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कर्मकाण्ड

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श्रीभद्रकाली कवचम्

श्रीभद्रकाली कवचम्

श्रीभद्रकाली कवचम्- दशाक्षरी महाविद्या तथा भद्रकाली का कवच देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। यह कवच सम्पूर्ण शत्रुओं का विनाश करने वाला, अत्यन्त पूजनीय, प्रशंसनीय और त्रिलोकी पर विजय पाने का कारण है। वह कवच जिसके गले में वर्तमान है, उसे जीतने के लिए भूतल पर कोई समर्थ हो ही नहीं सकता अर्थात् सर्वत्र विजय की प्राप्ति होता है ।

श्रीभद्रकाली कवचम्

दशाक्षरी विद्या तथा काली-कवच का वर्णन

दशाक्षरी विद्या

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा

यही दशाक्षरी विद्या है। दस लाख मन्त्र जप करके सिद्ध किया जाता है ।

भद्रकाली कवच

पूर्वकाल में त्रिपुर-वध के भयंकर अवसर पर शिव की विजय के लिये नारायण ने कृपा करके शिव को जो परम अद्भुत कवच प्रदान किया था । वह कवच अत्यन्त गोपनीयों से भी गोपनीय, तत्त्वस्वरूप तथा सम्पूर्ण मन्त्रसमुदाय का मूर्तिमान स्वरूप है। उसी को पूर्वकाल में शिव जी ने दुर्वासा को दिया था और दुर्वासा ने महामनस्वी राजा सुचन्द्र को प्रदान किया था। इस उत्तम कवच को पाँच लाख जप से ही वे सिद्ध किया जाता है।

अथ भद्रकाली कवचम्         

नारायण उवाच ।।

शृणु वक्ष्यामि विप्रेन्द्र कवचं परमाद्भुतम् ।

नारायणेन यद्दत्तं कृपया शूलिने पुरा ।। १ ।।

त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च ।

तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने ।।२ ।।

दुर्वाससा च यद्दत्तं सुचन्द्राय महात्मने ।

अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।।३ ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।

क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने ।।१ ।।

ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदाऽवतु ।

क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तान्सदाऽवतु ।। २ ।।

क्लीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेऽधरयुग्मकम् ।

ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ।। ३ ।।

ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदाऽवतु ।

ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम ।। ४ ।।

ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्षः सदाऽवतु ।

ॐ क्लीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदाऽवतु ।। ५ ।।

ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्ठं सदाऽवतु ।

रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तो सदाऽवतु ।। ६ ।।

ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु ।

ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ।।७ ।।

प्राच्यां पातु महाकाली चाग्नेय्यां रक्तदन्तिका ।

दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका ।। ८ ।।

श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका ।

उत्तरे विकटास्या चाप्यैशान्यां साट्टहासिनी ।। ९ ।।

पातूर्ध्वं लोलजिह्वा सा मायाऽऽद्या पात्वधः सदा ।

जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसूः सदा ।। १० ।।

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।

सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम् ।।११ ।।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे भद्रकालीकवचनिरूपणं नाम सप्तत्रिंशत्तमोऽध्यायः ।। ३७ ।।

भद्रकाली कवच भावार्थ

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।

क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने ।।

ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहामेरे मस्तक की रक्षा करे। क्लींकपाल की तथा ह्रीं ह्रीं ह्रींनेत्रों की रक्षा करे।

ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदाऽवतु ।

क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तान्सदाऽवतु ।।

ऊँ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहासदा मेरी नासिका की रक्षा करे। क्रीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहासदा दाँतों की रक्षा करे।

क्लीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेऽधरयुग्मकम् ।

ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ।।

क्लीं भद्रकालिके स्वाहामेरे दोनों ओठों की रक्षा करे। ऊँ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहासदा कण्ठ की रक्षा करे।

ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदाऽवतु ।

ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम ।।

ऊँ ह्रीं कालिकायै स्वाहासदा दोनों कानों की रक्षा करे।ऊँ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहासदा मेरे कंधों की रक्षा करे।

ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्षः सदाऽवतु ।

ॐ क्लीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदाऽवतु ।।  

ऊँ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहासदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे। ऊँ क्रीं कालिकायै स्वाहासदा मेरी नाभि की रक्षा करे।

ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्ठं सदाऽवतु ।

रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तो सदाऽवतु ।।

ऊँ ह्रीं कालिकायै स्वाहासदा मेरे पृष्ठभाग की रक्षा करे। रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहासदा हाथों की रक्षा करे।

ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु ।

ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ।।

ऊँ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहासदा पैरों की रक्षा करे। ऊँ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहासदा मेरे सर्वांग की रक्षा करे।

प्राच्यां पातु महाकाली चाग्नेय्यां रक्तदन्तिका ।

दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका ।।

 पूर्व में महाकालीऔर अग्निकोण में रक्तदन्तिकारक्षा करें। दक्षिण में चामुण्डारक्षा करें। नैर्ऋत्यकोण में कालिकारक्षा करें।

श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका ।

उत्तरे विकटास्या चाप्यैशान्यां साट्टहासिनी ।।

पश्चिम में श्यामारक्षा करें। वायव्यकोण में चण्डिका’, उत्तर में विकटास्याऔर ईशानकोण में अट्टहासिनीरक्षा करें।

पातूर्ध्वं लोलजिह्वा सा मायाऽऽद्या पात्वधः सदा ।

जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसूः सदा ।।

ऊर्ध्वभाग में लोलजिह्वारक्षा करें। अधोभाग में सदा आद्यामायारक्षा करें। जल, स्थल और आन्तरिक्ष में सदा विश्वप्रसूरक्षा करें।

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।

सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम् ।।

यह कवच समस्त मन्त्र समूह का मूर्तरूप, सम्पूर्ण कवचों का सारभूत और उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टतर है।

भद्रकाली कवच महात्म्य 

इसी कवच की कृपा से राजा सुचन्द्र सातों द्वीपों के अधिपति हो गये थे। इसी कवच के प्रभाव से पृथ्वीपति मान्धाता सप्तद्वीपवती पृथ्वी के अधिपति हुए थे। इसी के बल से सौभरि और पिप्पलायन योगियों में श्रेष्ठ कहलाये। जिसे यह कवच सिद्ध हो जाता है, वह समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। सभी महादान, तपस्या और व्रत इस कवच की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते, यह निश्चित है। जो इस कवच को जाने बिना जगज्जननी काली का भजन करता है, उसके लिए एक करोड़ जप करने पर भी यह मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण तृतीय गणपतिखण्ड नारदनारायणसंवाद में भद्रकाली कवच पूर्ण हुआ ।।

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