कामकलाकाली खण्ड पटल ४

कामकलाकाली खण्ड पटल ४   

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - प्रारम्भ में शिवा अर्थात् सियारिन से सम्बद्ध प्रयोग को बतलाया गया है । इसमें अठारह पशुओं और छत्तीस पक्षियों के मांस को अन्य उपचारों के साथ शिवाओं के लिये देने की विधि बतलायी गयी है। इसके लिये आवाहन आदि से सम्बद्ध मन्त्रों का भी वर्णन है। यह भी बतलाया गया कि अठारह प्रकार के पशुओं एवं छत्तीस प्रकार के पक्षियों के कच्चे मांस के अर्पण का पृथक्-पृथक् विशिष्ट फल होता है । ब्राह्मण वर्ग के लोग शिवाओं के लिये नरमांस का अर्पण न करें । देवता रूपी शिवायें यदि नहीं आती तो अनुष्ठाता को विघ्न का सामना करना पड़ता है । शिवाबलि के माहात्म्य का वर्णन करने के साथ शिवास्तोत्र का तथा शिवाबलि से अवशिष्ट अन्न के विनियोग का वर्णन कर अन्त में गुह्य काली की कामकला काली की अपेक्षा श्रेष्ठता बतलायी गयी है ।

कामकलाकाली खण्ड पटल ४

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ४   

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 4

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: चतुर्थः पटलः

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड चतुर्थ पटल

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड चौथा पटल

महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड :)

चतुर्थः पटलः

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - विशेष प्रयोग का वर्णन

महाकाल उवाच-

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि प्रयोगानतिगोपितान् ।

सकृद्विधानतो येषां सर्वसिद्धिः करे स्थिता ॥ १ ॥

कामराजादयो भेदास्त्रिपुराया यथा प्रिये ।

तथा कामकलाकाल्या भेदाश्चाष्टौ पुरोदिताः ॥ २ ॥

एषैव प्रकृतिर्ज्ञेया सर्वा विकृतयोऽपराः ।

मन्त्रे ध्याने विशेषोऽस्ति न प्रयोगे कदाचन ॥ ३ ॥

महाकाल ने कहा- इसके बाद अब (मैं) अत्यन्त गोपनीय प्रयोगों को बतलाऊँगा जिनके एक बार के अनुष्ठान से समस्त सिद्धियाँ हस्तगत होती हैं । हे प्रिये! जैसे त्रिपुरा देवी के कामराज आदि भेद हैं उसी प्रकार कामकलाकाली के आठ भेद पहले कहे गये। इसी को प्रकृति ( = मूल कारण ) जानना चाहिये । अन्य सब विकृतियाँ (= परिणाम, कार्य) हैं। इनके मन्त्र एवं ध्यान अलग-अलग हैं किन्तु प्रयोग एक जैसा है ॥ १-३ ॥

या गुह्यकाली कथिता समन्त्रध्यानपूजना ।

वक्ष्यमाणप्रयोगेण सैव कामकला भवेत् ॥ ४ ॥

पुरश्चरणमेकं हि कृत्वा देवि वरानने ।

तत एते प्रकर्त्तव्याः प्रयोगा मन्त्रसिद्धये ॥ ५ ॥

मन्त्र, ध्यान और पूजन के साथ जो गुह्यकाली कही गयी, वक्ष्यमाण प्रयोग (की दृष्टि) से वही कामकला है। हे देवि! हे वरानने! मन्त्र का एक पुरश्चरण करने के बाद मन्त्र की सिद्धि के लिये इन प्रयोगों को करना चाहिये ॥ ४-५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - शिवा प्रयोग विधि

शिवाप्रयोगं वक्ष्यामि तत्राप्यादौ वरानने ।

सदा कृष्णचतुर्दश्यां कृतनित्यक्रियो दिवा ॥ ६ ॥

चतुर्विधान्नसामग्रीं रात्रौ निष्पादयेत्सुधीः ।

पायसापूपसंयावशष्कुलीमोदकान्विताम् ॥ ७ ॥

नानाविधौदनयुतां नानाव्यञ्जनपूरिताम् ।

नानाविधमहामत्स्यमांससम्भारसम्भृताम् ॥ ८ ॥       

अन्यैश्च विविधैर्भक्ष्यैः षड्रसैः परिपूरिताम् ।

हैमे वा राजते ताम्रे मृण्मये भाजनेऽथ वा ॥ ९ ॥

पलाशपुटके वापि मधूकस्य दलेऽथ वा ।

एकीकुर्यात्ततः सर्वं पृथक् पृथगुदारधीः ॥ १० ॥

हे वरानने! उन प्रयोगों में सबसे पहले (मैं) शिवाप्रयोग को बतलाऊँगा । कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को दिन में समस्त नित्यक्रियायें करने के बाद विद्वान् साधक रात्रि में खीर, मालपुआ, जौ के आँटे की पूड़ी और मोदक से युक्त चार प्रकार की अन्नसामग्री का सङ्ग्रह करे। अनेक प्रकार के चावल वाली अनेकविध व्यञ्जनों से समन्वित, विविध भाँति के मत्स्यमांस के समूह से पूरित, छह रसों वाले विविध भक्ष्य से परिपूरित (अन्न सामग्री) को सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टी के पात्रों में अथवा पलाश के दोना या महुए के पत्ते पर सबको पृथक्-पृथक् एक जगह रखे ॥ ६-१० ॥

अथान्यभाजने तद्वद्भिन्नभिन्नतया प्रिये ।

स्थापयेद्वक्ष्यमाणानि शुचिमांसानि भागशः ॥ ११ ॥

पुटके पुटके कुर्यादेकीभावं न कारयेत् ।

एकीभावान्महान् दोषः फलसिद्धिश्च नो भवेत् ॥ १२ ॥

हे प्रिये! इसके बाद वक्ष्यमाण पवित्र मांसों को अन्य पात्र में उसी प्रकार अलग-अलग रखे । प्रत्येक को एक-एक दोना में रखे। एक में न मिलाये। मिला देने से महान् दोष होता है और फल की सिद्धि नहीं होती ॥ ११-१२ ॥

आमान्यद्य (त) नानीह तथापर्युषितानि च ।

अनुत्तप्तानि मेध्यानि पाठ (न्त्र) रहितानि च ॥ १३ ॥

अपूतिगन्धीनि तथा क्रव्याद्धिरहतानि च ।

रक्तवन्ति च रक्तानि रसवन्ति तथैव च ॥ १४ ॥

कच्चे, आज एकत्रित किये गये (अर्थात् ताजे), बासी नहीं, पकाये गये, अर्पण के योग्य पृष्ठ और आँतों से लिपटे नहीं, दुर्गन्धरहित, मांसभक्षी जीवों का जूठा नहीं, रक्तयुक्त, लालरंग वाले, सरस (मांस का अर्पण करना चाहिये ।।१३-१४।।

