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रामचरित मानस
सप्तम सोपान
(उत्तरकांड)
भगति पच्छ हठ
करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ
बर पायउँ देखहु भजन प्रताप॥ 114(ख)॥
मैं हठ करके
भक्ति पक्ष पर अड़ा रहा, जिससे महर्षि लोमश ने मुझे शाप दिया;
परंतु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुर्लभ है,
वह वरदान मैंने पाया। भजन का प्रताप तो देखिए!॥ 114(ख)॥
जे असि भगति
जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥
ते जड़
कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी॥
जो भक्ति की
ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिए श्रम (साधन) करते हैं,
वे मूर्ख घर पर खड़ी हुई कामधेनु को छोड़कर दूध के लिए मदार
के पेड़ को खोजते फिरते हैं।
सुनु खगेस हरि
भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई॥
ते सठ
महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी॥
हे पक्षीराज!
सुनिए,
जो लोग हरि की भक्ति को छोड़कर दूसरे उपायों से सुख चाहते
हैं,
वे मूर्ख और जड़ करनीवाले (अभागे) बिना ही जहाज के तैरकर महासमुद्र
के पार जाना चाहते हैं।
सुनि भसुंडि
के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी॥
तव प्रसाद
प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं॥
(शिव कहते हैं -) हे भवानी! भुशुंडि के वचन सुनकर गरुड़ हर्षित होकर कोमल वाणी
से बोले - हे प्रभो! आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब संदेह,
शोक, मोह और कुछ भी नहीं रह गया।
सुनेउँ पुनीत
राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा॥
एक बात प्रभु
पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही॥
मैंने आपकी
कृपा से राम के पवित्र गुणसमूहों को सुना और शांति प्राप्त की। हे प्रभो! अब मैं
आपसे एक बात और पूछता हूँ। हे कृपासागर! मुझे समझाकर कहिए।
कहहिं संत
मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना॥
सोइ मुनि
तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं॥
संत,
मुनि, वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ कुछ भी
नहीं है। हे गोसाईं! वही ज्ञान मुनि ने आपसे कहा, परंतु आपने भक्ति के समान उसका आदर नहीं किया।
ग्यानहि
भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥
सुनि उरगारि
बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥
हे कृपा के
धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है? यह सब मुझसे कहिए। गरुड़ के वचन सुनकर सुजान काकभुशुंडि ने
सुख माना और आदर के साथ कहा -
भगतिहि
ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥
नाथ मुनीस
कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥
भक्ति और
ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं।
हे नाथ! मुनीश्वर इनमें कुछ अंतर बतलाते हैं। हे पक्षीश्रेष्ठ! उसे सावधान होकर
सुनिए।
ग्यान बिराग
जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना॥
पुरुष प्रताप
प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती॥
हे हरि वाहन!
सुनिए;
ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान - ये सब पुरुष हैं; पुरुष का प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है। अबला (माया)
स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है।
दो० - पुरुष
त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर।
न तु कामी
बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर॥ 115(क)॥
परंतु जो
वैराग्यवान और धीरबुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को त्याग सकते हैं,
न कि वे कामी पुरुष, जो विषयों के वश में हैं (उनके गुलाम हैं) और रघुवीर के
चरणों से विमुख हैं॥ 115(क)॥
सो० - सोउ
मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ
हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट॥ 115(ख)॥
वे ज्ञान के
भंडार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चंद्रमुख को देखकर विवश (उसके अधीन) हो
जाते हैं। हे गरुड़! साक्षात भगवान विष्णु की माया ही स्त्री रूप से प्रकट है॥ 115(ख)॥
इहाँ न
पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ॥
मोह न नारि
नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा॥
यहाँ मैं कुछ
पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतों का मत (सिद्धांत) ही कहता हूँ। हे गरुड़! यह
अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती।
माया भगति
सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ॥
पुनि रघुबीरहि
भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी॥
आप सुनिए,
माया और भक्ति - ये दोनों ही स्त्री वर्ग की हैं,
यह सब कोई जानते हैं। फिर रघुवीर को भक्ति प्यारी है। माया
बेचारी तो निश्चय ही नाचनेवाली (नटिनी मात्र) है।
भगतिहि
सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया॥
राम भगति
निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी॥
रघुनाथ भक्ति
के विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया उससे अत्यंत डरती रहती है। जिसके हृदय में
उपमारहित और उपाधिरहित (विशुद्ध) रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती
है;
तेहि बिलोकि
माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई॥
अस बिचारि जे
मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी॥
उसे देखकर
माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर (चला) सकती। ऐसा विचार
कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे भी सब सुखों की खानि भक्ति की ही याचना करते हैं।
दो० - यह
रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ
रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ॥ 116(क)॥
रघुनाथ का यह
रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाता। रघुनाथ की कृपा से जो इसे जान
जाता है,
उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता॥ 116(क)॥
औरउ ग्यान
भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ
राम पद प्रीति सदा अबिछीन॥ 116(ख)॥
हे सुचतुर
गरुड़! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिए, जिसके सुनने से राम के चरणों में सदा अविच्छिन्न (एकतार)
प्रेम हो जाता है॥ 116(ख)॥
सुनहु तात यह
अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी॥
ईस्वर अंस जीव
अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥
हे तात! यह
अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिए। यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी,
चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।
सो मायाबस भयउ
गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि
ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥
हे गोसाईं !
वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने-आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़
और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई। यद्यपि वह ग्रंथि मिथ्या ही है,
तथापि उसके छूटने में कठिनता है।
तब ते जीव भयउ
संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी॥
श्रुति पुरान
बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई॥
तभी से जीव
संसारी (जन्मने-मरनेवाला) हो गया। अब न तो गाँठ छूटती है और न वह सुखी होता है।
वेदों और पुराणों ने बहुत-से उपाय बतलाए हैं, पर वह (ग्रंथि) छूटती नहीं वरन अधिकाधिक उलझती ही जाती है।
जीव हृदयँ तम
मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी॥
अस संजोग ईस
जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई॥
जीव के हृदय
में अज्ञानरूपी अंधकार विशेष रूप से छा रहा है, इससे गाँठ देख ही नहीं पड़ती, छूटे तो कैसे? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग (जैसा आगे कहा जाता है) उपस्थित कर
देते हैं तब भी कदाचित ही वह (ग्रंथि) छूट पाती है।
सात्विक
श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई॥
जप तप ब्रत जम
नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा॥
हरि की कृपा
से यदि सात्त्विकी श्रद्धारूपी सुंदर गौ हृदयरूपी घर में आकर बस जाए;
असंख्य जप, तप व्रत यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार (आचरण),
जो श्रुतियों ने कहे हैं,
तेइ तृन हरित
चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥
नोइ निबृत्ति
पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा॥
उन्हीं
(धर्माचाररूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गौ चरे और आस्तिक भावरूपी छोटे बछड़े को
पाकर वह पेन्हावे। निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गौ के
दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है,
निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में
है),
दुहनेवाला अहीर है।
परम धर्ममय पय
दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बनाई॥
तोष मरुत तब
छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै॥
हे भाई,
इस प्रकार (धर्माचार में प्रवृत्त सात्त्विकी श्रद्धारूपी
गौ से भाव, निवृत्ति और वश में किए हुए निर्मल मन की सहायता से) परम धर्ममय दूध दुहकर उसे
निष्काम भावरूपी अग्नि पर भली-भाँति औटाए। फिर क्षमा और संतोषरूपी हवा से उसे ठंडा
करे और धैर्य तथा शम (मन का निग्रह) रूपी जामन देकर उसे जमावे।
मुदिताँ मथै
बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी॥
तब मथि काढ़ि
लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता॥
तब मुदिता
(प्रसन्नता) रूपी कमोरी में तत्त्व विचाररूपी मथानी से दम (इंद्रिय-दमन) के आधार
पर (दमरूपी खंभे आदि के सहारे) सत्य और सुंदर वाणीरूपी रस्सी लगाकर उसे मथे और
मथकर तब उसमें से निर्मल, सुंदर और अत्यंत पवित्र वैराग्यरूपी मक्खन निकाल ले।
दो० - जोग
अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै
ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ॥ 117(क)॥
तब योगरूपी
अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मरूपी ईंधन लगा दे (सब कर्मों को योगरूपी
अग्नि में भस्म कर दे)। जब (वैराग्यरूपी मक्खन का) ममतारूपी मल जल जाए,
तब (बचे हुए) ज्ञानरूपी घी को (निश्चयात्मिका) बुद्धि से
ठंडा करे॥ 117(क)॥
तब
बिग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि
धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ॥ 117(ख)॥
तब
विज्ञानरूपिणी बुद्धि उस (ज्ञानरूपी) निर्मल घी को पाकर उससे चित्तरूपी दीए को
भरकर,
समता की दीवट बनाकर, उस पर उसे दृढ़तापूर्वक (जमाकर) रखे॥ 117(ख)॥
तीनि अवस्था
तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।
तूल तुरीय
सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि॥ 117(ग)॥
(जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) तीनों अवस्थाएँ और (सत्त्व, रज और तम) तीनों गुणरूपी कपास से तुरीयावस्थारूपी रूई को
निकालकर और फिर उसे सँवारकर उसकी सुंदर कड़ी बत्ती बनाएँ॥ 117(ग)॥
सो० - एहि
बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।
जातहिं जासु
समीप जरहिं मदादिक सलभ सब॥ 117(घ)॥
इस प्रकार तेज
की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावे, जिसके समीप जाते ही मद आदि सब पतंगे जल जाएँ॥ 117(घ)॥
सोहमस्मि इति
बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आतम अनुभव सुख
सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥
'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) - यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटनेवाली) वृत्ति है,
वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस
प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है,
तब संसार के मूल भेदरूपी भ्रम का नाश हो जाता है,
प्रबल अबिद्या
कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा॥
तब सोइ बुद्धि
पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा॥
और महान बलवती
अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अंधकार मिट जाता है। तब वही (विज्ञानरूपिणी)
बुद्धि (आत्मानुभवरूप) प्रकाश को पाकर हृदयरूपी घर में बैठकर उस जड़-चेतन की गाँठ
को खोलती है।
छोरन ग्रंथि
पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥
छोरत ग्रंथ
जानि खगराया। बिघ्न नेक करइ तब माया॥
यदि वह
(विज्ञानरूपिणी बुद्धि) उस गाँठ को खोलने पावे, तब यह जीव कृतार्थ हो। परंतु हे पक्षीराज गरुड़! गाँठ खोलते
हुए जानकर माया फिर अनेकों विघ्न करती है।
रिद्धि सिद्धि
प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई॥
कल बल छल करि
जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा॥
हे भाई! वह
बहुत-सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती हैं और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल
(कला),
बल और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञानरूपी
दीपक को बुझा देती हैं।
होइ बुद्धि
जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी॥
जौं तेहि
बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी॥
यदि बुद्धि
बहुत ही सयानी हुई, तो वह उन (ऋद्धि-सिद्धियों) को अहितकर (हानिकर) समझकर उनकी
ओर ताकती नहीं। इस प्रकार यदि माया के विघ्नों से बुद्धि को बाधा न हुई,
तो फिर देवता उपाधि (विघ्न) करते हैं।
इंद्री द्वार
झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना॥
आवत देखहिं
बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी॥
इंद्रियों के
द्वार हृदयरूपी घर के अनेकों झरोखे हैं। वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखे पर) देवता थाना
किए (अड्डा जमाकर) बैठे हैं। ज्यों ही वे विषयरूपी हवा को आते देखते हैं,
त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं।
जब सो प्रभंजन
उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई॥
ग्रंथि न छूटि
मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा॥
ज्यों ही वह
तेज हवा हृदयरूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञानरूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं
छूटी और वह (आत्मानुभवरूप) प्रकाश भी मिट गया। विषयरूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो
गई (सारा किया-कराया चौपट हो गया)।
इंद्रिन्ह
सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई॥
बिषय समीर
बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी॥
इंद्रियों और
उनके देवताओं को ज्ञान (स्वाभाविक ही) नहीं सुहाता; क्योंकि उनकी विषय-भोगों में सदा ही प्रीति रहती है। और
बुद्धि को भी विषयरूपी हवा ने बावली बना दिया। तब फिर (दुबारा) उस ज्ञान दीप को उसी
प्रकार से कौन जलाए?
