श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
श्री राम चरित
मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
श्री रामचरित
मानस
द्वितीय सोपान
(अयोध्याकांड)
कीन्ह
निमज्जनु तीरथराजा। नाई मुनिहि सिरु सहित समाजा।
रिषि आयसु
असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥
(प्रातःकाल) भरत ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर और
ऋषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को सिर चढ़ाकर दंडवत करके बहुत विनती की।
पथ गति कुसल
साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
रामसखा कर
दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥
तदनंतर रास्ते
की पहचान रखनेवाले लोगों (कुशल पथप्रदर्शकों) के साथ सब लोगों को लिए हुए भरत
चित्रकूट में चित्त लगाए चले। भरत रामसखा गुह के हाथ में हाथ दिए हुए ऐसे जा रहे
हैं,
मानो साक्षात प्रेम ही शरीर धारण किए हुए हो।
नहिं पद त्रान
सीस नहिं छाया। प्रेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
लखन राम सिय
पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥
न तो उनके
पैरों में जूते हैं, और न सिर पर छाया है। उनका प्रेम नियम,
व्रत और धर्म निष्कपट (सच्चा) है। वे सखा निषादराज से
लक्ष्मण,
राम और सीता के रास्ते की बातें पूछते हैं,
और वह कोमल वाणी से कहता है।
राम बास थल बिटप
बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकें॥
देखि दसा सुर
बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला॥
राम के ठहरने
की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोके नहीं रुकता। भरत की यह दशा
देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी कोमल हो गई और मार्ग मंगल का मूल बन गया।
दो० - किएँ
जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न
राम कहँ जस भा भरतहि जात॥ 216॥
बादल छाया किए
जा रहे हैं, सुख देनेवाली सुंदर हवा बह रही है। भरत के जाते समय मार्ग जैसा सुखदायक हुआ,
वैसा राम को भी नहीं हुआ था॥ 216॥
जड़ चेतन मग
जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे॥
ते सब भए परम
पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥
रास्ते में
असंख्य जड़-चेतन जीव थे। उनमें से जिनको प्रभु राम ने देखा,
अथवा जिन्होंने प्रभु राम को देखा वे सब (उसी समय) परमपद के
अधिकारी हो गए। परंतु अब भरत के दर्शन ने तो उनका भव (जन्म-मरण)रूपी रोग मिटा ही
दिया। (रामदर्शन से तो वे परमपद के अधिकारी ही हुए थे,
परंतु भरत दर्शन से उन्हें वह परमपद प्राप्त हो गया।)
यह बड़ि बात
भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं॥
बारक राम कहत
जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ॥
भरत के लिए यह
कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें राम स्वयं अपने मन में स्मरण करते रहते हैं। जगत
में जो भी मनुष्य एक बार 'राम' कह लेते हैं, वे भी तरने-तारनेवाले हो जाते हैं।
भरतु राम
प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता॥
सिद्ध साधु
मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं॥
फिर भरत तो
राम के प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे। तब भला उनके लिए मार्ग मंगल (सुख) - दायक
कैसे न हो? सिद्ध, साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और भरत को देखकर हृदय में हर्ष-लाभ करते
हैं।
देखि प्रभाउ
सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ
करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेट न होई॥
भरत के (इस
प्रेम के) प्रभाव को देखकर देवराज इंद्र को सोच हो गया (कि कहीं इनके प्रेम-वश राम
लौट न जाएँ और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए)। संसार भले के लिए भला और बुरे के
लिए बुरा है (मनुष्य जैसा आप होता है जगत उसे वैसा ही दिखता है)। उसने गुरु
बृहस्पति से कहा - हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे राम और भरत की भेंट ही न हो।
दो० - रामु
सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन
चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥ 217॥
राम संकोची और
प्रेम के वश हैं और भरत प्रेम के समुद्र हैं। बनी-बनाई बात बिगड़ना चाहती है,
इसलिए कुछ छल ढूँढ़ कर इसका उपाय कीजिए॥ 217॥
बचन सुनत
सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक
सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥
इंद्र के वचन
सुनते ही देवगुरु बृहस्पति मुसकराए। उन्होंने हजार नेत्रोंवाले इंद्र को
(ज्ञानरूपी) नेत्रोंरहित (मूर्ख) समझा और कहा - हे देवराज! माया के स्वामी राम के
सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है।
तब किछु कीन्ह
राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।
सुनु सुरेस
रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥
उस समय (पिछली
बार) तो राम का रुख जानकर कुछ किया था। परंतु इस समय कुचाल करने से हानि ही होगी।
हे देवराज! रघुनाथ का स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किए हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते।
जो अपराधु भगत
कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद
बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥
पर जो कोई
उनके भक्त का अपराध करता है, वह राम की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद दोनों में
इतिहास (कथा) प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासा जानते हैं।
भरत सरिस को
राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥
सारा जगत राम
को जपता है, वे राम जिनको जपते हैं, उन भरत के समान राम का प्रेमी कौन होगा?
