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मन्त्रमहोदधिः
अथ त्रयोदशः तरङ्गः
अरित्र
अथोच्यन्ते हनुमतो मन्त्राः
सर्वेष्टसिद्धये ।
हनूमन्मन्त्रकथनम्
इन्द्रस्वरेन्दुसंयुक्तो वराहो
हसफाग्न्यः ॥ १॥
झिण्टीशबिन्दुसंयुक्ता द्वितीयं
बीजमीरितम् ।
गदीपान्ताग्निरुद्रेन्दुसंयुतः
स्यात्तृतीयकम् ॥ २ ॥
अब सर्वेष्टसिद्धि के लिए हनुमानजी के मन्त्रों को कहता हूँ -
इन्द्र स्वर (औं) और इन्दु
(अनुस्वार) इन दोनों के साथ वराह (ह्) अर्थात् (हौं),
यह प्रथम बीज है । फिर झिण्टीश (ए) बिन्दु (अनुस्वार) सहित ह् स् फ्
और अग्नि (र्) अर्थात (ह्स्फ्रें), यह द्वितीय बीज कहा गया
है । रुद्र (ए) एवं बिन्दु अनुस्वार सहित गदी (ख्) पान्त (फ्) तथा अग्नि (र्)
अर्थात् (ख्फ्रें), यह तृतीय बीज है । मनु (औ), चन्द्र (अनुस्वार) सहित ह् स् र् अर्थात् (ह्स्त्रौं), यह चतुर्थ बीज है । शिव (ए) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित ह् स् ख् फ् तथा र
अर्थात (ह्ख्फ्रें), यह पञ्चम बीज है । मनु (औ) इन्दु
अनुस्वार सहित ह् तथा स् अर्थात् (ह्सौं), यह षष्ठ बीज है ।
इसके बाद चतुर्थ्यन्त हनुमान् (हनुमते) फिर अन्त में हार्द (नमः) लगाने से १२
अक्षरों का मन्त्र बनता है ॥१-२॥
हसरामर्नु चन्द्राढ्याश्चतुर्थ
हसखाः फराः ।
शिवेन्द्वाढ्याः पञ्चमः स्याद्धसौ
मबिन्दुगौ परम् ॥ ३॥
द्वादशाक्षर हनुमत् मन्त्र का
स्वरुप इस प्रकार है - १. हौं २.
ह्स्फ्रें, ३. ख्फ्रें, ४. ह्स्त्रौं ५. ह्स्ख्फ्रें ६., हनुमते नमः (१२)
॥३॥
हनूमदद्वादशाक्षरमन्त्रकथनम्
डेयुतो हनुमान्हादं मन्त्रोऽयं
द्वादशाक्षरः ।
रामचन्द्रो मुनिश्चास्य जगतीछन्द
ईरितम् ॥ ४॥
हनुमान् देवता बीज षष्ठं
शक्तिर्द्वितीयकम् ।
इस मन्त्र के रामचन्द्र ऋषि हैं,
जगती छन्द है, हनुमान् देवता है तथा षष्ठ
ह्सौं बीज है, द्वितीय ह्स्फ्रें शक्ति माना गया है ॥४-५॥
विनिर्श - विनियोग का स्वरुप
इस प्रकार है - ‘ॐ अस्य
श्रीहनुमन्मन्त्रस्य रामचन्द्र ऋषिः जगतीछन्दः हनुमान् देवता ह्स्ॐ बीजं ह्स्फ्रें
शक्तिः आत्मनोऽभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः; ॥४-५॥
षड्बीजैरङ्गषट्कं स्यान्मूर्ध्नि
भाले दृशोर्मुखे ॥ ५॥
कण्ठे च बाहुद्वितये हृदि कुक्षौ च
नाभितः ।
लिङ्गे जानुद्वये पादद्वये वर्णान् क्रमान्
न्यसेत् ॥ ६ ॥
अब षडङ्ग एवं वर्णन्यास कहते
हैं - ऊपर कहे गये मन्त्र के छः बीजाक्षरों से षडङ्गन्यास करना चाहिए । फिर मन्त्र
के एक एक वर्ण का क्रमशः १. शिर, २. ललाट,
३. नेत्र, ४. मुख, ५.
कण्ठ, ६. दोनों हाथ, ७. हृदय, ८. दोनों कुक्षि, ९. नाभि, १०.