दो० - तब फिरि
जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति
दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस॥ 118(क)॥
(इस प्रकार ज्ञान दीपक के बुझ जाने पर) तब फिर जीव अनेकों प्रकार से संसृति
(जन्म-मरणादि) के क्लेश पाता है। हे पक्षीराज! हरि की माया अत्यंत दुस्तर है,
वह सहज ही में तरी नहीं जा सकती॥ 118(क)॥
कहत कठिन
समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर
न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥ 118(ख)॥
ज्ञान कहने
(समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि घुणाक्षर
न्याय से (संयोगवश) कदाचित यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं॥ 118(ख)॥
ग्यान पंथ
कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥
जो निर्बिघ्न
पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई॥
ज्ञान का
मार्ग कृपाण (दुधारी तलवार) की धार के समान है। हे पक्षीराज! इस मार्ग से गिरते
देर नहीं लगती। जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले जाता है,
वही कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपद को प्राप्त करता है।
अति दुर्लभ
कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद॥
राम भजत सोइ
मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं॥
संत,
पुराण, वेद और (तंत्र आदि) शास्त्र (सब) यह कहते हैं कि कैवल्यरूप
परमपद अत्यंत दुर्लभ है; किंतु हे गोसाईं! वही (अत्यंत दुर्लभ) मुक्ति राम को भजने
से बिना इच्छा किए भी जबरदस्ती आ जाती है।
जिमि थल बिनु
जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई॥
तथा मोच्छ सुख
सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई॥
जैसे स्थल के
बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों प्रकार के उपाय क्यों न करे। वैसे ही,
हे पक्षीराज! सुनिए, मोक्षसुख भी हरि की भक्ति को छोड़कर नहीं रह सकता।
अस बिचारि हरि
भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥
भगति करत बिनु
जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा॥
ऐसा विचार कर
बुद्धिमान हरि भक्त भक्ति पर लुभाए रहकर मुक्ति का तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति
करने से संसृति (जन्म-मृत्यु रूप संसार) की जड़ अविद्या बिना ही यंत्र और परिश्रम
के (अपने आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है,
भोजन करिअ
तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी॥
असि हरि भगति सुगम
सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई॥
जैसे भोजन
किया तो जाता है तृप्ति के लिए और उस भोजन को जठराग्नि अपने-आप (बिना हमारी चेष्टा
के) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देनेवाली हरि भक्ति जिसे न सुहावे,
ऐसा मूढ़ कौन होगा?
दो० - सेवक
सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद
पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥ 119(क)॥
हे सर्पों के
शत्रु गरुड़! मैं सेवक हूँ और भगवान मेरे सेव्य (स्वामी) हैं,
इस भाव के बिना संसाररूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता। ऐसा
सिद्धांत विचारकर राम के चरण कमलों का भजन कीजिए॥ 119(क)॥
जो चेतन कहँ
जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ
रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य॥ 119(ख)॥
जो चेतन को
जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ रघुनाथ को जो जीव भजते हैं,
वे धन्य हैं॥ 119(ख)॥
कहेउँ ग्यान
सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई॥
राम भगति
चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर॥
मैंने ज्ञान
का सिद्धांत समझाकर कहा। अब भक्तिरूपी मणि की प्रभुता (महिमा) सुनिए। राम की भक्ति
सुंदर चिंतामणि है। हे गरुड़! यह जिसके हृदय के अंदर बसती है,
परम प्रकास
रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती॥
मोह दरिद्र
निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥
वह दिन-रात
(अपने-आप ही) परम प्रकाश रूप रहता है। उसको दीपक, घी और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिए। (इस प्रकार मणि का एक तो
स्वाभाविक प्रकाश रहता है) फिर मोहरूपी दरिद्रता समीप नहीं आती (क्योंकि मणि स्वयं
धनरूप है); और (तीसरे) लोभरूपी हवा उस मणिमय दीप को बुझा नहीं सकती (क्योंकि मणि स्वयं
प्रकाश रूप है, वह किसी दूसरे की सहायता से प्रकाश नहीं करती)।
प्रबल अबिद्या
तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई॥
खल कामादि
निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं॥
(उसके प्रकाश से) अविद्या का प्रबल अंधकार मिट जाता है। मदादि पतंगों का सारा
समूह हार जाता है। जिसके हृदय में भक्ति बसती है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास भी नहीं जाते।
गरल सुधासम
अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई॥
ब्यापहिं मानस
रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी॥
उसके लिए विष अमृत
के समान और शत्रु मित्र हो जाता है। उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता। बड़े-बड़े
मानस-रोग,
जिनके वश होकर सब जीव दुःखी हो रहे हैं,
उसको नहीं व्यापते।
राम भगति मनि
उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें॥
चतुर सिरोमनि
तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं॥
रामभक्तिरूपी
मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे स्वप्न में भी लेशमात्र दुःख नहीं होता। जगत में वे ही
मनुष्य चतुरों के शिरोमणि हैं जो उस भक्तिरूपी मणि के लिए भली-भाँति यत्न करते
हैं।
सो मनि जदपि
प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई॥
सुगम उपाय
पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटभेरे॥
यद्यपि वह मणि
जगत में प्रकट (प्रत्यक्ष) है, पर बिना राम की कृपा के उसे कोई पा नहीं सकता। उसके पाने के
उपाय भी सुगम ही हैं, पर अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं।
पावन पर्बत
बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना॥
मर्मी सज्जन
सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी॥
वेद-पुराण
पवित्र पर्वत हैं। राम की नाना प्रकार की कथाएँ उन पर्वतों में सुंदर खानें हैं।
संत पुरुष (उनकी इन खानों के रहस्य को जाननेवाले) मर्मी हैं और सुंदर बुद्धि
(खोदनेवाली) कुदाल है। हे गरुड़! ज्ञान और वैराग्य ये दो उनके नेत्र हैं।
भाव सहित खोजइ
जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी॥
मोरें मन
प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥
जो प्राणी उसे
प्रेम के साथ खोजता है, वह सब सुखों की खान इस भक्तिरूपी मणि को पा जाता है। हे
प्रभो! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि राम के दास राम से भी बढ़कर हैं।
राम सिंधु घन
सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा॥
सब कर फल हरि
भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई॥
राम समुद्र
हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। हरि चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन हैं। सब साधनों
का फल सुंदर हरि भक्ति ही है। उसे संत के बिना किसी ने नहीं पाया।