दो० - मनहुँ न
आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक
परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥ 218॥
हे देवराज!
रघुकुलश्रेष्ठ राम के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए। ऐसा करने से
लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोक का सामान दिनोंदिन बढ़ता ही चला
जाएगा॥ 218॥
सुनु सुरेस
उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मानत सुखु
सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥
हे देवराज!
हमारा उपदेश सुनो। राम को अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवक की सेवा से सुख
मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते हैं।
जद्यपि सम
नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥
करम प्रधान
बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥
यद्यपि वे सम
हैं - उनमें न राग है, न रोष है और न वे किसी का पाप-पुण्य और गुण-दोष ही ग्रहण
करते हैं। उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है,
वह वैसा ही फल भोगता है।
तदपि करहिं सम
बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
अगनु अलेप
अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत प्रेम बस॥
तथापि वे भक्त
और अभक्त के हृदय के अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं (भक्त को प्रेम से गले
लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं)। गुणरहित,
निर्लेप, मानरहित और सदा एकरस भगवान राम भक्त के प्रेमवश ही सगुण हुए
हैं।
राम सदा सेवक
रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी॥
अस जियँ जानि
तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥
राम सदा अपने
सेवकों (भक्तों) की रुचि रखते आए हैं। वेद, पुराण, साधु और देवता इसके साक्षी हैं। ऐसा हृदय में जानकर कुटिलता
छोड़ दो और भरत के चरणों में सुंदर प्रीति करो।
दो० - राम भगत
परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि
भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥ 219॥
हे देवराज
इंद्र! राम के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं,
वे दूसरों के दुःख से दुःखी और दयालु होते हैं। फिर भरत तो
भक्तों के शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो॥ 219॥
सत्यसंध प्रभु
सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस
बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥
प्रभु राम
सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करनेवाले हैं। और भरत राम की आज्ञा के अनुसार
चलनेवाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें
भरत का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है।
सुनि सुरबर
सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून
हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥
देवगुरु
बृहस्पति की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिंता मिट
गई। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरत के स्वभाव की सराहना करने लगे।
एहि बिधि भरत
चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहि रामु कहि
लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥
इस प्रकार भरत
मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी (प्रेममयी) दशा देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी सिहाते
हैं। भरत जब भी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है।
द्रवहिं बचन
सुनि कुलिस पषाना। पुरजन प्रेमु न जाइ बखाना॥
बीच बास करि
जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥
उनके (प्रेम
और दीनता से पूर्ण) वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं।
अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास (मुकाम) करके भरत यमुना के
तट पर आए। यमुना का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया।
दो० - रघुबर
बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन
बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥ 220॥
रघुनाथ के
(श्याम) रंग का सुंदर जल देखकर सारे समाज सहित भरत (प्रेम विह्वल होकर) राम के
विरहरूपी समुद्र में डूबते-डूबते विवेकरूपी जहाज पर चढ़ गए (अर्थात यमुना का
श्यामवर्ण जल देखकर सब लोग श्यामवर्ण भगवान के प्रेम में विह्वल हो गए और उन्हें न
पाकर विरह व्यथा से पीड़ित हो गए; तब भरत को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात दर्शन
करेंगे,
इस विवेक से वे फिर उत्साहित हो गए)॥ 220॥
जमुन तीर तेहि
दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
रातिहिं घाट
घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥
उस दिन यमुना
के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिए (खान-पान आदि की) सुंदर व्यवस्था हुई।
(निषादराज का संकेत पाकर) रात- ही-रात में घाट-घाट की अगणित नावें वहाँ आ गईं,
जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता।
प्रात पार भए
एकहि खेवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥
चले नहाइ
नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥
सबेरे एक ही
खेवे में सब लोग पार हो गए और राम के सखा निषादराज की इस सेवा से संतुष्ट हुए। फिर
स्नान करके और नदी को सिर नवाकर निषादराज के साथ दोनों भाई चले।
आगें मुनिबर
बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें॥
तेहि पाछें
दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥
आगे
अच्छी-अच्छी सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा है। उसके पीछे दोनों भाई
बहुत सादे भूषण-वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे हैं।
सेवक सुहृद
सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
जहँ जहँ राम
बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥
सेवक,
मित्र और मंत्री के पुत्र उनके साथ हैं। लक्ष्मण,
सीता और रघुनाथ का स्मरण करते जा रहे हैं। जहाँ-जहाँ राम ने
निवास और विश्राम किया था, वहाँ-वहाँ वे प्रेमसहित प्रणाम करते हैं।
दो० - मगबासी
नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप
सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥ 221॥
मार्ग में
रहनेवाले स्त्री-पुरुष यह सुनकर घर और काम-काज छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप
(सौंदर्य) और प्रेम को देखकर वे सब जन्म लेने का फल पाकर आनंदित होते हैं॥ 221॥
कहहिं सप्रेम
एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥
बय बपु बरन
रूपु सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥
गाँवों की
स्त्रियाँ एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कहती हैं - सखी! ये राम-लक्ष्मण हैं कि नहीं?
