मयमतम् अध्याय २३
मयमतम् अध्याय २३ प्राकार परिवार
विधान —
इसमें प्राकार या चारदिवारी की आवश्यकता, प्राकार
का प्रमाण, प्राकार की भित्ति, आवृतमण्डप,
भित्ति के शीर्षालंकार, अधिष्ठान की ऊँचाई,
परिवारालय - विधान, अष्ट परिवार, द्वादश परिवार, षोडश परिवार, बत्तीस
परिवार, मालिकापंक्ति, पीठलक्षण,
ध्वजस्थान, प्राकाराश्रित स्थान, शक्तिस्तम्भ, अन्य स्थान, विष्णु
परिवार तथा वृषलक्षण वर्णित हैं।
मयमतम् अध्याय २३
Mayamatam chapter 23
मयमतम् त्रयोविंशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र तेईसवां
अध्याय
मयमत अध्याय २३– प्राकारपरिवारविधानम्
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ त्रयोविंशोऽध्यायः
मयमत अध्याय २३– तत्र प्राकारविधानम्
रक्षार्थं च विमानानां शोभार्थं च
तथाऽधुना ।
परिवारनिवेशार्थं प्राकारं
प्रोच्यते बुधैः ॥१॥
चार दीवारी एवं सहायक देवपरिवार के
स्थान का विधान - बुद्धिमान ऋषियों ने देवालय की रक्षा के लिये,
शोभा के लिये एवं परिवार (सहायक देव, सेवकवर्ग)
के लिये प्राकार का वर्णन जिस प्रकार किया गया है, उसका
वर्णन अब किया जा रहा है ॥१॥
मयमत अध्याय २३–
प्राकारमानम्
कृत्वा चतुष्पदं मूलप्रासादस्य तु
विस्तृतम् ।
आद्यं सालं महापीथं पदैः
षोडशभिर्युतम् ॥२॥
मण्डूकाख्यं द्वितीयं स्यान्मध्यं
भद्रमहासनम् ।
चतुर्थं सुप्रतीकान्तं पञ्चमं
चेन्द्रकान्तकम् ॥३॥
प्राकार का मान - प्रधान देवालय की
चौड़ाई को चार पद में बाँटना चाहिये । प्रथम साल (प्राकार) की संज्ञा 'महापीठ' है एवं इसमें सोलह पद होते है । द्वितीय साल
की संज्ञा 'मण्डूक' (चौसठ पद), मध्य साल (तृतीय) की संज्ञा "भद्रमहासन' (एक सौ
छत्तीस पद), चतुर्थ 'सुप्रतीकान्त'
(चार सौ चौरासी पद) एवं पाँचवे की संज्ञा 'इन्द्रकान्त'
(एक हजार चौबीस पद) होती है (ये पाँच प्रकार होते है) । ॥२-३॥
एवं युग्मपदैर्युक्तमयुग्मैरथ
वक्ष्यते ।
एकमाद्यं विमानं स्यादाद्यं सालं तु
पीठकम् ॥४॥
द्वितीयं स्थण्डिलं सालं मध्यं
चोभयचण्डितम् ।
सुसंहितं चतुर्थं स्यादीशकान्तं तु
पञ्चमम् ॥५॥
(उपर्युक्त प्राकारभेद) युग्म संख्या वाले पदों के अनुसार वर्णित है । अब
असम संख्या के अनुसार (प्राकार) वर्णन किया जा रहा है । विमान (देवालय) का मात्र
एक पद होता है । प्रथम साल 'पीठ' (नौ
पद), दुसरा 'स्थण्डिल' (उनचास पद), मध्य साल (तृतीय) 'उभयचण्डित'
(एक सौ उनहत्तर पद) संज्ञक, चौथ 'सुसंहित' (चार सौ इकतालीस) संज्ञक एवं पाँचवाँ 'ईशकान्त' (नौ सौ इकसठ पद) संज्ञक होता है ॥४-५॥
चतुरस्त्रीकृते तेन
मुखायाममिहोर्ध्वतः ।
पादाधिकमथाध्यर्धं पादोनद्विगुणं
क्रमात् ॥६॥
द्विगुणं द्विगुणार्धं च त्रिगुणं
वा चतुर्गुणम् ।
मुखायाममिति प्रोक्तं प्राकाराणां
विशेषतः ॥७॥
चतुष्कोण क्षेत्र के अग्र भाग की
लम्बाई का वर्णन ऊपर किया जा चुका है । यह लम्बाई (मन्दिर के चौड़ाई की) क्रमशः सवा,
डेढ़, तीन, चौथाई एवं
दुगुनी होती है । प्राकारों के अग्र भाग की लम्बाई दुगुनी, ढाई
गुनी, तीन गुनी या चार गुनी कही गई है ॥६-७॥
क्षुद्राणामल्पहर्म्याणां
स्वव्यासार्धप्रमाणतः ।
अन्तर्मण्डलकं कुर्यात् सत्रिहस्तं
तु तत्समम् ॥८॥
द्वितीय़ं हि तृतीयं तु तस्मात्
पञ्चकराधिकम् ।
तस्मात् ससप्तहस्तं तु तत्समं
स्याच्चतुर्थकम् ॥९॥
छोटे मन्दिरों में भी अत्यन्त छोटे
मन्दिर की चौड़ाई के डेढ़ बाग की दूरी पर (प्रथम प्राकार) 'अन्तर्मण्डल', उसके आगे उतनी ही दूरी तीन हाथ पर
दूसरा प्राकार, उससे पाँच हाथ दूरी पर तीसरा प्राकार,
उससे सात हाथ की दूरी पर चौथा प्राकार एवं नौ हाथ की दूरी पर
पाँचवाँ प्राकार होना चाहिये ॥८-९॥
नवहस्तसमायुक्तं तत्समं पञ्चमं
भवेत् ।
मध्यमानां
स्वतारार्धमन्तर्मण्डलमिष्यते ॥१०॥
तत्समं पञ्चहस्तेन संयुक्तं स्याद्
द्वितीयकम् ।
सप्तहस्ताधिकं तस्मात् सालमुक्तं
तृतीयकम् ॥११॥
नवहस्ताधिकं तस्माच्चातुर्थं
सालमीरितम् ।
एकादशकरैर्युक्तं तत्समं पञ्चमं
भवेत् ॥१२॥
(छोटे मन्दिर के) मध्यम कोटि के देवालय की चौड़ाई के आधे माप की दूरी पर
अन्तरमण्डल की रचना की जाती है । दूसरा प्राकार पाँच हाथ की दूरी पर होता है ।
तीसरा साल (प्राकार) सात हाथ की दूरी पर, चतुर्थ साल नौ हाथ
की दुरी पर एवं पाँचवाँ ग्यारह हाथ की दूरी पर होना चाहिये ॥१०-१२॥
उत्तमानां स्वतारार्धमाद्यं सालं
प्रकीर्तितम् ।
तत्समं सप्तहस्तेन संयुक्तं स्याद्
द्वितीयकम् ॥१३॥
नवहस्ताधिकं तस्मात् तृतीयं
सालमुच्यते ।
तस्मादेकादशाधिक्यं तत्समं तु
चतुर्थकम् ॥१४॥
त्रयोदशकरैर्युक्तं तत्समं पञ्चमं
भवेत् ।
एवं क्षुद्राल्पमध्यानामुत्कृष्टाना
प्रकीर्तितम् ॥१५॥
(छोटे देवालयों के) उत्तम श्रेणी के देवालयों का प्रथम साल उसकी चौड़ाई के
आधे माप की दूरी पर होना चाहिये । दूसरा साल सात हाथ की दुरी पर, तीसरा नौ हाथ की दूरी पर, चौथा ग्यारह हाथ कि दूरी
पर एवं पाँचवाँ तेरह हाथ की दूरी पर होना चाहिये । इस प्रकार अत्यन्त छोटे,
क्षुद्र-मध्यम एवं क्षुद्र उत्तम कोटि के देवालय के सालों
