गोमती लहरी

गोमती लहरी

इस गोमती लहरी स्तुति का नित्य पाठ करने से सभी सुख व सिद्धि प्राप्त होता है ।

गोमती लहरी

गोमतीलहरी

Gomati Lahari

गोमती लहरी स्तुति

गोमतीलहरी स्तोत्रम्

     अये मातगोमत्यमलजलधारे तव गुणा-

          नलं वक्रुं नेशः कथमपि च शेषः शतमुखः ।

     हरो वैषा यत्र स्फुरति नवगङ्गामृतलता

          तदा कोऽहं मोहं गत इह समर्थस्तव नुतौ ॥ १॥

हे अमल जलधारवाली गोमति ! तुम्हारे गुणों को हजार मुखवाले शेष और जिन शिवजी के मस्तक पर अमृतलता गंगा बह रही है यह महादेवजी भी नहीं कहने को समर्थ हैं, तो मोह  को प्राप्त मै कौन हूं कि तुम्हारी स्तुति करने को समर्थ होऊं ।

     अहो मातर्गोमत्यमलजलसम्भारविलस-

          त्तनुस्पर्शादर्शप्रहतखलजम्बालनिकरे ।

     पुनीषे संसारं शमनशवसानं शमयसि

          मनश्चैन्दं देवि त्वमिह सततं शङ्कितयसि ॥ २॥

हे मातः गोमति ! निर्मल जलभार से शोभित शरीर के स्पर्श अथवा देखने से दुष्ट पापसमूह के नाश करनेवाली तुम्हीं इस संसार को पवित्र करती हो और यमराज के मार्ग को रोककर निरन्तर इन्द्र के मन को शंकित करती हो।

     अलं गङ्गा सङ्गाद्विलुलिततरङ्गा स्मररिपो-

          रपामीशः साक्षादखिलजगदाधारशयनात् ।

     क्षये कल्माषानामिह तु महिमा कोऽपि भवती

          मनालम्बःशम्बोऽस्तवननिकुरम्बः प्रथयति ॥ ३॥

महादेव के संग से चंचल तरंगवाली गंगा और जगदाधार विष्णु के शयन करने से समुद्र पाप नाश करने में समर्थ है किंतु हे गोमति ! आप में बिना आलंब कल्याणयुक्त जिसकी स्तुति नहीं है ऐसी कोई महिमा आपको विश्व में प्रसिद्ध कर रही है ।

     अलं क्षोदीयांसः कलिलकलने धूर्जटिजटा

          पुटे संस्थाप्लावप्नुततरतमस्काः कथमपि ।

     परं मातगोमत्यगतिशमनग्रासपतिता-

          नहं जाने द्राघीयस इह पुनानैव भवती ॥ ४॥

पाप करने में अतिक्षुद्र पापी महादेवजी के जटापुटस्थ गंगा में स्नान करने से कथंचित् निष्पाप हो परन्तु हे गोमति अंब ! जिनकी गति नहीं है और यमराज के ग्रास में गिरे हैं अथवा यमराज के ग्रासभूत जो बडे-बडे पतित हैं उनको में जानता हूँ तुम्हीं पवित्र करनेवाली इस संसार में हो ।

     नदीनं का दीना विषमशरसङ्घातकृशिता

          नदी नन्दीनेन क्षणविहितविनापि न गता ।

     त्वमेवैकामुद्रा कुहकवधके पुण्यसलिला

          जनुर्बन्धासन्धे चरसि शुचि ब्रह्मव्रतमिह ॥ ५॥

कामदेव के विषम बाणों के समूह से जर्जरीभूत क्षण भर महादेव के विघ्न करने पर भी कौन ऐसी नदी है जो स्वपति समुद्र में न पहुँची, किंतु हे पापनाशिनि ! कर्मबीजों में अविश्वासिनि अर्थात् मोक्षपदे ! मुद्राभूता तुम्ही एक शुचि ब्रह्मव्रत को आज भी कर रही हो ।

     त्वमेवाम्ब ब्रह्मप्रथितकरकोत्पत्तिसुभगे

          विराजन्ती लोके क्षपितकलिशोके भगवती ।

     वियद्नङ्गानङ्गद्विषदमलसङ्गादिह तु या

               परा नाद्या सेयं प्रभवति हिमादेस्तटतलात् ॥ ६॥

ब्रह्मा के प्रसिद्ध कमण्डलु से उत्पत्ति के कारण मनोहर और कलिकाल के शोक नारा करनेवाली सौन्दर्य से विराजमान आकाशगंगा तुम्ही हो और महादेवजी का संबन्ध है जिससे ऐसे हिमालय से जो निकलती है सो दूसरी है आदि गंगा गोमती ही है । अथवा वह परा उत्तमा नहीं है और आदि की नहीं है ।

     बृहत्तीरे सन्तो जठरपिठरे प्राक्तनशुभा

          दलं याते नीरे किमपि शयितोद्बुद्धसदृशाः ।

     करस्थं ब्रह्माण्डं क्षणमिह तवाम्भः स्तुतिपराः

          निरीक्षन्तो यान्ति स्थिरपदमथावृत्तिरहिताः ॥ ७॥

हे गोमति ! विपुल तट पर रागद्वेषादिशून्य जन प्राक्तनशुभ से तुम्हारे नीर को पेटरूपी पेठार में पड़ने से कुछ सोकर जागे से होकर तुम्हारे जल की स्तुति करते और ब्रह्मांड को करस्थ देखते हुए पुनः आवागमनरहित मोक्षपद को प्राप्त होते हैं ।