वाराहमार्क्ष कापेयं खाड्गं माहिषमेव च ।

गौधं शाल्यं तथा मार्ग कार्ष्णसारं च राङ्कवम् ॥ १५ ॥

गावयं च तथा शाशमाजमौरणमेव च ।

नाक्रं च कामठं ग्राहं बाभ्रवं सर्वकामदम् ॥ १६ ॥

अष्टादशापि मांसानि कुर्यादिकत्र साधकः ।

स्थलजान्यपि वार्जानि ग्रामजारण्यजान्यपि ॥ १७ ॥

सुअर, भालू, बन्दर, गैंडा, भैंसा, गोधा, शल्लकी (=साही जिसकी पीठ पर काँटे होते हैं), मृग, कृष्णसार मृग, राङ्क (= एक प्रकार का मृग), नीलगाय अथवा गाय, शशक, बकरा, भेंड़, नक्र, कछुआ, घड़ियाल, बभ्रु (= नेवला) का मांस समस्त कामनाओं की सिद्धि करता है। साधक स्थल जल ग्राम और अरण्य से प्राप्त उक्त अट्ठारह प्रकार का मांस एकत्रित करे ।। १५-१७ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - छत्तीस प्रकार के पक्षीमांस का वर्णन 

अथापराणि खागानि षट्त्रिंशत्पललान्यपि ।

कुर्यादिकत्र विधिवत्साहसी साधकोत्तमः ॥ १८ ॥

वार्ध्रीनसं च कापोतं पारावतमथापि च ।

औलूकं च तथा श्यैनं खाञ्जनं चाषमेव च ॥ १९ ॥

काकं च कौररं पैकं कौक्कुटं चाटकं तथा ।

कालिङ्गं कारटं चापि दात्यूहं चातकं तथा ॥ २० ॥

गार्धं चैल्लं च कैरं च क्रौञ्चं वाकं तथैव च ।

मायूरं तैत्तिरं चापि हांसं चाक्रं च सारसम् ॥ २१ ॥

चाकोरं टैट्टिभं चापि लावं हारीतमेव च ।

कारण्डवं च वार्ताकं शतपत्रं च माद्गवम् ॥ २२ ॥

कौयष्टिकं भरद्वाजं सर्वं षट्त्रिंशदीरितम् ।

कर्त्तव्यानि तथैतानि पूर्वोक्तगुणवन्ति च ॥ २३ ॥

इसके बाद साहसी उत्तम साधक छत्तीस पक्षियों के अतिरिक्त मांस को एकत्र करे। वे पक्षी हैंकाली गर्दन, लाल शिर और सफेद पङ्खों वाला एक पक्षी, कपोत, पारावत, उल्लू, बाज, खञ्जन, चाष (= नीलकण्ठ), कौआ, कुररी, कोकिल, मुर्गा, गौरैया, कलिङ्ग (= मस्तकचूड पक्षी) कारट (=एक प्रकार का कौआ) दात्यूह (=काला कौआ), पपीहा, गृध्र, चील्ह शुक्र, क्रौञ्च, बगुला, मोर, तित्तिर, हंस, चक्रवाक, सारस, चकोर, टिटिहरी, लवा, हारीत (=एक प्रकार का कबूतर), कारण्डव, बत्तक, कठफोड़वा, पनडुब्बी, कुयष्टिक और भरद्वाज (= भादूल) नामक छत्तीस पक्षियों के । ये सभी पूर्ववर्णित गुणों से युक्त होने चाहिये ॥ १८-२३॥

एतानि मांसान्यादाय सर्वाण्येव शुचिस्मिते ।

पुटके पुटके कुर्यात्पृथक् पृथगमायया ॥ २४ ॥

तदन्नं तानि मांसानि गृहीत्वा कुसुमादि च ।

ततोऽर्धरात्रे चोत्थाय श्मशानाभिमुखो व्रजेत् ॥ २५ ॥

अथवा विपिनं घोरं निर्जनं भूतसङ्कुलम् ।

उत्तराभिमुखो भूत्वा साधको वीतभीः शुचिः ॥ २६ ॥

प्रेतचेलासनं कृत्वा कृत्वा चाम्बुजमासनम् ।

उपविश्यार्चयेद् देवी कालीं कामकलाभिधाम् ॥ २७ ॥

गन्धैः पुष्पैश्च धूपैश्च दीपैर्नैवेद्यसञ्चयैः ।

हे शुचिस्मिते! इन सभी मांसों को लेकर अलग-अलग एक-एक दोने में अनासक्त होकर रखे । उस अन्न उस मांस और पुष्प आदि को आधीरात को उठाकर श्मशान में जाना चाहिये। (यदि श्मशान न मिल सके तो) निर्जन, भूतों से व्याप्त जङ्गल में जाना चाहिये। वहाँ जाकर साधक पवित्र और निर्भय होकर प्रेतवस्त्र (कफन) और कमल का आसन बनाकर उस पर बैठ जाय। तत्पश्चात् कामकला नामक काली की गन्ध - पुष्प धूप दीप नैवेद्य से पूजा करे ।। २४-२८ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - शिवाबलि के अर्पण की अनुज्ञा का मन्त्र 

जप्त्वा स्तुत्वा नमस्कृत्य ततोऽनुज्ञां हि याचयेत् ॥ २८ ॥

अनेनैव तु मन्त्रेण वक्ष्यमाणेन पार्वति ।

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा धरातलमिलच्छिराः ॥ २९ ॥

देवि कामकलाकालि सृष्टिस्थित्यन्तकारिणि ।

अनुज्ञां देहि मे देवि करिष्येऽहं शिवाबलिम् ॥ ३० ॥

इत्यनुज्ञां समादाय निर्भीः प्रयतमानसः ।

हे पार्वति (मन्त्र का जप, स्तुति और नमस्कार करने के बाद योगी साधक वक्ष्यमाणमन्त्र से भगवती से आज्ञा प्राप्त करे। हाथ जोड़कर शिर को पृथिवी से लगाकर (मन्त्र का उच्चारण करेचौबीस अक्षरों वाला मन्त्र है - देवि! कामकलाकालि सृष्टिस्थित्यन्तकारिणि अनुज्ञां देहि मे देवि), हे देवि ! कामकलाकालि ! सृष्टिस्थितिविनाशकारिणि ! मुझे आज्ञा दीजिये। मैं शिवाबलि करूँगा ।। २८-३१ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - शिवा आवाहन विधि  