लिङ्ग ११. दोनों जानु, एवं १२. पैरों में, इस प्रकार १२ स्थानों में १२ वर्णों का न्यास करना चाहिए ॥५-६॥
विमर्श - षडङ्गन्यास का
प्रकार -
हौं हृदयाय नमः, ह्स्फ्रें शिरसे स्वाहा, ख्फ्रें शिखायै वषट्,
ह्स्त्रौं कवचाय हुम्, ह्स्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय
वौषट, ह्स्ॐ अस्त्राय
फट् ।
वर्णन्यास
-
हौं नमः मूर्ध्नि, ह्ख्फ्रें नमः ललाटे, ख्फ्रें नमः नेत्रयोः,
हं नमः हृदि, नुं नमः
कुक्ष्योः मं नमः नाभौ,
ते नमः लिङ्गे नं नमः जान्वोः, मं नमः पादयोः ॥५-६॥
षड्बीजानि पदद्वन्द्वे मूर्धि भाले
मुखे हृदि ।
नाभावूर्वोजंघयोश्च
पादयोर्विन्यसेत् क्रमात् ॥ ७॥
अब पदन्यास कहते हैं - ६
बीजों एवं दोनों पदों का क्रमशः शिर, ललाट,
मुख, हृदय, नाभि,
ऊरु जंघा, एवं पैरों में न्यास करना चाहिए ॥७॥
विमर्श
- हौं नमः मूर्ध्नि, हस्फ्रें नमः ललाटे, ख्फ्रें नमः मुखे,
ह्स्त्रौ नमः हृदि, ह्स्ख्फ्रें नमः नाभौ, ह्सौं नमः ऊर्वोः,
हनुमते नमः जंघयोः, नमः नमः पादयोः ॥७॥
ध्यानकथनम्
बालार्कायुततेजसं
त्रिभुवनप्रक्षोभकं सुन्दरं
सुग्रीवादिसमस्तवानरगणैः
संसेव्यपादाम्बुजम् ।
नादेनैव समस्तराक्षसगणान्
संत्रासयन्तं प्रभु
श्रीमद्रामपदाम्बुजस्मृतिरतं
ध्यायामि वातात्मजम् ॥ ८॥
अब ध्यान कहते है - उदीयमान
सूर्य के समान कान्ति से युक्त, तीनों लोकों
को क्षोभित करने वाले, सुन्दर, सुग्रीव
आदि समस्त वानर समुदायों से सेव्यमान चरणों वाले, अपने भयंकर
सिंहनाद से राक्षस समुदायों को भयभीत करने वाले, श्री राम के चरणारविन्दों का स्मरण करने
वाले हनुमान् जी का मैं ध्यान करता हूँ ॥८॥
तस्यार्घ्यादिजपान्तसाधनकथनम्
एवं ध्यात्वा जपेदर्कसहस्रं
जितमानसः ।
दशांशं जुहुयाद् व्रीहीन्
पयोदध्याज्यसंयुतान् ॥ ९ ॥
इस प्रकार ध्यान कर अपने मन तथा
इन्द्रियों को वश में कर साधक बारह हजार की संख्या में जप करे तथा दूध,
दही, एवं घी मिश्रित व्रीहि (धान) से उसका दशांश
होम करे ॥९॥
विमलादियुते पीठे पूजा कार्या
हनूमतः ।
केसरेष्वङ्गपूजा स्याद्
दलेष्वन्यास्तदाबयान ॥ १० ॥
विमला आदि शक्तियों से युक्त पीठ पर
श्री हनुमान् जी का पूजन करना चाहिए ॥१०॥
विमर्श - प्रथम वृत्ताकारकर्णिका,फिर अष्टदल एवं भूपुर सहित यन्त्र का निर्माण करे । फिर १३. ८ श्लोक में
वर्णित हनुमान् जी के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर अर्घ्य स्थापित
करे । फिर ९. ७२.७८ में वर्णित विधि से वैष्णव पीठ पर उनका पूजन करे । यथा - पीठमध्ये-
ॐ आधारशक्तये नमः, ॐ प्रकृत्यै नमः, ॐ कूर्माय नमः,
ॐ अनन्ताय नमः, ॐ पृथिव्यै नमः, ॐ क्षीरसमुद्राय नमः,
ॐ मणिवेदिकायै नम्ह, ॐ रत्नसिंहासनाय नमः,
तदनन्तर आग्नेयादि कोणों में
धर्म आदि का तथा दिशाओं में अधर्म आदि का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ धर्माय नमः,
आग्नेये, ॐ ज्ञानाय नमः, नैऋत्ये,
ॐ वैराग्याय नमः वायव्ये, ॐ ऐश्वर्याय नमः ऐशान्ये,
