रूद्रयामल प्रथम पटल

रूद्रयामल प्रथम पटल            

रुद्रयामल प्रथम (१) पटल भाग-२ में १०७ से ११८ तक ज्ञान एवं भाव की प्रशंसा है। ११९ से १३० तक पुण्यवान्‌ पुरुष के लक्षण और साधक के कर्तव्य वर्णित है। पशुभाव से ज्ञान की सिद्धि होती है और वीरभाव से क्रियासिद्धि होती है तथा दिव्य भाव में साधक स्वयं रुद्र हो जाता है (१३०--१३७)। पुन: योग की प्रशंसा (१३८१२३९), पशु एवं वीरभाव में भक्ति विवेचन (१४०--१४५)। दिव्य भाव विवेचन (१४५- १४९), ज्ञान के तीन प्रकार (१५०-१५३) बताए गए है ।

रूद्रयामलम् प्रथम पटल भाग २

रूद्रयामलम् प्रथम पटल भाग २ 

रूद्रयामलम्

(उत्तरतन्त्रम्)

अथ प्रथमः पटलः

भाग- २

तेषु मूर्खेषु हीनेषु शास्त्रार्थवर्जितेषु च ॥१०७॥

ज्ञानं भवति केनैव निर्मलं द्वैतवर्जितम् ।

तत्प्रकांर वद स्नेहाद्‍ लोकांना पुण्यवृद्धये ॥१०८॥

हे देवि ! आप उनके ऊपर दया कर मुझसे साधन कहिए । इस प्रकार के मूर्खों को, हीन आचरण वालों को, शास्त्रों के अर्थ की जानकरी न रखने वालों को किस प्रकार द्वैतरहित निर्मल ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है ? आप लोकोपकार के लिये मेरे ऊपर अपना स्नेह प्रदर्शित करते हुये उसका उपाय कहिए ॥१०७ - १०८॥

भैरवी उवाच

कर्मसूत्र्म यश्छिनत्ति प्रत्यहं तनुसंस्थितः ।

स पश्यति जगन्नाथ मम श्रीचरनाम्बुजम् ॥१०९॥

विश्वमावेशसंस्करभिन्नबुद्धिक्रियान्विताः ।

अतो मां नाहि जानन्ति नानाकार्योत्कटावृताः ॥११०॥

भैरवी ने कहा - हे जगन्नाथ ! जो इस शरीर को पाकर प्रतिदिन अपने कर्मसूत्र का उच्छेद कर देता है वह हमारे चरणाम्बुज के दर्शन का अधिकारी हो जाता है । संसार के आवेशों के संस्कार से जितनी बुद्धि भिन्न भिन्न क्रियाओं मे निरन्तर संलग्न है, ऐसे अनेक उत्कट कार्यों के उलझन में फंसे हुये लोग मुझे नहीं जान सकते ॥१०९ - ११०॥

तेषाम शरीरं गृहणाति कालदूतो भयानकः ।

यः करोति महायोगं त्यागसन्न्यासधर्मवान्‍ ॥१११॥

मन्दभाग्यः पशोर्योनि प्राप्नोति मां विहाय सः ।

मयि भावं यः करोति दुर्लभो जनवल्लभः ॥११२॥

ऐसे ही लोंगो के शरीर को भयानक कालदूत पकड कर ले जाता है । जो त्यागयुक्त सन्यास धर्म का पालन करते हुए महायोग का आचरण करता है वह अभागा मुझे छोड़कर पशुयोनि को प्राप्त करता है । मुझ में भाव (प्रेम) रखने वाला, (और सभी के आँखों का तार) ऐसा मनुष्य सर्वथा दुर्लभ है ॥१११ - ११२॥

भावेन लभ्यते सर्वं भावेन देवदर्शनम् ।

भावेन परमं ज्ञानं तस्माद्‍ भावावलम्बनम् ॥११३॥

भाव प्रशंसा --- यतः भाव से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । भाव से साक्षात् देव का दर्शन प्राप्त होता है । भाव से ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है । इसलिये भाव का सहरा लेना चाहिये ॥११३॥

भावञ्च सर्वशास्त्राणाम गूढं सर्वेन्द्रियस्थितम् ।

सर्वेषां मूलभूतञ्च देवीभावं यदा लभेत ॥११४॥

तदैव सर्वसिद्धिश्च तदा ध्यानदृढो भवेत ।

सभी शास्त्रों का भाव अत्यन्त गूढ़ है । भाव सब के इन्द्रियों में विद्यमान रहता है । जब सभी का मूलभूत देवी भाव (प्रेम) हो जाता है, तभी ध्यान में दृढ़ता आती है और तभी सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं ॥११४-११५॥

