे मानो एक सौ कल्प बीत गए। फिरता-फिरता मैं अपने आश्रम में
आया और कुछ काल वहाँ रहकर बिताया।
निज प्रभु
जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ॥
देखउँ जन्म
महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई॥
फिर जब अपने
प्रभु का अवधपुरी में जन्म (अवतार) सुन पाया, तब प्रेम से परिपूर्ण होकर मैं हर्षपूर्वक उठ दौड़ा। जाकर
मैंने जन्म महोत्सव देखा, जिस प्रकार मैं पहले वर्णन कर चुका हूँ।
राम उदर
देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना॥
तहँ पुनि
देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना॥
राम के पेट
में मैंने बहुत-से जगत देखे, जो देखते ही बनते थे, वर्णन नहीं किए जा सकते। वहाँ फिर मैंने सुजान माया के
स्वामी कृपालु भगवान राम को देखा।
करउँ बिचार
बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी॥
उभय घरी महँ
मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा॥
मैं बार-बार
विचार करता था। मेरी बुद्धि मोहरूपी कीचड़ से व्याप्त थी। यह सब मैंने दो ही घड़ी
में देखा। मन में विशेष मोह होने से मैं थक गया।
दो० - देखि
कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।
बिहँसतहीं मुख
बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर॥ 82(क)॥
मुझे व्याकुल
देखकर तब कृपालु रघुवीर हँस दिए। हे धीर-बुद्धि गरुड़! सुनिए,
उनके हँसते ही मैं मुँह से बाहर आ गया॥ 82(क)॥
सोइ लरिकाई मो
सन करन लगे पुनि राम।
कोटि भाँति
समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम॥ 82(ख)॥
राम मेरे साथ
फिर वही लड़कपन करने लगे। मैं करोड़ों (असंख्य) प्रकार से मन को समझाता था,
पर वह शांति नहीं पाता था॥ 82(ख)॥
देखि चरित यह
सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई॥
धरनि परेउँ
मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता॥
यह (बाल)
चरित्र देखकर और पेट के अंदर (देखी हुई) उस प्रभुता का स्मरण कर मैं शरीर की सुध
भूल गया और ‘हे आर्तजनों के रक्षक! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए’ पुकारता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। मुख से बात नहीं निकलती
थी।
प्रेमाकुल प्रभु
मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी॥
कर सरोज प्रभु
मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ॥
तदनंतर प्रभु
ने मुझे प्रेमविह्वल देखकर अपनी माया की प्रभुता (प्रभाव) को रोक लिया। प्रभु ने
अपना करकमल मेरे सिर पर रखा। दीनदयालु ने मेरे संपूर्ण दुःख हर लिए।
कीन्ह राम
मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा॥
प्रभुता प्रथम
बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी॥
सेवकों को सुख
देनेवाले,
कृपा के समूह (कृपामय) राम ने मुझे मोह से सर्वथा रहित कर
दिया। उनकी पहलेवाली प्रभुता को विचार-विचारकर (याद कर-करके) मेरे मन में बड़ा भारी
हर्ष हुआ।
भगत बछलता
प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी॥
सजल नयन
पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी॥
प्रभु की
भक्तवत्सलता देखकर मेरे हृदय में बहुत ही प्रेम उत्पन्न हुआ। फिर मैंने (आनंद से)
नेत्रों में जल भरकर, पुलकित होकर और हाथ जोड़कर बहुत प्रकार से विनती की।
दो० - सुनि
सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद
गंभीर मृदु बोले रमानिवास॥ 83(क)॥
मेरी
प्रेमयुक्त वाणी सुनकर और अपने दास को दीन देखकर रमानिवास राम सुखदायक,
गंभीर और कोमल वचन बोले - ॥ 83(क)॥
काकभसुंडि
मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि
अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि॥ 83(ख)॥
हे
काकभुशुंडि! तू मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ,
दूसरी ऋद्धियाँ तथा संपूर्ण सुखों की खान मोक्ष,॥ 83(ख)॥
ग्यान बिबेक
बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना॥
आजु देउँ सब संसय
नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं॥
ज्ञान,
विवेक, वैराग्य, विज्ञान, (तत्त्वज्ञान) और वे अनेकों गुण जो जगत में मुनियों के लिए
भी दुर्लभ हैं, ये सब मैं आज तुझे दूँगा, इसमें संदेह नहीं। जो तेरे मन भाए,
सो माँग ले।
सुनि प्रभु
बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेउँ॥
प्रभु कह देन
सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही॥
प्रभु के वचन
सुनकर मैं बहुत ही प्रेम में भर गया। तब मन में अनुमान करने लगा कि प्रभु ने सब
सुखों के देने की बात कही, यह तो सत्य है; पर अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही।
भगति हीन गुन
सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे॥
भजन हीन सुख
कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा॥
भक्ति से रहित
सब गुण और सब सुख वैसे ही (फीके) हैं जैसे नमक के बिना बहुत प्रकार के भोजन के
पदार्थ। भजन से रहित सुख किस काम के? हे पक्षीराज! ऐसा विचार कर मैं बोला -
जौं प्रभु होइ
प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू॥
मन भावत बर
मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी॥
हे प्रभो! यदि
आप प्रसन्न होकर मुझे वर देते हैं और मुझ पर कृपा और स्नेह करते हैं,
तो हे स्वामी! मैं अपना मन-भाया वर माँगता हूँ। आप उदार हैं
और हृदय के भीतर की जाननेवाले हैं।
दो० - अबिरल
भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत
जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव॥ 84(क)॥
आपकी जिस
अविरल (प्रगाढ़) एवं विशुद्ध (अनन्य निष्काम) भक्ति को श्रुति और पुराण गाते हैं,
जिसे योगीश्वर मुनि खोजते हैं और प्रभु की कृपा से कोई
विरला ही जिसे पाता है॥ 84(क)॥
भगत कल्पतरु
प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति
मोहि प्रभु देहु दया करि राम॥ 84(ख)॥
हे भक्तों के
(मन-इच्छित फल देनेवाले) कल्पवृक्ष! हे शरणागत के हितकारी! हे कृपासागर! हे सुखधान
राम! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिए॥ 84(ख)॥
एवमस्तु कहि रघुकुलनायक।
बोले बचन परम सुखदायक॥
सुनु बायस तैं
सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना॥
'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर रघुवंश के स्वामी परम सुख देनेवाले वचन बोले - हे काक! सुन,
तू स्वभाव से ही बुद्धिमान है। ऐसा वरदान कैसे न माँगता?
सब सुख खानि
भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी॥
जो मुनि कोटि
जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं॥
तूने सब सुखों
की खान भक्ति माँग ली, जगत में तेरे समान बड़भागी कोई नहीं है। वे मुनि जो जप और
योग की अग्नि से शरीर जलाते रहते हैं, करोड़ों यत्न करके भी जिसको (जिस भक्ति को) नहीं पाते।
रीझेउँ देखि
तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई॥
सुनु बिहंग
प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें॥
वही भक्ति
तूने माँगी। तेरी चतुराई देखकर मैं रीझ गया। यह चतुराई मुझे बहुत ही अच्छी लगी। हे
पक्षी! सुन, मेरी कृपा से अब समस्त शुभ गुण तेरे हृदय में बसेंगे।
भगति ग्यान
बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा॥
जानब तैं सबही
कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥
भक्ति,
ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, मेरी लीलाएँ और उनके रहस्य तथा विभाग - इन सबके भेद को तू
मेरी कृपा से ही जान जाएगा। तुझे साधन का कष्ट नहीं होगा।
दो० - माया
संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।
जानेसु ब्रह्म
अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि॥ 85(क)॥
माया से
उत्पन्न सब भ्रम अब तुझको नहीं व्यापेंगे। मुझे अनादि,
अजन्मा, अगुण (प्रकृति के गुणों से रहित) और (गुणातीत दिव्य) गुणों
की खान ब्रह्म जानना॥ 85(क)॥
मोहि भगत
प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन
मम पद करेसु अचल अनुराग॥ 85(ख)॥
हे काक! सुन,
मुझे भक्त निरंतर प्रिय हैं, ऐसा विचार कर शरीर, वचन और मन से मेरे चरणों में अटल प्रेम करना॥ 85(ख)॥
अब सुनु परम
बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी॥
निज सिद्धांत
सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥
अब मेरी सत्य,
सुगम, वेदादि के द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह
'निज सिद्धांत' सुनाता हूँ। सुनकर मन में धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर।
............