ॐ अधर्माय नमः पूर्वे, ॐ अज्ञानाय नमः,
दक्षिणे,
ॐ अवैराग्याय नमः पश्चिमे, ॐ अनैश्वर्याय नमः,
उत्तरे,
पुनः पीठ के मध्य में अनन्त
आदि का-
ॐ अनन्ताय नमः,
ॐ पद्माय नमः,
ॐ अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने
नमः
ॐ
उं सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः,
ॐ रं वहिनमण्डलाय दशकलात्मने नमः
ॐ सं सत्त्वाय नमः,
ॐ रं रजसे नमः,
ॐ तं तमसे नमः,
ॐ आं आत्मने नमः,
ॐ अं अन्तरात्मने नमः,
ॐ पं परमात्मने नमः,
ॐ ह्रीं
ज्ञानात्मने नमः, पूर्वे
केशरों के ८ दिशाओं में तथा मध्य
में विमला आदि शक्तियों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए -
ॐ विमलायै नमः, ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, ॐ ज्ञानायै नमः,
ॐ क्रियायै नमः, ॐ योगायै नमः, ॐ प्रहव्यै नमः,
ॐ सत्यायै नमः, ॐ ईशानायै नमः ॐ अनुग्रहायै नमः ।
तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मसंयोगयोगपद्पीठात्मने नमः’ (द्र० ९. ७३-७४) इस पीठ मन्त्र से पीठ को पूजित कर पीठ पर आसन ध्यान आवाहनादि उपचारों से हनुमान् जी का पूजन कर मूलमन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए । तदनन्तर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१०॥
रामभक्तो महातेजा कपिराजो महाबलः।
द्रोणाद्रिहारको मेरुपीठकार्चनकारकः
॥ ११ ॥
दक्षिणाशाभास्करश्च
सर्वविघ्ननिवारकः ।
एवं नामानि सम्पूज्य दलाग्रेषु च
वानरान् ॥ १२॥
सुग्रीवमंगदं नील जाम्बवन्तं नलं
तथा ।
सुषेणं द्विविदं मैन्दं
पूजयेद्दिक्पतीनपि ॥ १३ ॥
अब आवरण पूजा का विधान कहते
हैं - सर्वप्रथम केसरों में अङ्गपूजा तथा दलों पर तत्तन्नामों द्वारा हनुमान् जी
का पूजन करना चाहिए । रामभक्त महातेजा, कपि
राज, महाबल, दोणाद्रिहारक, मेरुपीठकार्चनकारक, दक्षिणाशाभास्कर तथा
सर्वविघ्ननिवारक ये ८ उनके नाम हैं । नामों से पूजन करने बाद दलों के
अग्रभाग में सुग्रीव, अंगद, नील,
जाम्बवन्त, नल, सुषेण,
द्विविद और मयन्द ये ८ वानर है । तदनन्तर दिक्पालों का भी
पूजन करना चाहिए ॥१०-१३॥
विमर्श - आवरण पूजा विधि -
प्रथम केसरों में आग्नेयादि क्रम से
अङ्ग्पूजा यथा - हौं हृदयाय नमः, ह्स्फ्रें शिरसे स्वाहा, ख्फ्रें शिखायै वषट्,
ह्स्त्रौं कवचाय हुम्, हस्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय
वौषट्, ह्स्ॐ
अस्त्राय फट्,
फिर दलों में पूर्वादि
दिशाओं के क्रम से नाम मन्त्रों से -
ॐ रामभक्ताय नमः, ॐ महातेजसे नमः, ॐ कपिराजाय नमः,
ॐ महाबलाय नमः, ॐ द्रोणादिहारकाय नमः, ॐ मेरुपीठकार्चनकारकाय नमः,
ॐ दक्षिणाशाभास्कराय नमः, ॐ सर्वविघ्ननिवारकाय नमः ।
तदनन्तर दलों के अग्रभाग पर
सुग्रीवादि की पूर्वादि क्रम से यथा -
ॐ सुग्रीवाय नमः, ॐ अंगदाय नमः, ॐ नीलाय नमः,
ॐ जाम्बवन्ताय नमः, ॐ नलाय नमः, ॐ सुषेणाय नमः,
ॐ द्विविदाय नमः, ॐ मैन्दाय नमः,
फिर भूपुर में पूर्वादि क्रम
