श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम


श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम       

श्री रामचरित मानस

           द्वितीय सोपान

          (अयोध्याकांड)

 

कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥

सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥

हे सुमुखि! कहो तो अपनी सुंदरता से करोड़ों कामदेवों को लजानेवाले ये तुम्हारे कौन हैं? उनकी ऐसी प्रेममयी सुंदर वाणी सुनकर सीता सकुचा गईं और मन-ही-मन मुसकराईं।

तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचति बरबरनी॥

सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥

उत्तम (गौर) वर्णवाली सीता उनको देखकर (संकोचवश) पृथ्वी की ओर देखती हैं। वे दोनों ओर के संकोच से सकुचा रही हैं (अर्थात न बताने में ग्राम की स्त्रियों को दुःख होने का संकोच है और बताने में लज्जा रूप संकोच)। हिरन के बच्चे के सदृश नेत्रवाली और कोकिल की-सी वाणीवाली सीता सकुचाकर प्रेम सहित मधुर वचन बोलीं -

सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे॥

बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥

ये जो सहज स्वभाव, सुंदर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है; ये मेरे छोटे देवर हैं। फिर सीता ने (लज्जावश) अपने चंद्रमुख को आँचल से ढँककर और प्रियतम (राम) की ओर निहारकर भौंहें टेढ़ी करके,

खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि॥

भईं मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं॥

खंजन पक्षी के-से सुंदर नेत्रों को तिरछा करके सीता ने इशारे से उन्हें कहा कि ये (राम) मेरे पति हैं। यह जानकर गाँव की सब युवती स्त्रियाँ इस प्रकार आनंदित हुईं, मानो कंगालों ने धन की राशियाँ लूट ली हों।

दो० - अति सप्रेम सिय पाँय परि बहुबिधि देहिं असीस।

सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस॥ 117

वे अत्यंत प्रेम से सीता के पैरों पड़कर बहुत प्रकार से आशीष देती हैं (शुभ कामना करती हैं) कि जब तक शेष के सिर पर पृथ्वी रहे, तब तक तुम सदा सुहागिनी बनी रहो,117

पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू॥

पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥

और पार्वती के समान अपने पति की प्यारी होओ। हे देवी! हम पर कृपा न छोड़ना (बनाए रखना)। हम बार-बार हाथ जोड़कर विनती करती हैं जिसमें आप फिर इसी रास्ते लौटें,

दरसनु देब जानि निज दासी। लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी॥

मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं॥

और हमें अपनी दासी जानकर दर्शन दें। सीता ने उन सबको प्रेम की प्यासी देखा, और मधुर वचन कह-कहकर उनका भली-भाँति संतोष किया। मानो चाँदनी ने कुमुदिनियों को खिलाकर पुष्ट कर दिया हो।

तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी॥

सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी॥

उसी समय राम का रुख जानकर लक्ष्मण ने कोमल वाणी से लोगों से रास्ता पूछा। यह सुनते ही स्त्री-पुरुष दुःखी हो गए। उनके शरीर पुलकित हो गए और नेत्रों में (वियोग की संभावना से प्रेम का) जल भर आया।

मिटा मोदु मन भए मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने॥

समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा॥

उनका आनंद मिट गया और मन ऐसे उदास हो गए मानो विधाता दी हुई संपत्ति छीने लेता हो। कर्म की गति समझकर उन्होंने धैर्य धारण किया और अच्छी तरह निर्णय करके सुगम मार्ग बतला दिया।

दो० - लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।

फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥ 118

तब लक्ष्मण और जानकी सहित रघुनाथ ने गमन किया और सब लोगों को प्रिय वचन कहकर लौटाया, किंतु उनके मनों को अपने साथ ही लगा लिया॥ 118

फिरत नारि नर अति पछिताहीं। दैअहि दोषु देहिं मन माहीं॥

सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥

लौटते हुए वे स्त्री-पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन-ही-मन दैव को दोष देते हैं। परस्पर (बड़े ही) विषाद के साथ कहते हैं कि विधाता के सभी काम उलटे हैं।

निपट निरंकुस निठुर निसंकू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू॥

रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा॥

वह विधाता बिल्कुल निरंकुश (स्वतंत्र), निर्दय और निडर है, जिसने चंद्रमा को रोगी (घटने-बढ़नेवाला) और कलंकी बनाया, कल्पवृक्ष को पेड़ और समुद्र को खारा बनाया। उसी ने इन राजकुमारों को वन में भेजा है।