हे सखी! इनकी अवस्था, शरीर और रंग-रूप तो वही है। शील,
स्नेह उन्हीं के सदृश है और चाल भी उन्हीं के समान है।
बेषु न सो सखि
सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा॥
नहिं प्रसन्न
मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥
परंतु सखी!
इनका न तो वह वेष (वल्कलवस्त्रधारी मुनिवेष) है, न सीता ही संग हैं। और इनके आगे चतुरंगिणी सेना चली जा रही
है। फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं, इनके मन में खेद है। हे सखी! इसी भेद के कारण संदेह होता
है।
तासु तरक
तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी॥
तेहि सराहि
बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥
उसका तर्क
(युक्ति) अन्य स्त्रियों के मन भाया। सब कहती हैं कि इसके समान सयानी (चतुर) कोई
नहीं है। उसकी सराहना करके और 'तेरी वाणी सत्य है' इस प्रकार उसका सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली।
कहि सप्रेम बस
कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥
भरतहि बहुरि
सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी॥
राम के
राजतिलक का आनंद जिस प्रकार से भंग हुआ था वह सब कथाप्रसंग प्रेमपूर्वक कहकर फिर
वह भाग्यवती स्त्री भरत के शील, स्नेह और स्वभाव की सराहना करने लगी।
दो० - चलत
पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन
रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥ 222॥
(वह बोली -) देखो, ये भरत पिता के दिए हुए राज्य को त्यागकर पैदल चलते और
फलाहार करते हुए राम को मनाने के लिए जा रहे हैं। इनके समान आज कौन है?॥ 222॥
भायप भगति भरत
आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
जो किछु कहब
थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥
भरत का भाईपना,
भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दुःख और दोषों के
हरनेवाले हैं। हे सखी! उनके संबंध में जो कुछ भी कहा जाए,
वह थोड़ा है। राम के भाई ऐसे क्यों न हों।
हम सब सानुज
भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें॥
सुनि गुन देखि
दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥
छोटे भाई
शत्रुघ्न सहित भरत को देखकर हम सब भी आज धन्य (बड़भागिनी) स्त्रियों की गिनती में
आ गईं। इस प्रकार भरत के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियाँ पछताती हैं और
कहती हैं - यह पुत्र कैकेयी-जैसी माता के योग्य नहीं है।
कोउ कह दूषनु
रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन॥
कहँ हम लोक
बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥
कोई कहती है -
इसमें रानी का भी दोष नहीं है। यह सब विधाता ने ही किया है,
जो हमारे अनुकूल है। कहाँ तो हम लोक और वेद दोनों की विधि
(मर्यादा) से हीन, कुल और करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियाँ,
बसहिं कुदेस
कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा॥
अस अनंदु
अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥
जो बुरे देश
(जंगली प्रांत) और बुरे गाँव में बसती हैं और (स्त्रियों में भी) नीच स्त्रियाँ
हैं! और कहाँ यह महान पुण्यों का परिणामस्वरूप इनका दर्शन! ऐसा ही आनंद और आश्चर्य
गाँव-गाँव में हो रहा है। मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष उग गया हो।
दो० - भरत
दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु
सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥ 223॥
भरत का स्वरूप
देखते ही रास्ते में रहनेवाले लोगों के भाग्य खुल गए! मानो दैवयोग से सिंहलद्वीप
के बसने वालों को तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो!॥ 223॥
निज गुन सहित
राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥
तीरथ मुनि
आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥
(इस प्रकार) अपने गुणों सहित राम के गुणों की कथा सुनते और रघुनाथ को स्मरण
करते हुए भरत चले जा रहे हैं। वे तीर्थ देखकर स्नान और मुनियों के आश्रम तथा
देवताओं के मंदिर देखकर प्रणाम करते हैं,
मनहीं मन
मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू॥
मिलहिं किरात
कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥
और मन-ही-मन
यह वरदान माँगते हैं कि सीताराम के चरण कमलों में प्रेम हो। मार्ग में भील,
कोल आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ,
ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त मिलते हैं।
करि प्रनामु
पूँछहिं जेहि तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही॥
ते प्रभु
समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥
उनमें से