     किरीटं तैरीटं लघयति कृपीटेन रचयन्

          मृदा भाले पुण्ड्रं जननि तव जानन्नपि जनः ।

     यमालोक्य भ्रान्ता शमनपुरतः किङ्करगणा

          अलक्ष्या वेपन्ते त्रिभुवनमहाराजभवने ॥ ९॥

हे मातः गोमति ! जाननेवाला मनुष्य इस संसार में तुम्हारे जल से मृत्तिका का पुंडू भाल में बनाकर सुवर्ण के किरीट को लघु समझता है जिस पुंडू को देखकर भ्रांत यमराज के किंकरगण यमराज से छिपकर त्रिभुवन महाराज के भवन में भी कांपा करते हैं ।

     ध्रुवं शंस्ता कश्चिन्निखिलसिकतागूढ कणिका-

          स्तवस्याग्रेगूस्ते भवतु नतु मातः कथमपि ।

     गुणागारं स्तोतुं तलिनपुलिने माहिनमलं

          जलं देवो वाचामपि च विभुराचारनिरतः ॥ १०॥

निश्चय करके हे मातः ! कोई भी स्तोता संपूर्ण बालू को छिपी हुई कणिकाओं की स्तुति करने में अग्रगामी हो, किन्तु हे पवित्र तटवाली गोमति ! गुणों के आगार पूज्य तुम्हारे जलों को आचारनिरत बृहस्पति भी स्तुति करने को किसी तरह भी नहीं समर्थ हो सकते ।

     न के के ते तीरे सुलभविभवा वारिपथिकीं

          मनोऽभीष्टिं लब्धा मम तु पुनरेषा बलवती ।

     तमः पारावारात्सुरधुनि दरिद्रौघदमनि

          प्रकुर्वीथाः पारं सदयकरमालम्ब्य जननि ॥ ११॥

हे सुरधुनि ! कौन कौन नहीं जलमार्ग से आई हुई मनोरथ को पाकर तुम्हारे तट पर सुलभ विभव हुए, परन्तु मेरी तो यही अभिलाषा अति बलवती है कि हे दरिद्रसमूहनाशिनि, मातः ! दुःखपारावार से दयापूर्वक हाथ पकड़कर पार कर दो ।

     सदैव त्वत्तीरे निभृत निवसन्तं जनमिमं

          त्वदाधारं जानन्त्यपि च निभृतिं यास्यसि यदि ।

     निरालम्बः पन्थाः शरणभरणे किं च जननि

          प्रथाविश्वासस्य स्खलति नितरां देवनिवहे ॥ १२॥

सदैव तुम्हारे तट पर एकान्त में बसते हुए इस जन को जो कि केवल तुम्हारे ही आश्रप है जानती हुई भी जो चुप हो जाओगी, तो हे जननि ! शरणागत के रक्षा करने का मार्ग निरालंब हो जायेगा और देवताओं के समूह में विश्वास की प्रथा अत्यन्त गिर जायगी ।

     समुल्लङ्घ्योद्वन्धं यमगृहविशालार्गलमिव

          स्वनन्त्यः सद्घोरं विजयमिव लब्धा धवलितैः ।

     पयः पूराकारैः स्मितमिव दधत्यः पतदपां

          समूहैः पूतास्ते जननि विजयन्तां लहरयः ॥ १३॥

यमराजराज के भवन के विशाल अर्गला की भांति बन्धा को लांघ कर विजय को ऐसा प्राप्त घनघोर शब्द करती हुई दुग्ध के समान आकारवाले स्वच्छ जलसमूह से मंद हास को करनेवाली पवित्र मातः ! तुम्हारी लहरें सर्वोत्कर्षशालिनी है ।

     प्रहारं पापानामनवमविहारं क्षितिरुहां

          समाहारं शुद्धेः रुचिरमतिहारं तनुजुषाम् ।

     परीहारं व्याधेरपि च नवनीहारमुरसां

          पयो वन्दे मातस्तव कलिलसंहारकमलम् ॥ १४॥

पापों के नाशक वृक्षादि के लिए उत्तम विहाररूप और शुद्धियों का समूह माणियों की रुचिर बुद्धि का हारस्वरूप व्याधि का निवारक संतप्त हृदय के लिये नीहार के सदृश समस्त कलिलविनाशक हे मातः ! तुम्हारे जल की वन्दना करता हूँ ।

     समायातपातस्तरुणतरुणीवृन्दमभितः

          कृतस्नानंनीरं कलयति तवाम्ब क्षणमिह ।

     चलन्नीलालीला ललिततरलव्योममुदिर-

          द्युतिग्रामस्फारस्फुरदुरुविडौजोधनुरुचिः  ॥ १५॥

प्रातःकाल आए हुए तरुण तरुणियों का समूह स्नान किए हुए तुम्हारे नीर को हे अम्ब ! क्षण काल के लिये चलायमान है नील वर्ण की जो लीला उससे ललित तरल आकाश में मेघों पर दीप्तिसमूह से विपुल स्फुरते हुए पूर्ण इन्द्र के धनुष की शोभा के सदृश कर देता है ।

     पतन्तीनामूर्धात् कथमपि समारुह्य गहनं

          जटाजूटं शैवं विकृतपरिपाकादिह शुभे ।

     त्वदीयानामम्ब प्रततलहरीणामथ च त-

          न्नदीनामौपम्यं वदतु पशुपादन्य क इह ॥ १६॥

किसी तरह गहन शिव के जटाजूट को पाकर भी अशुभ परिपाक से ऊपर से नीचे को गिरती हुई अध च अधःपतन को प्राप्त उन नदियों का और विस्तृत तुम्हारी लहरियों को पशुप के अतिरिक्त पौर कौन बराबरी कर सका है अथ च शिव के अतिरिक्त और कौन कर सका है ।

