मयमतम् अध्याय २०

मयमतम् अध्याय २०        

मयमतम् अध्याय २०द्विभूमिविधान - इस अध्याय में द्वितल प्रासाद के पाँच प्रमाण वर्णित हैं। इसके अन्तर्गत स्वस्तिक, विपुलसुन्दर, कूट, कैलासादि भेद, भवनों के भेद, खण्ड भवन तथा तोरण वर्णित हैं।

मयमतम् अध्याय २०

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Mayamatam chapter 20   

मयमतम् विंशोऽध्यायः

मयमतम्‌वास्तुशास्त्र बीसवां अध्याय

मयमत अध्याय २०- द्विभूमिविधान

दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्‌

अथ विंशोऽध्यायः

(द्विभूमिविधानम्)

द्वितल पञ्चधा मानं वक्ष्ये संक्षेपतः क्रमात् ।

पञ्चषड्ढस्तमारभ्य द्विद्विहस्तविवर्धनात् ॥१॥

सैकार्कमनुहस्तान्तमुत्सेधं पूर्ववद् भवेत् ।

तारे सप्तर्तुभागे तु भागं सौष्ठिकविस्तृतम् ॥२॥

 (मन्दिर के) दूसरे तल के पाँच प्रकार के प्रमाण को क्रमशः संक्षेप में कहता हूँ । पाँच-छः हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ की वृद्धि से तेरह या चौदह हाथपर्यन्त उसकी ऊँचाई पूर्व-वर्णित नियम के अनुसार होनी चाहिये । (निचले तल के) विस्तार के छः या सात भाग करने चाहिये । उसके एक भाग को सौष्ठिक (कर्णकूट) के लिये ग्रहण करना चाहिये ॥१-२॥

कोष्ठं तु द्विगुणायामं शेषं हारं सपञ्जरम् ।

विमानोत्सेधं विभजेदष्टाविंशतिसड्ख्यया ॥३॥

कोष्ठ (मन्दिर के मध्य भाग का कूट) की लम्बाई के लिये दो या तीन भाग का प्रमाण एवं शेष भाग में हार (गलियारा) एवं पञ्जर (अलङ्करणविशेष) होना चाहिये । विमान (देवालय) की ऊँचाई को अट्ठाईस भागों में बाँटना चाहिये ॥३॥

ईशदृगृतुबन्धांशैर्भूतेनेत्रशिवांशकैः ।

नेत्रसार्धचतुर्भागैरध्यर्धेन यथाक्रमम् ॥४॥

मसूरकाङ्‌घ्रिकं मञ्चाङ्‌घ्रिमञ्चवितर्दिकम् ।

कन्धरं शिखरं कुम्भं मूलतः परिकल्पयेत् ॥५॥

 (उपर्युक्त अट्ठाईस भाग में) तीन भाग मसूरक (अधिष्ठान), छः भाग अङिघ्र (भूतल), तीन भाग मञ्च, पाँच भाग अंघ्रि (तल), दो भाग मञ्च, एक भाग वितर्दिक (वेदिका), दो भाग कन्धर, साढ़े चार भाग शिकर एवं डेढ़ भाग कुम्भ के लिये होता है । यह परिकल्पना मूल से (शिखरपर्यन्त) की गई है ॥४-५॥

मयमत अध्याय २०-स्वस्तिक

चतुसत्रमधिष्ठानं तद्वत् कन्धरमस्तकम् ।

चतुष्कूटसमायुक्तं चतुष्कोष्ठसमन्वितम् ॥६॥

(स्वस्ति देवालय का) अधिष्ठान चतुर्भुज होता है एवं कन्धर तथा मस्तक (शीर्षभाग) भी उसी प्रकार होता है । यह चार कूटों एवं चार कोष्ठों (मध्य-कूट) से युक्त होता है ॥६॥

दभ्रनीडानुपर्यष्टौ षडष्टैवाल्पनासिकम् ।

शिखरं चोरुनीडाभिर्वेदसड्ख्याभिरन्वितम् ॥७॥

ऊपरी भाग में आठ दभ्रनीड (सजावटी खिड़कियाँ) तथा अड़तालीस अल्पनासिक (अत्यन्त छोटे अलङ्करण-विशेष) होते है । शिखरभाग में चार बड़े आकार के नीड (सजावटी खिड़कियाँ) होते है ॥७॥