(प्राकारों) का वर्णन किया गया ॥१३-१५॥
एतेन कारयेद् धीमान् पूर्वोक्तेन
क्रमेण वा ।
प्राकारं परितस्तस्मान्मुखायामं तु
पूर्ववत् ॥१६॥
भित्त्यभ्यन्तरमानेन
मानयेन्मानवित्तमः ।
भित्तिमध्येन बाह्येन कैश्चिदुक्तं
तु सुरिभिः ॥१७॥
बुद्धिमान व्यक्ति को इस विधि से या
पूर्वोक्त क्रम से चारो ओर प्राकार की रचना करनी चाहिये । इसके मुखभाग की लम्बाई
पूर्व-वर्णित रखनी चाहिये । माप के ज्ञाता भित्ति के भीतर से माप लेते है । कुछ
विद्वानों के अनुसार भित्ति के मध्य से एवं कुछ के अनुसार भित्ति के बाहर से माप
लेना चाहिये ॥१६-१७॥
मयमत अध्याय २३–
प्राकारभित्तिः
अन्तर्मण्डलभित्तेश्च विष्कम्भं
सार्धहस्तकम् ।
तस्मात् त्रित्र्यङ्गुलाधिक्याद्
द्विहस्तान्तं यथाक्रमम् ॥१८॥
पञ्चानामपि सालानां विष्कम्भं
परिगृह्यताम् ।
तत्तद्विष्कम्भमानेन त्रिगुणं वा
चतुर्गुणम् ॥१९॥
अन्तर्मण्डल की भित्ति का विष्कम्भ
(मोटाई) डेढ़ हाथ होना चाहिये । इसके आगे के प्राकारों के विष्कम्भो का माप तीन-तीन
अङ्गुल बढ़ाते हुये दो हाथ तक क्रमानुसार ले जाना चाहिये । पाँचो सालो (प्राकारों)
का विष्कम्भ इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये । उनके विष्कम्भ-मान से उनकी ऊँचाई तीन
गुनी या चार गुनी अधिक होनी चाहिये । अग्र भाग (ऊपरी भाग) का विस्तार (मूल से) आठ
भाग कम होना चाहिये ॥१८-१९॥
प्राकारोदयमुद्दिष्टं
स्वाष्टांशोनग्रविस्तरम् ।
उत्तरान्तोचिता वाऽपि
कुम्भमण्ड्यन्तकोदयाः ॥२०॥
मसूरकादिवर्गाढ्याः
खण्डहर्म्याभिमण्डिताः ।
ऋजिभित्तियुता वाऽद्बुदार्धेन्दुशीर्षकाः
॥२१॥
प्राकार की ऊँचाई उत्तर के अन्त तक
या (स्तम्भ के) कुम्भ या मण्डि तक रखनी चाहिये । प्राकार को मसूरक से युक्त एवं
खण्डहर्म्य से सुसज्जित होना चाहिये । यह भित्ति सीधी हो अथवा बुद्बुद (गोल सजावटी
बिन्दु) या अर्धचन्द्र उसके शीर्षभाग पर सुसज्जित होना चाहिये ॥२०-२१॥
क्षुद्राल्पानां तु सालानां
भित्तिर्हस्तप्रमाणतः ।
सार्धहस्तावधिर्यावत् पूर्ववद्
वर्धयेत् क्रमात् ॥२२॥
(छोटे देवालयो के) सबसे छोटे मन्दिर के सालों की भित्ति (प्राकारों की
मोटाई) हस्त-प्रमाण से होती है । इसे डेढ़ हाथ से प्रारम्भ होकर पूर्व-वर्णित रीति
(तीन-तीन अङ्गुल) से क्रमानुसार बढ़ाना चाहिये ॥२२॥
सोत्तरा वाजनच्छत्रशीर्षाभाः
सालभित्तयः ।
भित्तिव्याससमोत्तुङ्गं
पादार्धाधिकमेव वा ॥२३॥
तदुच्चे
रुद्रभागऽप्यग्निमोक्षोऽक्षिशिवांशकैः ।
उत्तरं वाजनाब्जं च क्षेपणं च
यथाक्रमम् ॥२४॥
ऋजुभित्तियुतं ह्येतत्
खण्डहर्म्याभिमण्डितम् ।
अधिष्ठानादिवर्गाढ्यं
निर्गमोद्गमसंयुतम् ॥२५॥
प्राकार-शीर्ष उत्तर,
वाजन एवं छत्र से युक्त होता है । इसकी ऊँचाई भित्ति के चौड़ाई के
बराबर, सवा भाग या डेढ़ भाग अधिक होनी चाहिये । ऊँचाई को
ग्यारह भागों में बाँटना चाहिये । तीन भाग से उत्तर, तीन भाग
से वाजन, दो भाग से अब्ज एवं तीन भाग से क्षेपण की
क्रमानुसार योजना करनी चाहिये । भित्ति (का बाहरी भाग) सीधा अथवा खण्डहर्म्य से
युक्त हो सकता है । यह अधिष्ठान से प्रारम्भ होकर (ऊँचाई पर) निर्गम से युक्त होता
है ॥२३-२५॥
मयमत अध्याय २३–
आवृतमण्डपम्
एकद्वित्रितलोपेतं
कुर्यादावृतमण्डपम् ।
अभ्यन्तरे बहिष्ठात्तु
ऋजिभित्तियुता भवेत् ॥२६॥
अधोभूमित्रिभागे तु द्विभागं
चोर्ध्वभूमिकम् ।
तत्पादाष्टांशहीनं वा
बहिर्भित्त्युन्नतं भवेत् ॥२७॥
भित्ति के भीतरी भाग में एक,
दो या तीन तल से युक्त आवृतमण्डप का निर्माण करना चाहिये । भित्ति
बाहर से सीधी होती है । निचले तल के तीन भाग में से दो भाग के बराबर ऊपरी तल का
मान रखना चाहिये । अथवा यह चतुर्थांश या आठवाँ भाग हीन हो सकता है । या इसकी ऊँचाई
बाहरी भित्ति के बराबर हो सकती है । यह मालिका की आकृति वाली या महावार (बड़ा
बरामदा) से युक्त होती है ॥२६-२७॥
मालिकाकृतिरेवं वा महावारयुतं तु वा
।
मानान्तं बाह्यभित्त्युच्चमधो धूमेः
स्थलान्तकम् ॥२८॥
मूलसद्योन्तरान्तं वा
प्रस्तरान्तमथापि वा ।
खण्डहर्म्योत्तरान्तं वा
शिखरान्तोन्नतं तु वा ॥२९॥
बाह्य भित्ति की सबसे अधिक ऊँचाई प्रधान
देवालय की निचली भूमि के स्थलभाग से उत्तर पर्यन्त, प्रस्तर तक, खण्डहर्म्य के उत्तर तक अथवा शिखर
पर्यन्त हो सकती है ॥२८-२९॥
मण्डपं द्वितलं वैकतलं वाऽपि
तदावृतम् ।
अधिष्ठानादिवर्गाढ्यं समं
वाष्टांशहीनकम् ॥३०॥
त्रिपादं वा विशेषेण
सालाधिष्ठानतुङ्गता ।
द्विगुणं चरणोतुङ्गं षडष्टांशोनमेव
वा ॥३१॥
दो या एक तलयुक्त मण्डप (देवालय) के
चाओ ओर हो सकता है । यह अधिष्ठान से युक्त, उसके
बराबर ऊँचा, आठ भाग कम या तीन चौथाई ऊँचा ओ सकता है । मण्डप
के स्तम्भ (अधिष्ठान से) दुगुने ऊँचे या (दुगुने से) आठ या छः भाग कम ऊँचे हो सकते
है ॥३०-३१॥
मयमत अध्याय २३–
सालशीर्षालङ्कारः
उक्षं वा भूतरूपं वा कर्तव्यं
सालशीर्षके ।
मूलजन्मतलं हस्तमात्रोच्चं
जन्मसालतः ॥३२॥
प्राकार के शीर्षभाग के अलङ्करण -
साल (प्राकार) के शीर्षभाग पर वृषभ या बूतों का स्वरूप अङ्कित करना चाहिये । मूल