अस बिचारि जोइ
कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा॥
ऐसा विचार कर
जो भी संतों का संग करता है, हे गरुड़! उसके लिए राम की भक्ति सुलभ हो जाती है।
दो० - ब्रह्म
पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि
काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं॥ 120(क)॥
ब्रह्म (वेद)
समुद्र है, ज्ञान मंदराचल है और संत देवता हैं, जो उस समुद्र को मथकर कथारूपी अमृत निकालते हैं,
जिसमें भक्तिरूपी मधुरता बसी रहती है॥ 120(क)॥
बिरति चर्म
असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो
हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥ 120(ख)॥
वैराग्यरूपी
ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञानरूपी तलवार से मद, लोभ और मोहरूपी वैरियों को मारकर जो विजय प्राप्त करती है,
वह हरि भक्ति ही है; हे पक्षीराज! इसे विचार कर देखिए॥ 120(ख)॥
पुनि सप्रेम
बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥
नाथ मोहि निज
सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥
पक्षीराज
गरुड़ फिर प्रेम सहित बोले - हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है,
तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के
उत्तर बखान कर कहिए।
प्रथमहिं कहहु
नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दुख कवन
कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥
हे नाथ! हे
धीर-बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन-सा शरीर है?
फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है,
यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिए?
संत असंत मरम
तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य
श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला॥
संत और असंत
का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए। फिर कहिए कि श्रुतियों में
प्रसिद्ध सबसे महान पुण्य कौन-सा है और सबसे महान भयंकर पाप कौन है?
मानस रोग कहहु
समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु
सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती॥
फिर
मानस-रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है।
(काकभुशुंडि ने कहा -) हे तात! अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिए। मैं यह नीति
संक्षेप से कहता हूँ।
नर तन सम नहिं
कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग
अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥
मनुष्य-शरीर
के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य-शरीर
नरक,
स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान,
वैराग्य और भक्ति को देनेवाला है।
सो तनु धरि
हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच
बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥
ऐसे मनुष्य
शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच
विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के
टुकड़े ले लेते हैं।
नहिं दरिद्र
सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन
मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया॥
जगत में
दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत में सुख नहीं है।
और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है।
संत सहहिं दुख
पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम
संत कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला॥
संत दूसरों की
भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु
संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल
तक उधड़वा लेते हैं)।
सन इव खल पर
बंधन करई। खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई॥
खल बिनु
स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥
किंतु दुष्ट
लोग सन की भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल
खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुड़! सुनिए,
दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही
दूसरों का अपकार करते हैं।
पर संपदा
बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग
आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥
वे पराई
संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का
अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही
होता है।
संत उदय संतत
सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥
परम धर्म
श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा॥
और संतों का
अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चंद्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है।
वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिंदा के समान भारी पाप नहीं है।
हर गुर निंदक
दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक
बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि॥
शंकर और गुरु
की निंदा करनेवाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेढ़क होता है और वह हजार जन्म तक वही
मेढ़क का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निंदा करनेवाला व्यक्ति बहुत-से नरक भोगकर
फिर जगत में कौवे का शरीर धारण करके जन्म लेता है।
सुर श्रुति
निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक
संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥
जो अभिमानी
जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग
उल्लू होते हैं, जिन्हें मोहरूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञानरूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया
(अस्त हो गया) रहता है।
सब कै निंदा
जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
सुनहु तात अब
मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥
जो मूर्ख
मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस-रोग सुनिए,
जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं।
मोह सकल
ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ
लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥
सब रोगों की
जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम
वात है,
लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती
जलाता रहता है।
प्रीति करहिं
जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ
दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥
यदि कहीं ये
तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से
प्राप्त (पूर्ण) होनेवाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं;
उनके नाम कौन जानता है (अर्थात वे अपार हैं)।
ममता दादु
कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि
जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥
ममता दाद है,
ईर्ष्या (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड,
कंठमाला या घेघा आदि रोग हैं),
पराए सुख को देखकर जो जलन होती है,
वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है।
अहंकार अति
दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना
उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥
अहंकार अत्यंत
दुःख देनेवाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दंभ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर
वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं।
जुग बिधि ज्वर
मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥
मत्सर और
अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं,
जिन्हें कहाँ तक कहूँ।
दो० - एक
ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत
जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥ 121(क)॥
एक ही रोग के
वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत-से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट
देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥ 121(क)॥
नेम धर्म आचार
तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि
कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥ 121(ख)॥
नियम,
धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं,
परंतु हे गरुड़! उनसे ये रोग नहीं जाते॥ 121(ख)॥
एहि बिधि सकल
जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक
मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥
इस प्रकार जगत
में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैंने
ये थो़ड़े-से मानस-रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही।
जाने ते
छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य
पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥
प्राणियों को
जलानेवाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं,
परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषयरूप कुपथ्य पाकर ये
मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं।
राम कृपाँ
नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन
बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥
यदि राम की
कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरुरूपी वैद्य
के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।
रघुपति भगति
सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि
भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥
रघुनाथ की
भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया
जानेवाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ,
नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।
जानिअ तब मन
बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा
बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥
हे गोसाईं! मन
को नीरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए,
उत्तम बुद्धिरूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की
आशारूपी दुर्बलता मिट जाए।
बिमल ग्यान जल
जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥
सिव अज सुक
सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥
(इस प्रकार सब रोगों से छूटकर) जब मनुष्य निर्मल ज्ञानरूपी जल में स्नान कर
लेता है,
तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है। शिव,
ब्रह्मा, शुकदेव, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचार में परम निपुण जो मुनि हैं,
सब कर मत
खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा॥
श्रुति पुरान
सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥
हे पक्षीराज!
उन सबका मत यही है कि राम के चरणकमलों में प्रेम करना चाहिए। श्रुति,
पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि रघुनाथ की भक्ति के बिना
सुख नहीं है।
कमठ पीठ
जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु
बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥
कछुए की पीठ
पर भले ही बाल उग आएँ, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले,
आकाश में भले ही अनेकों प्रकार के फूल खिल उठें;
परंतु हरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता।
तृषा जाइ बरु
मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥
अंधकारु बरु
रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥
मृगतृष्णा के
जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर पर भले ही सींग निकल आए,
अंधकार भले ही सूर्य का नाश कर दे;
परंतु राम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता।
हिम ते अनल
प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥
बर्फ से भले
ही अग्नि प्रकट हो जाए (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जाएँ),
परंतु राम से विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता।
दो० - बारि
मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन
न तव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥ 122(क)॥
जल को मथने से
भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आए;
परंतु हरि के भजन बिना संसाररूपी समुद्र से नहीं तरा जा
सकता,
यह सिद्धांत अटल है॥ 122(क)॥
मसकहि करइ
बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि
संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥ 122(ख)॥
प्रभु मच्छर
को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचार
कर चतुर पुरुष सब संदेह त्यागकर राम को ही भजते हैं॥ 122(ख)॥
श्लोक -
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा
भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥ 122(ग)॥
मैं आपसे
भली-भाँति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूँ - मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं
हैं कि जो मनुष्य हरि का भजन करते हैं, वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर जाते हैं॥ 122(ग)॥
कहेउँ नाथ हरि
चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा॥
श्रुति
सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी॥
हे नाथ! मैंने
हरि का अनुपम चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप से
कहा। हे सर्पों के शत्रु गरुड़! श्रुतियों का यही सिद्धांत है कि सब काम भुलाकर
(छोड़कर) राम का भजन करना चाहिए।
प्रभु रघुपति
तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही॥
तुम्ह
बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा॥
प्रभु रघुनाथ
को छो़ड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाए, जिनका मुझ-जैसे मूर्ख पर भी ममत्व (स्नेह) है। हे नाथ! आप
विज्ञानरूप हैं, आपको मोह नहीं है। आपने तो मुझ पर बड़ी कृपा की है।
पूँछिहु राम
कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि॥
सत संगति
दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा॥
जो आपने मुझ
से शुकदेव, सनकादि और शिव के मन को प्रिय लगनेवाली अति पवित्र रामकथा पूछी। संसार में
घड़ी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी सत्संग दुर्लभ है।
देखु गरु़ड़
निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥
सकुनाधम सब
भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥
हे गरुड़!
अपने हृदय में विचार कर देखिए, क्या मैं भी राम के भजन का अधिकारी हूँ?
