पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

कामकलाकाली खण्ड पटल १५

कामकलाकाली खण्ड पटल १५ 

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड के इस अन्तिम पटल १५ में छठी काली अर्थात् कामकलाकाली के अयुताक्षर मन्त्र का स्वरूप बतलाया गया है। इसके स्मरण मात्र से समस्त सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । इस काली के अयुताक्षर मन्त्र का स्वरूप छह सौ पचीस श्लोकों में वर्णित है। अन्त में इसके माहात्म्य का वर्णन है। राम ने रावण का, नरसिंह ने हिरण्यकशिपु का, शिव ने त्रिपुरासुर का, परशुराम ने कार्त्तवीर्य का वध इसी मन्त्र के प्रभाव से किया था । कुबेर के धनाधीश, इन्द्र के स्वर्गाधीश होने के मूल में यही मन्त्र है । इस मन्त्र के प्रभाव से धनार्थी धन, विद्यार्थी विद्या, राज्यार्थी राज्य और पुत्रार्थी आदि पुत्र इत्यादि प्राप्त करते हैं। यह चिन्तामणि के समान समस्त कामनाओं की सिद्धि करता है । यह अति गुह्यतम है। इसका प्रकाशन योग्यतम पात्र के लिये ही करना चाहिये ।

कामकलाकाली खण्ड पटल १५

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १५ 

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 15

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: पञ्चदशतमः पटल:

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड पञ्चदश पटल

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड पन्द्रहवाँ पटल

श्रीः महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड :)

पञ्चदशतमः पटल:

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १५ - कामकलाकाल्या अयुताक्षरमन्त्रनिर्देशः

महाकाल उवाच-

शृणुष्व हिमवत्पुत्रि षष्ठकाल्ययुताक्षरम् ।

यस्य स्मरणमात्रेण सर्वसिद्धिः प्रजायते ॥ १ ॥

तारवाग्भवमायाश्च लक्ष्मीह्रः स्मर एव च ।

क्रोधश्च योगिनी चैव वधूश्च शाकिनी तथा ॥ २ ॥

अङ्कुशं च प्रासादं च क्षौंकारं पाशमेव च ।

स्क्रोंकारं च समुच्चार्य्य वह्निजायां ततो वदेत् ॥ ३ ॥

ततः कामकलाकालि मायाकाल्यौ ततो वदेत् ।

मायात्रयं समुच्चार्य क्रोधद्वयं समुच्चरेत् ॥ ४ ॥

दक्षिणकालिके चैव क्रोधद्वयं तथा पुनः ।

भुवनेशीत्रयं चोक्त्वा कालीत्रयं द्विठस्तथा ॥ ५ ॥

ततो दक्षिणकालिके वाक्काल्यौ च समाहरेत् ।

त्रपा क्रोधाबला चैव शाकिनीबीजमुद्धरेत् ॥ ६ ॥

वधूबीजं योगिनीं च ख्फ्रेंकारं भद्रकाल्यपि ।

हूंद्वितयं समुच्चार्य्य चास्त्रद्वयं नमः पुनः ॥ ७ ॥

वह्निजाया भद्रकालि ....

महाकाल ने कहाहे हिमालय की पुत्रि ! षष्ठ काली *के अयुताक्षर मन्त्र को सुनो जिसके स्मरणमात्र से समस्त सिद्धि होती है-

तार वाग्भव माया लक्ष्मी लज्जा काम क्रोध योगिनी वधू शाकिनी अङ्कुश प्रासाद बीज के बाद क्षौंकार फिर पाश बीज फिर स्क्रोंकार का उच्चारण कर वह्निजाया कहे (मन्त्र - ओं ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं हूं छ्रीं स्त्रीं फ्रें क्रों हौं क्षौं आं स्क्रों स्वाहा ) । इसके बाद 'कामकलाकालि मायाकालि' कहकर तीन बार माया बीज और दो बार क्रोध बीज का उच्चारण करे। फिर 'दक्षिणकालिके' उसके बाद क्रोध बीज दो बार फिर भुवनेशी बीज और काली बीज तीन-तीन बार '' को दो बार फिर 'दक्षिणकालिके' कहे । पुनः वाक् बीज काली बीज कहे। फिर त्रपा क्रोध अबला शाकिनी वधू योगिनी. बीज फिर 'ख्कें' फिर 'भद्रकालि' उसके बाद दो बार 'हूँ' फिर दो अस्त्र और नमः तथा वह्निजाया तथा भद्रकालि कहे (मन्त्र - कामकलाकालि मायाकालि ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूँ हूँ दक्षिणकालिके हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रीं क्रीं ठः ठः दक्षिणकालिके ऐं क्रीं ह्रीं हूँ स्त्रीं फ्रें स्त्रीं छ्रीं ख्फ्रें भद्रकालि हूं हूं फट् फट् नमः स्वाहा भद्रकालि ) ॥ १-८ ॥

* काली के नव प्रकार हैं- १. दक्षिणकाली, २. भद्रकाली, ३. श्मशानकाली, ४. कालकाली, ५.गुह्यकाली, ६.कामकलाकाली, ७.धनकाली, ८. सिद्धिकाली, ९. चण्डकाली । द्रष्टव्य- .म.का.सं.का. खं. ११४२-४४ । तारं माये क्रोधौ तथा द्वादशकाली की भी चर्चा शास्त्रों में मिलती है।

... तारं माये क्रोधौ तथा ।

भगवति ततः प्रोच्य ततः श्मशानकाल्यपि ॥ ८ ॥

नरकङ्कालमालाधारिणि च ततो वदेत् ।

भुवनेशी कालीबीजं कुणपभोजिनि तथा ॥ ९ ॥

शाकिनीद्वितयं प्रोच्य ततो वह्निनितम्बिनी ।

'तार दो माया दो क्रोध फिर 'भगवति श्मशानकालि नरकङ्कालमालाधारिणि' कहे । भुवनेश्वरी काली बीज को कहकर 'कुणपभोजिनि' कहने के बाद शाकिनी बीज दो बार कहकर 'वह्निनितम्बिनी' कहे ( मन्त्र - भद्रकालि ओं ह्रीं ह्रीं हूँ हूँ भगवति श्मशानकालि नरकङ्कालमालाधारिणि ह्रीं क्रीं कुणपभोजिनि फ्रें फ्रें स्वाहा ) ॥ ८-१० ।।

श्मशानकालि सम्प्रोच्य कालीक्रोधौ तथोच्चरेत् ॥ १० ॥

मायावधूरमाकामफट्स्वाहा कालकालि च ।

तारं च शाकिनी चैव सिद्धिकरालि च वदेत् ॥ ११ ॥

मायाबीजं समुच्चार्य योगिनीबीजमुच्चरेत् ।

क्रोधवधूशाकिन्यश्च हृल्लेखा वह्निवल्लभा ॥ १२ ॥

गुह्यकालि समुच्चार्य्य...

'श्मशानकालि' कहकर काली क्रोध माया वधू रमा काम बीजों के बाद 'फट् स्वाहा' कहे। 'कालकालि' तार शाकिनी 'सिद्धिकरालि' मायाबीज योगिनीबीज क्रोध वधू शाकिनी हृल्लेखा अग्निवल्लभा तथा 'गुह्यकालि' कहे (मन्त्र इस प्रकार है- श्मशानकालि क्रीं हूं ह्रीं स्त्रीं श्रीं क्लीं फट् स्वाहा कालकालि ओं फ्रें सिद्धिकरालि ह्रीं छ्रीं हूँ स्त्रीं फ्रें नमः स्वाहा गुह्यकालि) ।। १०-१३ ॥

.. तारमन्त्रद्वयं चरेत् ।

हूङ्कारं ह्रींकारं चैव फ्रेंकारं छ्रींकारं पुनः ॥ १३ ॥

स्त्रीकारं च रमाबीजमङ्कुशं हृदयं वदेत् ।

ङेऽन्ता धनकालि च विकरालरूपिण्यपि ॥ १४ ॥

सम्बोधनान्ता बोद्धव्या सर्वत्रैव सुरेश्वरी ।

धनं चोक्त्वा देहिद्वयं दापय दापयेति च ॥ १५ ॥

क्षेत्रपालं तथोच्चार्य इन्द्रस्वरविभूषितम् ।

बिन्दुनादसमायुक्तमङ्कुशं पाशमेव च ॥ १६ ॥

मायाक्रोधहृदां द्वे चास्त्र वह्निवल्लभा ।

ततो धनकालिके च...

'गुह्यकालि' कहकर तार मन्त्र को दो बार कहे । फिर हूं ह्रीं फ्रें छ्रीं स्त्री रमाबीज अङ्कुश और हृदय कहे। 'धनकालि' को चतुर्थ्यन्त और 'विकरालरूपिणी' तथा 'सुरेश्वरी' को सम्बोधनान्त कहकर 'धनं' कहने के बाद 'देहि' को दो बार फिर 'दापय दापय' कहे । 'क्षेत्रपाल' बीज को इन्द्रस्वर (=सोलह स्वर) से विभूषित एवं विन्दुनाद से समायुक्त कर अङ्कुश पाश माया क्रोध के बाद हृदय और अस्त्र को दो बार फिर अग्निवल्लभा तथा 'धनकालि' कहे (मन्त्र इस प्रकार हैगुह्यकाली ओं औं हूं ह्रीं फ्रें छ्रीं स्त्रीं श्रीं क्रों नमो धनकाल्यै विकरालरूपिणि सुरेश्वरि धनं देहि देहि दापय दापय क्षं क्षां क्षिं क्षीं क्षं क्षं क्षं क्षं लं लृ क्ष क्ष क्ष क्ष क्षः क्रों क्रों आं ह्रीं ह्रीं हूँ हूँ नमो नमः फट् फट् स्वाहा धनकालि) ।। १३-१७ ॥

... तारवाग्भवमन्मथाः ॥ १७ ॥

लज्जाक्रोधौ सिद्धिकाल्यै हृदयं सिद्धिकालि च ।

ततो मायां समुच्चार्य्य वदेच्चण्डाट्टहासिनि ॥ १८ ॥

ततो जगद्ग्रसनकारिणि तु समुच्चरेत् ।

नरमुण्डमालिनि च प्रवदेच् चण्डकालिके ॥ १९ ॥

कामरमाक्रोधानुक्त्वा शाकिनी त्वङ्गनापि च ।

योगिनी फट्द्वयं प्रोच्य वह्निस्त्री चण्डकालिके ॥ २० ॥

'धनकालिके' तार वाग्भव मन्मथ लज्जा क्रोध को कहने के बाद 'सिद्धिकाल्यै' फिर हृदय तत्पश्चात् 'सिद्धिकालि' फिर माया का उच्चारण कर 'चण्डाट्टहासिनि' कहे । इसके बाद 'जगद्ग्रसनकारिणि नरमुण्डमालिनि चण्डकालिके' के बाद काम रमा क्रोध शाकिनी अङ्गना योगिनी बीजों को कहे। फिर दो 'फट्' कहकर अग्निस्त्री तथा 'चण्डकालिके' कहे। (मन्त्र इस प्रकार है- धनकालिके ओं ऐं क्लीं ह्रीं हूं सिद्धि- काल्यै नमः सिद्धिकालि ह्रीं चण्डाट्टहासिनि जगद्ग्रसनकारिणि नरमुण्डमालिनि चण्ड- कालिके क्लीं श्री हूँ फ्रें स्त्रीं ह्रीं फट् फट् स्वाहा चण्डकालिके) ।। १७-२० ॥