जिस-तिस से प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मण, राम और जानकी किस वन में हैं? वे प्रभु के सब समाचार कहते हैं और भरत को देखकर जन्म का फल
पाते हैं।
जे जन कहहिं
कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥
एहि बिधि बूझत
सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥
जो लोग कहते
हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको ये राम-लक्ष्मण के समान ही प्यारे मानते हैं। इस
प्रकार सबसे सुंदर वाणी से पूछते और राम के वनवास की कहानी सुनते जाते हैं।
दो० - तेहि
बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की
लालसा भरत सरिस सब साथ॥ 224॥
उस दिन वहीं
ठहरकर दूसरे दिन प्रातःकाल ही रघुनाथ का स्मरण करके चले। साथ के सब लोगों को भी
भरत के समान ही राम के दर्शन की लालसा (लगी हुई) है॥ 224॥
मंगल सगुन
होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥
भरतहि सहित
समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥
सबको मंगलसूचक
शकुन हो रहे हैं। सुख देनेवाले (पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बाएँ) नेत्र और
भुजाएँ फड़क रही हैं। समाज सहित भरत को उत्साह हो रहा है कि राम मिलेंगे और दुःख
का दाह मिट जाएगा।
करत मनोरथ जस
जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।
सिथिल अंग पग
मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन प्रेम बस बोलहिं॥
जिसके जी में
जैसा है,
वह वैसा ही मनोरथ करता है। सब स्नेहीरूपी मदिरा से छके
(प्रेम में मतवाले हुए) चले जा रहे हैं। अंग शिथिल हैं,
रास्ते में पैर डगमगा रहे हैं और प्रेमवश विह्वल वचन बोल रहे
हैं।
रामसखाँ तेहि
समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप
सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
रामसखा
निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि दिखलाया,
जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीता समेत दोनों भाई
निवास करते हैं।
देखि करहिं सब
दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा॥
प्रेम मगन अस
राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥
सब लोग उस
पर्वत को देखकर 'जानकी-जीवन राम की जय हो।' ऐसा कहकर दंडवत प्रणाम करते हैं। राजसमाज प्रेम में ऐसा
मग्न है मानो रघुनाथ अयोध्या को लौट चले हों।
दो० - भरत
प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहि अगम
जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥ 225॥
भरत का उस समय
जैसा प्रेम था, वैसा शेष भी नहीं कह सकते। कवि के लिए तो वह वैसा ही अगम है जैसा अहंता और
ममता से मलिन मनुष्यों के लिए ब्रह्मानंद!॥ 225॥
सकल सनेह
सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि
बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥
सब लोग राम के
प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक (दिनभर में) दो ही कोस चल पाए
और जल-स्थल का सुपास देखकर रात को वहीं (बिना खाए-पिए ही) रह गए। रात बीतने पर
रघुनाथ के प्रेमी भरत ने आगे गमन किया।
उहाँ रामु
रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥
सहित समाज भरत
जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥
उधर राम रात
शेष रहते ही जागे। रात को सीता ने ऐसा स्वप्न देखा (जिसे वे राम को सुनाने लगीं)
मानो समाज सहित भरत यहाँ आए हैं। प्रभु के वियोग की अग्नि से उनका शरीर संतप्त है।
सकल मलिन मन
दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥
सुनि सिय सपन
भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥
सभी लोग मन
में उदास,
दीन और दुःखी हैं। सासुओं को दूसरी ही सूरत में देखा। सीता
का स्वप्न सुनकर राम के नेत्रों में जल भर आया और सबको सोच से छुड़ा देनेवाले
प्रभु स्वयं (लीला से) सोच के वश हो गए।
लखन सपन यह
नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई॥
अस कहि बंधु
समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने॥
(और बोले -) लक्ष्मण! यह स्वप्न अच्छा नहीं है। कोई भीषण कुसमाचार (बहुत ही
बुरी खबर) सुनाएगा। ऐसा कहकर उन्होंने भाई सहित स्नान किया और त्रिपुरारी महादेव
का पूजन करके साधुओं का सम्मान किया।
छं० - सनमानि
सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग
मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
तुलसी उठे
अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार
किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
देवताओं का
सम्मान (पूजन) और मुनियों की वंदना करके राम बैठ गए और उत्तर दिशा की ओर देखने
लगे। आकाश में धूल छा रही है; बहुत-से पक्षी और पशु व्याकुल होकर भागे हुए प्रभु के आश्रम
को आ रहे हैं। तुलसीदास कहते हैं कि प्रभु राम यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या
कारण है?