से इन्द्रादि दिक्पालों की यथा -
ॐ लं इन्द्राय नमः,
पूर्वे, ॐ रं अग्नयेः आग्नेये,
ॐ यं यमाय नमः दक्षिणे ॐ क्षं निऋत्ये नमः,
नैऋत्ये,
ॐ वं वरुणाय नमः,
पश्चिमे, ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,
ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,
ॐ आं ब्रह्मणे नमः
पूर्वैशानयोर्मध्ये,
ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये
इस प्रकार आवरण पूजा कर मूलमन्त्र
से पुनः हनुमान् जी का धूप, दीपादि उपचारों से
पूजन करना चाहिए ॥१०-१३॥
एवं सिद्ध मनौ मन्त्री स्वपरेष्टं
प्रसाधयेत् ।
कदलीबीजपूराम्रफलैर्तुत्वा सहस्रकम्
॥ १४ ॥
द्वाविंशान्तेब्रह्मचारिविप्रान्
सम्भोजयेदथ ।
एवं कृते महाभूत विषचौराद्युपद्रवाः
॥ १५ ॥
नश्यन्ति क्षणमात्रेण विद्वेषिग्रहदानवाः
।
अब काम्य प्रयोग कहते है -
इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक अपना या दूसरों का अभीष्ट कार्य करे ॥१४॥
केला, बिजौरा, आम्रफलों से एक हजार आहुतियाँ दे और २२
ब्रह्मचारी ब्राह्मणों को भोजन करावे । ऐसा करने से महाभूत, विष, चोरों आदि के उपद्रव नष्ट हो जाते हैं ।
इतना ही नहीं विद्वेष करने वाले, ग्रह और दानव भी ऐसा करने
नष्ट हो जाते है ॥१४-१६॥
फलपरत्वेन
प्रयोगविधिवर्णनम
अष्टोत्तरशतं वारिमन्त्रितं
विषनाशनम् ॥ १६ ॥
रात्रौ नवशतं मन्त्रं
जपेद्दशदिनावधि ।
यो नरस्तस्य नश्यन्ति
राजशत्रूत्थभीतयः ॥ १७ ॥
अभिचारोत्थभूतोत्थ ज्वरे
तन्मन्त्रितैर्जलैः ।
भस्मभिः सलिलैर्वापि ताडयेज्ज्वरिणः
क्रुधा ॥ १८ ॥
दिनत्रयाज्ज्वरान्मुक्तः ससुखं लभते
नरः।
तन्मन्त्रितौषधं जग्ध्वा नीरोगो
जायते ध्रुवम् ॥ १९ ॥
१०८ बार
मन्त्र से अभिमन्त्रित जल विष को नष्ट कर देता है । जो व्यक्ति रात्रि में १०
दिन पर्यन्त ८०० की संख्या में इस मन्त्र का जप करता है उसका राजभय तथा
शत्रुभय से छुटकारा हो जाता है । अभिचार जन्य तथा भूतजन्य ज्वर में इस मन्त्र से
अभिमन्त्रित जल या भस्म द्वारा क्रोधपूर्वक ज्वरग्रस्त रोगी को प्रताडित करना
चाहिए । ऐसा करने से वह तीन दिन के भीतर ज्वरमुक्त हो कर सुखी हो जाता है ।
इस मन्त्र से अभिमन्त्रित औषधि खाने से निश्चित रुप से आरोग्य की प्राप्ति
हो जाती है ॥१६-१९॥
तन्मन्त्रितं पयः पीत्वा योद्धुं
गच्छेन्मनुं जपन् ।
तज्जप्तभस्मलिप्ताङ्गः शस्त्रसंधैर्न
बाध्यते ॥ २० ॥
इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल
पीकर तथा इस मन्त्र को जपते हुये अपने शरीर में भस्म लगाकर जो व्यक्ति
इस मन्त्र का जप करते हुये रणभूमि में जाता हैं,युद्ध में नाना प्रकार के शस्त्र समुदाय उस को कोई बाधा नहीं
पहुँचा सकते ॥२०॥
शस्त्रक्षतं व्रणः शोफो
लूतास्फोटोऽपि भस्मना ।
त्रिमन्त्रितेन संस्पृष्टाः
शुष्यन्त्यचिरतो नृणाम् ॥ २१ ॥
चाहे शस्त्र का घाव हो अथवा अन्य
प्रकार का घाव हो, शोध अथवा लूता आदि
चर्मरोग एवं फोडे फुन्सियाँ इस मन्त्र से ३ बार अभिमन्त्रित भस्म के लगाने
