कामकलाकाली खण्ड पटल १४
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १४
में पहले कामकला काली से अयुताक्षर (दश हजार अक्षरों वाले) मन्त्र की कथा का वर्णन
है। महाकाल एवं नारायण दोनों कामकला काली के दर्शनार्थ ऋष्यन्तर कल्प में सृष्टि
के प्रारम्भ में पुष्पक द्वीप में जाकर दिव्य सौ वर्षों तक तपस्या किये। इस तपस्या
के फलस्वरूप देवी साक्षात् ऐसे महा उग्ररूप में उपस्थित हुई कि जिसको ये दोनों देख
न सके और अपनी आँखें बन्द कर बैठ गये। माता काली ने दोनों को भयभीत देख कर सौम्य
शरीर धारण किया। फिर वे दोनों उनके पैरों पर गिर पड़े। देवी ने उनसे वर माँगने को
कहा । भगवान् शिव और भगवान् विष्णु ने कामकला काली के सौम्य एवं उग्र स्वरूपों की
संख्या तथा उनके मन्त्रों को जानने की इच्छा प्रकट की। महाकाली ने कहा - न तो मेरी
मूर्तियों का और न ही मेरे मन्त्रों का अन्त है। सौम्य और भयानक मूर्तियों का मेरे
द्वारा प्रकाशन परमशिव को मोह एवं राक्षसों को भय देने के लिये है । मेरी सौम्य
मूर्तियाँ एक करोड़ तथा उग्र मूर्तियाँ आठ करोड़ बतलायी गयी हैं। मेरी सौम्य
मूर्तियों के मध्य त्रिपुरसुन्दरी सर्वोत्तम है। इसी प्रकार कामकला काली सबसे उग्र
मूर्ति कही गयी है। इनके ज्ञाता विश्व में मात्र शिव ही हैं । उक्त नव करोड़
मूर्त्तियों में भी पचपन मूर्तियाँ मुख्य हैं। इन मूर्तियों के ध्यान मन्त्र और
पूजाविधान पृथक्-पृथक् हैं। पूर्व, दक्षिण,
पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व
और अधः - इन छह आम्नायों के उपासकों तथा अन्य देवता आदि के द्वारा दृष्टि एवं
अनुभव के अनुसार उनकी उपासना की जाती है। मेरे इस अयुताक्षर मन्त्र के अन्दर
षडाम्नाय के समस्त मन्त्र निगूढ हैं । इस प्रकार कामकला काली की उपासना से सभी
मूर्तियों की उपासना हो जाती है । जिस प्रकार समस्त नदियों का समुद्र एकायतन है
उसी प्रकार सभी कालीमन्त्रों का अयुताक्षर मन्त्र भी एक आयतन है। महाकाल ने कहा-
इसके बाद हम दोनों ने देवी से उक्त मन्त्र को सुनाने के लिये निवेदन किया । देवी
अयुताक्षर मालामन्त्र का उपदेश कर अन्तर्हित हो गयी। इसके बाद इस मन्त्र को भगवान्
विष्णु ने नारद और सनक को दिया । भगवान् शिव ने दुर्वासा, कश्यप,
दत्तात्रेय और कपिल ऋषियों को सुनाया। इसी शिष्यप्रशिष्य परम्परा से
यह मन्त्र इस लोक मे प्रतिष्ठित हुआ । यह मृत्युञ्जय प्राण मन्त्र है। देवी की
कृपा से यह तभी प्राप्त होता है जब गुरु का अनुग्रह हो । अन्त में कहा गया कि गुरु
को सन्तुष्ट करके ही इस मन्त्र को प्राप्त करना चाहिये ।
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १४
Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal
14
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: चतुर्दशतमः पटलः
महाकालसंहिता कामकलाखण्ड चतुर्दश
पटल
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड चौदहवाँ पटल
महाकालसंहिता
कामकलाखण्ड:
(कामकलाकालीखण्ड :)
चतुर्दशतमः पटलः