नमः कमलवासिन्यै स्वाहालक्ष्मि तथोच्चरेत् ।

तारं च लक्ष्मीबीजं च माया च कमला पुनः ॥ २१ ॥

कमले च ततश्चोक्त्वा प्रवदेत्कमलालये ।

प्रसीद द्वितयं चोक्त्वा रमा लज्जा रमा पुनः ॥ २२ ॥

महालक्ष्म्यै नमः प्रोच्य महालक्ष्मि मायां वदेत् ।

नमो भगवति चोक्त्वा माहेश्वरि ततो वदेत् ॥ २३ ॥

अन्नपूर्णे वह्निजाया अन्नपूर्णे तथोच्चरेत् ।

'नमः कमलवासिन्यै स्वाहा लक्ष्मि कहे। पुनः तार लक्ष्मीबीज माया कमलाबीज फिर 'कमले कमलालये' कहकर 'प्रसीद' को दो बार कहने के बाद रमा लज्जा रमा बीज पुनः 'महालक्ष्म्यै महालक्ष्मि' मायाबीज कहे। फिर 'नमो भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे' के बाद वह्निजाया कहे ( मन्त्र - चण्डकालिके नमः कमलवासिन्यै स्वाहा लक्ष्मि ओं श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद स्त्रीं ह्रीं स्त्रीं महालक्ष्म्यै महालक्ष्मि ह्रीं नमो भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा अन्नपूर्णे) ॥ २१-२४ ॥

तारमायाक्रोधान् प्रोच्य उत्तिष्ठ पुरुषि वदेत् ॥ २४ ॥

किं स्वपिषि भयं चोक्त्वा ततो मे समुपस्थितम् ।

यदि शक्यमशक्यं वा क्रोधदुर्गे ततो वदेत् ॥ २५ ॥

भगवति ततश्चोक्त्वा शमय वह्निसुन्दरी ।

तार माया क्रोध कहकर 'उत्तिष्ठ पुरुषि किं' स्वपिषि भयं से समुपस्थितं यदि शक्यमशक्यं वा' कहने के बाद 'क्रोधदुर्गे' कहे। इसके बाद 'भगवति शमय' कहकर वह्निसुन्दरी कहे। (मन्त्र अन्नपूर्णे ओं ह्रीं हूँ उत्तिष्ठ पुरुषि किं स्वपिषि भयं में समुपस्थितं यदि शक्य मशक्यं वा क्रोधदुर्गे भगवति शमय स्वाहा ) ॥ २४-२६ ॥

क्रोधलज्जातारानुक्त्वा वनदुर्गे मायां वदेत् ॥ २६ ॥

स्फुरद्वे प्रस्फुर द्वे च घोरघोरतरेत्यपि ।

तनुरूपे समुच्चार्य्य चट द्वे प्रचटद्वयम् ॥ २७ ॥

कह कह रम रम बन्ध बन्ध ततो वदेत् ।

घातयद्वितयं चोक्त्वा क्रोधमस्त्रं ततः स्मरेत् ॥ २८ ॥

ततश्च विजयाघोरे माया पद्मावति वदेत् ।

वह्निजायां ततः स्मृत्वा ततः पद्मावति स्मरेत् ॥ २९ ॥

महिषमर्दिनि स्वाहा महिषमर्दिनि स्मरेत् ।

क्रोध लज्जा तार को कहकर 'बनदुर्गे' फिर माया बीज फिर 'स्फुर और प्रस्फुर' को दो-दो बार 'घोरघोरतरतनुरूपे' कहकर 'चट प्रचट' को दो-दो बार कहकर कह कह 'रम रम बन्ध बन्ध' कहे। 'घातय' को दो बार कहकर क्रोध और अस्त्र कहे । इसके बाद 'विजयाघोरे' फिर मायाबीज फिर 'पद्मावति महिषमर्दिनि स्वाहा महिष- मर्दिनि' कहे । (मन्त्र हूँ ह्रीं ओं वनदुर्गे ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोरघोरतरतनु- रूपे चट चट प्रचट प्रचट कह कह रम रम बन्ध बन्ध घातय घातय हूँ फट् विजया- घोरे ह्रीं पद्मावति स्वाहा पद्मावति महिषमर्दिनि स्वाहा महिषमर्दिनि ) ॥ २६-३० ।।

तारं चोक्त्वा दुर्गे द्वयं रक्षिणि वह्निकामिनी ॥ ३० ॥

जय दुर्गे समुच्चार्य तारमाये समुच्चरेत् ।

दुं दुर्गायै स्वाहा चोक्त्वा वाङ्मायाविष्णुवल्लभाः ॥ ३१ ॥

तारं नमो भगवति मातङ्गेश्वरि संस्मरेत् ।

सर्वस्त्रीपुरुषेत्युक्त्वा वशङ्करि ततो वदेत् ॥ ३२ ॥

सर्वदुष्टमृगेत्युक्त्वा वशङ्करि ततो वदेत् ।

सर्वग्रहवशङ्कर सर्वसत्त्ववशङ्करि ॥ ३३ ॥

सर्वजनमनोहरि सर्वमुखरञ्जिनि च ।

सर्वराजवशङ्करि ततः स्मरेच्च साधकः ॥ ३४ ॥

सर्वलोकममुं मे वशमानय ततो वदेत् ।

वह्निस्त्री च तथा...

'महिषमर्दिनि' और तार को कहकर 'दुर्गे' दो बार 'रक्षिणि' फिर वह्निकामिनी कहे। फिर 'जयदुर्गे' कहकर तार और माया बीज का उच्चारण करे । 'दुं दुर्गायै स्वाहा' कहकर वाणी माया विष्णुवल्लभा तार 'नमो भगवति मातङ्गेश्वरि' कहे । 'सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि सर्वदुष्टमृगसर्वग्रहवशङ्करि सर्वसत्त्ववशङ्करि सर्वजनमनोहरि सर्वमुख- रञ्जिनि सर्वराजवशङ्करि सर्वलोकं (अमुं) में वशमानय' कहने के बाद वह्निस्त्री कहे । ( मन्त्र - महिषमर्दिनि ओं दुर्गे दुर्गे रक्षिणि स्वाहा जयदुर्गे ओं ह्रीं दुं दुर्गायै स्वाहा ऐं ह्रीं श्रीं ओं नमो भगवति मातङ्गेश्वरि सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि सर्वदुष्टमृगवशङ्करि सर्वग्रहवशङ्करि सर्वसत्त्ववशङ्करि सर्वजनमनोहरि सर्वमुखरञ्जिनि सर्वराजवशङ्करि सर्वलोकममुं में वशमानय स्वाहा ) ॥ ३०-३५ ॥

... राजमातङ्गि साधकोत्तमः ॥ ३५ ॥

तथोच्छिष्टमातङ्गिनि चान्ते क्रोधबीजं स्मरेत् ।

एवं मायां ततस्तारं ततो मन्मथमेव च ॥ ३६ ॥

वह्निजायोच्छिष्टेत्युक्त्वा मातङ्गि समुदाहरेत् ।

तथोच्छिष्टचाण्डालिनि सुमुखि देवि संवदेत् ॥ ३७ ॥

महापिशाचिनि माया त्रिठं द्विबिन्दुकं स्मरेत् ।

तथोच्छिष्टचाण्डालिनि तारं च समुदाहरेत् ॥ ३८ ॥

उत्तम साधक 'राजमातङ्गि उच्छिष्टमातङ्गिनि' कहने के बाद अन्त में क्रोध बीज माया तार मन्मथ वह्निजाया कहे। फिर 'उच्छिष्टमातङ्गि उच्छिष्टचाण्डालिनि सुमुखि देवि महापिशाचिनि' कहकर माया बीज तीन ठ का दो बिन्दुसहित स्मरण करना चाहिए । तदनन्तर 'उच्छिष्टचाण्डालिनि' कहना चाहिए । ( मन्त्र इस प्रकार है- राजमातङ्गि उच्छिष्टमातङ्गिनि उच्छिष्टचाण्डालिनि सुमुखि देवि महापिशाचिनि ह्रीं ठः ठः ठः उच्छिष्टचाण्डालिनि) ।। ३५-३८ ॥

महासेनो धरासंस्थो वामनेत्रविभूषितः ।

बिन्दुनादसमायुक्तो वगलामुखि चोद्धरेत् ॥ ३९ ॥

सर्वेत्युक्त्वा च दुष्टानां मुखं वाचं समीरयेत् ।

ततश्च स्तम्भय जिह्वां कीलय द्वितयं वदेत् ॥ ४० ॥

बुद्धिं नाशय संस्मृत्य पूर्वबीजं ततः स्मरेत् ।

तारपूर्वा वह्निजाया वगले...

तार, धरा (=ल) से युक्त महासेन (ह) वामनेत्र (ई) से विभूषित विन्दुनाद से युक्त (= ह्रीं) 'वगलामुखि' कहे। तदनन्तर 'सर्व' कहकर 'दुष्टानां मुखं वाचं (पदं) स्तम्भय जिह्वां' कहकर फिर 'कीलय' को दो बार कहे । 'बुद्धिं नाशय' कहकर पूर्वबीज (= ह्रीं) का उच्चारण करना चाहिए। तारपूर्वक वह्नि जाया फिर 'बगले' का उच्चारण करे। (मन्त्र इस प्रकार है-ओं ह्रीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां मुखं वाचं (पदं) स्तम्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं नाशय ह्रीं ओं स्वाहा वगले ) ।। ३९-४१ ॥

... वाग्भवं वदेत् ॥ ४१ ॥

रमामायास्मरान् स्मृत्वा धनलक्ष्मि वदेत्ततः ।

तारलज्जावाग्भवाश्च मायां तारं स्मरेत्ततः ॥ ४२ ॥

सरस्वत्यै नमः स्मृत्वा सरस्वति वदेत्ततः ।

पाशं मायां क्रोधं चोक्त्वा भुवनेश्वरि चेत्यपि ॥ ४३ ॥

तारत्रपाविष्णुजायाक्रोधकामपाशास्ततः।

तथा चाश्वारूढायै च फट्द्वयं वह्निवल्लभा ॥ ४४ ॥

अश्वारूढे समाभाष्य...

वाग्भव रमा माया स्मर को कहकर 'धनलक्ष्मि' के बाद तार लज्जा वाग्भव माया तार का स्मरण कर 'सरस्वत्यै नमः' कहकर 'सरस्वति' कहे। पाश माया क्रोध के बाद 'भुवनेश्वरि कहे फिर तार त्रपा विष्णुजाया क्रोध काम पाश के बाद 'अश्वारूढायै कहकर दो फट् स्वाहा और अश्वारूढ कहे । ( मन्त्र - ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं धनलक्ष्मि ओं ह्रीं ऐं ह्रीं ओं सरस्वत्यै नमः सरस्वति आं ह्रीं हूं भुवनेश्वरि ओं ह्रीं श्रीं हूं क्लीं आं अश्वारूढाय फट् फट् स्वाहा अश्वारूढे ) ।। ४१-४५ ॥

...तारवाग्भवलज्जकाः ।

नित्यक्लिग्ने मदद्रवे वाङ्माया वह्निसुन्दरी ॥ ४५ ॥

नित्यक्लिग्ने समाभाष्य सुन्दरीबीजमुद्धरेत् ।

ततश्च भैरवीकूटं बालाकूटं ततः स्मरेत् ॥ ४६ ॥

बगलाकूटमुच्चार्य्य त्वरिताकूटमुद्धरेत् ।

जय भैरवि सम्प्रोच्य रमान्त्रपावाग्भवं स्मरेत् ॥ ४७ ॥

ब्लूङ्कारं च ततश्चोक्त्वा चन्द्रश्च सविसर्गकः ।

अकारं च आकारं च इकारं संस्मरेत्ततः ॥ ४८ ॥

बिन्दुनादसमायुक्तं वाचयेत् साधकोत्तमः ।

राजदेवी राजलक्ष्मी क्रमशस्तु ततः स्मरेत् ॥ ४९ ॥

तार वाग्भव लज्जा कहे फिर 'नित्यक्लिन्ने मदद्रवे' वाक् माया बीज फिर वह्निसुन्दरी 'नित्यक्लिन्त्रे' कहकर सुन्दरीबीज कहे। इसके बाद भैरवीकूट बालाकूट बगलाकूट त्वरिताकूट को उद्धृत करे । 'जय भैरवि' कहकर रमा त्रपा वाग्भव का स्मरण कर ब्लूङ्कार कहे । विसर्ग के सहित चन्द्र कहने के बाद अकार आकार इकार को विन्दुनाद के सहित कहे। फिर साधकोत्तम राजदेवी राजलक्ष्मी का क्रमशः स्मरण करे । (मन्त्र इस प्रकार हैओं ऐं ह्रीं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ऐं ह्रीं स्वाहा नित्यक्लिन्ने स्त्री क्षमकलह्रहसयूं (बालाकूट) (वगलाकूट) (त्वरिता कूट) जय भैरवि श्रीं ह्रीं ऐं ब्लूं ग्लौः अं आं इं राजदेवि राजलक्ष्मि ) ॥ ४५-४९ ॥