हारान्तरस्य मध्ये तु कुड्यं कुम्भलतान्वितम् ।

तोरणेर्वेदिकाद्यैस्तु नानाचित्रैर्विचित्रितम् ॥८॥

सर्वदेवार्हकं शस्तं नाम्नैतत् स्वस्तिकं भवेत् ।

हार (चारो ओर निर्मित गलियारा) के मध्य भाग में भित्ति पर कुम्भ से निर्गत लतायें निर्मित होती है तथा तोरण, वेदिका एवं विभिन्न प्रकार के अङ्कनों से भवन सुसज्जित रहता है । यह भवन सभी देवों के अनुकूल होता है एवं इसका नाम स्वस्तिक होत है ॥८॥

मयमत अध्याय २०-विपुलसुन्दरम्

तदेव सौष्ठिकं निम्नमुन्नतं कोष्ठकं यदि ॥९॥

अन्तरप्रस्तरोपेतमेतद् विपुलसुन्दरम् ।

यदि देवालय के सौष्ठिक (कर्णकूट) नीचे हों एवं कोष्ठक (मध्य-कूट) ऊँचा हो तथा अन्तर प्रस्तर से युक्त हो तो उसे 'विपुलसुन्दर' कहते है ॥९॥

मयमत अध्याय २०-कूटलक्षणम्

अंशमंशत्रयं सत्रिपादांशं साङ्‍घ्रिभागिकम् ॥१०॥

भागत्रयं वितर्द्यङ्‌प्रस्तरग्रीवमस्तकम् ।

पादोदये दशांशे तु द्वितलादिविमानके ॥११॥

कूट का लक्षण -द्वितल आदि वाले विमान (देवालय) में पादोदय, (पूरे देवालय) के दश भाग होने चाहिये । एक भाग से वितर्दि, तीन भाग से अङिघ्र, पौने दो भाग से प्रस्तर, सवा भाग से ग्रीव तथा तीन भाग से मस्तक निर्मित होना चाहिये । अन्तर प्रस्तर से युक्त ऊँचे भवन को 'कूटशाल' कहते है ॥१०-११॥

अन्तरप्रस्तरोपेतं कूटशालोन्नतं मतम् ।

तदेव कोष्ठकं निम्नं सौष्ठिकं चोन्नतं यदि ॥१२॥

यदि कोष्ठक नीचा हो एवं सौष्ठिक ऊँचा हो तथा अन्तर-प्रस्तर से युक्त हो तो उस भवन (देवालय) को कैलास कहते है ॥१२॥

अन्तरप्रस्तरोपेतमेतत् कैलासमुच्यते ।

तदेव वर्तुलं वेदिकन्धरं शिखरं घटम् ॥१३॥

अष्टकूटं चतुश्शालोपेतं सप्ताष्टनासिकम् ।

कोष्ठकान्निर्गमं मध्ये द्वित्रिदण्डेन सौष्ठिकात् ॥१४॥

समग्रीवाशिरोयुक्तं कूटकोष्ठकमीरितम् ।

नानाधिष्ठानसंयुक्तं नानापादैरलङ्‌कृतम् ॥१५॥

यदि वेदी, कन्धर, शिखर एवं घट वर्तुलाकार हो, आठ कूट हो, चार शाल से युक्त हो, छप्पन नासिक (सजावटी खिड़कियों की आकृतियाँ) हों, कोष्ठक (मध्य कूट) से प्राराम्भ हुये दो या तीन दण्ड के निर्गम सौष्ठिक से सम्बद्ध होते है । समान माप वाले ग्रीवा एवं शीर्षभाग से युक्त कूट-कोष्ठ होते है । विविध प्रकार के अधिष्ठान से युक्त एवं विविध प्रकार के स्तम्भों से सुसज्जित विमान की संज्ञा 'पर्वत' होती है एवं यह सभी के अनुकूल होती है ॥१३-१५॥

