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कामकलाकाली खण्ड पटल १३

कामकलाकाली खण्ड पटल १३    

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - प्रस्तुत पटल में देवी कामकला काली के एकाक्षर से लेकर जितने मन्त्र हैं उनके स्वरूप को सुनने के लिये याचना करती है। महाकाल ने क्रम से मरीचि कपिल, हिरण्याक्ष, लवणासुर वैवस्वत, दत्तात्रेय, दुर्वासा, उत्तङ्क, कौशिक, और्व, पराशर, भगीरथ, बालि, संवर्त्त, नारद, गरुड, परशुराम, भार्गव, सहस्रबाहु, पृथु और हनुमान् के द्वारा उपासित मन्त्रों का उल्लेख कर बाद में कामकला काली के शताक्षर मन्त्र का वर्णन किया है। इसके बाद कामकला काली के उस मन्त्र का वर्णन है जिसमें एक हजार से अधिक अक्षर हैं। इस मन्त्रों का वर्णन कूट भाषा अथवा प्रतीक के माध्यम से किया गया है ।

कामकलाकाली खण्ड पटल १३

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १३      

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 13

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: त्रयोदशतमः पटलः

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड त्रयोदश पटल

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड तेरहवां पटल

महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड:)

त्रयोदशतमः पटलः

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - कामकलाकाल्या विविधमन्त्राणामवतरणम्

देव्युवाच-

भगवन् देव देवेश भक्तानां वाञ्छितप्रद ।

त्वत्प्रसादात् श्रुतं सर्वं कामकाल्या विधानकम् ॥ १ ॥

सहस्त्रनामस्तोत्रं च तस्य गद्यमनुत्तमम् ।

त्रैलोक्यविजयं चापि कवचं परमाद्भुतम् ॥ २ ॥

स्तोत्राणां स्तोत्रराजं भुजङ्गप्रयातमद्भुतम् ।

एकाक्षरं समारभ्य यावन्तो मनवः पुनः ॥ ३ ॥

कामकलामहादेव्यास्तान्मनून् श्रोतुमुत्सहे ।

कथ्यतां मयि ( है ) नाथ यदि तेऽस्ति स्नेहो मम ॥ ४ ॥

देवी ने कहा- हे देव! हे देवेश! भक्तों को वाञ्छित फल देने वाले ! आपकी कृपा से मैंने कामकला काली का समस्त विधान सुना । सहस्रनामस्तोत्र, उसका उत्तम गद्य, अद्भुत त्रैलोक्यविजय कवच, भुजङ्गप्रयात (छन्द में उपनिबद्ध) स्तोत्रों का स्तोत्रराज भी सुना । अब कामकला देवी के एकाक्षर से लेकर जितने मन्त्र हैं उन मन्त्रों को सुनने का उत्साह हो रहा है। हे नाथ! यदि आपका मेरे प्रति स्नेह है तो मुझे उसको बतलाइये ॥ १-४ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - मरीचिसमुपासिताया मन्त्रः  

महाकाल उवाच-

साधु धन्ये महाभागे श्रूयतां वाञ्छितं तव ।

महाकाल ने कहाहे महाभागे ! हे धन्ये! ठीक है। जो तुम्हारा वाञ्छित है, अब मुझसे उसको सुनो ॥ ५ ॥

तारमै धत्रपालक्ष्मीकालीकामरुषः क्रमात् ॥ ५ ॥

योगिनीं प्रमदां चैव शाकिनीमङ्कुशं तथा ।

प्रासाद क्षेत्रपालौ च पाशभूतौ समुद्धरेत् ॥ ६ ॥

ततोऽग्निस्त्री सप्तदशी मरीचिसमुपासिता ।

कर्दमोऽस्य ऋषिः प्रोक्तो बृहती छन्द उच्यते ॥ ७ ॥

देवी कामकलाकाली ह्रीं शक्तिः ह्रूं च कीलकम् ।

मरीचिसमुपासिता काली का मन्त्र-तार मेधा त्रपा लक्ष्मी काली काम क्रोध योगिनी प्रमदा शाकिनी अङ्कुश प्रासाद क्षेत्रपाल पाश भूत बीजों तथा इसके बाद अग्निस्त्री कहना चाहिये (मन्त्र इस प्रकार है-ओं ऐं ह्रीं श्रीं क्रीं क्लीं हूं छ्रीं छूीं स्त्रीं फें क्रों हौं क्षौं आं स्फ्रें स्वाहा )। मरीचि के द्वारा समुपासित यह सत्रह अक्षरों वाला मन्त्र है । इसके ऋषि कर्दम और छन्द बृहती है। देवी कामकला काली शक्ति ह्रीं और कीलक हूं है ॥ ५-८ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - कपिलोपासिताया मन्त्रः

ह्रींशाकिन्यङ्कशसुधायोगिनीप्रमदाकुधः ॥ ८ ॥

भूतडाकिनीकल्पान्तफेत्कारीनरसिंहकाः ।

प्रेतास्त्रशिरसः प्रोक्ताः कपिलोपास्यषोडशी ॥ ९ ॥

सनकोऽस्य ऋषिर्ज्ञेयः प्रतिष्ठा छन्द ईरितम् ।

देवता कामकाली च ह्यमृते शक्तिकीलके ॥ १० ॥

कपिल के द्वारा उपासिता का मन्त्र - ( यह मन्त्र) ह्रीं शाकिनी अङ्कुश सुधा योगिनी प्रमदा क्रोध भूत डाकिनी कल्पान्त फेत्कारिणी नरसिंह प्रेत अस्त्र शिर (इन बीजाक्षरों से निर्मित है) (मन्त्र इस प्रकार है- ह्रीं फ्रें क्रों ग्लूं छ्रीं स्त्रीं हूं स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्ख्फ्रें क्षौं स्हौः फट् स्वाहा ) । कपिल के द्वारा उपास्य यह सोलह अक्षरों वाला मन्त्र है। इसके ऋषि सनक, छन्द प्रतिष्ठा, देवता कामकला काली, शक्ति और कीलक अमृत हैं ॥ ८-१० ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - हिरण्याक्षोपासिताया मन्त्रः

डाकिनीसानुतुङ्गा हि सचूडामणिमेखलाः ।

बलिजम्भौ सभोगास्त्रौ हिरण्याक्षनवाक्षरी ॥ ११ ॥

ऋषी रुचिश्छन्द उष्णिग् देवता कामकालिका ।

डाकिनीमेखले शक्तिकीलके परिकीर्त्तिते ॥ १२ ॥

हिरण्याक्षोपासिता का मन्त्र - डाकिनी सानु तुङ्ग चूड़ामणि मेखला बलि जम्भ भोग और अस्त्र (इनसे बना मन्त्र) हिरण्याक्षोपास्या काली का मन्त्र है ( मन्त्र इस प्रकार है- ख्फ्रें रह्रीं रज्री रक्रीं रक्ष्रीं रछ्रीं रफ्रीं ह्स्ख्फ्रें फट्) इस मन्त्र में नव अक्षर हैं । इसके ऋषि रुचि, छन्द उष्णिक्, देवता काम काली, शक्ति डाकिनी (=ख्फ्रें) और कीलक मेखला (रक्षी) कहे गये हैं ॥ ११-१२ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - लवणोपासिताया मन्त्रः