     निमग्नानामन्तःसलिलमसकृत् केलिकलना

          समासक्त्युन्मुक्तप्रवरकवरी कञ्जसुदृशाम् ।

     अनुन्मेषोन्मेषैः त्रिदशतटिनी रौक्मविकचा

          ससेवालाम्भोजदयुतिरिह विजिग्ये मुखमयैः ॥ १७॥

जल के भीतर निमग्न अर्थात् स्नान करती हुई और वार २ खेल में पास होने से जिनके केशपाश खुल गए हैं और जल के ऊपर तैरते हैं ऐसी कमल के समान स्त्रीयों के मुखमय उन्मेष और अनुन्मेषों से अर्थात् डुब्बी लगा कर मुखों के बाहर-भीतर करने से मन्दाकिनी के सुवर्णमय विकसित सहित सेवार के कमलों की शोभा जीती जाती है।

     समुद्भूतेः सद्मावनतिहरपद्माश्रयवपुः

          प्रवाहः सन्तानप्रतिभटपरिस्पर्धिनिविडः ।

     पयः पूरः शूरस्त्रिविधभवभूतोत्थदलने

          कथं कुर्यामम्बस्तवनमहमेकस्तव शुभे ॥ १८॥

सकल संपत्तियों का निवास अवनति के हरनेवाली लक्ष्मी का भी आश्रयवाला शरीर भी संतान के विघ्नों को नाश करने में दर जल जोकि तीनों तरह की सांसारिक व्याधियों के दलने में शूर ऐसे अनेक गुणवाली हे शुभे ! में अकेले तुम्हारी स्तुति केसे कर सकता हूं ।

     ध्रुवं व्यासङ्गस्ते स्फुरति शतशः पूर्णतटिनी

          समाहारे पारे निभृतपतितोद्धारकरणे ।

     अहं त्वेवं जाने कलिलकलनाशून्यमसकृ-

          त्तमः पारे कर्तुं जननि जनमेनं प्रभवति ॥ १९॥

छिपे हुए पापियों के उद्धार करने में अपार सैकड़ों नदियों के समाहार याने समूह को स्फुरित होने पर भी जो तुम्हारे बहने का कारण है सो में जानता हूं कि निश्चय कर पापों की गणना से शून्य अर्थात् जिसके दोषों की इयता नहीं है ऐसे मुझ पापी के तारने हेतु ही यह तुम्हारा व्यासंग है ।

     लिखेदेव ब्रह्मा निपुणमलिके रोषवशतो

          लिपिं दुर्वर्णाङ्कां स्फुरतु पृतना प्रैतपतिकी ।

     अहं त्वेवं शङ्कानिबिडरतिरङ्कोऽघनिचयं

          तृणाय त्वं मन्ये जननि ननु जागर्षि यदिह ॥ २०॥

रोषवश ब्रह्मा मस्तक में दुर्वणों के अंकों को लिखें और यमराज की सेना मे, मैं तो ऐसी शंकारूपी घने प्रेम का रंक हूं किन्तु पापसमूह को तुणवत् समझ रहा हूं जिससे कि हे जननि ! तुम इस लोक में वर्तमान हो ।

     कपर्दी कल्याणि त्रिदशगिरिकोटिप्रतिहते

          सरिन्नाथे जातं गरलमलिनाकाशमपिबत् ।

     ततो माद्यन् वाहं वृपभमहिहारं शशिकलां

          शिरस्यूरीकुर्वन्नधृत तव बुद्धया गिरिनदीम् ॥ २१॥

हे कल्याणि ! मन्दराचल की कोटियों से समुद्र को मथने पर भ्रमर के समान काला उससे हालाहल निकला जिसको शिवजी ने पी लिया बस तभी से उन्मादित होकर बैल को वाहन और सांपों को दार शशिकला को शिर में किया किन्च उसीसे तुम्हारे धोखे गंगा को धर लिया नहीं तो तुम्ही योग्य थी ।

     धवित्रीं पापानां निरवधिसवित्रीं सुखभुवाम्

          लचित्रीं वर्णानां कुविधिवशभाले विलसताम् ।

     पवित्री चित्तानां सकलभुवनोद्धर्त्रि भवती

          मलं स्तोतुं शेषोऽप्ययुतमुखभूषोऽपि न शुभे ॥ २२॥

पापों को दूर करनेवाली और निरवधि मुख के कारणों को पैदा करनेवाली कुभाग्यवश भालस्थ कुवर्णों की नाश करनेवाली मन को पवित्र करनेवाली हे सकल भुवन के उद्घारिणि ! तुम्हारी स्तुति करने को १०००० मुखभूषण शेष भी समर्थ नहीं है ।

     अलं मन्त्रैर्यन्त्रैः कृतमपि जपध्यानलिभि-

          वृथाकायक्लेशस्तपनकिरणैस्तापनविधौ ।

     सुखं रे निःशङ्काः भ्रमत भववीथौ यदवधि

          प्रभापूर्णा तिष्ठत्यवनितलमध्ये नृपवती ॥ २३॥

मंत्र यंत्र व्यर्थ है जप ध्यानबलि से क्या ? किन्च सूर्य की किरणों से शरीर संतान करना वृथा है , हे जनो ! निःशंक होकर मुख से संसाररूपी वीथी में घूमो अबतक प्रभापूर्ण पृथ्वीतल में गोमतीजी बहती हैं ।

     निराधारो धाराधरिणि धरणी धूलिविलुठ

          त्तनुस्तृष्णा कृष्णस्तरुणकरणे सैष कृपणः ।

     समुद्धर्त्र्यां भर्त्र्यां सकलजगतामीशि कथ-

          मप्यथोपेक्ष्यो गोमत्यनवरतभवदाशः प्रणयवान् ॥ २४॥

हे धारा को धारण करनेवाली ! निराधार और धरणी की धूलि से धूसरित शरीरवाला जो तृष्णा से कुष्ण हो रहा है ऐसा यह कृपणजन हे पूर्ण करुणावाली ईशि ! सब संसार का उद्धार करनेवाली आप द्वारा कैसे उपेक्ष्य हो रहा है जब कि तुम्हारी आशा और प्रणयवाला है ।

