श्रीभद्रकाली कवचम्
दशाक्षरी विद्या तथा काली-कवच का वर्णन
दशाक्षरी विद्या
‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं
कालिकायै स्वाहा’
यही दशाक्षरी विद्या है। दस लाख
मन्त्र जप करके सिद्ध किया जाता है ।
भद्रकाली कवच
पूर्वकाल में त्रिपुर-वध के भयंकर
अवसर पर शिव की विजय के लिये नारायण ने कृपा करके शिव को जो परम अद्भुत कवच प्रदान
किया था । वह कवच अत्यन्त गोपनीयों से भी गोपनीय, तत्त्वस्वरूप तथा सम्पूर्ण मन्त्रसमुदाय का मूर्तिमान स्वरूप है। उसी को
पूर्वकाल में शिव जी ने दुर्वासा को दिया था और दुर्वासा ने महामनस्वी राजा
सुचन्द्र को प्रदान किया था। इस उत्तम कवच को पाँच लाख जप से ही वे सिद्ध किया जाता
है।
अथ भद्रकाली
कवचम्
नारायण उवाच ।।
शृणु वक्ष्यामि विप्रेन्द्र कवचं
परमाद्भुतम् ।
नारायणेन यद्दत्तं कृपया शूलिने
पुरा ।। १ ।।
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय
च ।
तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे
मुने ।।२ ।।
दुर्वाससा च यद्दत्तं सुचन्द्राय
महात्मने ।
अतिगुह्यतरं तत्त्वं
सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।।३ ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै
स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं
ह्रीमिति लोचने ।।१ ।।
ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां
मे सदाऽवतु ।
क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा
दन्तान्सदाऽवतु ।। २ ।।
क्लीं भद्रकालिके स्वाहा पातु
मेऽधरयुग्मकम् ।
ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै
स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ।। ३ ।।
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं
सदाऽवतु ।
ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा
स्कन्धं पातु सदा मम ।। ४ ।।
ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्षः
सदाऽवतु ।
ॐ क्लीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं
सदाऽवतु ।। ५ ।।
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्ठं
सदाऽवतु ।
रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तो
सदाऽवतु ।। ६ ।।
ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा
पादौ सदावतु ।
ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा
सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ।।७ ।।
प्राच्यां पातु महाकाली चाग्नेय्यां
रक्तदन्तिका ।
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां
पातु कालिका ।। ८ ।।
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु
चण्डिका ।
उत्तरे विकटास्या चाप्यैशान्यां
साट्टहासिनी ।। ९ ।।
पातूर्ध्वं लोलजिह्वा सा मायाऽऽद्या
पात्वधः सदा ।
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु
विश्वप्रसूः सदा ।। १० ।।
इति ते कथितं वत्स
सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं
परात्परम् ।।११ ।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे
तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे भद्रकालीकवचनिरूपणं नाम
सप्तत्रिंशत्तमोऽध्यायः ।। ३७ ।।
भद्रकाली कवच भावार्थ
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै
स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं
ह्रीमिति लोचने ।।
‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै
स्वाहा’ मेरे मस्तक की रक्षा करे। ‘क्लीं’
कपाल की तथा ‘ह्रीं ह्रीं ह्रीं’ नेत्रों की रक्षा करे।
ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां
मे सदाऽवतु ।
क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा
दन्तान्सदाऽवतु ।।
‘ऊँ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा’
सदा मेरी नासिका की रक्षा करे। ‘क्रीं कालिके
रक्ष रक्ष स्वाहा’ सदा दाँतों की रक्षा करे।
क्लीं भद्रकालिके स्वाहा पातु
मेऽधरयुग्मकम् ।
ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै
स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ।।
‘क्लीं भद्रकालिके स्वाहा’
मेरे दोनों ओठों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं
ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा’ सदा कण्ठ की रक्षा करे।
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं
सदाऽवतु ।
ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा
स्कन्धं पातु सदा मम ।।
‘ऊँ ह्रीं कालिकायै स्वाहा’
सदा दोनों कानों की रक्षा करे।‘ऊँ क्रीं क्रीं
क्लीं काल्यै स्वाहा’ सदा मेरे कंधों की रक्षा करे।
ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्षः
सदाऽवतु ।
ॐ क्लीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं
सदाऽवतु ।।
‘ऊँ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा’
सदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे। ‘ऊँ क्रीं
कालिकायै स्वाहा’ सदा मेरी नाभि की रक्षा करे।
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्ठं
सदाऽवतु ।
रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तो
सदाऽवतु ।।
‘ऊँ ह्रीं कालिकायै स्वाहा’
सदा मेरे पृष्ठभाग की रक्षा करे। ‘रक्तबीजविनाशिन्यै
स्वाहा’ सदा हाथों की रक्षा करे।
ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा
पादौ सदावतु ।
ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा
सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ।।
‘ऊँ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै
स्वाहा’ सदा पैरों की रक्षा करे। ‘ऊँ
ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा’ सदा मेरे सर्वांग की रक्षा करे।
प्राच्यां पातु महाकाली चाग्नेय्यां
रक्तदन्तिका ।
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां
पातु कालिका ।।
पूर्व में ‘महाकाली’
और अग्निकोण में ‘रक्तदन्तिका’ रक्षा करें। दक्षिण में ‘चामुण्डा’ रक्षा करें। नैर्ऋत्यकोण में ‘कालिका’ रक्षा करें।
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु
चण्डिका ।
उत्तरे विकटास्या चाप्यैशान्यां
साट्टहासिनी ।।
पश्चिम में ‘श्यामा’ रक्षा करें। वायव्यकोण में ‘चण्डिका’, उत्तर में ‘विकटास्या’
और ईशानकोण में ‘अट्टहासिनी’ रक्षा करें।
पातूर्ध्वं लोलजिह्वा सा मायाऽऽद्या
पात्वधः सदा ।
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु
विश्वप्रसूः सदा ।।
ऊर्ध्वभाग में ‘लोलजिह्वा’ रक्षा करें। अधोभाग में सदा ‘आद्यामाया’ रक्षा करें। जल, स्थल
और आन्तरिक्ष में सदा ‘विश्वप्रसू’ रक्षा
करें।
इति ते कथितं वत्स
सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं
परात्परम् ।।
यह कवच समस्त मन्त्र समूह का
मूर्तरूप,
सम्पूर्ण कवचों का सारभूत और उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टतर है।
भद्रकाली कवच
महात्म्य
इसी कवच की कृपा से राजा सुचन्द्र
सातों द्वीपों के अधिपति हो गये थे। इसी कवच के प्रभाव से पृथ्वीपति मान्धाता
सप्तद्वीपवती पृथ्वी के अधिपति हुए थे। इसी के बल से सौभरि और पिप्पलायन योगियों
में श्रेष्ठ कहलाये। जिसे यह कवच सिद्ध हो जाता है, वह समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। सभी महादान, तपस्या और व्रत इस कवच की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते, यह निश्चित है। जो इस कवच को जाने बिना जगज्जननी काली का भजन करता है,
उसके लिए एक करोड़ जप करने पर भी यह मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।
इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण तृतीय गणपतिखण्ड नारदनारायणसंवाद में भद्रकाली कवच पूर्ण हुआ ।।
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