त्रपाद्या डाकिनी कूर्चभूतमन्मथयोगिनीः ।

वधूश्च शाकिनी स्वाहा लवणस्य दशाक्षरी ॥ १३ ॥

छन्दः पङ्क्तिरथर्वऋषिर्देवी कामकलापि च ।

शाकिन्यनङ्गौ विज्ञेयौ मनोर्वै शक्तिकीलके ॥ १४ ॥

लवणासुरोपासिता का मन्त्र - त्रपा डाकिनी कूर्च भूत मन्मथ योगिनी वधू शाकिनी और स्वाहा यह मन्त्र लवणासुर की काली का है (मन्त्र इस प्रकार है- ह्रीं ख्फ्रें हूं स्फ्रें क्लीं छ्रीं स्त्रीं फ्रें स्वाहा। इस मन्त्र का छन्द पङ्गि ऋषि अथर्वा देवी कामकला, शाकिनी (= फ्रें) शक्ति और अनङ्ग (=क्लीं कीलक हैं ॥ १३-१४ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - वैवस्वतोपासिताया मन्त्रः

कूर्चास्त्रशाकिनी प्रोच्य ततः कामकला इति ।

कालिकायै ततः प्रोच्य हार्दमन्त्रोऽग्निवल्लभा ॥ १५ ॥

वैवस्वतस्य हि मनोर्मनुः पञ्चदशाक्षरी ।

ऋषिरत्रिः समुद्दिष्टो छन्दो मध्या प्रकीर्तिता ॥ १६ ॥

देवीयं शाकिनी कूर्ची कीर्तिते शक्तिकीलके ।

वैवस्वतोपासिता का मन्त्र - कूर्च अस्त्र शाकिनी बीजों को कहने के बाद 'कामकलाकालिकायै' कहकर हार्द मन्त्र तथा अग्निवल्लभा यह वैवस्वत मनु के द्वारा उपासित काली का मन्त्र है ( मन्त्र इस प्रकार है-हूं फट् फ्रें कामकलाकालिकायै नमः स्वाहा ) । इसमें दश अक्षर हैं। इसके ऋषि अत्रि, छन्द मध्या, यही देवी, शाकिनी शक्ति और कूर्च (हूं) कीलक है ॥ १५-१७ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - दत्तात्रेयोपासिताया मन्त्रः

वेदादिमैधयोगिन्यः शाकिनीकामयोषितः ॥ १७ ॥

भूतक्रोधत्रपा ज्ञेया दत्तात्रेयेण राधिता ।

ऋषिर्वसन्तवटुकोऽनुष्टुप् छन्द उदीरितम् ॥ १८ ॥

एषैव देवता ज्ञेया ह्रीमैंधे शक्तिकीलके ।

दत्तात्रेयोपासिता का मन्त्र - वेदादि मेधा योगिनी शाकिनी काम योषित् भूत क्रोध और त्रपा यह दत्तात्रेय के द्वारा आराधित विद्या है। (मन्त्र इस प्रकार है-ओं ऐं छ्री फ्रें क्लीं स्त्रीं स्फों हूं ह्रीं) इसमें नव अक्षर है। इसके ऋषि वसन्तवटुक, छन्द अनुष्टुप्, यही (=कामकला काली) देवता, ह्रीं शक्ति ऐं कीलक है ।। १७-१९ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - दुर्वासस उपासिताया मन्त्रः

शृणिर्भूतः शाकिनी च डाकिनी भूतपञ्चमा ॥ १९ ॥

दुर्वासः साधिता ज्ञेया महापञ्चाक्षरी प्रिये ।

गोतमोऽस्य ऋषिर्ज्ञेयश्छन्दस्त्रिष्टुबुदीरितम् ॥ २० ॥

देवतैषा भूतशृणी शक्तिकीलकनामकौ ।

दुर्वासा से उपासिता का मन्त्र- शृणि भूत शाकिनी डाकिनी भूत इस महापञ्चाक्षरी विद्या को दुर्वासा के द्वारा साधित जानना चाहिये। ( मन्त्र इस प्रकार है - क्रों स्फ्रों फ्रें ख्फ्रें स्फ्रों)। इसके ऋषि गौतम, छन्द त्रिष्टुप् देवता यही भूत (=स्फों), शक्ति और शृणि (=क्रों) कीलक है ॥ १९-२१ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - उत्तङ्कोपासिताया मन्त्रः

मैधप्रणवशाकिन्यो डाकिनी प्रलयान्विता ॥ २१ ॥

फेत्कारीहीरमानङ्गयोगिनीस्त्रीरुषश्च हृत् ।

चतुर्दशाक्षरो मन्त्र उत्तङ्कसमुपासितः ॥ २२ ॥

अस्य ऋषिर्दक्षिणामूर्त्तिः सुतलं छन्द उच्यते ।

देवी देवी कामकला रुममे शक्तिकीलके ॥ २३ ॥

उत्तङ्क - उपासिता का मन्त्र - मेधा प्रणव शाकिनी डाकिनी प्रलय फेत्कारी ही रमा अनङ्ग योगिनी स्त्री क्रोध हृदय इस चौदह अक्षरों वाले मन्त्र की उत्तङ्क ने उपासना की। (मन्त्र इस प्रकार है - ऐं ओं फ्रें ख्फ्रें हस्फ्रीं ह्स्ख्फ्रें ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रीं स्त्रीं नमः (हूं) स्वाहा) इसके ऋषि दक्षिणामूर्ति, छन्द सुतल, देवी कामकला, देवी, क्रोध शक्ति और रमा बीज कीलक है ।। २१-२३ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - कौशिकोपासिताया मन्त्रः

रुग्व्रीडाशाकिनी हार्दा विकराला पदं सङे ।

कामडाकिनीभूतान्ते हृच्छीष कौशिकेश्वरी ॥ २४ ॥

ऋषिर्नारद एतस्य शक्वरी छन्द ईरितम् ।

देव्येषैव स्मरो भूतः शक्तिः कीलकमिष्यते ॥ २५ ॥

कौशिक उपासिता का मन्त्र-क्रोध लज्जा शाकिनी हार्द चतुर्थ्यन्त विकराला पद काम डाकिनी भूत हृदय शिर यह कौशिकेश्वरी विद्या कही गयी है है ( मन्त्र इस प्रकार है- हूं ह्रीं फ्रें नमो विकरालायै क्ली ख्फ्रें स्फ्रें नमः फट्) । इस मन्त्र के ऋषि नारद है छन्द शक्वरी और देवी यही (=कामकलाकाली) है। शक्ति स्मर और कीलक भूतबीज है । २४-२५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - और्वोपासिताया मन्त्रः