देव-भवन का जन्मतल (अधिष्ठान) साल के जन्म से एक हाथ ऊँचा रखना चाहिये ॥३२॥
मयमत अध्याय २३–
अधिष्ठानोत्सेधः
प्रतिसालं तु षण्मात्रहीनं
स्याच्छेषसालके ।
क्षुद्रे साष्टादशाङ्गुल्यं मध्यमे
मूलपादुकम् ॥३३॥
क्षपयेत्तु चतुर्मत्रैर्यावत्
पञ्चान्तसालकम् ।
योजयेद् विधिनानेन
स्थपतिस्तत्क्रमेण तु ॥३४॥
अधिष्ठान की ऊँचाई - क्षुद्र देवालय
में शेष सालों मे प्रत्येक साल छः-छः अङ्गुल कम होता जाता है । मध्यम देवालय में
अट्ठारह अङ्गुल का अन्तर होता है । प्रत्येक साल में (प्रथम से) पाँचवे तक चार-चार
अङ्गुल कम होता जाता है । स्थपति को इसी विधि से साल-योजना करनी चाहिये ॥३३-३४॥
मयमत अध्याय २३–
परिवारालयविधानम्
परिवारविमानानां मानं
गर्भार्धमिष्यते ।
मूलवस्तुत्रिभागैकं मध्यं वा
पादबाह्यकम् ॥३५॥
देव-परिवार के भवन का विधान -
परिवार देवालय (प्रधान देव-मूर्ति से पृथक् देव-परिवार का मन्दिर,
जो मन्दिर परिसर में बने होते है) के गर्भगृह का मान प्रधान देवालय
के विस्तार का आधा होता है । इस तीसरे भाग, आधा, तीन चौथाई के बराबर भी रक्खा जाता है । इस भवन का विस्तार तीन, चार, पाँच, छः या सात हात रखना
चाहिये ॥३५॥
त्रिचतुष्पञ्चषट्सप्तहस्तैर्वा
हर्म्यविस्तृतम् ।
अष्टौ वा परिवाराः स्युस्तथा द्वादश
षोडश ॥३६॥
द्वात्रिशंत् परिवाराश्च हीष्यन्ते
शास्त्रकोविदैः ।
परिवारामरोत्सेधं युक्त्या तत्रैव
योजयेत् ॥३७॥
यद्क्तं सकले बेरे तन्मानं गृह्यतां
वरैः ।
सर्वलक्षणसंयुक्तं स्थानकासनमेव वा
॥३८॥
शास्त्र के ज्ञाताओं के अनुसार आथ,
बारह, सोलह या बत्तीस परिवार-देवता होते है ।
परिवार-देवों की मूर्ति की ऊँचाई नियमानुसार होनी चाहिये । जो प्रमाण सकल बेरों
(बेरों, पट्टियों पर निर्मित आकृति) के लिये कही गई है,
वही प्रमाण श्रेष्ठ स्थपति को ग्रहण करना चाहिये । ये (मूर्तियाँ)
सभी लक्षणों से युक्त बैठी या खड़ी मुद्रा में होनी चाहिये ॥३६-३८॥
मयमत अध्याय २३–
अष्टौ परिवाराः
हीनविमानानामथ परिवाराश्चाष्ट वै
प्रोक्ताः ।
प्राकारोऽप्येकः स्यात् पीठपदे
चार्यकादिषु वा ॥३९॥
ऋषभगणाधिपकमलजामातृगुहार्याच्युताश्च
चण्डेशः ।
आठ परिवार-देवता - छोटे देवालयों
में एक ही प्राकार एवं आठ परिवार देवता होने चाहिये । यदि पीठ-संज्ञक वास्तु-पद हो
तो आर्यक के पद से प्रारम्भ कर ऋषभ, गणाधिप,
कमलजा (लक्ष्मी), मातृकायें, गुह, आर्य, अच्युत एवं चण्डेश
होने चाहिये ॥३९॥
मयमत अध्याय २३–
द्वादश परिवाराः
उपपीठपदे चान्तर्द्वादश परिवारकाः
स्थाप्याः ॥४०॥
वृषकमलजगुहहरयः
पूर्ववदुदितास्तथार्यकादिपदे ।
रविगजवदनयमास्ते मातृजलेशौ च दुर्गा
च ॥४१॥
धनदश्चण्डः क्रमशः
सूर्यपदादिष्ववामगताः ।
बारह परिवार-देवता - उपपीठ वास्तुपद
पर बारह परिवार-देवताओं की स्थापना करनी चाहिये । पहले की भाँति आर्यक पद से प्रारम्भ
कर वृष,
कमलजा, गृह एवं हरि होने चाहिये । सूर्य के पद
से दाहिनी ओर रवि, गजवदन, यम, मातृकायें, जलेश, दुर्गा,
धनद एवं चण्ड क्रमानुसार होने चाहिये ॥४०-४१॥
मयमत अध्याय २३–
षोडश परिवाराः
षोडश परिवाराः स्युश्चोग्रे पीठे
निधातव्याः ॥४२॥
अन्तश्चार्यकभागादिषु
वृषभाद्यास्तथा प्राग्वत् ।
ईशपदे च जयन्ते भृशभागैऽग्नौ च
वितथे च ॥४३॥
भृङ्गनृपे पितृसुगले शोषे वायौ च
मुख्यकेऽप्युदितौ ।
चन्डश्चन्द्रः सूर्यो गजवदनः श्रीः
सरस्वती चेति ॥४४॥
ता मातरश्च शुक्रो जीवो दुर्गा
दितिस्तथाप्युदितिः ।
षोडश परिवार-देवता - उग्र पीठ
वास्तुपद पर सोलह देव-परिवार स्थापित करना चाहिये । आर्यक पद पर वृष आदि देवों को
पहले के सदृश स्थापित करना चाहिये । ईश, जयन्त,
भृश, अग्नि, वितथ,
भृङ्गनृप, पितृ, सुगल,
शोष,वायु,मुख्य एवं
उदिति के पद पर क्रमशः चन्द्र, चन्द्र, सूर्य, गजवदन, श्री, सरस्वती, मातृकायें, शुक्र,
जीव, दुर्गा, दिति एवं
उदिति होनी चाहिये ॥४२-४४॥
मयमत अध्याय २३–
द्वात्रिंशत परिवाराः
द्वात्रिंशत्परिवाराः
स्थण्डिलकाख्ये तु चण्डिते स्थाप्याः ॥४५॥
ब्रह्मपदं नवबाह्यो श्रीज्येष्ठोमा
सरस्वती चैताः ।
साविन्द्रेन्द्रजयांशे रुद्रजये
चापवत्से च ॥४६॥
बत्तीस परिवार-देवता - स्थण्डिल
वास्तुपद पर बत्तीस परिवारदेवता स्थापित किये जाते है । ब्रह्मा के पद के बाहर नौ
पदो पर श्री, ज्येष्ठा, उमा एवं सरस्वती को क्रमशः साविन्द्र, इन्द्रजय,
रुद्रजय एवं आपवत्स के पद पर रखना चाहिये । आर्यक आदि के पद पर वृषभ
आदि देवों को पहले की भाँति स्थापित करना चाहिये । ॥४५-४६॥
आर्यादिषु च पदेषु वृषभाद्याः
पूर्ववत् कथिताः ।
ईशे पर्जन्यपदे माहेन्द्रे भानुभागे
तु ॥४७॥
सत्यान्तरिक्षकानलपूषगृहक्षतार्किभागे
तु ।
गन्धर्वे मृषभागे
पितृबोधनपुष्पदन्तवरुणेषु ॥४८॥
असुरे यक्षसमीरणभागे नागे च भल्लाटे
।
सोमपदे मृगभागेऽप्युदितौ देवाः
क्रमात्स्थाप्याः ॥४९॥
ईशशशिनन्दिकेश्वरसुरपतयो वै महाकालः
।
निकरवह्निबृहस्पतिगजवदनयमाश्च
भिङ्गिरिटिः ॥५०॥
चामुण्डाप्यथ निऋतिश्चागस्त्यो
विश्वकर्मा च ।
जलपतिरथ भृगुनामा दक्षः
प्रजापतिर्वायुः ॥५१॥
दुर्गा च वीरभद्रो धनदश्चण्डेश्वरः
