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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
कामकलाकाली संजीवन गद्यस्तोत्रम्
महाकालसंहिता कामकलाखण्ड पटलसंख्या
२५२ में महाकाल, देवी से श्रीकामकलाकाली सहस्रनामस्तोत्रम् बतला रहे हैं । अब आगे २५२ वें पटल के शेष भाग में कामकलाकाली संजीवन
गद्यस्तोत्रम् के विषय में वर्णन कर रहे हैं । महाकाल ने कहा- हे महेशानि! अब मै संजीवन
के रुप में स्थित एवं महापाप नाशक गद्य-सहस्त्रनाम को बताऊंगा जिसे पढने वाला
व्यक्ति हे प्रिये! समस्त जन्मो को सफल बना लेता है तथा नही पढने वाले का समस्त
जन्मकर्म विफल रहता है, उस पाठ को मै तुमसे
कह रहा हूँ ।
इस स्तोत्र को पढ़े बिना कामकलाकाली
सहस्रनाम पठन का पूरा फल नहीं मिलता । अत: इस स्तोत्र का पाठ अवश्य करें । इसका
प्रभाव यह है कि इस भौतिक संसार में ऐसा कोई कार्य नही है जो पूर्ण न हो सकता हो ।
बहुत ही विनीत भाव से माँ का ध्यान कर इसका पाठ करे, तो मनोवांछित प्रत्येक फल संभव है ।
॥ अथ कामकलाकाली संजीवन गद्यस्तोत्रम् ॥
॥ महाकाल उवाच ॥
अथ वक्ष्ये महेशानि महापातकनाशनम् ।
गद्यं सहस्रनाम्नस्तु संजीवनतया स्थितम् ॥ १ ॥
पठन् यत्सफलं कुर्यात्प्राक्तनं
सकलं प्रिये । अपठन् विफलन्तत्तत्तद्वस्तु कथयामि ते ॥ २ ॥
ॐ फ्रें जय जय कामकलाकालि कपालिनि
सिद्धि ।
करालि सिद्धिविकरालि महावलिनि
त्रिशुलिनि ॥
नरभुण्डमालिनि शववाहिनि कात्यायनि
महाट्टहासिनि सृष्टिस्थितिप्रलयकारिणि दितिदनुजमारिणि श्मशानचारिणि । महाघोररावे
अध्यासितदावे अपरिमितबल प्रभावे । भैरवीयोगिनीडाकिनीसहवासिनि जगद्धासिनि
स्वपदप्रकाशिनि । पापौघहारिणि आपदुद्धारिणि अपमृत्युवारिणि । बृहन्मद्यमानोदरि
सकलसिद्धिकरि चतुर्दशभुवनेश्वरि । गुणातीतपरमसदाशिवमोहिनि अपवर्गरसदोहिनि
रक्तार्णवलोहिनि । अष्टनागराजभूषितभुजदण्डे आकृष्टकोदण्ड परमप्रचण्डे ।
मनोवागगोचरे मखकोटिमन्त्रमयकलेवरे महाभीषणतरे प्रचलजटाभारभास्वरे । सजलजलदमेदुरे
जन्ममृत्युपाशभिदुरे सकलदैवतमयसिंहासनाधिरूढे ॥
गुह्यातिगुह्यपराऽपरशक्तितत्त्वरूढे वाङ्मयी(वासवी)कृतमूढे ।
प्रकृत्यपरशिवनिर्वाणसाक्षिणि त्रिलोकी रक्षणि दैत्यदानवभक्षिणि ॥ विकटदीर्घदंष्ट्र
सञ्चूणितकोटिब्रह्मकपाले (विकटदीर्घदंष्ट्राकोटिसञ्चूर्णितकोटिब्रह्मकाले)