व्रीडायोगिनिकूर्चस्त्रीशाकिनीः पञ्च चोद्धरेत् ।

भगवत्यै इति प्रोच्य ततः कामकला इति ॥ २६ ॥

कालिकायै तारमेधाङ्कुशकालीरमास्मराः ।

भूतास्त्रयोर्युगं वह्निस्त्रीत्यूनत्रिंशौर्वराधिता ॥ २७ ॥

ऋषिर्वत्सस्त्रिवृच्छन्दो देवीयं शक्तिरङ्कुशः ।

शाकिनी कीलकं ज्ञेयं योगिनीतत्त्वमित्यपि ॥ २८ ॥

और्व - उपासिता का मन्त्र - लज्जा योगिनी कूर्च स्त्री शाकिनी कहकर 'भगवत्यै कामकलाकालिकायै कहने के बाद तार मेधा अङ्कुश काली रमा काम भूत और अस्त्र को दो बार कहने पर 'स्वाहा' कहे। और्व के द्वारा आराधित यह उन्तीस अक्षरों वाली विद्या है । (मन्त्र इस प्रकार है- ह्रीं ह्रीं हूं स्त्रीं फ्रें भगवत्यै कामकलाकालिकायै ओं ऐं क्रीं क्रीं श्रीं क्लीं स्फ्रें स्फ्रें फट् फट् स्वाहा। इसके ऋषि वत्स, छन्द त्रिवृत् देवी यह, शक्ति अङ्कुश, कीलक शाकिनी एवं योगिनीबीज है ।। २६-२८ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - पराशरोपासिताया मन्त्रः

योगिनीभूतरुट्कामा अस्त्रं पाराशरी मता ।

अङ्गिराश्चापि गायत्री ऋषिश्छन्दश्च कीर्त्यते ॥ २९ ॥

देवीयं डाकिनीभूतौ विज्ञेयौ शक्तिकीलकौ ।

पराशर - उपासिता का मन्त्र - योगिनी भूत क्रोध काम अस्त्र यह पाराशरी विद्या कही गयी है (मन्त्र- छ्रीं स्फ्रें हूं क्लीं फट) इसके ऋषि अङ्गिरा छन्द गायत्री देवता यही शक्ति डाकिनी और कीलक भूत बीज है ।। २९-३० ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - भगीरथोपासिताया मन्त्रः

आदौ परापरं कूटं बृहत्कूटं द्वितीयकम् ॥ ३० ॥

कूटं राथन्तरं पश्चात् ज्ञेया भागीरथी प्रिये ।

छन्दस्त्रिष्टुवृषिर्व्यासो देव्येषा शक्तिकीलकौ ॥ ३१ ॥

फेत्कारीप्रलयौं ज्ञेयौ डाकिनीतत्त्वमित्यपि ।

भगीरथ उपासिता का मन्त्र - पहले परापर फिर वृहत् तत्पश्चात् रथन्तर कूट कहे । हे प्रिये ! यही भगीरथ विद्या है। ( मन्त्र - हस्लक्षकमह्रब्रूं ह्रलह्रीं सक्लह्रकह्रीं) । इसके ऋषि व्यास, छन्द त्रिष्टुप् देवता यही, फेत्कारी और प्रलय तथा डाकिनी तत्त्व शक्ति और कीलक हैं ।। ३०-३२ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - बल्युपासिताया मन्त्रः

ही भूतक्रोधडाकिन्यः कामत्कारिसंयुताः ॥ ३२ ॥

षडक्षरा बल्युपास्या देवी कामकला प्रिये ।

ऋषिः कात्यायनो ह्यस्य छन्दः ख्यातं बृहत्यपि ॥ ३३ ॥

अधिष्ठात्री त्वियं देवी स्त्रीकामौ शक्तिकीलकौ ।

बलि- उपासिता का मन्त्र- हे प्रिये! बलि के द्वारा उपास्य कामकला देवी ह्रीं भूत क्रोध डाकिनी काम फेत्कारी से युक्त छह अक्षरों वाली है (मन्त्र - ह्रीं स्फ्रें हूं ख्फ्रें क्लीं ह्सफ्रें) । इसके ऋषि कात्यायन, छन्द वृहती, अधिष्ठात्री देवता यह देवी, स्त्री शक्ति और काम (=क्लीं कीलक हैं ।। ३२-३४ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - संवर्तोपासिताया मन्त्रः

कामलक्ष्मीत्रपाकूर्चयोगिनीभिस्तु शाकिनी ॥ ३४ ॥

डाकिनीमहदामर्षामृतप्रासाददक्षिणाः।

शृणिकालीतारमैधाः संवर्त्तोपास्यषोडशी ॥ ३५ ॥

छन्दः पङ्क्तिर्ऋषिश्चात्रिर्देवी कामकलापि च ।

शक्तिर्हारावलिः कीलः कर्णिकातत्त्वमीरितम् ॥ ३६ ॥

संवर्तोपासिता का मन्त्र - काम लक्ष्मी, त्रपा, कूर्च, योगिनी के साथ शाकिनी, डाकिनी, महत्, आमर्ष, अमृत, प्रासाद, दक्षिण श्रृणि काली तार मेधा यह सोलह अक्षरों वाली विद्या संवर्त के द्वारा उपास्य है (मन्त्र इस प्रकार है-क्लीं श्रीं ह्रीं हूं छ्रीं फ्रें ख्फ्रें क्षं ग्लूं हूं हौं रफ्रें क्रों क्रीं ओं ऐं)। इसके ऋषि अत्रि, छन्द पङ्गि, देवी कामकला काली, शक्ति हारावली (= ह्रक्षम्लै) और कीलक कर्णिकातत्त्व (=क्षरही) कहा गया है ।। ३४-३६ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - नारदोपासिताया मन्त्रः

वेदादिसारस्वतकामभूताः

लज्जा ततो डाकिनि योगिनी च ।

कल्पान्तरामे तदनु प्रकीयें

फेत्कारिकूर्ची तदनु प्रदेयौ ॥ ३७ ॥

वेतालमस्त्रमथ वह्निनितम्बिनी च

प्रोक्तं प्रिये नारदपञ्चदश्याम् ।

विरूपाक्ष ऋषिः प्रोक्तो जगतीच्छन्द इत्यपि ।

अधिष्ठात्री कामकाली बीजशक्ती त्रपारुषौ ॥ ३८ ॥

शक्तितत्त्वे रमानङ्गौ प्रयोगः सर्वसिद्धये ।

नारद उपासिता का मन्त्र-वेद का आदि सरस्वती काम भूत लज्जा डाकिनी, योगिनी कल्पान्त रामा फेत्कारी कूर्च वेताल अस्त्र और वहिजाया के बीजों वाली नारद की पञ्चदशाक्षरी विद्या कही गयी है (मन्त्र इस प्रकार है-ओं ऐं क्लीं स्फ्रें ह्रीं ख्फ्रें छ्रीं ह्स्फ्रीं स्त्रीं ह्स्ख्फ्रें हूं स्फल्क्षं फट् स्वाहा ) । इसके ऋषि विरूपाक्ष, छन्द जगती, अधिष्ठात्री देवता कामकला काली, बीज त्रपा ( = ह्रीं), शक्ति रोष (= हूं), शक्तितत्त्व रमा (श्री) और काम (=क्ली) है । सर्वसिद्धि के लिये इसका प्रयोग ( = विनियोग) होता है ।। ३७-३९ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - गरुडोपासिताया मन्त्रः

