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कर्मकाण्ड

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रुद्राष्टकम्

रुद्राष्टकम्

शिव को प्रसन्न करने का सर्वश्रेष्ठ पाठ है रूद्राष्टकम... श्री रुद्राष्टकम् (संस्कृत: श्री रुद्राष्टकम्) स्तोत्र गोस्वामी तुलसीदास द्वारा भगवान् शिव की स्तुति हेतु रचित है। इसका उल्लेख श्रीरामचरितमानस के उत्तर कांड में आता है। यह जगती छंद में लिखा गया है । इस लयात्मक स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक पाठ करें, तो वह शिवजी का कृपापात्र हो जाता है। शिव को प्रसन्न करने के लिए यह रुद्राष्टक बहुत प्रसिद्ध तथा त्वरित फलदायी है।

रुद्राष्टकम्

श्रीरुद्राष्टकम्

॥ रुद्राष्टकम् ॥

नमामीशमीशान निर्वाणरूपम् ।

विभुम् व्यापकम् ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।

निजम् निर्गुणम् निर्विकल्पम् निरीहम् ।

चिदाकाशमाकाशवासम् भजेऽहम् ॥१॥

हे ईशान ! मैं मुक्तिस्वरूप, समर्थ, सर्वव्यापक, ब्रह्म, वेदस्वरूप, निजस्वरूप में स्थित, निर्गुण, निर्विकल्प, निरीह, अनन्त ज्ञानमय और आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त प्रभु को प्रणाम करता हूँ॥१॥

निराकारमोङ्कारमूलम् तुरीयम् ।

गिराज्ञानगोतीतमीशम् गिरीशम् ।

करालम् महाकालकालम् कृपालम् ।

गुणागारसंसारपारम् नतोऽहम् ॥२॥

जो निराकार हैं, ओङ्काररूप आदिकारण हैं, तुरीय हैं, वाणी, बुद्धि और इन्द्रियों के पथ से परे हैं, कैलासनाथ हैं, विकराल, और महाकाल के भी काल, कृपाल, गुणों के आगार और संसार से तारनेवाले हैं, उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ॥२॥

तुषाराद्रिसंकाशगौरम् गभीरम् ।

मनोभूतकोटि प्रभाश्रीशरीरम् ।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारुगंगा ।

लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजंगा ॥३॥

जो हिमालय के समान श्वेतवर्ण, गम्भीर और करोड़ों कामदेव के समान कान्तिमान् शरीरवाले हैं, जिनके मस्तक पर मनोहर गङ्गाजी लहरा रही हैं, भालदेश में बाल चन्द्रमा सुशोभित होते हैं और गले में सर्पों की माला शोभा देती है॥३॥

चलत्कुण्डलम् भ्रूसुनेत्रम् विशालम् ।

प्रसन्नाननम् नीलकण्ठम् दयालम् ।

मृगाधीश चर्माम्बरम् मुण्डमालम् ।

प्रियम् शंकरम् सर्वनाथम् भजामि ॥४॥

जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, जिनके नेत्र एवं भृकुटी सुन्दर और विशाल हैं, जिनका मुख प्रसन्न और कण्ठ नील है, जो बड़े ही दयालु हैं, जो बाघ की खाल का वस्त्र और मुण्डों की माला पहनते हैं, उन सर्वाधीश्वर प्रियतम शिव का मैं भजन करता हूँ॥ ४ ॥

प्रचण्डम् प्रकृष्टम् प्रगल्भम् परेशम् ।

अखण्डम् अजम् भानुकोटिप्रकाशम् ।

त्रयः शूलनिर्मूलनम् शूलपाणिम् ।

भजेऽहम् भवानीपतिम् भावगम्यम् ॥५॥

जो प्रचण्ड, सर्वश्रेष्ठ, प्रगल्भ, परमेश्वर, पूर्ण, अजन्मा, कोटि सूर्य के समान प्रकाशमान, त्रिभुवन के शूलनाशक और हाथ में त्रिशूल धारण करनेवाले हैं, उन भावगम्य भवानीपति का मैं भजन करता हूँ॥ ५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी ।

सदा सज्जनानन्ददाता पुरारि ।

चिदानन्द सन्दोह मोहापहारि ।

प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारि ॥६॥

हे प्रभो ! आप कलारहित, कल्याणकारी और कल्प का अन्त करनेवाले हैं। आप सर्वदा सत्पुरुषों को आनन्द देते हैं, आपने त्रिपुरासुर का नाश किया था, आप मोहनाशक और ज्ञानानन्दघन परमेश्वर हैं, कामदेव के आप शत्रु हैं, आप मुझ पर प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ॥ ६॥

न यावद् उमानाथपादारविन्दम् ।

भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।

न तावत्सुखम् शान्ति सन्तापनाशम् ।

प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥७॥

मनुष्य जब तक उमाकान्त महादेवजी के चरणारविन्दों का भजन नहीं करते, उन्हें इहलोक या परलोक में कभी सुख और शान्ति की प्राप्ति नहीं होती और न उनका सन्ताप ही दूर होता है। हे समस्त भूतों के निवास स्थान भगवान शिव ! आप मझ पर प्रसन्न हों ॥ ७॥

न जानामि योगम् जपम् नैव पूजाम् ।

नतोऽहम् सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।

जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानम् ।

प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥८॥

हे प्रभो ! हे शम्भो ! हे ईश! मैं योग, जप और पूजा कुछ भी नहीं जानता, हे शम्भो ! मैं सदा-सर्वदा आपको नमस्कार करता हूँ। जरा, जन्म और दुःखसमूह से सन्तप्त होते हुए मुझ दुःखी की दुःख से आप रक्षा कीजिये॥८॥

रुद्राष्टकमिदम् प्रोक्तम् विप्रेण हरतोषये ।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषाम् शम्भुः प्रसीदति॥९॥

जो मनुष्य भगवान् शङ्कर की तुष्टि के लिये ब्राह्मण द्वारा कहे हुए इस रुद्राष्टक का भक्तिपूर्वक पाठ करते हैं, उन पर शङ्करजी प्रसन्न होते हैं ॥ ९॥

इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम्।

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