मम माया संभव
संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥
सब मम प्रिय
सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥
यह सारा संसार
मेरी माया से उत्पन्न है। (इसमें) अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे
प्रिय हैं; क्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किए हुए हैं। (किंतु) मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे
लगते हैं।
तिन्ह महँ
द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥
तिन्ह महँ
प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥
उन मनुष्यों
में द्विज, द्विजों में भी वेदों को (कंठ में) धारण करनेवाले,
उनमें भी वेदोक्त धर्म पर चलनेवाले,
उनमें भी विरक्त (वैराग्यवान) मुझे प्रिय हैं। वैराग्यवानों
में फिर ज्ञानी और ज्ञानियों से भी अत्यंत प्रिय विज्ञानी हैं।
तिन्ह ते पुनि
मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा॥
पुनि पुनि
सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं॥
विज्ञानियों
से भी प्रिय मुझे अपना दास है, जिसे मेरी ही गति (आश्रय) है, कोई दूसरी आशा नहीं है। मैं तुझसे बार-बार सत्य ('निज सिद्धांत') कहता हूँ कि मुझे अपने सेवक के समान प्रिय कोई भी नहीं है।
भगति हीन
बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई॥
भगतिवंत अति
नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥
भक्तिहीन ब्रह्मा
ही क्यों न हो, वह मुझे सब जीवों के समान ही प्रिय है। परंतु भक्तिमान अत्यंत नीच भी प्राणी
मुझे प्राणों के समान प्रिय है, यह मेरी घोषणा है।
दो० - सुचि
सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।
श्रुति पुरान
कह नीति असि सावधान सुनु काग॥ 86॥
पवित्र,
सुशील और सुंदर बुद्धिवाला सेवक,
बता, किसको प्यारा नहीं लगता? वेद और पुराण ऐसी ही नीति कहते हैं। हे काक! सावधान होकर
सुन॥ 86॥
एक पिता के
बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा॥
कोउ पंडित कोउ
तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता॥
एक पिता के
बहुत-से पुत्र पृथक-पृथक गुण, स्वभाव और आचरणवाले होते हैं। कोई पंडित होता है,
कोई तपस्वी, कोई ज्ञानी, कोई धनी, कोई शूरवीर, कोई दानी,
कोउ सर्बग्य
धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई॥
कोउ पितु भगत
बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा॥
कोई सर्वज्ञ
और कोई धर्मपरायण होता है। पिता का प्रेम इन सभी पर समान होता है। परंतु इनमें से
यदि कोई मन, वचन और कर्म से पिता का ही भक्त होता है, स्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं जानता,
सो सुत प्रिय
पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना॥
एहि बिधि जीव
चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते॥
वह पुत्र पिता
को प्राणों के समान प्रिय होता है, यद्यपि (चाहे) वह सब प्रकार से अज्ञान (मूर्ख) ही हो। इस
प्रकार तिर्यक (पशु-पक्षी), देव, मनुष्य और असुरों समेत जितने भी चेतन और जड़ जीव हैं,
अखिल बिस्व यह
मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया॥
तिन्ह महँ जो
परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरु काया॥
(उनसे भरा हुआ) यह संपूर्ण विश्व मेरा ही पैदा किया हुआ है। अतः सब पर मेरी
बराबर दया है, परंतु इनमें से जो मद और माया छोड़कर मन, वचन और शरीर से मुझको भजता है,
दो० - पुरुष
नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज
कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥ 87(क)॥
वह पुरुष हो,
नपुंसक हो, स्त्री हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव हो,
कपट छोड़कर जो भी सर्वभाव से मुझे भजता है वही मुझे परम
प्रिय है॥ 87(क)॥
सो० - सत्य
कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।
अस बिचारि भजु
मोहि परिहरि आस भरोस सब॥ 87(ख)॥
हे पक्षी! मैं
तुझसे सत्य कहता हूँ, पवित्र (अनन्य एवं निष्काम) सेवक मुझे प्राणों के समान
प्यारा है। ऐसा विचारकर सब आशा-भरोसा छोड़कर मुझी को भज॥ 87(ख)॥
कबहूँ काल न
ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही॥
प्रभु बचनामृत
सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ॥
तुझे काल कभी
नहीं व्यापेगा। निरंतर मेरा स्मरण और भजन करते रहना। प्रभे के वचनामृत सुनकर मैं
तृप्त नहीं होता था। मेरा शरीर पुलकित था और मन में मैं अत्यंत ही हर्षित हो रहा
था।
सो सुख जानइ
मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना॥
प्रभु सोभा
सुख जानहिं नयना। कहि किम सकहिं तिन्हहि नहिं बयना॥
वह सुख मन और
कान ही जानते हैं। जीभ से उसका बखान नहीं किया जा सकता। प्रभु की शोभा का वह सुख
नेत्र ही जानते हैं। पर वे कह कैसे सकते हैं? उनके वाणी तो है नहीं।
बहु बिधि मोहि
प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई॥
सजल नयन कछु
मुख करि रूखा। चितई मातु लागी अति भूखा॥
मुझे बहुत
प्रकार से भली-भाँति समझकर और सुख देकर प्रभु फिर वही बालकों के खेल करने लगे।
नेत्रों में जल भरकर और मुख को कुछ रूखा (-सा) बनाकर उन्होंने माता की ओर देखा -
(और मुखाकृति तथा चितवन से माता को समझा दिया कि) बहुत भूख लगी है।
देखि मातु
आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई॥
गोद राखि कराव
पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना॥
यह देखकर माता
तुरंत उठ दौड़ीं और कोमल वचन कहकर उन्होंने राम को छाती से लगा लिया। वे गोद में
लेकर उन्हें दूध पिलाने लगीं और रघुनाथ (उन्हीं) की ललित लीलाएँ गाने लगीं।
सो० - जेहि
सुख लाग पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर
नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन॥ 88(क)॥
जिस सुख के
लिए (सबको) सुख देनेवाले कल्याणरूप त्रिपुरारि शिव ने अशुभ वेष धारण किया,
उस सुख में अवधपुरी के नर-नारी निरंतर निमग्न रहते हैं॥ 88(क)॥
सोई सुख लवलेस
जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं
खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति॥ 88(ख)॥
उस सुख का
लवलेशमात्र जिन्होंने एक बार स्वप्न में भी प्राप्त कर लिया,
हे पक्षीराज! वे सुंदर बुद्धिवाले सज्जन पुरुष उसके सामने
ब्रह्मसुख को भी कुछ नहीं गिनते॥ 88(ख)॥
मैं पुनि अवध
रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला॥
राम प्रसाद
भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ॥
मैं और कुछ
समय तक अवधपुरी में रहा और मैंने राम की रसीली बाल लीलाएँ देखीं। राम की कृपा से
मैंने भक्ति का वरदान पाया। तदनंतर प्रभु के चरणों की वंदना करके मैं अपने आश्रम पर
लौट आया।
तब ते मोहि न
ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥
यह सब गुप्त
चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥
इस प्रकार जब
से रघुनाथ ने मुझको अपनाया, तब से मुझे माया कभी नहीं व्यापी। हरि की माया ने मुझे जैसे
नचाया,
वह सब गुप्त चरित्र मैंने कहा।
निज अनुभव अब
कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा॥
राम कृपा बिनु
सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥
हे पक्षीराज
गरुड़! अब मैं आपसे अपना निजी अनुभव कहता हूँ। (वह यह है कि) भगवान के भजन बिना
क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षीराज! सुनिए, राम की कृपा बिना राम की प्रभुता नहीं जानी जाती,
जानें बिनु न
होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना
नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥
जाने बिना उन
पर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति
वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षीराज! जल की चिकनाई ठहरती नहीं।
सो० - बिनु
गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद
पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥ 89(क)॥
गुरु के बिना
कहीं ज्ञान हो सकता है? अथवा वैराग्य के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है?
इसी तरह वेद और पुराण कहते हैं कि हरि की भक्ति के बिना
क्या सुख मिल सकता है?॥ 89(क)॥
कोउ बिश्राम
कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल
बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ॥ 89(ख)॥
हे तात!
स्वाभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा सकता है? (चाहे) करोड़ों उपाय करके पच-पच मारिए;
(फिर भी) क्या कभी जल के
बिना नाव चल सकती है?॥ 89(ख)॥
बिनु संतोष न
काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥
राम भजन बिनु
मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा॥
संतोष के बिना
कामना का नाश नहीं होता और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता। और
राम के भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैं? बिना धरती के भी कहीं पेड़ उग सकता है?
बिनु बिग्यान
कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ॥
श्रद्धा बिना
धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई॥
विज्ञान
(तत्त्वज्ञान) के बिना क्या समभाव आ सकता है? आकाश के बिना क्या कोई अवकाश पा सकता है?
श्रद्धा के बिना धर्म (का आचरण) नहीं होता। क्या पृथ्वी
तत्त्व के बिना कोई गंध पा सकता है?
बिनु तप तेज
कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा॥
सील कि मिल
बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँई॥
तप के बिना
क्या तेज फैल सकता है? जल-तत्त्व के बिना संसार में क्या रस हो सकता है?
पंडितजनों की सेवा बिना क्या शील (सदाचार) प्राप्त हो सकता
है?
हे गोसाईं! जैसे बिना तेज (अग्नि-तत्त्व) के रूप नहीं
मिलता।
निज सुख बिनु
मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा॥
कवनिउ सिद्धि
कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥
निज-सुख (आत्मानंद)
के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है? वायु-तत्त्व के बिना क्या स्पर्श हो सकता है?
क्या विश्वास के बिना कोई भी सिद्धि हो सकती है?
इसी प्रकार हरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं
होता।
दो० - बिनु
बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु
सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥ 90(क)॥
बिना विश्वास
के भक्ति नहीं होती, भक्ति के बिना राम पिघलते (ढरते) नहीं और राम की कृपा के
बिना जीव स्वप्न में भी शांति नहीं पाता॥ 90(क)॥
सो० - अस
बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम
रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद॥ 90(ख)॥
हे धीरबुद्धि!
ऐसा विचारकर संपूर्ण कुतर्कों और संदेहों को छोड़कर करुणा की खान सुंदर और सुख
देनेवाले रघुवीर का भजन कीजिए॥ 90(ख)॥
निज मति सरिस
नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई॥
कहेउँ न कछु
करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी॥
हे पक्षीराज!
हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु के प्रताप और महिमा का गान किया। मैंने
इसमें कोई बात युक्ति से बढ़ाकर नहीं कही है। यह सब अपनी आँखों देखी कही है।
महिमा नाम रूप
गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा॥
निज निज मति
मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं॥
रघुनाथ की
महिमा,
नाम, रूप और गुणों की कथा सभी अपार एवं अनंत हैं तथा रघुनाथ
स्वयं भी अनंत हैं। मुनिगण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार हरि के गुण गाते हैं। वेद,
शेष और शिव भी उनका पार नहीं पाते।
तुम्हहि आदि
खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥
तिमि रघुपति
महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा॥
आप से लेकर
मच्छर पर्यंत सभी छोटे-बड़े जीव आकाश में उड़ते हैं, किंतु आकाश का अंत कोई नहीं पाता। इसी प्रकार हे तात!