से शीघ्र ही सूख जाती हैं ॥२१॥
सूर्यास्तमयमारभ्य जपेत्
सूर्योदयावधि ।
कीलकं भस्म चादाय सप्ताहावधि संयतः
॥ २२ ॥
निखनेद् भस्मकीलौ तौ विद्विषां
द्वार्यलक्षितम् ।
विद्वेष मिथ आपन्नाः पलायन्तेऽरयो
चिरात् ॥ २३ ॥
अपनी इन्द्रियों को वश में कर साधक
को सूर्यास्त से ले कर सूर्योदय पर्यन्त ७ दिन कील एवं भस्म ले कर इस
मन्त्र का जप करन चाहिए । फिर शत्रुओं को बिना जनाये उस भस्म को एवं कीलों को
शत्रु के दरवाजे पर गाड दे तो ऐसा करने से शत्रु परस्पर झगड कर शीघ्र ही स्वयं भाग
जाते हैं ॥२२-२३॥
अभिमन्त्रितभस्माम्बुदेहचन्दनसंयुतम्
।
खाद्यादियोजितं यस्मै दीयते स च
दासवत् ॥ २४ ॥
क्रराश्च जन्तवोऽनेन भवन्ति विधिना
वशाः ।
अपने शरीर पर लगाये गये चन्दन के
साथ इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल एवं भस्म को खाद्यान्न के साथ मिलाकर खिलाने
से खाने वाला व्यक्ति दास हो जाता है । इतना ही नहीं ऐसा करने से क्रूर जानवर भी
वश में हो जाते हैं ॥२४-२५॥
ईशानदिक्स्थमूलेन भूतांकुशतरोः
शुभाम् ॥ २५॥
अंगष्ठमात्रां प्रतिमा प्रविधाय
हनूमतः।
प्राणसंस्थापनं कृत्वा सिन्दूरैः
परिपूज्य च ॥ २६ ॥
गृहस्याभिमुखे द्वारे
निखनेन्मन्त्रमुच्चरन्।
भूताभिचारचौराग्निविषरोगनृपोद्भवाः
॥ २७॥
संजायन्ते गृहे तस्मिन्न
कदाचिदुपद्रवाः।
प्रत्यहं धनपुत्राद्यैरेधते तद्गृहं
चिरम् ॥ २८ ॥
करञ्ज वृक्ष
के ईशानकोण की जड ले कर उससे हनुमान् जी की प्रतिमा निर्माण कराकर
प्राणप्रतिष्ठा कर सिन्दूर से लेपकर इस मन्त्र का जप करते हुये उसे घर के दरवाजे
पर गाड देनी चाहिए । ऐसा करने से उस घर में भूत, अभिचार, चोर, अग्नि, विष, रोग, तथा नृप जन्य उपद्रव
कभी भी नहीं होते और घर में प्रतिदिन धन, पुत्रादि की
अभिवृद्धि होती हैं ॥२५-२८॥
निशि श्मशानभूमिस्थौ भस्मना
मृत्स्नयापि वा ।
शत्रोः प्रतिकृतिं कृत्वा हृदि नाम
समालिखेत् ॥ २९ ॥
कृतप्राणप्रतिष्ठां तां
भिन्द्याच्छस्त्रैर्मन जपन् ।
मन्त्रान्ते प्रोच्चरेच्छत्रो
मछिन्धि च भिन्धि च ॥ ३०॥
मारयेति च तस्यान्तेदन्तैरोष्ठं
निपीड्य च ।
पाण्योस्तले प्रपीड्याथ त्यक्त्वा
तां सदनं व्रजेत् ॥ ३१ ॥
एवं सप्तदिनं कुर्वन् हन्याच्छत्रुं
शिवावितम् ।
मारण प्रयोग
- रात्रि में श्मशान भूमि की मिट्टी या भस्म से शत्रु की प्रतिमा बनाकर हृदय स्थान
में उसक नाम लिखना चाहिए । फिर उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर,
मन्त्र के बाद शत्रु का नाम, फिर छिन्धि
भिन्धि एवं मारय लगाकर उसका जप करते हुये शस्त्र द्वारा उसे टुकडे -टुकडे कर
देना चाहिए । फिर होठों को दाँतों के नीचे दबा कर हथेलियों से उसे मसल देना चाहिए
। तदनन्तर उसे वहीं छोडकर अपन घर आ जाना चाहिए । ७ दिन तक ऐसा लगातार करते रहने से
भगवान् शिव द्वारा रक्षित भी शत्रु मर जाता है
॥२९-३२॥
अर्द्धचन्द्राकृतौ कुण्डे स्थण्डिले
वा हुतं चरेत् ॥ ३२ ॥