उल्कामुखीर्घोररूपाः शिवा आवाहयेच्छनैः ॥ ३१ ॥

वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण त्रिरुच्चार्य विशेषतः ।

बद्धाञ्जलिर्मुक्तकेशो मालावान्नग्न उत्थितः ॥ ३२ ॥

इस प्रकार आज्ञा लेकर निर्भीक साधक पवित्र मनवाला होकर उल्कामुखी घोररूपा शिवाओं का वक्ष्यमाण मन्त्र से तीन बार उच्चारण कर धीरे-धीरे आवाहन करे । (साधक उस समय) मुक्तकेश मालाधारी नग्न खड़ा होकर हाथ जोड़े हुए रहे ।। ३१-३२ ॥

तारवाग्भवहीरोषप्रासादानङ्गभौतकम् ।

मुखवामेक्षणौष्ठाधो रदाधोयुग्धकारकः ॥ ३३ ॥

योगश्च बलयोर्द्विर्द्धिः कामलं च ततः प्रिये ।

बीजमुद्धृत्य षड्वर्णं नाम सम्बोधयेत्ततः ॥ ३४ ॥

घोररावे इति पदं ततोऽनन्तरमुच्चरेत् ।

महाकापालि च तथा विकटदंष्ट्रे तथैव च ॥ ३५ ॥

सम्मोहिनी शोषिणी च सम्बोधनतया वदेत् ।

करालवदने चेति तत उच्चारयेत्सुधीः ॥ ३६ ॥

मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है-तार, वाग्भव (= ऐं), लज्जा, क्रोध, प्रासाद (= हौं) काम, भूत (बीजों का उच्चारण करने के बाद) बल दोनों को मुख (= मुखज = आ) वाम ईक्षण (=ई) ओष्ठ (=ऊ) अधरोष्ठ (= ऐ) अधोदन्त (= औ) के साथ जोड़कर उसके बाद, हे प्रिये! छह वर्णों वाला कामल बीज (=कामकलाकाली) को सम्बोधन में रखना चाहिए। इसके बाद 'घोररावे माहाकालि विकटदंष्ट्रे' कहे । सम्मोहिनी शोषिणी को सम्बोधन में कहे। इसके बाद सुधी साधक 'करालवदने' का उच्चारण करे ।। ३३-३६ ।।

मदनोन्मादिनि पादं ज्वालामालिनि चेति च ।

शिवारूपिणि चोद्धृत्य ततो भगवतीति च ॥ ३७ ॥

आगच्छ द्वन्द्वमुल्लिख्य मम सिद्धिमितीति च ।

देहि युग्मं मामिति च रक्ष रक्षेति चोद्धरेत् ॥ ३८ ॥

ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ततः प्रोक्त्वा क्षां क्षीं क्षं क्षौ विनिर्दिशेत् ।

क्रोधयुग्मं चास्त्रयुगं वह्निजायान्तगो मनुः ॥ ३९ ॥

त्रिरुच्चार्य शनैरित्यं प्रतीक्षेत शिवापथम् ।

इसके बाद 'मदनोन्मादिनि ज्वालामालिनि शिवारूपिणि' कहकर 'भगवति' कहे । 'आगच्छ' को दो बार कहने के पश्चात् 'मम सिद्धिं' कहे। 'देहि' को दो बार कहने पर 'रक्ष रक्ष' कहे। इसके बाद ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं क्षां क्षीं क्षं क्षौं कहे। दो क्रोध दो अस्त्र बीज कहने के बाद अन्त में वह्निजाया कहने पर मन्त्र बनता है

ॐ ऐं ह्रीं हूं हौं क्लीं स्फ्रें ब्लां ब्ली ब्लू ब्लै ब्लौं श्री कामकलाकालि घोररावे महाकापालि विकटद्रंष्ट्रे सम्मोहिनि शोषिणि करालवदने मदनोन्मादिनि शिवारूपिणि भगवति आगच्छ आगच्छ मम सिद्धिं देहि देहि मां रक्ष रक्ष ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं क्षां क्षीं क्षं क्षौ हूं हूं फट् फट् स्वाहा। इस मन्त्र का धीरे-धीरे तीन बार उच्चारण कर शिवा के रास्ते पर उनके आगमन) की प्रतीक्षा करे ।। ३७-४० ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - शिवा-पूजा विधि  

कालीरूपधराः सर्वा यद्यागच्छन्ति तत्क्षणात् ॥ ४० ॥

तदा सिद्धिं विजानीयाद्विपरीते तु सान्यथा ।

शनैरुच्चारयन्मन्त्रं पूर्वोक्तं भक्तितत्परः ॥ ४१ ॥

अर्द्धप्रहरपर्यन्तं पश्येत्तन्मार्गमादरात् ।

आगताभ्यो नमस्कुर्याद् दूरेणैव तु साधकः ॥ ४२ ॥

पूजयेद् दूरतः स्थित्वा भक्तिभावेन भाविनि ।

पाद्यार्घाचमनीयैश्च स्नानीयैर्गन्धपुष्पकैः ॥ ४३ ॥

धूपैर्दीपैश्च नैवद्यैरन्यद्यद्यच्च सम्भवेत् ।

सर्वोपचारैः सम्पूज्य भक्तिनम्रः प्रसन्नधीः ॥ ४४ ॥

तदन्नमग्रतः कृत्वा ततो दद्याच्छिवाबलिम् ।

वैहङ्गमानि मांसानि पङ्क्तिशः स्थापयेदपि ॥ ४५ ॥

कालीरूपधारिणी वे यदि तत्क्षण आ जायें तो अनुष्ठान की सिद्धि समझनी चाहिये । विपरीत स्थिति में वह (= सिद्धि) अन्यथा समझनी चाहिये । (साधक भक्तितत्पर होकर उनके आने के लिये) मन्त्र का धीरे-धीरे उच्चारण करे । उनके मार्ग को आधे प्रहर तक देखे । जब वे आ जाये तो साधक दूर से ही इन्हें नमस्कार करे। हे भामिनि! दूर से ही भक्तिपूर्वक उनकी पाद्य अर्घ्य आचमन, स्नानीय द्रव्य, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और जो-जो सम्भव हो समस्त उपचारों से पूजा कर भक्ति से नम्र हो प्रसन्न मन से उस अन्न को आगे कर शिवाबलि को दे। पक्षियों के मांस को पङ्क्तिबद्ध कर रखे ।। ४०-४५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - शिवाबलि में पक्षीमांसार्पण का मन्त्र

