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तन्त्रसारोक्त श्रीहनुमत्कल्प
देव्युवाच
शैवादिगाणपत्यादिशाक्तानि वैष्णवानि
च ।
साधनानि च सौराणि चान्यानि यानि
कानि च ॥१॥
एतानि देवदेवेश त्वदुक्तानि
श्रुतानि च ।
किंचिदन्यच्च देवानां साधनं यदि कथ्यताम्
॥२॥
पार्वतीदेवी ने पूछा-
देवदेवेश्वर! शैव, गाणपत्य, शाक्त, वैष्णव और सौर तथा अन्य जो कोई भी साधन है,
उन सबका वर्णन तो मैंने आपके श्रीमुख से श्रवण किया, अब यदि किन्हीं अन्य देवों का भी कोई साधन हो तो उसे बतलाइये॥१-२॥
शंकर उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि
सावधानावधारय ।
हनुमत्साधनं पुण्यं महापातकनाशनम् ॥३॥
एतद् गुह्यतमं लोके शीघ्रसिद्धिकरं
परम् ।
जपो यस्य प्रसादेन लोकत्रयजितो
भवेत् ॥४॥
तत्साधनविधिं वक्ष्ये नृणां
सिद्धिकरं मतम् ।
शंकरजी ने कहा-
देवि! मैं हनुमत्साधन का वर्णन करता हूँ, तुम
सावधानीपूर्वक उसे सुनो और धारण करो। यह साधन परम पवित्र, महापातकों
का विनाशक, अत्यन्त गोपनीय और संसार में शीघ्र ही उत्तम
सिद्धि प्रदान करनेवाला है। जिसकी कृपा से जप करनेवाला मनुष्य तीनों लोकों में
विजयी होता है। यह मनुष्यों के लिये सिद्धिकारक माना गया है, इसलिये मैं इसकी साधनविधि का वर्णन करता हूँ। ३-४॥
हुंकारमादौ संप्रोक्तं हनुमते
तदनन्तरम् ।
रुद्रात्मकाय हुं चैव फडिति
द्वादशाक्षरम् ॥५॥
(१ हुं हनुमते
रुद्रात्मकाय हुं फट्॥१)
एतन्मन्त्रं समाख्यातं गोपनीयं
प्रयत्नतः।
तव स्नेहेन भक्त्या च ददामि तव
सुन्दरि ॥६॥
आदि में 'हुं' कार का उच्चारण करके
तदनन्तर 'हनुमते रुद्रात्मकाय हुं' और 'फट' का उच्चारण
करने से 'हुं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट्'- यह द्वादशाक्षर हनुमन्मन्त्र भली भाँति कहा गया है। प्रयत्नपूर्वक इसे
गुप्त रखना चाहिये। सुन्दरि! तुम्हारे स्नेह और भक्ति के वशीभूत होकर मैं तुम्हें
इसे बतला रहा हूँ॥५-६॥
एतन्मन्त्रमर्जुनाय पुरा दत्तं तु
शौरिणा ।
जपेन साधनं कृत्वा जितं सर्वं
चराचरम् ॥७॥
प्राचीनकाल में श्रीकृष्ण ने
अर्जुन को यह मन्त्र प्रदान किया था। इसी मन्त्र का जप करके अर्जुन ने सारे चराचर
जगत्को जीत लिया था॥७॥
नदीकूले विष्णुगेहे निर्जने पर्वते
वने ।
एकाग्रचित्तमाधाय साधयेत् साधनं
महत् ॥८॥
नदी-तट पर,
विष्णु-मन्दिर में, जनशून्य-पर्वत पर अथवा वन में
चित्त को एकाग्र करके इस महान् मन्त्र को सिद्ध करना चाहिये॥८॥
ध्यान
महाशैलं समुत्पाट्य धावन्तं रावणं
प्रति ।
तिष्ठ तिष्ठ रणे दुष्ट मम जीवन्न
मोक्ष्यसे ॥९॥
इति ब्रुवन्तं कोपेन
क्रोधरक्तमुखाम्बुजम् ।
भोगीन्द्राभं
स्वलाङ्गुलमुत्क्षिपन्तं मुहुर्मुहुः॥१०॥
लाक्षारक्तारुणं रौद्रं
कालान्तकयमोपमम् ।
ज्वलदग्निसमं नेत्रं सूर्यकोटिसमप्रभम्
॥११॥
अङ्गदाद्यैर्महावीरवेष्टितं
रुद्ररूपिणम् ।
एवं रूपं हनूमन्तं ध्यात्वा यः
प्रजपेन्मनुम् ॥१२॥