     दिनस्यान्ते विद्युज्ज्वलनप्रतिबिम्वद्युतिमिषो-

          लसन्नेत्रानन्त्यक्षणसुरपुरालोकविलसत् ।

     लुठन्नक्राचक्रोड्डमरवमत्स्यध्वनितटे

          चलद्यान ध्वान धनितमधिवन्दे तव जलम् ॥ २५॥

सायंकाल बिजलियों के जलने से प्रतिबिम्ब दयुति के व्याज से विकसित अनेक नेत्रों से आनन्दपूर्वक आकाश के आलोकन से विलसित और लोटते हुए ग्राहसमूह से वृद्धिंगत शब्द और मत्स्यध्वनिवाले किञ्च तट पर चलते हुए मोटर आदि यानों के ध्यान से ध्वनित कहे गर्जते हुए तुम्हारे जल को प्रणाम करता हूँ ।

     तपस्यन्तः सन्तः कति न गिरिमन्तःप्रणयिनः

          कियन्तो जुह्वन्तो जगति मतिमन्तः सुरपुरीम् ।

     समुज्झन्त्यो शन्तस्तरलललनाभोगमिह तु

          प्रसादात्ते मातर्द्वयमपि सुखादाप्यमनिशम् ॥ २६॥

कितने नहीं संत प्रेम से पर्वतों में तपस्या करते हैं और कितने नहीं हवन करते हुए बुद्धिमान् मुरलोक की इच्छा करते हुए इस संसार में सुन्दर ललनाओं के भोग का परित्याग करते हैं किंतु हे मातः ! तुम्हारे प्रमाद से ये दोनों पदार्थ सुख से मात हो सकते हैं ।

     समालम्बालम्भःसुललितविसाम्भोजहसितं

          लसच्छम्बं कम्बप्रणयिनिकुरम्बप्रणमितम् ।

     वलद्दम्भोदद्ं भोलिगणयुतशम्भोरपि परं

          हरत्वं भोऽम्बाशु प्रतनु मम जम्बालमखिलम् ॥ २७॥

भो अम्ब ! समालम्बन के लिए पर्याप्त और सुन्दर मुणालवाले अंभोजों का जिनमें हास है कल्याण से शोभित भाग्यशाली भक्तसमूहों से प्रणमित विसृतदंभ के लिये प्रचंड वज्रस्वरूप गणों से युक्त शंकरजी से भी उत्तम जो सूक्ष्म तुम्हारा जल है सो शीघ्र मेरे संपूर्ण पाप का नाश करे ।

     प्रयच्छन्त्यातङ्कं सुतनु ननु दण्डायुधभृते

          विलोकन्ती लोकं धरणिवति भक्ताय सततम् ।

     दिशन्ती कल्याणं सकलभुवनव्यापि महिमे

          नयस्याख्यां स्वीयामसितसलिलेऽन्वर्थपदवीम् ॥ २८॥

हे सुन्दर शरीरवाली गोमति ! [ वज्ररूपार्थ ] से यमराज के लिए भव को देती हुई [ पृथ्वीरुपार्थ से ] हे धरणीयुत संसार को [ दृष्टिरूपार्थ से ] देखती हुई भक्तों को कल्याण देती हुई [ दिग्रूपार्थ से] हे सकल भुवन में व्याप्त महिमावाली स्वच्छ सलिल से पूर्ण तुम्ही अपने नाम को अनुगतार्थ करती हो ।

     तमस्तोमं रोमोल्लसितमपि सान्द्रं निगलितुं

          यदेतत्तेऽच्छाम्बु त्रिदशतटिनीन्दुप्रतिनिधि ।

     समूलं सङ्गूढं तदिह मम पापद्रुममहो

          परिस्यूतं चित्ते तटमिव मुजङ्घन्तु जटिलम् ॥ २९॥

हे त्रिदशतटिनि स्वर्गनदी रोमों में लगा भी यह निर्मल तुम्हारा जल घन जो पापरूपी अन्धकार को भक्षण करने के लिए चन्द्रमा का प्रतिनिधि है सो चित्त में उत्पन्न दिये हुए समूल जटिल मेरे पापद्रुम को तट की नाई नाश करे

     अहो चञ्चूर्षि त्वं चरमपतितव्रात्यवलयं

          समुद्धतुं कर्तुं कुहकमहमेवं दिनचयम् ।

     व्यतीतं नो विद्धो नहि तु तव मेऽपि प्रतिपलं

               विधातुः स्यादायुस्तदिदमवसाने स्मरसि मे ॥ ३०॥

अहो गोमति ! तुम अत्यन्त पतित जातिच्युत जनों के समूह को उद्धार को निमित्त और में पाप करने के निमित्त भ्रमण करता रहता हूम् । इस तरह निज २ व्यापार में हम दोनों की बीती आयु मालूम नहीं हुई, नहीं तो तुम्हारा और मेरा प्रतिपल ब्रह्मा का आयु हो जाता सो यह मेरे मरने बाद मालूम होगा ।