चतुर्दशस्वरोपेतबिन्दुद्वयविभूषितः।

चन्द्रबीजं समुच्चार्य्य स्वर्णकूटं समाहरेत् ॥ ५० ॥

वाङ्मायाकाममातृश्च राजराजेश्वरि ततः ।

ज्वल ज्वल समाभाष्य शूलिनि दुष्टग्रहं वै ॥ ५१ ॥

यस स्वाहा समुच्चार्य्य शूलिनि च वदेत् सुधीः ।

चौदह स्वर से युक्त दो बिन्दु से अलङ्कृत चन्द्रबीज का उच्चारण कर स्वर्णकूट कहना चाहिये । वाक् माया काम माता के बाद 'राजराजेश्वरि' फिर 'ज्वल ज्वल' कहकर 'शूलिनि दुष्टग्रहं ग्रस स्वाहा' कहे। फिर 'शूलिनि' कहे (मन्त्र-ग्लं ग्लां ग्लिं ग्लीं ग्लुं ग्लूं ग्लूं ग्लूं ग्लूं ग्लें ग्लै ग्लौं ग्लः क्लीं श्रीं श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं पाँ राजराजेश्वरि ज्वल ज्वल शूलिनि दुष्टग्रहं ग्रस स्वाहा शूलिनि) ॥ ५०-५२ ॥

माया महाचण्डयोगेश्वरि धींकारमुद्धरेत् ॥ ५२ ॥

दान्ततान्तौ वह्निसंस्थौ तुरीयस्वरभूषितौ ।

नादबिन्दुसमायुक्तौ ततोऽस्त्रपञ्चकं स्मरेत् ॥ ५३ ॥

जय महाचण्डयोगेश्वरि विष्णुनितम्बिनी ।

त्रपा कामत्रिपुटे च वाङ्मायानङ्गमातरः ॥ ५४ ॥

क्षोंकारं क्लींकारं चैव सिद्धिलक्ष्म्यै नमस्ततः ।

काममाता भुवनेशी वाग्भवश्च स्मरेत्ततः ॥ ५५ ॥

राज्यसिद्धिलक्ष्मि...

माया बीज 'महाचण्डयोगेश्वरि' के बाद 'श्रीं' कहे । चतुर्थस्वर से संयुक्त दान्त और तान्त वह्निबीज के साथ तथा नादबिन्दुसहित (थ्री प्री) कहना चाहिये। इसके बाद पाँच अस्त्र का स्मरण करे। 'जय महाचण्डयोगेश्वरि' कहने के बाद विष्णुप्रिया त्रपा काम त्रिपुटा वाक् माया काम मातृबीज के बाद श्रीं क्लीं कहकर 'सिद्धिलक्ष्यै नमः क्ली पी ह्रीं ऐं 'राज्यसिद्धिलक्ष्मि' काम, माता भुवनेश्वरी वाग्भव के बाद 'राज्यसिद्धिलक्ष्मि' कहे (मन्त्र इस प्रकार है- ह्रीं महाचण्डयोगेश्वरि श्री श्री प्रीं फट् फट् फट् फट् फट् जयमहाचण्डयोगेश्वरि श्रीं ह्रीं क्लीं प्लूं ऐं ह्रीं क्लीं पौं क्षीं क्लीं सिद्धिलक्ष्म्यै नमः राज्यसिद्धिलक्ष्मि ) ॥ ५२-५६ ॥ .

चोक्त्वा ॐकारं शम्भुवल्लभा ।

क्रोधपाशौ क्रोंकारं च स्त्रींकारं क्रोधमुच्चरेत् ॥ ५६ ॥

क्षौंकारं हाङ्कारं चैव फट्कारं त्वरितं स्मरेत् ।

नक्षत्रकूटमुच्चार्य्य चन्द्रकूटं ततः स्मरेत् ॥ ५७ ॥

ततो ग्रहकूटं चैव तदन्ते च दिवाकरम् ।

काम्यकूटं ततोऽपि स्यात्ततः कालकूटं चरेत् ॥ ५८ ॥

तदुत्तरं पार्श्वकूटं कामकूटं तदुत्तरम् ।

ततः पश्चात् धराकूटं वारुणं तदनन्तरम् ॥ ५९ ॥

चक्रकूटं समाभाष्य पद्मकूटमनन्तरम् ।

शङ्खवराहकटौ दर्शनान्मुक्तिदायकौ ॥ ६० ॥

ततः स्मरेनृसिंहकूटं सर्वफलप्रदम् ।

इन्द्रकूटं समाराध्य इन्द्रलोके महीयते ॥ ६१ ॥

मत्स्यकूटं ततोऽपि स्यात्ततो ज्ञेयं त्रिशूलकम् ।

शक्तिकूटं तथोच्चार्य्य शिवलोके वसेद् ध्रुवम् ॥ ६२ ॥

वैष्णवकूटं तथा ज्ञेयं केवलं विष्णुरूपिणम् ।

ओंकार शम्भुवल्लभा क्रोध पाश क्रों स्त्रीं क्रोधबीज क्षौं हां फट्... (त्वरिता कूट )... ( नक्षत्रकूट )... का उच्चारण कर... ( चन्द्रकूट )... के बाद... ( ग्रहकूट) उसके बाद... (सूर्यकूट)... (काम्यकूट)... उसके बाद कालकूट... (पार्श्वकूट)...( धराकूट ).... (वरुणकूट)... (चक्रकूट )... (पद्मकूट)... कहना चाहिये । (शङ्खकूट )... और... (वराहकूट)... ये दोनों दर्शन से ही मुक्तिदायक हैं। इसके बाद सर्वफलप्रद नृसिंहकूट का स्मरण करना चाहिये । इन्द्रकूट की आराधना कर इन्द्रलोक में पूजित होता है । मत्स्यकूट और त्रिशूल को भी जानना चाहिये । शक्तिकूट का उच्चारण कर निश्चित् रूप से शिवलोक में बसता है । वैष्णव कूट को केवल विष्णुरूप जानना चाहिये । ( मन्त्र - ओं क्रः हूं आं क्रों स्त्रीं हूं क्षौं हां फट्... सकहलमक्षखवूं... म्लकहक्षरस्त्री.... यम्लवी... ग्लक्षकमहव्यऊं ह्रह्रव्यकऊं मफ़लहलहखफूंम्लव्यवऊं... म्लक्षकसहहूं क्षम्लब्रसहस्हक्षक्लस्त्रीं रक्षलहमसहकखूं... झसखग्रमऊ ग्लफक्षप्रक्षी) । ५६-६३ ॥

त्रपालज्जाक्रोधकामयोषितो वाग्भवं तथा ॥ ६३ ॥

गारुडं योगिनीं चैव शाकिनीं कालिकां चरेत् ।

ततो धराकूटं ज्ञेयं क्रोधबीजं ततश्चरेत् ॥ ६४ ॥

ततोऽघोरे सिद्धिं मे वै देहि दापय संस्मरेत् ।

वह्निजाया अघोरे च...

त्रपा लज्जा क्रोध काम स्त्री वाग्भव गरुड योगिनी शाकिनी कालिका बीजों का उच्चारण करना चाहिये । तत्पश्चात् धराकूट फिर क्रोधबीज कहकर 'अघोरे सिद्धिं में वैदेहि दापय' के बाद वह्निजाया और 'अघोरे' कहे (मन्त्र इस प्रकार है- ह्रीं ह्रीं हूं क्ली स्त्रीं ऐं क्रौं छ्रीं फ्रें क्रीं ग्लक्षकमहव्यऊं हूं अघोरे सिद्धिं मे वै देहि दापय स्वाहा अघोरे) ॥ ६३-६५ ॥

... ॐकारं नम इत्यपि ॥ ६५ ॥

चामुण्डे च तथोच्चार्य्य करङ्किणि वदेत्ततः ।

करङ्कमालाधारिणि च किं किं विलम्बसे ततः ॥ ६६ ॥

भगवति ततश्चोक्त्वा शुष्काननि ततः स्मरेत् ।

खद्वयं च ततः प्रोच्य चान्त्रकरावनेति च ॥ ६७ ॥

भो भो वल्ग इति प्रोच्य वल्गेति वदेत्ततः ।

कृष्णभुजङ्गवेष्टिततनुलम्बकपाले वै ॥ ६८ ॥

हृष्ट हृष्ट इति प्रोच्य हट्ट हट्ट तदन्तरम् ।

पत पत समुच्चार्य्य पताका च ततो वदेत् ॥ ६९ ॥

हस्ते ज्वल ज्वल प्रोच्य ज्वालामुखि ततो वदेत् ।

अनलनखखट्वाङ्गधारिणि च तथोच्चरेत् ॥ ७० ॥

'ओं नमः चामुण्डे' कहकर 'करङ्किणि' कहे। फिर 'करङ्कमालाधारिणि किं कि विलम्बसे भगवति शुष्काननि' के बाद 'खं' को दो बार कहकर 'अन्त्रकरावनद्धे भो भो वल्गे वल्ग कृष्णभुजङ्गवेष्टिततनुलम्बकपाले हृष्ट हृष्ट हट्ट हट्ट पत पत कहकर 'पताकाहस्ते ज्वल ज्वल ज्वालामुखि कहे। फिर 'अनलनखखट्वाङ्गधारिणि' कहे । ( मन्त्र इस प्रकार है- ओं नमश्चामुण्डे करङ्किणि करङ्कमालाधारिणि किं कि बिलम्ब से भगवति शुष्काननि खं खं अन्त्रकरावनद्धे भो भो वल्गे वल्ग कृष्ण भुजङ्गवेष्टिततनु- लम्बकपाले हृष्ट ह्रष्ट हट्ट हट्ट पत पत पताकाहस्ते ज्वल ज्वल ज्वालामुखि अनलन- खखट्वाङ्गधारिणि ॥ ६५-७० ।।

हा हा चट्ट चट्ट इति हूं हूं अट्टाट्टहासिनि ।

उड्ड उड्डु ततोऽपि स्याद्धेवेतालमुखि इति ॥ ७१ ॥

अकि अकि स्फुलिङ्गेति पिङ्गलाक्षि ततोऽपि च ।

चल चल चालयेति चालयेति तथोच्चरेत् ॥ ७२ ॥

करङ्कमालिनि प्रोच्य नमोऽस्तु ते स्वाहा ततः ।

उसके बाद 'हा हा चट्ट चट्ट हूं हूं हासिनि उड्ड उड्ड हे वेतालामुखि अकि अकि स्फुलिङ्ग पिङ्गलाक्षि चल चल चालय चालय' कहे। फिर 'करङ्कमालिनि' कहकर 'नमोऽस्तु ते स्वाहा' कहे । ( मन्त्र इस प्रकार है- हा हा चट्ट चट्ट हूं हूं अट्टाट्टहासिनि उड्ड उड्ड हे वेतालमुखि अकि अकि स्फुलिङ्ग पिङ्गलाक्षि चल चल चालय चालय करङ्कमालिनि नमोऽस्तु ते स्वाहा ) ॥ ७१-७३ ॥

