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कर्मकाण्ड

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एकमुखी हनुमत्कवचम्

एकमुखी हनुमत्कवचम्

इससे पूर्व आपने श्रीसुदर्शनसंहिता से लिया गया श्रीहनुमत्कवचम्, श्रीमद आनन्दरामायणान्तर्गत श्रीहनुमत्कवचम् तथा नारद पुराण में श्रीमारुतिकवच का उल्लेख है पढ़ा । इसी क्रम में अब आप श्रीएकमुखी हनुमत्कवचम् पढेंगे। इस कवच के पाठ से या इसे धारण करने से सभी प्रकार के उपद्रव नष्ट हो जाते हैं। भूत, प्रेत, एवं शत्रु से उत्पन्न दु:खों का तत्काल नाश हो जाता है। इसे साक्षात् भगवान शिव ने माता पार्वती को उपदेश किया है ।

श्रीएकमुखी हनुमत्कवचम्

एकमुखी हनुमान कवचम्

Eka mukhi Hanuman kavach

॥ रामदास उवाच ॥

एकदा सुखमासीनं शंकरं लोकशंकरम् ।

प्रपच्छ गिरिजा कान्तं कर्पूरधवलं शिवं ॥ १ ॥

रामदास ने कहा- एक बार कर्पूर के समान अत्यन्त शुभ्र वर्णमयी लोक कल्याणी सुखासन में बैठे शिवजी से पार्वती जी ने पूछा-

॥ पार्वत्युवाच ॥

भगवन् देवदेवेश लोकनाथ जगत्प्रभो ।

शोकाकुलानां लोकानां केन रक्षा भवेद्भव ॥ २ ॥

संग्रामे संकटे घोरे भूत प्रेतादि के भये ।

दुःख दावाग्नि संतप्तचेतसाँ दुः खभागिनाम् ॥ ३ ॥

पार्वती जी ने पूछाहे भगवन! हे देव देवेश! हे जगत के प्रभु ! युद्ध के संकट वाले समय, भूत-प्रेत पीड़ित हो जाने पर दुःख के भरमार हो जाने पर और शोकादि के बढ़ जाने पर सन्तप्त हृदयों की रक्षा किस प्रकार से होगी।

॥ महादेव उवाच: ॥

श्रणु देवि प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।

विभीषणाय रामेण प्रेम्णाँ दत्तं च यत्पुरा ॥ ४ ॥

कवच कपिनाथस्य वायुपुत्रस्य धीमतः ।

गुह्यं तत्ते प्रवक्ष्यामि विशेषाच्छणु सुन्दरी ॥ ५ ॥

महादेव ने बताया- सुनो देवी! लोक के कल्याणार्थ भगवान राम ने विभीषण को जो-वायु पुत्र कपिनाथ अर्थात् हनुमान का कवच बताया था वो अत्यन्त गोपनीय है। इस विशेष कवच को हे सुन्दरी श्रवण करो।

एकमुखी हनुमद् कवच

॥ विनियोगः ॥

ॐ अस्य श्री हनुमान कवच स्तोत्र मन्त्रस्य श्री रामचंद्र ऋषिः श्री वीरो हनुमान् परमात्माँ देवता, अनुष्टुप छन्दः, मारुतात्मज इति बीजम्, अंजनीसुनुरीति शक्तिः, लक्ष्मण प्राणदाता इति जीवः, श्रीराम भक्ति रिति कवचम्, लंकाप्रदाहक इति कीलकम् मम सकल कार्य सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥

॥ मन्त्रः ॥

ॐ ऐं श्रीं ह्राँ ह्रीं हूं हैं ह्रौं ह्रः ॥

इस मन्त्र को यथाशक्ति जपें।

॥ करन्यासः ॥

ॐ ह्राँ अंगुष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।

ॐ ह्रूं मध्यमाभ्याँ नमः ।

ॐ ह्रैं अनामिकाभ्याँ नमः ।

ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्याँ नमः ।

ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ।

॥ हृदयादिन्यास ॥

ॐ अंजनी सूतवे नमः हृदयाय नमः ।

ॐ रुद्रमूर्तये नमः, शिरसे स्वाहा ।

ॐ वातात्मजाय नमः, शिखायं वषट ।

ॐ रामभक्तिरताय नमः, कवचाय हुम् ।

ॐ वज्र कवचाय नमः, नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॐ ब्रह्मास्त्र निवारणाय नमः अस्त्राय फट् ।