     किमुक्तासंयुक्ता पतितजननिस्तारणविधौ

          भवत्यंहः सङ्घाहरणशरणः केन च जनः ।

     अलं शङ्कातङ्कैः प्रकृतिबलमूलो विधिरयं

          ततो दध्वःस्वे स्वे जननि ननु कर्मण्यभिरतिम ॥ ३१॥

किसके कथन से पतित जनों के निस्तारण में तुम युक्त हो और हे भवति ! किससे प्रेरित होकर मनुष्य पापसमूहों के अर्जन करने में शरण लेता है इस विषय में शंकाभय था है यह विधान प्रकृतिबलमूल है अर्थात् स्वाभाविक है इससे हम दोनों निज निज कर्म में अभिरुचि धारण करें ।

     मयन्तः शुन्धत्या निरयशतवर्त्मेलितपयः

          प्रभावर्द्धे मातर्मनुजमनुजादा अपि गुरोः ।

     व्रजन्तस्तल्पान्तं तदपि पुरुहूतश्रुतपुरे

          सुखं तन्वङ्गीनां कुचकलशगूढाः शेरत अमी ॥ ३२॥

हे मातः! नरक के सैकड़ों मार्गों को जाते हुए गुरुदारगामी भी अतएव मनुष्यरूपी राक्षस पवित्र करनेवाली आपके जल प्रभाव से इन्द्र के प्रसिद्ध नगर में सुखपूर्वक तन्वागियों के कुचकलशों में छिपे हुए यह लोग सोते हैं यह अपूर्व ही कृपा है ।

     जलज्ज्वालकोधः श्वसितमिह ते यस्तनुभृता-

          मलं हृद्यं सद्यो मुषितमिव कुर्वन् प्रहरति ।

     मरुल्लोलालीलालहरिलतिकानां व्यतिकरा

          दहो मातर्नूनं भवति स कृतान्तोऽपि शमनः ॥ ३३॥

जल रहा है ज्याला के समान क्रोध जिसका ऐसा यमराज भी अर्थात् (कृतान्त) भी जो कि पाणियों के अत्यन्त प्रिय प्राणों को चोरी ऐसा करता हुआ प्रहार करता है, हे अंब ! सो भी वायु से लोल है लीला जिनकी ऐसी तुम्हारी लहरियों के संसर्ग से कुतान्त न होकर शमन हो जाता हे, अहो आश्चर्ययुक्त तुम्हारा जल है ।

     प्रवाहैरम्भोजप्रसविनि समालोकनयुषां

          क्षिपन्त्यादुर्दान्तंवृजिन दलमानन्दनिलये ।

     ध्रुवं मन्ये मातः श्रवणबुधितैकस्थितिजुषां

          जरीहर्तुं पापं तव लहरिमालाकलकलः ॥ ३४॥

हे कमलों के पैदा करनेवाली ! मैं यह मानता हूं कि प्रवाहों के द्वारा देखनेवालों के दुर्दान्त पापदल को नाश करने वाली हो हे आनन्दनिलये ! केवल श्रवणमात्र से ज्ञानवालों के पाप हरने को यह तुम्हारी लहरियों की मालाओं का कलकल है ।

     अलम्भ्योको लोकैरपि न खलु कैस्कैः क्रतुभुजा-

          मलम्भ्योको लोकैः सुकृतकुकृताभ्यामिह परम् ।

     वयत्वेवं विद्मो न खलु भवती यत्र वहति

          प्रपञ्चस्तत्रत्यस्तटिनिसमुपावर्णि कविभिः ॥ ३५॥

किन किन लोगों करके देवताओं का पुर नहीं प्राप्त किया गया और किन २ करके नहीं अत्यन्त भयानकभवन जो नरक लोक है प्राप्त किया गया उसमें हेतु अपने २ पुण्य पाप ही हैं परन्तु हम तो यह जानते है कि यह स्वा-नरक का विभाग जहां पर आप नहीं हे वहीं पर का कवियों ने वर्णन किया है ।

     अलं भ्रामं भ्रामं श्रमितमचलामण्डनिकरे

          वितण्डा खण्डाङ्गं प्रततयमदण्डाश्रयतनुम् ।

     कृपापूर्णापाङ्गैरहितविषयासङ्गपतितं

          परिष्वङ्गे कर्तुं जननि जनमेनं नहि परा ॥ ३६॥

खुब अच्छी तरह घूम-घूम कर पृथ्वी को इस ब्रह्मांड में थके हुए वितण्डा का पूर्णरूप और अहित विषयों के आसंग में गिरे हुए अत एवं विस्तृत यमदण्ड के आश्रय तनुवाले इस जन को अपने कर में करने को हे मातः ! तुम से दूसरा नहीं है इससे कृपाकटाक्ष करो ।

     भवादारभ्याहो यदवधि न बुद्धिस्थितिरभू-

          दहं शर्मागारस्तदनु विलसत्यम्ब जगतः ।

     प्रपञ्चे चिन्ताभिस्तटिनि सहसा जर्जरतनुं

          वरीभर्तुं चाद्य त्वमिह मिलितासि प्रणयतः ॥ ३७॥

जन्म से लेकर अबतक कि ज्ञान नहीं हुआ मैं अपने को कल्याणों का आश्रय समझता था उसके बाद जब ज्ञान हुआ और संसार का प्रपंच अज्जृंभित हुआ तो शीघ्र ही यह जन जर्जरतनु हुआ है आज उस जीर्ण शरीरवाले जन को भरण करने को हे अंब ! तुम प्रेम से मिली हो ।

     अलं ते वल्गन्तामनवसितवल्गायत इमे

          मुधा देव्यो देवा हरिहरभवानीप्रभृतयः ।

     मुहुः काले काले विषदमनुभूयाम्ब पुस्त-

          स्तदेतेषामागाममितकरुणे तेऽद्य शरणम् ॥ ३८॥

व्यर्थ ही हर हरि भवानी आदिक देवी देवता गर्व से भरे रहैं और डींग पीटैं कि हमी है जो हैं क्योंकि उनके कुछ लगाम तो लगी नहीं है परंतु बार २ इन लोगों के शरण में रहकर हे मातः ! मैंने विपत्तियों का अनुभव किया इससे अब हे अमितकरुणे ! इस समय मैंने तुम्हारी शरण ली है ।