विश्वलक्ष्मि ततश्चोक्त्वा तारमाये समुच्चरेत् ॥ ७३ ॥

क्षेत्रपालो वह्निसंस्थो चतुर्थस्वरमस्तकः ।

नादबिन्दुसमायुक्तो बीजं समुच्चरेत् सुधीः ॥ ७४ ॥

दादिरेवं समुच्चार्य्य रान्तश्चैवं समाहरेत् ।

एवं शान्त: समाहार्य्यः कालीक्रोधौ पुनर्वदेत् ॥ ७५ ॥

अस्त्रं यन्त्रप्रमथिनि फ्रेंकारं च ततः स्मरेत् ।

ततो धरां समाहृत्य बीजं शृणु मनोहरम् ॥ ७६ ॥

रेफश्चैव जकारश्च तदन्तश्च क्रमाल्लिखेत् ।

वह्निरूढं बीजं ज्ञेयं तुरीयस्वरपूजितम् ॥ ७७ ॥

'विश्वलक्ष्मि' कहकर तार माया के बाद विद्वान् साधक क्षेत्रपाल को चतुर्थ स्वर और वह्नि के साथ नाद बिन्दु से युक्त का उच्चारण करे । दादि रान्त शान्त का उच्चारण कर काली क्रोध बीजों को कहे। अस्त्र 'यन्त्रप्रमथिनि' ख्फ्रें के बाद धराबीज कहकर मनोहर बीज को सुनो- रेफ जकार वह्निरूढ और चतुर्थस्वर भूषित समझना चाहिये । (मन्त्र इस प्रकार है- विश्वलक्ष्मि ओं ह्रीं क्षीं द्रीं शीं क्रीं हूं फट् यन्त्रप्रमथिन ख्फ्रें ह्रीं श्रीं) ।। ७३-७७ ॥

नादबिन्दुशिरोबीजमुच्चरेद् बीजमुत्तमम् ।

तारत्रपे समाभाष्य फ्रेंकारं समुदीरितम् ॥ ७८ ॥

चण्डयोगेश्वरि कालि शाकिनी हृदयं तथा ।

चण्डयोगेश्वरि लज्जाक्रोधास्त्राणि विनिर्दिशेत् ॥ ७९ ॥

महाचण्ड भैरवि च भुवनेशीं वदेत्ततः ।

क्रोधास्त्रं वह्निजायां च महाचण्डभैरवी वै ॥ ८० ॥

नाद बिन्दु शिरोबीज का उच्चारण करें। तार त्रपा कहे। पुनः फ्रेंकार कहकर 'चण्डयोगेश्वरि कालि' के बाद शाकिनी और हृदयबीज फिर 'चण्डयोगेश्वरि' लज्जा क्रोध अस्त्र का निर्देश करे। फिर 'महाचण्डभैरवि' के बाद भुवनेश्वरी बीज फिर क्रोध अस्त्र और वहिजाया, को कहे। फिर 'महाचण्डभैरवि' कहे। ( मन्त्र इस प्रकार है- अं ओं ह्रीं फ्रें चण्डयोगेश्वरि कालि फ़्रे नमः चण्डयोगेश्वरि, ह्रीं हूं फट् महाचण्डभैरवि ह्रीं हूं फट् स्वाहा महाचण्डभैरवि ) ॥ ७८-८० ॥

वाग्भुवनेश्वरी कामशाकिनी वाग्भवानपि ।

लज्जा रमा तथा चैव उद्धरेत्कोविदो जनः ॥ ८१ ॥

त्रैलोक्यविजया ङन्ता हृदयं वह्निवल्लभा ।

त्रैलोक्यविजये चैव वाग्लज्जालक्ष्मीमन्मथाः ॥ ८२ ॥

प्रासादं जयलक्ष्मि च युद्धे मे विजयं वदेत् ।

देहि चेत्युच्य प्रासादं पाशमङ्कुशफत्रयम् ॥ ८३ ॥

वह्निस्त्री जयलक्ष्मि च अतिचण्डे तथोच्चरेत् ।

तथा महाप्रचण्डेति भैरवि च ततः स्मरेत् ॥ ८४ ॥

क्रोधचण्डं समाभाष्य अतिचण्डटकारकौ ।

योगबीजं समाभाष्य फ्रटं स्मरेत्ततोऽपि च ॥ ८५ ॥

साधक विद्वान् वाक् भुवनेश्वरी काम शाकिनी वाग्भव लज्जा रमा का उद्धार करे । फिर चतुर्थ्यन्त त्रैलोक्यविजया' शब्द फिर हृदय और अग्निवल्लभा का उच्चारण करे । ततः 'त्रैलोक्यविजये' कहना चाहिए । वाक् लज्जा लक्ष्मी मन्मथ प्रासाद 'जयलक्ष्मि युद्धे मे विजयं' कहना चाहिए। 'देहि' कहकर फिर प्रासाद पाश अङ्कुश तीन फट् वह्निस्त्री को कहने के बाद 'जयलक्ष्म' कहना चाहिए । तदनन्तर 'अतिचण्ड महाप्रचण्ड भैरवि' का उच्चारण करना चाहिए। फिर क्रोध चण्ड को कहकर अतिचण्ड और टकार तथा योगबीज को कहकर 'फ्रटं' कहना चाहिए। (मन्त्र इस प्रकार है - ऐं ह्रीं क्लीं फ्रें ऐं ह्रीं श्रीं त्रैलोक्यविजयायै नमः स्वाहा त्रैलोक्यविजये ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं आं जयलक्ष्मि । अतिचण्ड महाप्रचण्ड भैरवि हूं फ्रों अतिचण्ड अतिचण्ड फ्रंट) ।। ८१-८५ ॥

विलिखेच्च ततो याम्यकूटं परमसिद्धिदम् ।

फान्तफस्यो वह्निसंस्थस्ततश्च ठादिमुच्चरेत् ॥ ८६ ॥

तदन्ते च महाकूटमीशसञ्ज्ञं समुच्चरेत् ।

रेफमुच्चार्य्य धीरेन्द्र फ्रटं स्मरेत्तदन्तरम् ॥ ८७ ॥

महामन्त्रेश्वरि चैव तारत्रपारमास्मरान् ।

प्रासादक्रोधौ वज्रं च वदेत् प्रस्ताविनि द्विठम् ॥ ८८ ॥

वज्रप्रस्तारिणि चोक्त्वा...

इसके बाद परम सिद्धिदायक याम्यकूट लिखे । '' के अन्त वाला (ब) तथा '' में स्थित वह्निबीज ठादि को कहना चाहिये। उसके बाद ईशकूट का उच्चारण करना चाहिये । हे धीरेन्द्र! रेफ का उच्चारण कर फ्रंट का स्मरण करना चाहिये । फिर 'महामन्त्रेश्वरि' कह कर तार त्रपा रमा स्मर प्रासाद क्रोध 'वज्रप्रस्तारिणि' फिर दो '' फिर 'वज्रप्रस्तारिणि' का उच्चारण करना चाहिए। ( मन्त्र इस प्रकार है-हम्लबी बफ्रटं ब्रकम्लब्लक्लऊं रफ्रटं महामन्त्रेश्वरि ओं ह्रीं श्रीं क्लीं हौं हूं वज्रप्रस्तारिणि ठः ठः वज्रप्रस्तारिणि ॥ ८६-८९ ॥

... तारं ह्रीं हृदयं वदेत् ।

परमभीषणे चोक्त्वा क्रोधद्वयं क्रमाल्लिखेत् ॥ ८९ ॥

नरकङ्कालमालिनि चोक्त्वा वै शाकिनीद्वयम् ।

कात्यायनि व्याघ्रचर्मावृतकटि वदेदिति ॥ ९० ॥

कालीद्वयं समुच्चार्य श्मशानचारिणि वदेतृ ।

नृत्य नृत्य गाय गाय हस हस क्रोधद्वयम् ॥ ९१ ॥

कार (नादि) नि संलेख्य चाङ्कुशद्वितयमपि ।

शववाहिनि संलेख्य मां रक्ष रक्ष चेत्यपि ॥ ९२ ॥

अस्त्रद्वयं क्रोधद्वयं हृल्लेखा वह्निकामिनी ।

कात्यायनी त्विति प्रोच्य...

तार ह्रीं और हृदय कहना चाहिये। 'परम भीषणे' कहकर क्रोधद्वय लिखे । फिर 'नरकङ्कालमालिनि' कहकर दो शाकिनी फिर 'कात्यायनि व्याघ्रचर्मावृतकटि' कहे । दो काली बीज का उच्चारण कर 'श्मशानचारिणि' कहे। फिर 'नृत्य नृत्य गाय गाय हस हस' कहकर दो क्रोध कहे । 'कारनादिनि' कहकर दो अङ्कुश कहना चाहिए । 'शववाहिनि' कहकर 'मां रक्ष रक्ष' कहने के बाद दो अस्त्र दो क्रोध हृल्लेखा और वह्निजाया कहने के बाद कात्यायनि कहे । ( मन्त्र इस प्रकार है-ओं ह्रीं नमः परमभीषणे हूं हूं नरकङ्कालमालिनि फ्रें फ्रें कात्यायनि व्याघ्रचर्मावृतकटि क्रीं क्रीं श्मशानचारिणि नृत्य नृत्य गाय गाय हस हस हूं हुङ्कारनादिनि क्रों क्रों शववाहिनि मां रक्ष रक्ष फट् फट् हूं हूं नमः स्वाहा कात्यायनि ॥ ८९-९३ ॥

... वाङ्माया हरिसुन्दरी ॥ ९३ ॥

शान्तः षान्तश्च पान्तश्च यान्तो भगविभूषितः ।

नादबिन्दुस्वलङ्कृत्य वदेद्वीजमनुत्तमम् ॥ ९४ ॥

बिन्दुहीनं प्रेतबीजं शान्तं पाशसमन्वितम् ।

बिन्दुनाद भूषितं तु वदेद्वीजं तदुत्तरम् ॥ ९५ ॥

भान्तं बिन्दुयुतं चैव तुरीयस्वरभूषितम् ।

दादिं बिन्दुयुतं स्मृत्वा वामकर्णविभूषितम् ॥ ९६ ॥

नकुलीशो वह्निसंस्थो पाशबिन्दुसमन्वितः ।

बीजं स्मृत्वा तथा मायां तथा दीर्घतनुच्छदम् ॥ ९७ ॥

योगिनीकूटमुच्चार्य्य फेत्कारीकूटमुच्चरेत् ।

शिवशक्तिसमरसचण्डकापालेश्वरि ततः ॥ ९८ ॥

क्रोधं हृदयमुच्चार्य्य चण्डं वदेत्तदन्तरम् ।

कापालेश्वरि चोच्चार्य्य वाक्कालीमारमातरः ॥ ९९ ॥

ततश्च खेचरीकूटं कूटानां कूटमुत्तमम् ।

सुवर्णद्वितयं प्रोच्य महासुवर्ण इत्यपि ॥ १०० ॥

कूटेश्वरि समाभाष्य व्यूहकूटं ततः स्मरेत् ।

रमा त्रपा वाग्भवश्च हृल्लेखा वह्निसुन्दरी ॥ १०१ ॥

स्वर्णकूटेश्वरि...