आदौ च शाम्भवं कूटं लज्जाबीजं द्वितीयकम् ॥ ३९ ॥

ततः पाशुपतं कूटं योगिनी तदनन्तरम् ।

ततो माहेश्वरं कूटं कूर्मशाङ्करकूटकौ ॥ ४० ॥

वधू श्रीकण्ठकूौ च शाकिनी स्यात्ततः परम् ।

पुण्डरीकाश्वमेधौ च ततोऽस्त्रं हृच्छिरोऽपि च ॥ ४१ ॥

गरुडोपासिता ज्ञेया महासप्तदशी त्वियम् ।

प्रचेता ऋषिरस्य स्यात् सुतलं छन्द ईरितम् ॥ ४२ ॥

देवी कामकला काली फेत्कारी बीजमुच्यते ।

शक्तिकीलकतत्त्वानि त्रपाकूर्चस्मराः क्रमात् ॥ ४३ ॥

गरुड - उपासिता का मन्त्र - पहले शाम्भव कूट, फिर लज्जाबीज, इसके बाद पाशुपत कूट, फिर योगिनी, तत्पश्चात् माहेश्वर कूट, फिर कूर्म एवं शङ्कर कूट, फिर वधू और श्रीकण्ठकूट, तत्पश्चात् शाकिनी ततः पुण्डरीक एवं अश्वमेध और अन्त में अस्त्र हृदय और शिरोमन्त्र - इस प्रकार यह महासप्तदशी विद्या गरुड के द्वारा उपासित जाननी चाहिये ( मन्त्र इस प्रकार है- स्हजहलक्षम्लवनऊं ह्रीं सग्लक्षमहरह्रूंछ्रीं क्वलह्रझकह्रनसक्लईं घ्रीं स्हजहलक्षम्लवनऊं स्त्रीं क्लक्षसहमव्य्रऊं फ्रें फ्लक्षह्रस्हव्य्रऊं ह्रसलहसकह्रीं फट् नमः स्वाहा ) । इसके ऋषि प्रचेता, छन्द सुतल, देवी कामकला काली, बीज फेत्कारी (=हस्फ्रें), शक्ति त्रपा ( = ह्रीं), कीलक कूर्च (= हूं) और तत्त्व स्मर (=क्ली) है । ३९-४३ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - परशुरामोपासिताया मन्त्रः  

लक्ष्मीर्लज्जाकामबीजं योगिनी भीरुकालिकाः ।

फडन्ता पर्शुरामेण साधिता परमेश्वरि ॥ ४४ ॥

तस्यर्षिः कश्यपो ज्ञेयः प्रतिष्ठा च्छन्द उच्यते ।

प्रोक्ता देवी कामकाली शाकिनीबीजमुच्यते ॥ ४५ ॥

रमाकाल्यौ शक्तिकीलौ ज्ञेयौ सप्ताक्षरीमनौ ।

परशुराम-उपासिता का मन्त्र- हे परमेश्वरि ! लक्ष्मी लज्जा काम योगिनी भीरु काली बीजों के बाद अन्त में 'फट्'– यह पर्शुराम के द्वारा साधित विद्या है (मन्त्र इस प्रकार है - श्रीं ह्रीं क्लीं छ्री स्त्रीं क्रीं फट् ) । इस सात अक्षर वाले मन्त्र के ऋषि कश्यप, छन्द प्रतिष्ठा, देवी कामकला काली, बीज शाकिनी, शक्ति रमा, कीलक काली है ।। ४४-४६ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - भार्गवोपासिताया मन्त्रः  

तारपाशाङ्कुशान् दत्वा प्रासादं महतीं ध्रुवम् ॥ ४६ ॥

अमृतं शाकिनीं रामायोगिनीवह्निवल्लभाः ।

उद्धरेद् भार्गवीं कामकालीमेकादशाक्षरीम् ॥ ४७ ॥

ब्रह्मर्षिः शक्वरीछन्दो देव्येषा बीजमङ्कुशम् ।

शक्तिकीला सुधापाशौ षडङ्गो मनुरीरितः ॥ ४८ ॥

भार्गव - उपासिता का मन्त्र-तार, पाश, अङ्कुश, प्रासाद, महती, ध्रुव, अमृत, शाकिनी, स्त्री, योगिनी और अग्निवल्लभा - यह भार्गव की कामकला काली कुल ग्यारह अक्षरों वाली बतलायी गयी है । ( मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार होता है-ओं आं क्रों हौ क्ष्रूं ग्लूं फ्रें स्त्रीं छ्रीं स्वाहा ) । इसके ऋषि ब्रह्मा, छन्द शक्वरी, देवता यही, बीज अङ्कुश (=क्रों), शक्ति सुधा (=ग्लं), कीलक पाश (= आं) है। यह मन्त्र उक्त प्रकार से छह अङ्गों (ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति और कीलक) वाला बतलाया गया ॥ ४६-४८ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - सहस्रबाहूपासिताया मन्त्रः

मेधाङ्कुश तथा भूतं शाकिनी डाकिनी तथा ।

प्रलयश्चापि फेत्कारी फट्त्रयं हृदयं शिरः ॥ ४९ ॥

द्वाभ्यां सहस्त्रबाहुभ्यां साधितेयं चतुर्दशी ।

प्रोक्तः सम्मोहनोऽस्यर्षिर्गायत्रं छन्द उच्यते ॥ ५० ॥

मनोर्देवी कामकला चक्रास्त्रं बीजमुच्यते ।

विज्ञेयौ दक्षिणाजम्भौ शक्तिकीलौ मनोः प्रिये ॥ ५१ ॥

सहस्रबाहु-उपासिता का मन्त्र- मेधा, अङ्कुश, भूत शाकिनी, डाकिनी, प्रलय फेत्कारी तीन 'फट्' हृदय और शिर- यह मन्त्र है जो चौदह अक्षरों वाला है (मन्त्र इस प्रकार है-ऐं क्रों स्फ्रों फ्रें ख्फें हस्फ्रीं ह्स्ख्फ्रें फट् फट् फट् नमः स्वाहा ) यह दोनों सहस्रबाहुओं के द्वारा आराधित है। हे प्रिये! इसके ऋषि सम्मोहन, छन्द गायत्री, देवी कामकला काली, बीज चक्रास्त्र (= रक्षत्रभ्रभ्रमन्ऊं) शक्ति दक्षिणा (= फ्रें) और कीलक जम्भ (फ्री) है ।। ४९-५१ ॥