     दलत्यामम्बैषां त्वयि हि जनतापं परिभवा-

          दकूपारे शेते निभृत इव विष्णुः स्मरहरः ।

     अलक्ष्यो लक्ष्यादहह ननु विक्षित इव सं-

          वसानः सर्वाशा भ्रमति मृतभूमिष्वविरतम् ॥ ३९॥

हे अंब ! जिनके पापों को विष्णु और शिव नहीं दूर कर सके उनके पापों को जब तुम दलन करन को उद्यत हुई । तो परिभव से विष्णु जाकर छिपकर समुद्र में सोने लगे और महादेव लज्जा से अलक्ष्य होकर पागल की नाईं नंगे शरीर स्मशानों में घूम रहे हैं ।

     निरस्यन्ती पापं सकलमनिरस्यं यदितरै-

          रमूनीशानादीनशितवलिभोज्यान् स्थितिजुषाम् ।

     त्रपत्यप्यन्तस्त्वं गलितदृढ दर्पान् विदधती

          समालम्बस्वाम्ब स्वजनमनुकम्पार्द्रहृदये ॥ ४०॥

जिस पाप को दूसरा नही दूर कर सकता उन पापों को दूर करती हुई तुम इन विश्वासी भक्तों की पूजा और भोजनादि स्वीकार करनेवाले ईशानादि को स्वयं लज्जा करती हुई भी अहंकारशून्य करती हो, हे अंब ! अनुकम्पा से आद्रहृदय अपने- इस जन को ग्रहण करो ।

     उपालम्भारम्भे निरतमितरेषामविरतं

          निरालम्बे सत्यप्यनवधिमदोद्रेकनिलयम् ।

     तथाप्यूरीकर्तुं जननि जनमेनं परिकर-

          स्त्वदीयं वात्सल्यं प्रथयति समस्तेऽवनितले ॥ ४१॥

अन्यों की निंदापूर्वक भाषण में हमेशा लगे हुये और आलंब न होने पर भी अखण्ड अहंकार का गृहरूप ऐसे भी इस जन को स्वीकार करने में तुम्हारा यह परिकर समस्त भूतल में तुम्हारी वत्सलता को प्रकाशित करता है ।

     मुकुन्दोऽप्यासीनो विपुलभवने भार्गवकृते

          यदन्तर्ब्रह्माण्ड लुठति सहसोदम्बरनिभम् ।

     समाकाङ्क्षी नित्यं भवति यदपां लक्ष्मणपुरे

          हरत्वेनः सेनां मम तु खलु सा काष्ठपुलिनी ॥ ४२॥

जिन मुकुन्द के उदर में यह समस्त ब्रह्माण्ड सहसा गूलर फल की भांति लोट रहा है वह मुकुन्द भार्गववंशीय श्रीप्रयागनारायण के विपुल मंदिर में बैठे हुए जिस गोमती के जलों की निरंतर आकांक्षा करते हैं वह लखनऊ काठ के पुलवाली गोमती मेरे पापों की सेना को दूर करें ।

     स्फुरश्चिन्तामत्स्यप्रबलविषयग्राहजटिल-

          प्रथान्यञ्चं चञ्चत्कुहरलहरीपूर्णमसकृत् ।

     पुनीथा निस्यन्दैरमृतकलकल्लोलजनितै-

          र्जडप्रायं मातर्जननदमगम्यं निजतया ॥ ४३॥

जिसमें चिन्तारुपी मत्स्य है और प्रयल विषयरूपी ग्राह है जटिल प्रथा से नीचे जानेवाले और जिसमें विघ्नरूपी चमकती लहरिया वार २ पूर्ण हो रही है ऐसे जड़भाष अथ च जलप्राय इस जननद को अपना जातीय जानकर अमृत से सुन्दर कल्लोलों से उत्पन्न निस्यन्दों से अगम्य को पवित्र करो ।

     भुजङ्गेशः शेषोऽप्यथ च गिरिजेशस्तव नुर्तिं

          विधातुं लोकेशः कथमपि न कार्मठ्यमगमत् ।

     तदा कोऽहं जन्तुर्जननि जगतीरत्नलतिके

          ह्यलङ्कर्मीणः स्यामहह भवतीं स्तोतुममले ॥ ४४॥

सर्पाधिराज शेष और महादेव ब्रह्मा भी जिस तुम्हारी स्तुति करने को समर्थ नहीं है तब में कौन जन्तु हूं कि हे भूतल में रत्नलतारुप मलरहित तुम्हारी स्तुति को अलंकर्मीण होऊ ।

     जुगुप्सन्तः पापादवनिविरमन्तः श्रुतिधरा

          निलीयन्ते लोकादवनितलजातां भगवतीम् ।

     अजानाना एके वयमिह तु कल्पद्रुमशतं

          समं न्यक्कुर्वन्त्यां त्वयि जननिलीयेमहि मुखम् ॥ ४५॥

हे रक्षण करनेवाली ! वैदिक जन कोई २ संसार में पाई हुई आपको न जानते हुए पाप से अलग होते हुए संसार से लिपटे हैं हम तो एक दफे में भी सैकडों कल्मषों को तिरस्कार करनेवाली आपमें हे मातः ! सुख से लीन हो रहे हैं ।