॥ ध्यान ॥

ॐ ध्यायेद बालदिवाकर द्युतिनिभं देवारिदर्पापहं ।

देवेन्द्र प्रमुख प्रशस्तयशसं देदीप्यमानं रुचा ॥ १ ॥

सुग्रीवादि समस्त वानरयुतं सुव्यक्ततत्वप्रियं ।

संरक्तारूण लोचनं पवनजं पीताम्बरालंकतम् ॥ २ ॥

उदयकाल के सूर्य के समान कांति वाले, असुरों के गर्व का नाश करने वाले देवतादि प्रमुख उत्तम कीर्तिमयी, पूर्ण तेजस्वी, सुग्रीवादि वानर सहित, ब्रह्मतत्व को प्रत्यक्ष करने वाले, रक्त व अरुण नेत्रमयी, पीताम्बर से अलंकृत हनुमान जी का ध्यान करना चाहिये।

उद्यमार्तण्ड कोटि प्रकट रुचि युतं चारुबीरासनस्थं ।

मौंजी यज्ञोपवीताऽऽभरण रुचि शिखा शोभितं कुण्डलाढयम् ॥ ३ ॥

भक्तानामिष्टदम्नप्रणतमुनजनं वेदनादप्रमोदं ।

ध्यायेद्देवं विधेय प्लवगकुलपति गोष्पदीभूतवर्धिम् ॥ ४ ॥

उदयकाल के करोड़ों सूर्य समान कांतिमयी, वीरासन में शोभित अत्यन्त रुचि से मौंजी तथा यज्ञोपवीत को धारण करने वाले, कुण्डलों से सुशोभित, भक्तों की वाँछा पूर्ण करने में चतुर, वेदों के शब्द से अपार हर्षित होने वाले, वानरों के प्रमुख एवं अत्यधिक विस्तृत समुद्र को अचानक लांघ जाने वाले हनुमानजी का ध्यान करना चाहिए।

वज्राँङ्ग पिंगकेशाढ्यं स्वर्णकुण्डल मण्डितम् ।

उद्यदक्षिण दोर्दण्डं हनुमन्तं विचिन्तये ॥ ५ ॥

स्फटिकाभं स्वर्णकान्तिं द्विभुजं च कृताञ्जलिम् ।

कुण्डलद्वय संशोभि मुखाम्भोजं हरिं भजे ॥ ६ ॥

जिनका शरीर वज्र के समान कठोर है। केश पीले हैं। जिन्होंने स्वर्ण कुण्डल धारण किये हुए हैं। जिनका दाहिना हाथ ऊपर को उठा हुआ है। स्फटिक के समान कांतिमयी, स्वर्ण की भाँति देदीप्यमान, दो भुजामयी, जिन्होंने हाथों की अंजलि बना रखी है। ऐसे हनुमान जी का ध्यान करता हूँ ।

॥ हनुमान मन्त्र ॥

निम्नलिखित मन्त्र सावधानी से जपें-

ॐ नमो भगवते हनुमदाख्य रुद्राय सर्व दुष्ट जन मुख स्तम्भनं कुरु कुरु ॐ ह्राँ ह्रीं हूँ ठं ठं ठं फट् स्वाहा, ॐ नमो हनुमते शोभिताननाय यशोऽलंकृताय अंजनी गर्भ सम्भूताय रामलक्ष्मणनंदकाय कपि सैन्य प्राकाशय पर्वतोत्पाटनाय सुग्रीवसाह्य करणाय परोच्चाटनाय कुमार ब्रह्मचर्याय गम्भीर शब्दोदयाय ॐ ह्राँ ह्रीं ह्रूँ सर्व दुष्ट ग्रह निवारणाय स्वाहा ।

ॐ नमो हनुमते सर्व ग्राहभूत भविष्यद्वर्तमान दूरस्थ समीप स्थान् छिंधि छिंधि भिधि भिधि सर्व काल दुष्ट बुद्धिमुच्चाटयोच्चाटय परबलान क्षोभय क्षोभय मम सर्व कार्याणि साधय साधय ॐ ह्राँ ह्रीं हूँ फट् देहि ॐ शिव सिद्धि ॐ ह्रौं ह्रीं ह्रूँ स्वाहा ।