वे चित्त में आश्चर्ययुक्त हो गए। उसी समय कोल-भीलों ने आकर
सब समाचार कहे।
सो० - सुनत
सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह
नैन तुलसी भरे सनेह जल॥ 226॥
तुलसीदास कहते
हैं कि सुंदर मंगल वचन सुनते ही राम के मन में बड़ा आनंद हुआ। शरीर में पुलकावली
छा गई,
और शरद्-ऋतु के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गए॥ 226॥
बहुरि सोचबस
भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥
एक आइ अस कहा
बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥
सीतापति राम
पुनः सोच के वश हो गए कि भरत के आने का क्या कारण है?
फिर एक ने आकर ऐसा कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरंगिणी
सेना भी है।
सो सुनि रामहि
भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू॥
भरत सुभाउ
समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥
यह सुनकर राम
को अत्यंत सोच हुआ। इधर तो पिता के वचन और उधर भाई भरत का संकोच! भरत के स्वभाव को
मन में समझकर तो प्रभु राम चित्त को ठहराने के लिए कोई स्थान ही नहीं पाते हैं।
समाधान तब भा
यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥
लखन लखेउ
प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥
तब यह जानकर
समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं तथा मेरे कहने में (आज्ञाकारी) हैं।
लक्ष्मण ने देखा कि प्रभु राम के हृदय में चिंता है तो वे समय के अनुसार अपना
नीतियुक्त विचार कहने लगे -
बिनु पूछें
कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं॥
तुम्ह सर्बग्य
सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥
हे स्वामी!
आपके बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूँ; सेवक समय पर ढिठाई करने से ढीठ नहीं समझा जाता (अर्थात आप
पूछें तब मैं कहूँ, ऐसा अवसर नहीं है; इसलिए यह मेरा कहना ढिठाई नहीं होगा)। हे स्वामी! आप
सर्वज्ञों में शिरोमणि हैं (सब जानते ही हैं)। मैं सेवक तो अपनी समझ की बात कहता
हूँ।
दो० - नाथ सुहृद
सुठि सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति
प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥ 227॥
हे नाथ! आप
परम सुहृद (बिना ही कारण परम हित करनेवाले), सरल हृदय तथा शील और स्नेह के भंडार हैं,
आपका सभी पर प्रेम और विश्वास है,
और अपने हृदय में सबको अपने ही समान जानते हैं॥ 227॥
बिषई जीव पाइ
प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥
भरतु नीति रत
साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥
परंतु मूढ़
विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत
नीतिपरायण, साधु और चतुर हैं तथा प्रभु (आप) के चरणों में उनका प्रेम है,
इस बात को सारा जगत जानता है।
तेऊ आजु राम
पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥
कुटिल कुबंधु
कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥
वे भरत भी आज
राम (आप) का पद (सिंहासन या अधिकार) पाकर धर्म की मर्यादा को मिटाकर चले हैं।
कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि राम (आप) वनवास में अकेले (असहाय)
हैं,
करि कुमंत्रु
मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू॥
कोटि प्रकार
कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥
अपने मन में
बुरा विचार करके, समाज जोड़कर राज्यों को निष्कंटक करने के लिए यहाँ आए हैं।
करोड़ों (अनेकों) प्रकार की कुटिलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आए हैं।
जौं जियँ होति
न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥
भरतहि दोसु
देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥
यदि इनके हृदय
में कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोड़े और हाथियों की कतार (ऐसे समय) किसे सुहाती?
परंतु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे?
राजपद पा जाने पर सारा जगत ही पागल (मतवाला) हो जाता है।
दो० - ससि गुर
तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें
बिमुख भा अधम न बेन समान॥ 228॥
चंद्रमा
गुरुपत्नी गामी हुआ, राजा नहुष ब्राह्मणों की पालकी पर चढ़ा। और राजा वेन के
समान नीच तो कोई नहीं होगा, जो लोक और वेद दोनों से विमुख हो गया॥ 228॥
सहसबाहु
सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥
भरत कीन्ह यह
उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ॥
सहस्रबाहु,
देवराज इंद्र और त्रिशंकु आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं
दिया?
