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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
शिवसङ्कल्पोपनिषत्
व्यक्ति अपनी सोच,
आदतों और दृष्टिकोण का मूल्यांकन करता है। मूल्यांकन की यह
प्रक्रिया कुछ नए संकल्पों के साथ समाप्त होती है। भारतीय मनीषी यह मानती है कि
संकल्प ही सृष्टि का कारण है। जैसे संकल्प होते हैं वैसी ही स्थितियों का सृजन
होती है। शिवसङ्कल्पोपनिषत् या शिवसंकल्प उपनिषद जिसे की शिव संकल्पसूक्त भी कहते
हैं,संकल्पों के परिष्कार और शुभ संकल्पों को मन में स्थापित करने का एक वैदिक
आवाहन है…
यजुर्वेद में मन को शुभ संकल्पों से
युक्त करने की महत्वाकांक्षा बहुत ही काव्यमयी और सरस तरीके से अभिव्यक्त हुई है।
यहां मन की महिमा का विशद और सूक्ष्म विवेचन है। यह उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद के
अध्याय ३४ के मंत्र १ से ६ में वर्णित है, मन को शुभ संकल्पों से युक्त बनाने की
प्रार्थना ‘शिव संकल्पसूक्त’ के रूप में अभिव्यक्त हुई है। रुद्राष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के अंतिम
छः श्लोक ही शिव संकल्पसूक्त हैं । इस सूक्त में आधुनिक मनोविज्ञान के दर्शन होते
हैं। इस सूक्त में विविध तरीकों से मन को शुभ संकल्पों से भरने के लिए प्रार्थना
की गई है। शिव संकल्प सूक्त हमारे संकल्पों के परिष्कार कर और परिष्कृत संकल्पों
को मन में स्थापित करने में अतीव सहायक है। शिव संकल्प सूक्त हमारे मन में शुभ व
पवित्र विचारों की स्थापना हेतु एक आवाहन है। मन हमारी इंद्रियों का स्वामी है। एक
तरफ हमारीं इंद्रियां भौतिक विषयवस्तु की तथ्यसूचना प्रदान करने का कार्य करती हैं,
वहीं हमारा मन इन इंद्रियों में ज्ञानरूपी प्रकाश बनकर इन तथ्यों का
विश्लेषण कर व उनको निर्देश प्रदान कर हमारे विचारों के रुप में हमें यथोचित कर्म
करने हेतु उत्प्रेरित करता है। इस प्रकार
हमारा मन जितना शुभसंकल्प युक्त होता है, हमारा जीवन व इसका
अभीष्ट कर्म उतना ही शुभ, सुंदर, पवित्र
और समग्र होता है।
॥ श्रीशिवसङ्कल्पोपनिषत्॥
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु
सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १॥
वह दिव्य ज्योतिमय शक्ति (मन) जो
हमारे जागने की अवस्था में बहुत दूर तक चला जाता है, और हमारी निद्रावस्था में हमारे पास आकर आत्मा में विलीन हो जाता है,वह प्रकाशमान स्रोत जो हमारी इंद्रियों को प्रकाशित करता है, ऐसा मेरा मन शुभसंकल्प युक्त हो।
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे
कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥२॥
जिस मन की सहायता से ज्ञानीजन
कर्मयोग की साधना में लीन यज्ञ,जप,तप करते हैं,वह जो सभी जनों के शरीर में विलक्षण रुप
से स्थित है, ऐसा मेरा मन शुभसंकल्प युक्त हो।
यत् प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च
यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ।
यस्मान्न ऋ ते किन कर्म क्रियते
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥३॥
जो मन ज्ञान,
चित्त व धैर्य स्का स्वरूप है तथा अविनाशी आत्मा से युक्त इन समस्त
प्राणियों के भीतर ज्योति स्वरूप विद्यमान है, ऐसा मेरा मन
शुभसंकल्प युक्त हो।
येनेदं भूतं भुवनं
भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु॥४॥
जिस शाश्वत मन द्वारा भूत,भविष्य व वर्तमान काल की सारी वस्तुएं सब ओर से ज्ञात होती हैं और जिस मन
के द्वारा सप्तहोत्रिय यज्ञ (सात ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला यज्ञ) किया
जाता है, ऐसा मेरा मन शुभसंकल्प युक्त हो।
यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन्
प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥५॥
जिस मन में ऋ ग्वेद की ऋ चाएं व
सामवेद व यजुर्वेद के मंत्र उसी प्रकार स्थापित हैं, जैसे रथ के पहिए की धुरी से तीलियां जुड़ी होती हैं। जिसमें सभी प्राणियों
का ज्ञान कपड़े के तंतुओं की तरह बुना हुआ होता है, ऐसा मेरा
मन शुभसंकल्प युक्त हो।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्
नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥६॥
जो मन,
मनुष्य को इंद्रियों को उसी प्रकार नियंत्रित करता है अथवा
विषय-वासनाओं का चक्कर लगाने के लिए प्रेरित करता है, जैसे
एक कुशल सारथी लगाम द्वारा रथ के वेगवान अश्वों को नियंत्रित करता व दौड़ाता है।
जो अजर तथा अति वेगवान है व प्रणियों के हृदय में स्थित है, ऐसा
मेरा मन शुभसंकल्प युक्त हो।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ इति श्रीशिवसङ्कल्पोपनिषत् ॥
इसके अतिरिक्त भी एक अन्य शिवसङ्कल्पोपनिषत्
पुराणों में मिलता है जिसका मूल पाठ पाठकों के हितार्थ यहाँ नीचे दिया जा रहा है-
शिवसङ्कल्पोपनिषत् २
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्
परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १॥
येन कर्माणि प्रचरन्ति धीरा यतो
वाचा मनसा चारु यन्ति ।
यत्सम्मितमनु संयन्ति
प्राणिनस्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २॥
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे
कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३॥
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च
यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ।
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ४॥
सुषारथिरश्वानिव
यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव ।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ५॥
यस्मिन्नृचः साम यजूषि यस्मिन्
प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ६॥
यदत्र षष्ठं त्रिशतं सुवीरं यज्ञस्य
गुह्यं नवनावमाय्यं (?) ।