लक्षजापात् प्रसन्नः स्यात् सत्यं
ते कथितं मया ।
ध्यानैकमाश्रितानां च सिद्धिरेव न
संशयः॥१३॥
उस समय हनुमानजी का इस प्रकार ध्यान करना चाहिये-"वे युद्धस्थल में महान् पर्वत उखाड़कर रावण पर आक्रमण कर रहे हैं और कह रहे हैं-रे दुष्ट! खड़ा रह, खड़ा रह! तू मेरे (हाथ से) जीता हुआ नहीं छूट सकेगा।' वे क्रुद्ध होकर इस प्रकार बोल रहे हैं, क्रोध के कारण उनका मुखकमल लाल हो गया है, वे शेषनाग की सी कान्तिवाली अपनी पूँछ को बारंबार फटकार रहे हैं, उनके शरीर का वर्ण लाक्षा के समान लाल है, वे अत्यन्त भयंकर और प्रलयकालीन यमराज के सदृश दीख रहे हैं। उनके नेत्र प्रज्वलित अग्नि के समान हैं और शरीर कान्ति करोड़ों सूर्यों की आभा-सरीखी है तथा उन रुद्रावतार को अङ्गद आदि श्रेष्ठ योद्धा घेरे हुए हैं।" हनुमानजी का इस रूप में ध्यान करके जो हनुमन्मन्त्र का जप करता है, उसका एक लाख जप पूर्ण होने पर हनुमानजी उस पर प्रसन्न हो जाते हैं। यह मैंने तुम्हें सत्य बात बतलायी है। जो एकमात्र ध्यान का ही आश्रय लेनेवाले हैं, उन्हें भी निस्संदेह सिद्धि प्राप्त होती है॥ ९-१३॥
प्रातः स्नात्वा नदीतीर उपविश्य
कुशासने ।
प्राणायाम षडङ्गं च मूलेन सकलं
चरेत् ॥१४॥
प्रात:काल स्नान करके नदी-तट
पर कुशासन पर बैठकर प्राणायाम करके मूलमन्त्र द्वारा षडङ्ग न्यास (करन्यास,
अङ्गन्यास आदि) करे॥१४॥
पुष्पाञ्जल्यष्टकं दत्त्वा ध्यात्वा
रामं ससीतकम् ।
ताम्रपात्रे ततः पद्ममष्टपत्रं
सकेसरम् ॥१५॥
रक्तचन्दनघृष्टेन लिखेत्तस्य शलाकया
।
कर्णिकायां लिखेन्मन्त्रं
तत्रावाह्य कपिं प्रभुम् ॥१६॥
कर्णिकायां यजेद्देवं दत्त्वा
पाद्यादिकं ततः।
गन्धपुष्पादिकं चैव निवेद्य
मूलमन्त्रतः॥१७॥
तत्पश्चात् सीता सहित श्रीराम
का ध्यान कर उन्हें आठ बार पुष्पाञ्जलि प्रदान करे। तदनन्तर ताँबे के पात्र में
रक्तचन्दन की शलाका (लेखनी)-से घिसे हुए रक्त-चन्दन से केसर सहित अष्टदल-कमल बनावे,
उसकी कर्णिका में मन्त्राक्षरों का विन्यास करे, फिर उसी कर्णिका में सामर्थ्यशाली देवता कपिराज हनुमानजी का आवाहन करके
उन्हें पाद्य-अर्घ्य आदि देने के पश्चात् मूलमन्त्र से गन्ध-पुष्प आदि निवेदित
करके उनकी पूजा करे॥१५-१७॥
सुग्रीवं लक्ष्मणं चैव अङ्गदं
नलनीलकम् ।
जाम्बवन्तं च कुमुदं केसरिणं दले
दले ॥१८॥
पूर्वादिक्रमतो देवि पूजयेद्
गन्धचन्दनैः।
पवनं चाञ्जनीं चैव पूजयेद्
दक्षवामतः ॥१९॥
दलाग्रेषु क्रमात्पूज्या
लोकपालास्ततः परम् ।
ध्यात्वा जपेन्मन्त्रराजं लक्षं
यावच्च साधकः ।। २०॥
लक्षान्ते दिवसं प्राप्य कुर्याच्च
पूजनं महत् ।
देवि! फिर उस अष्टदल-कमल के प्रत्येक
दल पर पूर्वादि क्रम से सुग्रीव, लक्ष्मण अङ्गद,
नल, नील, जाम्बवान्,
कुमुद और केसरी का आवाहन करके सुगन्धित चन्दनादि द्वारा उनकी पूजा
करे। पुनः उस कमल के दायें-बायें क्रमशः पवन और अञ्जनी की पूजा करनी चाहिये।