     दिशन्ती कामानां कृदरजठरामङ्गलमयी-

          मनाहृत्यावद्या यदिह कृपणानङ्गकुनृपान् ।

     समर्थन्तेऽर्थन्तां मम तु खलु शूलं बुधवरा-

          व्रजन्तो लोकेशीं कथमयि न नाथन्ति कुधियः ॥ ४६॥

मनोरथों को देनेवाली मंगलमयी आपका अनादर करके निन्दित पेटू लोग यदि मूढ राजाओं को याचते हैं, तो याचे पर मुझे तो शूल यह है कि विद्वान् लोग जाते हुए दूसरों के यहां कुबुद्धि क्यों नहीं तुम्ही से याचना करते हैं ।

     लसच्छन्दोवन्धां परमरमणीयां गुणगणैः

          रसालङ्काराढ्यां ध्निशतसमेतां शुचिपदाम् ।

     सुरीतिं सदवर्णां विलसदभिधेयां तव तनुं

          नुमोलक्ष्याच्छाभां सरसकविक्लृप्तां कृतिमिव ॥ ४७॥

जिसमें छन्द के समान बंधा बंधा है अन्यत्र सुन्दर जिसमें छन्दों का बंध है और गुणसमूह से परमरमणीय-अन्यत्र माधुपादि गुणों से सुन्दर जल की शोभा से पूर्ण-अन्यत्र रस श‍ऋंगार आदि और उपमादि अलंकारों से आढ्य सैकड़ों ध्वनि अर्थात् शब्दों से युक्त अन्यत्र व्यंग्यपूर्ण पवित्र स्थानवाली, अन्यत्र शुद्ध पदवाली, सुन्दर रीति धारावाली, अन्यत्र सुन्दर न्यासवाली, सुन्दर वर्णवाली अन्यत्र सुन्दर अक्षरवाली, सुन्दर नामवाली, अन्यत्र रुचिर अर्थवाली लक्ष्य शोभावाली, अन्यत्र लक्ष्यार्थ से सुन्दर प्रभावाली हे भगवति ! तुम्हारी तनु को सरस कवि की बनाई कृति के समान प्रणाम करता हूं ।

     कचित्कञ्जालीढोल्लसितविसिनीवृन्दविलस-

          त्तट कल्लोलात्तं तव मृगविहङ्गादिप्रसृतम् ।

     परिच्छन्नं नानामुनिजनकदम्बाङ्कितमिदं

          समाचङ्खायान्मे जननि भवजम्बालमखिलम् ॥ ४८॥

कहीं कहीं कंजों से उल्लसित कमलिनियों के वृन्द से विलसित और लहरों से गृहीत मृग विहंगादि से व्याप्त भांति २ के मुनिजन समूहों से अंकित और पूर्ण हे गोमति ! तुम्हारा तट मेरे संसारिक संपूर्ण पाप को नाश करें ।

     तवाम्भः शम्भ्वादित्रिदशगणसम्भावितमिदं

          भृतं भाले भक्त्या भवति भवजातरिह न येः ।

     बृहल्लोलापाङ्गैस्थ च लसदम्भोजरुचिह-

          च्छयैरेतैलाभः क इह जननि प्रापि जनुषा ॥ ४९॥

शंभु यादि देवतागणों से बंदित तुम्हारा जल संसार में आए हुए जिन लोगों करके भक्ति से भाल पर नहीं धारण किया गया, बड़े बड़े चंचल नेत्रवाले और कमलकी रुचि हरनेवाले हाथों से युक्त भी उनलोगों करके जन्म पाकर हे गोमति अम्ब ! क्या फल पाया गया कुछ भी नहीं ।

     मुधा सौधं धाम त्वरितमयि मातर्हतधिया

          विहायायाच्यन्तद्रविणमदमूढाः क्षितिभुजः ।

     तदेतत्पापानामविकलफलाभोगनिरतं

          निरीक्ष्याम्बाशु त्वं शमय मम मन्तूनथ शुभे ॥ ५०॥

जल्दी से व्यर्थ ही अमृतमय धाम छोड़कर हे मातः ! इतबुद्धि मुझसे धन-मद से मूह क्षितिष याचे गये । सो उन पापों के संपूर्ण फलों के भोग में लगे हुए मुझे देखकर हे शुभे ! मेरे अपराधों को शान्त करो ।

     स्पृहा लोकेनाम्ब क्षणमपि ममानर्व्यरचित-

          व्यथाशोकाम्भोधिब्रुडिततनुषोविक्लवभृतः ।

     तदेतत्संयम्य प्रततलहरीमञ्जलिपुटं

          समायाचे मातःशिथिलयतमां संसृतिभिमाम् ॥ ५१॥

हे अम्ब ! मुझे इस संसार से अथ बिलकुल प्रेम नहीं है इससे अमूल्य हृदय प्रियवस्तु के नाश से शोकरूपी सागर में जिसका शरीर बूढ़ा है और हर वक्त व्याकुलता से पूर्ण इस जन की संसृति को अर्थात संसारबन्धन को शिथिल करो यही हाथ जोड़े प्रार्थना कर रहा हूं ।

गोमतीलहरी महात्म्य

     लभेदर्थी स्वार्थं सुतमपि सुतार्थी स्तुतिमिमा-

          मयीधानः शत्रून् जयति विजयार्थी प्रतिदिनम् ।

     कृतं व्यक्त्या सिद्धिं दिशति नहि काङ्कामियमहो

               भुवं प्राप्तां शश्वद्धजत ननु रे कल्पलतिकाम् ॥ ५२॥

इस स्तुति को प्रतिदिन पढने वाला यदि धनार्थी है तो धन को और सुतार्थी सुत को प्राप्त होता है । विजयार्थी शत्रुवों को जीतता है प्रकाश करना व्यर्थ है यह कौन कौन सिद्धि को नहीं देती, रे जनो ! पृथ्वीतल को प्राप्त इस कल्पलतारूपी गोमती का सेवन करो ।