अकलङ्की निराहारी निवासधृतमानसः ॥११५॥

नित्यस्नानाभिपूजाङो भावी भावं यदा लभेत्।

क्रियादक्षो महाशिक्षानिपुणोऽपि जितेन्दियः ॥११६॥

सर्वशास्तनिगूढार्थवेत्ता न्यासविवर्जितः ।

तेषां हस्तगतं भावं वद भावं यथा तनौ ॥११७॥

जब मेरा भाव प्राप्त होने लगता है तो मनुष्य निष्पाप हो जाता है । आहार रहित हो जाता है और अपने मन में मेरे निवास की कामना को धारण करने लग जाता है । उसमें नित्यस्नान तथा पूजा के सभी अङ्ग अनायास होने लगते हैं वह क्रिया दक्ष, महाशिक्षा में निपुण, जितेद्निय एवं सभी शास्त्रों के निगूढ़ अर्थ का विद्वान और न्यास से रहित हो जाता हैं --- ऐसे लक्षण वाले लोगों को ही मेरे भाव हस्तगत होते हैं, इस प्रकार समझना चाहिए मानो ये भाव उनके शरीर में ही प्रविष्ट हैं ॥११५ - ११७॥

भावात्परतरं नास्ति येनानुग्रहवान भवेत्।

भावादनुग्रप्राप्तिनुग्रहान्‍ महासुखी ॥११८॥

मेरे जिस भाव के उदय होने से मेरा अनुग्रह प्राप्त होता है उस भाव से बढ़ कर कुछ नहीं है क्योंकि मेरा अनुग्रह होने से जीव सुखी हो जाता है ॥११८॥

सुखात्पुण्यभावः स्यात्पुण्यादच्युतदर्शनम् ।

यदा कृतस्य दर्शनाम्भोजदर्शनमङुलम् ॥११९॥

योगी भूत्त्वा सूक्ष्मपदं योगिनामप्यदर्शनम् ।

पश्यत्येव महाविद्यापादाम्भोहपावनम् ॥१२०॥

सुख प्राप्त होने पर पुण्य का प्रभाव जाना जाता है, पुण्याधिक्य से भगवान् अच्युत के दर्शन होते हैं । जब पुण्य का साक्षात्कार होता है तब (विष्णु के मुख रुप) अम्भोज का दर्शन और मङ्गल की प्राप्ति होने लगती है । वह योगी हो कर भी योगियों से भी अदृश्य रहता है और महाविद्या के परम पवित्र चरणकमलों का दर्शन करता है ॥११९ - १२०॥

रूद्रयामलम् प्रथम पटल भाग २  

 गुरुणां परमहंसानां वाक्य त्रैलोक्यपावनम् ।

श्रुत्वा साधकसिद्धयर्थें योगी योगमवाप्नुयात्॥१२१॥

पञ्जरे शुकसारी च पतगाः पक्षियोनयः ।

गुहणाति साधकः स्वर्गान्‍ मन्नामविमलं महत्॥१२२॥

साधक परमहंस गुरुओं के त्रैलोक्यपावन वाक्यों को सुन कर योगी हो जाता है और योग प्राप्त करता है । चाहे शुक सारिका बनकर पिंजरे में पडा़ हो, चाहे पतङ्ग अथवा पक्षियोनि में पडा़ हो, फिर भी मेरा साधक विमल, महान् ‍ एवं स्वर्गतुल्य मेरे नाम को ग्रहण करता रहता है ॥१२१ - १२२॥

यावत्ज्ञानस्य सञ्चारं तावत्कालं कुलेश्वर ।

साधकानाञ्च साधूनां निकटस्थो भवेन्नरः ॥१२३॥

विद्याभ्यासी न पतति यदि बुद्धिपरो भवेत्।

नहि चेज्जन्म व्याखार्थं नानाशास्त्रार्थंभाषणाम् ॥१२४॥

हे कुलेश्वर ! जब तक ज्ञान सञ्चार की प्राप्ति न हो तब तक वह ऐसा करता रहता है । इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह आधुओं और मेरे साधकों के सन्निकट निवास करे । यदि बुद्धिमान् ‍महाविद्या का उपासक हो तो उसका पतन नहीं होता । उसे अपने जन्म को बिताने के लिये नाना शास्त्रों के अर्थों का संभाषण नहीं करना पड़ता ॥१२३ - १२४॥