जौं पै इन्हहि दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू॥

ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना॥

जब विधाता ने इनको वनवास दिया है, तब उसने भोग-विलास व्यर्थ ही बनाए। जब ये बिना जूते के (नंगे ही पैरों) रास्ते में चल रहे हैं, तब विधाता ने अनेकों वाहन (सवारियाँ) व्यर्थ ही रचे।

ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता॥

तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥

जब ये कुश और पत्ते बिछाकर जमीन पर ही पड़े रहते हैं, तब विधाता सुंदर सेज (पलंग और बिछौने) किसलिए बनाता है? विधाता ने जब इनको बड़े-बड़े पेड़ों (के नीचे) का निवास दिया, तब उज्ज्वल महलों को बना-बनाकर उसने व्यर्थ ही परिश्रम किया।

दो० - जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार।

बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार॥ 119

जो ये सुंदर और अत्यंत सुकुमार होकर मुनियों के (वल्कल) वस्त्र पहनते और जटा धारण करते हैं, तो फिर करतार (विधाता) ने भाँति-भाँति के गहने और कपड़े वृथा ही बनाए॥ 119

जौं ए कंदमूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं॥

एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥

जो ये कंद, मूल, फल खाते हैं तो जगत में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं - ये स्वभाव से ही सुंदर हैं (इनका सौंदर्य-माधुर्य नित्य और स्वाभाविक है)। ये अपने-आप प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा के बनाए नहीं हैं।

जहँ लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मन गोचर बरनी॥

देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी॥

हमारे कानों, नेत्रों और मन के द्वारा अनुभव में आनेवाली विधाता की करनी को जहाँ तक वेदों ने वर्णन करके कहा है, वहाँ तक चौदहों लोकों में ढूँढ देखो, ऐसे पुरुष और ऐसी स्त्रियाँ कहाँ हैं? (कहीं भी नहीं हैं, इसी से सिद्ध है कि ये विधाता के चौदहों लोकों से अलग हैं और अपनी महिमा से ही आप निर्मित हुए हैं।)

इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा॥

कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए॥

इन्हें देखकर विधाता का मन अनुरक्त (मुग्ध) हो गया, तब वह भी इन्हीं की उपमा के योग्य दूसरे स्त्री-पुरुष बनाने लगा। उसने बहुत परिश्रम किया, परंतु कोई उसकी अटकल में ही नहीं आए (पूरे नहीं उतरे)। इसी ईर्ष्या के मारे उसने इनको जंगल में लाकर छिपा दिया है।

एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिं॥

ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे॥

कोई एक कहते हैं - हम बहुत नहीं जानते। हाँ, अपने को परम धन्य अवश्य मानते हैं (जो इनके दर्शन कर रहे हैं) और हमारी समझ में वे भी बड़े पुण्यवान हैं जिन्होंने इनको देखा है, जो देख रहे हैं और जो देखेंगे।

दो० - एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर।

किमि चलिहहिं मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर॥ 120

इस प्रकार प्रिय वचन कह-कहकर सब नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर लेते हैं और कहते हैं कि ये अत्यंत सुकुमार शरीरवाले दुर्गम (कठिन) मार्ग में कैसे चलेंगे॥ 120

नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकईं साँझ समय जनु सोहीं॥

मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥

स्त्रियाँ स्नेहवश विकल हो जाती हैं। मानो संध्या के समय चकवी (भावी वियोग की पीड़ा से) सोह रही हो (दुःखी हो रही हो)। इनके चरणकमलों को कोमल तथा मार्ग को कठोर जानकर वे व्यथित हृदय से उत्तम वाणी कहती हैं -

परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचति महि जिमि हृदय हमारे॥

जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा॥

इनके कोमल और लाल-लाल चरणों (तलवों) को छूते ही पृथ्वी वैसे ही सकुचा जाती है, जैसे हमारे हृदय सकुचा रहे हैं। जगदीश्वर ने यदि इन्हें वनवास ही दिया, तो सारे रास्ते को पुष्पमय क्यों नहीं बना दिया?

जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं॥

जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय रामु न देखन पाए॥

यदि ब्रह्मा से माँगे मिले तो हे सखी! (हम तो उनसे माँगकर) इन्हें अपनी आँखों में ही रखें! जो स्त्री-पुरुष इस अवसर पर नहीं आए, वे सीताराम को नहीं देख सके।

सुनि सुरूपु बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहाँ लगि भाई॥

समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई॥

उनके सौंदर्य को सुनकर वे व्याकुल होकर पूछते हैं कि भाई! अब तक वे कहाँ तक गए होंगे? और जो समर्थ हैं, वे दौड़ते हुए जाकर उनके दर्शन कर लेते हैं और जन्म का परम फल पाकर, विशेष आनंदित होकर लौटते हैं।

दो० - अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिं।

होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं॥ 121

(गर्भवती, प्रसूता आदि) अबला स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े (दर्शन न पाने से) हाथ मलते और पछताते हैं। इस प्रकार जहाँ-जहाँ राम जाते हैं, वहाँ-वहाँ लोग प्रेम के वश में हो जाते हैं॥ 121

गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू॥

जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥

सूर्यकुलरूपी कुमुदिनी को प्रफुल्लित करनेवाले चंद्रमा स्वरूप राम के दर्शन कर गाँव-गाँव में ऐसा ही आनंद हो रहा है। जो लोग (वनवास दिए जाने का) कुछ भी समाचार सुन पाते हैं, वे राजा-रानी (दशरथ-कैकेयी) को दोष लगाते हैं।

कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू॥

कहहिं परसपर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाईं॥

कोई एक कहते हैं कि राजा बहुत ही अच्छे हैं, जिन्होंने हमें अपने नेत्रों का लाभ दिया। स्त्री-पुरुष सभी आपस में सीधी, स्नेहभरी सुंदर बातें कह रहे हैं।

ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहाँ तें आए॥

धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ-जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ॥

(कहते हैं -) वे माता-पिता धन्य हैं जिन्होंने इन्हें जन्म दिया। वह नगर धन्य है जहाँ से ये आए हैं। वह देश, पर्वत, वन और गाँव धन्य है, और वही स्थान धन्य है जहाँ-जहाँ ये जाते हैं।

सुखु पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहि के सब भाँति सनेही॥

राम लखन पथि कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई॥

ब्रह्मा ने उसी को रचकर सुख पाया है जिसके ये (राम) सब प्रकार से स्नेही हैं। पथिकरूप राम-लक्ष्मण की सुंदर कथा सारे रास्ते और जंगल में छा गई है।

दो० - एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत।

जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत॥ 122

रघुकुलरूपी कमल को खिलानेवाले सूर्य राम इस प्रकार मार्ग के लोगों को सुख देते हुए सीता और लक्ष्मण सहित वन को देखते हुए चले जा रहे हैं॥ 122

आगें रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें॥

उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बिच माया जैसें॥

आगे राम हैं, पीछे लक्ष्मण सुशोभित हैं। तपस्वियों के वेष बनाए दोनों बड़ी ही शोभा पा रहे हैं। दोनों के बीच में सीता कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच में माया!

बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई॥

उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही॥

फिर जैसी छवि मेरे मन में बस रही है, उसको कहता हूँ - मानो वसंत ऋतु और कामदेव के बीच में रति (कामेदव की स्त्री) शोभित हो। फिर अपने हृदय में खोजकर उपमा कहता हूँ कि मानो बुध (चंद्रमा के पुत्र) और चंद्रमा के बीच में रोहिणी (चंद्रमा की स्त्री) सोह रही हो।

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता॥

सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ॥

प्रभु राम के (जमीन पर अंकित होनेवाले दोनों) चरण चिह्नों के बीच-बीच में पैर रखती हुई सीता (कहीं भगवान के चरण चिह्नों पर पैर न टिक जाए इस बात से) डरती हुईं मार्ग में चल रही हैं और लक्ष्मण (मर्यादा की रक्षा के लिए) सीता और राम दोनों के चरण चिह्नों को बचाते हुए दाहिने रखकर रास्ता चल रहे हैं।

राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई॥

खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं॥

राम, लक्ष्मण और सीता की सुंदर प्रीति वाणी का विषय नहीं है (अर्थात अनिर्वचनीय है), अतः वह कैसे कही जा सकती है? पक्षी और पशु भी उस छवि को देखकर (प्रेमानंद में) मग्न हो जाते हैं। पथिक रूप राम ने उनके भी चित्त चुरा लिए हैं।