भरत ने यह उपाय उचित ही किया है,
क्योंकि शत्रु और ऋण को कभी जरा भी शेष नहीं रखना चाहिए।
एक कीन्हि
नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई॥
समुझि परिहि
सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥
हाँ,
भरत ने एक बात अच्छी नहीं की, जो राम (आप) को असहाय जानकर उनका निरादर किया! पर आज
संग्राम में राम (आप) का क्रोधपूर्ण मुख देखकर यह बात भी उनकी समझ में विशेष रूप
से आ जाएगी (अर्थात इस निरादर का फल भी वे अच्छी तरह पा जाएँगे)।
एतना कहत नीति
रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला॥
प्रभु पद बंदि
सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥
इतना कहते ही
लक्ष्मण नीतिरस भूल गए और युद्ध-रसरूपी वृक्ष पुलकावली के बहाने से फूल उठा
(अर्थात नीति की बात कहते-कहते उनके शरीर में वीर रस छा गया)। वे प्रभु राम के
चरणों की वंदना करके, चरण-रज को सिर पर रखकर सच्चा और स्वाभाविक बल कहते हुए
बोले।
अनुचित नाथ न
मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा॥
कहँ लगि सहिअ
रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥
हे नाथ! मेरा
कहना अनुचित न मानिएगा। भरत ने हमें कम नहीं प्रचारा है (हमारे साथ कम छेड़छाड़
नहीं की है)। आखिर कहाँ तक सहा जाए और मन मारे रहा जाए,
जब स्वामी हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में है!
दो० - छत्रि
जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें
चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥ 229॥
क्षत्रिय जाति,
रघुकुल में जन्म और फिर मैं राम (आप) का अनुगामी (सेवक) हूँ,
यह जगत जानता है। (फिर भला कैसे सहा जाए?)
धूल के समान नीच कौन है, परंतु वह भी लात मारने पर सिर ही चढ़ती है॥ 229॥
उठि कर जोरि
रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
बाँधि जटा सिर
कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥
यों कहकर
लक्ष्मण ने उठकर, हाथ जोड़कर आज्ञा माँगी। मानो वीर रस सोते से जाग उठा हो।
सिर पर जटा बाँधकर कमर में तरकस कस लिया और धनुष को सजाकर तथा बाण को हाथ में लेकर
कहा -
आजु राम सेवक
जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
राम निरादर कर
फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥
आज मैं राम
(आप) का सेवक होने का यश लूँ और भरत को संग्राम में शिक्षा दूँ। राम (आप) के
निरादर का फल पाकर दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) रण-शय्या पर सोएँ!
आइ बना भल सकल
समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
जिमि करि निकर
दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥
अच्छा हुआ जो
सारा समाज आकर एकत्र हो गया। आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूँगा। जैसे सिंह
हाथियों के झुंड को कुचल डालता है और बाज जैसे लवे को लपेट में ले लेता है।
तैसेहिं भरतहि
सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
जौं सहाय कर
संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥
वैसे ही भरत
को सेना समेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार करके मैदान में पछाड़ूँगा। यदि शंकर भी
आकर उनकी सहायता करें, तो भी, मुझे राम की सौगंध है, मैं उन्हें युद्ध में (अवश्य) मार डालूँगा (छोड़ूँगा नहीं)।
दो० - अति
सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब
लोकपति चाहत भभरि भगान॥ 230॥
लक्ष्मण को
अत्यंत क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर और उनकी प्रामाणिक (सत्य) सौगंध सुनकर सब लोग
भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबड़ाकर भागना चाहते हैं॥ 230॥
जगु भय मगन
गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥
तात प्रताप
प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥
सारा जगत भय
में डूब गया। तब लक्ष्मण के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई - हे
तात! तुम्हारे प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है?
अनुचित उचित
काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ॥
सहसा करि
पाछें पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥
परंतु कोई भी
काम हो,
उसे अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा
कहते हैं। वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके
पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान नहीं हैं।
सुनि सुर बचन
लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने॥
कही तात तुम्ह
नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥
देववाणी सुनकर
लक्ष्मण सकुचा गए। राम और सीता ने उनका आदर के साथ सम्मान किया (और कहा -) हे तात!
तुमने बड़ी सुंदर नीति कही। हे भाई! राज्य का मद सबसे कठिन मद है।
जो अचवँत नृप
मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥
सुनहू लखन भल
भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥
जिन्होंने
साधुओं की सभा का सेवन (सत्संग) नहीं किया, वे ही राजा राजमदरूपी मदिरा का आचमन करते ही (पीते ही)
मतवाले हो जाते हैं। हे लक्ष्मण! सुनो, भरत-सरीखा उत्तम पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में न तो कहीं
सुना गया है, न देखा ही गया है।
दो० - भरतहि
होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि
काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥ 231॥
(अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है) ब्रह्मा,
विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं
होने का! क्या कभी काँजी की बूँदों से क्षीरसमुद्र नष्ट हो सकता (फट सकता) है?॥ 231॥
तिमिरु तरुन
तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥
गोपद जल
बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥
अंधकार चाहे
तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए। गौ के
खुर-इतने जल में अगस्त्य डूब जाएँ और पृथ्वी चाहे अपनी स्वाभाविक क्षमा (सहनशीलता)
को छोड़ दे।
मसक फूँक मकु
मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥
लखन तुम्हार
सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥
मच्छर की फूँक
से चाहे सुमेरु उड़ जाए। परंतु हे भाई! भरत को राजमद कभी नहीं हो सकता। हे लक्ष्मण!