नाम्नैतत् पर्वतं प्रोक्तं विमानं सार्वदेशिकम् ।

तदेव शिखरे चार्धकोष्ठकं तु चतुष्ट्यम् ॥१६॥

चतुरस्त्रशिरोयुक्तं चतुष्कूटसमन्वितम् ।

नानाधिष्ठानसंयुक्तं षडष्टैवाल्पनासिकम् ॥१७॥

देवालय के शिखर पर चार अर्धकोष्ठ हो, इनका शिरोभाग चौकोर हो एवं चार कूटों से युक्त हो, अनेक प्रकार के अधिष्ठान से युक्त हों एवं अड़तालीस अल्पनासिक हो, तो उसकी संज्ञा 'स्वस्तिबन्ध' होती है एवं यह विभिन्न अङ्गों से सुसज्जित होता है ॥१६-१७॥

नाम्नैतत् स्वस्तिबन्धं स्यान्नानावयवशोभितम् ।

तदेव सौष्ठिकं कोष्ठमन्तरप्रस्तरैर्युतम् ॥१८॥

हाराल्पपञ्जरं निम्नं नवाष्टैर्वाल्पनासिकम् ।

नानालङ्कारसंयुक्तं कल्याणमिति पठ्यते ॥१९॥

यदि कोणों एवं मध्य में अन्तर-प्रस्तर से युक्त कोष्ठ हों, हारा (गलियारा) एवं अल्प-पञ्जर नीचे हो, बहत्तर अल्प-नासिक हो तथा विभिन्न अलङ्करणों से युक्त हो तो उस देवालय को 'कल्याण' कहते है ॥१८-१९॥

तदेव शिखरे चार्धकोष्ठकं रहितं तु चेत् ।

चतुर्नीडासमायुक्तमेतत् पाञ्चालमिष्यते ॥२०॥

यदि देवालय के शिखरभाग पर अर्धकोष्ठ न हो तथा वहाँ चार नीडा (सजावटी खिड़की की आकृतिविशेष) निर्मिथो तो उसे 'पाञ्चाल' कहते है ॥२०॥

तदेवाष्टस्त्रकं वेदीकन्धरं शिखरं घटम् ।

शिखरेऽष्टमहानासि नाम्नैतद् विष्णुकान्तम् ॥२१॥

यदि देवालय की वेदी, कन्धर, शिखर एवं घट अष्ट-कोण हो तथा शिखर पर आठ महानासी निर्मित हो, तो उसकी संज्ञा 'विष्णुकान्त' होती है ॥२१॥

तदेव कूटशालानामन्तरप्रस्तरं विना ।

तच्चतुर्भागमाधिक्यमायतं चतुरस्त्रकम् ॥२२॥

आयतास्त्रं तथा वेदीकन्धरं शिखरं भवेत् ।

स्थूपित्रयसमायुक्तमेतन्नाम्ना सुमङ्गलम् ॥२३॥

यदि देवालय कूट, शाला (मध्य कोष्ठ) एवं अन्तर-प्रस्तर से रहित हो, चार भुजाओं वाला हो तथा लम्बाई चौड़आई से चतुर्थांश अधिक हो, वेदी, कन्धर एवं शिखर आयताकार हो एवं तीन स्तूपियाँ हो तो उसका नाम 'सुमङ्गल' होता है ॥२२-२३॥

तदेवायतवृत्तं चेद् वेदिकाकन्धरं शिरः ।

सर्वावयवसंयुक्तमेतद् गान्धारमिष्यते ॥२४॥

यदि देवालय की वेदिका, गल एवं शिरोभाग वृत्तायत (लम्बाई लिये वृत्ताकार) हो तथा सभी अङ्गों से भवन युक्त हो तो उसकी संज्ञा 'गान्धार' होती है ॥२४॥