दो० - जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ।

भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ॥ 123

प्यारे पथिक सीता सहित दोनों भाइयों को जिन-जिन लोगों ने देखा, उन्होंने भव का अगम मार्ग (जन्म-मृत्युरूपी संसार में भटकने का भयानक मार्ग) बिना ही परिश्रम आनंद के साथ तय कर लिया (अर्थात वे आवागमन के चक्र से सहज ही छूटकर मुक्त हो गए)॥ 123

अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ॥

राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई॥

आज भी जिसके हृदय में स्वप्न में भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसें, तो वह भी राम के परमधाम के उस मार्ग को पा जाएगा जिस मार्ग को कभी कोई बिरले ही मुनि पाते हैं।

तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी॥

तहँ बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई॥

तब राम सीता को थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़ का वृक्ष और ठंडा पानी देखकर उस दिन वहीं ठहर गए। कंद, मूल, फल खाकर (रात भर वहाँ रहकर) प्रातःकाल स्नान करके रघुनाथ आगे चले।

देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥

राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन॥

सुंदर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु राम वाल्मीकि के आश्रम में आए। राम ने देखा कि मुनि का निवास स्थान बहुत सुंदर है, जहाँ सुंदर पर्वत, वन और पवित्र जल है।

सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले॥

खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥

सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं और मकरंद-रस में मस्त हुए भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। बहुत-से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और वैर से रहित होकर प्रसन्न मन से विचर रहे हैं।

दो० - सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन।

सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन॥ 124

पवित्र और सुंदर आश्रम को देखकर कमल नयन राम हर्षित हुए। रघुश्रेष्ठ राम का आगमन सुनकर मुनि वाल्मीकि उन्हें लेने के लिए आगे आए॥ 124

मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा॥

देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥

राम ने मुनि को दंडवत किया। विप्रश्रेष्ठ मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया। राम की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए। सम्मानपूर्वक मुनि उन्हें आश्रम में ले आए।

मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मगाए॥

सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए॥

श्रेष्ठ मुनि वाल्मीकि ने प्राणप्रिय अतिथियों को पाकर उनके लिए मधुर कंद, मूल और फल मँगवाए। सीता, लक्ष्मण और राम ने फलों को खाया। तब मुनि ने उनको (विश्राम करने के लिए) सुंदर स्थान बतला दिए।

बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥

तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥

(मुनि राम के पास बैठे हैं और उनकी) मंगल-मूर्ति को नेत्रों से देखकर वाल्मीकि के मन में बड़ा भारी आनंद हो रहा है। तब रघुनाथ कमलसदृश हाथों को जोड़कर, कानों को सुख देनेवाले मधुर वचन बोले -

तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा॥

अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥

हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी हैं। संपूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। प्रभु राम ने ऐसा कहकर फिर जिस-जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनाई।

दो० - तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ।

मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ॥ 125

(और कहा -) हे प्रभो! पिता की आज्ञा (का पालन), माता का हित और भरत-जैसे (स्नेही एवं धर्मात्मा) भाई का राजा होना और फिर मुझे आपके दर्शन होना, यह सब मेरे पुण्यों का प्रभाव है॥ 125

देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे॥

अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई॥

हे मुनिराज! आपके चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गए (हमें सारे पुण्यों का फल मिल गया)। अब जहाँ आपकी आज्ञा हो और जहाँ कोई भी मुनि उद्वेग को प्राप्त न हो -

मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं॥

मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू॥

क्योंकि जिनसे मुनि और तपस्वी दुःख पाते हैं, वे राजा बिना अग्नि के ही (अपने दुष्ट कर्मों से ही) जलकर भस्म हो जाते हैं। ब्राह्मणों का संतोष सब मंगलों की जड़ है और भूदेव ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ों कुलों को भस्म कर देता है।

अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ॥

तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौं कछु काल कृपाला॥

ऐसा हृदय में समझकर - वह स्थान बतलाइए जहाँ मैं लक्ष्मण और सीता सहित जाऊँ और वहाँ सुंदर पत्तों और घास की कुटी बनाकर, हे दयालु! कुछ समय निवास करूँ।

सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥

कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥

राम की सहज ही सरल वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि वाल्मीकि बोले - धन्य! धन्य! हे रघुकुल के ध्वजास्वरूप! आप ऐसा क्यों न कहेंगे? आप सदैव वेद की मर्यादा का पालन (रक्षण) करते हैं।