मैं तुम्हारी शपथ और पिता की सौगंध खाकर कहता हूँ, भरत के समान पवित्र और उत्तम भाई संसार में नहीं है।
सगुनु खीरु
अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥
भरतु हंस
रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥
हे तात!
गुरुरूपी दूध और अवगुणरूपी जल को मिलाकर विधाता इस दृश्य-प्रपंच (जगत) को रचता है,
परंतु भरत ने सूर्यवंशरूपी तालाब में हंस रूप जन्म लेकर गुण
और दोष का विभाग कर दिया (दोनों को अलग-अलग कर दिया)।
गहि गुन पय
तजि अवगुण बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
कहत भरत गुन
सीलु सुभाऊ। प्रेम पयोधि मगन रघुराऊ॥
गुणरूपी दूध
को ग्रहण कर और अवगुणरूपी जल को त्यागकर भरत ने अपने यश से जगत में उजियाला कर
दिया है। भरत के गुण, शील और स्वभाव को कहते-कहते रघुनाथ प्रेमसमुद्र में मग्न हो
गए।
दो० - सुनि
रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम
सो प्रभु को कृपानिकेतु॥ 232॥
राम की वाणी
सुनकर और भरत पर उनका प्रेम देखकर समस्त देवता उनकी सराहना करने लगे (और कहने लगे)
कि राम के समान कृपा के धाम प्रभु और कौन हैं?॥ 232॥
जौं न होत जग
जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥
कबि कुल अगम
भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥
यदि जगत में
भरत का जन्म न होता, तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता?
हे रघुनाथ! कविकुल के लिए अगम (उनकी कल्पना से अतीत) भरत के
गुणों की कथा आपके सिवा और कौन जान सकता है?
लखन राम सियँ
सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब
सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥
लक्ष्मण,
राम और सीता ने देवताओं की वाणी सुनकर अत्यंत सुख पाया,
जो वर्णन नहीं किया जा सकता। यहाँ भरत ने सारे समाज के साथ
पवित्र मंदाकिनी में स्नान किया।
सरित समीप
राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥
चले भरतु जहँ
सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥
फिर सबको नदी
के समीप ठहराकर तथा माता, गुरु और मंत्री की आज्ञा माँगकर निषादराज और शत्रुघ्न को
साथ लेकर भरत वहाँ चले जहाँ सीता और रघुनाथ थे।
समुझि मातु
करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
रामु लखनु सिय
सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥
भरत अपनी माता
कैकेयी की करनी को समझकर (याद करके) सकुचाते हैं और मन में करोड़ों (अनेकों)
कुतर्क करते हैं (सोचते हैं -) राम, लक्ष्मण और सीता मेरा नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी
जगह उठकर न चले जाएँ।
दो० - मातु
मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि
आदरहिं समुझि आपनी ओर॥ 233॥
मुझे माता के
मत में मानकर वे जो कुछ भी करें सो थोड़ा है, पर वे अपनी ओर समझकर (अपने विरद और संबंध को देखकर) मेरे
पापों और अवगुणों को क्षमा करके मेरा आदर ही करेंगे॥ 233॥
जौं परिहरहिं
मलिन मनु जानी। जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥
मोरें सरन
रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥
चाहे मलिन-मन
जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें,
(कुछ भी करें);
मेरे तो राम की जूतियाँ ही शरण हैं। राम तो अच्छे स्वामी
हैं,
दोष तो सब दास का ही है।
जग जग भाजन
चातक मीना। नेम प्रेम निज निपुन नबीना॥
अस मन गुनत
चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥
जगत में यश के
पात्र तो चातक और मछली ही हैं, जो अपने नेम और प्रेम को सदा नया बनाए रखने में निपुण हैं।
ऐसा मन में सोचते हुए भरत मार्ग में चले जाते हैं। उनके सब अंग संकोच और प्रेम से
शिथिल हो रहे हैं।
फेरति मनहुँ
मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी॥
जब समुझत
रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥
माता की हुई
बुराई मानो उन्हें लौटाती है, पर धीरज की धुरी को धारण करनेवाले भरत भक्ति के बल से चले
जाते हैं। जब रघुनाथ के स्वभाव को समझते (स्मरण करते) हैं तब मार्ग में उनके पैर
जल्दी-जल्दी पड़ने लगते हैं।
भरत दसा तेहि
अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥
देखि भरत कर
सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥
उस समय भरत की
दशा कैसी है? जैसी जल के प्रवाह में जल के भौंरे की गति होती है। भरत का सोच और प्रेम देखकर
उस समय निषाद विदेह हो गया (देह की सुध-बुध भूल गया)।
दो० - लगे होन
मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु
होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥ 234॥
मंगल-शकुन
होने लगे। उन्हें सुनकर और विचारकर निषाद कहने लगा - सोच मिटेगा,
