मुण्डकोपनिषद् द्वितीय मुण्डक प्रथम खण्ड
मुण्डकोपनिषद्
प्रथम मुण्डक के प्रथम खण्ड में 'ब्रह्मविद्या', 'परा-अपरा विद्या' तथा 'ब्रह्म से जगत् की उत्पत्ति', 'यज्ञ और उसके फल',तथा द्वितीय खण्ड में 'भोगों से विरक्ति' तथा 'ब्रह्मबोध' के लिए ब्रह्मनिष्ठ गुरु और अधिकारी शिष्य का उल्लेख किया
गया है। इसके आगे अब मुण्डकोपनिषद् द्वितीय
मुण्डक में 'अक्षरब्रह्म' की सर्वव्यापकता और उसका समस्त ब्रह्माण्ड के साथ सम्बन्ध
स्थापित किया गया है।
मुण्डकोपनिषद्
द्वितीय मुण्डक प्रथम खण्ड में आप पढ़ेंगे - महर्षि 'ब्रह्म' और 'जगत' की सत्यता को प्रकट करते हैं। जैसे प्रदीप्त अग्नि से
सहस्त्रों चिनगारियां प्रकट होती हैं और फिर उसी में लीन हो जाती हैं,
उसी प्रकार उस 'ब्रह्म' से अनेक प्रकार के भाव प्रकट होते हैं और फिर उसी में लीन
हो जाते हैं। वह प्रकाशमान, अमूर्तरूप ब्रह्म भीतर-बाहर सर्वत्र विद्यमान है। वह अजन्मा,
प्राण-रहित, मन-रहित एवं उज्ज्वल है और अविनाशी आत्मा से भी उत्कृष्ट है।
आगे के
श्लोकों में ऋषिवर उस परब्रह्म का अत्यन्त अलंकारिक वर्णन करते हुए कहते हैं कि
अग्नि ब्रह्म का मस्तक है, सूर्य-चन्द्र उसके नेत्र हैं, दिशांए और वेद-वाणियां उसके कान हैं,
वायु उसके प्राण हैं, सम्पूर्ण विश्व उसका हृदय है,पृथ्वी उसके पैर हैं। वह ब्रह्म सम्पूर्ण प्राणियों में
अन्तरात्मा रूप में प्रतिष्ठित है। अत: यह सारा संसार उस परमपुरुष में ही स्थित
है।
मुण्डकोपनिषद्
द्वितीय मुण्डक के प्रथम खण्ड में १० मंत्र है।
॥ अथ मुण्डकोपनिषद् द्वितीय मुण्डके प्रथमः खण्डः ॥
तदेतत् सत्यं
यथा
सुदीप्तात् पावकाद्विस्फुलिङ्गाः
सहस्रशः
प्रभवन्ते सरूपाः ।
तथाऽक्षराद्विविधाः
सोम्य भावाः
प्रजायन्ते
तत्र चैवापि यन्ति ॥ १॥
हे प्रिय! वह
सत्य यह है। जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि में से उसी के समान रूपवाली हजारों
चिनगारियाँ, अनेक प्रकार से प्रकट होती हैं। तथा उसी प्रकार अविनाशी ब्रह्म से अनेकों
प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं, और उसी में विलीन हो जाते हैं। ॥ १ ॥
दिव्यो
ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः ।
अप्राणो
ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः ॥ २॥
निश्चय ही
दिव्य,
पूर्णरूप, आकार रहित समस्त जगत के बाहर और भीतर भी व्याप्त जन्मादि
विकारों से अतीत प्राणरहित, मनरहित होने के कारण सर्वथा विशुद्ध है तथा इसीलिये अविनाशी
जीवात्मा से अत्यन्त श्रेष्ठ है ॥२॥
एतस्माज्जायते
प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं
वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥ ३॥
इसी परमेश्वर
से प्राण उत्पन्न होता है तथा अन्तःकरण, समस्त इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज जल और सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करने वाली पृथ्वी यह
सभी उत्पन्न होते हैं। ॥३॥
अग्नीर्मूर्धा
चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ
दिशः श्रोत्रे
वाग् विवृताश्च वेदाः ।
वायुः प्राणो
हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां
पृथिवी ह्येष
सर्वभूतान्तरात्मा ॥ ४॥
इस परमेश्वर
का अग्नि मस्तक है, चन्द्रमा और सूर्य दोनों नेत्र हैं,
सभी दिशाएँ दोनों कान हैं और प्रकट वेद वाणी हैं तथा वायु
प्राण है तथा जगत् हृदय है। इसके दोनो पैरों से पृथ्वी उत्पन्न हुई है। यही समस्त
प्राणियों का अन्तरात्मा है। ॥ ४ ॥