कामकलाकाली खण्ड पटल १४ -
कामकलाकाल्या अयुताक्षरमन्त्रोत्पत्तिकथा
महाकाल उवाच-
मनोमन्त्रं
कामकलाकाल्यास्त्वमयुताक्षरम् ।
पृष्टवत्यसि मां देवि तं चाहं नावदं
त्वयि ॥ १ ॥
किञ्चित्कारणमस्त्यत्र तन्निशामय
सादरम् ।
नातः परतरः कोऽपि मन्त्र उग्रोऽस्ति
भूतले ॥ २ ॥
न चास्य वेत्ता नो जापी न स्मर्त्ता
न च साधकः ।
नोद्धर्त्ता नोपदेष्टा च न प्रष्टा
न जिघृक्षुकः ॥ ३ ॥
षट्स्वाम्नायेषु ये मन्त्राः
प्रोक्ताः सन्ति वरानने ।
वर्तन्ते तेऽखिलाः
सर्वनद्यम्बून्यर्णवे यथा ॥ ४ ॥
उत्पत्तिमयुताक्षर्य्यास्त्वमादौ
शृणु सोत्सुका ।
ततः श्रोष्यसि तं
मन्त्रमुग्रादुग्रतरं प्रिये ॥ ५ ॥
दश हजार अक्षर वाले
मन्त्र की उत्पत्ति - महाकाल ने कहा—
हे देवि! तुमने मुझसे कामकला काली के अयुताक्षर मन्त्र को पूछा है।
उसे मैंने तुमको नहीं बतलाया इसमें कुछ कारण है, उसको आदर के
साथ सुनो। इस पृथ्वीतल पर इससे बढ़कर उग्र कोई दूसरा मन्त्र नहीं हैं। इसका ज्ञाता
जापक स्मर्त्ता साधक उद्धारक उपदेशक प्रष्टा और ग्रहणेच्छु (भी कोई) नहीं है। हे
वरानने। छहों आम्नायों में जो मन्त्र कहे गये हैं वे सब उसी प्रकार हैं जैसे समस्त
नदियों के पानी समुद्र में (समाहित) रहते हैं । पहले तुम उत्साह के साथ अयुताक्षरी
विद्या की उत्पत्ति सुनो । हे प्रिये ! इसके बाद उग्र से भी उग्रतर मन्त्र को
सुनना ॥ १-५ ॥
अहं नारायणश्चापि कल्पे
ऋष्यन्तराह्वये ।
सर्गादौ त्रिपुरघ्नेनास्मद्भक्त्या
तोषमीयुषा ॥ ६ ॥
त्रैलोक्याकर्षणेनोपदिष्टौ स्यावो
वरानने ।
शिक्षयित्वा विधानानि
ध्यानपूजादिकानि हि ॥ ७ ॥
दत्ताभ्यनुज्ञौ गुरुणा मिथः
सम्मन्त्र्य सत्वरम् ।
संसिषाधयिषू आवाम् मन्त्रराजं
महत्तरम् ॥ ८ ॥
अगच्छाव रहो ज्ञात्वा
पुष्करद्वीपमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षां च प्रसन्नां च चिकीर्षु
तामहर्निशम् ॥ ९ ॥
तपावहे तपो घोरं दिव्यानां शरदां
शतम् ।
ततः प्रसन्ना भगवत्यागत्य पुरतः
स्थिता ॥ १० ॥
ऋष्यन्तर नामक कल्प में मैंने और
नारायण ने सृष्टि के आदि में त्रिपुरारि को प्रसन्न किया। हे वरानने! हमारी भक्ति
से प्रसन्न होकर उन्होंने हम दोनों को त्रैलोक्याकर्षण कवच का उपदेश दिया।
इस मन्त्र का विधान ध्यान पूजा आदि की शिक्षा लेकर हम दोनों ने गुरु ( =
त्रिपुरारि) से आज्ञा प्राप्त की । शीघ्र ही आपस में परामर्श कर महत्तर मन्त्रराज
की सिद्धि की इच्छा से एकान्त समझ कर उसको प्रसन्न और प्रत्यक्ष करने की इच्छा से
हम दोनों उत्तम पुष्करद्वीप चले गये। वहाँ हम दोनों ने दिव्य सौ वर्षों तक रात-दिन
घोर तपस्या की। इसके बाद प्रसन्न होकर भगवती आकर हमारे सामने खड़ी हो गयी ॥ ६-१० ॥
तां महोप्रतराकारां द्रष्टुमेव न
शक्नुवः ।
मीलिताक्षौ नम्रशीर्षावतिष्ठाव
क्षणं प्रिये ॥ ११ ॥
भीतावावां परिज्ञायाम्बा सौम्यं
वपुराददे ।
तत उन्मील्य नेत्राणि पादयोरपताव हि
॥ १२ ॥
कराभ्यां सा समुत्थाप्य
प्रार्थयेतां युवां वरम् ।
इत्युवाच जगद्धात्री
भक्तिप्रवणकन्धरौ ॥ १३ ॥
आवामवोचाव ततः कृताञ्जलिपुटौ शिवाम्
।