वाक् माया हरिसुन्दरी के बाद शान्त षान्त पान्त यान्त को भग ( =ऐं) से विभूषित एवं नादविन्दु से अलङ्कृत कर कहना चाहिये । प्रेतबीज को बिन्दु से रहित और शान्त को पाश से युक्त तथा बिन्दु नाद से समन्वित कर कहना चाहिये । भान्त को बिन्दु और चतुर्थ स्वर से युक्त, दादि को वामकर्ण और बिन्दु से युक्त कर कहे । नकुलीश को वह्नि पाश और बिन्दु से संयुक्त कहकर माया तथा दीर्घतनुच्छद (= हूं) फिर योगिनीकूट का उच्चारण कर फेत्कारीकूट का निर्वचन करे। फिर 'शिवशक्ति- समरसचण्डकापालेश्वरि' कहने के बाद क्रोध और हृदय का उच्चारण कर 'चण्ड- कापालेश्वरि' कहकर वाक् काली मार माता का उच्चारण कर कूटों में उत्तम खेचरीकूट कहे । सुवर्ण कूट को दो बार कहकर 'महासुवर्णकूटेश्वरि' कहकर व्यूहकूट का स्मरण करे । रमा त्रपा वाग्भव हल्लेखा वह्निसुन्दरी के बाद स्वर्णकूटेश्वरि कहे । ( मन्त्र इस प्रकार है - ऐं ह्रीं श्रीं पैं से फँ रैं स्हौः षां मीं धूं ह्रां ह्रीं हूं... हसख शिवशक्ति- समरसचण्डकापालेश्वरि हूं नमश्चण्डकापालेश्वरि ऐं क्रीं क्लीं पौं सखक्लक्ष्मभ्रयब्ली क्लीं श्रीं श्रीं क्लीं श्रीं श्रीं महासुवर्णकूटेश्वरि कमलक्षसहब्लूं श्रीं ह्रीं ऐं नमः स्वाहा स्वर्णकूटेश्वरि ) ॥ ९३ १०२ ॥

... प्रोच्य वागू लज्जा कृष्णभार्य्यका ।

पाशमुच्चार्य्य देवेशि ब्रह्मणस्तृतीयं वदेत् ॥ १०२ ॥

बिन्दुयुक्तं धरासंस्थ वामकर्णसमन्वितम् ।

बीजमेतत्समुच्चार्य्य ईंकारं पाशमेव च ॥ १०३ ॥

ततो नादं समुच्चार्य्यं हृल्लेखा भगवति वदेत् ।

वार्त्तालि द्वितयं प्रोच्य वाराहि द्वितयं वदेत् ॥ १०४ ॥

वराहमुखि तथैवोक्त्वा ऐंकारं ग्लूङ्कारं तथा ।

अन्धे अन्धिनि हृदयं रुन्धे रुन्धिनि सञ्चरेत् ॥ १०५ ॥

हृल्लेखा जम्भे जम्भिनि च हृदयं मोहे मोहिनि स्मरेत् ।

नमः स्तम्भे स्तम्भिनि च नमः सर्वदुष्टे चेत्यपि ॥ १०६ ॥

प्रदुष्टानां ततश्चोक्त्वा सर्वेषां सर्ववाक्चित्त ।

चक्षुः श्रोत्रमुखगतिजिह्वास्तम्भं कुरुद्वयम् ॥ १०७ ॥

शीघ्र वशं कुरु कुरु शीघ्रं वशं कुरुद्वयम् ।

वाक् लज्जा कृष्ण की स्त्री पाश का उच्चारण कर हे देवेशि ! ब्रह्म का तृतीय वर्ण बिन्दुयुक्त धरा एवं वामकर्ण से समन्वित कर कहे। ईंकार पाश नाद का उच्चारण कर हल्लेखा, फिर 'भगवति, वार्त्तालि' को दो बार 'वाराहि' को दो बार उसी प्रकार 'वराहमुखि' को दो बार कहकर ऐं ग्लूं कहे । 'अन्धे अन्धिनि' कहकर 'रुन्धे रुन्धिनि' कहे । हल्लेखा के बाद 'जम्भे जम्भिनि' फिर हृदय फिर 'मोहे मोहिनि' फिर 'नमः' फिर 'स्तम्भे स्तम्भिनि' फिर 'नमः' फिर 'सर्वदुष्टे प्रदुष्टानां सर्वेषां सर्ववाक्चित्तचक्षुः श्रोत्रमुखगतिजिह्वास्तम्भं' कहकर 'कुरु' को दो बार कहने के बाद 'शीघ्रं वशं कुरु कुरु शीघ्रं वशं' के बाद दो 'कुरु' कहे। (मन्त्र - ऐं ह्रीं श्रीं आं ग्ली ईं आं अं नमो भगवति वार्त्तालि वार्त्तालि वाराहि वाराहि वराहमुखि वराहमुखि ऐं ग्लूं अन्धे अन्धिनि नमः रुन्धे रुन्धिनि नमः जम्भे जम्भिनि नमः मोहे मोहिनि नमः स्तम्भे स्तम्भिनि नमः सर्वदुष्टे प्रदुष्टानां सर्ववाक्चित्तचक्षुः श्रोत्रमुखगतिजिह्वास्तम्भं कुरु कुरु शीघ्रं वशं कुरु कुरु) ।। १०२-१०८ ॥

वाग्भवं कालीबीजं च श्रीबीजं तदनन्तरम् ॥ १०८ ॥

ठपञ्चकं समाभाष्य तारहेतुं क्रोधमुच्चरेत् ।

अस्त्रं द्विठं वार्त्तालि च भवेद् द्वादशिकामपि ॥ १०९ ॥

ग्लुं ह्रीं बीजं समुच्चार्य्य वार्त्तालि वाराहि वदेत् ।

ह्रीं ग्लुं तावनुस्मृत्य द्वादशिकं बीजमुल्लिखेत् ॥ ११० ॥

चण्डवार्त्तालि सम्प्रोच्य वाङ्मायाविष्णुवल्लभाः ।

आङ्कारं ग्लूङ्कारं चैव ईंकारं वार्त्तालिद्वयम् ॥ १११ ॥

वाराहिद्वितयं प्रोच्य शत्रून् दह दहेति च ।

प्रस प्रसेति संलेख्य चतुर्थबीजमुच्चरेत् ॥ ११२ ॥

तत आंच ततो ग्लुं च ततो हूं च फटं तथा ।

जय वार्त्तालि सम्भाष्य वाङ्माया हरिवल्लभा ॥ ११३ ॥

वाग्भव काली बीज श्रीबीज पाँच ठ तार हेतु क्रोध अस्त्र दो ठ 'वार्तालि द्वादशिका' ग्लुं ह्रीं बीज का उच्चारण कर 'वार्त्तालि वाराहि' कहना चाहिये । ह्रीं ग्लुं के बाद उन दोनों का स्मरण कर द्वादशिक बीज का उल्लेख करे । 'चण्डवार्त्तालि' कहकर वाक् माया विष्णुवल्लभा आङ्कार ग्लुङ्कार ईकार फिर 'वार्त्तालि' को दो बार 'वाराही बीज' (=ईं) का उच्चारण करे। इसके बाद आं ग्लुं हूं फट् 'जय वार्त्तालि' कहे । (मन्त्र इस प्रकार है- ऐं क्रीं श्रीं ठः ठः ठः ठः ठः ओं ऐं हूं फट् ठः ठः वार्त्तालि ऐं ग्लुं ह्रीं वार्त्तालि वाराहि ह्रीं ग्लुं वार्त्तालि वाराहि ऐं चण्डवार्त्तालि ऐं ह्रीं श्री आं ग्लूं ई वार्तालि वार्त्तालि वाराहि वाराहि शत्रून् दह दह ग्रस यस ईं आं ग्लुं हूं फट् जयवार्त्तालि) ।। १०८-११३ ॥

महाबीजं समुच्चार्य्य प्रेतबीजं समुच्चरेत् ।

तारमायाक्रोधाश्चैव शाकिनीबीजमुच्चरेत् ॥ ११४ ॥

राज्यप्रदे समाभाष्य खफ्रेंकारबीजमुच्चरेत् ।

फेत्कारीबीजमुच्चार्य्य उग्रचण्डे स्मरेत् पुनः ॥ ११५ ॥

रणमर्द्दनि सम्भाष्य क्रोधं च शाकिनीं वदेत् ।

योगिनी च वधूबीजं सदेति रक्ष रक्ष च ॥ ११६ ॥

त्वं रूपं मां रूपं च जूं सं सर्गान्तमेव च ।

मृत्युहरे नमः प्रोच्य वह्निजायां...

वाक् माया हरिवल्लभा महाबीज प्रेतबीज तार माया क्रोध शाकिनीबीज का उच्चारण करे । 'राज्यप्रदे' कहकर '' कहे । फेत्कारी बीज का उच्चारण कर 'उग्रचण्डे रणमर्दिनि' कहकर क्रोध और शाकिनी बीज कहे । योगिनी और वधू बीज कहकर 'सदा रक्ष रक्ष त्वं रूपं मां रूपं च जूं सः मृत्युहरे नमः' कहकर वह्नि जाया कहे । (मन्त्र इस प्रकार है - ऐं ह्रीं श्रीं श्रृं? स्हौः ओं ह्रीं हूं फ्रें राज्यप्रदे ख्फ्रें हसख् उग्रचण्डे रणमर्दिनि हूं फ्रें छ्रीं स्त्री सदा रक्ष रक्ष त्वं रूपं मां रूपं च जूं सः मृत्युहरे नमः स्वाहा ) ।। ११४-११७ ॥

... द्विबिन्दुकं ॥ ११७ ॥

स्मरेदुग्रचण्डे चैव वाग्भवं ( ह्रीं स्मरं ) पुनः ।

योगिनी कूटमुच्चार्य्य फेत्कारीकूटमुद्धरेत् ॥ ११८ ॥

वामनेत्रयुतं बीजं भजतां कामदं महत् ।

तारमाया हसफ्रें क्रोधं च शाकिनीं चरेत् ॥ ११९ ॥

उप्रचण्डे समाभाष्य बीजं चण्डेश्वरं ततः ।

महाप्रेतं समाभाष्य वह्नेर्भार्यां लिखेत्ततः ॥ १२० ॥

श्मशानोप्रचण्डे इत्युक्त्वा वाग्भवपञ्चकं वदेत् ।

ततश्च फेत्कारीकूटं वामनेत्रयुतं स्मरेत् ॥ १२१ ॥

अमृताख्यं ततः स्मृत्वा डाकिनीं वामनेत्रिकाम् ।

फेत्कारी च ततो देवि वामनेत्रविभूषिताम् ॥ १२२ ॥

रुद्रचण्डा चतुर्थ्यन्ता सानुहृद्वह्निवल्लभा ।

सम्बुद्ध्यन्ता रुद्रचण्डा....

दो बिन्दु (= अ ) 'उग्रचण्डे' वाग्भव ( ह्रीं और स्मर) पुनः योगिनीकूट का उच्चारण कर फेत्कारीकूट को कहे। महान् कामद को वामनेत्र से युक्त कर कहना चाहिये। तार माया हस्फ्रें क्रोध शाकिनी को कहकर 'उग्रचण्डे' फिर चण्डेश्वर बीज फिर महाप्रेत को कहकर वहिभार्या को कहे । फिर 'श्मशानोग्रचण्डे' कहकर पाँच वाग्भव बीज कहे । इसके बाद फेत्कारी कूट को वामनेत्र से युक्त कर कहना चाहिये । अमृत डाकिनी वामनेत्र वाली, वाम नेत्रविभूषित फेत्कारी रुद्रचण्डा को चतुर्थ्यन्त फिर हृदय और अग्निवल्लभा को कहना चाहिये । पुनः 'रुद्रचण्डा' का सम्बोधन कहे । ( मन्त्र इस प्रकार है-अः उग्रचण्डे ऐं ह्रीं क्लीं योगिनीकूट... हसखों हसख्की औ ह्री हस हूं फ्रें उग्रचण्डे चण्डेश्वरबीज... महाप्रेत चण्डकूटे ख्फ्रें ग्लक्षकमही रुद्र- चण्डायै रहीं नमः स्वाहा रुद्रचण्डे) ॥ ११७-१२३ ॥

... वाग्भवपञ्चकं पुनः ॥ १२३ ॥

फेत्कारीकूटं ततो देवि वामनेत्रविभूषितम् ।

चण्डकूटे समाभाष्य डाकिनीं बीजमुद्धरेत् ॥ १२४ ॥

धराकूटं समाभाष्य तुरीयस्वरभूषितम् ।

प्रचण्डायै ततश्चोक्त्वा हृदयं वह्निवल्लभा ॥ १२५ ॥

प्रचण्डे...