चन्द्रखण्डाङ्कितभाले ॥ देहप्रभाजितमेघजाले । नवपञ्च(नवयश्च)चक्रनयिनि
महाभीमषोडशशयिनि ॥ सकलकुलाकूलचक्रप्रवर्त्तिनि निखिलरिपुदलकर्त्तिनि ॥
महामारीभयनिवर्त्तिनि लेलिहानरसनाकरालिनि त्रिलोकीपालिनि ॥
त्रयस्त्रिंशत्कोटिशस्त्रास्त्रशालिनि । प्रज्वलप्रज्वलनलोचने ॥ भवभयमोचने
निखिलागमादेशितष्ठसुरोचने (निखिलागमादेशितपुरोचने) । प्रपञ्चातीतनिष्कलतुरीयाकारे
॥ अखण्डानन्दाधारे निगमागमसारे । महाखेचरीसिद्धिविधायिनि ॥ निजपदप्रदायिनि
महामायिनि घोराट्टहाससंत्रासितत्रिभुवने ॥ चरणकमलद्वयविन्यासखर्व्वीकृतावने
विहितभक्तावने ॥
ॐ क्लीं क्रों स्फ्रों ह्रूं ह्रीं
छ्रीं स्त्रीं फ्रें भगवति प्रसीद प्रसीद जय जय जीव जीव ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
हस हस नृत्य नृत्य क छ भगमालिनि भगप्रिये भगातुरे भगाङ्किते भगरूपिणि भगप्रदे ॥
भगलिङ्गद्राविणि ॥ संहारभैरवसुरतरसलोलुपे व्योमकेशि पिंगकेशि महाशङ्खसमाकुले
खर्परविहस्तहस्ते रक्तार्णवद्वीपप्रिये मदनोन्मादिनि ॥ शुष्कनरकपालमालाभरणे
विद्युत्कोटिसमप्रभे नरमांसखण्डकवलिनि । वमदग्निमुखि फेरुकोटिपरिवृते ॥
करतालिकात्रासितत्रिविष्टपे । नृत्य प्रसारितपादाघातपरिवर्त्तितभूवलये ।
पदभारावनम्रीकृतकमठशेषाभोगे । कुरुकुल्ले कुञ्चतुण्डि रक्तमुखि यमघण्टे चर्च्चिके
॥ दैत्यासुर दैत्यराक्षसदानवकुष्माण्डप्रेत भूतडाकिनी
विनायक-स्कन्द-घोणक-क्षेत्रपाल-पिशाच-ब्रह्मराक्षस-वेताल-गुह्यक-सर्पनाग-ग्रहनक्षत्रोत्पात-चौराग्नि-स्वापदयुद्धवज्रोपलाशनि
वर्षविद्युन्मेघविषोपविषकपटकृत्याभिचारद्वेषवशीकरणोच्चाटनोन्मादापस्मार
भूतप्रेतपिशाचावेश
नदनदी-समुद्रावर्तकान्तार-घोरान्धकार-महामारी-बालग्रह-हिंस्र-सर्वस्वापहारिमायाविद्युद्दस्युवंचक-दिवाचर-रात्रिचर-संध्याचर-शृंगिन
खिदंष्ट्रिविद्युदुत्कारण्यदरप्रान्तरादिनानाविधमहोपद्रवभञ्जनि ॥
सर्वमन्त्रतन्त्रयन्त्र कुप्रयोगप्रमर्द्दिनि ॥ षडाम्नायसमयविद्याप्रकाशिनि
श्मशानाध्यासिनि ॥ निजबलप्रभावपराक्रमगुणवशीकृतकोटिब्रह्माण्डवर्त्तिभूतसङघे ॥
विराड्पिण्डि सर्व्वदेवमहेश्वरि सर्व्वजनमनोरञ्जनि सर्वपापप्रणाशिनि ॥
अध्यात्मिकाधिदैविकभौतिकादिविविधहृदयाधिनिर्द्दलिनि कैवल्यनिर्वाणवलिनि ॥
दक्षिणकालि भद्रकालि चण्डकालि कामकलाकालि कौलाचारव्रतिनि ॥ कौलाचारकूजिनि
कुलधर्म्मसाधनि जगत्कारणकारिणि ॥ महारौद्र रौद्रावतारे ॥ अबीजे नानाबीजे जगद्वीजे