देवि त्वयैव जगतां स्थितिसंहारकारकौ
॥ १४ ॥
कृतावावां
त्वत्प्रसादात्प्राप्तयुद्धपराजयौ ।
प्राप्तदेवाधिपत्यौ च
स्वेच्छाकर्मविहारिणौ ॥ १५ ॥
ब्रह्माणं च तृणं मन्यावन्येषाञ्च
वरप्रदौ ।
किञ्चिदप्यवशिष्टं नावयोस्त्वत्करुणावशात्
॥ १६ ॥
हे प्रिये! महाभयङ्कर आकार वाली उस
देवी को हम लोग (अपनी आँखों से) देखने में समर्थ नहीं हुए इसलिये आँख बन्द कर शिर
झुका कर एक क्षण के लिये खड़े हो गये । हम लोगों को डरा हुआ जानकर अम्बा ने सौम्य
रूप धारण किया । उसके बाद आँखों को खोलकर हम दोनों उसके पैरों पर गिर पड़े। उस
जगत्धात्री ने दोनों हाथों से हमें उठाकर कहा- तुम दोनों वर माँगो । भक्ति से नम्र
कन्धर वाले हम दोनों ने हाथ जोड़कर शिवा से कहा- हे देवि! तुम्हारे ही द्वारा हम
दोनों संसार के संहारक एवं स्थितिकारक बनाये गये। आपकी कृपा से युद्ध में शत्रुओं
के पराजय प्राप्त कर हम दोनों देवाधिपत्य प्राप्त कर इच्छानुसार कर्म करते हुए
विहरण कर रहे हैं। ब्रह्मा को हम दोनों तिनके के बराबर समझते हैं और अन्य लोगों को
वरदान देते हैं । आपकी कृपा से हम दोनों के लिये कुछ भी शेष नहीं है ॥ ११-१६ ॥
आवयोर्देवता त्वं हि देवेष्वावां च
देवताः ।
देवा देवा द्विजातीनां द्विजाः
शेषस्य देवताः ॥ १७ ॥
वरं दित्सस्यावयोश्च तदेकं देहि नौ
वरम् ।
मूर्तीनां कतिभेदास्ते
सौम्योप्राणां महेश्वरि ॥ १८ ॥
तान् परिज्ञातुमिच्छावः समन्त्रान्
जगदम्बिके ।
एकस्यां तव मूर्ती चोपासितायां
धरेश्वरि ॥ १९ ॥
उपासितास्ता भवन्ति चण्डिके
तद्वदावयोः ।
श्रुत्वा तदावयोर्वाक्यं स्मितं
कृत्वावदच्छिवा ॥ २० ॥
तुम हम दोनों की देवता हो। हम दोनों
शेष देवताओं के देवता हैं । वे देवतागण ब्राह्मणों के देव हैं और ब्राह्मणलोग शेष
(ब्राह्मणेतर) लोगों के देवता हैं। यदि आप हमदोनों को वर देना चाहती हैं तो हम
दोनों को एक वर दीजिये। हे जगदम्बिके ! आपकी सौम्य और उग्र मूर्तियों के कितने भेद
हैं उनको मन्त्रों के सहित हम दोनों जानना चाहते हैं। हे धरा की ईश्वरि! हे
चण्डिके ! आपकी एक मूर्ति की उपासना होने पर उन सबकी उपासना हो जाती है उसी प्रकार
हम दोनों की (एक मूर्ति की उपासना होने पर हमारी भी समस्त मूर्तियों की उपासना हो
जाती है)। हम दोनों के वाक्य को सुनकर शिवा ने मुस्कुरा कर कहा ।। १७-२० ॥
मह काल्युवाच-
अन्तो न मम मूर्तीनां सौम्योप्राणां
सुरेश्वरौ ।
न च तन्मन्त्रभेदानां सङ्ख्यास्ति
जगतीतले ॥ २१ ॥
आगमादिपुराणेषु या:
काश्चिच्छिवशक्तयः ।
श्रूयन्ते वाथ दृश्यन्ते मूर्त्तयो
हि ममैव ताः ॥ २२ ॥
सुरैर्भवदिदृक्षार्थं तत्र काश्चन
मूर्त्तयः ।
मयैव निर्मिता देवौ
सौम्याप्राश्चित्स्वरूपया ॥ २३ ॥
रक्षोदानवदैत्यानां मारणाय भयानकाः
।
सौम्याः परशिवस्यापि
मोहार्थमुपपादिताः ॥ २४ ॥
एता मूर्त्यनुकारिण्यः कृताश्चान्या
सुमूर्त्तयः।
सौम्यानां कोटिमूर्तीनां
सौन्दर्य्यमयताजुषाम् ॥ २५ ॥
या मूर्तिर्मम विख्याता नाम्ना
त्रिपुरसुन्दरी ।
सर्वासामेव मध्ये सा विज्ञेया
परमावधिः ॥ २६ ॥
महाकाली ने कहा- हे सुरेश्वरद्वय !
