कामकलाकाली खण्ड पटल ५

कामकलाकाली खण्ड पटल ५     

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - इस पटल में कामकला काली की आराधना तीन प्रकार की बतलायी गयी है । राज प्रयोग, मध्य प्रयोग और लघु प्रयोग । प्रस्तुत पटल में राजप्रयोग का वर्णन है। इस प्रयोग में तेली धोबी आदि उच्चनीच विभिन्न वर्ग की विभिन्न जाति की सोलहवर्षीया रूपवती यौवनशालिनी सुन्दरियों का प्रयोग होता है । विधिपूर्वक मण्डल की रचना कर उसमें उन सुन्दरियों को मन्त्रोच्चारपूर्वक बैठाया जाता है । उनकी मन्त्रोच्चारपूर्वक स्नान, वस्त्र, कज्जल गन्ध आदि से पूजा की जाती है । इसके बाद कामकला नामक यन्त्र पर जगद्धात्री माँ काली का मन्त्रोच्चारपूर्वक आवाहन और सानिध्य की भावना कर कामकलाकाली प्रयोग के लिये उनसे प्रार्थना का वर्णन करने के बाद षडङ्गन्यास तत्पश्चात् पीठन्यास की विधि का वर्णन है । अनुष्ठाता अपने अन्दर इष्टदेवता का ध्यान कर उनकी मानस पूजा करे । तत्पश्चात् इष्टदेवता के लिये बाह्य पूजासामग्री के संग्रह का वर्णन कर बाह्य पूजा के क्रम और विधि का वर्णन करने के पश्चात् देवी के प्रीतिप्रद नैवेद्य का वर्णन किया गया है । बलि के लिये विहित और निषिद्ध पशुओं का वर्णन कर पशुओं के अनुकल्प का उल्लेख करने के पश्चात् निषिद्ध एवं ग्राह्य सुन्दरियों का वर्णन करते हुए पटल के अन्त में आवाहित सुन्दरियों के विसर्जन की चर्चा है ।

कामकलाकाली खण्ड पटल ५

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ५    

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 5

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: पञ्चमः पटल:

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड पञ्चम पटल

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड पांचवाँ पटल

महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड :)

पञ्चमः पटल:

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - कामकालिकप्रयोग:

देव्युवाच-

विश्वोपकारक विभो शम्भो संसारतारक ।

त्वत्तः श्रुतमिदं सर्वं श्रुत्वा चैवावधारितम् ॥ १ ॥

केन कामकलानाम प्राप्तवत्यम्बिका परा ।

तदहं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो योगिजनप्रिय ॥ २ ॥

प्रयोगेणार्च्चया वापि ध्यानेनाथ स्तवेन वा ।

प्रोच्यते सा परा शक्तिः काली कामकलाह्वया ॥ ३ ॥

शृण्वन्ती ते मुखाम्भोजान्न तृप्तिमधिवाम्यहम् ।

कथयस्व महादेव प्रयोगं कामकालिकम् ॥ ४ ॥

देवी ने कहा- हे विश्वकल्याणकृत् व्यापक संसार- तारक शम्भो ! मैंने यह सब आपसे सुना और सुनकर समझ लिया। हे योगिजनों के प्रिय ! अम्बिका ने किस कारण ने कामकला नाम प्राप्त किया। वह मैं आपसे सुनना चाहती हूँ । प्रयोग पूजा ध्यान स्तुति किसके कारण वह पराशक्ति कामकला काली कही जाती है। आपके मुखकमल से सुनने में मैं तृप्त नहीं होती । हे महादेव ! कामकलाकाली के प्रयोग को बतलाइये ॥ १-४ ॥

महाकाल उवाच-

अतिगुह्यतमं देवि प्रयोगं पृष्टवत्यसि ।

नाख्यातो योऽद्यपर्यन्तं कस्मा अपि वरानने ॥ ५ ॥

तमहं कथयिष्यामि यतो भक्तासि पार्वति ।

सङ्गोपनीयो यत्नेन न वाच्यो यस्य कस्यचित् ॥ ६ ॥

चिकीर्षयापि यस्यास्य सिद्धिं विन्दति साधकः ।

किं पुनः करणेनेह भविष्यति शुचिस्मिते ॥ ७ ॥

महाकाल ने कहा- हे देवि! तुमने अत्यन्त गुह्य प्रयोग को पूछा है । हे वरानने ! यह प्रयोग आज तक मैंने किसी को नहीं बतलाया । उसको मैं तुमको बतलाऊँगा; क्योंकि हे पार्वति ! तुम मेरी भक्त हो । किन्तु इसे भली-भाँति छिपाकर रखना; जिस किसी को मत बतलाना । हे शुचिस्मिते! इस प्रयोग के करने की इच्छा मात्र से साधक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है फिर करने से क्या होगा (यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है) ॥ ५-७ ॥

प्राणात्ययेनापि पुनर्न वाच्यं यत्र कुत्रचित् ।

स्मरणादस्य योगस्य प्रसन्ना कालिका भवेत् ॥ ८ ॥

किं बहूक्तेन देवेशि धन्यावावां जगत्त्रये ।

यतः पृच्छसि वक्तास्मि प्रयोगं कामकालिकम् ॥ ९ ॥

नैवास्ति त्वय्यकथ्यं मे गुह्याद् गुह्यतरं हि यत् ।

शृणुष्व तं योगवरं भक्तियुक्तेन चेतसा ॥ १० ॥

प्राण देकर भी इसे जिस किसी को नहीं बतलाना चाहिये । इस प्रयोग के स्मरणमात्र से कालिका प्रसन्न हो जाती है। हे देवेशि ! अधिक कहने से क्या, हम दोनों इस त्रिलोक में धन्य है जो कि तुम पूछने वाली हो और मैं कामकलाकाली प्रयोग को बतलाने वाला हूँ । जो गुह्य से भी गुह्यतर है वह भी मेरे द्वारा तुम्हारे लिये अकथनीय नहीं है । इसलिये उस श्रेष्ठयोग को भक्तिपूर्ण मन से सुनो ॥ ८-१० ॥

अवहेला न कर्तव्या न जुगुप्सा कदाचन ।

न निन्दा न परीवादो न द्वेषो नैव धिक्कृतिः ॥ ११ ॥

कृते तु सर्वनाशः स्यान्मरणं रोगपूर्णता ।

दारिद्र्यं पुत्रनाशश्च बन्धनं निगडादिभिः ॥ १२ ॥

तस्मान्निन्दा न कर्तव्या यदीच्छेदात्मनः शुभम् ।

स्वभाव एव देव्यास्तु प्रीतिरेतत्प्रयोगतः ॥ १३ ॥

राजाज्ञेवाप्रणोद्येयं सैव ब्रूते सनातनी ।

प्रयोगस्त्रिविधोऽयं च शक्याशक्यनिबन्धनः ॥ १४ ॥

राजपूर्वी मध्यपूर्वो लघुपूर्वस्तथैव च ।

(इस प्रयोग के विषय में) उपेक्षा जुगुप्सा निन्दा कलह द्वेष और धिक्कार नहीं करना चाहिये । ऐसा करने पर सर्वनाश, मरण, रोग, दरिद्रता, पुत्रनाश, कारागार आदि कुछ भी हो सकता है। इसलिये यदि साधक अपना कल्याण चाहता है तो उसे निन्दा नहीं करनी चाहिये। ऐसा देवी का स्वभाव है कि इस प्रयोग से वह प्रसन्न हो जाती है। उसी सनातनी (महाकाली) का यह कथन है कि राजाज्ञा के समान यह प्रयोग अनुपेक्ष्य है। यह प्रयोग तीन प्रकार का होता है। यह प्रकार सामर्थ्य और असामर्थ्य के कारण है। वे प्रकार हैं-राजपूर्व, मध्यपूर्व और लघुपूर्व ॥ ११-१५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - राजपूर्वस्य कामकलाख्यप्रयोगस्याभिधानम्