सहस्रबाहु नाम दो व्यक्तियों के लिये प्रयुक्त होता है— (क) राजा कार्त्तवीर्य (ख) बाणासुर । इसका प्रयोग विष्णु के लिये भी है— 'सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते । (गीता ११ अध्याय)

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - पृथूपासिताया मन्त्रः  

कामभूतौ भूतकामौ फडन्तौ पृथुराधिता ।

पञ्चाक्षरी परिज्ञेया कामकाल्या वरानने ॥ ५२ ॥

ऋषिर्मनोर्वीतहव्यो जागतं छन्द इत्यपि ।

देवता कामकाली च नाराचो बीजमुच्यते ॥ ५३ ॥

कुन्तसृष्टी शक्तिकीलौ मन्त्रस्य परिकीर्तितौ ।

पृथु उपासिता का मन्त्र - काम भूत भूत काम और अन्त में 'फट्' कामकला काली की यह पञ्चाक्षरी विद्या पृथु के द्वारा सिद्ध की गयी (मन्त्र इस प्रकार है- क्लीं स्फ्रें स्फ्रें क्लीं फट् ) । इसके ऋषि वीतहव्य, छन्द जगती, देवता कामकला काली, बीज नाराच (=द्रां) शक्ति कुन्त (=क्रों) कीलक सृष्टि (= उं) है ॥ ५२-५४॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - हनूमदुपासिताया मन्त्रः

तारयोर्मध्यगौ पाशमैधावादौ प्रयोजयेत् ॥ ५४ ॥

कलातारत्रपाकूर्चलक्ष्मीकामांस्ततः परम् ।

काल्याः कराल्याः सम्बुद्धिं विकराल्यास्ततः परम् ॥ ५५ ॥

द्वाविंशत्यक्षरी विद्यां त्रिफडन्तां समुद्धरेत् ।

एषैव हि परिज्ञेया हनूमत्समुपासिता ॥ ५६ ॥

ऋषिः सनातनश्चोक्तश्छन्दो ज्ञेयञ्च बार्हतम् ।

देवता कामकाली च काकिनीबीजमिष्यते ॥ ५७ ॥

नागः शक्तिः क्षमा कीलं नासत्यौ तत्त्वमिष्यते ।

हनूमान् उपासिता का मन्त्र- दो तारों के मध्य में पाश और मेधा को रखना चाहिये । तत्पश्चात् कला तार त्रपा कूर्च लक्ष्मी काम (बीजों को रखकर) 'करालिकालि विकरालि' कहने के बाद अन्त में तीन 'फट्' कहना चाहिये (मन्त्र - ओं आं ऐं ओं ई ओं ह्रीं हूं श्रीं क्लीं कालि करालि विकरालि फट् फट् फट्) यह बाईस अक्षरों वाली विद्या है । इसी की हनूमान् ने उपासना की थी। इसके ऋषि सनातन, छन्द वृहती, देवता कामकला काली बीज काकिनी (फ्री) शक्ति नाग (=त्रीं) कीलक क्षमा (=जूं) और नासत्यद्वय तत्त्व हैं ॥ ५४-५८ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - कामकलाकाल्याः शताक्षरमन्त्रः

महाकाल उवाच-

शताक्षरसमुद्धारमथाकर्णय भाविनि ॥ ५८ ॥

येन विज्ञातमात्रेण सर्वसिद्धिः करे स्थिता ।

आदौ त्रपाकामकूर्चान्हन्मन्त्रान्तान्समुद्धरेत् ॥ ५९ ॥

ततः कामकलेत्युक्त्वा कालिकायै समुद्धरेत् ।

मैधाङ्कशरमाकालीयोगिनी भीरुशाकिनी: ॥ ६० ॥

डाकिन्यन्ताः समुद्धृत्य सकचेति पदं ततः ।

नरमुण्ड इति प्रोच्य कुण्डलायै इतीरयेत् ॥ ६१ ॥

भोगं सृष्टिं च फेत्कारी त्रेतां कृत्यां तथोद्धरेत् ।

महेति विकरालेति वदनायै इतीरयेत् ॥ ६२ ॥

महाप्रलय इत्युक्त्वा समयेत्युद्धरेत् प्रिये ।

ब्रह्माण्डनिष्पेषणतः करायै इत्यपीरयेत् ॥ ६३ ॥

सान्विष्टिदक्षिणाध्यानचञ्चन् कूर्चास्त्रयोस्त्रयम् ।

भयङ्करेति संलिख्य रूपायै तदनन्तरम् ॥ ६४ ॥

हारं वैधं कर्णिकां च नालीकं हाकिनीमपि ।

कौरजानुत्तमाङ्गास्थिभेदिनोत्रितयं पुनः ॥ ६५ ॥

संविद्द्द्वयं हृच्छिरसी (वि) निर्ज्ञेयं शताक्षरी ॥ ६६ ॥

अस्या ऋषिः समुद्दिष्टो लोमपादो वरानने ।

छन्दो विराट् क्रमो बीजं देवता कामकालिका ॥ ६७ ॥

शक्तिः सौत्रामणीकूटं नागास्त्रं कीलकं भवेत् ।

कामकला काली का शताक्षरमन्त्र- हे भव की पत्नि ! अब शताक्षर मन्त्र का उद्धार सुनो। जिसके जान लेने से समस्त सिद्धियाँ हस्तगत हो जाती हैं। पहले त्रपा काम कूर्च बीजों को कहकर हन्मन्त्र कहे। इसके बाद 'कामकलाकालिकायै' कहे । मेधा अङ्कुश रमा काली योगिनी भीरु शाकिनी डाकिनी को कहकर 'सकचनरमुण्ड- कुण्डलायै' कहे । अनन्तर भोग सृष्टि फेत्कारी के बाद त्रेता कृत्या का उद्धार करे । फिर 'महाबिकरालवदनायै' कहे। तत्पश्चात् 'महाप्रलयसमयब्रह्माण्डनिष्पेषणकरायै' कहे। फिर सानु इष्टि दक्षिणा ध्यान चक्षु के बाद कूर्च और अस्त्र को तीन बार पढ़े । तदनन्तर 'भयङ्कररूपायै' कहने के बाद हार वैध कर्णिका नालीक हाकिनी कौरज के बाद उत्तमाङ्ग अस्थिभेदी को तीन-तीन बार फिर संविद को दो बार फिर हृदय और शिर कहो यह शताक्षरी विद्या है ( मन्त्र इस प्रकार है- ह्रीं क्लीं हूं नमः कामकलाकालिकायै ऐं क्रों श्रीं क्रीं छ्रीं स्त्रीं फ्रें ख्फ्रें सकचनरमुण्डकुण्डलायै ह्स्ख्फ्रीं ह्स्ख्फ्रूं ह्स्ख्फ्रें ह्स्ख्फ्रैं ह्स्ख्फ्रों महाविकरालवदनायै महाप्रलयसमयब्रह्माण्ड- निष्पेषकराये रह्रीं रश्रीं रफ्रें वूः रस्फ्रों हूं हूं हूं फट् फट् फट् भयङ्कररूपायै हक्षम्लै लक्षों क्षरह्रीं क्षुरस्त्रीं रक्षश्री खं रध्रे सैं टं टं टं ठं ठं ठं फें फें नमः स्वाहा ) इसे शताक्षरी विद्या जानना चाहिये। हे वरानने। इसके ऋषि लोमपाद, छन्द विराट्, बीज क्रम, देवता कामकला काली, शक्ति सौत्रामणी का कूट (= ग्लूट्क्ष्क्ली) और कीलक नागास्त्र ( =त्री) है ।। ५८-६८ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - कामकलाकाल्याः सहस्राक्षरमन्त्रः  