इस धरती तल पर मेरी सौम्य और उग्र मूर्तियों का अन्त नहीं है। उसी प्रकार उन
(मूर्तियों) के मन्त्रभेदों की सङ्ख्या भी नहीं है । आगम आदि तथा पुराणों में जो
कोई शिवशक्तियाँ सुनी या देखी जाती हैं वे सब मेरी ही मूर्तियाँ हैं। देवताओं के
द्वारा भव (शिव) 'देखने के लिये कुछ
मूर्तियों का निर्माण चित्स्वरूपा मैंने ही किया है। राक्षस दानव दैत्य को मारने
के लिये भयानक तथा परशिव को मोह में डालने के लिये सौम्य मूर्तियों को मैंने ही
बनाया । इन मूर्तियों की अनुकृति अन्य मूर्त्तियाँ भी बनायी गयीं। सौन्दर्य से भरी
करोड़ों सौम्यमूर्तियों में जो प्रसिद्ध मेरी मूर्ति है जिसका नाम त्रिपुरसुन्दरी
है वह सबके मध्य में अन्तिम सीमा है (अर्थात् उससे बढ़कर कोई मूर्ति नहीं है) ।।
२१-२६ ॥
उग्रावन्ध्या मूर्त्तयो मे सन्ति
कोट्यष्टसम्मिताः ।
घोरघोरतराकाराः शक्यन्ते या न
वीक्षितुम् ॥ २७ ॥
चामुण्डा भैरवी भीमा गुह्यकाली च
दक्षिणा ।
छिन्नमस्ता चैकजटा कालसङ्कर्षणी तथा
॥ २८ ॥
श्मशानकाली कोरङ्गी भद्रकाली च
कुब्जिका ।
उप्रचण्डा प्रचण्डा च चण्डोग्रा
चण्डनायिका ॥ २९ ॥
चण्डा चण्डवती चण्डचण्डा चण्डी च
चण्डिका ।
वाभ्रवी शिवदूती च
कात्यायन्यर्द्धमस्तका ॥ ३० ॥
काल्योऽन्याः पञ्चपञ्चाशन् मुख्याः
सर्वागमेषु याः ।
सतीषु तासु घोरासु मूर्त्तिषु
प्रथितासु मे ॥ ३१ ॥
नहि कामकलाकाली सदृश्युग्रा
जगत्त्रये ।
उप्राणां मम मूर्तीनामियं हि
परमावधिः ॥ ३२ ॥
मेरी आठ करोड़ मूर्तियाँ उग्र एवं
अवन्ध्य हैं। घोर घोरतर आकार की ये मूर्त्तियाँ देखी नहीं जा सकती । चामुण्डा
भैरवी भीमा गुह्यकाली दक्षिणाकाली छिन्नमस्ता एकजटा कालसङ्कर्षिणी श्मशानकाली
कोरङ्गी भद्रकाली कुब्जिका उग्रचण्डा प्रचण्डा चण्डोग्रा चण्डनायिका चण्डा चण्डवती
चण्डचण्डा चण्डी चण्डिका बाभ्रवी शिवदूती कात्यायनी अर्धमस्तका तथा अन्य पचपन
मुख्य कालियाँ जो समस्त आगमों में कही गयी हैं मेरी उन प्रसिद्ध घोर मूर्तियों में
कामकला काली के समान उम्र मूर्ति त्रिलोक में नहीं है । मेरी उग्र मूर्तियों में
यह (कामकला काली) अन्तिम सीमा है ।।२७-३२ ।।
सौम्योप्रा मूर्त्तयः सन्ति यावत्यो
मे सुरेश्वरौ ।
तावतीनामपि ध्यानं मन्त्रः पूजा च
वर्त्तते ॥ ३३ ॥
नान्योऽस्ति जगतीमध्ये तासां वेत्ता
शिवं विना ।
अत एव घडाम्नायान् परिज्ञाय चकार सः
॥ ३४ ॥
तत्तन्मन्त्रध्यानभेदन्यासपूजाविधीनपि
।
प्रोक्तवान् स हि सर्वज्ञः सर्वं
विज्ञाय तत्त्वतः ॥ ३५ ॥
उत्तरोर्वाधः
प्रतीचीपूर्वदक्षिणसञ्ज्ञकाः ।