योगः कामकलाख्योऽयं तत्रादिं व्याहरामि ते ॥ १५ ॥

रामाः षोडशवर्षीया रूपयौवनगर्विताः ।

विशाललोचनाः श्यामाः शारदेन्दुनिभाननाः ॥ १६ ॥

घनकुन्तल भारिण्यः पीनोत्तुङ्गकुचोन्नताः ।

विशालजघनाभोगा अतिक्षीणकटिस्थलाः ॥ १७ ॥

बृहन्नितम्बदृषदो जातरूपतनुश्रियः ।

पीनोरवः कान्तिमत्यः सर्वाभरणभूषिताः ॥ १८ ॥

भिन्नजातीयकाः सर्वा नारीराकारयेत्सुधीः ।

ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्रा दासी नटी तथा ॥ १९ ॥

मालाकारिणिका चापि कुम्भकारिणिका तथा ।

शौचिकी च कुविन्दी च तन्तुवाय्यसिमार्जिका ॥ २० ॥

रजकी चर्मकारस्त्री तथाय: कारिका प्रिये ।

शौण्डिकी नापिती त्वाष्ट्री कलादी काम्बरी तथा ॥ २१ ॥

कैवर्ती सौल्विकी तैलकारिणी मागधी तथा ।

वेश्या कुमारी च तथा तथाभीरा च पुंश्चली ॥ २२ ॥

सैरिन्ध्री दूतिका रण्डा प्रतिवेशनिकापि च ।

स्वजाया जीवनी चैव चतुस्त्रिंशच्च वारुडी ॥ २३ ॥

चाण्डाली राजकन्या च षट्त्रिंशदिति ताः स्मृताः ।

पुष्पवासिततैलेन समभ्यक्ता वराननाः ॥ २४ ॥

प्रसाधिताः स्नापयेत्तास्तोयैः कर्पूरवासितैः ।

उच्चरन्मन्त्रमेतं हि सकृत्सकृदुदारधीः ॥ २५ ॥

राजपूर्व प्रयोग - यह (तीनों योग) कामकला नामक योग है। उनमें से प्रथम योग को मैं बतला रहा हूँ। विद्वान् साधक रूप एवं यौवन से मदमस्त, विशाल नेत्रों वाली, श्यामा (= यौवनमध्यस्था) शारदीय चन्द्र के समान मुखों वाली, घने बालों, बड़े ऊँचे स्तनों, विशाल जाँघों, अतिक्षीणकटिस्थलों, वृहत् नितम्बों वाली, जातरूप (= सुवर्ण) के समान शरीरशोभायुक्त, पीनवक्षस्थलवाली, कान्तिमती, सर्वाभरणभूषित, भिन्न जातीय समस्त सुन्दरी स्त्रियों को बुलाये । ब्राह्मणी, क्षत्रिया वैश्या, शूद्रा, दासी, रंगमञ्चकलावाली, मालिन, कुम्हारिन, जमादारिन, जुलाहिन, बुनकरी, असिमार्जिका (=तलवार पर शाण रखने वाली), धोबिन, चर्मकारिणी, लोहारिन, शौण्डिकी (= शराब बेंचने वाली), नाइन, बढ़इन, सुनारिन रंगरेजिन, मल्लाहिन, कसेरिन, तेलिन, भाँटिन, वेश्या, कुमारी, आभीरी, पुंश्चली, शिल्पकारिणी, दूती, राँड़, परोसिन, अपनी पत्नी और जीवन ( = वैद्या स्त्री) इन चौंतीस तथा इनके अतिरिक्त चाण्डाली और राजकन्या इस प्रकार कुल छत्तीस को ले आये । इनको पुष्पवासित तैल से उपलिप्त करे । प्रसाधित करने के बाद कर्पूरवासित जल से स्नान कराये। उदार चेता साधक उक्त संस्कारों को करते समय धीरे-धीरे उक्त मन्त्र का उच्चारण करता जाय ।। १५-२५ ।

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - सुन्दरीणामिह स्नापनमन्त्रः

प्रणवं च त्रपाकामौ ततो भगवति स्मरेत् ।

महामाये पदं प्रोच्य ततेऽनङ्गपदं वदेत् ॥ २६ ॥

वेगसाहसिनि स्मृत्वा मनो सर्वजनात् परम् ।

हारिणीति समुद्धृत्य ततः सर्ववशङ्करि ॥ २७ ॥

मोदयेति पदद्वन्द्वं प्रमोदय ततस्तथा ।

एह्यागच्छेति नामापि सम्बोध्य प्रवदेत् सुधीः॥ २८ ॥

सान्निध्यं च कुरु द्वन्द्वं युगं च कवचास्त्रयोः ।

स्वाहान्तोऽयं महामन्त्रः प्रशस्तः स्नापने प्रिये ॥ २९ ॥

ततः प्रदद्याद्वसनं सर्वाभ्यश्च पृथक् पृथक् ।

भिन्नो भिन्नो मनुः प्रोक्तः सर्वस्मिन्नपि कर्मणि ॥ ३० ॥

वस्त्रदानस्य मन्त्रं च गदतो मे निशामय ।

सुन्दरी स्नापन मन्त्र - प्रणव लज्जा काम बीजों के बाद 'भगवति महामाये' पदों को कहकर 'अनङ्गवेगसाहसिनि सर्वजनमनोहारिणि' कहे। इसके बाद 'सर्ववशङ्कर' कहे फिर 'मोदय' और 'प्रमोदय' पदों को दो-दो बार कहे 'एहि' 'आगच्छ' दो बार कहने के बाद नाम का सम्बोधन प्रयोग करे । 'सान्निध्यं' कहने के बाद 'कुरु' को दो बार फिर कवच और अस्त्र बीजों को दो-दो बार कहने के बाद 'स्वाहा' कहे। (इस प्रकार मन्त्र का स्वरूप होगा- 'ॐ ह्रीं क्लीं भगवति महामाये अनङ्गवेगसाहसिनि सर्वजनमनोहारिणि सर्ववशङ्कर मोदय मोदय प्रमोदय प्रमोदय एह्येह्यागच्छागच्छ कामकलाकालि सान्निध्यं कुरु कुरु हूं हूं फट् फट् स्वाहा ।') हे प्रिये ! यह मन्त्र स्नान कराने में प्रशस्त है। इसके बाद सभी सुन्दरियों के लिये अलग-अलग वस्त्र दे। सभी कर्मों के लिये अलग-अलग मन्त्र कहा गया है। वस्त्रदान का मन्त्र बतला रहा हूँ, सुनो ॥ २६-३१ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - सुन्दरीणामिह वस्त्रार्पणमन्त्रः 

लज्जाकामवधूनां च युगं युगमनुस्मरेत् ॥ ३१ ॥

त्रैलोक्याकर्षणीत्युक्त्वा वस्त्रं गृह्ण युगं वदेत् ।

फडन्ते वह्निजाया च प्रोक्तो वस्त्रार्पणे मनुः ॥ ३२ ॥

वस्त्रदान- मन्त्र - लज्जा काम वधू बीजों को दो-दो बार कहे । फिर 'त्रैलोक्या-कर्षणि' कहकर 'वस्त्रं गृह्ण' को दो बार कहे । 'फट्' कहने के बाद वह्निजाया का उच्चारण करे । (मन्त्र का स्वरूप होगा- 'ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं स्त्रीं स्त्रीं त्रैलोक्याकर्षणि वस्त्रं गृह्ण गृह्ण स्वाहा ।' ) वस्त्र के अर्पण में यह मन्त्र कहा गया है ।। ३१-३२ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - सुन्दर्या अर्पणीयवस्त्राभिधानम्

साटी क्षौमदुकूलादि पट्टवस्त्रं विशेषतः ।

अन्यद् यद् यच्च भवति महामूल्यवदंशुकम् ॥ ३३ ॥

अर्पणीयवस्त्र वर्णन - साड़ी रेशमी दुपट्टा पट्टवस्त्र और अन्य जो-जो मूल्यवान् वस्त्र हो देना चाहिये ॥ ३३ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - समन्त्रः कज्जलार्पणविधिः

ततोऽर्पयेत् कज्जलं च वक्ष्यमाणमनुं वदन् ।

तारं क्रोधं समुद्धृत्य महाघोरतरे वदेत् ॥ ३४ ॥

फेत्कारराविणीत्युक्त्वा महामांसप्रियेति च ।

हिलियुग्मं मिलिद्वन्द्वं ततः कज्जलमित्यपि ॥ ३५ ॥

गृह्ण गृह्नेति सम्भाष्य ठद्वयान्तो मनुर्मतः ।

निवेदयेच्च सर्वाभ्यः कज्जलं मन्त्रमुच्चरन् ॥ ३६ ॥

कज्जलार्पणमन्त्र - इसके बाद वक्ष्यमाण मन्त्र का उच्चारण करते हुए कज्जल प्रदान करना चाहिये । मन्त्र- 'तारक्रोध बीज', महाघोरतरे' कहे. 'फेत्कारराविणि' कहकर 'महामांसप्रिये' कहे। फिर 'हिलि' 'मिलि' को दो-दो बार कहे । तत्पश्चात् 'कज्जलं' कहकर 'गृह्ण' को दो बार कहने के अनन्तर अन्त में दो बार 'ठः' कहे । ( मन्त्र का स्वरूप होगा - ओऽम् हूं महाघोरतरे फेत्काराविणि महामांसप्रिये! हिलि हिलि मिलि मिलि कज्जलं गृह्ण गृह्ण ठः ठः ॥ ३४-३६ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - समन्त्रः सिन्दूरार्पणविधिः

