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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
गङ्गाष्टकम्
श्रीवाल्मीकिविरचित गङ्गाष्टकम् का
नित्य पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
श्रीवाल्मीकिविरचित गङ्गाष्टकम्
गङ्गाष्टकं श्रीवाल्मिकिविरचितम्
मातः शैलसुता-सपत्नि वसुधा-श्रृङ्गारहारावलि
स्वर्गारोहण-वैजयन्ति भवतीं
भागीरथीं प्रार्थये ।
त्वत्तीरे वसतः त्वदंबु
पिबतस्त्वद्वीचिषु प्रेङ्खतः
त्वन्नाम स्मरतस्त्वदर्पितदृशः स्यान्मे
शरीरव्ययः ॥ १॥
पृथ्वी की शृङ्गारमाला,
पार्वतीजी की सपत्नी और स्वर्गारोहण के लिये वैजयन्ती पताकारूपिणी
हे माता भागीरथि! मैं तुमसे यह प्रार्थना करता हूँ कि तुम्हारे तट पर निवास करते
हुए, तुम्हारे जल का पान करते हुए, तुम्हारी
तरंगभंगी में तरंगायमान होते हुए, तुम्हारा नाम स्मरण करते
हुए और तुम्हीं में दृष्टि लगाये हुए मेरा शरीरपात हो॥१॥
त्वत्तीरे तरुकोटरान्तरगतो गङ्गे
विहङ्गो परं
त्वन्नीरे नरकान्तकारिणि वरं
मत्स्योऽथवा कच्छपः ।
नैवान्यत्र
मदान्धसिन्धुरघटासंघट्टघण्टारण-
त्कारस्तत्र समस्तवैरिवनिता-लब्धस्तुतिर्भूपतिः
॥ २॥
हे गंगे! तुम्हारे तटवर्ती तरुवर के
कोटर में पक्षी होकर रहना अच्छा है तथा हे नरकनिवारिणि! तुम्हारे जल में मत्स्य या
कच्छप होकर जन्म लेना भी बहुत अच्छा है, किंतु
दूसरी जगह मदमत्त गजराजों के जमघट के घण्टारव से भयभीत हुई शत्रु महिलाओं से स्तुत
पृथ्वीपति भी होना अच्छा नहीं॥२॥
उक्षा पक्षी तुरग उरगः कोऽपि वा
वारणो वाऽ-
वारीणः स्यां
जनन-मरण-क्लेशदुःखासहिष्णुः ।
न त्वन्यत्र
प्रविरल-रणत्किङ्किणी-क्वाणमित्रं
वारस्त्रीभिश्चमरमरुता वीजितो
भूमिपालः ॥ ३॥
हे मातः! मैं भले ही आपके आर पार
रहनेवाला जन्म-मरणरूप क्लेश को सहन न करनेवाला कोई बैल,
पक्षी, घोड़ा, सर्प अथवा
हाथी हो जाऊँ, किंतु [आपसे दूर] किसी अन्य स्थान पर ऐसा राजा
भी न होऊँ, जिस पर वारांगनाएँ मन्द-मन्द झनकारते हुए कंकणों की
सुमधुर ध्वनि से युक्त चमर डुला रही हों॥३॥
काकैर्निष्कुषितं श्वभिः कवलितं
गोमायुभिर्लुण्टितं
स्रोतोभिश्चलितं तटाम्बु-लुलितं
वीचीभिरान्दोलितम् ।
दिव्यस्त्री-कर-चारुचामर-मरुत्संवीज्यमानः
कदा
द्रक्ष्येऽहं परमेश्वरि त्रिपथगे
भागीरथी स्वं वपुः ॥ ४॥
हे परमेश्वरि ! हे त्रिपथगे! हे
भागीरथि! [मरने के अनन्तर] देवांगनाओं के करकमलों में सुशोभित सुन्दर चमरों की हवा
से सेवित हुआ मैं अपने मृत शरीर को काकों से कुरेदा जाता हुआ,
कुत्तों से भक्षित होता हुआ, गीदड़ों से