तत्पश्चात् दलों के अग्रभाग में क्रमश: लोकपालों की पूजा करनी चाहिये। इस
प्रकार साधक को हनुमानजी का ध्यान करके इस मन्त्रराज का एक लाख की संख्या तक जप
करना चाहिये और जिस दिन एक लाख की संख्या-पूर्ति हो, उस दिन
हनुमानजी की विशेषरूप से पूजा करे॥१८-२०॥
एकाग्रमनसा धीमांस्तस्मिन्
पवननन्दने ॥२१॥
दिवारात्रौ जपं कुर्याद्
यावत्संदर्शनं भवेत् ।
बुद्धिमान् साधक को चाहिये कि उन
पवननन्दन हनुमान में मन को एकाग्र करके दिन-रात तब तक जप करता रहे,
जब तक उनका दर्शन प्राप्त न हो जाय॥ २१ ॥
सुदृढं साधकं मत्वा निशीथे
पवनात्मजः ॥ २२॥
सुप्रसन्नस्ततो भूत्वा प्रयाति
साधकाग्रतः।
यथेप्सितं वरं दत्त्वा साधकाय
कपिप्रभुः ॥ २३॥
सर्वसौख्यमवाप्नोति विहरेदात्मनः
सुखैः।
साधक को सुदृढ़ जानकर पवनकुमार परम
प्रसन्न होते हैं और फिर आधी-रात के समय वे कपिराज उस साधक के समक्ष प्रकट होकर
उसे मनोवाञ्छित वर प्रदान करके अन्तर्हित हो जाते हैं। इससे साधक को सब प्रकार के
सुख की प्राप्ति हो जाती है और वह आत्म-सुख में निमग्न होकर आनन्द का उपभोग करता
है॥ २२-२३ ॥
एतच्च साधनं पुण्यं देवानामपि
दुर्लभम् ।
तव स्नेहात् समाख्यातं भक्तासि यदि
पार्वति ॥ २४ ॥
पार्वति! यह परम पवित्र साधन
देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, परंतु
तुम्हारी मुझमें अटल भक्ति है, इस कारण तुम्हारे स्नेह के
वशीभूत होकर मैंने तुमसे इसका वर्णन किया है॥ २४॥
वीरसाधनम्हनुमतोऽतिगुह्यं च लिख्यते
वीरसाधनम् ।
ब्राह्म मुहूर्त उत्थाय
कृतनित्यक्रियो द्विजः ।। २५॥
गत्वा नदीं तत: स्नात्वा
तीर्थमावाह्य त्वष्टधा ।
मूलमन्त्रं ततो जप्त्वा संसिक्तो
नित्यसंख्यया ॥२६॥
ततो वासः परीधाय गङ्गातीरेऽथवा शुचौ
।
अब हनुमानजी का परम गोपनीय वीरसाधन
लिखा जा रहा है- द्विज को चाहिये कि ब्राह्ममुहूर्त में उठकर शौचादि नित्यकर्मों से
निवृत्त होकर किसी नदी के तट पर जाय और तीर्थों का आवाहन करके स्नान करे।
तत्पश्चात् गीले वस्त्र पहने हुए ही नियमित संख्यापूर्वक आठ बार मूलमन्त्र का जप
करे और फिर स्वच्छ वस्त्र धारण करके गङ्गा-तट पर अथवा किसी भी पवित्र स्थान
पर बैठकर न्यासादि करे॥ २५-२६३ ॥
उपविश्य
आं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।
आं हृदयाय नम इत्यादिना च
कराङ्गन्यासौ कुर्यात् ।
करन्यासः-
ॐ अं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ई तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ ऊं मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ ऐं अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ औं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ अः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
अङ्गन्यासः-
पूर्वोक्त प्रकार से
'ॐ आं हृदयाय नमः।
ॐईं शिरसे स्वाहा ।
ॐ ॐ शिखायै वषट् ।
ॐ ऐं कवचाय हुम् ।