सिन्दूरं च ततो दद्यादनेन मनुना प्रिये ।

प्रणवास्यवधूकाममायारुट्कमलाकान् ॥ ३७ ॥

समनूद्धृत्य सञ्जल्पेत् सर्वभूतपदं ततः ।

पिशाचराक्षसानुक्त्वा प्रसयुग्मं समुच्चरेत् ॥ ३८ ॥

मम जाड्यमिति प्रोच्य च्छेदय त्रितयं तथा ।

वेदसङ्ख्यं ततो भौतं प्रासादमिथुनं ततः ॥ ३९ ॥

शत्रून्पूर्वं समुद्धृत्य ममशब्दं दहद्वयम् ।

उच्छादय स्तम्भयापि विध्वंसय युगं युगम् ॥ ४० ॥

सर्वग्रहेभ्य इत्युक्त्वा शान्तिं कुरु ततो वदेत् ।

रक्षां कुरु तथा चोक्त्वा वाग्भवं त्रितयं स्मरेत् ॥ ४१ ॥

फडन्ते ठद्वयं चापि सिन्दूरार्पणको मनुः ।

सिन्दूरार्पणमन्त्र - हे प्रिये! इसके बाद निम्नलिखित मन्त्र से सिन्दूरार्पण करे- प्रणव, आस्य (= आं) वधू काम माया रोष (= हूं) कमला बीजाक्षरों को कहकर 'सर्वभूतपिशाचराक्षस' कहे। फिर 'ग्रस' को दो बार उच्चारित कर मम जाड्यम्' कहने के बाद 'च्छेदय' को तीन बार तथा भूतबीज (=स्फ्रें) को चार बार कहने के बाद प्रसादबीज (=हौं) को दो बार कहे। फिर 'मम शत्रून्' कहने के बाद 'दह' को दो बार कहे । 'उच्छादय स्तम्भय विध्वंसय' को दो-दो बार कहने पर 'सर्वग्रहेभ्यः शान्तिं कुरु' रक्षां कुरु कहने के बाद वाग्भवबीज को तीन बार उच्चारित कर अन्त में 'फट् ठः ठः' कहे । ( इस प्रकार मन्त्र का स्वरूप होगा-

'ॐ आं स्त्रीं क्लीं ह्रीं हूं श्रीं सर्वभूतपिशाचराक्षसान् ग्रस ग्रस मम जाड्यं च्छेदय च्छेदय च्छेदय स्फ्रें स्फ्रें स्फ्रें स्फ्रें हौं हौं मम शत्रून् दह दह उच्छादयोच्छादय स्तम्भय स्तम्भय विध्वंसय विध्वंसय सर्वग्रहेभ्यः शान्तिं कुरु रक्षां कुरु ऐं ऐं ऐं फट् स्वाहा ।' ) यह सिन्दूरार्पण मन्त्र है ॥ ३७-४२ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - समन्त्र - अलक्तकार्पणविधिः 

अलक्तकार्पणं मन्त्रं प्रयत्नेनाशु मे शृणु ॥ ४२ ॥

मारयुग्मं पुरः प्रोच्य नवकोटिपदं वदेत् ।

योगिनीति ततः पश्चाद् ङेऽन्तं परिवृता तथा ॥ ४३ ॥

रोषद्वयान्नाम ङेऽन्तं ततोऽनङ्गपदं प्रिये ।

वेगमालाकुला ङेऽन्ता मायायुग्मं ततः परम् ॥ ४४ ॥

ङेऽन्तं ततो वदेत्कान्ते स्वयम्भूकुसुमप्रिया ।

इमं पूर्वमलक्तं च त्रपाप्रासादयोर्युगम् ॥ ४५ ॥

सुवासिनीति ङेऽन्तवन्निवेदयामि चेत्यपि ।

नमः शिरोङेऽन्तमुच्चकैरयं मनुः प्रकीर्तितः ॥ ४६ ॥

अलक्तकार्पण मन्त्र - अब मुझसे अलक्तक के अर्पण का मन्त्र सुनो - सबसे पहले कामबीज को कहकर 'नवकोटियोगिनीपरिवृता' को चतुर्थ्यन्त कहे। फिर क्रोध बीज को दो बार कहकर नाम का ङेऽन्त उच्चारण करे । पश्चात् 'अनङ्गवेगमालाकुला' का चतुर्थ्यन्त उच्चारण कर मायाबीज को दो बार कहे । ततः स्वयम्भूकुसुमप्रिया का न्त उच्चारण करे । पुनः 'इममलक्तम्' कहने के बाद त्रपा प्रासाद बीजों का दो-दो बार उच्चारण करे । 'सुवासिनी' का डेऽन्त उच्चारण कर 'निवेदयामि नमः' कहकर शिरो बीज का उच्चारण करे । मन्त्र का स्वरूप होगा- क्लीं नवकोटियोगिनीपरिवृतायै हूं हूं कामकलाकाल्यै अनङ्गवेगमालाकुलायै ह्रीं ह्रीं स्वयम्भूकुसुमप्रियायै इममलक्तं ह्रीं ह्रीं हौं हौं सुवासिन्यै निवेदयामि नमः स्वाहा ।' यह मन्त्र कहा गया ।। ४२-४६ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - मण्डलारचनविध्यभिधानम् 

समर्हणैकमन्दिरे विरच्य तत्र मण्डलम् ।

सितं हि पूर्वदिग्गतं तथारुणं च वह्निगम् ॥ ४७ ॥

परेतगं च मेचकं सुपीतवच्च नैर्ऋतम् ।

प्रचेतसं च पाटलं समीरगं च हारितम् ॥ ४८ ॥

कुबेरगं च पिङ्गलं गिरीशगं हि धूमलम् ।

विधाय हीदृशं प्रिये दिगष्टशोभि मण्डलम् ॥ ४९ ॥

युगाख्यनिर्गमान्वितं तदीयपालसंयुतम् ।

विभिन्नरूपमण्डले निवेशयेत्तु ताः क्रमात् ॥ ५० ॥

ऋषित्रिसङ्ख्यमण्डलक्रमेण दीर्घपङ्क्तिगम् ।

ततोऽष्टसोमसङ्ख्यकैर्निवेश्य मण्डले स्त्रियः ॥ ५१ ॥

नवेन्दुसङ्ख्यके प्रिये विरच्य मूलमण्डलम् ।

पुरोक्तयन्त्रमुत्तमं निवेश्य पूजनं चरेत् ॥ ५२ ॥

ततोऽनु तत्र कामिनीस्तदोपवेशयेत् क्रमात् ।

मण्डलरचना-विधि सम्यक् पूजा के योग्य एक मन्दिर में मण्डलों की रचना करे । पूर्वदिशा में श्वेत, अग्निकोण में रक्त, दक्षिण में काला, नैर्ऋत्य कोण में पीत पश्चिमदिशा में पाटल (नारंगी रंग) वायव्य कोण मे हरित, उत्तरदिशा में पिङ्गल और ईशानकोण में धूमके रंग का मण्डल बनाये। हे प्रिये! आठ दिशाओं को शोभान्वित करने वाले मण्डल को बनाकर चार द्वार बनाये जिस पर द्वारपाल नियुक्त हों । विभिन्न रूपों वाले मण्डल में उन (सुन्दरियों) का प्रवेश कराये। सैतीस सङ्ख्या वाले मण्डल के क्रम से दीर्घपङ्क्ति हो । फिर अट्ठारह की सङ्ख्या में स्त्रियों का मण्डल में प्रवेश कराये । हे प्रिये! उन्नीस की सङ्ख्या में मूल मण्डल की रचना करे । तत्पश्चात् पूर्वोक्त यन्त्र को रखकर उसका पूजन करे । उसके बाद उनके ऊपर सुन्दरियों को क्रम से बैठाये ॥ ४७-५३ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - यन्त्रोपरि सुन्दरीणामुपवेशनार्थ मन्त्रः

सरोषहीरमास्मरैः सवाग्भवैश्च मण्डले ॥ ५३ ॥

उपानुगं विशोच्चरेत् पुनस्तथैव चोद्धरेत् ।

सुसन्निधिं कुरु त्विदं भवेच्च वारयुग्मकम् ॥ ५४ ॥

ततोऽनलाङ्गनायुतो मनुः सदोपवेशने ।

गजेन्द्रतः परात् प्रिये स्मृतं हि काममण्डलम् ॥ ५५ ॥

तदेव कामकालिकं सदैव मुख्यमुच्यते ।

उपवेशन मन्त्र-क्रोध, लज्जा, लक्ष्मी, काम और वाग्भव बीजों का उच्चारण कर फिर 'मण्डले उपविश' कहना चाहिये। 'उपविश' को पुनः कहना चाहिये । तत्पश्चात् 'सुसन्निधिं कुरु' को कहकर 'कुरु' को पुनः कहना चाहिये । इसके बाद अग्नि की स्त्री को जोड़े। उपवेशन में यह मन्त्र सदा प्रयोज्य है। गज (=८) और इन्द्र (= १०) इस प्रकार (८+ १० = १८) के मण्डल के बाद काममण्डल कहा गया है । वही कामकला काली का तथा मुख्य मण्डल है ॥ ५३-५६ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - कामकलाख्ययन्त्रे मूलदेव्याः समन्त्र आवाहनविधिः

