मुण्डकोपनिषद् द्वितीय मुण्डक द्वितीय खण्ड
इससे पूर्व आपने
मुण्डकोपनिषद् प्रथम मुण्डक के प्रथम खण्ड, द्वितीय खण्ड व द्वितीय मुण्डक के प्रथम खण्ड पढ़ा। इसके आगे
अब मुण्डकोपनिषद् द्वितीय मुण्डक द्वितीय
खण्ड पढ़ेंगे। इस खण्ड में ११ मंत्र है। द्वितीय खण्ड का विषय निम्न है-
यह 'अक्षरब्रह्म' सभी में व्याप्त है और हृदय-रूपी गुफ़ा में स्थित है। यह
दिव्य प्रकाश वाला है। यह परमाणुओं और सूक्ष्मतम जीवों से भी सूक्ष्म है। समस्त
लोक-लोकान्तर इसमें निवास करते हैं। यह अविनाशी ब्रह्म,
जीवन का आधार, वाणी का सार और मानसिक साधना का लक्ष्य है। यह सत्य,
अमृत-तुल्य है, परम आनन्द का दाता है। इसे पाना ही मानव-जीवन का लक्ष्य है।
यह 'प्रणव,' अर्थात 'ॐकार' का जाप धनुष है और जीवात्मा तीर है। इस तीर से ही उस लक्ष्य
का सन्धान किया जाता है। वह लक्ष्य, जिसे बेधना है, 'ब्रह्म' है। उसका सन्धान पूरी एकाग्रता के साथ किया जाना चाहिए।
• इस अखिल ब्रह्माण्ड में सर्वत्र एक वही है। उसी का चेतन
स्वरूप अमृत का दिव्य सरोवर, आनन्द की अगणित हिलोरों से युक्त है। जो साधक इस
अमृत-सिन्धु में गोता लगाया है, वह निश्चित रूप से अमर हो जाता है।
॥ अथ मुण्डकोपनिषद् द्वितीय मुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥
आविः संनिहितं
गुहाचरं नाम
महत्पदमत्रैतत्
समर्पितम् ।
एजत्प्राणन्निमिषच्च
यदेतज्जानथ
सदसद्वरेण्यं
परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम् ॥ १॥
जो
प्रकाशस्वरूप, अत्यंत समीपस्थ, हृदयरूप गुफा में स्थित होने के कारण गुहाचर नाम से प्रसिद्ध
और महान पद (परम प्राप्य) है। जितने भी चेष्टा करनेवाले,
श्वास लेने वाले और आँखो को खोलने बंद करने वाले प्राणी हैं,
यह सभी इसी में समर्पित, इसी में प्रतिष्ठित हैं। इस परमेश्वर को तुम लोग जानो जो सत
और असत है। सबके द्वारा वरण करने योग्य और अतिशय श्रेष्ठ हैं तथा समस्त प्राणियों
की बुद्धि से परे अर्थात् जानने में न आनेवाला हैं। ॥१॥
यदर्चिमद्यदणुभ्योऽणु
च
यस्मिँल्लोका
निहिता लोकिनश्च ।
तदेतदक्षरं
ब्रह्म स प्राणस्तदु वाङ्मनः
तदेतत्सत्यं
तदमृतं तद्वेद्धव्यं सोम्य विद्धि ॥ २॥
जो दीप्तिमान
है और सूक्ष्मो से भी सूक्ष्म है। जिनमें समस्त लोक और उन लोकों में रहनेवाले
प्राणी स्थित हैं। वही यह अविनाशी ब्रह्म है, वही प्राण है, वही वाणी, और मन है, वही यह सत्य है। वह अमृत है। हे प्रिय! उन भेदने योग्य
लक्ष्य को तू भेद। अर्थात् आगे बताने जाने वाले प्रकार से साधन करके उसमें तन्मय
हो जा। ॥२॥
धनुर्
गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं
शरं ह्युपासा
निशितं सन्धयीत ।
आयम्य
तद्भावगतेन चेतसा
लक्ष्यं
तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ॥ ३॥
उपनिषद में
वर्णित प्रणव रूप महान धनुष को लेकर, उस पर निश्चय ही उपासना द्वारा तीक्ष्ण किया हुआ. बाण चढाकर,
फिर चित्त के द्वारा उस बाण को खींचकर,
हे प्रिय ! उस परम अक्षर पुरुषोत्तम को ही लक्ष्य मानकर
बेधे। दूसरे शब्दों में ओंकार का प्रेमपूर्वक उच्चारण एवं उनके अर्थरूप परमात्मा
का प्रगाढ चिन्तन ही उनकी प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है ॥३॥
प्रणवो धनुः
शारो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
अप्रमत्तेन
वेद्धव्यं शरवत् तन्मयो भवेत् ॥ ४॥
यहाँ ओमकार ही
धनुष है,
आत्मा ही बाण है और परब्रह्म परमेश्वर ही उसका लक्ष्य कहा
जाता है। वह प्रमादरहित मनुष्यद्वारा ही बेधे जाने योग्य है। अतः उसे वेधकर बाण की
तरह उस लक्ष्य में तन्मय हो जाना चाहिये। ॥४॥
यस्मिन् द्यौः
पृथिवी चान्तरिक्षमोतं
मनः सह
प्राणैश्च सर्वैः ।
तमेवैकं जानथ
आत्मानमन्या वाचो
विमुञ्चथामृतस्यैष