रघुनाथ की महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है?
रामु काम सत
कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥
सक्र कोटि सत
सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा॥
राम का अरबों
कामदेवों के समान सुंदर शरीर है। वे अनंत कोटि दुर्गाओं के समान शत्रुनाशक हैं।
अरबों इंद्रों के समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है। अरबों आकाशों के समान उनमें अनंत
अवकाश (स्थान) है।
दो० - मरुत
कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि
सुसीतल समन सकल भव त्रास॥ 91(क)॥
अरबों पवन के
समान उनमें महान बल है और अरबों सूर्यों के समान प्रकाश है। अरबों चंद्रमाओं के
समान वे शीतल और संसार के समस्त भयों का नाश करनेवाले हैं॥ 91(क)॥
काल कोटि सत
सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।
धूमकेतु सत
कोटि सम दुराधरष भगवंत॥ 91(ख)॥
अरबों कालों
के समान वे अत्यंत दुस्तर, दुर्गम और दुरंत हैं। वे भगवान अरबों धूमकेतुओं (पुच्छल
तारों) के समान अत्यंत प्रबल हैं॥ 91(ख)॥
प्रभु अगाध सत
कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला॥
तीरथ अमित
कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन॥
अरबों पातालों
के समान प्रभु अथाह हैं। अरबों यमराजों के समान भयानक हैं। अनंतकोटि तीर्थों के
समान वे पवित्र करनेवाले हैं। उनका नाम संपूर्ण पापसमूह का नाश करनेवाला है।
हिमगिरि कोटि
अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा॥
कामधेनु सत
कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना॥
रघुवीर
करो़ड़ों हिमालयों के समान अचल (स्थिर) हैं और अरबों समुद्रों के समान गहरे हैं।
भगवान अरबों कामधेनुओं के समान सब कामनाओं (इच्छित पदार्थों) के देनेवाले हैं।
सारद कोटि
अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई॥
बिष्नु कोटि
सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता॥
उनमें
अनंतकोटि सरस्वतियों के समान चतुराई है। अरबों ब्रह्माओं के समान सृष्टि रचना की
निपुणता है। वे करोड़ों विष्णुओं के समान पालन करनेवाले और अरबों रुद्रों के समान
संहार करनेवाले हैं।
धनद कोटि सत
सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना॥
भार धरन सत
कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा॥
वे अरबों
कुबेरों के समान धनवान और करोड़ों मायाओं के समान सृष्टि के खजाने हैं। बोझ उठाने
में वे अरबों शेषों के समान हैं। (अधिक क्या) जगदीश्वर प्रभु राम (सभी बातों में)
सीमारहित और उपमारहित हैं।
छं० - निरुपम
न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत
खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै॥
एहि भाँति निज
निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव
गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं॥
राम उपमारहित
हैं,
उनकी कोई दूसरी उपमा है ही नहीं। राम के समान राम ही हैं,
ऐसा वेद कहते हैं। जैसे अरबों जुगनुओं के समान कहने से
सूर्य (प्रशंसा को नहीं वरन) अत्यंत लघुता को ही प्राप्त होता है (सूर्य की निंदा
ही होती है)। इसी प्रकार अपनी-अपनी बुद्धि के विकास के अनुसार मुनीश्वर हरि का
वर्णन करते हैं, किंतु प्रभु भक्तों के भावमात्र को ग्रहण करनेवाले और अत्यंत कपालु हैं। वे उस
वर्णन को प्रेमसहित सुनकर सुख मानते हैं।
दो० - रामु
अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस
किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ॥ 92(क)॥
राम अपार
गुणों के समुद्र हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है?
संतों से मैंने जैसा कुछ सुना था,
वही आपको सुनाया॥ 92(क)॥
सो० - भाव
बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद
मान भजिअ सदा सीता रवन॥ 92(ख)॥
सुख के भंडार,
करुणाधाम भगवान भाव (प्रेम) के वश हैं। (अतएव) ममता,
मद और मान को छोड़कर सदा जानकीनाथ का ही भजन करना चाहिए॥ 92(ख)॥
सुनि भुसुंडि
के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए॥
नयन नीर मन
अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना॥
भुशुंडि के
सुंदर वचन सुनकर पक्षीराज ने हर्षित होकर अपने पंख फुला लिए। उनके नेत्रों में
(प्रेमानंद के आँसुओं का) जल आ गया और मन अत्यंत हर्षित हो गया। उन्होंने श्री
रघुनाथ का प्रताप हृदय में धारण किया।
पाछिल मोह
समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना॥
पुनि पुनि काग
चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा॥
वे अपने पिछले
मोह को समझकर (याद करके) पछताने लगे कि मैंने अनादि ब्रह्म को मनुष्य करके माना।
गरुड़ ने बार-बार काकभुशुंडि के चरणों पर सिर नवाया और उन्हें राम के ही समान
जानकर प्रेम बढ़ाया।
गुर बिनु भव
निध तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥
संसय सर्प
ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता॥
गुरु के बिना
कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्मा और शंकर के समान ही क्यों न हो। (गरुड़ ने
कहा -) हे तात! मुझे संदेहरूपी सर्प ने डस लिया था और (साँप के डँसने पर जैसे विष
चढ़ने से लहरें आती हैं वैसे ही) बहुत-सी कुतर्करूपी दुःख देनेवाली लहरें आ रही
थीं।
तव सरूप
गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक॥
तव प्रसाद मम
मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना॥
आपके
स्वरूपरूपी गारुड़ी (साँप का विष उतारनेवाले) के द्वारा भक्तों को सुख देनेवाले
रघुनाथ ने मुझे जिला लिया। आपकी कृपा से मेरा मोह नाश हो गया और मैंने राम का
अनुपम रहस्य जाना।
दो० - ताहि
प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत
सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि॥ 93(क)॥
उनकी (भुशुंडि
की) बहुत प्रकार से प्रशंसा करके, सिर नवाकर और हाथ जोड़कर फिर गरुड़ प्रेमपूर्वक विनम्र और
कोमल वचन बोले - ॥ 93(क)॥
प्रभु अपने
अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिंधु सादर
कहहु जानि दास निज मोहि॥ 93(ख)॥
हे प्रभो! हे
स्वामी! मैं अपने अविवेक के कारण आपसे पूछता हूँ। हे कृपा के समुद्र! मुझे अपना 'निज दास' जानकर आदरपूर्वक (विचारपूर्वक) मेरे प्रश्न का उत्तर कहिए॥ 93(ख)॥
तुम्ह सर्बग्य
तग्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा॥
ग्यान बिरति
बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा॥
आप सब कुछ
जाननेवाले हैं, तत्त्व के ज्ञाता हैं, अंधकार (माया) से परे, उत्तम बुद्धि से युक्त, सुशील, सरल आचरणवाले, ज्ञान, वैराग्य और विज्ञान के धाम और रघुनाथ के प्रिय दास हैं।
कारन कवन देह
यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई॥
राम चरित सुर
सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी॥
आपने यह काक
शरीर किस कारण से पाया? हे तात! सब समझाकर मुझसे कहिए। हे स्वामी! हे आकाशगामी! यह
सुंदर रामचरित मानस आपने कहाँ पाया, सो कहिए।
नाथ सुना मैं
अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं॥
मुधा बचन नहिं
ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई॥
हे नाथ! मैंने
शिव से ऐसा सुना है कि महाप्रलय में भी आपका नाश नहीं होता और ईश्वर (शिव) कभी
मिथ्या वचन कहते नहीं। वह भी मेरे मन में संदेह है।
अग जग जीव नाग
नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा॥
अंड कटाह अमित
लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी॥
(क्योंकि) हे नाथ! नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत काल का कलेवा है।
असंख्य ब्रह्मांडों का नाश करनेवाला काल सदा बड़ा ही अनिवार्य है।
सो० - तुम्हहि
न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।
मोहि सो कहहु
कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल॥ 94(क)॥
(ऐसा वह) अत्यंत भयंकर काल आपको नहीं व्यापता (आप पर प्रभाव नहीं दिखलाता),
इसका क्या कारण है? हे कृपालु मुझे कहिए, यह ज्ञान का प्रभाव है या योग का बल है?॥ 94(क)॥
दो० - प्रभु
तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।
कारन कवन सो
नाथ सब कहहु सहित अनुराग॥ 94(ख)॥
हे प्रभो!
आपके आश्रम में आते ही मेरा मोह और भ्रम भाग गया। इसका क्या कारण है?
हे नाथ! यह सब प्रेम सहित कहिए॥ 94(ख)॥
गरुड़ गिरा
सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा॥
धन्य धन्य तव
मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी॥
हे उमा! गरुड़
की वाणी सुनकर काकभुशुंडि हर्षित हुए और परम प्रेम से बोले - हे सर्पों के शत्रु!
आपकी बुद्धि धन्य है! धन्य है! आपके प्रश्न मुझे बहुत ही प्यारे लगे।
सुनि तव
प्रश्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई॥
सब निज कथा
कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई॥
आपके
प्रेमयुक्त सुंदर प्रश्न सुनकर मुझे अपने बहुत जन्मों की याद आ गई। मैं अपनी सब
कथा विस्तार से कहता हूँ। हे तात! आदर सहित मन लगाकर सुनिए।
जप तप मख सम
दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना॥
सब कर फल
रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा॥
अनेक जप,
तप, यज्ञ, शम (मन को रोकना), दम (इंद्रियों को रोकना), व्रत, दान, वैराग्य, विवेक, योग, विज्ञान आदि सबका फल रघुनाथ के चरणों में प्रेम होना है।
इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता।
एहिं तन राम
भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई॥
जेहि तें कछु
निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई॥
मैंने इसी
शरीर से राम की भक्ति प्राप्त की है। इसी से इस पर मेरी ममता अधिक है। जिससे अपना
कुछ स्वार्थ होता है, उस पर सभी कोई प्रेम करते हैं।
सो० -
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन
प्रीति करिअ जानि निज परम हित॥ 95(क)॥
हे गरुड़!