देव्युवाच-

मन्त्रोद्धाराः सकलाः कामकलाया निशामितास्त्वत्तः ।

अधुना वद शशिशेखर दयित सहस्त्राक्षरोद्धारम् ॥ ६८ ॥

कामकला काली का सहस्राक्षर मन्त्र- देवी ने कहा- हे प्रिये! हे शशिशेखर ! आपसे मैंने कामकलाकाली के समस्त मन्त्रोद्धारों को सुना । अब सहस्राक्षर मन्त्र का उद्धार बतलाइये ॥ ६८ ॥

महाकाल उवाच-

प्रणव नमो भगवत्यै कामकलाकालिकायै च ।

तारत्रपारमास्मररुड्योगिनि योषितां पञ्च ॥ ६९ ॥

प्रत्येकं संलेख्यं ततश्च संहारभैरवेत्यपि च ।

सुरतरसलोलुपायै चतुर्दशान्तां च पञ्चकम् ॥ ७० ॥

आदौ शाणं बीजं प्रासादं शाकिनीं तदनु ।

डाकिनिमहारुषावपि भूतप्रेतामृतान्यपि च ॥ ७१ ॥

क्षेत्रपचण्डौ कालीं गारुडकालौ रतिं चापि ।

प्रकटविकटानुदशनविकरालवदना ङेऽन्तैव ॥ ७२ ॥

घनविद्युद्धनदानां मानस भारुण्डयोश्चापि ।

द्रावणतत्त्वपवीनां प्रत्येकं पञ्च चोद्धृत्य ॥ ७३ ॥

सृष्टिस्थितिसंहारकारिण्यै इत्यपि ब्रूयात् ।

तदनु मदनातुरायै चामुण्डां चापि कापालम् ॥ ७४ ॥

उग्रं ब्रह्म च शक्तिं चानन्दं रौद्रकं पञ्च ।

प्रत्येकं संलेख्यं भयङ्करेति प्रयोज्यमस्यानु ॥ ७५ ॥

दंष्ट्रायुगलान्मुखरं रसनायै तदनु च ब्रूयात् ।

कूर्मानन्तहयग्रीवदानवक्ष्वेडसूरतपिनी: ।। ७६ ।।

तस्य त्रिशक्तिगणपतिकुमारकान् पञ्चशो विलिखेत् ।

सकचनरमुण्डशब्दा ङेऽन्ता कृतकुला चापि ॥ ७७ ॥

त्रिकूटा सिंहसमाधीन् यक्षविरिची सुदर्शनं चापि ।

गान्धर्वं च निरञ्जनमेषां वै वारपञ्चकं लेख्यम् ॥ ७८ ॥

महाकाल ने कहा- प्रणव 'नमो भगवत्यै कामकलाकालिकायै' के बाद तार त्रपा रमा स्मर क्रोध योगिनी और योषित को पाँच-पाँच बार कहे। इसके बाद 'संहारभैरव- सुरतरसलोलुपायै' कहे। इसके बाद शृणि प्रासाद शाकिनी डाकिनी महाक्रोध भूत प्रेत अमृत क्षेत्रप चण्ड काली गरुड काल रति के बीजों को उद्धृत करे । तदनन्तर चतुर्थ्यन्त 'प्रकटविकटदशनविकरालवदना' कहे। बाद में धन विद्युत् धनद मानस भारुण्ड द्रावण तत्त्व पवि में से प्रत्येक को पाँच-पाँच बार कहकर 'सृष्टिस्थिति- संहारकारिण्यै' कहे । उसके बाद 'मदनातुरायै' कहकर चामुण्डा कपाल उम्र ब्रह्म शक्ति आनन्द रौद्र बीजों को पाँच-पाँच बार लिखकर 'भयङ्करदंष्ट्रायुगलमुखररसनायै' कहे । ततः कूर्म अनन्त हयग्रीव दानव क्ष्वेड सुरतपिनी और उसके बाद त्रिशक्ति गणपति कुमारकों को पाँच-पाँच बार लिखे । फिर 'सकचनरमुण्डकृतकुण्डला' को ङेन्त कहे । तत्पश्चात् त्रिकूट सिंह समाधि यक्ष विरिञ्चि सुदर्शन गन्धर्व निरञ्जन बीजों को पाँच-पाँच बार लिखे ।। ६९-७८ ।।