आम्नायास्तु षडेवैते
शिववक्त्रविनिर्गताः ॥ ३६ ॥
यामला डामरास्तन्त्रसंहितास्तस्य
मध्यगाः ।
स्वस्वभक्तिविशेषेण
तत्तत्कार्यादिसिद्धये ॥ ३७ ॥
दैवतैर्ऋषिभिः सिद्धैरसुरैर्दैत्यदानवैः
।
गुह्यकैरप्सरोभिश्च किन्नरोरगराक्षसैः
॥ ३८ ॥
सोमसूर्य्यान्वयोद्भूतैर्भूपालैरितरैर्नरैः
।
दृष्टप्रतीतिभिर्मत्यैः सा सा
मूर्त्तिरुपास्यते ॥ ३९ ॥
हे सुरेश्वरद्वय! मेरी जितनी सौम्य
और उग्र मूर्त्तियाँ हैं उन सबके ध्यान मन्त्र और पूजा (पृथक्-पृथक्) हैं। शिव को
छोड़कर इस संसार में उनका कोई दूसरा ज्ञाता नहीं है। ऐसा जानकर ही उन (शिव) ने छह
आम्नायों का प्रवर्तन किया। उन सर्वज्ञ (शिव) ने सबको तत्त्वतः जानकर तत्तत्
मन्त्र ध्यान भेद न्यास पूजा विधि को बतलाया । उत्तर ऊर्ध्व अधः पश्चिम पूर्व और
दक्षिण नाम वाले छह आम्नाय शिव के मुख से ही निकले हैं। यामल डामर तन्त्र
संहितायें उसके मध्यवर्ती हैं। देवता ऋषि सिद्ध असुर दैत्यदानव गुह्यक अप्सरायें
किन्नर उरग राक्षस चन्द्रवंशी सूर्यवंशी राजा एवं अन्य लोग जो कि प्रत्यक्षवादी
हैं। वे सब तत्तत् कार्य आदि की सिद्धि के लिये उस उस मूर्ति की उपासना करते हैं
।। ३३-३९ ॥
युगशेषे कलौ क्षीणे नरा
अल्पायुषोऽलसाः ।
निरुत्साहा दरिद्राश्च भक्तिहीनाः
कुमार्ग (गाः) ॥ ४० ॥
आसामुपासका नैव भविष्यन्ति विशेषतः
।
ध्यानमन्त्रादिकं तासां तदा लुप्तं
भविष्यति ॥ ४१ ॥
तासां सौम्योप्रमूर्त्तीनां
भिन्नाम्नायजुषां सदा ।
एकत्रावस्थितिर्नैव तिमिरालोकयोरिव
॥ ४२ ॥
उपासितायामेकस्यां कथं ताः
समुपासिताः ।
भवेयुरित्यपि महद्दुर्घटं प्रतिभाति
मे ॥ ४३ ॥
ममैको वर्तते किन्तु
महामन्त्रोऽयुताक्षरः ।
घडाम्नायस्थिता मन्त्राः प्रायशः
सन्ति तत्र हि ॥ ४४ ॥
युगों के शेष कलियुग के क्षीण होने
पर अल्पायु आलसी निरुत्साह दरिद्र भक्तिहीन कुमार्गगामी मनुष्य इनके उपासक नहीं
होंगे तब इन मूर्त्तियों का ध्यान मन्त्र आदि लुप्त हो जायगा । भिन्न-भिन्न
आम्नायों से सम्बद्ध उन सौम्य और उम्र मूर्तियों का अन्धकार और प्रकाश की भाँति एक
स्थान और एक काल में अवस्थान नहीं होगा । इस प्रकार एक की उपासना होने पर उन सबकी
उपासना कैसे होगी यह मुझे महा दुर्घट लग रहा है । किन्तु दश हजार अक्षरों वाला एक
मेरा महामन्त्र है। छह आम्नायों में स्थित प्रायः समस्त मन्त्र उसमें है ।। ४०-४४
॥
सौम्योप्राणां च मूर्त्तीनां भेदो
नामानि सन्ति वै ।
एतत्परो न मन्त्रोऽस्ति क्वापि
त्रिजगतीतले ॥ ४५ ॥
महामहोप्रोग्रतरः