सर्वमेकत्र संस्थाप्य गृहीत्वा पाणिना जलम् ।

उत्सृजेन्मनुनानेन गदतो मे निशामय ॥ ४६ ॥

प्रणवं च त्रपाक्रोधौ ङेऽन्तं नाम समुच्चरेत् ।

ङेऽन्तं महाघोररावा भगमालिनि चेति च ॥ ४७ ॥

तद्वच्छिवारूपिणी च ज्वालामालिनि ङेऽन्तवत् ।

इमं बलिमिति स्थाप्य प्रयच्छामि सकृद्वदेत् ॥ ४८ ॥

गृह्ण द्वन्द्वं खाद युगं मम सिद्धिमितीति च ।

कुरु युग्मं समुद्धृत्य मम शत्रूनथोच्चरेत् ॥ ४९ ॥

नाशयेति युगं प्रोच्य मारयेति तथैव च ।

स्तम्भयोच्चाटय हन विध्वंसय मथापि च ॥ ५० ॥

विद्रावय पच च्छिन्धि शोषय त्रासय त्रुट ।

मोहयोन्मूलय तथा भस्मीकुरु तथैव च ॥ ५१ ॥

जृम्भय स्फोटय तथा मथ विद्रावयेति च ।

हर विक्षोभय तुरु दम मर्द्दय पातय ॥ ५२ ॥

चतुर्विंशतिकस्यास्य युगं युगमुदीरयेत् ।

तत उच्चारयेदेतत्सर्वभूतभयङ्करि ॥ ५३ ॥

ततः सर्वजनेत्युक्त्वा मनोहारिणि चोद्धरेत् ।

सर्वशत्रुक्षयं प्रोच्य करिशब्दं विनिर्द्दिशेत् ॥ ५४ ॥

ज्वलयुग्मं प्रज्वलयुगं शिवारूपधरेति च ।

काली कपाली सम्बोध्या महाकापालि चेति च ॥ ५५ ॥

ह्रीं युग्मं हं च युगलं प्रासादयुगलं तथा ।

राज्यं मे समनुद्धृत्य देहि युग्ममथो वदेत् ॥ ५६ ॥

समस्त (पक्षीमांस) को एकत्र रखकर साधक अपने हाथ में जल लेकर निम्नलिखित मन्त्र से उत्सर्जन करे। अब (उस मन्त्र को) मुझसे सुनो--

प्रणव, लज्जा, क्रोध, ङेऽन्त नाम (=कामकलाकाल्यै) महाघोररावा, भगमालिनी, शिवारूपिणी. ज्वालामालिनी का डेऽन्त उच्चारण कर 'इमं बलिं स्थाप्य प्रयच्छामि' एक बार उच्चारण करे । 'गृह' और 'वाद' को दो-दो बार कहकर 'मम सिद्धिं एक बार कहे । फिर 'कुरु' को दो बार कहकर 'मम शत्रून्' कहने के बाद 'नाशय' और 'मारय' को दो-दो बार उच्चारित करे। फिर 'स्तम्भय उच्चाटय हन विध्वंसय मथ विद्रावय पच छिन्धि शोषय त्रासय त्रुट मोहय उन्मूलय भस्मीकुरु जृम्भय स्फोटय मथ विद्रावय हर विक्षोभय तुरु दम मर्दय पातय' इन चौबीस शब्दों को दो-दो बार उच्चारित करे । तत्पश्चात् 'सर्वभूतभयङ्करि सर्वजनमनोहारिणि सर्वशत्रुक्षयङ्करि का उच्चारण कर 'ज्वल' और 'प्रज्वल' को दो-दो बार कहकर 'शिवारूपधरे कालि कपालि महाकपालि' कहे। इसके बाद 'ह्रीं हूं आं' को दो-दो बार कहकर 'राज्यं में' कहने के बाद 'देहि' को दो बार कहे ।। ४६-५६ ॥

किलियुग्माच्च चामुण्डे यमघण्ट (ण्टे) हिलेर्युगात् ।

मम सर्वाभीष्टपदं ततो वै साधयद्वयम् ॥ ५७ ॥

संहारिणिपदं दत्वा सम्मोहिनिपदं ततः ।

कुरुकुल्लेति सम्बोध्य ततः किरियुगं पठेत् ॥ ५८ ॥

क्रोधयुग्मास्त्रयुग्मं च शिरोऽन्तो मनुरीरितः ।

त्रिरुच्चार्योत्सृजेदन्नं पललं शाकुनं च यत् ॥ ५९ ॥

कालीरूपास्तु ता ध्यायेदेवमेव न संशयः ।

ततोऽपसृत्य तत्स्थानात्किञ्चिद् दूरे व्रजेत वै ॥ ६० ॥

यथागच्छन्ति ताः सर्वा न बिभ्यति तथाचरेत् ।

उसके बाद 'किलि' को दो बार कहे । 'चामुण्डे यमघण्टे' के बाद 'हिलि' दो बार, 'संहारिणि सम्मोहिनि कुरुकुल्ले' कहे । पुनः 'किरि' को दो बार पढ़े । इसके बाद अन्त में दो क्रोध दो अस्त्र और अन्त में शिर (= स्वाहा ) कहे। इस प्रकार मन्त्र का स्वरूप होगा-

ॐ ह्रीं हूं कामकलाकाल्यै महाघोररावायै भगमालिन्यै शिवारूपिण्यैि ज्वाला- मालिन्यै इमं बलिं प्रयच्छामि गृह्ण गृह्ण स्वाद रवाद मम सिद्धिं कुरु कुरु मम शत्रून् नाशय नाशय मारय मारय स्तम्भय स्तम्भय उच्चाटय उच्चाटय हन हन विध्वंसय विध्वंसय मथ मथ विद्रावय विद्रावय पच पच छिन्धि छिन्धि शोषय शोषय त्रासय त्रासय त्रुट त्रुट मोहय मोहय उन्मूलय उन्मूलय भस्मीकुरु भस्मीकुरु जृम्भय जृम्भय स्फोटय स्फोटय मथ मथ विद्रावय विद्रावय हर हर विक्षोभय विक्षोभय तुरु तुरु दम दम मर्दय मर्दय पातय पातय सर्वभूतभयङ्करि सर्वजनमनोहारिणि सर्वशत्रुक्षयङ्करि ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल शिवारूपधरे कालि कपालि महाकापालि ह्रीं ह्रीं हुं हुं हौं हौं राज्यं मे देहि देहि किलि किलि चामुण्डे यमघण्टे हिलि हिलि मम सर्वाभीष्टं साधय साधय संहारिणि सम्मोहिनि कुरुकुल्ले किरि किरि हूं हूं फट् स्वाहा ।