शुक्रः ।
स्थण्डिलचण्डितभागे
पण्डितजनमण्डलैरुदिताः ॥५२॥
ईश, पर्जन्य, महेन्द्र, सूर्य,
सत्य, अन्तरिक्ष, अनल,
पूषा, गृहक्षत, यम,
गन्धर्व, मृष, पितृ,
बोधन, पुष्पदन्त, वरुण,
यक्ष, समीरण, नाग,
भल्लाट, सोम, मृग एवं
उदिति के पद पर क्रमशः देवों की स्थापना करनी चाहिये । (ये देवता है०) ईश, शशि, नन्दिकेश्वर, सुरपति,
महाकाल, दिनकर, वह्नि,
बृहस्पति, गजवदन, यम,
भृङ्गरीटि, चामुण्डा, निऋति,
अगस्त्य, विश्वकर्मा, जलपति,
भृगु, दक्ष प्रजापति, वायु,
दुर्गा, वीरभद्र, धनद,
चण्डेश्वर एवं शुक्त । विद्वानों के कथनानुसार स्थण्डिल
वास्तु-विभाग में यह व्यवस्था होनी चाहिये ॥४७-५२॥
युग्मायुग्मपदे ते कुड्यगता
वागताश्च परमध्ये ।
त्रिपाकारे पञ्चप्राकारेऽप्येवमेव
भवेत् ॥५३॥
अष्टाद्याः परिवारा
मध्यान्तर्हारयोरुदिताः
प्रत्यग्दिङ्मुखहर्म्ये मित्रे
वृषभस्थितिः प्रोक्ता ॥५४॥
वास्तु-विन्यास सम पदों का हो अथवा
विषम पदों का हो, परिवार-देवता
प्राकार की भित्ति पर निर्मित होने चाहिये । उससे पृथक् होने की स्थिति में मध्य
पद के पास होने चाहिये । जहाँ तीन अथवा पाँच प्राकार हो, वहाँ
प्रारम्भिक आठ देवता मध्याहार या अन्ताहार पर निर्मित होने चाहिये । यदि देवालय
पश्चिम-मुख हो तो मित्र के पद पर वृषभ की स्थिति होनी चाहिये ॥५३-५४॥
कमलजगुहहरयस्ते
भूधरभागार्ययोर्विवस्वति च ।
यन्मुखमीश्वरभवनं तन्मुखमेवोदितं
तेषाम् ॥५५॥
कमजल, गृह एवं हरि को भुधर, आर्य एवं विवस्वान् के पद पर
होना चाहिये । जिस दिशा में ईश्वर के भवन का मुख हो, उसी
दिशा में उनका भी मुख होना चाहिये । शेष देवों को पूर्ववर्णित पदो पर होना चाहिये
एवं उनका मुख देवालय की ओर होना चाहिये ॥५५॥
शिष्टा हर्म्याभिमुखाः पूर्वोक्तपदे
निधातव्याः ।
प्राक्प्रत्यङ्मुखमुक्षा
देवाभिमुखो न वाऽभिमुखः ॥५६॥
अवागुत्तरदिशि मुखिनौ चण्डेशेभाननौ
च मतौ ।
प्रासादमण्डपसभाशालाकाराणि कार्याणि
॥५७॥
परिवारविमानानि सर्वाण्यङ्गानि
युक्तिवशात् ।
देवालय का मुख चाहे पूर्व दिशा में
हो,
चाहे पश्चिम में हो, वृष का मुख अथवा पृष्ठभाग
शिव की ओर होना चाहिये । चण्डेश एवं गजानन का मुख क्रमशः दक्षिण एवं उत्तर की ओर
होना चाहिये । देव-परिवार के भवन सभी अङ्गो से युक्त, उचित
रीति से प्रासाद, मण्डप, सभा अथवा शाला
के आकार का निर्मित करना चाहिये । ॥५६-५७॥
मयमत अध्याय २३–
मालिकापङ्क्तिः
मध्यान्तर्हारयोरेव
मालिकापङ्क्तिरिष्यते ॥५८॥
एकद्वित्रिचतुर्भूमियुक्ता वा पञ्चभूमिका
।
भित्तेरुपरि भित्तिः स्यात् पादः
पादोपरि स्मृतः ॥५९॥
भित्तेरुपरि पादो वा पादोपरि न
भित्तिका ।
कूटकोष्ठादियुक्ता वा जालभित्तिरलङ्कृता
॥६०॥
मध्यहार एवं अन्तर्हार के बीच में
मालिका-पङ्क्ति निर्मित होनी चाहिये । यह एक, दो,
तिन, चार या पाँच तल की होनी चाहिये । दीवार
के ऊपर एवं स्तम्भ के ऊपर स्तम्भ निर्मित होना चाहिये । भित्ति के ऊपर स्तम्भ
निर्मित हो सकते है; किन्तु स्तम्भ के ऊपर भित्ति नही
निर्मित होनी चाहिये । मालिका-पङ्क्ति को कूट एवं कोष्ठ आदि से युक्त एवं
जालभित्ति से अलङ्कृत होना चाहिये । यह मण्डप के आकृति की, शाला
या सभा के आकृति की होनी चाहिये ॥५८-६०॥
मण्डपाकृतियुक्ता वा
शालाकारसभान्विता ।
भक्तिमानं तथा पादायामं संक्षिप्य
वक्ष्यते ॥६१॥
मूलधाम्नस्तूत्तरान्तमुपानाद्द्युन्नतं
क्रमात् ।
सप्तभागैः समं कृत्वा द्व्यंशं
मसूरकोन्नतम् ॥६२॥
पादायामं तु पञ्चांशं पादं
सर्वाङ्गसंयुतम् ।
अथवा पादमानं तु नवभागैर्विभाजयेत्
॥६३॥
अधिष्ठानं द्विभागं स्याच्छेषं
पादोदयं भवेत् ।
सार्धद्विहस्तमारभ्य षट्षडङ्गुलवर्धनात्
॥६४॥
षड्ढस्तान्तं समुत्सेधं स्तम्भं
त्रिः पञ्चसंख्यया ।
भित्त्यभ्यन्तरतस्तावदेवं तस्या
विशालता ॥६५॥
भक्त्यायामं च तावत् स्यात्
क्षुद्रे महति मन्दिरे ।
षडङ्गुलात् समारभ्य
वाङ्गुलाङ्गुलवर्धनात् ॥६६॥
अब भक्तिमान (विभाजन,
दूरी) एवं स्तम्भ का आयाम संक्षेप में वर्णित किया जा रहा है ।
प्रधान देवभवन के उपानत् (अधिष्ठान का ऊपरी भाग) से उत्तरपर्यन्त की दूरी को सात
बराबर भागों में बाँट कर दो भाग से मसूरक (अधिष्ठान) की ऊँचाई एवं पाँच भाग से
स्तम्भ की ऊँचाई रखनी चाहिये । स्तम्भ को सबी अङ्गो से युक्त निर्मित करना चाहिये
या स्तम्भ के प्रमाण को नौ भागों में बाँटना चाहिये । दो भाग से अधिष्ठान एवं शेष
भाग से स्तम्भ की ऊँचाई रखनी चाहिये । ढ़ाई हाथ से प्रारम्भ कर छः- छः- अङ्गुल
बढ़ाते हुये छः हाथ तक स्तम्भ की ऊँचाई रखनी चाहिये । इस प्रकार स्तम्भों की उँचाई
पन्द्रह प्रकार की हो सकती है । भीतरी भित्ति की मोटाई के अनुसार स्तम्भ की चौड़ाई
होनी चाहिये । यह भक्तिमान एवं लम्बाई छोटे एवं बड़े सभी देवालयों के लिये समान है
। अथवा छः अङ्गुल से प्रारम्भ करके एक-एक अङ्गुल बढ़ाते हुये बीस अङ्गुलपर्यन्त
पादविष्कम्भ (स्तम्भ की चौड़ाई) रखना चाहिये । ॥६१-६६॥
विंशन्मात्राविधिर्यावत्
पादविष्कम्भमिष्यते ।
पादोच्चार्धमधिष्ठानं षडष्टांशोनमेव
वा ॥६७॥