तस्मादग्निः
समिधो यस्य सूर्यः
सोमात्
पर्जन्य ओषधयः पृथिव्याम् ।
पुमान् रेतः
सिञ्चति योषितायां
बह्वीः प्रजाः
पुरुषात् सम्प्रसूताः ॥ ५॥
उससे ही
अग्निदेव प्रकट हुआ, जिसकी समिधा सूर्य है । उस अग्नि से सोम उत्पन्न हुआ,
सोम से मेघ उत्पन्न हुए और मेघों से वर्षा द्वारा पृथ्वी
में अनेकों प्रकारकी औषधियाँ उत्पन्न हुईं। औषधियों के भक्षण से उत्पन्न हुए वीर्य
को पुरुष स्त्री मे सिंचित करता है, जिससे संतान उत्पन्न होती है। इस प्रकार उस परम पुरुष से ही
अनेकों प्रकार के जीव नियमपूर्वक उत्पन्न हुए हैं। ॥५॥
तस्मादृचः साम
यजूंषि दीक्षा
यज्ञाश्च
सर्वे क्रतवो दक्षिणाश्च ।
संवत्सरश्च
यजमानश्च लोकाः
सोमो यत्र
पवते यत्र सूर्यः ॥ ६॥
उस परमेश्वर
से ही ऋग्वेद की ऋचाएँ, सामवेद के मन्त्र, यजुर्वेद की श्रुतियां और दीक्षा( शास्त्रविधि के अनुसार
किसी यज्ञ को आरम्भ करते समय यजमान जिस संकल्प के साथ उसके अनुष्ठान सम्बन्धी
नियमों के पालन का मत लेता है, उसका नाम दीक्षा' है।) तथा समस्त यज्ञ, ऋतु(यज्ञ और ऋतु-यह यज्ञ के ही दो भेद है। जिन यज्ञों में
यूप बनानेकी विधि है, उन्हें 'ऋतु' कहते हैं।) एवं
दक्षिणाएँ तथा संवत्सररूप काल, यजमान और सभी लोक उत्पन्न हुए हैं,
जहाँ चन्द्रमा प्रकाश फैलाता है और जहाँ सूर्य प्रकाश देता
है। ॥६॥
तस्माच्च देवा
बहुधा सम्प्रसूताः
साध्या
मनुष्याः पशवो वयांसि ।
प्राणापानौ
व्रीहियवौ तपश्च
श्रद्धा सत्यं
ब्रह्मचर्यं विधिश्च ॥ ७॥
तथा उसी
परमेश्वर से अनेकों भेद वाले देवता उत्पन्न हुए, साध्यगण, मनुष्य, पशु-पक्षी, प्राण-अपान वायु, धान, जों आदि अन्न, तथा तप, श्रद्धा, सत्य और ब्रह्मचर्य एवं यज्ञ इत्यादि के अनुष्ठान की विधि
भी,
यह सभी उत्पन्न हुए हैं। ॥७॥
सप्त प्राणाः
प्रभवन्ति तस्मात्
सप्तार्चिषः
समिधः सप्त होमाः ।
सप्त इमे लोका
येषु चरन्ति प्राणा
गुहाशया
निहिताः सप्त सप्त ॥ ८॥
उसी परमेश्वर
से सात प्राण उत्पन्न होते हैं तथा अग्नि की सात लपटें,
सात विषयरूपी समिधाएँ, सात प्रकार के हवन तथा सात लोक और इन्द्रियों के सात द्वार
उसी से उत्पन्न होते हैं जिनमे प्राण विचरते हैं। हृदयरूप गुफा में शयन करनेवाले
यह सात-सात के समुदाय उसी के द्वारा सब प्राणियों मे स्थापित किये हुए हैं। ॥८॥
अतः समुद्रा
गिरयश्च सर्वेऽस्मात्
स्यन्दन्ते
सिन्धवः सर्वरूपाः ।
अतश्च सर्वा
ओषधयो रसश्च
येनैष
भूतैस्तिष्ठते ह्यन्तरात्मा ॥ ९॥
इसी से समस्त
समुद्र और पर्वत उत्पन्न हुए हैं। इसी से प्रकट होकर अनेक रूपों वाली नदियाँ बहती
हैं तथा इसी से सम्पूर्ण औषधियां और रस उत्पन्न हुए हैं। जिस रस से पुष्ट हुए
शरीरों में ही सबका अन्तरात्मा परमेश्वर सभी प्राणियों की आत्मा के सहित उनके हृदय
में स्थित है। ॥ ९॥
पुरुष एवेदं
विश्वं कर्म तपो ब्रह्म परामृतम् ।
एतद्यो वेद
निहितं गुहायां
सोऽविद्याग्रन्थिं
विकिरतीह सोम्य ॥ १०॥
तप,
कर्म और परम अमृत रूप ब्रह्म यह सब कुछ परमपुरुष पुरुषोत्तम
ही है। हे प्रिय! इस हृदयरूप गुफा में स्थित अन्तर्यामी परमपुरुष को जो जानता है,
वह यहाँ इस मनुष्य शरीर में ही अविद्या जनित गाँठ को खोल
डालता है अर्थात् सभी प्रकार के संशय और भ्रम से रहित होकर परब्रह्म पुरुषोत्तम को
प्राप्त हो जाता है ॥१०॥
॥ इति मुण्डकोपनिषद्
द्वितीयमुण्डके प्रथमः खण्डः ॥
॥ प्रथम खण्ड
समाप्त ॥१॥
शेष जारी......आगे पढ़े- मुण्डकोपनिषद् द्वितीयमुण्डके द्वितीय: खण्डः
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