इस मन्त्र का तीन बार उच्चारण कर पक्षीमांस और अन्न का उत्सर्जन कर दे। उन (शृगालियों) का कालीरूप में ध्यान करे। इसके बाद उस स्थान से किञ्चिद् दूर जाकर रुक जाय ताकि वे सब आने के बाद डरें नहीं ।।५७-६१॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - बलिफल का निर्धारण

दूरे स्थित्वा निरीक्षेत किमादौ भक्षयन्ति ताः ॥ ६१ ॥

सर्वा आगत्य चेत्सर्वमश्नन्ति दयिते तदा ।

सर्वसिद्धिं विजानीयाद्राज्यलाभं तथैव च ॥ ६२ ॥

यद्यच्च भक्षयन्त्येतास्तत्तत्फलमवाप्नुयात् ।

यद्यच्च नैव खादन्ति तत्तन्नैव फलं भवेत् ॥ ६३ ॥

विशेषं च प्रवक्ष्यामि श्रुत्वा तदवधारय ।

अन्नेन धनलाभः स्यात्पायसैर्वाग्मिता भवेत् ॥ ६४ ॥

घृतेनायुरवाप्नोति पूपैः पुण्यमवाप्नुयात् ।

शष्कुलीमोदकैः कीर्तिं वाहनं कृशरैरपि ॥ ६५ ॥

तेमनैः पुत्रलाभः स्यान्मत्स्यैराप्नोति कामिनीम् ।

साधक दूर में खड़ा होकर देखे कि वे पहले क्या खा रही हैं। सब (शिवायें) आकर सब बलि खा जाँय तब हे दयिते! सर्वसिद्धि एवं राज्यलाभ जाने। जिस-जिस द्रव्य का वे भक्षण करती हैं साधक तत्तत् फल की प्राप्ति करता है। जिस-जिस का वे भक्षण नहीं करती उस उस का फल नहीं मिलता। अब मैं विशेष बतला रहा हूँ। सुनकर उसे समझो। यदि अन्न खा जाँये तो धन लाभ, पायस खाने से वाग्मिता, घृत से आयु, अपूप से पुण्य, शष्कुली और मोदक से कीर्त्ति, खिचड़ी से वाहन, तेमन (= चटनी) से पुत्र लाभ और मछली खाने से कामिनी की प्राप्ति होती है ॥ ६१-६६ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ – अष्टादशविध आममांसार्पण का फल

आममांसाच्च या सिद्धिस्तदपि व्याहरामि ते ॥ ६६ ॥

वाराहेणार्थलाभः स्याद् भाल्लूकेन गृहस्य च ।

प्लावङ्गमेन विद्या स्यात्खाड्गकैर्विजयं रणे ॥ ६७॥

माहिषेणैव मांसेन राज्यप्राप्तिर्भवेद् ध्रुवम् ।

गौधेनापत्यमाप्नोति शाल्यैः सौन्दर्यमुत्तमम् ॥ ६८ ॥

आरोग्यं हारिणेनाशु कार्ष्णसारैर्बलोन्नतिम् ।

ज्ञातिश्रेष्ठ्यं राङ्कवैश्च गावयै राजमान्यताम् ॥ ६९ ॥

शाशैर्मेधावितां गच्छेदाजैरजरतां व्रजेत् ।

आवेयेन तु मांसेन सर्वकल्याणमाप्नुयात् ॥ ७०॥

बह्वन्नं चापि नाक्रेण भूमिप्राप्तिस्तु कामठैः ।

ग्राहेणाभेद्यतनुतां नाकुलैर्महतीं श्रियम् ॥ ७१ ॥

अष्टादशानां मांसानां फलं ते कथितं मया ।

आम (कच्चा) मांस (के अर्पण) से जो सिद्धि मिलती है उसे भी मैं तुमको बतला रहा हूँ। वराह (के मांस) से अर्थलाभ, भाल्लूक से गृहलाभ, प्लावङ्गम से विद्या, गैंडा के मांस से युद्ध में विजय, महिषमांस से राज्यलाभ, गोधा के मांस से सन्तान, शाल्लकी से सौन्दर्य, हारिण से आरोग्य, कृष्णसार के मांस से बलवृद्धि, राङ्कव से जातिसम्मान, गवय से राजसम्मान, शश के मांस से मेधा, बकरे के मांस से अजरता प्राप्त होती है । भेंड़ के मांस से सर्वकल्याण, नाक्र से अन्त्राधिक्य, कछुआ से भूमिलाभ, घड़ियाल से शरीरदृढ़ता, नाकुल से महाश्रीलाभ मिलता है। मैंने अट्ठारह प्रकार (के मांसार्पण) का फल तुमको बतलाया ॥ ६६-७२ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ – पक्षिमांसार्पण का फल  

अतः परं प्रवक्ष्यामि पक्षिमांसफलं महत् ॥ ७२ ॥

वार्धीनसे राज्यफलं कापोते मोक्षमव्ययम् ।

पारावते राजकन्यामौलूके रिपुसङ्क्षयम् ॥ ७३ ॥

शत्रुवाक्स्तम्भनं श्यैने खाञ्जनेऽदृश्यरूपताम् ।

चाषेऽणिमपदप्राप्तिः काके खेचरतां व्रजेत् ॥ ७४ ॥

कौररे वशकारित्वं पैके चाकर्षणं भवेत् ।

कौक्कुटे द्रावणं सिद्धयेच्चाटके मोहनं तथा ॥ ७५ ॥

कालिङ्ग स्तम्भनं विन्देदुच्चाटं काकमांसके ।

दात्यूहे मारणं गच्छेच्चातके द्वेषणं तथा ॥ ७६ ॥

शोषणं जायते गार्धे चैल्ले मूर्च्छनमेव च ।

शौके च क्षोभणं दिश्येत्क्रौञ्चे चोन्मादमेव च ॥ ७७ ॥

वाके चाञ्जनलाभः स्यात्खड्गसिद्धिश्च बार्हिणे ।

इसके बाद मैं पक्षीमांस के अर्पण का फल बतलाऊँगा । वार्षीनस का अर्पण होने पर राज्यफल, कापोत में अव्यय मोक्ष, पारावत से राजकन्या, उल्लू से शत्रुनाश, वाज से शत्रुवाक्स्तम्भन, खाञ्जन से अदृश्यरूपता, नीलकण्ठ से अणिमालाभ, काक से आकाशचारित्व, कुररी से वशीकरण, पिक से आकर्षण, कुक्कुट से द्रावण, चटका से मोहन, कालिङ्ग से स्तम्भन, काकमांस से उच्चाटन, दात्यूह से मारण, चातक से विद्वेषण, गृध्र से उच्छोषण, चील्ह से मूर्च्छा, शुकमांस से क्षोभण क्रौञ्च से उन्माद, बकुला से अञ्जनलाभ, मोर से खड्गसिद्धि होती है ।। ७२-७८ ॥