ॐ नमो हनुमते पर कृत यन्त्र मन्त्र पराहङ्कार भूत प्रेत - पिशाच पर दृष्टि सर्व तर्जन चेटक विद्या सर्व ग्रह भयं निवारय निवारय, वध वध, पच पच, दल दल, विलय विलय सर्वाणिकयन्त्राणि कुट्टय कुट्टय, ऊँ ह्राँ ह्रीं ह्रूँ फट्  स्वाहा ।

ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि ऐहि ऐहि सर्व ग्रह भूतानाँ शाकिनी डाकिनीनां विषमदुष्टानां सर्वेषामाकर्षय कर्षय, मर्दय मर्दय, छेदय छेदय, मृत्यून् मारय मारय, शोषय शोषय, प्रज्वल प्रज्वल, भूत मण्डल, पिशाच मण्डल, निरसनाय भूत ज्वर, प्रेत ज्वर, चातुर्थिक ज्वर, विष्णु ज्वर, महेश ज्वरं, छिन्धि छिन्धि, भिधि भिधि, अक्षि शूल, पक्ष शूल, शिरोऽभ्यंतर शूल, गुल्म शूल, पित्त शूल, ब्रह्म राक्षस कुल पिशाच कुलच्छेदनं कुरु प्रबल नागकुल।

विषं निर्विषं कुरु कुरु झटति झटति, ऊँ ह्राँ ह्रीं हूं फट् सर्व ग्रह निवारणाय स्वाहा । ॐ नमो हनुमते पुत्राय वैश्वानर पाप दृष्टि, चोर, दृष्टि हनुमदाज्ञा स्फुर ॐ स्वाहा, ॐ ह्रौं ह्रीं ह्रूँ फट् घे घे स्वाहा ।

श्री एकमुखी हनुमत्कवचम्

॥ श्री राम उवाच ॥

हनुमान पूर्वतः पातु दक्षिणे पवनात्मजः ।

पातु प्रतीच्याँ रक्षोघ्नः पातु सागरपारगः ॥ १ ॥

उदीच्यामूर्ध्वगः पातु केसरी प्रिय नन्दनः ।

अधस्ताद् विष्णु भक्तस्तु पातु मध्यं च पावनिः ॥ २ ॥

अवान्तर दिशः पातु सीता शोकविनाशकः ।

लंकाविदाहकः पातु सर्वापद्भ्यो निरंतरम् ॥ ३ ॥

श्री राम ने कहा- पूर्व में हनुमान, दक्षिण में पवनात्मज, पश्चिम में रक्षोघ्न, उत्तर में सागर पारग, ऊपर से केसरी नन्दन, नीचे से विष्णु भक्त, मध्य में पावनि, अवान्तर दिशाओं सीता शोक विनाशक तथा समस्त मुसीबतों में लंका विदाहक मेरी रक्षा करें।

सुग्रीव सचिवः पातु मस्तकं वायुनन्दनः ।

भालं पातु महावीरो ध्रुवोंमध्ये निरन्तरम् ॥ ४ ॥

नेत्रेच्छायापहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः ।

कपोले कर्णमूले च पातु श्री राम किंकरः ॥ ५ ॥

नासाग्रमञ्जनीसूनु पातु वक्त्रं हरीश्वर ।

वाचं रुद्रप्रिय पातु जिह्वा पिंगल लोचनः ॥ ६ ॥

सचिव सुग्रीव मेरे मस्तक की वायुनन्दन भाल की, महावीर भौंहों के मध्य की, छायापहारी नेत्रों की, प्लवगेश्वर कपोलों की, रामकिंकर कर्णमूल की, अंजनीसुत नासाग्र की, हरीश्वर सुख की, रुद्रप्रिय वाणी की तथा पिंगल लोचन मेरी जीभ की सर्वदा रक्षा करें।