पक्षियों में सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र हूँ,
परंतु ऐसा होने पर भी प्रभु ने मुझको सारे जगत को पवित्र
करनेवाला प्रसिद्ध कर दिया (अथवा प्रभु ने मुझको जगत्प्रसिद्ध पावन कर दिया)।
दो० - आजु
धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि
राम मोहि संत समागम दीन॥ 123(क)॥
यद्यपि मैं सब
प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी आज मैं धन्य हूँ, अत्यंत धन्य हूँ, जो राम ने मुझे अपना 'निज जन' जानकर संत-समागम दिया (आपसे मेरी भेंट कराई)॥ 123(क)॥
नाथ जथामति
भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु
रघुनायक थाह कि पावइ कोइ॥ 123(ख)॥
हे नाथ! मैंने
अपनी बुद्धि के अनुसार कहा, कुछ भी छिपा नहीं रखा। (फिर भी) रघुवीर के चरित्र समुद्र के
समान हैं,
क्या उनकी कोई थाह पा सकता है?॥ 123(ख)॥
सुमिरि राम के
गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना॥
महिमा निगम
नेत करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई॥
राम के
बहुत-से गुणसमूहों का स्मरण कर-करके सुजान भुशुंडि बार-बार हर्षित हो रहे हैं।
जिनकी महिमा वेदों ने 'नेति-नेति' कहकर गाई है, जिनका बल, प्रताप और प्रभुत्व (सामर्थ्य) अतुलनीय है,
सिव अज पूज्य
चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई॥
अस सुभाउ कहुँ
सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ॥
जिन रघुनाथ के
चरण शिव और ब्रह्मा के द्वारा पूज्य हैं, उनकी मुझ पर कृपा होनी उनकी परम कोमलता है। किसी का ऐसा
स्वभाव कहीं न सुनता हूँ, न देखता हूँ। अतः हे पक्षीराज गरुड़! मैं रघुनाथ के समान किसे
गिनूँ (समझूँ)?
साधक सिद्ध
बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी॥
जोगी सूर
सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥
साधक,
सिद्ध, जीवनमुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान, कर्म (रहस्य) के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पंडित और विज्ञानी -
तरहिं न बिनु
सेएँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी॥
सरन गएँ मो से
अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी॥
ये कोई भी
मेरे स्वामी राम का सेवन (भजन) किए बिना नहीं तर सकते। मैं उन्हीं राम को बार-बार
नमस्कार करता हूँ जिनकी शरण जाने पर मुझ जैसे पापराशि भी शुद्ध (पापरहित) हो जाते
हैं,
उन अविनाशी राम को मैं नमस्कार करता हूँ।
दो० - जासु
नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल
सो कृपाल मोहि
तो पर सदा रहउ अनुकूल॥ 124(क)॥
जिनका नाम
जन्म-मरणरूपी रोग की (अव्यर्थ) औषध और तीनों भयंकर पीड़ाओं (आधिदैविक,
आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों) को हरनेवाला है,
वे कृपालु राम मुझ पर और आप पर सदा प्रसन्न रहें॥ 124(क)॥
सुनि भुसुंडि
के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम
सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह॥ 124(ख)॥
भुशुंडि के
मंगलमय वचन सुनकर और राम के चरणों में उनका अतिशय प्रेम देखकर संदेह से भली-भाँति
छूटे हुए गरुड़ प्रेमसहित वचन बोले॥ 124(ख)॥
मैं कृतकृत्य
भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी॥
राम चरन नूतन
रति भई। माया जनित बिपति सब गई॥
रघुवीर के
भक्ति-रस में सनी हुई आपकी वाणी सुनकर मैं कृतकृत्य हो गया। राम के चरणों में मेरी
नवीन प्रीति हो गई और माया से उत्पन्न सारी विपत्ति चली गई।
मोह जलधि
बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए॥
मो पहिं होइ न
प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा॥
मोहरूपी
समुद्र में डूबते हुए मेरे लिए आप जहाज हुए। हे नाथ! आपने मुझे बहुत प्रकार के सुख
दिए (परम सुखी कर दिया)। मुझसे इसका प्रत्युपकार (उपकार के बदले में उपकार) नहीं
हो सकता। मैं तो आपके चरणों की बार-बार वंदना ही करता हूँ।
पूरन काम राम
अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी॥
संत बिटप
सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी॥
आप पूर्णकाम
हैं और राम के प्रेमी हैं। हे तात! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है। संत,
वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी - इन सबकी क्रिया पराए हित के लिए ही होती
है।
संत हृदय
नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥
निज परिताप
द्रवइ नवनीता। पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥
संतों का हृदय
मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है; परंतु उन्होंने (असली बात) कहना नहीं जाना;
क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम
पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं।
जीवन जन्म सफल
मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ॥
जानेहु सदा
मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर॥
मेरा जीवन और
जन्म सफल हो गया। आपकी कृपा से सब संदेह चला गया। मुझे सदा अपना दास ही जानिएगा।
(शिव कहते हैं -) हे उमा! पक्षी श्रेष्ठ गरुड़ बार-बार ऐसा कह रहे हैं।
दो० - तासु
चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़
बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर॥ 125(क)॥
उन (भुशुंडि)
के चरणों में प्रेमसहित सिर नवाकर और हृदय में रघुवीर को धारण करके धीरबुद्धि
गरु़ड़ तब बैकुंठ को चले गए॥ 125(क)॥
गिरिजा संत
समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा
न होइ सो गावहिं बेद पुरान॥ 125(ख)॥
हे गिरिजे!