सुरज्ञानं बिना किञ्चिन्नहि सिद्धयति भूतले ।

मन्त्रं श्रीकायसिद्धिश्च कथं भवति भैरव ॥१२५॥

सांख्यज्ञानं वेदभाषाविधिज्ञानं तथा समम् ।

शक्ति बिना यथा शाक्तं सुरज्ञानं बिना हि सः ॥१२६॥

इस भूतल पर बिना देवज्ञान के कुछ भी सिद्ध नहीं होता । हे भैरव ! भला आप ही विचार करें उसे मन्त्र तथा श्रीकाय की सिद्धि किस प्रकार हो सकती है । उसी प्रकार सांख्य शास्त्र का ज्ञान एवं वेदभाषा विधिज्ञान उसे कैसे हो सकता है । जिस प्रकार शक्ति के बिना कोई शाक्ता नहीं रहता है उसी प्रकार सुरज्ञान के बिना भी वह अशक्त रहता है ॥१२५ - १२६॥

अहिताचारसम्यत्तिर्दरिद्रस्य गृहे यथा ।

साधकस्य गृहे शक्तिर्ज्ञानाचरविवेचना ॥१२७॥

जायते यदि सायुज्यपदनाशाय केवलम् ।

जिस प्रकार दरिद्र के घर में अहिताचार सम्पत्ति दिखाई पड़ती है । साधक के घर में यदि उसी प्रकार शक्ति ज्ञानाचार की विवेचना की जाती है तो वह केवल उसके सायुज्यपद नाश का नाश मात्र करती है (अर्थात् उसे सायुज्य पद मात्र प्राप्त नहीं होता, उसे समृद्धि भी प्राप्त होती है ) ॥१२७ - १२८॥

यद्यज्ञानविशिष्टा सा स्वशक्तिः शिवकामिनी ॥१२८॥

तदा न कुर्याद ग्रहणा शक्तिसाधनमेव च ।

यदि कुर्यादसंस्कारात्संसर्गं साधकोत्तमः ॥१२९॥

असंस्कृत्यादिदोषेण सिद्धिहानिः प्रजायते ।

यदि शिवकामिनी वह स्वशक्ति अज्ञान से परिपूर्ण हो तब न तो उसे ही स्वीकार करे और न उस शक्ति के साधन को ही स्वीकार करे । यदि उत्तम साधक संस्कार हीन होने से उस असंस्कृत का संसर्ग करता है तो असंस्कृत्यादि दोष से उसकी सिद्धि में हानि होती है ॥१२८ - १३०॥

शक्तिप्रधानं भावानां त्रयाणां साधकस्य च ॥१३०॥

दिव्यवीरपशूनाञ्च भावत्र्रयमुदाह्रतम् ।

पशु भावे ज्ञानसिद्धिः पश्वाचारनिरुपणम् ॥१३१॥

वीरभावे क्रियासिद्धिः साक्षाद्रुद्रो न संशयः ।

साधक के लिये दिव्य, वीर और पशु इन तीनों भावों की शक्ति प्रधान है । पशुभाव से ज्ञान की सिद्धि होती है इसीलिये पश्वाचार का निरूपण किया गया है । वीरभाव से क्रिया सिद्धि होती है और उससे वह साक्षाद् रुद्र हो जाता है इसमें संशय नहीं है ॥१३० - १३२॥

दिव्यभावे वीरभावे विभिन्नमेकभावतः ॥१३२॥

अण्डः पूर्वः सर्वगतं दिव्यभावस्य लक्षणम् ।

दिव्य भाव और वीरभाव एक प्रकार से भिन्न भिन्न नहीं है प्रथमतः यह अण्ड सर्वगत है यही दिव्यभाव का लक्षण है ॥१३२ - १३३॥

विमर्श --- अण्डम ‍ - यह ब्रह्माण्ड आत्मस्वरूप है । इस प्रकार का आत्मसाक्षात्कारा ही दिव्य भाव है ॥