दश पञ्च त्रिंशतं यत्परं च तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ७॥
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु
सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ८॥
येन द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षं च ये
पर्वताः प्रदिशो दिशश्च ।
येनेदं जगद्व्याप्तं प्रजानां तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ९॥
येनेदं विश्वं जगतो बभूव ये देवा
अपि महतो जातवेदाः ।
तदेवाग्निस्तमसो ज्योतिरेकं तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १०॥
ये मनो हृदयं ये च देवा ये दिव्या
आपो ये सूर्यरश्मिः ।
ते श्रोत्रे चक्षुषी सञ्चरन्तं
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ११॥
अचिन्त्यं चाप्रमेयं च
व्यक्ताव्यक्तपरं च यत ।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं ज्ञेयं तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १२॥
एका च दश शतं च सहस्रं चायुतं च
नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च
न्यर्बुदं च ।
समुद्रश्च मध्यं चान्तश्च परार्धश्च
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १३॥
ये पञ्च पञ्चदश शतं सहस्रमयुतं
न्यर्बुदं च ।
तेऽग्निचित्येष्टकास्तं शरीरं तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १४॥
वेदाहमेतं पुरुषं
महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
यस्य योनिं परिपश्यन्ति धीरास्तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥
यस्येदं धीराः पुनन्ति कवयो
ब्रह्माणमेतं त्वा वृणुत इन्दुम् ।
स्थावरं जङ्गमं द्यौराकाशं तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १६॥
परात् परतरं चैव यत्पराच्चैव
यत्परम् ।
यत्परात् परतो ज्ञेयं तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १७॥
परात् परतरो ब्रह्मा तत्परात् परतो
हरिः ।
तत्परात् परतोऽधीशस्तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १८॥
या वेदादिषु गायत्री सर्वव्यापी
महेश्वरी ।
ऋग्यजुस्सामाथर्वैश्च तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १९॥
यो वै देवं महादेवं प्रणवं
पुरुषोत्तमम् ।
यः सर्वे सर्ववेदैश्च तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २०॥
प्रयतः प्रणवोङ्कारं प्रणवं
पुरुषोत्तमम् ।
ओङ्कारं प्रणवात्मानं तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २१॥
योऽसौ सर्वेषु वेदेषु पठ्यते ह्यज
इश्वरः ।
अकायो निर्गुणो ह्यात्मा तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २२॥
गोभिर्जुष्टं धनेन ह्यायुषा च बलेन
च ।
प्रजया पशुभिः पुष्कराक्षं तन्मे
मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २३॥
त्रियम्बकं यजामहे सुगन्धिं
पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव
बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय
माऽमृतात्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
॥ २४॥
कैलासशिखरे रम्ये शङ्करस्य शिवालये
।
देवतास्तत्र मोदन्ते तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २५॥
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो
विश्वतोहस्त उत विश्वतस्पात् ।
सम्बाहुभ्यां नमति
सम्पतत्रैर्द्यावापृथिवी
जनयन् देव एकस्तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २६॥
चतुरो वेदानधीयीत सर्वशास्यमयं
विदुः ।
इतिहासपुराणानां तन्मे मन
शिवसङ्कन्ल्पमस्तु ॥ २७॥
मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न
उक्षन्तमुत मा न उक्षितम् ।
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं प्रिया
मा नः
तनुवो रुद्र रीरिषस्तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २८॥
मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो
गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः ।
वीरान्मा नो रुद्र भामितो
वधीर्हविष्मन्तः
नमसा विधेम ते तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ २९॥
ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं
कृष्णपिङ्गळम् ।
ऊर्ध्वरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपाय
वै नमो नमः
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३०॥
कद्रुद्राय प्रचेतसे मीढुष्टमाय
तव्यसे ।
वोचेम शन्तमं हृदे । सर्वो ह्येष
रुद्रस्तस्मै रुद्राय
नमो अस्तु तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३१॥
ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तात् वि
सीमतः सुरुचो वेन आवः ।
स बुध्निया उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च
योनिं
असतश्च विवस्तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३२॥
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक
इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै
देवाय
हविषा विधेम तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३३॥
य आत्मदा बलदा यस्य विश्वे उपासते
प्रशिषं यस्य देवाः ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै
देवाय
हविषा विधेम तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३४॥
यो रुद्रो अग्नौ यो अप्सु य ओषधीषु
यो रुद्रो विश्वा भुवनाऽऽविवेश ।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३५॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां
नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये
श्रियं
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३६॥
य इदं शिवसङ्कल्पं सदा ध्यायन्ति
ब्राह्मणाः ।
ते परं मोक्षं गमिष्यन्ति तन्मे मनः
शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ३७॥
इति शिवसङ्कल्पमन्त्राः समाप्ताः ।
(शैव-उपनिषदः)
इति शिवसङ्कल्पोपनिषत् समाप्त ।
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