     वाचामीश्वरगीयमानचरितश्रीमौलिलालायिता-

          म्भोजद्वन्द्वसमानपादयुगुलश्रीमाधवस्यात्मभूः ।

     शब्दार्थागममञ्जुकुञ्जविलसच्छास्त्रान्तरारण्यक-

          व्यासङ्गैकपरायणश्रुतिगृहाशायी सुधी केसरी ॥ ५३॥

     श्रीसौमित्रिपुरस्थभार्गवमणिश्रीविष्णुनारायण-

          च्छत्रच्छायसमाश्रितःप्रतिदिनंश्रीचन्द्रकेतुः कविः ।

     अन्तेवासिगणाग्र्यसङ्घपणितस्तुत्याङ्घ्रिकञ्जद्वयी

          लीलाखेलतयैवगोमतिनदीस्तोत्रंव्यनेषीदितिम् ॥ ५४॥

बृहस्पति से गीयमान है चरित जिनका और लक्ष्मी मौलि द्वारा जिनके कमल सदृश चरण युगल को चाहती है ऐसे श्री पंडित प्रवर माधवरामों का पुत्र-व्याकरण साहित्यरूपी जिसमें कुञ्ज है ऐसे अन्य शास्त्ररूपी अरण्य के व्यासंग में युक्त वेदरूपी गुहा में सोनेवाला विद्वत्श्रेष्ठ लखनऊ के भार्गों में मणि सहश श्रीविष्णुनारायण की छत्रछाया में आश्रित और अनेक उत्तम २ शिष्यसमूह से पूज्य जिसके चरण स्तुत्य हैं ऐसे चन्द्र केतु कवि ने विना परिश्रम के इस गोमती स्तोत्र को निर्मित किया ।

     श्रीचन्दकेतुकविना रचितस्तवं यः

          प्रातः पठेदिह तटेऽथतदम्बुमग्नः ।

     सर्वेप्सितार्थवलयं कलयाञ्चितश्री-

          स्तस्मै दिशत्यविरतं ननु गोमतीयम् ॥ ५५॥

चन्द्रकेतुकवि कृत इस गोमती स्तोत्र को तट पर या जल में जो मनुष्य पढेगा उसको कलाओं से अंचित श्रीगोमती सब इप्सित समूहों को देवैगी ।

     मासदयं प्रतिदिनं पुलिनासनस्थ-

          श्छात्रो यदि स्तवमिदं पठति प्रभाते ।

     सारस्वत स्फुरति धाम किमप्यलं य\-

          स्वान्तं प्रसादयति रञ्जयति त्रिलोकीम् ॥ ५६॥

यदि छात्र प्रातःकाल तट पर प्रतिदिन दो मास इस स्तोत्र को पढे, तो सब विद्याओं का स्फुरण हो और संसार के सब लोग उससे प्रसन्न हों-अर्थात् वशीभूत हो ।

     केनाप्यकथ्यशोकेन प्रेरितेन दिनात्यये ।

     व्यधायि न तु पाण्डित्यदर्शनाय स्तुतिर्मया ॥ ५७॥

किसी अकथनीय शोक से दिन बिताने में प्रेरित मेरे द्वारा यह स्तुति बनाई गई है पांडित्य दिखलाने को नहीं ।

     क्व शोकार्त मनः क्वेदमावहित्यप्रकल्पनम् ।

     तत्क्षमध्वमहो धीरा विषमे समुपस्थिते ॥ ५८॥

कहाँ शोकार्त मन और कहां चित्तैकाग्रतासाध्य कल्पना तदपि हे धीर ! विषम उपस्थिति में आप लोगों को क्षमा करना उचित है ।

     मात्सर्य समनुत्सृज्य परदोषैकदृष्टयः ।

     स्मयन्तान्तेन किन्नैते हसन्ति पितरं स्वकम् ॥ ५९॥

अभिमानिता को न छोड़ परके दोष देखना ही जिनकी दृष्टि का मुख्य कार्य है वह हंसें क्या वे अपने पिता को भी नहीं है हंसते ।

     नैषावर्णि क्वचित्पूवैर्महाकविभिरुत्तमा ।

     गोमतीति मया दृष्टिर्न्यधायीह प्रयत्नतः ॥ ६०॥

महाकवियों ने जो पूर्व हुए हैं इस उत्तम गोमती का वर्णन नहीं किया इससे यत्न से मैंने इस पर दृष्टि डाली है ।

     मास्तु साहित्यसौन्दर्यवर्णनेह परं त्वियम् ।

     शब्दिता गोमतीनाम्ना दिशत्यविरतं सुखम् ॥ ६१॥

इस स्तुति में साहित्यिक सौन्दर्य न हों परंतु गोमती नाम से कीर्ति तो यह हमेशा सुख को देती है ।

     इति गोमतीलहरी समाप्ता ।

गोमतीलहरी विशेष

     अन्वयादिक मुल्लङ्घ्य शब्दार्थान्कानपि ध्रुवम् ।

     भावावलम्बिनी टीका सैषा क्लृप्ता विशेषतः ॥ १॥

यह वाक्य रचना शब्दों के अर्थ को ध्यान में रखते हुए की गई है तथा विशेष रूप से दी गई भावनात्मक टिप्पणी पर आधारित है।

     भक्तानां पठतामेषा यदि स्वादुपकारिणी ।

     गोमतीकृपया तेनोत्फलं मन्यामहे श्रयम् ॥ २॥

जो भक्त इन श्लोकों का सच्चे मन से पाठ करेगा, वह माँ गोमती की कृपा से प्रदान की गई शरण में फलदायी होगा।

     इति श्रीगोमतीलहरीटीका भावावलम्बिनी समाप्ता ।

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