तदनु महाकल्पान्तकान् ब्रह्माण्डचर्वणेत्यपि च ।

विलिखेत्ततः करायै समाधिनादौ च दक्षिणं चक्षुः ॥ ७९ ॥

स्थाणुं तत्त्वं तारकगणपाप्सरसां च पञ्चशो विलिखेत् ।

युगभेदभिन्नगुह्यकाल्येकान्मूर्त्तितोऽपि च धरायै ॥ ८० ॥

शाकिनिडाकिनिप्रलया: फेत्कारीकर्णिकाहाराः ।

सानुः समेखलोऽपि च जम्भो भासाख्यकूटश्च ॥ ८१ ॥

एते च पञ्चकृत्वः क्रमशो लेख्यास्ततो दयिते ।

शतवदनान्तरितैकाद् वदनायै फट्त्रयं प्रणवः ॥ ८२ ॥

तुरु तारं मुरु च तारं हिलि तारं किलि ततो विलिखेत् ।

हः सर्वदीर्घयुक्तस्ततो महाघोररावे च कालि च ॥ ८३ ॥

कापालि ततो महा च कापालि विकटदंष्ट्रे च ।

शोषिणि सम्मोहिनितः करालवदने ततो वाच्यम् ॥ ८४ ॥

मदनोन्मादिनिशब्दाज्ज्वालामालिन्यपि ब्रूयात् ।

तदनु शिवारूपि वै भगमालिनितो भगप्रिये चापि ॥ ८५ ॥

उद्धृत्य भैरवीति चामुण्डाशब्दतो विलिखेत् ।

योगिन्यादिशतादनु कोटिगणात् परिवृते चापि ॥ ८६ ॥

प्रत्यक्षं च परोक्षं मां द्विषतो भवति तस्यान्ते ।

युगलं सप्तविंशत्या वदेत्तदनु देवेशि ॥ ८७ ॥

नहि नाशयानु त्रासय मारय उच्चाटयेत्यपि च ।

स्तम्भय विध्वंसय हन त्रुटतो विद्रावय छिन्धि ॥ ८८ ॥

पच शोषय मोहय चोन्मूलय भस्मीकुरु दहेति ।

क्षोभय हरतः प्रहरात्पातयतो मर्दय दमेति ॥ ८९ ॥

इसके बाद 'महाकल्पान्तब्रह्माण्डचर्वणकरायै' का उल्लेख करे । फिर समाधि नाद दक्षिण चक्षु स्थाणु तत्त्व तारक गणेश अप्सर बीजों को पाँच-पाँच बार लिखे । बाद में 'युगभेदभिन्नगुह्यकाल्येकमूर्तिधरायै' कहना चाहिए। फिर शाकिनी डाकिनी प्रलय फेत्कारी कर्णिका हार सानु मेखला जम्भ भासा कूटों को क्रम से पाँच बार लिखना चाहिए । हे दयिते! तत्पश्चात् 'शतवदनान्तरितैकवदनायै' कहने के बाद तीन 'फट्' प्रणव तुरु तार मुरु तार हिलि तार किलि कहे। फिर 'ह्र' को सभी दीर्घस्वरों के साथ कहे। इसके बाद 'महाघोररावे कालि कापालि महाकापालि विकटदंष्ट्रे शोषिणि सम्मोहिनि करालवदने मदनोन्मादिनि ज्वालामालिनि शिवारूपिणि भगमालिनि भगप्रिये भैरवीचामुण्डायोगिन्यादिशतकोटिगणपरिवृते' कहे। इसके बाद 'प्रत्यक्षं परोक्षं च मां द्विषतो' के बाद निम्नलिखित सत्ताईस शब्दों को दो-दो बार कहे । वे शब्द हैंजहि नाशय त्रासय मारय उच्चाटय स्तम्भय विध्वंसय हन त्रुट विद्रावय छिन्धि पच शोषय मोहय उन्मूलय भस्मीकुरु दह क्षोभय हर प्रहर पातय मर्दय दम मथ स्फोटय जम्भय भ्रामय ।। ७९-८९ ।।

मथतः स्फोटय जम्भय तस्यान्ते भ्रामयेत्यपि च ।

उद्धृत्य सर्वभूताद् भयङ्करि स्याच्च सर्वजनशब्दः ॥ ९० ॥

तदनु वशङ्करि सर्व वदेच्छत्रुक्षयङ्करीत्यपि च ।

प्रणवो व्रीडा तारः कामो वेदादिकूच च ॥ ९१ ॥

गायत्रीमुख भूतावागमशीर्षाङ्कुशौ तदनु ज्वलयुग्मम् ।

प्रज्वलयुक्कह हसयुग्मं ततो विलिखेत् ॥ ९२ ॥

राज्यधनायुः प्रोक्त्वा तदनु सुखैश्वर्यमित्यपि च ।

देहिद्वितयं दापययुगलं पश्चात् कृपाकटाक्षं च ॥ ९३ ॥

मयि च वितरयुगलं योगिन्यबला च शाकिन्यः ।

द्रावणमानसवक्त्रं कापालं चापि भारुण्डा ॥ ९४ ॥

कालीस्मराध्वमनसः कूर्चं मुण्डे सुमुण्डे च ।

चामुण्डे इत्युक्त्वा प्रवदेद्वै मुण्डमालिनि पदं च ॥ ९५ ॥

मुण्डावतंसिकेऽपि च ततश्च मुण्डासनेऽमृतं बीजम् ।

शक्ति: निर्मलबीजं तदनु शवारूढ इत्यपि च ॥ ९६ ॥

षोडशभुजे सोद्यते पाशपदात्परशुनागेति ।

चापानु मुद्गरशिवापोतानु च खर्प्परानु च नरेति ॥ ९७ ॥

मुण्डाक्षादपि माला कर्त्रीतो नानाङ्कुशशवेति ।

चक्रत्रिशूलकरवालधारिणि प्रोच्चरेत्पश्चात् ॥ ९८ ॥

स्फुरयुगलं तदनु वदेत् प्रस्फुरयुग्मं मम हृदि प्रोच्य ।

तिष्ठद्वितयं निगदेत् स्थिरा भव त्वं तममरेशि ॥ ९९ ॥

सारस्वतागमशिरः कुलिकस्मरभूतबीजानि ।

त्रितयं कौरजपदवीमनोरुषां जययुग्मं पश्चात् ॥ १०० ॥

विजयद्वितयादस्त्रत्रितयं हृदयं च शीर्षञ्च ।

इत्येषा कथिता तव देवि सहस्राक्षरी शुभदा ॥ १०१ ॥

कालाग्निरुद्रऋषिरिह महापरो जागतं छन्दः ।

देवी कामकलापि च कूर्ची बीजं स्मरः कीलः ॥ १०२ ॥

शक्तिर्भूतः शृणिरपि तत्त्वं सप्ताङ्गको मन्त्रः ।

इसके बाद 'सर्वभूतभयङ्करि सर्वजनवशङ्करि सर्वशत्रुक्षयङ्करि कहे। फिर प्रणव लज्जा तार काम वेदादि कूर्च गायत्रीमुख भूत आगमशीर्ष और अङ्कुश बीजों को कहने के बाद 'ज्वल प्रज्वल हस' को दो दो-दो बार लिखे। बाद में 'राज्यधनआयु:- सुखैश्वर्यम्' कहकर 'देहि दापय' को दो-दो बार कहे । 'कृपाकटाक्षं मयि' के बाद 'वितर' को दो बार लिखे । योगिनी अबला शाकिनी द्रावण मानस वक्त्र कपाल भारुण्डा काली काम अध्वा मन कूर्च बीजों के बाद 'मुण्डे सुमुण्डे मुण्डमालिनि मुण्डावतंसिके मुण्डासने' कहकर अमृत शक्ति निर्मल बीजों को लिखे । उसके बाद 'शवारूढे षोडशभुजे सोद्यते पाशपरशुनागचापमुद्गरशिवापोतखर्परनर- मुण्डाक्षमलाकर्त्रीनानाङ्कुश शवचक्रत्रिशूलकरवालधारिणि' कहे । पश्चात् 'स्फुर प्रस्फुर' दो बार कहे । 'मम हृदि' के बाद 'तिष्ठ' को दो बार बोले । 'स्थिरा भव त्वं अमरेशि कहे । सरस्वती आगम शिर कुलिक स्मर भूत बीजों को कहकर फिर कौरज पदवी मनोरुष को तीन-तीन बार कहे, तदनन्तर 'जय' को दो बार फिर शीर्ष कहे । हे देवि ! यह शुभदा सहस्त्राक्षरा विद्या तुमको बतलायी गयी ।