छं० - श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।

जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥

जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।

सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥

हे राम! आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकी (आपकी स्वरूपभूता) माया हैं, जो कृपा के भंडार आपका रुख पाकर जगत का सृजन, पालन और संहार करती हैं। जो हजार मस्तकवाले सर्पों के स्वामी और पृथ्वी को अपने सिर पर धारण करनेवाले हैं, वही चराचर के स्वामी शेष लक्ष्मण हैं। देवताओं के कार्य के लिए आप राजा का शरीर धारण करके दुष्ट राक्षसों की सेना का नाश करने के लिए चले हैं।

सो० - राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।

अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह॥ 126

हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका 'नेति-नेति' कहकर वर्णन करते हैं॥ 126

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥

तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥

हे राम! जगत दृश्य है, आप उसके देखनेवाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचानेवाले हैं। जब वे भी आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जाननेवाला है?

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥

तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥

वही आपको जानता है, जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! हे भक्तों के हृदय को शीतल करनेवाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं।

चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥

नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥

आपकी देह चिदानंदमय है (यह प्रकृतिजन्य पंच महाभूतों की बनी हुई कर्म बंधनयुक्त, त्रिदेहविशिष्ट मायिक नहीं है) और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि) सब विकारों से रहित है; इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और संतों के कार्य के लिए (दिव्य) नर-शरीर धारण किया है और प्राकृत (प्रकृति के तत्त्वों से निर्मित देहवाले, साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं।

राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे॥

तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥

हे राम! आपके चरित्रों को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य (उचित) ही है; क्योंकि जैसा स्वाँग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिए (इस समय आप मनुष्य रूप में हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही है)।

दो० - पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।

जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥ 127

आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ? परंतु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ॥ 127

सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने॥

बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥

मुनि के प्रेमरस से सने हुए वचन सुनकर राम (रहस्य खुल जाने के डर से) सकुचाकर मन में मुसकराए। वाल्मीकि हँसकर फिर अमृत-रस में डुबोई हुई मीठी वाणी बोले -

सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥

जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥

हे राम! सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ जहाँ आप सीता और लक्ष्मण समेत निवास कीजिए। जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथारूपी अनेक सुंदर नदियों से -

भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे॥

लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥

निरंतर भरते रहते हैं, परंतु कभी पूरे (तृप्त) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं;

निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥

तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥

तथा जो भारी-भारी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौंदर्य (रूपी मेघ) के एक बूँद जल से सुखी हो जाते हैं (अर्थात आपके दिव्य सच्चिदानंदमय स्वरूप के किसी एक अंग की जरा-सी भी झाँकी के सामने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों जगत के, अर्थात पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोक तक के सौंदर्य का तिरस्कार करते हैं), हे रघुनाथ! उन लोगों के हृदयरूपी सुखदायी भवनों में आप भाई लक्ष्मण और सीता सहित निवास कीजिए।

दो० - जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।

मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥ 128

आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे राम! आप उसके हृदय में बसिए॥ 128

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥

तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥

जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है, और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं;

सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी॥

कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा॥

जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेम सहित झुक जाते हैं; जिनके हाथ नित्य राम (आप) के चरणों की पूजा करते हैं, और जिनके हृदय में राम (आप) का ही भरोसा है, दूसरा नहीं;

चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥

मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥

तथा जिनके चरण राम (आप) के तीर्थों में चलकर जाते हैं; हे राम! आप उनके मन में निवास कीजिए। जो नित्य आपके (रामनामरूप) मंत्रराज को जपते हैं और परिवार (परिकर) सहित आपकी पूजा करते हैं।

तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना॥

तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥

जो अनेक प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं, तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं; तथा जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक (बड़ा) जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं;

दो० - सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।

तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥ 129

और ये सब कर्म करके सबका एक मात्र यही फल माँगते हैं कि राम के चरणों में हमारी प्रीति हो; उन लोगों के मनरूपी मंदिरों में सीता और रघुकुल को आनंदित करनेवाले आप दोनों बसिए॥ 129

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥

जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं; न लोभ है, न क्षोभ है; न राग है, न द्वेष है; और न कपट, दंभ और माया ही है - हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए।

सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥

कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥

जो सबके प्रिय और सबका हित करनेवाले हैं; जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निंदा) समान हैं, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं,

तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥

जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥

और आपको छोड़कर जिनके दूसरे कोई गति (आश्रय) नहीं है, हे राम! आप उनके मन में बसिए। जो पराई स्त्री को जन्म देनेवाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है,

जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥

जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥

जो दूसरे की संपत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं, और हे राम! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं।

दो० - स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।

मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥ 130

हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं; उनके मनरूपी मंदिर में सीता सहित आप दोनों भाई निवास कीजिए॥ 130

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥

नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥

जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गो के लिए संकट सहते हैं, नीति-निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है।

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥

राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥

जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है, और राम भक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिए।

जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥

सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥

जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देनेवाला घर - सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथ! आप उसके हृदय में रहिए।

सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना॥

करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा॥

स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान हैं, क्योंकि वह जहाँ-तहाँ (सब जगह) केवल धनुष-बाण धारण किए आपको ही देखता है; और जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे राम! आप उसके हृदय में डेरा कीजिए।

दो० - जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।

बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥ 131

जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए; वह आपका अपना घर है॥ 131

एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥

कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥

इस प्रकार मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकि ने राम को घर दिखाए। उनके प्रेमपूर्ण वचन राम के मन को अच्छे लगे। फिर मुनि ने कहा - हे सूर्यकुल के स्वामी! सुनिए, अब मैं इस समय के लिए सुखदायक आश्रम कहता हूँ (निवास स्थान बतलाता हूँ)।

चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥

सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥

आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिए, वहाँ आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुंदर वन है। वह हाथी, सिंह, हिरन और पक्षियों का विहार स्थल है।

नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तप बल आनी॥

सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥

वहाँ पवित्र नदी है, जिसकी पुराणों ने प्रशंसा की है, और जिसको अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया अपने तपोबल से लाई थीं। वह गंगा की धारा है, उसका मंदाकिनी नाम है। वह सब पापरूपी बालकों को खा डालने के लिए डाकिनी (डायन) रूप है।

अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं॥

चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू॥

अत्रि आदि बहुत-से श्रेष्ठ मुनि वहाँ निवास करते हैं, जो योग, जप और तप करते हुए शरीर को कसते हैं। हे राम! चलिए, सबके परिश्रम को सफल कीजिए और पर्वत श्रेष्ठ चित्रकूट को भी गौरव दीजिए।

दो० - चित्रकूट महिमा अमित कही महामुनि गाइ।

आइ नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ॥ 132

महामुनि वाल्मीकि ने चित्रकूट की अपरिमित महिमा बखान कर कही। तब सीता सहित दोनों भाइयों ने आकर श्रेष्ठ नदी मंदाकिनी में स्नान किया॥ 132

रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू॥

लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥

राम ने कहा - लक्ष्मण! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मण ने पयस्विनी नदी के उत्तर के ऊँचे किनारे को देखा (और कहा कि -) इसके चारों ओर धनुष के-जैसा एक नाला फिरा हुआ है।

नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना॥

चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी॥

नदी (मंदाकिनी) उस धनुष की प्रत्यंचा (डोरी) है और शम, दम, दान बाण हैं। कलियुग के समस्त पाप उसके अनेक हिंसक पशु (रूप निशाने) हैं। चित्रकूट ही मानो अचल शिकारी है, जिसका निशाना कभी चूकता नहीं, और जो सामने से मारता है।

अस कहि लखन ठाउँ देखरावा। थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा॥

रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना॥

ऐसा कहकर लक्ष्मण ने स्थान दिखाया। स्थान को देखकर राम ने सुख पाया। जब देवताओं ने जाना कि राम का मन यहाँ रम गया, तब वे देवताओं के प्रधान थवई (मकान बनानेवाले) विश्वकर्मा को साथ लेकर चले।

कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए॥

बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला॥

सब देवता कोल-भीलों के वेष में आए और उन्होंने (दिव्य) पत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिए। दो ऐसी सुंदर कुटिया बनाईं जिनका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुंदर छोटी-सी थी और दूसरी बड़ी थी।

दो० - लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।

सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत॥ 133

लक्ष्मण और जानकी सहित प्रभु राम सुंदर घास-पत्तों के घर में शोभायमान हैं। मानो कामदेव मुनि का वेष धारण करके पत्नी रति और वसंत ऋतु के साथ सुशोभित हो॥ 133

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, सत्रहवाँ विश्राम समाप्त॥

शेष जारी....पढे श्रीरामचरित मानस- अयोध्याकांड मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम

पूर्व पढ़े- रामचरितमानस बालकांड  मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम 

Post a Comment

0 Comments