गोमती विद्या
विभिन्न अवसरों में गौ(गाय) माता का पूजन करने, गोदान करने अथवा श्राद्ध या मूलशान्ति में गौ पूजन पर अथवा नित्य गौ ग्रास देने पर इस गोमती विद्या का पाठ अवश्य ही करें,इसके पाठ से गौ, ब्राह्मण तथा सभी देवों के पूजन का फल प्राप्त होगा।
गोमतीविद्या
Gomati Vidya
गावो मामुपतिष्ठन्तु हेमशृंग्यः
पयोमुचः।
सुरभ्यः सौरभेय्यश्च सरितः सागरं
यथा ॥
जैसे नदियाँ समुद्र के पास जाती हैं,
उसी तरह से सोने से मढ़ी हुई सींगों वाली, दूध
देने वाली सुरभी और सौरभेयी गौएँ मेरे निकट आयें।'
श्रीविष्णुधर्मोत्तर पुराण के द्वितीयखण्ड
अध्याय ४२ श्लोक ४९-५८ में गऊ(गाय) माता के माहात्म्य को कहा गया है इसे ही गोमतीविद्या
के नाम से जाना जाता है ।
गोमती विद्या
गोमतीं कीर्तयिष्यामि
सर्वपापप्रणाशिनीम् ।
तां तु मे वदतो विप्र शृणुष्व
सुसमाहितः ।। १ ।।
[जलाधिनाथ वरुण के पुत्र पुष्कर
द्वीप के स्वामी सर्वशास्त्रों के ज्ञाता पुष्कर भगवान् परशुराम के पूछने पर इस
विद्या का उपदेश करते हुए उनसे कहते हैं] हे विप्रवर! अब मैं गोमती विद्या का
वर्णन कर रहा हूँ, यह गोमती विद्या
समस्त पाप का समूल उन्मूलन करनेवाली है, इसे आप पूर्णतया
एकाग्रचित्त होकर सुनें-
गोमती विद्या
गावः सुरभयो नित्यं गावो गुग्गुलगन्धिकाः
।
गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः
स्वस्त्ययनं परम् ।। २ ।।
गौएँ नित्य सुरभिरूपिणी – गौओं की
प्रथम उत्पादिका माता एवं कल्याणमयी, पुण्यमयी
सुन्दर श्रेष्ठ गन्धवाली हैं। वे गुग्गुल के समान गन्ध से संयुक्त हैं। गायों पर
ही समस्त प्राणियों का समुदाय प्रतिष्ठित है। वे सभी प्रकार के परम कल्याण अर्थात्
धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की भी
सम्पादिका हैं।
अन्नमेव परं गावो देवानां
हविरुत्तमम् ।
पावनं सर्वभूतानां रक्षन्ति च
वहन्ति च ।। ३ ।।
गायें समस्त उत्कृष्ट अन्नों के
उत्पादन की मूलभूता शक्ति हैं और वे ही सभी देवताओं के भक्ष्यभूत हविष्यान्न और
पुरोडाश आदि की भी सर्वोत्कृष्ट मूल उत्पादिका शक्ति हैं। ये सभी प्राणियों को
दर्शन- स्पर्शादि के द्वारा सर्वथा शुद्ध निर्मल एवं निष्पाप कर देती हैं। वे
दुग्ध,
दधि तथा घृत आदि अमृतमय पदार्थों का क्षरण करती हैं तथा उनके
वत्सादि समर्थ वृषभ बनकर सभी प्रकार के भारी बोझा ढोने और अन्न आदि उत्पादन का भार
वहन करने में समर्थ होते हैं।
हविषा मन्त्रपूतेन
तर्पयन्त्यमरान्दिवि ।
ऋषीणामग्निहोत्रेषु गावो होमे
प्रयोजिताः ।। ४ ।।
साथ ही वेदमन्त्रों से पवित्रीकृत
हविष्यों के द्वारा स्वर्ग में स्थित देवताओं तक को ये ही परितृप्त करती हैं।
ऋषि-मुनियों के यहाँ भी यज्ञों एवं पवित्र अग्निहोत्रादि कार्यों में हवनीय
द्रव्यों के लिये गौओं के ही घृत, दुग्ध आदि
द्रव्यों का प्रयोग होता रहा है (अतः वे गायों का विशेष श्रद्धा-भक्ति से पालन
करते रहे हैं)।
सर्वेषामेव भूतानां गावः
शरणमुत्तमम् ।
गावः पवित्रं परमं गावो
मङ्गलमुत्तमम् ।। ५ ।।
जहाँ कोई भी शरणदाता नहीं मिलता है