सर्वसिद्ध्येकसाधकः ।
त्रैलोक्याकर्षणश्चायं तुल्यावेतौ
मतौ मम ॥ ४६ ॥
नदीजलौघा जलधिं यथा सर्वे विशन्ति
हि ।
षडाम्नायस्थिताः
मन्त्रास्तथैवानुविशन्ति तम् ॥ ४७ ॥
मेरुर्यथा पर्वतानां गङ्गा च सरितां
यथा ।
तीर्थानां च यथा काशी
शस्त्राणामशनिर्यथा ॥ ४८ ॥
अश्वमेधोऽध्वराणां च
तपस्यानामुपोषणम् ।
समीरणो बलवतां कामधेनुर्गवां यथा ॥
४९ ॥
शिवो यथा देवतानां देवीनाञ्च
यथाप्यहम् ।
सर्वेषामेव मन्त्राणां
तथायमयुताक्षरः ॥ ५० ॥
आराधितायामेतेन मन्त्रेणैव मयि
ध्रुवम् ।
सर्वा आराधिता हि स्युः षडाम्नायस्य
शक्तयः ॥ ५१ ॥
उसमें सौम्य और उग्र मूर्तियों के
नाम तथा भेद हैं। तीनों लोकों में इससे बढ़ कर मन्त्र कहीं भी नहीं है। महामहा
उग्रतर एवं समस्त सिद्धियों का एकमात्र साधक यह मन्त्र तथा त्रैलोक्याकर्षण कवच
दोनों मेरी दृष्टि में समान हैं। जिस प्रकार नदी का समस्त जलसमूह समुद्र में
प्रविष्ट हो जाता है उसी प्रकार छहों आम्नायों में स्थित मन्त्र इस (एक मन्त्र)
में प्रविष्ट हैं। जिस प्रकार पर्वतों में सुमेरु, नदियों में गङ्गा, तीर्थों में काशी, शस्त्रों में वज्र, यज्ञों में अश्वमेध, तपस्याओं में उपवास, बलवानों में वायु, गायों में कामधेनु, देवताओं में शिव और देवियों में
मैं हूँ उसी प्रकार मन्त्रों में यह अयुताक्षर ( मन्त्र सर्वोपरि ) है। इस मन्त्र
के द्वारा मेरे आराधित होने पर निश्चित रूप से षडाम्नाय की समस्त शक्तियाँ आराधित
हो जाती हैं ।। ४५-५१ ॥
आरिराधयिषू चेन्मां
सौम्योप्रास्ताश्च देवताः ।
कुरुतं यत्नमेतस्मिन्
मालामन्त्रेऽयुताक्षरे ॥ ५२ ॥
प्रविशन्ति यथेभानां पादेऽन्येषां
पदानि हि ।
यथेतरेषां हि पदे विशेदिभपदं न च ॥
५३ ॥
मन्त्राः सर्वे तथामुष्मिन्
प्रविशन्ति सुरोत्तमौ ।
न च प्रवेशः क्वाप्यस्य प्रकारैरपि
भूरिभिः ॥ ५४ ॥
बीजकूटोपकूटाश्च यावन्तश्चागमोद्धृताः
।
ते सर्वे तत्र तिष्ठन्ति मयि
त्रिभुवनं यथा ॥ ५५ ॥
आम्नायानां यथा षण्णामुपदेशो
भवेत्तदा ।
अस्याधिकारी भवति नो
चेन्नार्हत्यमुं मनुम् ॥ ५६ ॥
महिमानममुष्याहं वेद्मि वेद
शिवोऽथवा ।
गुरूपदेशाधिगतेस्तन्मन्त्रस्य नरस्य
हि ॥ ५७ ॥
पुरस्तिष्ठामि सततं भवामि
वशवर्त्तिनी ।
यथाकर्षन्ति सूत्रेण
खगमाराद्विहङ्गमम् ॥ ५८ ॥
तथामुनैव मन्त्रेण मामाकर्षन्ति
साधकाः ।
इत्येतत्कथितं यत्तद्भवद्भ्यां
पृष्टवत्यहम् ॥ ५९ ॥
समासाद्विस्तराद् वक्तुं मम
शक्तिर्न विद्यते ।
यदि तुम दोनों मेरी तथा सौम्य और उग्र