वेदों में मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर
अत्यंत नीच से भी प्रेम करना चाहिए॥ 95(क)॥
पाट कीट तें
होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु
कोइ परम अपावन प्रान सम॥ 95(ख)॥
रेशम कीड़े से
होता है,
उससे सुंदर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसी से उस परम अपवित्र
कीड़े को भी सब कोई प्राणों के समान पालते हैं॥ 95(ख)॥
स्वारथ साँच
जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा॥
सोइ पावन सोइ
सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा॥
जीव के लिए
सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन और कर्म से राम के चरणों में प्रेम हो। वही शरीर पवित्र
और सुंदर है जिस शरीर को पाकर रघुवीर का भजन किया जाए।
राम बिमुख लहि
बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही॥
राम भगति एहिं
तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी॥
जो राम के
विमुख है वह यदि ब्रह्मा के समान शरीर पा जाए तो भी कवि और पंडित उसकी प्रशंसा
नहीं करते। इसी शरीर से मेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न हुई। इसी से हे स्वामी! यह
मुझे परम प्रिय है।
तजउँ न तन निज
इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना॥
प्रथम मोहँ
मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा॥
मेरा मरण अपनी
इच्छा पर है, परंतु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता; क्योंकि वेदों ने वर्णन किया है कि शरीर के बिना भजन नहीं
होता। पहले मोह ने मेरी बड़ी दुर्दशा की। राम के विमुख होकर मैं कभी सुख से नहीं
सोया।
नाना जनम कर्म
पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना॥
कवन जोनि
जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं॥
अनेकों जन्मों
में मैंने अनेकों प्रकार के योग, जप, तप, यज्ञ और दान आदि कर्म किए। हे गरुड़! जगत मंर ऐसी कौन योनि
है,
जिसमें मैंने (बार-बार) घूम-फिरकर जन्म न लिया हो।
देखेउँ करि सब
करम गोसाईं। सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं॥
सुधि मोहि नाथ
जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी॥
हे गुसाईं!
मैंने सब कर्म करके देख लिए, पर अब (इस जन्म) की तरह मैं कभी सुखी नहीं हुआ। हे नाथ!
मुझे बहुत-से जन्मों की याद है। (क्योंकि) शिव की कृपा से मेरी बुद्धि को मोह ने
नहीं घेरा।
दो० - प्रथम
जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद
रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस॥ 96(क)॥
हे पक्षीराज!
सुनिए,
अब मैं अपने प्रथम जन्म के चरित्र कहता हूँ,
जिन्हें सुनकर प्रभु के चरणों में प्रीति उत्पन्न होती है,
जिससे सब क्लेश मिट जाते हैं॥ 96(क)॥
पूरुब कल्प एक
प्रभु जुग कलिजुग मल मूल।
नर अरु नारि
अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल॥ 96(ख)॥
हे प्रभो!
पूर्व के एक कल्प में पापों का मूल युग कलियुग था, जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्मपरायण और वेद के विरोधी
थे॥ 96(ख)॥
तेहिं कलिजुग
कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई॥
सिव सेवक मन
क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी॥
उस कलियुग में
मैं अयोध्यापुरी में जाकर शूद्र का शरीर पाकर जन्मा। मैं मन,
वचन और कर्म से शिव का सेवक और दूसरे देवताओं की निंदा
करनेवाला अभिमानी था।
धन मद मत्त
परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला॥
जदपि रहेउँ
रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी॥
मैं धन के मद
से मतवाला, बहुत ही बकवादी और उग्रबुद्धिवाला था; मेरे हृदय में बड़ा भारी दंभ था। यद्यपि मैं रघुनाथ की
राजधानी में रहता था, तथापि मैंने उस समय उसकी महिमा कुछ भी नहीं जानी।
अब जाना मैं
अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा॥
कवनेहुँ जन्म
अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई॥
अब मैंने अवध
का प्रभाव जाना। वेद, शास्त्र और पुराणों ने ऐसा गाया है कि किसी भी जन्म में जो
कोई भी अयोध्या में बस जाता है, वह अवश्य ही राम-परायण हो जाएगा।
अवध प्रभाव
जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी॥
सो कलिकाल
कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी॥
अवध का प्रभाव
जीव तभी जानता है, जब हाथ में धनुष धारण करनेवाले राम उसके हृदय में निवास
करते हैं। हे गरुड़! वह कलिकाल बड़ा कठिन था। उसमें सभी नर-नारी पापपरायण (पापों
में लिप्त) थे।
दो० - कलिमल
ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज
मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥ 97(क)॥
कलियुग के
पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दंभियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत-से पंथ
प्रकट कर दिए॥ 97(क)॥
भए लोग सब
मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान
ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म॥ 97(ख)॥
सभी लोग मोह
के वश हो गए, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भंडार! हे हरि के वाहन! सुनिए,
अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ॥ 97(ख)॥
बरन धर्म नहिं
आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति
बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥
कलियुग में न
वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में
लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचनेवाले और राजा प्रजा को खा डालनेवाले होते
हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता।
मारग सोइ जा
कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ
रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥
जिसको जो
अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो
दंभ में रत है, उसी को सब कोई संत कहते हैं।
सोइ सयान जो
परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ
मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥
जो (जिस किसी
प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है,
वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना
जानता है,
कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है।
निराचार जो
श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु
जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥
जो आचारहीन है
और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान है। जिसके
बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है।
दो० - असुभ
बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ
सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥ 98(क)॥
जो अमंगल वेष
और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-अभक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब
कुछ खा लेते हैं, वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥ 98(क)॥
सो० - जे
अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन
लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥ 98(ख)॥
जिनके आचरण
दूसरों का अपकार (अहित) करनेवाले हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते
हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकनेवाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥ 98(ख)॥
नारि बिबस नर
सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र
द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना॥
हे गोसाईं!
सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह (उनके नचाए)
नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर
कुत्सित दान लेते हैं।
सब नर काम लोभ
रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥
गुन मंदिर
सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥
सभी पुरुष काम
और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों
के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं।
सौभागिनीं
बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥
गुर सिष बधिर
अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥
सुहागिनी
स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु
में बहरे और अंधे का-सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं,
एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि प्राप्त नहीं है)।
हरइ सिष्य धन
सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता
बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥
जो गुरु शिष्य
का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही
धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे।
दो० - ब्रह्म
ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि
लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥ 99(क)॥
स्त्री-पुरुष
ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिए ब्राह्मण और
गुरु की हत्या कर डालते हैं॥ 99(क)॥
बादहिं सूद्र
द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म
सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥ 99(ख)॥
शूद्र
ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं?
जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर)
वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥ 99(ख)॥
पर त्रिय लंपट
कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने॥
तेइ अभेदबादी
ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥
जो पराई
स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं,
वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बतानेवाले)
ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा।
आपु गए अरु
तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि
एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥
वे स्वयं तो
नष्ट हुए ही रहते हैं; जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं,
उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा
करते हैं,
वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं।
जे बरनाधम
तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।
नारि मुई गृह
संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥
तेली,
कुम्हार, चांडाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं,
स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर
मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं।
ते बिप्रन्ह
सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर
लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥
वे अपने को
ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण
अपढ़,
लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी
होते हैं।
सूद्र करहिं
जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित
करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥
शूद्र नाना
प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब
मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता।
दो० - भए बरन
संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप
पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥ 100(क)॥
कलियुग में सब
लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख,
भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥ 100(क)॥
श्रुति संमत
हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं
नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥ 100(ख)॥
वेद सम्मत तथा
वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की
कल्पना करते हैं॥ 100(ख)॥
छं० - बहु दाम
सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत
दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥
संन्यासी बहुत
धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ
दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती।
कुलवंति
निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं
मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥
कुलवती और सती
स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला
रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं,
जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पड़ता।
ससुरारि पिआरि
लगी जब तें। रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन
धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥
जब से ससुराल
प्यारी लगने लगी, तब से कुटुंबी शत्रुरूप हो गए। राजा लोग पापपरायण हो गए,
उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना अपराध)
दंड देकर उसकी विडंबना (दुर्दशा) किया करते हैं।
धनवंत कुलीन
मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान
पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥
धनी लोग मलिन
(नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया
और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते,
कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं।
कबि बृंद उदार
दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं
बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥
कवियों के तो
झुंड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का आश्रयदाता) सुनाई नहीं पड़ता। गुण में दोष
लगानेवाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं।
अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते हैं।
दो० - सुनु
खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह
मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥ 101(क)॥
हे पक्षीराज
गरुड़! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दंभ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्मांडभर में व्याप्त हो गए (छा
गए)॥ 101(क)॥
तामस धर्म
करिहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं
धरनी बए न जामहिं धान॥ 101(ख)॥
मनुष्य जप,
तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इंद्र)
पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥ 101(ख)॥
छं० - अबला कच
भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं
मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥
स्त्रियों के
बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है
(अर्थात वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के
कारण दुःखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर
है,
उनमें कोमलता नहीं है।
नर पीड़ित रोग
न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारन हीं॥
लघु जीवन
संबदु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा॥
मनुष्य रोगों
से पीड़ित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष
का थोड़ा-सा जीवन है, परंतु घमंड ऐसा है मानो कल्पांत (प्रलय) होने पर भी उनका
नाश नहीं होगा।
कलिकाल बिहाल
किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष
बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता॥
कलिकाल ने
मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता।
(लोगों में) न संतोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति,
कुजाति सभी लोग भीख माँगनेवाले हो गए।
इरिषा
परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग
बिसोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥
ईर्ष्या (डाह),
कड़वे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं,
समता चली गई। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं।
वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो गए।
दम दान दया
नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी॥
तनु पोषक नारि
नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे॥
इंद्रियों का
दमन,
दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। मूर्खता और दूसरों को
ठगना यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते
हैं। जो पराई निंदा करनेवाले हैं, जगत में वे ही फैले हैं।
दो० - सुनु
ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत
कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥ 102(क)॥
हे सर्पों के
शत्रु गरुड़! सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है। किंतु कलियुग में एक गुण
भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से छुटकारा मिल जाता है॥ 102(क)॥
कृतजुग
त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो
कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥ 102(ख)॥
सत्ययुग,
त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा,
यज्ञ और योग से प्राप्त होती है,
वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान के नाम से पा जाते हैं॥ 102(ख)॥
कृतजुग सब
जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध
जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥
सत्ययुग में
सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते
हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को
समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं।
द्वापर करि
रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल
हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥
द्वापर में
रघुनाथ के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं,
दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल हरि की
गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं।
कलिजुग जोग न
जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि
जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥
कलियुग में न
तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। राम का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे
भरोसे त्यागकर जो राम को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,
सोइ भव तर कछु
संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक
पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥
वही भवसागर से
तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का
एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं,
पर (मानसिक) पाप नहीं होते।
दो० - कलिजुग
सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन
गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥ 103(क)॥
यदि मनुष्य
विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। (क्योंकि) इस युग में राम के निर्मल
गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥ 103(क)॥
प्रगट चारि पद
धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि
दीन्हें दान करइ कल्यान॥ 103(ख)॥
धर्म के चार
चरण (सत्य, दया,
तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दानरूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी
प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है॥ 103(ख)॥
नित जुग धर्म
होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व
समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥
राम की माया
से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध
सत्त्वगुण, समता,
विज्ञान और मन का प्रसन्न होना,
इसे सत्ययुग का प्रभाव जानें।
सत्व बहुत रज
कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प
सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥
सत्त्वगुण
अधिक हो,
कुछ रजोगुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो,
सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष और भय हो, यह द्वापर का धर्म है।
तामस बहुत
रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म
जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥
तमोगुण बहुत
हो,
रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर-विरोध हो, यह कलियुग का प्रभाव है। पंडित लोग युगों के धर्म को मन में
जान (पहचान) कर, अधर्म छोड़कर धर्म में प्रीति करते हैं।
काल धर्म नहिं
ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट
कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥
जिसका रघुनाथ
के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट
(बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट
(दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जँभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती।
दो० - हरि
माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि
काम सब अस बिचारि मन माहिं॥ 104(क)॥
हरि की माया
के द्वारा रचे हुए दोष और गुण हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर,
सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से) राम का भजन करना
चाहिए॥ 104(क)॥
तेहिं कलिकाल
बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल
बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥ 104(ख)॥
हे पक्षीराज!
उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षों तक अयोध्या में रहा। एक बार वहाँ अकाल पड़ा,
तब मैं विपत्ति का मारा विदेश चला गया॥ 104(ख)॥
गयउँ उजेनी
सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥
गएँ काल कछु
संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई॥
हे सर्पों के
शत्रु गरुड़! सुनिए, मैं दीन, मलिन (उदास), दरिद्र और दुःखी होकर उज्जैन गया। कुछ काल बीतने पर कुछ
संपत्ति पाकर फिर मैं वहीं भगवान शंकर की आराधना करने लगा।
बिप्र एक
बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा॥
परम साधु
परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक॥
एक ब्राह्मण
वेदविधि से सदा शिव की पूजा करते, उन्हें दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थ के
ज्ञाता थे, वे शंभु के उपासक थे, पर हरि की निंदा करनेवाले न थे।
तेहि सेवउँ
मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता॥
बाहिज नम्र
देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं॥
मैं कपटपूर्वक
उनकी सेवा करता। ब्राह्मण बड़े ही दयालु और नीति के घर थे। हे स्वामी! बाहर से
नम्र देखकर ब्राह्मण मुझे पुत्र की भाँति मानकर पढ़ाते थे।
संभु मंत्र
मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिधि बिधि कीन्हा॥
जपउँ मंत्र
सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई॥
उन ब्राह्मण
श्रेष्ठ ने मुझको शिव का मंत्र दिया और अनेकों प्रकार के शुभ उपदेश किए। मैं शिव
के मंदिर में जाकर मंत्र जपता। मेरे हृदय में दंभ और अहंकार बढ़ गया।
दो० - मैं खल
मल संकुल मति नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज
देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह॥ 105(क)॥
मैं दुष्ट,
नीच जाति और पापमयी मलिन बुद्धिवाला मोहवश हरि के भक्तों और
द्विजों को देखते ही जल उठता और विष्णु भगवान से द्रोह करता था॥ 105(क)॥
सो० - गुर नित
मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजइ अति
क्रोध दंभिहि नीति कि भावई॥ 105(ख)॥
गुरु मेरे
आचरण देखकर दुखित थे। वे मुझे नित्य ही भली-भाँति समझाते,
पर (मैं कुछ भी नहीं समझता), उलटे मुझे अत्यंत क्रोध उत्पन्न होता। दंभी को कभी नीति
अच्छी लगती है?॥ 105(ख)॥
एक बार गुर
लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥
सिव सेवा कर
फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥
एक बार गुरु
ने मुझे बुला लिया और बहुत प्रकार से (परमार्थ) नीति की शिक्षा दी कि हे पुत्र!
शिव की सेवा का फल यही है कि राम के चरणों में प्रगाढ़ भक्ति हो।
रामहि भजहिं
तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता॥
जासु चरन अज
सिव अनुरागी। तासु द्रोहँ सुख चहसि अभागी॥
हे तात! शिव
और ब्रह्मा भी राम को भजते हैं (फिर) नीच मनुष्य की तो बात ही कितनी है?
ब्रह्मा और शिव जिनके चरणों के प्रेमी हैं,
अरे अभागे! उनसे द्रोह करके तू सुख चाहता है?
हर कहुँ हरि
सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ॥
अधम जाति मैं
बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ॥
गुरु ने शिव
को हरि का सेवक कहा। यह सुनकर हे पक्षीराज! मेरा हृदय जल उठा। नीच जाति का मैं
विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध पिलाने से साँप।
मानी कुटिल
कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती॥
अति दयाल गुर
स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा॥
अभिमानी,
कुटिल, दुर्भाग्य और कुजाति मैं दिन-रात गुरु से द्रोह करता। गुरु
अत्यंत दयालु थे, उनको थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं आता। (मेरे द्रोह करने पर भी)
वे बार-बार मुझे उत्तम ज्ञान की ही शिक्षा देते थे।
जेहि ते नीच
बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा॥
धूम अनल संभव
सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई॥
नीच मनुष्य
जिससे बड़ाई पाता है, वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी का नाश करता है। हे भाई!
सुनिए,
आग से उत्पन्न हुआ धुआँ मेघ की पदवी पाकर उसी अग्नि को बुझा
देता है।
रज मग परी
निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई॥
मरुत उड़ाव
प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई॥
धूल रास्ते
में निरादर से पड़ी रहती है और सदा सब (राह चलने वालों) की लातों की मार सहती है।
पर जब पवन उसे उड़ाता (ऊँचा उठाता) है, तो सबसे पहले वह उसी (पवन) को भर देती है और फिर राजाओं के
नेत्रों और किरीटों (मुकुटों) पर पड़ती है।
सुनु खगपति अस
समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा॥
कबि कोबिद
गावहिं असि नीति। खल सन कलह न भल नहिं प्रीति॥
हे पक्षीराज
गरुड़! सुनिए, ऐसी बात समझकर बुद्धिमान लोग अधम (नीच) का संग नहीं करते। कवि और पंडित ऐसी
नीति कहते हैं कि दुष्ट से न कलह ही अच्छा है, न प्रेम ही।
उदासीन नित
रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं॥
मैं खल हृदयँ
कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई॥
हे गोसाईं!
उससे तो सदा उदासीन ही रहना चाहिए। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग देना
चाहिए। मैं दुष्ट था, हृदय में कपट और कुटिलता भरी थी। (इसलिए यद्यपि) गुरु हित
की बात कहते थे, पर मुझे वह सुहाती न थी।
दो० - एक बार
हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ
अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम॥ 106(क)॥
एक दिन मैं
शिव के मंदिर में शिवनाम जप रहा था। उसी समय गुरु वहाँ आए,
पर अभिमान के मारे मैंने उठकर उनको प्रणाम नहीं किया॥ 106(क)॥
सो दयाल नहिं
कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।
अति अघ गुर
अपमानता सहि नहिं सके महेस॥ 106(ख)॥
गुरु दयालु थे,
(मेरा दोष देखकर भी)
उन्होंने कुछ नहीं कहा; उनके हृदय में लेशमात्र भी क्रोध नहीं हुआ। पर गुरु का
अपमान बहुत बड़ा पाप है; अतः महादेव उसे नहीं सह सके॥ 106(ख)॥
मंदिर माझ भई
नभबानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी॥
जद्यपि तव गुर
के नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा॥
मंदिर में
आकाशवाणी हुई कि अरे हतभाग्य! मूर्ख! अभिमानी! यद्यपि तेरे गुरु को क्रोध नहीं है,
वे अत्यंत कृपालु चित्त के हैं और उन्हें (पूर्ण तथा)
यथार्थ ज्ञान है,
तदपि साप सठ
दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही॥
जौं नहिं दंड
करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा॥
तो भी हे
मूर्ख! तुझको मैं शाप दूँगा; (क्योंकि) नीति का विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता। अरे दुष्ट!