ॐ औं नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ अः अस्त्राय फट्।'
आदि से अङ्गन्यास भी करना चाहिये।
ततः प्राणायामः।
अकारादिवर्णानुच्चरन्वामनासापुटेन
वायुं पूरयेत् ।
पञ्चवर्गानुच्चरन्कुम्भयेत्।
यकाराद्येन रेचयेत् ॥
एवं वारत्रयं कृत्वा
मन्त्रवणैरङ्गन्यासं कुर्यात् ।
प्राणायाम-
बायीं नासिका से अकारादि वर्गों का उच्चारण करते हुए वायु को भीतर खींचकर पूरक और
क,
च, ट, त, प-इन पाँच वर्गों का उच्चारण करते हुए कुम्भक तथा यकार से हकार तक के
वर्णों का उच्चारण करते हुए रेचक करे। इस प्रकार तीन बार करके पुनः मन्त्रवर्णो द्वारा
अङ्गन्यास करना चाहिये।
ततो ध्यानम्
ध्यायेद्रणे हनूमन्तं
कपिकोटिसमन्वितम् ।
धावन्तं रावणं जेतुं दृष्ट्वा
सत्वरमागतम् ॥ २७॥
लक्ष्मणं च महावीरं पतितं रणभूतले ।
गुरुं च क्रोधमुत्पाद्य गृहीत्वा
गुरुपर्वतम् ॥२८॥
हाहाकारैः सदण्डैश्च कम्पयन्तं
जगत्रयम् ।
आब्रह्माण्डसमप्रस्थं कृत्वा भीमं
कलेवरम् ॥२९॥
जो रणभूमि में करोड़ों वानर-सैनिकों
से घिरे हुए हैं, महावीर लक्ष्मण को
युद्धस्थल में धराशायी हुआ देखकर जो तुरंत वहाँ आ पहुंचे हैं और परम क्रुद्ध हो
विशालपर्वत लेकर रावण को पराजित करने के लिये उस पर आक्रमण कर रहे हैं, जो ब्रह्माण्डव्यापी विशाल भयंकर शरीर धारण करके अपने प्रहारों एवं
हाहाकारों से त्रिलोकी को कम्पित कर रहे हैं, उन हनुमानजी का
ध्यान करना चाहिये॥ २७-२९॥
इति ध्यात्वाष्टसहस्रं जपेदस्य
मन्त्रः ।
इस प्रकार ध्यान करके हनुमानजी के
मन्त्र का आठ हजार जप करना चाहिये।
मन्त्रः
श्रीबीजं पूर्वमुच्चार्य पवनं च ततो
वदेत् ।
नन्दनं च ततो देयं
डेऽवसानेऽनलप्रिया ।
(श्रीपवननन्दनाय
स्वाहा)॥३०॥
पहले 'श्री' बीज का उच्चारण करके
तत्पश्चात् चतुर्थ्यन्त 'पवननन्दनाय' का उच्चारण करे और अन्त में अग्नि की प्रियतमा 'स्वाहा'
का प्रयोग करे। इस प्रकार 'श्रीपवननन्दनाय
स्वाहा' यह दशाक्षर-मन्त्र निष्पन्न होता है ।। ३०॥
दशार्णोऽयं मनुः प्रोक्तो नराणां
सुरपादपः॥
यह दशाक्षर-मन्त्र मनुष्यों के लिये
कल्पवृक्ष के समान कहा गया है।
सप्तदिवसं महाभयं दत्त्वा
त्रिभागशेषासु निशासु नियतमागच्छति ।
यदि साधको मायां तरति ईप्सितं वरं
प्राप्नोति ॥
सात दिनों तक रात्रि के तीन भाग शेष
रहने पर हनुमानजी साधक को महान् भयानक दृश्य दिखलाते हैं और अन्त में निश्चय ही
उसके सम्मुख प्रकट हो जाते हैं। फिर तो वह साधक माया से पार हो जाता है और
उसे मनोवाञ्छित वर की प्राप्ति होती है।
विद्यां वापि धनं वापि राज्यं वा
शत्रुनिग्रहम् ।
तत्क्षणादेव प्राप्नोति सत्यं सत्यं
सुनिश्चितम् ॥३१॥
यह सर्वथा सत्य एवं सुनिश्चित है कि
उसे उसी क्षण विद्या, धन, राज्य, शत्रु-निग्रह-सभी प्राप्त हो जाते हैं ॥३१॥
॥ इति तन्त्रसारोक्त श्रीहनुमत्कल्पः समाप्तः ॥
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