आवाहयेज्जगद्धात्रीं वक्ष्यमाणमनुं वदन् ।

प्रणवं नारसिंहस्य पञ्चकं समनूच्चरेत् ॥ ५७ ॥

एह्येहीति पदं न्यस्य परमात्तत्त्वमुच्चरेत् ।

तत्र कामकलानाम्नि मण्डले जगदम्बिकाम् ॥ ५६ ॥

रूपिणीत्यपि चोद्धृत्य ततो भगवति स्मरेत् ॥ ५८ ॥

सम्बोधनतया नाम ततो भूतार्णपञ्चकम् ।

सन्निधिं च कुरुद्वन्द्वं क्रोधद्वन्द्वं ततोऽप्यनु ॥ ५९ ॥

अस्त्रद्वयादनु स्वाहा प्रोक्तो ह्यावाहने मनुः ।

इत्यावाह्य महापीठे सान्निध्यं परिकल्प्य च ॥ ६० ॥

यन्त्र पर मूलदेवी का आवाहनउस कामकला नामक मण्डल में जगद्धात्री जगदम्बा का आवाहन वक्ष्यमाण मन्त्र का उच्चारण करते हुए करे । (मन्त्र का वर्णन करते हैं -) प्रणव, नरसिंहबीज (=क्षौं) को पाँच बार कहे फिर 'एहि एहि परमतत्त्वरूपिणि' के बाद 'भगवति' कहकर पाँच बार भूतबीज कहे। उसके बाद 'सन्निधिं' कह कर 'कुरु' को दो बार क्रोध बीज को दो बार कहने के अनन्तर दो बार अस्त्र कहे फिर 'स्वाहा' कहे। यह आवाहन मन्त्र है । (जिसका स्वरूप निम्नलिखित है - ॐ क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष एहिएहि परमतत्त्वरूपिणि भगव कामकलाकालि स्फ्रें, स्फ्रें स्फ्रें स्फ्रें स्फ्रें सन्निधिं कुरु कुरु हूं हूं फट् फट् स्वाहा ) इस मन्त्र से आवाहन कर महापीठ पर देवी के सान्निध्य की कल्पना करनी चाहिये।।५६-६०॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - कामकालिकप्रयोगार्थं देव्या अनुज्ञाप्रार्थना

ततोऽनुज्ञां प्रार्थयीत सर्वासामपि पूजने ।

कलातीते नादबिन्दुशक्तिरूपिणि चिन्मये ॥ ६१ ॥

पराकुण्डलिनीरूपे शिवशक्तिस्वरूपिणि ।

देवि कामकलाकालि जगदुत्पत्तिकारिणि ॥ ६२ ॥

स्थितिकारिणि कल्पान्ते पुनः संहारकारिणि ।

परामृतरसास्वादपरमानन्दलोलुपे ॥ ६३ ॥

सदाशिवमहत्तत्त्वसामरस्यस्वरूपिणि ।

देवि कामकलाकालि सर्वसिद्धिप्रदेऽनघे ॥ ६४ ॥

अनुज्ञां देहि मे देवि प्रयोगे कामकालिके ।

प्रयोगार्थ अनुज्ञा के लिये प्रार्थना- इसके बाद सभी के पूजन के लिये (देवी से) अनुज्ञा की प्रार्थना करे । (अनुज्ञा प्रार्थना का स्वरूप मूल ग्रन्थ में 'कलातीते......कामकालिके' तक है जिसका अर्थ है-) हे कलातीते ! नाद बिन्दु और शक्तिरूपिणि, चिन्मयि पराकुण्डलिनी रूपे शिवशक्ति स्वरूपिणि देवि, कामकलाकालि संसार को उत्पन्न करने वाली, (संसार को) स्थित रखने वाली, कल्पान्त में पुनः संहार करने वाली परम अमृत के रसास्वाद से उत्पन्न परम आनन्द की लोलुप सदाशिव से लेकर महत् तत्त्व तक के सामरस्य रूप, देवि । कामकलाकालि, समस्त सिद्धियों को देने वाली, निष्कलुष कामकालिके देवि प्रयोग के विषय में मुझे आज्ञा दो ।। ६१-६५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - मण्डलोपविष्टसुन्दरीणां सोपचारपूजाविधिः 

इत्यनुज्ञां ततो लब्ध्वा क्रमात्पूर्वादितः सुधीः ॥ ६५ ॥

पूजयेन्मण्डलस्थास्ता उपचारैर्यथोदितैः ।

जातिहीना इति ज्ञात्वा नावमान्या कथञ्चन ॥ ६६ ॥

देवीधिया प्रपश्येत्ता इत्यागमविदो विदुः ।

पाद्यार्घाचमनीयाद्यैः गन्धपुष्पादिभिस्तथा ॥ ६७ ॥

धूपैर्दपैश्च नैवेद्यैरन्यद् यच्चोपकल्पितम् ।

पूर्वोक्तेन विधानेन मन्त्रैरपि च तैः प्रिये ॥ ६८ ॥

कर्तव्या विधिवत्पूजा यथा तास्तोषमाप्नुयुः ।

ऊनविंशे मण्डले तु यजेद् देवीं प्रसन्नधीः ॥ ६९ ॥

नित्यपूजोक्तविधिना सर्वसम्भारसञ्चयैः ।

मण्डलोपविष्टसुन्दरी-पूजा - इस प्रकार आज्ञा लेकर विद्वान् (साधक) क्रमशः पूर्व से लेकर (ईशान तक ) मण्डलस्थ उन सुन्दरियों की यथोदित उपचार से पूजा करे । (ये सुन्दरियाँ) निम्न जाति की हैंऐसा समझ कर उनका अपमान नहीं करना चाहिये । उनको देवी के रूप में देखना चाहिये ऐसा आगमवेत्ता मानते हैं । पाद्य अर्घ आचमन आदि गन्ध, पुष्प आदि धूप, दीप, नैवेद्य और अन्य जो कुछ एकत्रित किया गया है उन सबसे पूर्वोक्तविधान और उन पूर्वोक्त मन्त्रों से हे प्रिये! उनकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये जिससे कि वे सन्तुष्ट हो जायँ । प्रसन्न मन वाला साधक उन्नीसवें मण्डल में नित्यपूजा में कही गयी विधि के अनुसार समस्त पदार्थों से देवी का यजन करे ।। ६५-७० ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - पीठन्यासविधिः

षडङ्गानि प्रविन्यस्य पीठन्यासं समाचरेत् ॥ ७० ॥

महामण्डूककालाग्निरुद्रं च कच्छपं तथा ।

आधारे लिङ्गनाभौ च क्रमेणोपन्यसेत्सुधीः ॥ ७१ ॥

एवं विचिन्त्य विधिवद्धर्मादीन् विन्यसेत्ततः ।

अंसोरुयुग्मयोर्विद्वान् प्रादक्षिण्येन देशिकः ॥ ७२ ॥

धर्मज्ञानं सवैराग्यमैश्वर्य्यं विन्यसेत्क्रमात् ।

मुखपार्श्वनाभिपार्श्वेष्वधर्मादीन्प्रकल्पयेत् ॥ ७३ ॥

अनन्तं हृदये पद्मेऽस्मिन् सूर्येन्दुपावकान् ।

एषु स्वस्वकला न्यसेन्नामाद्यक्षरपूर्विकाः ॥ ७४ ॥

सत्त्वादींस्त्रीन् गुणान् न्यस्येत्तथैवात्र गुरूत्तमः ।

आत्मानमन्तरात्मानं परमात्मानमेव च ॥ ७५ ॥

ज्ञानात्मानं प्रविन्यस्य न्यसेत्पीठमनुं ततः ।

पीठन्यास - षडङ्गन्यास करने के बाद पीठन्यास करना चाहिये । विद्वान् मूलाधार लिङ्ग और नाभि में क्रमश: महामण्डूक कालाग्निरुद्र तथा कच्छप का न्यास करे । इसके बाद विचारपूर्वक धर्म आदि का न्यास करे। दोनों कन्धों और दोनों जांघों में क्रमशः धर्म ज्ञान वैराग्य और ऐश्वर्य का न्यास करे । मुख के दोनों पार्श्वों और नाभि के दोनों पार्श्वों में अधर्म अज्ञान अवैराग्य और अनैश्वर्य का न्यास करे । अनन्त का हृदय में न्यास करे । उसी (हृदय) कमल में सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि का उनकी अपनी-अपनी कलाओं का आद्य अक्षर पूर्वक न्यास करे। उसी प्रकार उत्तम गुरु सत्त्व आदि तीन गुणों, आत्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा और ज्ञानात्मा का पीठ में न्यास कर मन्त्र का न्यास करे ।। ७०-७६ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - आत्मनि इष्टदेवता ध्यानमानसपूजाविधिः