भूताः प्रेताः पिशाचाश्च वेताला गुह्यकास्तथा ॥ ७८ ॥

विनायकाः क्षेत्रपाला यक्षा राक्षसजातयः ।

गन्धर्वाश्च तथा नागा डाकिन्यो घोणका अपि ॥ ७९ ॥

विद्याधराश्च सर्पाश्च तथैवाप्सरसां गणाः ।

सर्वे भवन्ति वशगास्तैत्तिरे पलले प्रिये ॥ ८० ॥

हे प्रिये तित्तिर के मांस का अर्पण करने से भूत, प्रेत, पिशाच, वेताल, गुहक, विनायक, क्षेत्रपाल, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, नाग, डाकिनी, घोणक, विद्याधर, सर्प, अप्सरायें सबके सब वश में होते हैं । ७८-८० ॥

हांसे तु पादुकासिद्धिर्यक्षिण्यश्चाक्रवाकके ।

सारसे धातुवादः स्याच्चाकोरे गुटिका प्रिये ॥ ८१ ॥

टैट्टिभे चिरजीवित्वं लावेऽन्तर्द्धानमाप्नुयात् ।

हारीते कामरूपित्वं सत्यं प्राप्नोति भामिनि ॥ ८२ ॥

कारण्डवे जलस्तम्भं वह्निस्तम्भं च वर्त्तके ।

शातपत्रे स्वर्गगतिं प्राप्नुयान्नात्र संशयः ॥ ८३ ॥

शापानुग्रहसामर्थ्य माद्गवेनैव विन्दति ।

भारद्वाजेन मांसेन चक्रवर्त्तित्वमाप्नुयात् ॥ ८४ ॥

हंस के मांसार्पण से पादुकासिद्धि, चक्रवाक से यक्षिणीसिद्धि, सारस से धातुवाद, चकोर से गुटिकासिद्धि, टिट्टिभ से दीर्घजीवन, लवा से अन्तर्धान, हारीत से कामरूपता प्राप्त होती है । कारण्डव से जलस्तम्भन, बत्तक से अग्निस्तम्भन, शतपत्र से साधक निःसन्देह स्वर्गारोहण करता है। मदु के मांस से साधक शापानुग्रह और भारद्वाज के मांस से चक्रवर्त्तित्व प्राप्त करता है ।। ८१-८४ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ – ब्राह्मण के लिये नरमांस का निषेध

नारं मांस न दातव्यं ब्राह्मणेन कदाचन ।

शूद्रेणैव प्रदातव्यं सप्तत्रिशत्तमं हि तत् ॥ ८५ ॥

तस्य प्रदानाद् देवेशि साधकः षष्टिसिद्धिभाक् ।

तवैतत्कथितं कान्ते मांसदानफलं महत् ॥ ८६ ॥

ब्राह्मण को कभी भी नरमांस का अर्पण नहीं करना चाहिये । शूद्र के द्वारा दिया जाना चाहिये। यह सैतीसवें प्रकार का मांस है। हे देवेशि ! उसके प्रदान से साधक साठ सिद्धियों का स्वामी हो जाता है। हे कान्ते! मैंने तुम्हें मांसदान का यह महाफल बतलाया ।। ८५-८६ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ – शिवा का देवस्वरूपत्व

शिवास्तु नावमन्तव्या देवीरूपा हि ता यतः ।

फेरुरूपं हि धृत्वा सा स्वयमायाति कालिका ॥ ८७ ॥

कालीभावेन ता ध्येयाः सत्यं सत्यं हि भामिनि।

श्रृंगालियों का अपमान नहीं करना चाहिये क्योंकि कालिका स्वयं शृंगाली का रूप धारण कर आती है। हे भामिनि! उनका कालीभाव से ध्यान करना चाहिये यह सत्य है । ८७-८८ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ – शिवाऽऽ गमनाभावस्य विघ्नसूचकत्वम्

यदि नायान्ति ताः सर्वास्तदा विघ्नः प्रजायते ॥ ८८ ॥

भक्षयन्ति न चेत्तास्तु तदैव मरणं भवेत् ।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पूर्वमेव परीक्षयेत् ॥ ८९ ॥

आयान्ति वाथ नायान्ति श्मशाने वाथ निर्जने ।

यदि वे सब नहीं आती हैं तो (लक्ष्यप्राप्ति में) विघ्न पड़ता है। यदि वे (बलि का) भक्षण नहीं करती हैं तो साधक (के परिवार में किसी व्यक्ति की या स्वयं साधक) की मृत्यु हो जाती है। इसलिये पूर्ण प्रयास करके पहले ही परीक्षा कर लेनी चाहिये कि वे श्मशान में अथवा निर्जन स्थान में आती हैं या नहीं आती हैं । ८८-९० ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ – शिवाबलि के अङ्गरूप भूतादिबलि का विधान  

शिवासु भक्षयन्तीषु भूतेभ्यो बलिमाहरेत् ॥ ९० ॥

संहार भैरवायापि क्षेत्रपालेभ्य एव च ।

डाकिनीभ्यश्च सर्वाभ्यो बलिं दद्याच्च साधकः ॥ ९९ ॥

महदैश्वर्यमाप्नोति निःशेषं भक्षयन्ति चेत् ।

अर्धे तु स्वल्पसिद्धिः स्यादभोज्ये तु विपद् भवेत् ॥ ९२ ॥

अनागमे तु मरणं तस्माद् यत्नेन साधयेत् ।

प्रत्यष्टम्यां चतुर्दश्यामेवं कुर्वीत साधकः ॥ ९३ ॥

सार्द्धाब्दमध्ये सिध्येत वारे षट्त्रिंशके प्रिये ।

शिवायें जब भक्षण कर रही हों तो भूतों के लिये बलिदान करना चाहिये । साधक को चाहिये कि संहारभैरव क्षेत्रपालों डाकिनियों को बलि दे । यदि वे सम्पूर्ण पदार्थ का भक्षण कर लेती हैं तो साधक महा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता है । आधा पदार्थ खाने पर (लक्ष्य की) स्वल्पसिद्धि ही होती है। नहीं खाने पर (साधक के ऊपर) विपत्ति आ जाती है । यदि वे आँयें भी नहीं तो मरण होता है । इसलिये प्रयत्नपूर्वक (सही दिशा में ) अनुष्ठान करना चाहिये। यदि साधक प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को इस प्रकार (का अनुष्ठान) करता है तो हे प्रिये! छह महीने के अन्दर छत्तीसवें दिन सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।। ९०-९४ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ – शिवाबलि का माहात्म्य  