सेतुः ॥ ५॥
जिसमें स्वर्ग,
पृथ्वी और उनके बीच का आकाश तथा समस्त प्राणों के सहित मन
गुंथा हुआ है। उसी सबके आत्मरूप परमेश्वर को जानो। दूसरी सभी बातों को सर्वथा छोड़
दो,
यही अमृत का सेतु है। ॥५॥
अरा इव रथनाभौ
संहता यत्र नाड्यः ।
स
एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः ।
ओमित्येवं
ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति वः
पाराय तमसः
परस्तात् ॥ ६॥
रथ के पहिये
में जिस प्रकार अरे जुड़े होते हैं इसी तरह जहाँ सब नाड़ियाँ जुडी हुई हैं वहाँ
हृदय मे रोगादि से जो आत्मा प्रकट होता है। उस परमात्मा का ॐ द्वारा ध्यान करना
चाहिए,
जिससे अज्ञान, अन्धकार से पार हो जाओ जिससे तुम्हारा कल्याण हो जायेगा।
॥६॥
यः सर्वज्ञः
सर्वविद् यस्यैष महिमा भुवि ।
दिव्ये
ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥
मनोमयः
प्राणशरीरनेता
प्रतिष्ठितोऽन्ने
हृदयं सन्निधाय ।
तद् विज्ञानेन
परिपश्यन्ति धीरा
आनन्दरूपममृतं
यद् विभाति ॥ ७॥
जो सब विषयों
को जानता और उसको समझता है, इस भूमि पर जिनकी महिमा प्रसिद्ध है। जो कि निर्मल हृदय
आकाश मे विद्यमान ब्रह्मधरा नाडी में स्थित हैं। जो मन के द्वारा प्राण और शरीर का
संचालक है, उस आत्मा के ज्ञान से ही धीर पुरुष उस आनंदरूप अमृत परमात्मा को जानते हैं।
॥७॥
भिद्यते
हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते
चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ ८॥
उस निर्गुण और
सगुन भेद से जानने योग्य ब्रह्म के ज्ञान होने पर हृदय की गाँठ खुल जाती है,
सारे संशय नष्ट हो जाते हैं, और सभी कर्म क्षीण हो जाते हैं। अर्थात उस निर्गुण और सगुन
भेद से जानने योग्य ब्रह्म को जान लेने पर अविद्यारूप गाँठ खुल जाती है,
जिसके कारण इसने इस जड शरीर को ही अपना स्वरूप मान रक्खा है
। इतना ही नहीं, इसके समस्त समय सर्वथा कट जाते हैं और समस्त शुभा-शुभ कर्म नष्ट हो जाते है।
यह जीव सब बन्धनों से सर्वथा मुक्त होकर परमानन्दस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त हो
जाता है। ॥८॥
हिरण्मये परे
कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् ।
तच्छुभ्रं
ज्योतिषं ज्योतिस्तद् यदात्मविदो विदुः ॥ ९॥
वह निर्मल,
अवयव रहित, परब्रह्मः प्रकाशमय परम कोष में,
परमधाम में विराजमान है। सर्वथा विशुद्ध समस्त ज्योतियों की
भी ज्योति है, जिस को आत्मज्ञानी महात्मा जन जानते हैं। ॥९॥
न तत्र सूर्यो
भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो
भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव
भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा
सर्वमिदं विभाति ॥ १०॥
वहाँ न तो
सूर्य प्रकाशित होता है, न चन्द्रमा और तारागण ही तथा न यह बिजलियाँ ही वहाँ कौंधती
हैं। फिर इस अग्नि के लिये तो कहना ही क्या है क्योंकि उसके प्रकाशित होने पर ही
उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित होते हैं। उसी के प्रकाश से यह सम्पूर्ण जगत
प्रकाशित होता है। ॥ १०॥
ब्रह्मैवेदममृतं
पुरस्ताद् ब्रह्म पश्चाद् ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण ।
अधश्चोर्ध्वं
च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ॥ ११॥
यह अमृतस्वरूप
परब्रह्म ही सामने है, परब्रह्म ही पीछे है, परब्रह्म ही दायीं ओर तथा बायीं ओर,
नीचे की ओर तथा ऊपर की ओर भी फैला हुआ है। यह जो सम्पूर्ण
जगत् है,
यह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है ॥ ११॥
॥ इति मुण्डकोपनिषद्
द्वितीयमुण्डके द्वितीयः खण्डः ||
॥ द्वितीय
खण्ड समाप्त ॥२॥
॥ द्वितीय
मुण्डक समाप्त ॥२॥
शेष जारी......आगे पढ़े- मुण्डकोपनिषद् तृतीय मुण्डक
0 Comments