कालेश्वरि कालातीते त्रिकालस्थायिनि महाभैरवे भैरवगृहिणि जननि जनजनननिवर्तिनि
प्रलयानल ज्वालाजालजिह्वे(द्भेदे) विखर्व्वोरुफेरुपोतलालिनि ॥
मृत्युञ्जयहृदयानन्दकरि विलोलव्यालकुण्डलउलूकपक्षच्छत्र(न्न)महाडामरि
नियुतवक्त्रबाहुचरणे सर्व्वभूतदमनि, नीलाञ्जनसमप्रभे
॥ योगीन्द्रहृदयाम्बुजासनस्थितनीलकण्ठदेहार्द्धहारिणि ॥ षोडशकलान्तवासिनि
हकारार्द्धचारिणि कालसङ्कर्षिणि कपालहस्ते मदघूर्णितलोचने
निर्वाणदीक्षाप्रसादप्रदे ॥ निन्दानन्दाधिकारिणि मातृगणमध्यचारिणि ॥
त्रयस्त्रिशतकोटित्रिदशतेजोमयविग्रहे प्रलयाग्निरोचिनि विश्वकर्त्तृ विश्वाराध्ये
विश्वजननि विश्वसंहारिणि विश्वव्यापिके विश्वेश्वरि निरुपमे निर्विकारे निरञ्जने
निरीहे निस्तरङ्गे निराकारे परमेश्वरि परमानन्दे परापरे प्रकृतिपुरुषात्मिके
प्रत्ययगोचरे प्रमाणभूते प्रणवस्वरूपे संसारसारे सच्चिदानन्दे सनातनि सकले
सकलकलातीते सामरस्यसमयिनि केवले कैवल्यरूपे कल्पनातिगे काललोपिनि कामरहिते
कामकलाकालि भगवति।
ॐ ख्फ्रें ह्रौः सौः श्रीं ऐं ह्रौं
क्रों स्फ्रों सर्वसिद्धिं देहि देहि मनोरथान् पूरय पूरय मुक्ति नियोजय नियोजय
भवपाशं समुन्मूलय समुन्मूलय जन्ममृत्यू तारय तारय परविद्यां प्रकाशय प्रकाशय
अपवर्ग निर्माहि निर्माहि संसारदुःखं, यातनां
विच्छेदय विच्छेदय पापानि संशमय संशमय चतुर्व्वर्ग्ग साधय साधय ह्रां ह्रीं ह्रूं
ह्रैं ह्रौं यान् वयं द्विष्मो ये चास्मान् विद्विषन्ति तान् सर्वान् विनाशय
विनाशय मारय मारय शोषय शोषय क्षोभय क्षोभय मयि कृपां निवेशय निवेशय फ्रें ख्फ्रें
हस्फ्रें ह्स्ख्फ्रें (ह्न्फ्रें ह्न्ख्फ्रें)हूं स्फ्रों क्लीं ह्रीं जय जय
चराचरात्मकब्रह्माण्डोदरवर्त्तिभूतसंघाराधिते प्रसीद प्रसीद तुभ्यं देवि नमस्ते
नमस्ते नमस्ते।
इतीदं गद्यमुदितं मन्त्ररूपं वरानने
। सहस्रनामस्तोत्रस्य आदावन्ते च योजयेत् ॥ ३ ॥
अशक्नुवानौ द्वौ वारौ पठेच्छेष इमं
स्तवम् । सहस्रनामस्तोत्रस्य तदैव प्राप्यते फलम् ॥ ४ ॥
अपठन् गद्यमेतत्तु तत्फलं न
समाप्नुयात् । यत्फलं स्तोत्रराजस्य पाठेनाप्नोति साधकः ॥ ५ ॥
तत्फलं गद्यपाठेन लभते नात्र संशयः
॥
॥ इति महाकालसंहिताय गद्यकथन्नाम
द्विशताधीकद्विपञ्चाशत्तमः (२५२) पटलः ॥
कामकलाकाली संजीवन गद्यस्तोत्रम् समाप्त।।
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