संत-समागम के समान दूसरा कोई लाभ नहीं है। पर वह (संत-समागम) हरि की कृपा के बिना
नहीं हो सकता, ऐसा वेद और पुराण गाते हैं॥ 125(ख)॥
कहेउँ परम
पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा॥
प्रनत कल्पतरु
करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा॥
मैंने यह परम
पवित्र इतिहास कहा, जिसे कानों से सुनते ही भवपाश (संसार के बंधन) छूट जाते हैं
और शरणागतों को (उनके इच्छानुसार फल देनेवाले) कल्पवृक्ष तथा दया के समूह राम के
चरणकमलों में प्रेम उत्पन्न होता है।
मन क्रम बचन
जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥
तीर्थाटन साधन
समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥
जो कान और मन
लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
तीर्थ यात्रा आदि बहुत-से साधन, योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता,
नाना कर्म
धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना॥
भूत दया द्विज
गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई॥
अनेकों प्रकार
के कर्म,
धर्म, व्रत और दान, अनेकों संयम, दम, जप, तप और यज्ञ, प्राणियों पर दया, ब्राह्मण और गुरु की सेवा; विद्या, विनय और विवेक की बड़ाई (आदि) -
जहँ लगि साधन
बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी॥
सो रघुनाथ
भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई॥
जहाँ तक वेदों
ने साधन बतलाए हैं, हे भवानी! उन सबका फल हरि की भक्ति ही है। किंतु श्रुतियों
में गाई हुई वह रघुनाथ की भक्ति राम की कृपा से किसी एक (विरले) ने ही पाई है।
दो० - मुनि
दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा
निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास॥ 126॥
किंतु जो
मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरंतर सुनते हैं, वे बिना परिश्रम के ही उस मुनि दुर्लभ हरि भक्ति को प्राप्त
कर लेते हैं॥ 126॥
सोइ सर्बग्य
गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता॥
धर्म परायन
सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता॥
जिसका मन राम
के चरणों में अनुरक्त है, वही सर्वज्ञ (सब कुछ जाननेवाला) है,
वही गुणी है, वही ज्ञानी है। वही पृथ्वी का भूषण,
पंडित और दानी है। वही धर्मपरायण है और वही कुल का रक्षक
है।
नीति निपुन
सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना॥
सोइ कबि कोबिद
सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा॥
जो छल छो़ड़कर
रघुवीर का भजन करता है, वही नीति में निपुण है, वही परम बुद्धिमान है। उसी ने वेदों के सिद्धांत को
भली-भाँति जाना है। वही कवि, वही विद्वान तथा वही रणधीर है।
धन्य देस सो
जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी॥
धन्य सो भूपु
नीति जो करई। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई॥
वह देश धन्य
है,
जहाँ गंगा हैं, वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत-धर्म का पालन करती है। वह
राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता
है।
सो धन धन्य
प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥
धन्य घरी सोइ
जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥
वह धन धन्य है
जिसकी पहली गति होती है (जो दान देने में व्यय होता है)। वही बुद्धि धन्य और
परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म
धन्य है जिसमें ब्राह्मण की अखंड भक्ति हो।
(धन की तीन गतियाँ होती हैं - दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है। जो पुरुष न देता है,
न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।)
दो० - सो कुल
धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर
परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥ 127॥
हे उमा! सुनो
वह कुल धन्य है, संसारभर के लिए पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्री रघुवीर परायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष
उत्पन्न हो॥ 127॥
मति अनुरूप
कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी॥
तव मन प्रीति
देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई॥
मैंने अपनी
बुद्धि के अनुसार यह कथा कही, यद्यपि पहले इसको छिपाकर रखा था। जब तुम्हारे मन में प्रेम
की अधिकता देखी तब मैंने रघुनाथ की यह कथा तुमको सुनाई।
यह न कहिअ
सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि॥
कहिअ न लोभिहि
क्रोधिहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि॥
यह कथा उनसे न
कहनी चाहिए जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभाव के हों और हरि की लीला को मन लगाकर न सुनते हों।
लोभी,
क्रोधी और कामी को, जो चराचर के स्वामी राम को नहीं भजते,
यह कथा नहीं कहनी चाहिए।
द्विज
द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ॥
रामकथा के तेइ
अधिकारी। जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी॥
ब्राह्मणों के
द्रोही को, यदि वह देवराज (इंद्र) के समान ऐश्वर्यवान राजा भी हो,
तब भी यह कथा न सुनानी चाहिए। रामकथा के अधिकारी वे ही हैं
जिनको सत्संगति अत्यंत प्रिय है।
गुर पद प्रीति
नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई॥
ता कहँ यह
बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई॥
जिनकी गुरु के
चरणों में प्रीति है, जो नीतिपरायण हैं और ब्राह्मणों के सेवक हैं,
वे ही इसके अधिकारी हैं और उसको तो यह कथा बहुत ही सुख
देनेवाली है, जिसको श्री रघुनाथ प्राण के समान प्यारे हैं।
दो० - राम चरन
रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो
यह कथा करउ श्रवन पुट पान॥ 128॥
जो राम के
चरणों में प्रेम चाहता हो या मोक्षपद चाहता हो, वह इस कथारूपी अमृत को प्रेमपूर्वक अपने कानरूपी दोने से
पिए॥ 128॥
राम कथा
गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी॥
संसृति रोग
सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी॥
हे गिरिजे!
मैंने कलियुग के पापों का नाश करनेवाली और मन के मल को दूर करनेवाली रामकथा का
वर्णन किया। यह रामकथा संसृति (जन्म-मरण) रूपी रोग के (नाश के) लिए संजीवनी जड़ी
है,
वेद और विद्वान पुरुष ऐसा कहते हैं।
एहि महँ रुचिर
सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना॥
अति हरि कृपा
जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई॥
इसमें सात
सुंदर सीढ़ियाँ हैं, जो रघुनाथ की भक्ति को प्राप्त करने के मार्ग हैं। जिस पर
हरि की अत्यंत कृपा होती है, वही इस मार्ग पर पैर रखता है।
मन कामना
सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा॥
कहहिं सुनहिं
अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं॥
जो कपट छोड़कर
यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामना की सिद्धि पा लेते हैं,
जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन (प्रशंसा) करते हैं,
वे संसाररूपी समुद्र को गौ के खुर से बने हुए गड्ढे की भाँति
पार कर जाते हैं।
सुनि सब कथा
हृदय अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई॥
नाथ कृपाँ मम
गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा॥
(याज्ञवल्क्य कहते हैं -) सब कथा सुनकर पार्वती के हृदय को बहुत ही प्रिय लगी
और वे सुंदर वाणी बोलीं - स्वामी की कृपा से मेरा संदेह जाता रहा और राम के चरणों
में नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया।
दो० - मैं
कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति
दृढ़ बीते सकल कलेस॥ 129॥
हे विश्वनाथ!