मुक्तकेशः श्मशानस्थे लवणै
राजिकायुतैः।
उन्मत्तफलपुष्पैश्च नखरोमविषैरपि ॥
३३ ॥
काककौशिकगृधाणां पक्षैः
श्लेष्मातकाक्षजैः ।
समिद्वरैश्च त्रिशतं दक्षिणाशामुखो
निशि ॥ ३४ ॥
सप्त घस्रानिदं कुर्वन्मारयेद्
रिपुमुद्धतम् ।
श्मशान स्थान में अपने केशों को खोलकर
अर्धचन्द्राकृति वाले कुण्ड में अथवा स्थाण्डिल (वेदी) पर राई नमक मिश्रित धतूर के
फल,
उसके पुष्प, कौवा उल्लू एवं गीध के नाखून,
रोम और पंखों से तथा विष से लिसोडा एवं बहेडा की समिधा में
दक्षिणाभिमुख हो रात में एक सप्ताह पर्यन्त निरन्तर होम करने से उद्धत शत्रु
भी मर जाता है ॥३२-३५॥
शतषट्कं जपेद्रात्रौ श्मशाने
दिवसत्रयम् ॥ ३५॥
ततो वेताल उत्थाय वदेद् भावि
शुभाशुभम ।
उदितं कुरुते सर्व किंकरीभूय
मन्त्रिणः ॥ ३६॥
इसके बाद बेताल सिद्धि का प्रयोग
कहते हैं - श्मशान में रात्रि के समय लगातार तीन दिन तक प्रतिदिन ६०० की संख्या
में इस मूल मन्त्र का जप करते रहने से बेताल खडा हो कर साधक का दास बन जाता है और
भविष्य में होने वाले शुभ अथवा घटनाओं को तथा अन्य प्रकार की शंकाओं की भी साफ साफ
कह देता है ॥३५-३६॥
हनुमत्प्रतिमा भूमौ विलिखेत्तत्पुरो
मनून ।
साध्यनाम द्वितीयान्तं विमोचय
विमोचय ।। ३७ ॥
तत्सर्व मार्जयेद्वामहस्तेनाथ
पुनर्लिखेत् ।
एवमष्टोत्तरशतं लिखित्वा
मार्जयेत्पुनः ॥ ३८ ॥
एवं कृते पराधीनो मुच्यते
निगडात्क्षणात् ।
विद्वेषणवश्यादिषु मन्त्रयोजना
एवं विद्वेषणादीनि
कुर्यात्तत्पल्लवं लिखन् ॥ ३९॥
साधक हनुमान् जी की प्रतिमा के
सामने साध्य का द्वितीयान्त नाम, फिर
‘विमोचय विमोचय’ पद, तदनन्तर, मूल मन्त्र लिखे । फिर उसे बायें हाथ से
मिटा देवे, यह लिखने और मिटाने की प्रक्रियाः पुनः पुनः करते
रहना चाहिए । इस प्रकार एक सौ आठ बार लिखते मिटाते रहने से बन्दी शीघ्र ही हथकडी
और बेडी से मुक्त हो जाता है । हनुमान् जी के पैरों के नीचे ‘अमुकं विद्वेषय विद्वेषय’ लगाकर विद्वेषण करे,
‘अमुकं उच्चाटय उच्चाटय’ लगाकर उच्चाटन
करे तथा ‘मारय मारय’ लगाकर मारण
का भी प्रयोग किया जा सकता है ॥३७-३९॥
विमर्श
- बिना गुरु के मारन एवं विद्वेषण आदि प्रयोगों को करने से स्वयं पर ही आघात हो
जाता है ॥३७-३९॥
वश्यार्थे सर्षपैोमो विद्वेषे
करवीरजैः।
कुसुमैरिध्मकाष्ठैर्वा
जीरकैर्मरिचैरपि ॥ ४०॥
अब विविध कामनाओं में होम का
विधान कहते हैं - वश्य कर्म में सरसों से, विद्वेष
में कनेर के पुष्प, लकडियों से, अथवा
जीरा एवं काली मिर्च से भी होम करना चाहिए ॥४०॥
ज्वरे दूर्वागुडूचीभिर्दध्ना
क्षीरेण वा घृतैः ।
शूले होमः कुबेराक्षरेरण्डसमिधा तथा
॥ ४१ ॥
तैलाक्ताभिश्च निर्गुण्डीसमिभिर्वा
प्रयत्नतः ।
सौभाग्ये चन्दनैश्चन्द्रै
रोचनैलालवङ्गकैः ॥ ४२ ॥
सुगन्धिपुष्पैर्वस्त्राप्त्यै
तत्तद्धान्यैस्तदाप्तये ।
तत्पादरजसा राजीलवणाक्तेन मृत्यवे ॥
४३ ॥
ज्वर में दूर्वा,
गुडूची, दही, घृत,
दूध से तथा शूल में कुवेराक्ष (षांढर) एवं रेडी की समिधाओं से अथवा