दिव्यभावे देवताया दर्शनं परिकीर्तितम् ॥१३३॥

वीरभावे मन्त्रसिद्धिद्वैताचारलक्षणम् ।

आदौ भावं पशोः प्राप्य रात्रिकर्मविवर्जयेत्॥१३४॥

दिवसे दिवसे स्नानं पूजानित्याक्रियान्वितः ।

पुरश्चरणवत्कार्यं शुचिभावेन सिद्धयति ॥१३५॥

दिव्य भाव का उदय होने पर देवता का दर्शन कहा गया है तथा वीरभाव के उदय होने पर मन्त्र की सिद्धि होती है और अद्वैताचार के लक्षण प्रगट होते हैं । सर्वप्रथम पशुभाव के प्राप्त होने पर रात्रि में कर्म न करे । दिन दिन में ही स्नान पूजा एवं नित्य क्रिया का आचरण करे । (पशुभाव में) शुचिभाव से कर्म करने पर सभी कार्य पुरश्चरण के समान सिद्ध होते हैं ॥१३३ - १३५॥

पशुभावं विना वीरः को वशी भवति ध्रुवम् ।

इन्द्रियाणाञ्च दमनं दमनं शमनस्य च ॥१३६॥

योगशिक्षानिविष्टाङो यतिर्योगपरायणः ।

सर्वक्षणादभ्यसतः प्रभातवधि रात्रिषु ॥१३७॥

हे भैरव ! भला पशुभाव के बिना निश्चयपूर्वक कौन अपने इन्द्रयों पर विजय प्राप्त कर सकता है । पशुभाव से इन्द्रियों का दमन तो होता ही है काल ( = शमनस्य ) का भी दमन हो जाता है । रात्रि में प्रभात काल की अवधि तक अथवा प्रतिक्षण योगाभ्यास करता हुआ योगशिक्षा में कुशल और योगापरायण यति पुरुष मुझ में युक्त हो जाता है ॥१३६ - १३७॥

विमर्श - शमनो यमराड्‍यमः इत्यमरः ।

सर्वकालं च कर्वव्यो योगः सर्वसुखप्रदः ।

वाञ्छाकल्पतरुं नित्य्म तरुणं पातकापहम् ॥१३८॥

साधयेदवहितं मन्त्री पशुभाविस्थितो यदि ।

योगभाषाविधिज्ञान सर्वभावेषु दुर्लभम् ॥१३९॥

योग प्रशंसा --- योग सभी प्रकार का सुख प्रदान करता है इसलिये उसे सर्वकाल में करना चाहिये । यह अभीष्ट प्रदान करने के लिये कल्पवृक्ष के समान तरुण है तथा पातक का हरण करने वाला है । किन्तु मन्त्रज्ञ साधक सावधान मन से पशुभाव में ही स्थित होकर अपने हित का साधन करे क्योंकि योगभाषाविधि का ज्ञान सभी भावों की अपेक्षा अत्यन्त दुर्लभ है ॥१३८ - १३९॥

रूद्रयामलम् प्रथम पटल भाग २                             

तथापि पशुभावेन शीघ्रं सिद्धयाति निश्चितम् ।

गुरुणां श्रीपदाम्भोजे यस्य भक्तिर्दृढा भवेत्॥१४०॥

स भवेत्कामनात्यागी भावमात्रोलक्षणम् ।

वीरभावो महाभावो न भावं दुष्टचेतसाम् ॥१४१॥

भावं मन्दगतं सूक्ष्मं रुद्रमूर्त्याः प्रसिद्धयति ।

भ्रष्टाचार महागूढं त्रैलोक्यमङ्गल शुभम् ॥१४२॥

भक्तिविवेचन --- एक बात और यह है कि पशुभाव में स्थित होने पर शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है । गुरु के श्री चरणकमलों में जिसकी दृढ़ भक्ति होती है वही भाव मात्र के उपलक्षण से युक्त हो कर अपनी कामनाओं का त्याग कर सकता है । वीर भाव तो बहुत बडा़ भाव है । यह भाव दुष्टों में नहीं आता । भाव की गति मन्द है, सूक्ष्म है और रुद्रमूर्त्ति के रुप से लोक में प्रसिद्ध है । यह आचार भ्रष्ट ( नियमपूर्वक पूजा अर्चना न करना ) तथा महागूढ़ है किन्तु त्रैलोक्य का मङ्गल करता है और शुभ है ॥१४० - १४२॥