लुण्ठित होता हुआ, तुम्हारे स्रोत में पड़कर बहता हुआ,
कभी किनारे के स्वल्प जल में हिलता हुआ और फिर तरंग भंगियों से
आन्दोलित होता हुआ भी क्या कभी देखूगा? ॥४॥
अभिनव-बिसवल्ली-पादपद्मस्य विष्णोः
मदन-मथन-मौलेर्मालती-पुष्पमाला ।
जयति जयपताका काप्यसौ
मोक्षलक्ष्म्याः
क्षपित-कलिकलङ्का जाह्नवी नः पुनातु
॥ ५॥
जो भगवान् विष्णु के चरणकमल का नूतन
मृणाल (कमलनाल) है तथा कामारि त्रिपुरारि के ललाट की मालती-माला है,
वह मोक्षलक्ष्मी की विलक्षण विजय पताका जय को प्राप्त हो। कलि कलंक को
नष्ट करनेवाली, वह जाह्नवी हमें पवित्र करे॥५॥
एतत्ताल-तमाल-साल-सरलव्यालोल-वल्लीलता-
च्छत्रं सूर्यकर-प्रतापरहितं
शङ्खेन्दु-कुन्दोज्ज्वलम् ।
गन्धर्वामर-सिद्ध-किन्नरवधू-तुङ्गस्तनास्पालितं
स्नानाय प्रतिवासरं भवतु मे गाङ्गं
जलं निर्मलम् ॥ ६॥
जो ताल,
तमाल, साल, सरल तथा चंचल
वल्लरी और लताओं से आच्छादित है, सूर्यकिरणों के ताप से रहित
है, शंख, कुन्द और चन्द्र के समान
उज्ज्वल है तथा गन्धर्व, देवता, सिद्ध
और किन्नरों की कामिनियों के पीन पयोधरों से आस्फालित (टकराया हुआ) है, वह अत्यन्त निर्मल गंगाजल नित्यप्रति मेरे स्नान के लिये हो॥६॥
गाङ्गं वारि मनोहारि
मुरारि-चरणच्युतम् ।
त्रिपुरारि-शिरश्चारि पापहारि
पुनातु माम् ॥ ७॥
जो श्रीमुरारि के चरणों से उत्पन्न
हुआ है,
श्रीशंकर के सिर पर विराजमान है तथा सम्पूर्ण पापों को हरण करनेवाला
है, वह मनोहर गंगाजल मुझे पवित्र करे॥७॥
पापापहारि दुरितारि तरङ्गधारि
शैलप्रचारि गिरिराज-गुहाविदारि ।
झङ्कारकारि हरिपाद-रजोपहारि
गाङ्गं पुनातु सततं शुभकारि वारि ॥
८॥
जो पापों को हरण करनेवाला,
दुष्कर्मों का शत्रु, तरंगमय, शैल-खण्डों पर बहनेवाला, पर्वतराज हिमालय की गुहाओं को
विदीर्ण करनेवाला, मधुर कलकल-ध्वनियुक्त और श्रीहरि की चरणरज
को धोनेवाला है, वह निरन्तर शुभकारी गंगाजल मुझे पवित्र
करे॥८॥
गङ्गाष्टकं पठति यः प्रयतः प्रभाते
वाल्मीकिना विरचितं शुभदं मनुष्यः ।
प्रक्षाल्य
गात्र-कलिकल्मष-पङ्क-माशु
मोक्षं लभेत् पतति नैव नरो भवाब्धौ
॥ ९॥
जो पुरुष वाल्मीकिजी के रचे हुए इस
कल्याणप्रद गंगाष्टक को प्रात:काल एकाग्रचित्त से पढ़ता है,
वह अपने शरीर के कलिकल्मषरूप कीचड़ को धोकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त
करता है और फिर संसार-समुद्र में नहीं गिरता॥९॥
॥ इति वाल्मीकिविरचितं गङ्गाष्टकं
सम्पूर्णम् ॥
॥ इस प्रकार श्रीमहर्षिवाल्मीकिविरचित श्रीगङ्गाष्टक सम्पूर्ण हुआ॥
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