तारादर्धांशमाध्क्यमायतं चतुरस्त्रकम् ।

द्व्यस्त्रवृत्तशिरोयुक्त नेत्रशालामुखान्वितम् ॥२५॥

यदि देवालय आयताकार हो तथा लम्बाई चौड़ाई से आधा भाग अधिक हो, शिरोभाग दो कोण से युक्त गोलाई लिये हो तथा मुखभाग (सामने) पर नेत्रशाला (नेत्र की आकृति का प्रकोष्ठ) हो तो उसे 'हस्तिपृष्ठ कहते है । इसका अधिष्ठान दो कोण से युक्त गोलाकार भी हो सकता है ॥२५॥

हस्तिपृष्ठमिदं द्व्यस्त्रं वृत्तं वापि मसूरकम् ।

चतुरस्त्रमधिष्ठानं वृत्तं स्याद् गर्भगेहकम् ॥२६॥

यदि देवालय का अधिष्ठान चौकोर हो एवं गर्भगृह वृत्ताकार हो तथा भवन सभी अलङ्करणों से युक्त हो तो उसकी संज्ञा 'मनोहर' होती है ॥२६॥

सर्वालङ्कारसंयुक्तमेत्रन्नाम्ना मनोहरम् ।

तदेव जन्माद्या कुम्भाद् वृत्तं चेति बहिर्बहिः ॥२७॥

यदि जन्म (भवन के मूल) से लेकर कुम्भ (शिखर भाग) तक देवालय बाहर एवं भीतर से वृत्ताकार हो एवं शेष भाग पूर्ववर्णित विधि के अनुसार हो तो उसे 'ईश्वरकान्त' कहते है ॥२७॥

शेषं पूर्ववदुद्दिष्टमिष्टमीश्वरकान्तकम् ।

तदेव चतुरस्त्रं स्याद् गर्भगेहं मसूरकम् ॥२८॥

यदि देवालय का गर्भगृह चौकोर हो, अधिष्ठान गोलाकार हो तथा जन्म से लेकर स्तूपिकापर्यन्त भवन वृत्ताकार हो तो उसे 'वृत्तहर्म्य' कहते है ॥२८॥

वर्तुलं जन्मतः स्थूपिकान्तं चेद् वृत्तहर्म्यकम् ।

आयतास्त्रमधिष्ठानं षडस्त्रं कन्धरं शिरः ॥२९॥

यदि अधिष्ठान चौकोर हो तथा कन्धर एवं शिर षट्‍कोण हो एवं शेष सभी भाग पूर्ववत् हो तो उस देवालय की संज्ञा 'कुबेरकान्त' होती है ॥२९॥

तदेव पूर्ववत् सर्वं नाम्ना कुबेरकान्तकम् ।

मानं पञ्चविधं धाम्नां भेदं पञ्चदशैव हि ॥३०॥

द्वितलानाम यथा प्रोक्तं तथा कुर्याद् विचक्षणः ।

दो तल वाले भवनों के प्रमाण पाँच प्रकार के होते है एवं उनके भेद पन्द्रह होते है । बुद्धिमान (स्थपति) को भवन का निर्माण उसी प्रकार करना चाहिये, जिस प्रकार उनका वर्णन किया गया है ॥३०॥

मयमत अध्याय २०-पुनः धामभेद

सञ्चितासञ्चितं चैवोपसञ्चितमिति त्रिधा ॥३१॥

पुनः भवन के भेद - सञ्चित, असञ्चित एव उपसञ्चित संज्ञक भवन के तीन भेद होते है ॥३१॥

स्त्रीपुंनपुंसकं चैव त्रिविधं तत् प्रवक्ष्यते ।

इष्टकाभिः शिलाभिर्वा सञ्चितं यद् घनीकृतम् ॥३२॥

उपर्युक्त भेदों को स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक कहते है । ईंटों अथवा शिलाओं से निर्मित भवन 'सञ्चित' होता है ॥३२॥