यदि मैं तुझे दंड न दूँ, तो मेरा वेदमार्ग ही भ्रष्ट हो जाए।
जे सठ गुर सन
इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥
त्रिजग जोनि
पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥
जो मूर्ख गुरु
से ईर्ष्या करते हैं, वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक में पड़े रहते हैं। फिर (वहाँ
से निकलकर) वे तिर्यक (पशु, पक्षी आदि) योनियों में शरीर धारण करते हैं और दस हजार
जन्मों तक दुःख पाते रहते हैं।
बैठि रहेसि
अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी॥
महा बिटप कोटर
महुँ जाई। रहु अधमाधम अधगति पाई॥
अरे पापी! तू
गुरु के सामने अजगर की भाँति बैठा रहा। रे दुष्ट! तेरी बुद्धि पाप से ढँक गई है,
(अतः) तू सर्प हो जा और अरे
अधम से भी अधम! इस अधोगति (सर्प की नीची योनि) को पाकर किसी बड़े भारी पेड़ के
खोखले में जाकर रह।
दो० - हाहाकार
कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।
कंपित मोहि
बिलोकि अति उर उपजा परिताप॥ 107(क)॥
शिव का भयानक
शाप सुनकर गुरु ने हाहाकार किया। मुझे काँपता हुआ देखकर उनके हृदय में बड़ा संताप
उत्पन्न हुआ॥ 107(क)॥
करि दंडवत
सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद
स्वर समुझि घोर गति मोरि॥ 107(ख)॥
प्रेम सहित
दंडवत करके वे ब्राह्मण शिव के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गति (दंड) का विचार कर
गदगद वाणी से विनती करने लगे - ॥ 107(ख)॥
छं० -
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं
निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥
हे
मोक्षस्वरूप, विभु,
व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी शिव! मैं आपको नमस्कार
करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात मायादिरहित), (मायिक) गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करनेवाले
दिगंबर (अथवा आकाश को भी आच्छादित करनेवाले) आपको मैं भजता हूँ।
निराकारमोंकारमूलं
तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल
कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥
निराकार,
ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इंद्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।
तुषाराद्रि
संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥
स्फुरन्मौलि
कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥
जो हिमाचल के
समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है,
जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगा विराजमान हैं,
जिनके ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित
है।
चलत्कुण्डलं
भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं
मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥
जिनके कानों
में कुंडल हिल रहे हैं, सुंदर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं;
जो प्रसन्नमुख, नीलकंठ और दयालु हैं; सिंह चर्म का वस्त्र धारण किए और मुंडमाला पहने हैं;
उन सबके प्यारे और सबके नाथ (कल्याण करनेवाले) शंकर को मैं
भजता हूँ।
प्रचंडं
प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयः शूल
निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥
प्रचंड
(रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखंड,
अजन्मे, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले,
तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करनेवाले,
हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी के पति शंकर
को मैं भजता हूँ।
कलातीत कल्याण
कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानंददाता पुरारी॥
चिदानंद संदोह
मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥
कलाओं से परे,
कल्याणस्वरूप, कल्प का अंत (प्रलय) करनेवाले,
सज्जनों को सदा आनंद देनेवाले,
त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानंदघन, मोह को हरनेवाले, मन को मथ डालनेवाले कामदेव के शत्रु,
हे प्रभो! प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए।
न यावद्
उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं
शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥
जब तक पार्वती
के पति आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है
और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास
करनेवाले हे प्रभो! प्रसन्न होइए।
न जानामि योगं
जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म
दुःखोद्य तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥
मैं न तो योग
जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शंभो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे
प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म (मृत्यु) के दुःखसमूहों से जलते हुए मुझ दुःखी की दुःख से
रक्षा कीजिए। हे ईश्वर! हे शंभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
श्लोक -
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा
भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥
भगवान रुद्र
की स्तुति का यह अष्टक उन शंकर की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा
गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान शंभु प्रसन्न होते हैं।
दो० - सुनि
बिनती सर्बग्य सिव देखि बिप्र अनुरागु।
पुनि मंदिर
नभबानी भइ द्विजबर बर मागु॥ 108(क)॥
सर्वज्ञ शिव
ने विनती सुनी और ब्राह्मण का प्रेम देखा। तब मंदिर में आकाशवाणी हुई कि हे
द्विजश्रेष्ठ! वर माँगो॥ 108(क)॥
जौं प्रसन्न
प्रभो मो पर नाथ दीन पर नेहु।
निज पद भगति
देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु॥ 108(ख)॥
(ब्राह्मण ने कहा -) हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और हे नाथ! यदि इस
दीन पर आपका स्नेह है, तो पहले अपने चरणों की भक्ति देकर फिर दूसरा वर दीजिए॥ 108(ख)॥
तव माया बस
जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।
तेहि पर क्रोध
न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान॥ 108(ग)॥
हे प्रभो! यह
अज्ञानी जीव आपकी माया के वश होकर निरंतर भूला फिरता है। हे कृपा के समुद्र भगवान!
उस पर क्रोध न कीजिए॥ 108(ग)॥
संकर दीनदयाल
अब एहि पर होहु कृपाल।
साप अनुग्रह
होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल॥ 108(घ)॥
हे दीनों पर
दया करनेवाले (कल्याणकारी) शंकर! अब इस पर कृपालु होइए (कृपा कीजिए),
जिससे हे नाथ! थोड़े ही समय में इस पर शाप के बाद अनुग्रह
(शाप से मुक्ति) हो जाए॥ 108(घ)॥
एहि कर होइ
परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना॥
बिप्र गिरा
सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी॥
हे कृपानिधान!
अब वही कीजिए, जिससे इसका परम कल्याण हो। दूसरे के हित से सनी हुई ब्राह्मण की वाणी सुनकर
फिर आकाशवाणी हुई - 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो)।
जदपि कीन्ह
एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्हि कोप करि सापा॥
तदपि तुम्हारि
साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥
यद्यपि इसने
भयानक पाप किया है और मैंने भी इसे क्रोध करके शाप दिया है,
तो भी तुम्हारी साधुता देखकर मैं इस पर विशेष कृपा करूँगा।
छमासील जे पर
उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी॥
मोर श्राप
द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि॥
हे द्विज! जो
क्षमाशील एवं परोपकारी होते हैं, वे मुझे वैसे ही प्रिय हैं जैसे खरारि राम। हे द्विज! मेरा
शाप व्यर्थ नहीं जाएगा। यह हजार जन्म अवश्य पाएगा।
जनमत मरत दुसह
दुख होई। एहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई॥
कवनेउँ जन्म
मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना॥
परंतु जन्मने
और मरने में जो दुःसह दुःख होता है, इसको वह दुःख जरा भी न व्यापेगा और किसी भी जन्म में इसका
ज्ञान नहीं मिटेगा। हे शूद्र! मेरा प्रामाणिक (सत्य) वचन सुन।
रघुपति पुरीं
जन्म तव भयऊ। पुनि मैं मम सेवाँ मन दयऊ॥
पुरी प्रभाव
अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें॥
(प्रथम तो) तेरा जन्म रघुनाथ की पुरी में हुआ। फिर तूने मेरी सेवा में मन
लगाया। पुरी के प्रभाव और मेरी कृपा से तेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न होगी।
सुनु मम बचन
सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई॥
अब जनि करहि
बिप्र अपमाना। जानेसु संत अनंत समाना॥
हे भाई! अब
मेरा सत्य वचन सुन। द्विजों की सेवा ही भगवान को प्रसन्न करनेवाला व्रत है। अब कभी
ब्राह्मण का अपमान न करना। संतों को अनंत भगवान ही के समान जानना।
इंद्र कुलिस
मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला॥
जो इन्ह कर
मारा नहिं मरई। बिप्र द्रोह पावक सो जरई॥
इंद्र के वज्र,
मेरे विशाल त्रिशूल, काल के दंड और हरि के विकराल चक्र के मारे भी जो नहीं मरता,
वह भी विप्रद्रोहरूपी अग्नि से भस्म हो जाता है।
अस बिबेक
राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
औरउ एक आसिषा
मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी॥
ऐसा विवेक मन
में रखना। फिर तुम्हारे लिए जगत में कुछ भी दुर्लभ न होगा। मेरा एक और भी आशीर्वाद
है कि तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी (अर्थात तुम जहाँ जाना चाहोगे,
वहीं बिना रोक-टोक के जा सकोगे)।
दो० - सुनि
सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि।
मोहि प्रबोधि
गयउ गृह संभु चरन उर राखि॥ 109(क)॥
(आकाशवाणी के द्वारा) शिव के वचन सुनकर गुरु हर्षित होकर 'ऐसा ही हो' यह कहकर मुझे बहुत समझाकर और शिव के चरणों को हृदय में रखकर
अपने घर गए॥ 109(क)॥
प्रेरित काल
बिंधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल।
पुनि प्रयास
बिनु सो तनु तजेउँ गएँ कछु काल॥ 109(ख)॥
काल की
प्रेरणा से मैं विंध्याचल में जाकर सर्प हुआ। फिर कुछ काल बीतने पर बिना ही
परिश्रम (कष्ट) के मैंने वह शरीर त्याग दिया॥ 109(ख)॥
जोइ तनु धरउँ
तजउँ पुनि अनायास हरिजान।
जिमि नूतन पट
पहिरइ नर परिहरइ पुरान॥ 109(ग)॥
हे हरिवाहन!