पादोदयत्रिभागैकं चतुर्भागैकमेव वा
।
पादबन्धनमधिष्ठान चारुबन्धमथापि वा
॥६८॥
पादोनमप्यलङ्कारं प्रस्तरस्याप्यलङ्कृतम्
।
पूर्वोक्तेन प्रकारेण युक्त्या
तत्रैव योजयेत् ॥६९॥
अधिष्ठान की ऊँचाइ स्तम्भ की ऊँचाई
का आधा,
छः या आठ भाग कम या स्तम्भ की ऊँचाई का तीसरा अथवा चौथा भाग रखना
चाहिये । यह अधिष्ठान पादबन्ध या चारुबन्ध शैली का होना चाहिये । इसका चतुर्थांश
कम प्रस्तर होना चाहिये, जो अलङ्करणों से सुसज्जित हो । इस
प्रकार पूर्ववर्णित रीति से उचित ढंग से निर्माणकार्य करना चाहिये ॥६७-६९॥
खलूरिका मनुष्याणां
वासेष्वेवमुदीरिताः ।
प्रथमावरणाद्यावत्
त्रिपाकारान्तमावृत्तिः ॥७०॥
(जिस प्रकार देवालय में मालिका) उसी प्रकार मनुष्यो के आवास में खलूरिका का
निर्माण गृह के चारो ओर होना चाहिये, जो प्रथम आवरण
(प्राकार) से लेकर तीसरे प्राकार तक होता है ॥७०॥
यथेष्टदिशि हि द्वारं युक्त्या युक्तं
नृणां मतम् ।
परिवारविमानानि तत्तदुक्तपदे
क्रमात् ॥७१॥
आर्यात्पूर्वोक्तनीत्या तु
पासादाभिमुखान्यपि ।
नृत्तमण्डपपीठादि परिवाराद् बहिः
पुरः ॥७२॥
स्नानार्थं मण्डपं वाऽपि
नृत्तमण्डपमेव वा ।
परिवारालयान्तैर्वा कर्तव्यं
स्वप्रमाणतः ॥७३॥
उनके द्वारों को अभीप्सित दिशा में
मनुष्यों के भवन में कहे गये नियम के अनुसर स्थापित करना चाहिये । (मालिकापङ्क्ति
में) परिवार-देवालयों को जिन-जिन पदों में कहा गया है,
उन्हे क्रमानुसार वही निर्मित करना चाहिये । आर्यक के पद से
प्रारम्भ करते हुये पूर्ववर्णित नियम के अनुसार देवालय की ओर उन्मुख बनाना चाहिये
। इन परिवार-देवालयोंके बाहर नृत्य-मण्डप एवं पीठ (वेदी) आदि का निर्माण करना
चाहिये अथवा स्नान-मण्डप एवं नृत्य-मण्डप परिवारदेवालय के भीतर भी प्रमाण के
अनुसार निर्मित हो सकता है ॥७१-७३॥
मयमत अध्याय २३–
पीठलक्षणम्
गर्भगृहार्धेन समौ पीठव्यासोच्छ्रयौ
मतौ ।
एकद्वित्रिकरव्यासोत्सेधं वा
बलिविष्टरम् ॥७४॥
गोपुरात्तु बहिः पीठं प्रासादार्धेन
निर्गमम् ।
तत्समं वा त्रिपादं वा निर्गमं
बलिविष्टरम् ॥७५॥
पञ्चानामपि सालानामारात्
पैशाचमग्रतः ।
पैशाचपीठप्रासादमध्ये तु
बलिविष्टरम् ॥७६॥
पीठ के लक्षण - गर्भगृह के व्यास के
आधे प्रमाण से दो पीठों की चौड़ाई एवं ऊँचाई रखनी चाहिये । बलिविष्टर (जहाँ बलि दी
जाय) की ऊँचाई एवं चौड़ाई एक, दो या तीन हाथ
होनी चाहिये । (पिशाच) पीठ को गोपुर से बाहर प्रासाद की चौड़ाई के आधे भग की दूरी
पर निर्मित करना चाहिये । बलिविष्टर की गोपुर से दूरी उपर्युक्त माप के बराबर अथवा
तीन चौथाई होनी चाहिये । पिशाचपीठ को पाँचो प्राकारों के बाहर एवं मन्दिर के
सम्मुख होना चाहिये तथा बलिविष्टर को पिशाचपीठ एवं प्रासाद के मध्य में निर्मित
करना चाहिये ॥७४-७६॥
पीठोत्सेधे षोडशभागे भागेन जन्मं
स्यात् ।
जगती चतुरंशेन कुर्यात् कुमुदं
त्रिभिर्भागैः ॥७७॥
भागेनोपरि पट्टं कण्ठं कुर्यात्
त्रिभागेन ।
एकेनोपरि कम्पं द्व्यंशं
स्याद्वाजनं चोर्ध्वे ॥७८॥
पीठ की ऊँचाई को सोलह बराबर भागों
में बाँटना चाहिये । एक भाग से जन्म, चार
भाग से जगती, तीन भाग से कुमुद, उसके
ऊपर एक भाग से पट्ट, तीन भाग से कण्ठ, ऊपर
एक भाग से कम्प एवं उसके ऊपर दो भाग से वाजन होना चाहिये । ॥७७-७८॥
तदुपरि वाजनमेकं तद्व्यासार्धं
त्रिपादमुपरिदलम् ।
पद्मत्त्रिभागमूर्ध्वे कर्तव्या
कर्णिका मध्ये ॥७९॥
तस्यार्धं कमलोच्चं वार्धोच्चं
कर्णिकायास्तु ।
मध्ये भद्रयुतं वाभद्रं वा सोपपीठं
वा ॥८०॥
नानाधिष्ठाननामाकृतयो वा यथा
तथाप्युक्ताः ।
एवं पीठालङ्कृतमुदितं प्रवरैः
पुरातनैर्मुनिभिः ॥८१॥
उसके ऊपर एक भाग से वाजन एवं
कमलपुष्प होना चाहिये । कमल का घेरा (पीठ के) व्यास का आधा या तीन चौथाई होना
चाहिये । पद्म के ऊपर मध्य भाग में कर्णिका निर्मित करनी चाहिये,
जिसका विस्तार पद्म का तीन चौथाई हो । पद्म की ऊँचाई उसकी चौड़ाई का
आधा अथवा कर्णिका की ऊँचाई का आधा होना चाहिये । पीठ मध्य भाग में भद्रयुक्त,
भद्ररहित या उपपीठ से युक्त हो सकता है । पीठ की आकृति अधिष्ठान के
अनुसार या उससे पृथक् हो सकती है । इस प्रकार प्राचीन श्रेष्ठ मुनियों ने पीठ के
अलङ्करणों का वर्णन किया है ॥७९-८१॥
मयमत अध्याय २३–
ध्वजस्थानम्
वृषभस्यात्रतः कुर्यात्
प्रसादार्धप्रमाणतः ।
ध्वजस्थानं तदग्रे तु तन्नीत्वा
त्रिशिखालयम् ॥८२॥
एते वृषादयः सर्वे चान्तर्वामे तु
गोपुरात् ।
प्रासाद के आधे माप से वृषभ के अग्र
भाग में ध्वज स्थान का निर्माण होना चाहिये एवं आगे त्रिशिखालय (त्रिशूल) होना
चाहिये । ये सभी वृष आदि गोपुर के वाम भाग में (प्राकार के) भीतर होने चाहिये ॥८२॥
मयमत अध्याय २३–
प्राकाराश्रितस्थानानि
मर्यादिसालमाश्रितय पावके
हव्यकोष्ठकम् ॥८३॥
अग्निगोपुरयोर्मध्ये धनधान्यगृहं
भवेत् ।
याम्ये मज्जनशाला स्यात्तत्रस्थं
पुष्पमण्डपम् ॥८४॥
प्राकार के आश्रित स्थान - मर्यादि
साल (प्राकार) से सटा कर आग्नेय कोण में हवि का प्रकोष्ठ होना चाहिये । अग्निकोण
एवं गोपुर के मध्य में धन-धान्य का गृह होना चाहिये । यम के प्रकोष्ठ पर मज्जनशाला