एवं देहमये पीठे चिन्तयेदिष्टदेवताम् ॥ ७६ ॥

पूर्वोक्तेन विधानेन मनसा परिपूजयेत् ।

इष्टदेवता का ध्यान और मानसपूजा - इस प्रकार देहमय पीठ में इष्ट देवता का ध्यान करे और पूर्वोक्त विधान से उनका मानसिक पूजन करे । ७६-७७ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - इष्टदेवतायाः बाह्यपूजोपकरणसङ्ग्रहः

मुद्रां प्रदर्श्य विधिना शङ्खस्थापनमाचरेत् ॥ ७७ ॥

शङ्खमस्त्रेण सम्प्रोक्ष्य वामतो वह्निमण्डले ।

साधारं स्थापयेद् विद्वान् व्युत्क्रमार्णैर्जलं क्षिपेत् ॥ ७८ ॥

पूजयेद्वह्निसूर्येन्दून् बीजैस्तत्तत्कलान्वितैः ।

तत्तत्कला तु सङ्ख्याता दशद्वादशषोडशैः ॥ ७९ ॥

तीर्थावाहनमन्त्रैश्च तीर्थान्यावाह्य पूजयेत् ।

गन्धपुष्पाक्षतैर्धूपदीपाद्यैरभिपूजिते ॥ ८० ॥

शङ्खपाणितलं दत्वा चाष्टधा प्रजपेन्मनुम् ।

चिन्मयं चिन्तयेत्तीर्थमानीयाङ्कुशमुद्रया ॥ ८१ ॥

अस्त्रमन्त्रेण रक्षित्वा कवचेनावगुण्ठ्य च ।

धेनुमुद्रां समासाद्य बोधयेत्तत्त्वमुद्रया ॥ ८२ ॥

इष्टदेवता की बाह्यपूजा - (साधक) विधिपूर्वक मुद्रा का प्रदर्शन कर* शङ्खस्थापन करे । अस्त्र, मन्त्र के द्वारा शङ्ख का प्रोक्षण कर विद्वान् अग्निमण्डल के वामभाग में आधार रखकर उसको स्थापित करे । (मन्त्र के) वर्णों का विपरीत क्रम से (= 'क्ष' से लेकर 'अं' तक) उच्चारण करते हुए उसमें जल छोड़े । तत्तत् कलाओं से युक्त अग्नि सूर्य और चन्द्र बीजाक्षरों के द्वारा (उसका पूजन करे। (उक्त तीनों की पूजा का मन्त्र इस प्रकार होगा ) -

अं वह्निमण्डलाय धूम्रादिदशकलात्मने नमः ।

उं सूर्यमण्डलाय तपिन्यादिद्वादशकलात्मने नमः ।

मं सोममण्डलाय अमृतादिषोडशकलात्मने नमः ॥

( अग्नि सूर्य और चन्द्रमा की ) तत्तत् कलाओं को सङ्ख्या क्रमशः दश बारह और सोलह कही गयी हैं। तीर्थावाहन मन्त्रों के द्वारा तीर्थों का आवाहन कर उनकी पूजा करे । आवाहनमन्त्र-

ॐ गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।

नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची ह्यवन्तिका ।

पुरी द्वारावती चैव जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ॥

(साधक) गन्ध-पुष्प-अक्षत- धूप-दीप आदि के द्वारा पूजित शङ्ख के ऊपर करतल को रखकर मन्त्र का आठ बार जप करे। तत्पश्चात् तीर्थ का चिन्मयध्यान करे । अङ्कुश मुद्रा के द्वारा तीर्थ का आकर्षण कर अस्त्रमन्त्र (= अस्त्राय फट् ) से रक्षा और कवच (=कवचाय हुम्) से अवगुण्ठन कर धेनुमुद्रा का बन्धन कर तत्त्वमुद्रा से उद्बोधन करे ।। ७७-८२ ।।

* १. कहीं-कहीं शङ्ख शब्द का अर्थ महाशङ्ख अर्थात् नरकपाल होता है ।

दक्षिणे प्रोक्षिणीपात्रमाधायाद्भिः प्रपूरयेत् ।

किञ्चिदर्थ्याम्बु सङ्गृह्य प्रोक्षण्यम्भसि योजयेत् ॥ ८३ ॥

अर्घस्योत्तरतः कार्यं पाद्यमाचमनीयकम् ।

परमीकृत्य तं शङ्खं पावनं परिचिन्तयेत् ॥ ८४ ॥

देवस्य मूर्ध्नि तत्किञ्चित् पूजाद्रव्येषु चात्मनः ।

अवेक्षणं प्रोक्षणं च वीक्षणं ताडनं तथा ॥ ८५ ॥

अर्चनं चैव सर्वेषां पावनं सम्प्रकल्पयेत् ।

अर्धपात्रे प्रदातव्या गन्धपुष्पयवाक्षताः ॥ ८६ ॥

कुशाप्रतिलदूर्वाश्च सर्षपाश्चार्थसिद्धये ।

पाद्यपात्रे प्रदातव्यं श्यामाकं कूर्चमेव च ॥ ८७ ॥

अब्जं च विष्णुक्रान्तां च पाद्यसिद्ध्यै प्रकल्पयेत् ।

तथाचमनपात्रे च दद्याज्जातीफलं पुनः ॥ ८८ ॥

लवङ्गमपि कक्कोलं शस्तमाचमनीयकम् ।

(अग्निमण्डल के) दक्षिण में प्रोक्षणी पात्र को रखकर जल से उसको पूरित करे। थोड़ा सा अर्घ्यजल लेकर उसे प्रोक्षणी के जल में मिलाये। अर्घ्य के बाद पाद्य और आचमन देना चाहिये । तत्पश्चात् परमीकरण करे और उस शङ्ख को पवित्र हुआ समझे । इष्टदेवता के शिर पर पूजा द्रव्यों के ऊपर तथा अपने ऊपर कुछ-कुछ अवेक्षण प्रोक्षण वीक्षण ताड़न अर्चन कर सबको पवित्र हुआ समझे । तत्पश्चात् लक्ष्यपूर्ति के लिये अर्धपात्र में गन्ध- पुष्प-यव और अक्षत कुशाग्र-तिल दूर्वा-सरसो डाले । पाद्यपात्र में पाद्य की सिद्धि श्यामाक (=साँवा ), कूर्च (= एक मुट्ठी कुश), कमल और विष्णुक्रान्ता (= अपराजिता ) डाले । उसी प्रकार आचमन के पात्र में जायफल डाले । लवङ्ग और कङ्कोल भी उत्तम आचमनीय हैं ।। ८३-८९ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - मधुपर्कपरिचयः

दध्ना च मधुसर्पिर्भ्यां मधुपर्को भविष्यति ॥ ८९ ॥

मधुपर्क परिचय दधि, मधु और घृत मिलाकर मधुपर्क बनता है ॥ ८९ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - इष्टदेवताया बाह्यपूजाविधिः

बाह्यपूजां ततो कुर्य्यादैहिकाभ्युदयाय वै ।

पूर्वमेवोदितं देवि मण्डलस्य प्रकल्पनम् ॥ ९० ॥

तथापि फलबाहुल्यात् प्रसङ्गादुच्यते पुनः ।

गोमयैर्लिप्तदेशे च मण्डलं तत्र कारयेत् ॥ ९१ ॥

शालितण्डुलचूर्णैश्च नीलपीतसितासितैः ।

लिखेदष्टदलं पद्मं चतुरस्त्रसमावृतम् ॥ ९२ ॥

नवकोणं कर्णिकायां कोणाग्रं बीजभूषितम् ।

कूर्मं च बृहदाकारं महामण्डूकमेव च ॥ ९३ ॥

कालाग्निसञ्ज्ञकं रुद्रं तस्मिन्पीठे प्रपूजयेत् ।

तन्मध्ये साध्यमालिख्य कालीबीजानि संलिखेत् ॥ ९४ ॥

सर्वतो मण्डलं चापि गायत्र्या परिवेष्टयेत् ।

गायत्री च प्रवक्ष्यामि यथावदवधारय ।। ९५ ।।

जपादस्याश्च दयिते राजसूयफलं लभेत ।

इष्टदेवता की बाह्यपूजा विधि- इसके बाद सांसारिक अभ्युदय के लिये बाह्यपूजा करे । हे देवि! मण्डल की रचना यद्यपि पहले ही कही जा चुकी है तथापि 'अधिकस्य अधिकं फलम्' के अनुसार प्रसङ्गवश पुनः कही जा रही है। गोबर से लिपे हुए स्थान में मण्डल बनाना चाहिये। नील, पीत, श्वेत एवं कृष्ण रंग के शाली के चावल से अष्टदल कमल बनाये। (अष्टदल कमलरूपी) पीठ पर बड़ा आकार के कच्छप एवं मेढक बनाये तथा उनकी और कालाग्नि नामक रुद्र की पूजा करे । उसके बीच में साध्य का नाम लिखकर काली के बीजाक्षरों को लिखे । उस मण्डल को सब ओर से गायत्री मन्त्र के द्वारा परिवेष्टित कर दे। (अब मैं ) गायत्री को बतलाऊँगा । जैसा बतलाता हूँ, वैसा धारण करो । हे दयिते! इसके जप से (जापक) राजसूययज्ञ का फल प्राप्त करता है ।। ९०-९६ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - कामकलाकाल्यास्तान्त्रिकगायत्रीमन्त्रः 