तेल में डुबोई गई निर्गुण्डी की समिधाओं से प्रयत्नपूर्वक होम करना चाहिए ।
सौभाग्य प्राप्ति के लिए चन्दन, कपूर, गोरोचन,
इलायची, और लौंग से वस्त्र प्राप्ति के लिए
सुगन्धित पुष्पों से तथा धान्य वृद्धि के लिए धान्य से ही होम करना चाहिए । शत्रु
की मृत्यु के लिए उसके परि की मिट्टी राई और नमक मिलाकर होम करने से उसकी मृत्यु
हो जाती है ॥४१-४३॥
किंबहूक्तैर्विषे व्याधौ शान्तौ
मोहे च मारणे ।
विवादे स्तम्भने द्यूतभूतभीतौ च
संकटे ॥ ४४ ॥
वश्ये युद्धे नृपद्वारे समरे
चौरसकटे ।
मन्त्रोऽयं साधितो
दद्यादिष्टसिद्धिं ध्रुवं नृणाम् ॥ ४५ ॥
अब इस विषय में हम बहुत क्या कहें -
सिद्ध किया हुआ यह मन्त्र मनुष्यों को विष, व्याधि,
शान्ति, मोहन, मारण,
विवाद, स्तम्भन, द्यूत,
भूतभय संकट, वशीकरण, युद्ध,
राजद्वार, संग्राम एवं चौरादि द्वारा संकट उपस्थित
होने पर निश्चित रुप से इष्टसिद्धि प्रदान करता है ॥४४-४५॥
हनूमद्यन्त्रकथनम्
वक्ष्ये हनुमतो यन्त्रं
सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।
वलयत्रितयं लेख्यं
पुच्छाकारसमन्वितम् ॥ ४६॥
साध्यनाम लिखेन्मध्ये
पाशबीजप्रवेष्टितम् ।
उपर्यष्टदलं कृत्वा वर्मपत्रेषु
संलिखेत् ॥ ४७॥
वलयं वहिरालिख्य तबहिश्चतुरस्रकम् ।
चतुरस्रस्य रेखाग्रे त्रिशूलानि
समालिखेत् ॥ ४८ ॥
भूपुरस्याष्टवजेषु हसौबीजं
लिखेत्ततः ।
कोणेष्वंकुशमालिख्य मालामन्त्रेण
वेष्टयेत् ॥ ४९॥
तत्सर्व वेष्टयेद्यन्त्रं
वलयत्रितयेन च ।
अब धारण के लिए हनुमान जी के सर्वसिद्धिदायक
यन्त्र को कहता हूँ -
वस्त्रे शिलायां फलके ताम्रपात्रेऽथ
कुड्यके ॥ ५० ॥
भूर्जे वा ताडपत्रे वा
रोचनानाभिकुंकुमैः।
यन्त्रमेतत् समालिख्य त्यक्ताशो
ब्रह्मचर्यवान ॥ ५१॥
कपेः प्राणान्प्रतिष्ठाप्य
पूजयेत्तं यथाविधि ।
सर्वदुःखनिवृत्यै तद्यन्त्रमात्मनि
धारयेत् ॥ ५२ ॥
यह यन्त्र,
वस्त्र, शिला, काष्ठफलक,
ताम्रपत्र, दीवार, भोजपत्र
या ताडपत्र पर गोरोचन, कस्तूरी एवं कुंकुम (केशर) से लिखना
चाहिए । साधक उपवास तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये मन्त्र में हनुमान्जी की
प्राणप्रतिष्ठा कर विधिवत् उसका पूजन करे । सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाने
के लिए यह यन्त्र स्वयं भी धारण करना चाहिए ॥५०-५२॥
ज्वरमार्यभिचारघ्नं
सर्वोपद्रवशान्तिकृत् ।
योषितामपि बालानां धृतं जनमनोहरम् ॥
५३ ॥
उक्त लिखित यन्त्र ज्वर,
शत्रु, एवं अभिचार जन्य बाधाओं को नष्ट
करता है तथा सभी प्रकार के उपद्रवों को शान्त करता है । किं बहुना स्त्रियों तथा
बच्चों द्वारा धारण करने पर यह उनका भी कल्याण करता है ॥५३॥
विमर्श
- इस धारण यन्त्र को चित्र के
अनुसार बनाना चाहिए । तदनन्तर उसमें हनुमान् जी की प्राणप्रतिष्ठा कर विधिवत् पूजन
कर पहनना चाहिए ॥५३॥
हनूमन्मालामन्त्रकथनम्
मालामन्त्रमथो वक्ष्ये प्रणवो
वाग्घरिप्रिया ।