वहाँ विश्व के समस्त प्राणियों के लिये गायें ही सर्वोत्तम शरण प्रदात्री बन जाती
हैं। पवित्र वस्तुओं में गायें ही सर्वाधिक पवित्र हैं तथा सभी प्रकार के समस्त
मङ्गलजात पदार्थों की कारणभूता हैं।
गावः स्वर्गस्य सोपानं गावो
धन्यास्सनातनाः ।
ॐ नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः
सौरभेयीभ्य एव च ।। ६ ।।
गायें स्वर्ग प्राप्त करने की
प्रत्यक्ष मार्गभूता सोपान हैं और वे निश्चित रूप से तथा सदा से ही समस्त धन
समृद्धि की मूलभूत सनातन कारण रही हैं। लक्ष्मी को अपने शरीर में स्थान देनेवाली
गौओं को नमस्कार। सुरभी के कुल में उत्पन्न शुद्ध, सरल एवं सुगन्धियुक्त गौओं को नमस्कार।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो
नमोनमः ।
ब्राह्मणाश्चैव गावश्च कुलमेकं
द्विधा स्थितम् ।। ७ ।।
ब्रह्मपुत्रौ गौओं को नमस्कार।
अन्तर्बाह्य से सर्वथा पवित्र एवं सुदूरतक समस्त वातावरण को शुद्ध एवं पवित्र
करनेवाली गौओं को बार बार नमस्कार। वास्तव में गौएँ और ब्राह्मण दोनों एक कुल के
ही प्राणी हैं, दोनों में विशुद्ध सत्त्व
विद्यमान रहता है।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरेकत्र
तिष्ठति ।
देवब्राह्मणगोसाधुसाध्वीभिः सकलं
जगत् ।। ८ ।।
ब्राह्मणों में वेदमन्त्रों की स्थिति है तो
गौओं में यज्ञ के साधनभूत हविष्य की इन दोनों के द्वारा ही यज्ञ सम्पन्न होकर
विष्णु आदि देवताओं से लेकर समस्त चराचर प्राणियों का आप्यायन होता है। यह सारा
विश्व शुद्ध सत्त्व से परिपूर्ण देवता, ब्राह्मण,
गाय, साधु-संत-महात्मा तथा पतिव्रता
सती-साध्वी, सदाचारिणी नारियों के पुण्यों के आधार पर ही
टिका हुआ है।
धार्यते वै सदा तस्मात्सर्वे
पूज्यतमा सदा ।
यत्र तीर्थे सदा गावः पिबन्ति तृषि
ता जलम् ।।
उत्तरन्ति पथा येन स्थिता तत्र
सरस्वती ।। ९ ।।
ये ही धार्मिक प्राणी सम्पूर्ण
विश्व को सदा धारण करते हैं, अतः ये सदा
पूजनीय एवं वन्दनीय हैं। जिस जलराशि में प्यासी गायें जल पीकर अपनी तृषा शान्त
करती हैं और जहाँ जिस मार्ग से वे जलराशि को लाँघती हुई नदी आदि को पार करती हैं,
वहाँ-वहाँ गङ्गा, यमुना, सिन्धु, सरस्वती आदि नदियाँ या तीर्थ निश्चित रूप से
विद्यमान रहते हैं।
गवां हि तीर्थे वसतीह गङ्गा
पुष्टिस्तथा तद्रजसि प्रवृद्धा ।
लक्ष्मीः करीषे प्रणतौ च
धर्मस्तासां प्रणामं सततं च कुर्यात् ।। १० ।।
गौ- रूपी तीर्थ में गङ्गा आदि सभी
नदियाँ तथा तीर्थ निवास करते हैं और गौओं के रजःकण में सभी प्रकार की निरन्तर
वृद्धि होनेवाली धर्म- राशि एवं पुष्टिका निवास रहता है। गायों के गोबर में
साक्षात् भगवती लक्ष्मी निरन्तर निवास करती हैं और इन्हें प्रणाम करने में
चतुष्पाद धर्म सम्पन्न हो जाता है। अतः बुद्धिमान् एवं कल्याणकामी पुरुष को गायों को
निरन्तर प्रणाम करना चाहिये ।
इति श्रीविष्णुधर्मोत्तरे द्वितीयखण्डे गोमाहात्म्ये गोमतीविद्या नाम द्विचत्वारिं शत्तमोऽध्यायः ।।
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