पातु दन्तान फाल्गुनेष्टाश्चिबुकं दैत्यापादहा ।

पातु कण्ठं च दैत्यारीः स्कन्धौ पातु सुरार्चितः ॥ ७ ॥

भुजौ पातु महातेजाः करौ तो चरणायुधः ।

नखान नखायुधः पातु कुक्षिं पातु कपीश्वरः ॥ ८ ॥

वक्षो मुद्रापहारी च पातु पार्श्वे भुजायुधः ।

लंकाविभञ्जनः पातु पृष्ठदेशे निरन्तरम् ॥ ९ ॥

फाल्गुनेष्ट मेरे दाँतों की, दैत्यापादहा चिबुक की, दैत्यारी कंठ की, सुरार्चित मेरे कन्धों की, महातेजा भुजाओं की, चरणायुध हाथों की, नखायुध नखों की, कपीश्वर कोख की, मुद्रापहारी वक्ष की, भुजायुध अगल-बगल की, लंकाविभंजन मेरी पीठ की सदा रक्षा करें।

वाभि च रामदूतस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः ।

गुह्यं पातु महाप्राज्ञो लिंग पातु शिव प्रियः ॥ १० ॥

ऊरु च जानुनी पातु लंका प्रासाद भज्जनः ।

जंघे पातु कपिश्रेष्ठो गुल्फौ पातु महाबल: ॥ ११ ॥

अचलोद्धारकः पातु पादौ भाष्कर सन्निभः ।

अङ्गान्यमित सत्त्वाढ्यः पातु पादाँगुलीस्तथा ॥ १२ ॥

रामदूत नाभि की, नीलात्मज कमर की, महाप्राण गुदा की, शिवप्रिय लिंग की, लंका प्रासाद भंजन जानु एवं उरु की, कपिश्रेष्ठ जंघा की, महाबलगुल्फों की, अचलोद्धारक पैरों की, भाष्कर सन्निया अंगों की, अमित सत्ताढव पांव वाली अंगुलियों की सर्वदा रक्षा करें।

सर्वांङ्गानि महाशूरः पातु रोमाणि चात्मवान् ।

हनुमत्कवच यस्तु पठेद् विद्वान् विचक्षणः ॥ १३ ॥

स एव पुरुषश्रेष्ठो भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ।

त्रिकालमेककालं वा पठेन्मासत्रयम् सदा ॥ १४ ॥

सर्वानरिपुन क्षणाजित्वा स पुमान्श्रियमाप्नुयात् ।

मध्यरात्रे जले स्थित्वा सप्तधारम् पठेद यदि ॥ १५ ॥

क्षयाऽपस्मार कुष्ठादि ताप ज्वर निवारणम् ।

महाशूर सभी अंगों की, आत्मवान रोगों से सर्वदा रक्षा करें। जो विद्वान इस विचक्षण कवच का पाठ करता है वह भक्ति एवं मुक्ति को प्राप्त करता है। एक समय या तीनों समय प्रतिदिन जो साधक तीन मास तक इसका पाठ करता है वह क्षणमात्र में ही शत्रु वर्ग को जीत कर लक्ष्मी प्राप्त करता है। आधी रात के समय जल के मध्य स्थित होकर इसके सात पाठ करने से क्षय, अपस्मार, कुष्ठ तथा तिजारी का निवारण होता है।

अश्वत्थमूलेऽर्कवारे स्थित्वा पठति यः पुमान् ॥ १६ ॥

अचलाँ श्रियमाप्नोति संग्रामे विजयं तथा ।

लिखित्वा पूजयेद यस्तु सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ १७ ॥

यः करे धारयेन्नित्यं स पुमान् श्रियमाप्नुयात् ।

विवादे द्यूतकाले च द्यूते राजकुले रणे ॥ १८ ॥

दशवारं पठेद् रात्रौ मिताहारो जितेन्द्रियः ।

विजयं लभते लोके मानुषेषु नराधिपः ॥ १९ ॥

रविवार के दिन अश्वत्थ वृक्ष की जड़ के पास बैठकर इसका पाठ करने से संग्राम में विजय तथा अचल लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसे लिखकर फिर इसकी पूजा करने पर सर्वत्र विजय मिलती है। इसे धारण करने से लक्ष्मी प्राप्त होती है। वाद-विवाद जुआ राज घराने एवं युद्ध में इसके दशपाठ करने से विजय प्राप्त होती है।