शिवाबलिरयं प्रोक्तो महाफलमहोदयः ॥ ९४ ॥

एतस्य फलबाहुल्यं कथितुं नैव शक्यते ।

विद्यावान् बलवान् वाग्मी चिरजीवी निरामयः ॥ ९५ ॥

धार्मिको विजयी दक्षो यशस्वी भूपवल्लभः ।

ज्ञातिश्रेष्ठः पुत्रवांश्च सर्वयोषित्प्रियः सुखी ॥ ९६ ॥

रूपवान् बलवान् धीरो विक्रान्तो विश्वपूजितः ।

स धन्यः सर्वविच्चैव भवत्यत्र न संशयः ॥ ९७ ॥

यह शिवाबलि महाफल और महा अभ्युदय देने वाली है । इसके फलाधिक्य का वर्णन नहीं किया जा सकता। वह ( साधक) धार्मिक, विजयी, दक्ष, यशस्वी, राजप्रिय, जातिबान्धवों में श्रेष्ठ, पुत्रवान्, सर्वस्त्री- प्रिय, सुखी, रूपवान्, बलवान्, धीर, विक्रमशाली, विश्व में आदरणीय, धन्य और सर्ववेत्ता हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं । ९४-९७ ॥

सौन्दर्ये मन्मथः साक्षाद् बलेऽपि स्यात्समीरणः ।

रामार्जुनसमो युद्धे विद्यायां गीष्पतिर्यथा ॥ ९८ ॥

धने कुबेरसदृशो चिरायुर्व्यासरामवत् ।

क्षमायां पृथिवीतुल्यो गाम्भीर्ये सागरो यथा ॥ ९९ ॥

मेरुकैलासवद्धैयें प्रभुत्वे वासवोपमः ।

लावण्ये चन्द्रतुल्योऽसौ प्रतापे भास्करोपमः ॥ १०० ॥

तडिद्वद् दुर्निरीक्ष्योऽसौ भवेद् देव्याः प्रसादतः ।

यावत्यः सिद्धयः सन्ति समस्तजगतीतले ॥ १०१ ॥

करामलकवत्सर्वा भवन्त्येव न संशयः ।

अन्या अपि प्रसिद्ध्यन्ति सिद्धयः साधकस्य तु ॥ १०२ ॥

देवी के प्रसाद से वह सौन्दर्य में साक्षात् कामदेव, बल में वायु, युद्ध में राम और अर्जुन के समान, विद्या में वृहस्पतितुल्य, धन में कुबेरसदृश, व्यास और राम की भाँति दीर्घायु, क्षमा में पृथिवी के समान, गम्भीरता में सागरसदृश, धैर्य में सुमेरु और कैलास के तुल्य, प्रभुत्व में इन्द्रवत्, लावण्य में चन्द्रमा जैसा, प्रताप में सूर्य के समान तथा विद्युत् के समान दुर्निरीक्ष्य होता है। इस भूमण्डल पर जितनी सिद्धियाँ हैं वे सब (उस साधक के) करामलकवत् हो जाती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं । इसके अतिरिक्त साधक को अन्य सिद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं ॥ ९८-१०२ ॥

अणिमा खेचरत्वं च कामरूपित्वमिच्छया ।

शापानुग्रहसामर्थ्यं त्रैलोक्यवशता तथा ॥ १०३ ॥

कृपाणाञ्जनसिद्धिश्च वेतालगुटिकादि च ।

यक्षिणी धातुवादश्च स्तम्भोऽनलखगाम्बुनाम् ॥ १०४ ॥

अव्याहतगतित्वं च सर्वाकर्षणमोहनम् ।

मेरुमन्दर कैलासस्वर्गादिगमनं तथा ॥ १०५ ॥

सर्वं साधयति क्षिप्रं शिवाबलिविधानतः ।

आरोग्यं मनसः सौख्यं विजयोऽबाधता तथा ॥ १०६ ॥

अविघ्नता दुःखनाशः पुत्रलाभः सुखोन्नतिः ।

सर्वकल्याणवाञ्छाप्तिर्भयनाशो महोदयः ॥ १०७ ॥

नानारोगादिनाशश्च बलिदानात्प्रजायते ।

बलिदानस्य माहात्म्यं कथयिष्ये कियत्तव ॥ १०८ ॥

स्वल्पमेव मया प्रोक्तं बहु वक्तुं न शक्यते ।

इतोऽपि फलबाहुल्यं सत्यं सत्यं हि पार्वति ॥ १०९ ॥

दण्डवत्प्रणमेत्तास्तु ततो वै देवताधिया ।

स्तुतिं कुर्यात्स्तवैरेतैः कवचैश्च विशेषतः ॥ ११० ॥

शिवाबलि के विधान से साधक अणिमा, खेचरत्व, कामरूपित्व, शाप को दूर करने का सामर्थ्य, त्रैलोक्यवशता, कृपाणसिद्धि, अञ्जनसिद्धि, वेतालसिद्धि, गुटिका आदि की सिद्धि, यक्षिणीसिद्धि, धातुवाद, अग्नि-जल-पक्षी का स्तम्भन, सर्वत्र अव्याहतगति, सर्वाकर्षण, सर्वसम्मोहन, मेरुमन्दर कैलास स्वर्ग आदि को गमन अर्थात् सब कुछ सिद्ध कर लेता है । बलिदान के द्वारा आरोग्य, मन का सुख, विजय, बाधा का अभाव, विघ्नध्वंस या विघ्नाभाव, दुःखनाश, पुत्रलाभ, सुख, उन्नति, सर्वकल्याणकर्तृत्व, भयनाश, महाअभ्युदय, नानारोग आदि का नाश होता है। तुम्हें बलिदान का कितना महत्त्व बतलाऊँ । यह मैंने थोड़ा सा कह दिया । बहुत कहना सम्भव नहीं । हे पार्वति ! इससे भी अधिक फल मिलता है यह बात सत्य है। साधक उन (शिवाओं) को दण्डवत् प्रणाम करे और देवताबुद्धि से उनकी निम्नलिखित स्तवनो एवं कवचों से स्तुति करे ॥ १०३-११० ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ - शिवास्तोत्र

इससे आगे श्लोक १११ से ११८ तक शिवा स्तोत्र दिया गया है, इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें   

शिवास्तोत्रम् 

अब आगे

कामकलाकाली खण्ड पटल ४

इत्येतैरष्टभिः श्लोकैः शिवास्तोत्रमुदीरयेत् ।

साधक इन आठ श्लोकों से शिवास्तोत्र का पाठ करे ।। ११५-११९ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ – शिवाबलि से अवशिष्ट अन्न का विनियोग