हर्ष होगा, पर फिर अंत में दुःख होगा॥ 234॥
सेवक बचन सत्य
सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥
भरत दीख बन
सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥
भरत ने सेवक
(गुह) के सब वचन सत्य जाने और वे आश्रम के समीप जा पहुँचे। वहाँ के वन और पर्वतों
के समूह को देखा तो भरत इतने आनंदित हुए मानो कोई भूखा अच्छा अन्न (भोजन) पा गया
हो।
ईति भीति जनु
प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
जाइ सुराज
सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥
जैसे ईति के
भय से दुःखी हुई और तीनों (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) तापों तथा क्रूर ग्रहों और
महामारियों से पीड़ित प्रजा किसी उत्तम देश और उत्तम राज्य में जाकर सुखी हो जाए,
भरत की गति (दशा) ठीक उसी प्रकार की हो रही है।
(अधिक जल बरसना, न बरसना, चूहों का उत्पात, टिड्डियाँ, तोते और दूसरे राजा की चढ़ाई - खेतों में बाधा देनेवाले इन
छह उपद्रवों को 'ईति' कहते हैं)।
राम बास बन
संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥
सचिव बिरागु
बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू॥
राम के निवास
से वन की संपत्ति ऐसी सुशोभित है मानो अच्छे राजा को पाकर प्रजा सुखी हो। सुहावना
वन ही पवित्र देश है। विवेक उसका राजा है और वैराग्य मंत्री है।
भट जम नियम
सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी॥
सकल अंग
संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥
यम (अहिंसा,
सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) तथा नियम (शौच,
संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) योद्धा हैं। पर्वत राजधानी है,
शांति तथा सुबुद्धि दो सुंदर पवित्र रानियाँ हैं। वह
श्रेष्ठ राजा राज्य के सब अंगों से पूर्ण है और राम के चरणों के आश्रित रहने से
उसके चित्त में चाव (आनंद या उत्साह) है।
(स्वामी, अमात्य, सुहृद, कोष,
राष्ट्र, दुर्ग और सेना - राज्य के सात अंग हैं।)
दो० - जीति
मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक
राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु॥ 235॥
मोहरूपी राजा
को सेना सहित जीतकर विवेकरूपी राजा निष्कंटक राज्य कर रहा है। उसके नगर में सुख,
संपत्ति और सुकाल वर्तमान है॥ 235॥
बन प्रदेस
मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥
बिपुल बिचित्र
बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥
वनरूपी
प्रांतों में जो मुनियों के बहुत-से निवास स्थान हैं वही मानो शहरों,
नगरों, गाँवों और खेड़ों का समूह है। बहुत-से विचित्र पक्षी और
अनेकों पशु ही मानो प्रजाओं का समाज है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
खगहा करि हरि
बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा॥
बयरु बिहाइ
चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥
गैंडा,
हाथी, सिंह, बाघ, सूअर, भैंसे और बैलों को देखकर राजा के साज को सराहते ही बनता है।
ये सब आपस का वैर छोड़कर जहाँ-तहाँ एक साथ विचरते हैं। यही मानो चतुरंगिणी सेना
है।
झरना झरहिं
मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥
चक चकोर चातक
सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥
पानी के झरने
झर रहे हैं और मतवाले हाथी चिंघाड़ रहे हैं। वे ही मानो वहाँ अनेकों प्रकार के
नगाड़े बज रहे हैं। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयलों के समूह और सुंदर हंस प्रसन्न मन से कूज
रहे हैं।
अलिगन गावत
नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥
बेलि बिटप तृन
सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला॥
भौंरों के
समूह गुंजार कर रहे हैं और मोर नाच रहे हैं। मानो उस अच्छे राज्य में चारों ओर
मंगल हो रहा है। बेल, वृक्ष, तृण सब फल और फूलों से युक्त हैं। सारा समाज आनंद और मंगल
का मूल बन रहा है।
दो० - राम सैल
सोभा निरखि भरत हृदयँ अति प्रेमु।
तापस तप फलु
पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु॥ 236॥
राम के पर्वत
की शोभा देखकर भरत के हृदय में अत्यंत प्रेम हुआ। जैसे तपस्वी नियम की समाप्ति
होने पर तपस्या का फल पाकर सुखी होता है॥ 236॥
श्री राम चरित
मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, बीसवाँ विश्राम समाप्त॥
शेष जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- अयोध्याकांड मासपारायण, इक्कीसवाँ विश्राम
पूर्व पढ़े- रामचरितमानस बालकांड मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम
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