उन देवताओं की आराधना करना चाहते हो तो इस अयुताक्षर मालामन्त्र के विषय में प्रयत्न
करो जिस प्रकार हाथी के पैर में सभी के पैर समाहित हो जाते हैं किन्तु हाथी का पैर
किसी के पैर में समाहित नहीं होता उसी प्रकार हे सुरोत्तमद्वय! समस्त मन्त्र इस
मन्त्र में प्रविष्ट हो जाते हैं किन्तु अनेक प्रकार से भी यह मन्त्र किसी में भी
प्रविष्ट नहीं हो सकता । आगमशास्त्र में जितने भी बीज कूट उपकूट उद्धृत हैं वे सब
इसमें उसी प्रकार स्थित हैं जैसे मेरे अन्दर त्रिभुवन । जब किसी को छह आम्नायों को
उपदेश हो जाता है तब वह इसका अधिकारी होता है नहीं तो इस मन्त्र (के उपदेश) की
योग्यता नहीं रखता । इस मन्त्र की महिमा को मैं जानता हूँ अथवा शिव जानते हैं ।
गुरु के उपदेश से ज्ञात इस मन्त्र वाले पुरुष के समक्ष मैं निरन्तर रहती हूँ ।
उसकी वशवर्त्तिनी हो जाती हूँ । जिस प्रकार रस्सी से आकाशचारी पक्षी को लोग पास
में खींच लेते हैं । वैसे ही साधक इस मन्त्र के द्वारा मुझे आकृष्ट कर लेते हैं ।
इस प्रकार जो आप दोनों ने मुझसे पूछा उसे मैंने संक्षेप में बतला दिया विस्तार से
वर्णन करने की शक्ति मुझमें नहीं है ॥ ५२-६० ॥
महाकाल उवाच-
श्रुत्वा देव्या वचः सर्वमावाभ्यां
पुनरीरितम् ॥ ६० ॥
यदि देवि प्रसन्नासि तदा ह्युपदिश
स्वयम् ।
इति विज्ञापिता देवी प्राहावां
सस्मितानना ॥ ६१ ॥
कृताञ्जलिपुटौ देवौ गदत्या गदतां
मनुम् ।
इति देव्या वचः श्रुत्वा
तथैवाकरवावहि ॥ ६२ ॥
एवं देव्युपदिश्यावां
क्षणादन्तर्द्धिमागता ।
एवं प्रकारेणावाभ्यां
लब्धोऽयमयुताक्षरः ॥ ६३ ॥
अदाद्विष्णुर्नारदाय सनकाय च तोषितः
।
दुर्वासाः कश्यपो दत्तात्रेयश्च
कपिलस्तथा ॥ ६४ ॥
चत्वार एते मच्छिष्या मता मन्त्रस्य
पार्वति ।
एतैः शिष्यप्रशिष्याश्च बहवो
विहिताः स्वकाः ॥ ६५ ॥
महाकाल ने कहा- देवी के पूरे वाक्य
को सुनने के बाद हम दोनों ने फिर कहा - हे देवि ! यदि तुम हमारे ऊपर प्रसन्न हो तो
स्वयं उपदेश करो। ऐसा कहने पर प्रसन्नमुख देवी ने हम दोनों से कहा कि - हे देवद्वय
! मन्त्र बोलती हुई मेरे पीछे-पीछे मन्त्र बोलो । देवी के इस वचन को सुनकर हम
दोनों ने वैसा ही किया । इस प्रकार देवी ने हम दोनों को उपदेश देकर एक क्षण में
अन्तर्हित हो गयी । इस प्रकार हम दोनों ने इस अयुताक्षर मन्त्र को प्राप्त किया ।
(आराधना से सन्तुष्ट) विष्णु ने इसे नारद और सनक को दिया। हे पार्वति ! दुर्वासा
कश्यप दत्तात्रेय और कपिल ये चार इस मन्त्र के सन्दर्भ में मेरे शिष्य माने गये