पाँच वाग्भव वामनेत्र विभूषित फेत्कारीकूट फिर 'चण्डकूटे' कहकर डाकिनी बीज कहना चाहिये । तुरीयस्वरविभूषित धराकूट कहे। फिर 'प्रचण्डायै' कहकर हृदय और अग्निवल्लभा के बाद 'प्रचण्डे' कहना चाहिये। (मन्त्र-ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं.... चण्डकूटे ख्फ्रें ग्लक्षकमहग्री प्रचण्डायै नमः स्वाहा प्रचण्डे ) ॥ १२३ १२६ ॥

.... वाग्भवं पञ्च फेत्कारी मायया युताम् ।

सन्धिकूटं ततश्चोक्त्वा न्ता हि चण्डनायिका ॥ १२६ ॥

ङ्कारं च समुच्चार्य्य नमः स्वाहे ततः परम् ।

ततश्चण्डनायिके च वाग्भवपञ्चकं ततः ॥ १२७ ॥

तथैव फेत्कारीकूटं कूटं च ब्रह्मनिर्मितम् ।

चण्डेश्वरं ततो देवि वामाक्षि बिन्दुसंयुतम् ॥ १२८ ॥

महाप्रेतं समुच्चार्य क्लीं हृद्वह्निवल्लभा ।

चण्डे चोक्त्वा महादेवि ...

पाँच वाग्भव मायासहित फेत्कारी सन्धिकूट कहकर चतुर्थ्यन्त चण्डनायिका, फिर ङ्कार के बाद 'नमः स्वाहा' कहे । पुनः 'चण्डनायिके' फिर पाँच वाग्भव फिर फेत्कारीकूट फिर ब्रह्मकूट उसके बाद वामाक्षिबिन्दुयुक्त चण्डेश्वरकूट तत्पश्चात् महाप्रेत बीज का उच्चारण कर क्लीं हृदय और अग्निवल्लभा का उच्चारण कर 'चण्डे' कहना चाहिये । (मन्त्र इस प्रकार है-ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं हसों ह्रीं... चण्डनायिकायै श्रृं नमः स्वाहा चण्डनायिके ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं हसखों हसखफूं... महाप्रेतबीज क्लीं नमः स्वाहा चण्डे ) ।। १२६-१२९ ॥

... वाग्भवपञ्चकं वदेत् ॥ १२९ ॥

फेत्कारीकूटं तथेशानि नादं वामाक्षि संयुतम् ।

चण्डवत्यै ततश्चोक्त्वा क्ष्म्लूंकारं हृदयं तथा ॥ १३० ॥

स्वाहा चण्डवति चोक्त्वा वाग्भवपञ्चकं पुनः ।

फेत्कारीकूटं तथा देवि वायुकूटं ततो वदेत् ॥ १३१ ॥

डाकिनीं च ततो देवि वामनेत्रविभूषिताम् ।

अतिप्रेतं समाराध्य चातिचण्डां महेश्वरि ॥ १३२ ॥

चतुर्थ्यन्तां च हृदयममृतं बीजमुद्धरेत् ।

नमः स्वाहे चातिचण्डे वाग्भवपञ्चकं चरेत् ॥ १३३ ॥

'महादेवि' उसके बाद पाँच वाग्भव कहे। फिर हे ईशानि! फेत्कारीकूट को वामाक्षिसंयुक्त नाद के साथ कहे। फिर 'चण्डवत्यै' कहकर 'क्ष्म्लू' तथा हृदय कहे । 'स्वाहा चण्डवति' कहकर फिर पाँच वाग्भव पुनः फेत्कारीकूट फिर वायुकूट उसके बाद वामनेत्रविभूषित डाकिनी पुनः अतिप्रेत को कहकर हे महेश्वरि ! चतुर्थ्यन्त अतिचण्डा कहने के बाद हृदय और अमृतबीज का उद्धार करना चाहिये। फिर 'नमः स्वाहा अतिचण्डे' कहे । ( मन्त्र - महादेवि ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं हसखफ्री चण्डवत्यै क्ष्म्लूं नमः स्वाहा चण्डवति, ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं हसखफ्रें क्षम्लकस्हरयत्रूं ख्क्रीं अतिप्रेत अतिचण्डायै नमः ग्लूं नमः स्वाहा अतिचण्डे) ॥ १२९-१३३ ।।

फेत्कारीकूटं देवेशि श्मशानकूटक पुनः ।

डाकिनीं च समाभाष्य वामनेत्रविभूषिताम् ॥ १३४ ॥

महाप्रेतं तथोच्चार्य चण्डिकायै स्मरेत्ततः ।

रौद्रबीजं समुच्चार्य्य नमः स्वाहे ततः परम् ॥ १३५ ॥

चण्डिके च तथोच्चार्य्य वाग्भवपञ्चकं पुनः ।

फेत्कारीकूटं चोच्चार्य्य स्हफ्रींकारं तदनन्तरम् ॥ १३६ ॥

कामक्रोधौकारञ्च क्लह्रींकारं तदनन्तरम् ।

कात्यायन्यै ख्फ्रेंकारं च कामदायिन्यै ततः परम् ॥ १३७ ॥

हूङ्कारं च नमः स्वाहे ज्वालाकात्यायनि ततः ।

वाग्भवान् पञ्च संलिख्य कामक्रोधौ रमा ततः ॥ १३८ ॥

द्रावणं च समुच्चार्य्य महिषमर्दिनि ततः ।

पाँच वाग्भव फेत्कारीकूट श्मशानकूट वामनेत्रविभूषितडाकिनी महाप्रेत का उच्चारण कर 'चण्डिकायै' कहकर पाँच वाग्भव फिर फेत्कारी कूट का उच्चारण कर 'स्फी' कहे। उसके बाद काम क्रोध फिर क्ल ह्रीं फिर 'कात्यायन्यै ख्फ्रें काम- दायिन्यै हूं नमः स्वाहा ज्वालाकात्यायनि कहे। फिर पाँच वाग्भव लिखकर काम क्रोध रमा द्रावण बीजों का उच्चारण कर 'महिषमर्दिनि' कहे (मन्त्र-ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं हसकें श्मशानकूट ... ख्फ्रीं महाप्रेत चण्डिकायै नमः स्वाहा चण्डिके ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं हसख्ये स्हफ्री क्लीं हूं क्लह्रीं कात्यायन्यै ख्फ्रें कामदायिन्यै हूं नमः स्वाहा ज्वाला- कात्यायनि ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं क्लीं हूं श्री हभ्री महिषमर्दिनि ) ॥ १३४-१३९॥

श्रीकारं चैव देवेशि वाग्भवाः पञ्च एव च ॥ १३९ ॥

उन्मत्तमहिषमर्दिनि च ततः परम् ।

ततो वाग्भवान् पञ्च नक्षत्रकूटं संलिखेत् ॥ १४० ॥

शङ्खकूटं ततश्चोक्त्वा महामहेश्वरि वदेत् ।

ततश्च तुम्बुरेश्वरि वह्निजाया ततः परम् ॥ १४१ ॥

तुम्बुरेश्वरि ततश्चोक्त्वा तारत्रपे ततः परम् ।

कामक्रोधामृतांश्चैव पाशं वाग्भवमेव च ॥ १४२ ॥

क्रोधप्रेतौ शाकिनी च चैतन्यभैरवि तथा ।

शाकिनी च प्रेताशौ पाशवागमृतक्रोधाः ॥ १४३ ॥

काममाये तारास्त्रे च द्विठश्चैतन्यभैरवि ।

हे देवेशि श्रीङ्कार पाँच वाग्भव फिर 'उन्मत्तमहिषमर्दिनि' तत्पश्चात् पाँच वाग्भव फिर नक्षत्रकूट... शङ्खकूट... कहकर 'महामहेश्वरि' कहे। फिर 'तुम्बुरेश्वरि' कहकर वह्निजाया कहे । पुनः 'तुम्बुरेश्वरि' कहने के बाद तार त्रपा काम क्रोध अमृत पाश वाग्भव क्रोध प्रेत शाकिनी बीजों को कहकर 'चैतन्यभैरवि' कहे। अनन्तर शाकिनी प्रेत अङ्कुश पाश वाक् अमृत क्रोध काम माया तार अस्त्र दो ठ फिर 'चैतन्यभैरवि' कहे (मन्त्र इस प्रकार है- श्रीं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं उन्मत्तमहिषमर्दिनि ऐं ऐं ऐं ऐं ऐ नक्षत्रकूट ... शङ्खकूट... महामहेश्वरि तुम्बुरेश्वरि स्वाहा तुम्बुरेश्वरि ओं ह्रीं क्लीं हूं ग्लूं आ ऐ हूं स्हौः फ्रें चैतन्यभैरवि फ्रें फ्रें स्हौः क्रों आं ऐ ग्लूं हूं क्लीं ह्रीं ओं फट् टः हूं ठः चैतन्यभैरवि ) ।। १३९-१४४ ।।

वाग्भवाः पञ्च च तदा तदा मुण्डमधुमती ॥ १४४ ॥

चतुर्थ्यन्ता समुच्चार्य्या तथैव शक्तिभूतिनी ।

ततो मायात्रयं चोक्त्वा फट्कारं मधुमत्यपि ॥ १४५ ॥

सम्बुद्ध्यन्ता समुच्चार्य्य वद वद ततः परम् ।

वाग्वादिनि प्रेतबीजं बिन्दुनादसमन्वितम् ॥ १४६ ॥

विसर्गहीनं चोच्चार्य्य क्लिन्नक्लेदिनि ततः परम् ।

महाक्षोभं कुरु तदा प्रेतबीजमतः परम् ॥ १४७ ॥

वाग्वादि (नि) भैरवि च माया च शाकिनी तथा ।

खफ्रेंकारञ्च समुच्चार्य्य कामबीजं ततः परम् ॥ १४८ ॥

पूर्णेश्वरि सर्वकामान् पूरयानु तारं लिखेत् ।

अस्त्रं स्वाहा पूर्णेश्वरि सम्बोध्यन्ता ततः परम् ॥ १४९ ॥

पाँच वाग्भव उसके बाद चतुर्थ्यन्त 'मुण्डमधुमती' उसी प्रकार 'शक्तिभूतिनी' का उच्चारण करे । इसके बाद तीन मायाबीज फट्कार और सम्बोधनान्त 'मधुमती' को कहने के बाद 'वद वद वाग्वादिनि' फिर बिन्दुनादयुक्त प्रेतबीज तत्पश्चात् 'वाग्वादिनि भैरवि' कहे। फिर माया शाकिनी ख्फ्रेंकार कामबीज कहने पर 'पूर्णेश्वरि सर्वकामान् पूरय' के बाद तार अस्त्र स्वाहा, फिर सम्बोधनान्त 'पूर्णेश्वरि' कहे। (मन्त्र इस प्रकार है ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं मुण्डमधुमत्यै शक्तिभूतिन्यै ह्रीं ह्रीं ह्रीं फट् मधुमति वद वद वाग्वादिनि हौं क्लिन्नक्लेदिनि महाक्षोभं कुरु स्हौः वाग्वादिनि भैरवि ह्रीं फ्रें ख्फ्रें क्लीं पूर्णेश्वरि सर्वकामान् पूरय ओ फट् स्वाहा पूर्णेश्वरि ) । १४४-१४९ ॥