मैं जो भी शरीर धारण करता, उसे बिना ही परिश्रम वैसे ही सुखपूर्वक त्याग देता था,
जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग देता है और नया पहिन लेता
है॥ 109(ग)॥
सिवँ राखी
श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस।
एहि बिधि
धरेउँ बिबिधि तनु ग्यान न गयउ खगेस॥ 109(घ)॥
शिव ने वेद की
मर्यादा की रक्षा की और मैंने क्लेश भी नहीं पाया। इस प्रकार हे पक्षीराज! मैंने
बहुत-से शरीर धारण किए, पर मेरा ज्ञान नहीं गया॥ 109(घ)॥
त्रिजग देव नर
जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ॥
एक सूल मोहि
बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ॥
तिर्यक योनि
(पशु-पक्षी), देवता या मनुष्य का, जो भी शरीर धारण करता, वहाँ-वहाँ (उस-उस शरीर में) मैं राम का भजन जारी रखता। (इस
प्रकार मैं सुखी हो गया) परंतु एक शूल मुझे बना रहा। गुरु का कोमल,
सुशील स्वभाव मुझे कभी नहीं भूलता (अर्थात मैंने ऐसे कोमल
स्वभाव दयालु गुरु का अपमान किया, यह दुःख मुझे सदा बना रहा)।
चरम देह द्विज
कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई॥
खेलउँ तहूँ
बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला॥
मैंने अंतिम
शरीर ब्राह्मण का पाया, जिसे पुराण और वेद देवताओं को भी दुर्लभ बताते हैं। मैं
वहाँ (ब्राह्मण शरीर में) भी बालकों में मिलकर खेलता तो रघुनाथ की ही सब लीलाएँ
किया करता।
प्रौढ़ भएँ
मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा॥
मन ते सकल
बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी॥
सयाना होने पर
पिता मुझे पढ़ाने लगे। मैं समझता, सुनता और विचारता, पर मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। मेरे मन से सारी वासनाएँ
भाग गईं। केवल राम के चरणों में लव लग गई।
कहु खगेस अस
कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी॥
प्रेम मगन
मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई॥
हे गरुड़!
कहिए,
ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर गधी की सेवा करेगा?
प्रेम में मग्न रहने के कारण मुझे कुछ भी नहीं सुहाता। पिता
पढ़ा-पढ़ाकर हार गए।
भए कालबस जब
पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता॥
जहँ जहँ बिपिन
मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ॥
जब पिता-माता
कालवश हो गए (मर गए), तब मैं भक्तों की रक्षा करनेवाले राम का भजन करने के लिए वन
में चला गया। वन में जहाँ-जहाँ मुनीश्वरों के आश्रम पाता,
वहाँ-वहाँ जा-जाकर उन्हें सिर नवाता।
बूझउँ तिन्हहि
राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा॥
सुनत फिरउँ
हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा॥
हे गरुड़!
उनसे मैं राम के गुणों की कथाएँ पूछता। वे कहते और मैं हर्षित होकर सुनता। इस
प्रकार मैं सदा-सर्वदा हरि के गुणानुवाद सुनता फिरता। शिव की कृपा से मेरी सर्वत्र
अबाधित गति थी (अर्थात मैं जहाँ चाहता वहीं जा सकता था)।
छूटी त्रिबिधि
ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी॥
राम चरन बारिज
जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं॥
मेरी तीनों
प्रकार की (पुत्र की, धन की और मान की) गहरी प्रबल वासनाएँ छूट गईं और हृदय में
एक यही लालसा अत्यंत बढ़ गई कि जब राम के चरणकमलों के दर्शन करूँ तब अपना जन्म सफल
हुआ समझूँ।
जेहि पूँछउँ
सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई॥
निर्गुन मत
नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई॥
जिनसे मैं
पूछता,
वे ही मुनि ऐसा कहते कि ईश्वर सर्वभूतमय है। यह निर्गुण मत
मुझे नहीं सुहाता था। हृदय में सगुण ब्रह्म पर प्रीति बढ़ रही थी।
दो० - गुर के
बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस
गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥ 110(क)॥
गुरु के वचनों
का स्मरण करके मेरा मन राम के चरणों में लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम
प्राप्त करता हुआ रघुनाथ का यश गाता फिरता था॥ 110(क)॥
मेरु सिखर बट
छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु
नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥ 110(ख)॥
सुमेरु पर्वत
के शिखर पर बड़ की छाया में लोमश मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर मैंने उनके चरणों में
सिर नवाया और अत्यंत दीन वचन कहे॥ 110(ख)॥
सुनि मम बचन
बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर
पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज॥ 110(ग)॥
हे पक्षीराज!
मेरे अत्यंत नम्र और कोमल वचन सुनकर कृपालु मुनि मुझसे आदर के साथ पूछने लगे - हे
ब्राह्मण! आप किस कार्य से यहाँ आए हैं?॥ 110(ग)॥
तब मैं कहा
कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म
अवराधन मोहि कहहु भगवान॥ 110(घ)॥
तब मैंने कहा
- हे कृपानिधि! आप सर्वज्ञ हैं और सुजान हैं। हे भगवन! मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना
(की प्रक्रिया) कहिए॥ 110(घ)॥
तब मुनीस
रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥
ब्रह्मग्यान
रत मुनि बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी॥
तब हे
पक्षीराज! मुनीश्वर ने रघुनाथ के गुणों की कुछ कथाएँ आदर सहित कहीं। फिर वे
ब्रह्मज्ञानपरायण विज्ञानवान मुनि मुझे परम अधिकारी जानकर -
लागे करन
ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वैत अगुन हृदयेसा॥
अकल अनीह अनाम
अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा॥
ब्रह्म का
उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है, निर्गुण है और हृदय का स्वामी (अंतर्यामी) है। उसे कोई
बुद्धि के द्वारा माप नहीं सकता, वह इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित, अनुभव से जानने योग्य, अखंड और उपमारहित है।
मन गोतीत अमल
अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी॥
सो तैं ताहि
तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा॥
वह मन और
इंद्रियों से परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार, सीमारहित और सुख की राशि है। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है,
(तत्त्वमसि),
जल और जल की लहर की भाँति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है।
बिबिधि भाँति
मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा॥
पुनि मैं
कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥
मुनि ने मुझे
अनेकों प्रकार से समझाया, पर निर्गुण मत मेरे हृदय में नहीं बैठा। मैंने फिर मुनि के
चरणों में सिर नवाकर कहा - हे मुनीश्वर! मुझे सगुण ब्रह्म की उपासना कहिए।
राम भगति जल
मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना॥
सोइ उपदेस
कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥
मेरा मन
रामभक्तिरूपी जल में मछली हो रहा है (उसी में रम रहा है)। हे चतुर मुनीश्वर! ऐसी
दशा में वह उससे अलग कैसे हो सकता है? आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिए जिससे मैं रघुनाथ
को अपनी आँखों से देख सकूँ।
भरि लोचन
बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा॥
मुनि पुनि कहि
हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा॥
(पहले) नेत्र भरकर अयोध्यानाथ को देखकर, तब निर्गुण का उपदेश सुनूँगा। मुनि ने फिर अनुपम हरिकथा
कहकर,
सगुण मत का खंडन करके निर्गुण का निरूपण किया।
तब मैं
निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥
उत्तर
प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥
तब मैं
निर्गुण मत को हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुण का निरूपण करने लगा। मैंने
उत्तर-प्रत्युत्तर किया, इससे मुनि के शरीर में क्रोध के चिह्न उत्पन्न हो गए।
सुनु प्रभु बहुत
अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ॥
अति संघरषन
जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई॥
हे प्रभो!
सुनिए,
बहुत अपमान करने पर ज्ञानी के भी हृदय में क्रोध उत्पन्न हो
जाता है। यदि कोई चंदन की लकड़ी को बहुत अधिक रग़ड़े,
तो उससे भी अग्नि प्रकट हो जाएगी।
दो० - बारंबार
सकोप मुनि करइ निरूपन ग्यान।
मैं अपनें मन
बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान॥ 111(क)॥
मुनि बार-बार
क्रोध सहित ज्ञान का निरूपण करने लगे। तब मैं बैठा-बैठा अपने मन में अनेकों प्रकार
के अनुमान करने लगा॥ 111(क)॥
क्रोध कि
द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस
परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥ 111(ख)॥
बिना
द्वैतबुद्धि के क्रोध कैसा और बिना अज्ञान के क्या द्वैतबुद्धि हो सकती है?
माया के वश रहनेवाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या ईश्वर के समान
हो सकता है?॥ 111(ख)॥
कबहुँ कि दुःख
सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें॥
परद्रोही की
होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका॥
सबका हित
चाहने से क्या कभी दुःख हो सकता है? जिसके पास पारसमणि है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है?
दूसरे से द्रोह करनेवाले क्या निर्भय हो सकते हैं और कामी
क्या कलंकरहित (बेदाग) रह सकते हैं?
बंस कि रह
द्विज अनहित कीन्हें। कर्म की होहिं स्वरूपहि चीन्हें॥
काहू सुमति कि
खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥
ब्राह्मण का
बुरा करने से क्या वंश रह सकता है? स्वरूप की पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या (आसक्तिपूर्वक)
कर्म हो सकते हैं? दुष्टों के संग से क्या किसी के सुबुद्धि उत्पन्न हुई है?
परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है?
भव कि परहिं
परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरि निंदक॥
राजु कि रहइ
नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥
परमात्मा को
जाननेवाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड़ सकते हैं?