पञ्चतत्त्वादिसिद्धयर्थ्म महामोहमदोद्‍भवम् ।

सर्वपीठाकुलाचार हठादानन्दसागरम् ॥१४३॥

कारुण्यवारिधिं वीरसाधने भक्तिकेवलम् ।

ज्ञानीभूत्वा पशोर्भावे वीराचारं ततः परम‍ ॥१४४॥

वीराचाराद्‍ भवेद्रुद्रोऽन्यथा नैव च नैव च ।

पञ्चतत्त्वादि की सिद्धि के लिये महामोह के मद से उत्पन्न, सर्वपीठकुलाचार तथा बलात् प्राप्त आनन्दसागर रूप वीरसाधन में केवल भक्ति ही मुख्य साधन है । पशुभाव में ज्ञान प्राप्त होने पर उसके बाद वीराचार का आचरण कहा गया है । वीराचार से साधक रुद्र हो जाता है । अन्यथा कभी नहीं, कभी नहीं ॥१४३ - १४५॥

भावद्वयस्थितो मन्त्री दिव्यभावं विचारयेत्॥१४५॥

सदा शुचिर्दिव्यभावमाचरेत्सुसमाहितः ।

देवतायाः प्रियार्थञ्च सर्वकर्मकुलेश्वर ॥१४६॥

यद्यत्तत्सकल सिद्धयत्यस्माद्‍ धर्मोदयं शुभम् ।

देवतातुल्यभावश्च देवतायाः क्रियापरः ॥१४७॥

दिव्यभावविवेचनम् ‍--- दो भाव ( पशुभाव औरा वीरभाव ) में स्थित मन्त्रज्ञ दिव्यभाव पर विचार करे । हे कुलेश्वर ! साधक सदैव पवित्र रह कर बडी़ सावधानी से देवताओं की प्रीति के लिये सम्पूर्ण कर्म करते हुये दिव्यभाव का आचरण करे । इससे शुभ धर्मोदय तो होता ही है, जितनी जितनी सिद्धियाँ हैं वे सभी सिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं । देवता को क्रिया में लगे रहने से देवतुल्य भाव का उदय होता है ॥१४५ - १४७॥

तद्‍ विद्धि देवताभावं सुदिव्यभाक्‌प्रकीर्तितम् ।

सर्वेषां भाववर्गाणाम शक्तिमूलं न संशयः ॥१४८॥

भक्तिं केन प्रकारेण प्राप्नोति साधकोत्तमः ।

ज्ञात्त्वा देवशरीरस्य निजकार्यनुशासनात्॥१४९॥ 

जब देवताभाव का उदय होता है तो वह दिव्यभाव का भाजन हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए । सभी भाव समूहों में शक्ति ही मूल है इसमें संशय नहीं । यदि शक्ति न हो तो उत्तम साधक भला किस प्रकार भक्ति प्राप्त कर सकता है । अतः अपने कार्य के अनुशासन से देवशरीर का ज्ञान कर दिव्यभाव प्राप्त करना चाहिए ॥१४८ - १४९॥

ज्ञानेश्च त्रिविधं प्रोक्तमागमाचारसम्भवम् ।  

शब्दब्रह्ममयं तद्धि ज्ञानमार्गेण पश्यति ॥१५०॥

पठित्वा सर्वशास्त्राणि स्वकर्मगायनानि च ।

कृशे विवेकमालम्ब्य नित्य ज्ञानी च साधकः ॥१५१॥

विवेकसंभवं ज्ञानं शिवज्ञानप्रकाशकम्‍ ।

लोचनद्वयहीङ्च बाह्यभावविवर्जितम्‍ ॥१५२॥

लोकानां परिनिर्मुक्तं कालाकालविलोडनम्‍ ।

नित्यज्ञानं परं ज्ञानं तं विद्धि प्राणगोचरम्‍ ॥१५३॥

आगमसागर से उत्पन्न ज्ञान तीन प्रकार का कहा गया है –

( १ ) ज्ञान मार्ग से शब्दब्रह्ममय विज्ञान का दर्शन होता है ।

( २ ) स्वकर्म वाले अयनों अर्थात् ‍ भागों को तथा समस्त शास्त्रों को पढ़ कर विवेक के सहारे साधक नित्यज्ञानी बन जाता है ।

( ३ ) विवेक से उत्पन्न ज्ञान शिव विषयक ज्ञान को प्रकाशित करता है । वह शिव ज्ञान द्वैत से हीन और बाह्मभाव से रहित है । वह लोक से परे सर्वथा निर्मुक्त है । उसमें काल और अकाल दोनों समाहित हो जाते हैं ऐसा नित्य ज्ञान सर्वश्रेष्ठ समझो क्योंकि वह केवल प्राणवायु से गोचर होता है ॥१५० - १५३॥

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल उत्तरतन्त्र का प्रथम पटल भाग २ समाप्त हुआ ॥२॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र प्रथम पटल भाग ३     

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