वाग्भवपञ्चकं चैव रक्तरक्ते ततो लिखेत् ।

महारक्तचामुण्डेश्वरि चैव ततः परम् ॥ १५० ॥

अवतरद्वयं चैव वह्निपत्नी तदा प्रिये ।

ततो रक्तचामुण्डेश्वरि संलिख्य माहेशि ॥ १५१ ॥

तारत्रपारमास्त्रिपुरावागीश्वरी तथा ।

ङेऽन्ता नमः समुच्चार्य्य पुरा वागीश्वरि तथा ॥ १५२ ॥

हसें बीजं तदा देवि कूटं मारं तथा परम् ।

महाप्रेतं ततः कालभैरवि च ततः परम् ॥ १५३ ॥

निशाकूटकूर्च्चकूटौ तुङ्गप्रतुङ्गकूटकौ ।

चण्डवारुणि सम्प्रोच्य तारमघोरे च तदा ॥ १५४ ॥

पाशयुक्तं हकारञ्च घोरे तदनु वदेत् ।

त्रपा घोरघोरतरे दीर्घं तनुच्छदं ततः ॥ १५५ ॥

सर्वतः शर्वशर्वे च हेंकारं च ततः प्रिये ।

नमस्ते रुद्ररूपे च ह्रविसर्गी ततः शृणु ॥ १५६ ॥

पाँच वाग्भव के बाद 'रक्तरक्ते' लिखे। उसके बाद 'महारक्तचामुण्डेश्वरि' कहने के बाद दो बार 'अवतर' कहे। हे प्रिये! उसके बाद वह्निपत्नी फिर 'रक्तचामुण्डेश्वरि' लिखकर 'माहेशि' तार त्रपा रमा के बाद चतुर्थ्यन्त त्रिपुरावागीश्वरी का उच्चारण कर हसें बीज, फिर मारकूट फिर महाप्रेत तत्पश्चात् 'कालभैरवि' के बाद निशाकूट कूर्चकूट तुङ्गकूट प्रतुङ्गकूट कहना चाहिए । फिर 'चण्डवारुणि' कहकर तार फिर 'अघोरे' तत्पश्चात् पाशयुक्त हकार फिर 'घोरे' कहे । त्रपा 'घोरघोरतरे' दीर्घ तनुच्छद फिर 'सर्वतः शर्वशर्ते' हेंकार 'नमस्ते रुद्ररूपे' फिर विसर्गसहित ह कहे। (मन्त्र इस प्रकार है-ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं रक्तरक्ते महारक्तचामुण्डेश्वरि अवतर अवतर स्वाहा रक्तचामुण्डेश्वरि माहेशि ओं ह्रीं श्रीं त्रिपुरावागीश्वर्यै हसें मारकूट.... महाप्रेतबीज... कालभैरवि निशाकूट... कूर्चकूट .... तुङ्गप्रतुङ्गकूट ... चण्डवारुणि ओं अघोरे हा हा घोरे घोरघोरतरे हूं सर्वतः शर्वशर्वे हें नमस्ते रुद्ररूपे हः) ॥। १५०-१५६ ॥

प्रणवं च तथा घोरे त्रपालक्ष्म्यङ्कुशा अपि ।

कामाङ्गना वाग्भवाश्च गारुडं योगिनी प्रिये ॥ १५७ ॥

शाकिनी च कालीबीजं फेत्कारी तदनन्तरम् ।

क्रोधबीजं अघोरे च सिद्धिं मे देहि दापय ॥ १५८ ॥

वह्निजायां ततो दद्याद्धनदानु घोरे वदेत् ।

तारमाये शाकिनी च क्रोधबीजं च पार्वति ॥ १५९ ॥

महादिग्वीर तदा वाग्रमास्मरपाशकाः ।

मुक्तकेशि चण्डाट्टहासिनि योगिनी तथा ॥ १६० ॥

वधूकाल्यमृतान्युक्त्वा मुण्डमालिनि संवेदत् ।

ततस्तारं वह्निजायां दिगम्बरि च तारकम् ॥ १६१ ॥

वाक्त्रपाकामकमलाकालेश्वरि ततो हरेत् ।

सर्वमुखस्तम्भनि च सर्वजनमनोहरि ॥ १६२ ॥

सर्वजनवशङ्कर सर्वदुष्टनिमर्द्दिनि ।

सर्वस्त्रीपुरुषाकर्षिणि छिन्धि शृङ्खलां ततः ॥ १६३ ॥

त्रोटयद्वितयं प्रोच्य सर्वशत्रून् वदेत् प्रिये ।

जम्भयद्वितयं चोक्त्वा द्विषां निर्द्दलयद्वयम् ॥ १६४ ॥

सर्वान् स्तम्भय द्वितयं मोहनास्त्रेण द्वेषिणः ।

उच्चाटयद्वयं प्रोक्त्वा सर्ववश्यं कुरुद्वयम् ॥ १६५ ॥

वह्निपत्नी देहि युगं ततः सर्वं स्मरेत्प्रिये ।

कालरात्र्यै कामिन्यै च गणेश्वय्यै नमस्तदा ॥ १६६ ॥

हे प्रिये ! प्रणव 'घोरे' त्रपा लक्ष्मी अङ्कुश कामाङ्गना वाग्भव गरुड़ योगिनी शाकिनी काली फेत्कारी क्रोध बीजों के बाद 'अघोरे सिद्धिं मे देहि दापय' के बाद वह्निजाया कहे धनदाबीज 'घोरे' कहकर हे पार्वति! तार माया शाकिनी क्रोध बीज महादिग्वीर फिर वाक् रमा स्मर पाश बीज के बाद 'मुक्तकेशि चण्डाट्टहासिनि' कहकर योगिनी वधू काली अमृत बीजों को कहकर 'मुण्डमालिनि' कहे। इसके बाद तार वह्निजाया बीज फिर 'दिगम्बरि' के बाद तार वाक् त्रपा काम कमला के बाद 'कालेश्वरि' कहे । फिर 'सर्वमुखस्तम्भिनि सर्वजनमनोहरि सर्वजनवशङ्करि सर्वदुष्ट- निमर्दिनि सर्वस्त्रीपुरुषाकर्षिणि छिन्धि शृङ्खलां' कहने के बाद 'त्रोटय' दो बार कहकर 'सर्वशत्रून्' कहे। फिर 'जम्भय' दो बार फिर 'द्विषान्' फिर 'निर्दलय' दो बार फिर 'सर्वान्' कहे । 'स्तम्भय' दो बार कहने के बाद 'मोहनास्त्रेण द्वेषिणः' का उच्चारण करे । 'उच्चाटय' को दो बार कहकर 'सर्ववश्यं' के बाद 'कुरु' को दो बार कहे । फिर वह्निपत्नी फिर 'देहि' को दो बार फिर 'सर्वम्' का स्मरण करना चाहिये । हे प्रिये इसके बाद 'कालरात्र्यै कामिन्यै गणेश्वर्यै नमः कालरात्रि' कहे (मन्त्र इस प्रकार है- ओं घोरे ह्रीं श्रीं क्रीं क्लं ऐं क्रौं छीं फ्रें क्रीं ख्फ्रें हूं अघोरे सिद्धिं मे देहि दापय स्वाहा क्षं अघोरे ओं ह्रीं फ्रें हूं महादिग्वीरे (महादिगम्बरि) ऐं श्रीं क्लीं आं मुक्तकेशि चण्डा- ट्टहासिनि छ्री स्त्रीं क्रीं ग्लौं मुण्डमालिनि ओं स्वाहा। दिगम्बरि ओं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं कालेश्वरि सर्वमुखस्तम्भिनि सर्वजनमनोहरि सर्वजनवशङ्करि सर्वदुष्टनिमर्दिनि सर्वस्त्री- पुरुषाकर्षिणि छिन्धि शृङ्खलां त्रोटय त्रोटय सर्वशत्रून् जम्भय जम्भय द्विषान् निर्दलय निर्दलय सर्वान् स्तम्भय स्तम्भय मोहनास्त्रेण द्वेषिण उच्चाटयोच्चाटय सर्ववश्यं कुरु कुरु स्वाहा देहि देहि सर्वं कालरात्र्यै कामिन्यै गणेश्वर्यै नमः कालरात्रि ) ॥१५७ १६६ ।।

कालरात्रि ततश्चोक्त्वा तारवाग्भवपाशकाः ।

ततः कलारामकलां सबिन्दुं शृणु पार्वति ॥ १६७ ॥

एह्येहि भगवति ततः किरातेश्वरि ततः परम् ।

विपिनकुसुमावतंसिनि कर्णे ततः प्रिये ॥ १६८ ॥

भुजगनिर्मोचकञ्चुकिनि मायाद्वयं ततः ।

सबिन्दुकं हृद्वयञ्च कहद्वयं ज्वलद्वयम् ॥ १६९ ॥

प्रज्वलद्वितयं देवि सर्वसिद्धिं ददद्वयम् ।

देहिद्वयं दापय च सर्वशत्रून् दहद्वयम् ॥ १७० ॥

बन्धद्वयं प (च) द्वयं मथद्वयं महेश्वरि ।

विध्वंसयद्वयं प्रोच्य कवचत्रितयं ततः ॥ १७१ ॥

अस्त्रद्वह्निभार्य्या च किरातेश्वरि संवदेत् ।

हे पार्वति ! तार वाग्भव पाश के बाद कला राम कला को बिन्दुसहित कहे । 'एहि एहि भगवति' कहने के बाद 'किरातेश्वरि विपिनकुसुमावतंसिनि कर्णे भुजग- निर्मोककञ्चुकिनि' कहे। फिर दो माया बीज बिन्दुयुक्त दो ह, फिर कह दो बार, ज्वल दो बार, प्रज्ज्वल दो बार के बाद 'सर्वसिद्धि' कहकर दो-दो बार 'दद देहि और दापय' कहे। 'सर्वशत्रून्' कहने के बाद 'दह बन्ध पच मथ विध्वंसय' को दो-दो बार कहकर कवच को तीन बार कहने के उपरान्त अस्त्र हृदय और वह्निभार्या को कहकर 'किरातेश्वरि' कहना चाहिए। ( मन्त्र इस प्रकार है-ओं ऐं आं ईं णं ई एहि एहि भगवति किरातेश्वरि विपिनकुसुमावतंसिनि कर्णे भुजगनिर्मोककञ्चुकिनि ह्रीं ह्रीं हं हं कह कह ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल सर्वसिद्धिं दद दद देहि देहि दापय दापय सर्वशत्रून् दह दह बन्ध बन्ध पच पच मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय हूं हूं हूं फट् नमः स्वाहा किरातेश्वरि ) ।। १६७-१७२ ॥

वाग्भवपञ्च च तथा वज्रकुब्जिके ततः स्मरेत् ॥ १७२ ॥

प्रलयबीजं प्राणेशि त्रैलोक्याकर्षिणि ततः ।

त्रपाकामाङ्गगाविणि स्मराङ्ग (ने) ततोऽनघे ॥ १७३ ॥

महाक्षोभकारि (णि) ततो वाग्भवो मीनकेतनः ।

द्विबिन्दुकश्चन्द्रबीजश्चतुर्द्दशस्वरान्वितः ॥ १७४ ॥

द्विबिन्दुकं पुनश्चन्द्रं ततो वज्रकुब्जिके च ।

नमो भगवति तदा ततो घोरे महेश्वरि ॥ १७५ ॥

भोगबीजं ततो देवि श्रीकुब्जिके ततः परम् ।

सानुबीजं सकारञ्च जीवारूढं रेफान्वितम् ॥ १७६ ॥

कलया भूषितं ज्ञेयं तदुत्तरं शृणु प्रिये

बीजं तत्परमेशानि वामकर्णविभूषितम् ॥ १७७॥

ङ अ ण न म उच्चार्य अघोरामुखि तत्परम् ।

छकारं बिन्दुसहितमाद्यदीर्घत्रयान्वितम् ॥ १७८ ॥

क्रमेण त्रीणि बीजानि संलिख्य प्राणवल्लभे ।

किलिद्वयं ततो विच्चे पादुकां पूजयाम्यपि ॥ १७९ ॥

नमः समयकुब्जिके....