अनङ्गाकुलायै विद्महे मदनातुरायै धीमहि ॥ ९६ ॥

तन्नः कामकलाकाली प्रचोदयात् ।

कामकलाकाली की गायत्री - अनङ्गाकुलायै विद्महे मदनातुरायै धीमहि तन्नः कामकलाकाली प्रचोदयात् ॥ ९६-९७ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - बाह्यपूजायाः क्रमस्य विधेश्चाभिधानम्  

गुरुपक्तिं नमेद्वामे गणेशादीन् परे तथा ॥ ९७ ॥

मध्ये त्वाधारशक्तिं च पङ्कजद्वयधारिणीम् ।

कूर्म च बृहदाकारं महामण्डूकमेव च ॥ ९८ ॥

कालाग्निसञ्ज्ञकं रुद्रं तस्मिन् पीठे प्रपूजयेत् ।

अभ्यर्चयेद् वसुमतीं स्फुरत्सागरमेखलाम् ॥ ९९ ॥

तत्र रत्नमयं द्वीपं तस्मिंस्तु मणिमण्डपम् ।

यजेत् कल्पतरुं तस्मिन् साधकोऽभीष्टसिद्धये ॥ १०० ॥

अधस्तात्पूजयेत्तस्य वेदिकां मण्डलोज्वलाम् ।

पश्चादभ्यर्चयेत्तस्यां पीठे धर्मादिभिः पुनः ॥ १०१ ॥

रक्तश्यामहरिच्छुक्लनीलाभां नादरूपिणीम् ।

बृषकेशरिभूतेभरूपान् धर्मादिकान् यजेत् ॥ १०२ ॥

अग्न्यादिषु विदिक्ष्वेवं धर्मादीन् पूजयेत् सदा ।

अधर्मादीन् यजेत् पश्चात् पूर्वादिदिक्चतुष्टये ॥ १०३ ॥

बाह्यपूजा का क्रम और विधि - (पीठ के ) बायीं ओर गुरुपङ्क्ति की दूसरी (अर्थात् दायीं ओर गणेश आदि की, मध्य में दो कमलों को धारण करने वाली आधारशक्ति की पूजा करनी चाहिये। बृहदाकार कूर्म, महामण्डूक और कालाग्निरुद्र की उस पीठ पर पूजा करे। उछलते हुए सागररूपी मेखलावाली धरती की पूजा करे। उस (= पृथिवी) पर रत्नमय द्वीप, उस (= द्वीप) में मणिरचितमण्डप, उसमें साधक अभीष्ट की सिद्धि के लिये, कल्पवृक्ष की पूजा करे। उस (=कल्पतरु ) के नीचे उज्ज्वल मण्डल वाली वेदी की पूजा करे। उस वेदी पर पीठ के ऊपर धर्म आदि के साथ नादरूपिणी (पीठशक्ति) का यजन करे। धर्म आदि का स्वरूप क्रमश: वृष-सिंह- भूत और हाथी है। पहले अग्नि आदि चार कोणों में धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य की पूजा करे। बाद में पूर्व आदि चारों दिशाओं में अधर्म आदि (=अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य ) की अर्चना करे ।। ९७-१०३ ।।

आनन्दकन्दं प्रथमं संविन्नालमनन्तरम् ।

मन्त्री प्रकृतिपत्राणि विकारमयकेशरान् ॥ १०४ ॥

पञ्चाशद्वर्णबीजाढ्यां कर्णिकां पूजयेत्ततः ।

कलाभिः पूजयेत्सार्द्धं तस्मिन्सूर्येन्दुपावकान् ॥ १०५ ॥

प्रणवस्य त्रिभिर्वर्णैरथ सत्त्वादिकान् गुणान् ।

आत्मानमन्तरात्मानं परमात्मानमेव च ॥ १०६ ॥

ज्ञानात्मानं च विविधं पीठशक्तिं यजेत् पुनः ।

तत्र पीठमनुं प्रोक्त्वा तत्र सिंहासनं न्यसेत् ॥ १०७ ॥

मन्त्र का साधक सबसे पहले आनन्द नामक कन्द, उसके बाद संविद् नामक नाल प्रकृति नामक पत्र और (प्रवृत्ति के) विकार नामक केशरों (की पूजा करने के बाद '' से लेकर 'क्ष' तक के) पचास वर्णों वाली कर्णिका की उसकी कलाओं के साथ पूजा करे । उस (कर्णिका) में प्रणव के तीनों वर्णों (अ उम्) के द्वारा सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि की पूजा करे। इसके बाद सत्त्व आदि तीन गुणों आत्मा अन्तरात्मा परमात्मा ज्ञानात्मा की (पूजा कर) पुनः विविध पीठशक्ति का पूजन करे । वहाँ पर पीठमन्त्र का उच्चारण कर उस पर सिहासन रखे ।। १०४-१०७ ॥

उच्चरन्मूलमन्त्रं हि देवीं हृदि विचिन्तयन् ।

करकच्छपिकारूपमुद्रया पुष्पमुत्तमम् ॥ १०८ ॥

गृहीत्वा चिन्तयेद् देवीं तत्तन्मन्त्रानुसारतः ।

तन्मध्ये चिन्तयेद् देव्या वाहनं शवमेव च ॥ १०९ ॥

श्मशानं चिन्तयेत्तत्र शिवागणविराजितम् ।

मुण्डाट्टहाससंयुक्तं शिवाशतनिनादितम् ॥ ११० ॥

(तत्पश्चात् साधक) मूल मन्त्र का उच्चारण करता हुआ देवी का हृदय में ध्यान करे और करकच्छपिकामुद्रा* के द्वारा उत्तम पुष्प लेकर तत्तत् मन्त्र के अनुसार देवी का ध्यान करे । उस (मुद्रा) के बीच देवी के वाहन और शव* का भी ध्यान करे । उस (मुद्रा) में श्रृंगालिनों से व्याप्त ऐसे श्मशान का ध्यान करे जिसमें नरमुण्ड अट्टहास कर रहे हों और सैकड़ों शृगालिने चिल्ला रही हों ।। १०८ ११० ॥

*१. इसमें दोनों हाथों की अञ्जलियों को कच्छप के समान बनाकर अगूठे को ऊपर उठा देते हैं ।

*२.शव पाँच हैंब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव । इन्हीं के ऊपर भगवती काली विराजमान रहती हैं।

शिवाभिर्वहुमांसास्थिमोदमानाभिरन्विताम् ।

सुरासुरमुनीन्द्रैश्च योगिवृन्दैर्निषेविताम् ॥ १११ ॥

ध्यायेत्तत्र स्थितां देवीं कालीं कामकलाभिधाम् ।

ध्यात्वा पूर्वोक्तविधिना चित्ते चानीय सुन्दरि ॥ ११२ ॥

अञ्जल्यावाहयेत्तत्र देवीं साधकसत्तमः ।

स्वागतादि ततः प्रश्नं प्रत्युत्तरसमन्वितम् ॥ ११३ ॥

साधक को उस ( श्मशान) में स्थित कामकला नामक काली का ध्यान करना चाहिये जो कि बहुत अधिक मांस अस्थि (का उपभोग करने से ) प्रसन्न शृगालिनों से परिवृत तथा सुर-असुर और मुनीद्र- योगीन्द्र के समूहों से सेवित हो रही हैं । हे सुन्दरि ! पूर्वोक्त विधि से उनका ध्यान कर और चित्त में धारण कर उत्तम साधक अञ्जलि के द्वारा वहाँ उनका आवाहन करे। इसके बाद प्रश्न और उत्तर से युक्त स्वागत आदि करे ॥ १११-११३ ॥