भूत प्रेत महादुर्गे रणे सागर सम्प्लवे ।

सिंह व्याघ्रभये चोग्रे शर शस्त्रास्त्र पातने ॥ २० ॥

श्रृंखला बन्धने चैव काराग्रह नियन्त्रणे ।

कायस्तोभे वह्नि चक्रे क्षेत्रे घोरे सुदारणे ॥ २१ ॥

शोके महारणे चैव बालग्रहविनाशनम् ।

सर्वदा तु पठेन्नित्यं जयमाप्नुत्यसंशयम् ॥ २२ ॥

भूत, प्रेत, महादुख, रण, सागर, सिंह, व्याघ्र, शस्त्रास्त्र के मध्य फंस जाने पर, जंजीरों से बाँधे जाने पर, कारागार में जाने पर, आग में फँसने, शरीर में पीड़ा होने, शोकादि व ब्रह्म ग्रह के निवारण के लिए इसे प्रतिदिन पढ़ना चाहिए।

भूर्जे व वसने रक्ते क्षीमे व ताल पत्रके ।

त्रिगन्धे नाथ मश्यैव विलिख्य धारयेन्नरः ॥ २३ ॥

पञ्च सप्त त्रिलोहैर्वा गोपित कवचं शुभम् ।

गले कटयाँ बाहुमूले कण्ठे शिरसि धारितम् ॥ २४ ॥

सर्वान् कामान् वाप्नुयात् सत्यं श्रीराम भाषितं ॥ २५ ॥

भोजपत्र, लाल रेशमी वस्त्र, ताड़पत्र पर इस कवच को त्रिगन्ध की स्याही से लिखकर इसे धारण करना चाहिए। पाँच, सात तथा तीन लोहे के मध्य रखकर गले पर, कमर पर, भुजा पर या सिर पर धारण करने से धारक की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं। यह श्री राम जी ने कहा है।

ॐ ब्रह्माण्डपुराणान्तर्गते नारद अगस्त्य संवादे श्रीरामचन्द्रकथितपञ्चमुखे एकमुखी हनुमत् कवचम् ॥

 (इति आद्यानन्द यशपाल 'भारती' विरचिते हनुमद् पांचांगे ब्रह्माण्ड पुराणे श्री नारद एवं अगस्त्य मुनि संवादे श्री राम प्रोक्तं एकमुखी हनुमत्कवचं आयभा टीकां सहिते सम्पूर्णम् ॥ )

वायु-पुत्र, मारुति- नन्दन, अञ्जनी पुत्र श्री हनुमान जी के पाठो के प्रयोग व लाभ

एकमुखी हनुमत्कवचम्

यह कवच भोजपत्र के ऊपर, ताड़पत्र पर या लाल रंग के रेशमी वस्त्र पर त्रिगन्ध की स्याही से लिखकर कण्ठ या भुजा पर धारण करना चाहिये । इसे त्रिलोह के ताबीज में भर कर धारण करना लाभकारी रहता है। त्रिलोह के विषय पर विशेष जानकारी मेरी पुस्तक दत्तात्रेय तन्त्र से प्राप्त की जा सकती है।

यह कवच प्रभु श्री रामचन्द्र के द्वारा 'ब्रह्माण्ड पुराण' में व्यक्त हुआ है। उनका वचन है कि यह कवच धारक की समस्त कामनायें पूर्ण करता है ।

रविवार वाले दिन पीपल वृक्ष के नीचे बैठ कर इसका पाठ करने से धन की वृद्धि व शत्रुओं की हानि हुआ करती है।

इस कवच को लिख कर फ्रेम करवा कर पूजन स्थल पर रखने से इसकी पंचोपचार से पूजा करने पर शत्रु ह्रास को प्राप्त होते हैं। साधक का मनोबल बढता है। रात्रि के समय दस बार इसका पाठ करने से मान-सम्मान व उन्नति प्राप्त होती है।

अर्द्धरात्रि के समय जल में खड़े होकर सात बार पाठ करने से क्षय, अपस्मारादि का शमन होता है।

इस पाठ को तीनों संध्याओं के समय प्रतिदिन जपते हुए तीन मास व्यतीत करता है उसकी इच्छामात्र से शत्रुओं का हनन होता है। लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसके साधक के पास भूत-प्रेत नहीं आ पाते हैं।

आगे पढ़ें- सप्तमुखी हनुमत्कवचम्

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