पाँच वाग्भव फिर 'वज्रकुब्जिके' फिर प्रलयबीज 'प्राणेशि त्रैलोक्याकर्षिणि' के बाद त्रपा काम बीज फिर 'अङ्गद्राविण स्मराङ्गने' फिर 'अनघे महाक्षोभकारिणि' कहे । फिर वाग्भव कामबीज दो बिन्दुओं वाला तथा चौदह स्वरों से युक्त चन्द्रबीज फिर दो बिन्दुओं वाला चन्द्रबीज फिर 'वज्रकुब्जिके नमो भगवति घोरे महेश्वरि' फिर भोगबीज फिर 'श्रीकुब्जिके फिर सानुबीज जीव पर आरूढ और रेफयुक्त सकार कला से भूषित जानना चाहिये। उसके बाद हे प्रिये! वामकर्ण (=ॐ) से विभूषित वह बीज कहकर ङ अ ण न म का उच्चारण कर 'अघोरामुखि' कहे। फिर बिन्दु एवं प्रथम तीन दीर्घसहित छह का उच्चारण कर हे प्राणवल्लभे क्रम से तीन बीज लिखे । उसके बाद किलि को दो बार 'विच्चे' को कहकर 'पादुकां पूजयामि नमः समयकुब्जिके' कहना चाहिये (मन्त्र इस प्रकार है-ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं वज्रकुब्जिके हसखफ्री प्राणेशि त्रैलोक्याकर्षिणि ह्रीं क्लीं अङ्गद्राविण स्मराङ्गने अनघे महाक्षोभकारिणि ऐं क्लीं ग्लौः ग्लं ग्लां ग्लिं ग्लीं ग्लुं ग्लूं ग्लं ग्लूं ग्ललं ग्लें ग्लै ग्लों ग्लौं ग्ल: ग्लौः ग्लाँ वज्रकुब्जिके नमो भगवति घोरे महेश्वरि हंसखफ्री देवि श्रीकुब्जिके रहीं स्त्री स्यूं ङ ज ण न म अघोरामुखि छां छीं छू किलि किलि विच्चे पादुकां पूजयामि नमः समयकुब्जिके) ॥ १७२-१८० ॥

...तारमैधत्रपास्मराः ।

शाकिनी प्रलयश्चैव फेत्कारी तदनन्तरम् ॥ १८० ॥

भाषाख्यकूटं ततो देवि चतुर्थस्वरभूषितम् ।

षष्ठस्वरविहीनं च भगवति वदेत्ततः ॥ १८९ ॥

विच्चे घोरे ततोऽपि स्यात्फेत्कारी वाग्भवान्विता ।

श्रीकुब्जिके ततः पश्चात्सानुबीजं ततः परम् ॥ १८२ ॥

तदेव षष्ठस्वरेण समुद्धरेन्महेश्वरि ।

प्रेतबीजं विसर्गहीनं ङ अ ण न म इत्यपि ॥ १८३ ॥

अघोरामुखि तदा छस्य बीजत्रयं तथा ।

किलि किलि ततो विच्चे कामिनी क्रोध एव च ॥ १८४ ॥

प्रेतबीजं पादुकां च पूजयामि नमः स्वाहा ।

तार मेधा त्रपा स्मर शाकिनी प्रलय फेत्कारी बीज उसके बाद चतुर्थस्वर से युक्त और षष्ठ स्वर से रहित भासा नामक कूट को कहे। इसके बाद 'भगवति' कहे । तत्पश्चात् 'विच्चे घोरे' कहने के पश्चात् फेत्कारी वाग्भव को कहना चाहिए । 'श्रीकुब्जिके' कहने के बाद सानुबीज को षष्ठस्वर से युक्त कर कहे । विसर्गरहित प्रेतबीज फिर ङ अ ण न म को कहे। फिर 'अघोरामुखि' और छह का बीज कहे । तत् पश्चात् 'पादुकां पूजयामि नमः स्वाहा' कहे । ( मन्त्र इस प्रकार है-ओं ऐं ह्रीं क्ली फ्रें हसफ्री हसखों क्षहम्लन्ग्री भगवति विच्चे घोरे हसखों ऐं श्रीं कुब्जिके रहीं रहूं स्हौ ङ ण न म अघोरामुखि छां छीं छू किलि किलि विच्चे स्त्रीं हूं स्हौः पादुकां पूजयामि नमः स्वाहा ) ।।१८० १८५।।

मोक्षकुब्जिके ततोऽपि स्यान्नमो भगवति तथा ॥ १८५ ॥

सिद्धे तदा महेशानि प्रलयत्रयमुद्धरेत् ।

दीर्घाद्यत्रयसंयुक्तं कुब्जिके तदनन्तरम् ॥ १८६ ॥

सानुत्रयं तथा देवी दीर्घत्रयविभूषितम् ।

खगे ततो वाग्भवश्च अघोरे तदनन्तरम् ॥ १८७ ॥

अघोरामुखि ततः किलिद्वयं तथोद्धरेत् ।

विच्चे पादुकां चोक्त्वैव पूजयामि नमस्ततः ॥ १८८ ॥

भोगकुब्जिके तथैव...

'मोक्षकुब्जिके' फिर 'नमो भगवति सिद्धे महेशानि के बाद प्रथम तीन दीर्घ स्वर प्रलय बीज को तीन बार कहे । इसके बाद 'कुब्जिके' कहे। फिर तीन दीर्घस्वर से युक्त तीन सानुबीज कहे । 'खगे' कहने के बाद वाग्भव फिर 'अघोरे अघोरामुखि' फिर 'किलि' को दो बार कहे 'विच्चे' और 'पादुकां' को कहकर 'पूजयामि नमः भोगकुब्जिके' कहना चाहिये । ( मन्त्र इस प्रकार है - मोक्षकुब्जिके नमो भगवति सिद्धे महेशानि हसां हसफ्री हसकूं कुब्जिके रहां रहीं रहूं खगे ऐं अघोरे अघोरामुखि किलि किलि विच्चे पादुकां पूजयामि नमः भोगकुब्जिके) ॥ १८५-१८९ ॥

.. मैधत्रपारमास्तथा ।

फेत्कारी च जीवषान्तौ वह्न्यारूढ़ौ तारान्वितौ ॥ १८९ ॥

भगवत्यम्ब ततः कूटं प्राभातिकं ततः ।

पुनस्तदेव कूटं स्यात्सकाराद्यं च चिन्तयेत् ॥ १९० ॥

कुब्जिकायै तथोच्चार्य्य नकुलीशसकारकौ ।

ब्रह्मेन्द्रगौरी च तदा बिन्दुं च कलयान्वितम् ॥ १९९ ॥

जीवश्चन्द्रश्च ब्रह्मा च एकादशस्वरस्तथा ।

गौरीबीजं परे दत्वा षष्ठस्वरविभूषितम् ॥ १९२ ॥

ततो ङञणनमेति अघोरामुखि संलिखेत् ।

पूर्ववत्त्रीणि बीजानि छकारस्य समुद्धरेत् ॥ १९३ ॥

किलि किलि ततो विच्चे मानुषान्तौ रेफारूढ़ौ ।

तारान्वितौ फेत्कारी च रमा माया मेधा अपि ॥ १९४ ॥

ततो जय कुब्जिके हि मैधमायारमास्तथा ।

ततः साद्यप्रलयं च प्रेतं विसर्गहीनकम् ॥ १९५ ॥

बिन्दुयुक्तं ततः पश्चाद् भगवत्यम्ब इत्यपि ।

ततः प्राभातिकं कूटं साद्येन तद्द्द्वितीयकम् ॥ १९६ ॥

वामकर्णविहीनं च कलया मण्डितं प्रिये ।

कुब्जिके च ततश्चोक्त्वा बालाकूटं ततः परम् ॥ १९७ ॥

तत्कूटं च द्वयं लेख्यं तुरीयषष्ठभूषितम् ।

ततो ङञणनम अघोरामुखि संवदेत् ॥ १९८ ॥

छां छीं किलि किलि ततो विच्चेऽस्त्रं वह्निवल्लभा ।

मेधा त्रपा रमा फेत्कारी वह्नि और तार से युक्त जीव षान्त कहकर 'भगवति अम्बे' कहे। उसके बाद प्राभातिक कूट फिर वही कूट लिखकर सकाराद्य कहना चाहिये । 'कुब्जिकायै' कहकर नकुलीश और सकार कहे । फिर 'ब्रह्मेन्द्रगौरी' को बिन्दु कला से युक्त कहना चाहिये । जीव चन्द्र ब्रह्मा एवं एकादश स्वर फिर गौरीबीज को षष्ठ स्वर से विभूषित कर कहना चाहिये । इसके बाद 'ङ अ ण न म अघोरामुखि' लिखे । पूर्व की भाँति छकार बीज को तीन बार लिखे । 'किलि किलि' के बाद रेफयुक्त मानुषान्त कहना चाहिये । तत्पश्चात् फेत्कारी रमा माया मेधा के बाद 'जयकुब्जिके' कहने के पश्चात् मेधा माया रमा कहे। उसके बाद विसर्गहीन बिन्दुयुक्त साधप्रलय के पश्चात् 'भगवत्यम्बे' कहे । फिर... (प्राभातिककूट)... (साद्य के साथ प्राभातिककूट) को वामकर्ण से रहित, कला से मण्डित कर कहना चाहिये । फिर 'कुब्जिके' कहकर... (बालाकूट )... (ईकारयुक्त बालाकूट )... (ऊकारयुक्त बाला- कूट) फिर ङ ण न म अघोरामुखि छां छीं किलि किलि विच्चे कहने के बाद अस्त्र और अग्निवल्लभा कहना चाहिये । ( मन्त्र इस प्रकार हैं- ऐं ह्रीं श्रीं हसखफ्रें श्यों श्यों भगवत्यम्ब... (प्राभातिककूट)... (सकारादियुक्त प्राभातिककूट) कुब्जिकायै हसकल क्री यां ग्लौं ठौं... ऐं क्रू ङ ञ न म अघोरामुखि छां छीं छू किलि किलि विच्चे [म्रो यों हसख श्रीं ह्रीं ऐं जयकुब्जिके सहसखफ्री स्हौं भगवत्यम्ब.... (प्राभातिककूट)... (सकारादियुक्त प्राभातिककूट ईकारयुक्त) कुब्जिके.... (बालाकूट ).... (ईकारयुक्त बालाकूट )... (ऊकारयुक्त बालाकूट) ङ ञ ण न म अघोरामुखि छां छीं किलि किलि विच्चे फट् स्वाहा ) ।। १८९-१९९ ॥

क्रोधास्त्रं वह्निपत्नी च हृद्वात्रितयं ततः ॥ १९९ ॥

ततः सिद्धिकुब्जिके (च) मैधमायारमा अपि ।

प्रलयं प्रेतबीजं ततो देविकूटं वाराहिकं ततः ॥ २०० ॥

साद्यं तदेव कूटं स्याद् द्वितीयं परमेश्वरि ।

रेफस्थाः सह पान्ताश्च कलाबिन्दुसमन्विताः ॥ २०१ ॥

षष्ठस्वरविहीनं तु कलाबीजेन भूषितम् ।

एतद्बीजं समाभाष्य कुब्जिके तदनन्तरम् ॥ २०२ ॥

क्रोध अस्त्र अग्निपत्नी हृदय के बाद तीन वाग्बीज फिर 'सिद्धिकुब्जिके' के बाद मेधा माया रमा प्रलय प्रेतबीज फिर देवीकूट तदनन्तर वाराहीकूट फिर साद्य वहीकूट दूसरी बार कहना चाहिये। रेफ से युक्त स ह और पान्त (=फ) को षष्ठ स्वरविहीन कला बिन्दु से युक्त कर कहना चाहिये। इस बीज को कहकर 'कुब्जिके' कहना चाहिये । ( मन्त्र इस प्रकार हैहूं फट् स्वाहा नमः ऐं ऐं ऐं सिद्धिकुब्जिके ऐं ह्रीं श्रीं हसखफ्री स्हौः म्लक्षकसहहूं सम्लक्षकसहहूं सहफ्री... [ षष्ठ स्वररहित कलास्वर युक्त बीज कुब्जिके ] ) ॥ १९९-२०२ ॥

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 15 का शेष भाग आगे जारी ........

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