ततश्च आसनं दत्वा पाद्यमर्घ्यं प्रकल्पयेत् ।

तत आचमनीयं च स्नानोद्वर्तनमेव च ॥ ११४ ॥

स्नानीयं च जलं दद्यात् स्वाहामन्त्रैः प्रयत्नतः ।

दिव्यवस्त्रं ततो दत्वा दद्यादाभरणानि च ॥ ११५ ॥

नमः पाद्यं तथा चार्घ्यं स्वाहान्ते दीयते ततः ।

आचमनं स्वधान्ते च स्वाहान्ते च तथा मधु ॥ ११६ ॥

गन्धं नानाविधं रम्यं रक्तचन्दनमेव च ।

सिन्दूरं कुङ्कुमं चैव पुष्पदाम तथा पुनः ॥ ११७ ॥

परिवारं ततो देव्याः पूजयेत्साधकोत्तमः ।

ततो गुग्गुलजं धूपं दद्यान्मन्त्रं समुच्चरन् ॥ ११८ ॥

तद्वद् दीपः प्रदातव्यो मन्त्रोच्चारणपूर्वकम् ।

ततः पाद्यादिकं दत्वा नैवेद्यादीन् प्रकल्पयेत् ॥ ११९ ॥

इसके बाद (कामकला काली के लिये) आसन देकर पाद्य अर्घ्य आचमनीय स्नानीय जल, उद्वर्त्तन देकर पुनः स्नानीय जल देना चाहिये। यह सब स्वाहान्त मन्त्र से देना चाहिये। उदाहरण के लिये-

ॐ एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पूरुषः ।

पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्या-

मृतं दिवि स्वाहा-पादयोः पाद्यं समर्पयामि ॥

उसके बाद दिव्य वस्त्र एवं आभरण को 'नमः' अन्त वाले मन्त्र से देना चाहिये । इसके बाद पुनः स्वाहान्त मन्त्र से पाद्य अर्घ्य तथा स्वधान्त मन्त्र से आचमन; स्वाहान्तमन्त्र से मधु दिया जाता है। अनेक प्रकार की रमणीय गन्ध, रक्तचन्दन, सिन्दूर, कुङ्कुम, पुष्पमाला देनी चाहिये। इसके बाद साधकोत्तम देवी के परिवार की पूजा करे । पश्चात् मन्त्र का उच्चारण करता हुआ गुग्गुलु का धूप दे । ततः मन्त्रोच्चारणपूर्वक दीपदान करे। इसके बार पाद्य आदि देकर नैवेद्य आदि का निवेदन करना चाहिये ।। ११४-११९ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ - देव्याः प्रीतिकरनैवेद्याद्यभिधानम्

अन्नं पानं च नैवेद्यं बलिदानं तथैव च ।

रक्तं मांसं मनोरम्यमामं पक्वं पृथक्पृथक् ॥ १२० ॥

क्रमेण सम्प्रवक्ष्यामि देव्याः प्रीतिकरं परम् ।

पञ्चामृतं तथा खण्डं शाल्यन्नं पिष्टकं तथा ॥ १२१ ॥

यवगोधूमजैर्मुद्गैः पक्वान्नं परिकल्पयेत् ।

व्यञ्जनं षड्रसोपेतं घृताक्तं सुमनोहरम् ॥ १२२ ॥

फलं नानाविधं रम्यं परमान्नं तथैव च ।

देवी के प्रीतिकर नैवेद्य- अन्न, पान, नैवेद्य, बलिदान, मन के लिये रुचिकर कच्चा तथा पकाया गया रक्त, मांस अलग-अलग देना चाहिये । आगे देवी के परमप्रीतिकर नैवेद्य का क्रम से वर्णन करूँगा । पञ्चामृत, खाँड़, शाली का अन्न, पीठी तथा यव गेहूँ मूँग से पक्वान का व्यञ्जन बनाये । यह व्यञ्जन छह रसों वाला तथा घृत से संलिप्त हो। अनेक प्रकार के रमणीय फल एवं परमान्न (= खीर, देवी के प्रिय नैवेद्य हैं) । १२०-१२३ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – ब्राह्मण आदि के द्वारा द्रव्य का अर्पण

[ ब्राह्मणस्य सात्त्विकद्रव्यार्पणनिर्देश: ]

द्रव्येण सात्त्विकेनैव ब्राह्मणः पूजयेच्छिवाम् ॥ १२३ ॥

[ क्षत्रियस्य तदयोग्यार्पणीयवस्तुनिर्देश: ]

शाल्यन्नमामिषं चैव सुरां माक्षिकसम्भवाम् ।

तालीं च विविधां गौडीं खार्जूरीं पुष्पसम्भवाम् ॥ १२४ ॥

एवं दद्यात् क्षत्रियोऽपि पैष्टिकीं न कदाचन ।

नारिकेलोदकं कांस्ये ताम्रे गव्यं तथा मधु ॥ १२५ ॥

राजन्यवैश्ययोर्दानं न द्विजस्य कदाचन ।

एवं प्रदानमात्रेण हीनायुर्ब्राह्मणो भवेत् ॥ १२६ ॥

[ शूद्रस्य तदयोग्यार्पणीयवस्तुनिर्देश: ]

शूद्रस्य पैष्टिकीदानं नापरस्य विधीयते ।

ब्राह्मण सात्त्विक द्रव्यों से काली का पूजन करे । क्षत्रिय साठी का अन्न, मांस, मधु, ताड, गुड, खजूर और अन्य पुष्पों से बनी हुई सुरा का अर्पण करे। किन्तु षैष्टी (अनाज को सड़ा कर बनायी गयी ) सुरा न दे। कांस्य पात्र में नारियल का पानी, ताम्रपात्र में गाय का दूध-दही आदि तथा मधु क्षत्रियों एवं वैश्यों के द्वारा देय हैं ब्राह्मण के द्वारा नहीं । इस प्रकार का दान करने वाले ब्राह्मण की आयु क्षीण हो जाती है । शूद्र के लिये पैष्टिकी सुरादान का विधान है दूसरे के लिये नहीं ॥ १२३ १२७ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – अर्पणीयपशुनिर्देशः

कृष्णसारं तथा छागं मृगान् नानाविधानपि ॥ १२७ ॥

मेषं च महिषं घृष्टिं तथा पञ्चनखानपि ।

कपोतं टिट्टिभं हंसं चक्रवाकं च लावकम् ॥ १२८ ॥

शरालिं तित्तिरिं मत्स्यान् कलविङ्कं चकोरकम् ।

अनुक्तं नैव दातव्यं द्विजवर्यैः कदाचन ॥ १२९ ॥

अर्पणीय पशु-पक्षी - कृष्णसार (= एक प्रकार का कालामृग), बकरा, अनेक प्रकार के जंगली जानवर, भेंड़, भैंसा, घृष्टि (=सूअर ) पञ्चनख (= खरगोश, साही,गोधा आदि), कबूतर, टिटिहरी, हंस, चक्रवाक, लवा, शरालि (= एक विशेष प्रकार का पक्षी) तित्तिर, मछली (= मत्स्य), कलविङ्क ( = पक्षी विशेष) और चकोर (ये अर्पणीय पशु-पक्षी हैं)। जिनका वर्णन यहाँ नहीं किया गया द्विज लोग उसका दान कभी भी न करें ।। १२७-१२९ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – क्षत्रियस्य विशेषार्पणीयपशुनिर्देश:

सिंहं व्याघ्रं नरं तद्वत् क्षत्रियः परिकल्पयेत् ।

विहाय कृष्णसारं च क्षत्रियादेर्भवेद् बलिः ॥ १३० ॥

क्षत्रिय हेतु विशेष अर्पणीय पशु- क्षत्रिय सिंह, व्याघ्र और मनुष्य की बलि दे (सकता है) । कृष्णसार को छोड़ कर क्षत्रिय आदि (अन्य मृगों की भी) बलि (दे सकते हैं) ॥ १३० ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – साधकस्य जात्यनुरूपनिषिद्धार्पणीयपशुविवरणम्

सिंहं व्याघ्रं नरं हत्वा ब्राह्मणो ब्रह्महा भवेत् ।

मूषं मार्जारकं चाषं शूद्रो दत्वा पतत्यधः ॥ १३१ ॥

निषिद्ध पशुब्राह्मण यदि सिंह व्याघ्र अथवा मनुष्य की बलि देता है तो ब्रह्महत्या का भागी होता है। शूद्र मूषक बिडाल चाष की बलि देने से पतित हो जाता है ।। १३१ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – बलिकृत्यसम्पादनविधिनिर्देश:

चन्द्रहासेन खड्गेन हन्यादेकप्रहारतः ।

उत्थाय हननं कुर्यान्नोपविश्य कदाचन ॥ १३२ ॥

स्वहस्तेन पशुं हत्वा पशुयोनिमवाप्नुयात् ।

बलिसम्पादन की विधि-चन्द्रहास खड्ग के द्वारा एक प्रहार से बलि देनी चाहिये। यह बलि खड़ा होकर देनी चाहिये बैठकर कदापि नहीं। अपने हाथ से पशु की हत्या कर साधक पशुयोनि को प्राप्त करता है ॥१३२-१३३।।

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – निषिद्धबलिनिर्देश:

विं च त्रिपक्षतो न्यूनं महिषादीस्त्रिवर्षतः ॥ १३३ ॥

अन्यं त्रिमासतो न्यूनं न दद्याच्च कदाचन ।

वृद्धं वा विकृताङ्ग वा न कुर्याद् बलिकर्मणि ॥ १३४ ॥

स्वगात्ररुधिरं दातुं क्षत्रियादेर्भवेद् बलिः ।

सात्त्विको जीवहत्यां हि कदाचिदपि नो चरेत् ॥ १३५ ॥

निषिद्ध बलि-तीन पक्ष से कम अवस्था वाले पक्षी, तीन वर्ष से कम उम्र वाले महिष आदि और अन्य की तीन मास से कम वय होने पर कभी भी बलि नहीं देनी चाहिये । वृद्ध और विकलाङ्ग जीवों की बलि नहीं देनी चाहिये । क्षत्रिय साधक अपने शरीर के रक्त की बलि प्रदान कर सकता है। सात्त्विक व्यक्ति कभी भी जीव हत्या न करे ॥ १३३ १३५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – अर्पणीयपश्वनुकल्पनिर्देश: 

इक्षुदण्डं च कूष्माण्डं तथा वन्यफलादिकम् ।

क्षीरपिण्डै: शालिचूर्णै: पशुं कृत्वा चरेद् बलिम् ॥ १३६ ॥

तत्तत्फलविशेषेण तत्तत्पशुमुपानयेत् ।

कूष्माण्डं महिषत्वेन छागत्वेन च कर्कटीम् ॥ १३७ ॥

अर्पणीय पशु के अनुकल्प- ईख, कुष्माण्ड तथा जंगली फल आदि, दूध में पकाकर पिण्ड बनाया गया साठी के चावल (अथवा पिण्डीकृत दूध और शाली के चूर्ण) को पशु मानकर बलिदान करे। तत्तत् फल की तत्तत् पशु के रूप में बलि दे। कुष्माण्ड की महिष के रूप में ककड़ी की छाग के रूप बलि दे ॥१३६-१३७॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – ताम्बूलार्पणमन्त्रः 

जातीकोषफलैलात्वग्लवङ्गमृगनाभियुक् ।

कर्पूरशकलोन्मिश्रं ताम्बूलं कल्पयेत्ततः ॥ १३८ ॥

पातालतलसम्भूतं सर्वोपस्करसंयुतम् ।

देवि कामकलाकालि त्वं ताम्बूलं गृहाण मे ॥ १३९ ॥

ताम्बूलार्पण मन्त्र - जायफल इलायची लवंग कस्तूरी कपूर के साथ ताम्बूल दे ।(ताम्बूल अर्पण का मन्त्र है - )

ॐ पातालतलसम्भूतं सर्वोपस्करसंयुतम् ।

देव कामकलाकालि त्वं ताम्बूलं गृहाण मे ॥ १३८-१३९ ॥

इति मन्त्रेण सततं ताम्बूलं विनिवेदयेत् ।

ततस्तद्विधिना सम्यक् जपेन्मन्त्रमनन्यधीः ॥ १४० ॥

सन्तोष्य युवतीं रम्यां प्रजपेत्साधकोत्तमः ।

उक्त मन्त्र से ताम्बूल समर्पित करे। इसके बाद साधक अनन्य चित्त होकर विधिपूर्वक (मूलमन्त्र का जप करे। उत्तम साधक सुन्दरी युवती को सन्तुष्ट कर जप करे ।। १४०-१४१ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – ब्राह्मणस्य कृते एतत्प्रयोगस्य निषेधः

स्वयोषां परयोषां वा नैवाकृष्य द्विजो जपेत् ॥ १४१ ॥

लोभाद् यदि चरेदेवमधो याति द्विजस्तदा ।

इहामुत्र फलं नास्ति हीनायुरपि जायते ॥ १४२ ॥

देवत्यागान्मद्यपानाच्छूद्रभार्याप्रयोगतः ।

तत्क्षणाज्जायते वामो ब्राह्मणो नात्र संशयः ॥ १४३ ॥

स्वकीयां परकीयां वा सामान्यवनितां तथा ।

जपेयुस्तां समाकृष्य क्षत्रविद् शूद्रजातयः ॥ १४४ ॥

ब्राह्मण के लिये निषेध - ब्राह्मण अपनी अथवा परायी किसी भी स्त्री का आकर्षण कदापि न करे। यदि लोभ के कारण वह (किसी स्त्री का आकर्षण करने हेतु) जप करता है, तो पतित हो जाता है। उसे ऐहिक और आमुष्मिक दोनों ही फल नहीं मिलते तथा वह अल्पायु हो जाता है। देवत्याग, मद्यपान, शूद्रभार्या समागम करने पर ब्राह्मण तत्क्षण पतित हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं । केवल क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपनी दूसरे की अथवा किसी सामान्य स्त्री को आकृष्ट कर जप कर सकते हैं ।। १४१-१४४ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – अत्र कासाञ्चन सुन्दरीणां निषेधः

ऋषिकन्यां न चाकर्षेन्मद्यपानां च कन्यकाम् ।

अन्त्यजानां स्त्रियं वापि व्रतस्थानां स्त्रियं तथा ॥ १४५ ॥

गुर्वङ्गनां गुरोः पत्नी सगोत्रां शरणागताम् ।

शिष्ययोषां न चाकर्षेत् पापिनां वनितां तथा ॥ १४६ ॥

नापुष्पितां गुर्विणी वा बालापत्यां तथा पुनः ।

कतिपय निषिद्ध सुन्दरियाँऋषिकन्या, मद्यपान करने वाली अन्त्यज की स्त्री, व्रताचरण करने वाली, गुरुकुल की स्त्रियाँ, गुरु की पत्नी, सगोत्रा, शरणागता, शिष्य की पत्नी, पापियों की स्त्री, जो रजस्वला न हुई हो, गर्भिणी और छोटे बच्चे वाली स्त्री का आकर्षण नहीं करना चाहिये ।। १४५-१४७ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – कीदृशी सुन्दरी ग्राह्येति विचारः

साधुशीलां सुभव्यां च समाकृष्यार्चनं चरेत् ॥ १४७ ॥

पूजाकाले च देवेशि विकारं वर्जयेत् सदा ।

विकारात्सिद्धिहानिः स्यात्साधकस्य न संशयः ॥ १४८ ॥

ग्राह्य सुन्दरी - साधु स्वभाववाली सुन्दर स्त्री का आकर्षण कर साधक को उसकी पूजा करनी चाहिये । हे देवेशि ! पूजा के समय कामविकार नहीं आना चाहिये । विकार के कारण साधक को सिद्धि प्राप्त नहीं होती (तथा मिली हुई सिद्धि भी नष्ट हो जाती है) ।। १४७- १४८ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल ५ – प्रयोगागतसुन्दरीणां विसर्जनविधिः

जपं समर्पयेत्तस्यै मन्त्रोच्चारणपूर्वकम् ।

पुष्पाञ्जलित्रयं दत्वा प्रदक्षिणमथो चरेत् ॥ १४९ ॥

ततश्च स्तोत्रपाठादि कुर्यात्साधकसत्तमः ।

सहस्रनामस्तोत्रं च कवचं चान्वहं पठेत् ॥ १५० ॥

प्राणायामं षडङ्गं च विधाय तदनन्तरम् ।

आत्मानं देवतारूपं विचिन्त्यैनां विसर्जयेत् ॥ १५१ ॥

सुन्दरी विसर्जन - (साधक) मन्त्रोच्चारपूर्वक जप कर उसके लिये समर्पण करे । तत्पश्चात् तीन बार पुष्पाञ्जलि देकर उसकी प्रदक्षिणा करे। इसके बाद साधक स्तोत्र- पाठ आदि करे । कालीसहस्रनाम कालीस्तोत्र कालीकवच का पाठ प्रतिदिन करना चाहिये । प्राणायाम षडङ्गन्यास करने के बाद अपने का देवता के रूप में ध्यान कर इस स्त्री को विदा करे ।। १४९-१५१ ॥

॥ इत्यादिनाथविरचितायां पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां कामकलाप्रयोगो नाम पञ्चमः पटलः ॥ ५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित पचास हजार श्लोकों वाली महाकाल- संहिता के कामकलाकाली खण्ड के कामकलाप्रयोग नामक पञ्चमपटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई॥५॥

आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 6

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