कामकलाकाली खण्ड पटल १३ - कामकलाकाल्याः सहस्राक्षरमन्त्रोद्धारः

ओं नमो भगवत्यै कामकलाकालिकायै ओं ओं ओं ओं ओं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं हूं हूं हूं हूं हूं छ्रीं छ्रीं छ्रीं छीं छूीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं संहारभैरवसुरतरसलोलुपायै क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों हौं हौं हौं हौं हौं फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें क्षं क्षं क्षं क्षं क्षं स्फों स्फों स्फों स्फों स्फों स्हौः स्हौः स्हौः स्हौः स्हौः ग्लूं ग्लूं ग्लूं ग्लूं ग्लूं क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष फ्रों फ्रों फ्रों फ्रों फ्रों क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रौं क्रो क्रो क्रौ क्रौं जूं जूं जूं जूं जूं क्लूं क्यूं क्लूं क्यूं क्लूं प्रकटविकटदशनविकरालवदनायें क्लौं क्लौं क्लौं क्लौ क्लौं ब्लौ ब्लौं ब्लौं ब्लौ ब्लौं क्षं क्षं क्षं क्षं क्षं द्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्री हभ्री हभी हम्री हभ्री ही स्हें स्हें स्हें स्हें रहें घ्रीं घ्रीं श्रीं घ्रीं ह्रीं सृष्टिस्थितिसंहारकारिण्यै मदनातुराय ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ श्री श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं ह्रीं द्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ठौ ठौं ठौं ठौं ठौं ब्लूं ब्लूं ब्लूं ब्लूं ब्लूं भ्रू श्रृं श्रृं श्रृं भ्रू फहलक्षां फहलक्षां फहलक्षां फहलक्षां फहलक्षां भयङ्करदंष्ट्रायुगलमुखररसनायै श्री श्री श्री घ्रीं घ्रीं खै खै खें खें खें क्रू क्रू क्रू कूं कूं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्री चफलकों चफलकों चफलक्रों चफलनों चफलकों (सुरतपिनी) क्रू कूं कूं क्रू कूं गं गं गं गं गं हूः हृ: हू: हू: हूः सकचनरमुण्डकृत (कुण्डलायै) कुलायै ल्यूं ल्यूं ल्यूं ल्यूं ल्यूं णं णं णं णूं हैं हैं हैं हैं हैं क्लौ क्लौ क्लौं क्लौं क्लौं ब्रू ब्रू ब्रू ब्रू ब्रू स्की: स्की: स्की: स्की: स्की: ब्जं ब्जं ब्जं ब्जं ब्जं रहीं रहीं रहीं रहीं रहीं महाकल्पान्तब्रह्माण्ड- चर्वणकराये हैं हैं हैं हैं हैं अं अं अं अं अं ई ई ई ई ई उं उं उं उं उं स्हें स्हें रहें रहें रहे रां रां रां रां रां गं गं गं गं गं गां गां गां गां गां युगभेदभिन्नगुह्यकाल्येकमूर्तिधरायै फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें खफ्रें खफ्रें खफ्रें खफ्रें खफ्रें हसफ्री हसफ्री हसफ्री हसफ्री हसफ्री हसख हसख हसख हसख हसखफ्रें क्षरहीं क्षरहीं क्षरहीं क्षरहीं क्षरही हक्षमलै हृक्षम् हृक्षम् हृक्षम् ह्रक्षम्लै (जरक्रीं जरक्रीं जरक्री जरक्रीं जरक्री ? ) रहीं रहीं रहीं रहीं रहीं रक्षी रक्षी रक्षी रक्षी रक्षी रफ्री रफ्री रफ्री रफ्री रफ्री क्षहम्लव्यऊं क्षहम्लव्यऊं- क्षहम्लव्यऊं क्षहम्लव्यऊं क्षहम्लव्यऊ शतवदनान्तरितैकवदनायै फट् फट् फट् ओं तुरु ओं मुरु ओं हिलि ओं किलिं ह्रां ह्रीं हूं हैं हः महाघोररावे कालि कापालि महाकापालि विकटदंष्ट्रे शोषिणि सम्मोहिनि करालवदने मदनोन्मादिनि ज्वालामालिनि शिवारूपि भगमालिनि भगप्रिये भैरवीचामुण्डायोगिन्यादिशतकोटिगणपरिवृते प्रत्यक्षं परोक्षं मां द्विषतो जहि जहि नाशय नाशय त्रासय त्रासय मारय मारय उच्चाटय उच्चाटय स्तम्भय स्तम्भय विध्वंसय विध्वंसय हन हन त्रुट त्रुट विद्रावय विद्रावय छिन्धि छिन्धि पच पच शोषय शोषय मोहय मोहय उन्मूलय उन्मूलय भस्मीकुरु भस्मीकुरु दह दह क्षोभय क्षोभय हर हर प्रहर प्रहर पातय पातय मर्दय मर्दय दम दम मथ मथ स्फोटय स्फोटय जम्भय जम्भय भ्रामय भ्रामय सर्वभूतभयङ्करि सर्वजनवशङ्कर सर्वशत्रुक्षयङ्करि ओं ह्रीं ओं क्लीं ओं हूं ओं क्रों ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल कह कह हस हस राज्यधनायुः सुखैश्वर्यं देहि देहि दापय दापय कृपाकटाक्षं मयि वितर वितर छ्रीं स्त्री फ्रें हभ्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं श्रीं क्रीं क्लीं हां हीं हूं मुण्डे सुमुण्डे चामुण्डे मुण्डमालिनि मुण्डावतंसिके मुण्डासने ग्लूं ब्लूं ज्लूं शवारूढे षोडशभुजे सोद्यते पाशपरशुनागचापमुद्गरशिवापोतखर्परनरमुण्डाक्षमालाकर्त्रीनानाङ्कुशशवचक्रत्रिशूलकरवाल- धारिणि स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर मम हृदि तिष्ठ तिष्ठ स्थिरा भव त्वं ऐं ओं स्वाहा स्हौः क्लीं स्फों खं खं खं खां खां खां (पदवी) हीं हीं हीं हूं हूं हूं जय जय विजय विजय फट् फट् फट् नमः स्वाहा ।

(दक्षाक्षरत्रुटिरिह कथं पूरणीय इति जिज्ञासाशान्तिः साधकैः सुधीभिः विचार्योंहेन कर्तव्या ।)

....... हे देवि ! इसके ऋषि कालाग्निरुद्र, छन्द जगती, देवी कामकला काली, बीज कूर्च बीज, कीलक स्मर बीज, शक्ति भूत बीज, तत्त्व शृणि है। यह मन्त्र सात अङ्गों वाला है ।। ९०-१०३ ॥

॥ इत्यादिनाथविरचितायां पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां त्रयोदशतमः पटलः ॥ १३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित पचास हजार श्लोकों वाली महाकालसंहिता के कामकलाकाली खण्ड के त्रयोदश पटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई ॥ १३ ॥

आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 14

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