आपकी कृपा से अब मैं कृतार्थ हो गई। मुझमें दृढ़ राम भक्ति उत्पन्न हो गई और मेरे
संपूर्ण क्लेश बीत गए (नष्ट हो गए)॥ 129॥
यह सुभ संभु
उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा॥
भव भंजन गंजन
संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा॥
शंभु-उमा का
यह कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करनेवाला और शोक का नाश करनेवाला है। जन्म-मरण का
अंत करनेवाला, संदेहों का नाश करनेवाला, भक्तों को आनंद देनेवाला और संत पुरुषों को प्रिय है।
राम उपासक जे
जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह कें कछु नाहीं॥
रघुपति कृपाँ
जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा॥
जगत में जो
(जितने भी) रामोपासक हैं, उनको तो इस रामकथा के समान कुछ भी प्रिय नहीं है। रघुनाथ की
कृपा से मैंने यह सुंदर और पवित्र करनेवाला चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है।
एहिं कलिकाल न
साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा॥
रामहि सुमिरिअ
गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि॥
(तुलसीदास कहते हैं -) इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साधन नहीं है। बस,
राम का ही स्मरण करना, राम का ही गुण गाना और निरंतर राम के ही गुणसमूहों को सुनना
चाहिए।
जासु पतित
पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना॥
ताहि भजहि मन
तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई॥
पतितों को
पवित्र करना जिनका महान (प्रसिद्ध) बाना है - ऐसा कवि,
वेद, संत और पुराण गाते हैं – रे मन! कुटिलता त्याग कर उन्हीं को भज। राम को भजने से
किसने परम गति नहीं पाई?
छं० - पाई न
केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल
ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥
आभीर जमन
किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक
तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥
अरे मूर्ख मन!
सुन,
पतितों को भी पावन करनेवाले राम को भजकर किसने परमगति नहीं
पाई?
गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। आभीर,
यवन, किरात, खस, श्वपच (चांडाल) आदि जो अत्यंत पाप रूप ही हैं,
वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं,
उन राम को मैं नमस्कार करता हूँ।
रघुबंस भूषन
चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल
धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥
सत पंच चौपाईं
मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या
पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै॥
जो मनुष्य
रघुवंश के भूषण राम का यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुग के पाप और मन के मल को धोकर बिना परिश्रम के ही
राम के परम धाम को चले जाते हैं। (अधिक क्या) जो मनुष्य पाँच-सात चौपाइयों को भी
मनोहर जानकर (अथवा रामायण की चौपाइयों को श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्य का सच्चा
निर्णायक) जानकर उनको हृदय में धारण कर लेता है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को
राम हरण कर लेते हैं, (अर्थात सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है,
जो पाँच-सात चौपाइयों को भी समझकर उनका अर्थ हृदय में धारण
कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्री रघुवीर हर लेते हैं)।
सुंदर सुजान
कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम
अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥
जाकी कृपा
लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम
बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥
सुंदर,
सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं,
ऐसे एक राम ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित
करनेवाला (सुहृद) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है? जिनकी लेशमात्र कृपा से मंद-बुद्धि तुलसीदास ने भी परम
शांति प्राप्त कर ली, उन राम के समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।
दो० - मो सम
दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि
रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥ 130(क)॥
हे रघुवीर!
मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा
विचार कर हे रघुवंशमणि! मेरे जन्म-मरण के भयानक दुःख का हरण कर लीजिए॥ 130(क)॥
कामिहि नारि
पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ
निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥ 130(ख)॥
जैसे कामी को
स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है,
वैसे ही हे रघुनाथ। हे राम! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥ 130(ख)॥
श्लोक -
यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशंभुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं
प्राप्तयै तु रामायणम्।
मत्वा
तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये।
भाषाबद्धमिदं
चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्॥ 1॥
श्रेष्ठ कवि
भगवान श्री शंकर ने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायण की, श्री राम के चरणकमलों में नित्य-निरंतर (अनन्य) भक्ति
प्राप्त होने के लिए रचना की थी, उस मानस-रामायण को रघुनाथ के नाम में निरत मानकर अपने
अंतःकरण के अंधकार को मिटाने के लिए तुलसीदास ने इस मानस के रूप में भाषाबद्ध
किया॥ 1॥
पुण्यं पापहरं
सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं
सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं
भक्त्यावगाहन्ति ये
ते
संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥ 2॥
यह श्री
रामचरितमानस पुण्य रूप, पापों का हरण करनेवाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्ति को देनेवाला,
माया मोह और मल का नाश करनेवाला,
परम निर्मल प्रेमरूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो
मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्य की अति प्रचंड किरणों से नहीं जलते॥ 2॥
इति
श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के
समस्त पापों का नाश करनेवाले श्री रामचरितमानस का यह सातवाँ सोपान समाप्त हुआ।
(उत्तरकांड समाप्त)
रामचरितमानस समाप्त
टिप्पणी : तुलसीदास द्वारा अवधी में लिखित रामचरितमानस का खड़ीबोली हिंदी में यह रूपांतरण, टीका के साथ, हनुमान प्रसाद पोद्दार (1892-1971) ने किया है।
श्री राम चरित
मानस- उत्तरकांड, मासपारायण, तीसवाँ विश्राम समाप्त॥
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस उत्तरकांड, मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम
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