ततस्तच्छेषमन्नं यद् भाजनं वान्यदेव वा ॥ ११९ ॥

सर्वं हि निखनेद् भूमौ प्रयत्नेनैव पार्वति ।

यदि काका मृगाः श्वानो ये चान्येऽरण्यवासिनः ॥ १२० ॥

भक्षयन्ति तदुच्छिष्टं तदा विघ्नः प्रजायते ।

स्वयं तदवशिष्टं यत्प्रसादमुपयोजयेत् ॥ १२१ ॥

रात्रावेव समागच्छेत् प्रयतः प्रेतमन्दिरात् ॥ १२२ ॥

गन्धं माल्यं च नैवेद्यं यद्यद् देव्यै प्रकल्पितम् ।

हे पार्वति! इसके बाद इस (= शिवाबलि) से अवशिष्ट अन्न पात्र अथवा अन्य जो कुछ है उसको प्रयत्नपूर्वक धरती में गाड़ दे । यदि कौआ, मृग, कुत्ता या अन्य जंगली जानवर उस उच्छिष्ट को खाते हैं तो विघ्न उत्पन्न होता है। उस अवशिष्ट प्रसाद का स्वयं उपयोग करे। देवी के लिये जो गन्ध माला नैवेद्य आदि एकत्रित किया गया है (उसे देवी के अर्पण के बाद) रात्रि में ही पवित्र होकर प्रेतगृह से बाहर चला जाय ।। ११९-१२२ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ४ – गुह्यकाली की अपेक्षा कामकलाकालि श्रेष्ठ है  

एष मुख्यः प्रयोगस्तु गुह्यकाल्या वरानने ।

एतत्प्रयोगादेषैव काली कामकला भवेत् ॥ १२३ ॥

न भेदस्त्वनयोः सत्यं प्रयोगे मन्त्रसिद्धये ।

अन्येऽपि भेदाः सन्त्यस्याः कथयिष्यामि तानहम् ॥ १२४ ॥

हे वरानने! यह गुह्यकाली का मुख्य प्रयोग हैं। इस प्रयोग के कारण यही (गुह्य) काली कामकला हो जाती है। इन दोनों में (मूलतः) कोई भेद नहीं है । मन्त्रसिद्धि के लिये प्रयोग में भेद होता है। इस (काली) के अन्य भी भेद है। उन्हें मैं तुमको बतलाऊँगा ॥ १२३ १२४ ॥

योऽसावुक्तो मनुर्देव्याः पूर्वमष्टादशाक्षरः ।

श्रेष्ठः स सर्वमन्त्राणां सर्वमन्त्रोत्तमोत्तमः ॥ १२५ ॥

एष कामकलाकाल्या मन्त्रः प्रकृतिरुच्यते ।

विकृतिर्गुह्यकाल्यास्तु मन्त्रो यः षोडशाक्षरः ॥ १२६ ॥

स्थितायां प्रकृतौ देवि विकृतिर्न बलीयसी ।

सप्तानामपि मन्त्राणामयमेवाग्रणीः प्रिये ॥ १२७ ॥

देवी का अट्ठारह अक्षरों वाला जो मन्त्र पहले बतलाया गया, वह सभी मन्त्रों में श्रेष्ठ और सब मन्त्रों में उत्तमोत्तम कहा गया है। कामकलाकालि का यह मन्त्र प्रकृति (= मूल मुख्य ) कहा जाता है। गुह्यकाली का जो सोलह अक्षरों वाला मन्त्र है वह विकृति है । हे देवि! प्रकृति के वर्तमान रहने पर विकृति बलीयसी नहीं होती । इसलिये हे प्रिये! (काली के) सात प्रकार के मन्त्रों में यही (= अष्टादशाक्षर मन्त्र ) अग्रणी है ।। १२५-१२७ ।।

त्रैलोक्याकर्षणो मन्त्रो यदि भाग्येन लभ्यते ।

तदा शिवाविधाने तु स एव परिनिष्ठितः ॥ १२८ ॥

अभावे तस्य मन्त्रस्य गुह्यकाल्या मनुर्मतः ।

विनोपदेशं यः कुर्यात् प्रयोगं कामकालिकम् ॥ १२९ ॥

सद्यः स मृत्युमाप्नोति भक्षितो योगिनीगणैः ।

ग्राह्यस्तस्मात्प्रयत्नेन मनुरष्टादशाक्षरः ॥ १३० ॥

यह त्रैलोक्याकर्षण मन्त्र यदि भाग्य से मिल जाता है तो शिवा के विधान में यह (अकेला) समर्थ है । इस मन्त्र के अभाव में गुह्यकाली मन्त्र का ग्रहण कहा गया है। गुरूपदेश के अभाव में जो व्यक्ति कामकलाकालि का प्रयोग करता है वह सद्यः मृत्यु को प्राप्त होता है और योगिनियाँ उसका भक्षण कर जाती हैं। इसलिये प्रयत्नपूर्वक अष्टादशाक्षर मन्त्र का (गुरु से ) ग्रहण करना चाहिये ॥ १२८-१३० ॥

राज्यदानैः प्राणदानैरुपदेशो गुरोः प्रिये ।

आत्मनः क्षेममन्विच्छेद् यदि साधकसत्तमः ॥ १३१ ॥

न तु वा गुह्यकाल्यास्तु मनुनैवाखिलं भवेत् ।

गुरूपदिष्टमार्गेण प्रयोगेण वरानने ॥ १३२ ॥

इत्येष कथितो यत्नाच्छिवाबलिविधिस्तव ।

कथयस्व महागौरि किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ १३३ ॥

यदि साधक अपना कल्याण चाहता है तो वह राज्य देकर प्राण देकर भी गुरु के उपदेश का ग्रहण करे । केवल गुह्यकाली के मन्त्र से ही सर्वसिद्धि नहीं होती । हे वरानने! गुरूपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करने से सिद्धि मिलती है। यह शिवाबलिविधि मैंने तुमको प्रयत्नपूर्वक बतलायी है। हे महागौरि ! बोलो आप और क्या सुनना चाहती हो ।। १३१-१३३ ॥

॥ इत्यादिनाथविरचितायां पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां शिवाबलिप्रयोगो नाम चतुर्थः पटलः ॥ ४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित पचास हजार श्लोकों वाली महाकालसंहिता के कामकलाकाली खण्ड के शिवाबलिप्रयोग नामक चतुर्थ पटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई ॥ ४ ॥

आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 5

About कर्मकाण्ड

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 $type={blogger} :

Post a Comment