(स्नानमण्डप) एवं वही पुष्पमण्डप निर्मित होना चाहिये ॥८३-८४॥
नैऋतिस्थानमाश्रित्य
कुर्यादायुधमण्डपम् ।
वरुणे वायुदेशे तु शयनस्थानमिष्यते
॥८५॥
निऋति के स्थान पर अस्त्र-मण्डप एवं
वरुण तथा वायु के स्थान पर शयनस्थान निर्मित करना चाहिये ॥८५॥
सौम्यायां तु प्रकर्त्तव्यं
धर्मश्रवणमण्डपम् ।
ईशे वापी च कूपं
स्यादापवत्सपदाश्रितम् ॥८६॥
ईशगोपुरयोर्मध्ये वाद्यस्थानं
प्रकीर्तितम् ।
आरादीशे विमानस्य स्थानं
चण्डेश्वरस्य वा ॥८७॥
पूर्वोक्तस्थानदेशे वा कर्तव्यं
भवनं बुधैः ।
सोम के पद पर धर्मश्रवण-मण्डप (जहाँ
धर्मसभा,
धर्मविषयक प्रवचन होते हो ) होना चाहिये । ईश के पद पर एवं आपवत्स
के पद पर वापी एवं कूप होना चाहिये । ईश एवं गोपुर के मध्य स्थल में वाद्यस्थान
होना चाहिये । विमान के निकट ही ईश के पद पर चण्डेश्वर का स्थान होना चाहिये ।
अथवा पूर्ववर्णित स्थान पर बुद्धिमान को निर्माण करना चाहिये ॥८६-८७॥
मयमत अध्याय २३–
शक्तिस्तम्भः
शक्तिस्तम्भं पीठात्पुरतो
विद्याद्विमानमानेन ॥८८॥
क्षुद्राणां द्विगुणोदयमल्पानां
तत्समं विद्यात् ।
मध्यविमानानामपि तुङ्गार्धं वा
त्रिपादोच्चम् ॥८९॥
उदयत्रिभागमुदितं वाऽर्धं
वोत्कृष्टहर्म्याणाम् ।
हस्तं षोडशमात्रं द्वादशदशमात्रकं
विपुलम् ॥९०॥
मण्डीकुम्भयुतं तत्फलकोऽर्ध्वे
भूतमुक्षा वा ।
शैलं दारुमयं वा वृत्तं
वाष्टास्त्रकं द्विरष्टास्त्रम् ॥९१॥
(विमान के) पीठ के सामने विमान के मान के अनुसार शक्तिस्तम्भ होना चाहिये ।
क्षुद्र (अत्यन्त छोटे) मन्दिर की ऊँचाई के दुगुने माप की शक्तिस्तम्भ की ऊँचाई
होनी चाहिये । अल्प (छोटे) विमान का शक्तिस्तम्भ उसके बराबर माप का तथा मध्यम
विमान में उसकी ऊँचाई का आधा या तीन चौथाई माप का शक्तिस्तम्भ होना चाहिये । उत्तम
विमान में उसकी ऊँचाई के तीसरे या आधे भाग के बराबर शक्तिस्तम्भ की ऊँचाई होनी
चाहिये । इसकी चौड़ाई एक हाथ, सोलह अङ्गुल या दश अङ्गुल होनी
चाहिये । शक्तिस्तम्भ को मण्डि एवं कुम्भ से युक्त होना चाहिये एवं उसके ऊपर भूत
या वृषभ की आकृति होनी चाहिये । यह भाग प्रस्तर या काष्ठ से निर्मित होना चाहिये
तथा इसे वृत्ताकार, अष्टकोण या सोलह कोण का होना चाहिये ।
॥८८-९१॥
मयमत अध्याय २३–
इतरस्थानानि
वेशस्थानं वापी कूपारामौ च दीर्घिका
चैव ।
सर्वत्र सम्मतं
स्यान्मठभुक्तिनिकेतनं चापि ॥९२॥
अन्य स्थान -वेशस्थान (पुरोहित का
आवास),
वापी (बावड़ी), कूप, बगीचा
एवं दीर्घिका (तालाब) सभी स्थानों में (कही भी) हो सकते है । इसी प्रकार मठ एवं
भोजनशाला भी कहीं भी निर्मित हो सकते है ॥९२॥
नान्तर्मण्डलमथ वा चान्तर्हारं
तथैकसालं चेत् ।
अन्तर्हारा मध्यमहारा
मर्यादाभित्तिश्च ॥९३॥
त्रिप्राकारेऽप्युदिताः पञ्चयुताः
पञ्चसालाः स्युः ।
एषां प्रकाराणामुपरि वृषाः स्युः
सपङ्क्तिकाः परितः ॥९४॥
यदि विमान में एक प्राकार हो तो वह
अन्तर्मण्डल न होकर अन्तर्हार होता है । यदि तीन प्राकार हो तो वे अन्तर्हार,
मध्यमहार एवं मर्यादाभित्ति होते है । यदि पाँच प्राकार हो (तो वे
पूर्ववर्णित होते है) इन प्राकारों के ऊपर चारो ओर पङ्क्ति में वृषभों की आकृतियाँ
निर्मित होती है ॥९३-९४॥
शक्तिस्तम्भात्
पुरतस्त्रिचतुःपञ्चान्तरलयं नीत्वा ।
गणिकागृहमथ पार्श्वाद्वये तु
संवाहिकासहितम् ॥९५॥
प्राकारबहिः परितो वासं परिवारकाणां
तु ।
दासीनामपि तद्वत् पुरतो वा
वासमुद्दिष्टम् ॥९६॥
यमदिशि गुरुमठमुदितं पूर्वस्मिन्
वाऽप्यवाग्वदनम् ।
शेषमनुक्तं सर्वं कुर्याद्
राजोपचारेण ॥९७॥
शक्तिस्तम्भ से पूर्व प्रधान देवालय
की चौड़ाई के तीन, चार या पाँच गुनी
दूरी पर गणिकागृह एवं उसके दोनों पार्श्वों में संवाहिका-स्थान होना चाहिये ।
प्राकार के बाहर चारो ओर (मन्दिर के) सेवकों का आवास होना चाहिये । इसी प्रकार
दासियों का आवास होना चाहिये अथवा पूर्व दिशा में सेवकादिकों का आवास होना चाहिये
। गुरुमठ (प्रधान पुजारी का स्थान) दक्षिण दिशा में होना चाहिये अथवा पूर्व दिशा
में होना चाहिये, जिसका मुख दक्षिण दिशा में हो । शेष के विषय
में, जो नही कहा गया है, वह सब राजा के
अनुसार करना चाहिये ॥९५-९७॥
मयमत अध्याय २३–
विष्णुपरिवारकम्
विष्णुधिष्णयेऽहमद्यापि वक्ष्यामि
परिवारकम् ।
प्रमुखे वैनतेयश्च वह्नौ गजमुखालयम्
॥९८॥
यमे पितामहः सप्तमातरः पितरीरिताः ।
गुह्ये जलेशे वायव्ये दुर्गा सोमे
धनाधिपः ॥९९॥
विष्णू-देवालय के परिवार -देवता -
अब मै विष्णूभवन के परिवारदेवों के विषय में कहता हूँ । प्रमुख स्थान (पूर्व मे)
वैनतेय (गरुड़), अग्निकोण में गजमुख, दक्षिण में पितामह एवं पितृपद पर सप्त मातृकायें कही गई है । जलेश के पद
पर गुह, वायव्य कोण में दुर्गा, सोम के
पद पर धनाधिप कुबेर तथा ईशान कोण पर सेनापति का स्थान होना चाहिये । पीठ आदि की
स्थिति पूर्ववर्णित नियमों के अनुसार होनी चाहिये ॥९८-९९॥
सेनापतिरथैशाने पीठादीनां तु
पूर्ववत् ।
विष्णु-देवालय के परिवार-देवता
प्राकारोऽप्येक एवं स्यादुच्यन्ते