भगवान की निंदा करनेवाले कभी सुखी हो सकते हैं?
नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है?
हरि के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते हैं?
पावन जस कि
पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई॥
लाभु कि किछु
हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना॥
बिना पुण्य के
क्या पवित्र यश (प्राप्त) हो सकता है? बिना पाप के भी क्या कोई अपयश पा सकता है?
जिसकी महिमा वेद, संत और पुराण गाते हैं और उस हरि-भक्ति के समान क्या कोई
दूसरा लाभ भी है?
हानि कि जग
एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई॥
अघ कि पिसुनता
सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना॥
हे भाई! जगत
में क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि मनुष्य का शरीर पाकर भी राम का भजन न
किया जाए?
चुगलखोरी के समान क्या कोई दूसरा पाप है?
और हे गरुड़! दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म है?
एहि बिधि
अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनउँ॥
पुनि पुनि
सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥
इस प्रकार मैं
अनगिनत युक्तियाँ मन में विचारता था और आदर के साथ मुनि का उपदेश नहीं सुनता था।
जब मैंने बार-बार सगुण का पक्ष स्थापित किया, तब मुनि क्रोधयुक्त वचन बोले -
मूढ़ परम सिख
देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥
सत्य बचन
बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही॥
अरे मूढ़! मैं
तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ, तो भी तू उसे नहीं मानता और बहुत-से उत्तर-प्रत्युत्तर
(दलीलें) लाकर रखता है। मेरे सत्य वचन पर विश्वास नहीं करता। कौए की भाँति सभी से
डरता है।
सठ स्वपच्छ तव
हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला॥
लीन्ह श्राप
मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई॥
अरे मूर्ख!
तेरे हृदय में अपने पक्ष का बड़ा भारी हठ है, अतः तू शीघ्र चांडाल पक्षी (कौवा) हो जा। मैंने आनंद के साथ
मुनि के शाप को सिर पर चढ़ा लिया। उससे मुझे न कुछ भय हुआ,
न दीनता ही आई।
दो० - तुरत
भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।
सुमिरि राम
रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ॥ 112(क)॥
तब मैं तुरंत
ही कौवा हो गया। फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर और रघुकुल शिरोमणि राम का स्मरण
करके मैं हर्षित होकर उड़ चला॥ 112(क)॥
उमा जे राम
चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय
देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥ 112(ख)॥
(शिव कहते हैं -) हे उमा! जो राम के चरणों के प्रेमी हैं और काम,
अभिमान तथा क्रोध से रहित हैं,
वे जगत को अपने प्रभु से भरा हुआ देखते हैं,
फिर वे किससे वैर करें॥ 112(ख)॥
सुनु खगेस
नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन॥
कृपासिंधु
मुनि मति करि भोरी। लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी॥
(काकभुशुंडि ने कहा -) हे पक्षीराज गरुड़! सुनिए, इसमें ऋषि का कुछ भी दोष नहीं था। रघुवंश के विभूषण राम ही
सबके हृदय में प्रेरणा करनेवाले हैं। कृपा-सागर प्रभु ने मुनि की बुद्धि को भोली
करके (भुलावा देकर) मेरे प्रेम की परीक्षा ली।
मन बच क्रम
मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना॥
रिषि मम महत
सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी॥
मन,
वचन और कर्म से जब प्रभु ने मुझे अपना दास जान लिया,
तब भगवान ने मुनि की बुद्धि फिर पलट दी। ऋषि ने मेरा महान
पुरुषों का-सा स्वभाव (धैर्य, अक्रोध, विनय आदि) और राम के चरणों में विशेष विश्वास देखा,
अति बिसमय
पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई॥
मम परितोष
बिबिधि बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा॥
तब मुनि ने
बहुत दुःख के साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपूर्वक बुला लिया। उन्होंने अनेकों
प्रकार से मेरा संतोष किया और तब हर्षित होकर मुझे राममंत्र दिया।
बालकरूप राम
कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥
सुंदर सुखद
मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥
कृपानिधान
मुनि ने मुझे बालक रूप राम का ध्यान (ध्यान की विधि) बतलाया। सुंदर और सुख
देनेवाला यह ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वह ध्यान मैं आपको पहले ही सुना चुका
हूँ।
मुनि मोहि
कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा॥
सादर मोहि यह
कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई॥
मुनि ने कुछ
समय तक मुझको वहाँ (अपने पास) रखा। तब उन्होंने रामचरितमानस सुनाया। आदरपूर्वक
मुझे यह कथा सुनाकर फिर मुनि मुझसे सुंदर वाणी बोले -
रामचरित सर
गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा॥
तोहि निज भगत
राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी॥
हे तात! यह
सुंदर और गुप्त रामचरितमानस मैंने शिव की कृपा से पाया था। तुम्हें राम का 'निज भक्त' जाना, इसी से मैंने तुमसे सब चरित्र विस्तार के साथ कहा।
राम भगति
जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं॥
मुनि मोहि
बिबिधि भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा॥
हे तात! जिनके
हृदय में राम की भक्ति नहीं है, उनके सामने इसे कभी भी नहीं कहना चाहिए। मुनि ने मुझे बहुत
प्रकार से समझाया। तब मैंने प्रेम के साथ मुनि के चरणों में सिर नवाया।
निज कर कमल
परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा॥
राम भगति
अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें॥
मुनीश्वर ने
अपने करकमलों से मेरा सिर स्पर्श करके हर्षित होकर आशीर्वाद दिया कि अब मेरी कृपा
से तेरे हृदय में सदा प्रगाढ़ राम भक्ति बसेगी।
दो० - सदा राम
प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप
इच्छामरन ग्यान बिराग निधान॥ 113(क)॥
तुम सदा राम
को प्रिय होओ और कल्याण रूप गुणों के धाम, मानरहित, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ,
इच्छा मृत्यु (जिसकी शरीर छोड़ने की इच्छा करने पर ही
मृत्यु हो, बिना इच्छा के मृत्यु न हो), एवं ज्ञान और वैराग्य के भंडार होओ॥ 113(क)॥
जेहिं आश्रम
तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ
न अबिद्या जोजन एक प्रजंत॥ 113(ख)॥
इतना ही नहीं,
श्री भगवान को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम में निवास
करोगे वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या (माया-मोह) नहीं व्यापेगी॥ 113(ख)॥
काल कर्म गुन
दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ॥
राम रहस्य
ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना॥
काल,
कर्म, गुण, दोष और स्वभाव से उत्पन्न कुछ भी दुःख तुमको कभी नहीं
व्यापेगा। अनेकों प्रकार के सुंदर राम के रहस्य (गुप्त मर्म के चरित्र और गुण),
जो इतिहास और पुराणों में गुप्त और प्रकट हैं (वर्णित और
लक्षित हैं)।
बिनु श्रम
तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ॥
जो इच्छा
करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥
तुम उन सबको
भी बिना ही परिश्रम जान जाओगे। राम के चरणों में तुम्हारा नित्य नया प्रेम हो।
अपने मन में तुम जो कुछ इच्छा करोगे, हरि की कृपा से उसकी पूर्ति कुछ भी दुर्लभ नहीं होगी।
सुनि मुनि
आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा॥
एवमस्तु तव बच
मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी॥
हे धीरबुद्धि
गरुड़! सुनिए, मुनि का आशीर्वाद सुनकर आकाश में गंभीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानी मुनि!
तुम्हारा वचन ऐसा ही (सत्य) हो। यह कर्म, मन और वचन से मेरा भक्त है।
सुनि नभगिरा
हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ॥
करि बिनती
मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई॥
आकाशवाणी
सुनकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मैं प्रेम में मग्न हो गया और मेरा सब संदेह जाता रहा।
तदनंतर मुनि की विनती करके, आज्ञा पाकर और उनके चरणकमलों में बार-बार सिर नवाकर -
हरष सहित एहिं
आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ॥
इहाँ बसत मोहि
सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा॥
मैं हर्ष सहित
इस आश्रम में आया। प्रभु राम की कृपा से मैंने दुर्लभ वर पा लिया। हे पक्षीराज!
मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प बीत गए।
करउँ सदा
रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना॥
जब जब
अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा॥
मैं यहाँ सदा
रघुनाथ के गुणों का गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं।
अयोध्यापुरी में जब-जब रघुवीर भक्तों के (हित के) लिए मनुष्य शरीर धारण करते हैं,
तब तब जाइ राम
पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ॥
पुनि उर राखि
राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा॥
तब-तब मैं
जाकर राम की नगरी में रहता हूँ और प्रभु की शिशुलीला देखकर सुख प्राप्त करता हूँ।
फिर हे पक्षीराज! राम के शिशु रूप को हृदय में रखकर मैं अपने आश्रम में आ जाता
हूँ।
कथा सकल मैं
तुम्हहि सुनाई। काग देहि जेहिं कारन पाई॥
कहिउँ तात सब
प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी॥
जिस कारण से
मैंने कौवे की देह पाई, वह सारी कथा आपको सुना दी। हे तात! मैंने आपके सब प्रश्नों
के उत्तर कहे। अहा! रामभक्ति की बड़ी भारी महिमा है।
दो० - ताते यह
तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु
दरसन पायउँ गए सकल संदेह॥ 114(क)॥
मुझे अपना यह
काक शरीर इसीलिए प्रिय है कि इसमें मुझे राम के चरणों का प्रेम प्राप्त हुआ। इसी शरीर
से मैंने अपने प्रभु के दर्शन पाए और मेरे सब संदेह जाते रहे (दूर हुए)॥ 114(क)॥
श्री राम चरित
मानस- उत्तरकांड, मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम समाप्त॥
शेष जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- उत्तरकांड मासपारायण, तीसवाँ विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस उत्तरकांड, मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम
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