हैं । इन्होंने अपने बहुत से शिष्य प्रशिष्य बनाये ॥ ६०-६५ ॥
इत्थं परम्पराप्राप्तो
ह्यस्मिंल्लोके प्रतिष्ठितः ।
नाम्ना मृत्युञ्जयप्राणो
मालामन्त्रोऽयुताक्षरः ॥ ६६ ॥
एवमेतस्य महिमा वर्णितुं केन शक्यते
।
यत्रैवमवदद् देवी तत्रान्यस्य हि का
कथा ॥ ६७ ॥
शाम्भवाद्याश्च ये कूटास्ताराद्या
बीजसञ्चयाः ।
सर्वे तत्रैव तिष्ठन्ति ब्रह्मणीव
जगत्त्रयम् ॥ ६८ ॥
यथोर्णनाभिः सूत्राणि वमत्यपि
गिलत्यपि ।
तथैवायं सृजत्यत्ति विश्वं
स्थावरजङ्गमम् ॥ ६९ ॥
जन्मकोटिसहस्राणां लक्षेणापि न
लभ्यते ।
विना देवीप्रसादेन तथैवानुग्रहं
गुरोः ॥ ७० ॥
जिघृक्षुरिममध्यायं पठित्वा प्रथमं
प्रिये ।
ततो मृत्युञ्जयप्राणं शनैः
स्पष्टमुदीरयेत् ॥ ७१ ॥
समाप्य सकलं मन्त्रं प्रणम्य भुवि
दण्डवत् ।
मृत्युञ्जयप्राणदात्रे सर्वस्वं
गुरवेऽर्पयेत् ॥ ७२ ॥
अथवा येन सन्तोषं गुरुर्व्रजति
तच्चरेत् ।
इस प्रकार परम्परा प्राप्त यह
अयुताक्षर मालामन्त्र इस लोक में मृत्युञ्जयप्राण नाम से प्रतिष्ठित हुआ । इस
प्रकार इस मन्त्र की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है। जहाँ देवी ने ऐसा कहा वहाँ
दूसरे की क्या बात। शाम्भव आदि कूट तार आदि बीजसमूह सबके सब उसी में स्थित हैं
जैसे कि ब्रह्म में तीनों लोक । जिस प्रकार मकड़ी तन्तु को उगलती और निगलती है उसी
प्रकार यह मन्त्र स्थावर जगमात्मक विश्व की सृष्टि और संहार करता है। बिना देवी की
कृपा और 'गुरु के अनुग्रह के यह मन्त्र करोड़ हजार लाख जन्म में भी नहीं प्राप्त हो
सकता। हे प्रिये! मन्त्र का ग्रहणेच्छु योगी साधक पहले इस अध्याय को पढ़कर
मृत्युञ्जयप्राण का धीरे-धीरे स्पष्ट उच्चारण करे । सम्पूर्ण मन्त्र को समाप्त कर
पृथ्वी पर दण्ड के समान नत होकर मृत्युञ्जयप्राण के दाता गुरु को (यह पाठ) अर्पित
कर दे। अथवा गुरु जिससे सन्तुष्ट हो वह करे ॥ ६६-७३ ॥
॥ इत्यादिनाथविरचितायां
पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां अयुताक्षर-मन्त्रप्रशंसाकथनं नाम चतुर्दशतमः
पटलः ॥ १४ ॥
॥ इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित
पचास हजार श्लोकों वाली महाकाल-संहिता के कामकलाकाली खण्ड के
अयुताक्षरमन्त्रप्रशंसाकथन नामक चतुर्दश पटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत''ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई ॥ १४ ॥
आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड अंतिम पटल 15

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