द्वादशाधुना ॥१००॥
विष्णोरभिमुखं चक्रं
गरुडस्तत्प्रदक्षिणे ।
शङ्खो वामे बर्हिवक्त्राश्चैते
सकलरूपिणः ॥१०१॥
सूर्याचन्द्रमसौ पार्श्वे
गोपुरस्यान्तराननौ ।
वह्नौ पचनगेहं स्याच्छेषं
पूर्ववदाचरेत् ॥१०२॥
(उपर्युक्त व्यवस्था) एक प्राकार होने पर इस प्रकार होनी चाहिये । अब बारह परिवारदेवों
का वर्णन किया जा रहा है । विष्णु के सामने चक्र, उसके
दाहिने गरुड एवं वाम भाग में शङ्ख होना चाहिये । सूर्य एवं चन्द्रमा गोपुर के
दोनों पार्श्वों मे निर्मित हो एवं इनका मुख भीतर की ओर होना चाहिये । आग्नेय कोण
में हविष को पकाने का स्थान होना चाहिये एवं शेष निर्माण पूर्ववर्णित नियम के
अनुसार होना चाहिये ।॥१००-१०२॥
मध्यान्तर्हारयोरेव परिवारास्तु
षोडश ।
मडपस्याग्रतः कुर्यात्पक्षिराजं तु
पीठकम् ॥१०३॥
लोकेशाः क्रमशः स्थाप्यास्तत्तदंशे
शिवं विना ।
आदित्यश्च भृगुश्चैवमश्विनौच
सरस्वती ॥१०४॥
पद्मा च पृथिवी चैव मुनयः सचिवस्तथा
।
द्वारपालकमध्यादिष्वन्तराले तु
कीर्तिताः ।
द्वात्रिंशत्परिवारांश्च युक्त्या
तत्रैव योजयेत् ॥१०५॥
जहाँ सोलह परिवारदेवों की स्थापना
करनी हो,
वहाँ उनकी स्थापना मध्यहार एवं अन्तर्हार के बीच में करनी चाहिये ।
मण्डप के आगे पक्षिराज (गरुड) एवं पीथ होना चाहिये । शिव को छोड़कर सभी लोकपालों को
उनके स्थानों पर स्थापित करना चाहिये । कोण एवं द्वारपालों के मध्य भाग मे आदित्य,
भृगु, दोनो अश्विनीकुमार, सरस्वती, पद्मा, पृथिवी,
मुनिगण एवं सचिवदेवों को स्थापित करना चाहिये । यदि देवपरिवार की
संख्या बत्तीस हो तो उन्हे वही उचित रीति से स्थापित करना चाहिये । ॥१०३-१०५॥
चण्डप्रचण्डरथनेमिसपाञ्चजन्य-
दुर्गागणेशविचन्द्रमहानुभावाः
सर्वेश्वरः सुरपतिश्च तथा दशैते
प्राकारपञ्चमुखगोपुरकल्पनीयाः ॥१०६॥
चण्ड, प्रचण्ड, रथनेमि, पाञ्चजन्य,
दुर्गा, गणेश, रवि तथा
चन्द्र-इन सभी महान देवों को तथा सर्वेश्वर एवं सुरपति- इन दस को पाँचों प्राकारों
के गोपुर की ओर मुख किये हुये निर्मित करना चाहिये ॥१०६॥
मयमत अध्याय २३–
वृषलक्षणम्
वृषस्य लक्षणं सम्यक् संक्षिप्येह
प्रवक्ष्यते ॥१०७॥
द्वारलिङ्गसमं श्रेष्ठं
चतुरंशविहीनकम् ।
मध्यमं त्रिद्विभागोच्चं कन्यसं वृषभोदयम्
॥१०८॥
गर्भाधं कन्यसं नालीगेहतुल्यं
वरोदयम् ।
तदन्तरेऽष्टभागे तु नवमानमुदीरितम्
॥१०९॥
एकादिनवहस्तान्तं कनिष्ठादित्रयं
त्रयम् ।
पञ्चाशदंशकं
तुङ्गमेकांशमात्रमीरितम् ॥११०॥
वृषभ के लक्षण - वृष (की प्रतिमा)
का लक्षण अब संक्षेप में वर्णित किया जा रहा है । श्रेष्ठ वृष की ऊँचाई द्वार के
बराबर या लिङ्ग के बराबर होती है । मध्यम वृष उससे चार भाग कम एवं छोटा वृष तीन
भाग में दो भाग के बराबर ऊँचा होता है । (अथवा) छोटे वृष की ऊँचाई गर्भगृह की
ऊँचाई की आधी होती है एवं श्रेष्ठ वृष की ऊँचाई गर्भगृह के बराबर होती है । इन दो
ऊँचाई के मध्य के अन्तर को आठ भागों में बाँटा गया है । इस प्रकार एक हाथ से लेकर
नौ हाथ तक कनिष्ठ आदि तीन(उत्तर, मध्यम,
कनिष्ठ ऊँचाई वाले) वृषों के तीन-तीन भेद बनते है । इसमें एक अंश
(अङ्गुलप्रमाण) का माप मूर्ति की ऊँचाई के पन्द्रहवे भाग के बराबर कहा गया है
॥१०७-११०॥
पञ्चाष्टाङ्गुलमायामं
तन्मानमधुनोच्यते ।
मूर्ध्नस्तु गलपर्यन्तं दशमात्रं
ततस्त्वधः ॥१११॥
ग्रीवोच्चमष्टमात्रं स्यादुरोऽन्तं
षोडशाङ्गुलम् ।
ऊरुदैर्घ्यं च षण्मात्रं जानुमानं
द्विमात्रकम् ॥११२॥
जङ्घादीर्घं षडङ्गुल्या खुरं
कोलकमुच्यते ।
श्रृङ्गान्तरं द्विमात्रं
स्याच्छृङ्गदैर्घ्यं द्विकोलकम् ॥११३॥
इसकी लम्बाई चालीस अङ्गुल होती है ।
इसके प्रमान का वर्णन अब किया जा रहा है । शिर के ऊर्ध्व भाग से लेकर गले तक का
माप द्स अङ्गुल होता है । इसके पश्चात् उसके नीचे गले का माप आठ अङ्गुल तथा गले से
ऊरू भाग के अन्त तक का माप सोलह अङ्गुल होता है । ऊरू की लम्बाई का प्रमाण छः
अङ्गुल एवं जानु (घुटने) का माप दो अङ्गुल होता है । जङ्घा (घुटने के नीचे का भाग)
की लम्बाई छः अङ्गुल एवं खुर की लम्बाई कोलक (दो अङ्गुल) होती है । दोनों सींगों
के मध्य की दूरी दो अङ्गुल तथा सींग की लम्बाई दो कोलक (चार अङ्गुल) होनी चाहिये ।
॥१११-११३॥
मूलव्यासं त्रिभागेन श्रृङ्गाग्रं
तु द्विमात्रकम् ।
ललाटं नवमात्रं स्यान्मुखव्यासं
शराङ्गुलम् ॥११४॥
उत्सेधं तत्समं नेत्रायाम
द्व्यङ्गुलमीरितम् ।
सार्धाङ्गुलं तदुत्सेधं
नेत्रमध्यान्मुखायतम् ॥११५॥
वसुमात्रं ततः पृष्ठं ग्रीवान्तं तु
षडङ्गुलम् ।
नेत्रमध्याल्ललाटोच्चं चतुर्मात्रं
प्रकीर्तितम् ॥११६॥
सींग के निचले भाग का व्यास तीन
अङ्गुल से एवं ऊपरी सिरा दो अङ्गुल का होना चाहिये । वृष का ललाट नौ अङ्गुल का एवं
मुख का व्यास पाँच अङ्गुल का होना चाहिये । मुख की ऊँचाई उसकी चौड़ाई के बराबर रखनी
चाहिये । नेत्रों की लम्बाई दो अङ्गुल एवं उसकी ऊँचाई (चौड़ाई के) डेढ़ अङ्गुल होनी
चाहिये । नेत्रों के मध्य में मुखभाग की लम्बाई आठ अङ्गुल होनी चाहिये । इसके
पश्चात् पृष्ठभाग ग्रीवा के अन्त तक छः अङ्गुल होनी चाहिये । नेत्र के मध्य से