कपोतादिशिरोयुक्तं तत्तत् पुंस्त्वं समीरितम् ।

ऐष्टकं दारुजं सौधं भोगयुक्तागसंयुतम् ॥३३॥

स्त्रीत्वं ह्यसञ्चितं भोगाभोगयुक्तं द्रुमेष्टकैः ।

घनाघनाङ्गयुक् षण्डमुपसञ्चितमिष्यते ॥३४॥

कपोत आदि जिस भवन के शीर्षभाग पर हो, उसे पुरुष भवन कहते है । ईटों या काष्ठ से निर्मित, भोग एवं आग (शिरोभाग के विशिष्ट निर्माण) से युक्त भवन स्त्रीत्वयुक्त 'असञ्चित' संज्ञक होते है । काष्ठ अथवा ईंटों से निर्मित भोग एवं अभोग से युक्त तथा घन एवं अघन अङ्गों से युक्त भवन नपुंसक होता है । इसकी संज्ञा 'उपसञ्चित' होती है ॥३३-३४॥

मयमत अध्याय २०-खण्डभवनम्

ऊर्ध्वतलपादनिजदैर्घ्यमुनिभागे

स्थूप्युदयमेकमथ कं प्रति गुणांशम् ।

द्व्यंशि गलमंशकवितर्दिकमधस्तात्

खण्डभवनस्य विधिरुक्तमुरुधीभिः ॥३५॥

मनीषियों के अनुसार खण्डभवन की स्थूपी (स्तूपिका) का मान ऊपरी तल के स्तम्भके सातवें भाग के बराबर होता है । छत की ऊँचाई (स्तम्भ के सात भाग) के तीन भाग के बराबर, गल दो भाग के बराबर एवं वितर्दिक (गल का आधार) एक भाग के बराबर होता है ॥३५॥

मयमत अध्याय २०-तोरणम्

पादोदये दशनवाष्टविभाजिते तत्

सप्तर्तुपञ्चचरणायतमत्र भागम् ।

शेषं झषांशमुदयार्धविशालकं वा

षट्‌पञ्चवेदचरणेन भवेद्विशालम् ॥३६॥

तोरण की ऊँचाई के लिये स्तम्भ के दश, नौ या आठ भाग करने चाहिये । उनमें क्रमशः सातवें, छठे या पाँचवे भाग को ग्रहण करना चाहिये । शेष भाग से झषांश (मछली की आकृति के सदृश गोलाई लिये पट्टिका) निर्मित करना चाहिये । इसकी चौड़ाई लम्बाई की आधी, छठवें भाग, पाँचवे भाग अथवा चौथे भाग के बराबर रखनी चाहिये ॥३६॥

नीडस्य तावदुदयं च विशालमङ्‌घ्रे

र्मूलात् त्रिपादविपुलं तलिपं तयोश्च ।

हारान्तरे सदनमध्यपदे च कूते

कोष्ठे च तोरणमलङ्‌कृतमेव कुर्यात् ॥३७॥

नीड (सजावटी खिड़की की आकृति) की चौड़ाई उसकी ऊँचाई के बराबर होनी चाहिये । उन दोनों (तोरण एवं नीड) की परिधि स्तम्भ के मूल भाग के तीन चौथाई के बराबर होनी चाहिये । हार के मध्य, भवन-मध्य, कूट पर एवं कोष्ठ पर तोरण से अलङ्करण करना चाहिये ॥३७॥

द्वारस्योभयपार्श्वे द्वारसमीपे तु वाथ पदमध्ये ।

द्वारपवासगुहा स्यादुत्तरमण्डान्तकं तु वोच्चं तत् ॥३८॥

खण्डान्तपोतिकान्तं तोरणमात्रोदयं तु वा कथितम् ।

युक्त्या प्रवेशयुक्त्या सर्वस्मिन् धाम्नि कर्तव्याः ॥३९॥

द्वार के रक्षक का कक्ष द्वार के दोनों पार्श्वों में, द्वार के समीप अथवा पद के मध्य में होना चाहिये । इसकी ऊँचाई उत्तरमण्डपर्यन्त, खण्डपर्यन्त, पोतिकापर्यन्त अथवा तोरणपर्यन्त कही गई है । सभी भवनों में उचित रीति से प्रवेश-भाग का निर्माण युक्तिपूर्वक करना चाहिये ॥३८-३९॥

इति मयमते वस्तुशास्त्रे द्विभूमिविधानं नाम विंशोऽध्यायः॥

आगे जारी- मयमतम् अध्याय 21 

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