ललाट की ऊँचाई चार अङ्गुल कही गई है ॥११४-११६॥
नेत्रात्कर्णान्तरं तावत्कर्णायामं
शराङ्गुलम् ।
कर्णमूलं द्विमात्रं स्याद्भागं
कर्णस्य मध्यमम् ॥११७॥
नेत्र से कान की दूरी कान की लम्बाई
के बराबर होनी चाहिये एवं कान की लम्बाई पाँच अङ्गुल होनी चाहिये । कानों को मूल
में दो अङ्गुल चौड़ा, मध्य में दो अङ्गुल
चौड़ा एव ऊपरी भाग एक अङ्गुल चौड़ा होना चाहिये । इनकी मोटाई आधी अङ्गुल होनी चाहिये
॥११७॥
अग्रमङ्गुलविस्तारं घनमर्धाङ्गुलं
भवेत् ।
घ्राणं सार्धाङ्गुलायाममङ्गुलं
गाढविस्तृतम् ॥११८॥
अङ्गुलं नासिकातुङ्गमास्यं पञ्चाङ्गुलायतम्
।
उत्तरोष्ठं त्रिमात्रोच्चमधरोष्ठं
द्विमात्रकम् ॥११९॥
नाक की लम्बाई डेढ़ अङ्गुल,
चौड़ाई एक अङ्गुल तथा ऊँचाई एक अङ्गुल होनी चाहिये । मुख की लम्बाई
पाँच अङ्गुल, ऊपरी ओठ तीन अङ्गुल तथा निचला ओठ दो अङ्गुल
होना चाहिये ॥११८-११९॥
जिह्वायामविशालोच्चं
त्रिद्वयेकाङ्गुलमीरितम् ।
ग्रीवाव्यासं दशाङ्गुल्या मूलं
द्वादशमात्रकम् ॥१२०॥
मूलेऽग्रे च घनं पृष्ठे
ग्रीवस्याष्टषडङ्गुलम् ।
ककुत् षडङ्गुलव्यासमुत्सेधं तु
तदर्धकम् ॥१२१॥
जिह्वा की लम्बाई तीन अङ्गुल,
चौड़ाई दो अङ्गुल एवं ऊँचाई (मोटाई) एक अङ्गुल होनी चाहिये । ग्रीवा
का व्यास दश अङ्गुल एवं उसका निचला भाग बारह अङ्गुल होना चाहिये । पृष्ठ पर इसका
मूल भाग आठ अङ्गुल एवं शीर्ष के नीचे छः अङ्गुल होना चाहिये । ककुत् (पीठ का ऊभरा
भाग) का व्यास छः अङ्गुल एवं इसकी ऊँचाइ चौड़ाई की आधी होनी चाहिये ॥१२०-१२१॥
ग्रीवस्याग्रविशालं तु द्विमात्रं
युक्ततो न्यसेत् ।
ककुदस्तु शरीरोच्चं
त्रिःषडङ्गुलमीरितम् ॥१२२॥
द्विःसप्तमात्रकं पृष्ठे व्यासं
द्वादशमात्रकम् ।
अपरोरुविशालं तु दशाष्टचतुरङ्गुलम्
॥१२३॥
ग्रीवा के अग्र भाग मे ककुत् की
चौड़ाई दो अङ्गुल होनी चाहिये । ककुत् तक शरीर की ऊँचाई अट्ठारह अङ्गुल एवं पीठ तक
ऊँचाई चौदह अङ्गुल होनी चाहिये तथा व्यास बारह अङ्गुल होना चाहिये । पिछले ऊरुओं
की चौड़ाई दश, आठ एवं चार अङ्गुल होनी चाहिये
॥१२२-१२३॥
पञ्चागुलं तदायामं जानुदेशं
द्विमात्रकम् ।
जङ्घादैर्घ्यं शराङ्गुल्या
त्र्यङ्गुलं स्याद्विशालकम् ॥१२४॥
सुरोत्सेधं त्रिमात्रं स्यात्
पुच्छमूलं तथैव च ।
सार्धाङ्गुलं तु पुच्छाग्रं
जङ्घान्तं तस्य लम्बनम् ॥१२५॥
उनकी लम्बाई पाँच अङ्गुल एवं जानु
(घुटना) दो अङ्गुल का होना चाहिये । जङ्घा (घुटने से नीचे का भाग) की लम्बाई पाँच
अङ्गुल एवं चौड़ाई चार अङ्गुल होनी चाहिये । खुरों की ऊँचाई तीन अङ्गुल एवं इसी
प्रकार पूँछ के मूल भाग का माप (तीन अङ्गुल) होना चाहिये । इसका अग्र भाग डेढ़
अङ्गुल होना चाहिये एवं जङ्घा के अन्त तक यह लटकती होनी चाहिये ॥१२४-१२५॥
मुष्कायामविशालं तु त्रिद्विमात्रं
यथाक्रमम् ।
शेफायामं त्रिमात्रं स्यादुदरादङ्गुलं
घनम् ॥१२६॥
मुष्क (अण्डकोश) की लम्बाई तीन
अङ्गुल एवं चौड़ाई दो अङ्गुल होनी चाहिये तथा शेफ (लिङ्ग) की लम्बाई तीन अङ्गुल एवं
पेट के पास इसकी मोटाई एक अङ्गुल होनी चाहिये ॥१२६॥
ऊरुमूलविशालं तु चतुरङ्गलमग्रतः ।
जङ्घाग्रे तु द्विमात्रं स्याच्छेषं
युक्तिवशान्नयेत् ॥१२७॥
ऊरूमल की चौड़ाई चार अङ्गुल एवं आगे
जङ्घा के अग्रभाग पर दो अङ्गुल प्रमाण का होना चाहिये । शेष को आवश्यकतानुसार
निर्मित करना चाहिये । वृषभ की मूर्ति को खड़ी अथवा शयित (बैठी,
फैली हुई) मुद्रा में, जो उचित लगे, निर्मित करनी चाहिये ॥१२७॥
स्थितं वा शयित वाऽपि यथायोग्यं
तथाचरेत् ।
सुधालोहैः परैर्द्रव्यैर्यथा योग्यं
तथा चरेत् ॥१२८॥
घनं वाऽप्यघनं वाऽपि लोहजं युक्तितो
नयेत् ।
सकलस्य तु यन्मानं तन्मानं
वृषभोदयम् ॥१२९॥
यह प्रतिमा सुधा (चूना,
गारा) लौह (धातु) या अन्य पदार्थों से, जो
अनुकूल हो, निर्मित होनी चाहिये । प्रतिमा यदि धातुनिर्मित
हो तो वह घन (ठोस, पूर्ण रूप से भरी हुई) या खोखली
आवश्यकतानुसार हो सकती है । वृषभ की ऊँचाई शिव की मूर्ति की ऊँचाई के अनुसार हो
सकती है ॥१२८-१२९॥
किञ्चिन्न्यूनाधिकं कार्यं
सर्वदोषसमुद्भवम् ।
तस्मात् परिहरेद्विद्वान्
सर्वलक्षणसंयुतम् ॥१३०॥
द्वारलिङ्गसमं वृषभं वरं मध्यमं
चतुरंशविहीनकम् ।
द्वित्रिभागसमोदयमीरितं कन्यसं
त्रिविधं मुनिभिर्वरैः ॥१३१॥
इसका कुछ कम या अधिक होना सभी
प्रकार के दोषों को उत्पन्न करता है । अतः ज्ञाता शिल्पी को दोषों को त्यागते हुये
सभी लक्षणों से युक्त वृषप्रतिमा का निर्माण करना चाहिये । श्रेष्ठ मुनियों के
अनुसार वृषप्रतिमा की ऊँचाई तीन प्रकार की होनी चाहिये।
१. शिव-लिङ्ग के द्वार के बराबर
उत्तम प्रतिमा,
२. उससे चार भाग कम मध्यम प्रतिमा
तथा
३. तीन भाग में से दो भाग के बराबर कनिष्ठ प्रतिमा (इस प्रकार वृष की तीन ऊँचाई वाले प्रमाण की प्रतिमायें होती है) ॥१३०-१३१॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे
प्राकारपरिवारविधानो नाम त्रयोंविशोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 24
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