दीर्घत्रयान्विता माया पूर्वोक्तं
कूटपञ्चकम् ॥ ५४॥
तारो नमो हनुमते प्रकटान्ते पराक्रम
।
आक्रान्तदिङ्मण्डलतो यशोवीति च तान
च ॥ ५५॥
धवलीकृतवर्णान्ते जगत्रितयवज च ।
देहज्वलदग्निसूर्यकोट्यन्ते तु
समप्रभ ॥ ५६ ॥
तनूरुहपदं रुद्रावतारपदमीरयेत् ।
लंकापुरीदहान्तेनोदधिलंघनवर्णकाः ॥
५७॥
दशग्रीवशिरः पश्चात्कृतान्तकपदं
ततः।
सीताश्वासनवाय्वन्ते
सुतशब्दमुदीरयेत् ॥ ५८ ॥
अब ऊपर प्रतिज्ञात माला मन्त्र
का उद्धार कहते हैं - प्रथम प्रणव (ॐ), वाग्
(ऐं), हरिप्रिया (श्रीं), फिर
दीर्घत्रय सहित माया (ह्रां ह्रीं ह्रूं), फिर पूर्वोक्त
पाँच कूट (ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं) तथा तार (ॐ), फिर ‘नमो हनुमते प्रकट’ के बाद
‘पराक्रम आक्रान्तदिङ्मण्डलयशो वि’ फिर
‘तान’ कहना चाहिए, फिर ‘ध्वलीकृत’ पद के बाद ‘जगत्त्रितय और ‘वज्र’ कहना
चाहिए । फिर ‘देहज्वलदग्निसूर्यकोटि’ के
बाद ‘समप्रभतनूरुहरुद्रवतार’, इतना पद
कहना चाहिए । फिर ‘लंकापुरी दह’ के बाद
‘नोदधिलंघन’, फिर ‘दशग्रीवशिरः कृतान्तक सीताश्वासनवायु’, के बाद ‘सुतं’ शब्द कहना चाहिए ॥५४-५८॥
अञ्जनागर्भसम्भूतश्रीरामान्ते तु
लक्ष्मणा ।
नन्दकान्ते रकपि च
सैन्यप्राकारवर्णकाः ॥ ५९ ॥
सुग्रीवसख्यकावारणबालिनिबर्हण ।
कारणद्रोणपर्वान्ते तोत्पाटनपदं
वदेत् ॥ ६०॥
अशोकवनवीत्यन्ते दारणाक्षकुमारक ।
च्छेदनान्ते वनपदंरक्षाकरसमह च ॥
६१॥
विभञ्जनान्ते
ब्रह्मास्त्रब्रह्मशक्तिग्रसेति न ।
लक्ष्मणान्ते शक्तिभेदनिवारणपदं
पुनः ॥ ६२ ॥
विशल्यौषधिवर्णान्ते समानयनवर्णकाः
।
बालोदितान्ते भान्वन्ते
मण्डलग्रसनेति च ॥ ६३॥
मेघनादेति होमान्ते विध्वंसनपदं
वदेत् ।
इन्द्रजिद्वधकारान्ते णसीतारक्षकेति
च ॥ ६४ ॥
राक्षसीसंघवर्णान्ते विदारण च कुम्भ
च ।
कर्णादिवधशब्दान्ते परायणपदं वदेत्
॥ ६५॥
श्रीरामभक्तिशब्दान्ते तत्परेति
समुद्र च ।
व्योमद्रुमलंघनेति महासामर्थ्यमेति
च ॥ ६६ ॥
महातेजःपुञ्जवीत्यन्ते राजमानपदं
पुनः ।
स्वामिवचनसम्पादितार्जनान्ते च
संयुग ॥ ६७ ॥
सहायान्ते कुमारेति ब्रह्मचारिन्
पदं वदेत् ।
गम्भीरशब्दोऽत्रिर्वायुर्दक्षिणाशापदं
पुनः ॥ ६८ ॥
मार्तण्डमेरुशब्दान्तें पर्वतेति
पदं वदेत् ।
पीठिकार्चनशब्दान्ते सकलेतिपदं पुनः
॥ ६९ ॥
मन्त्रागमाचार्य मम सर्वग्रहविनाशन
।
सर्वज्वरोच्चाटनेति सर्वविषविनाशन ॥
७० ॥
सर्वापत्तिनिवारणसर्वदुष्टेति
संपठेत् ।
निबर्हणपदं सर्वव्याघ्रादिभयतत्परम्
॥ ७१॥
निवारणसर्वशत्रुच्छेदनेति पदं मम ।
परस्य च
त्रिभुवनपुंस्त्रीनपुंसकात्मकम् ॥ ७२॥
सर्वजीवपदं पश्चाज्जातं वशययुग्मकम्
।
ममाज्ञाकारकं पश्चात्संपादयपदद्वयम्
॥ ७३॥
नाना नामपदं धेयान सर्वान राज्ञः
ससंपठेत् ।
परिवारान्ममेत्यन्ते
सेवकान्करुयग्मकम ॥ ७४॥
सर्वशस्त्रास्त्रवीत्यन्ते
पाणिविध्वंसयद्वयम् ।
मायादीर्घत्रयोपेता हात्रयं
चैहियुग्मकम् ॥ ७५ ॥
विलोमपञ्चकूटानि सर्वशत्रून
हनद्वयम् ।
परदान्ते लानि परसैन्यानि
क्षोभयद्वयम् ।। ७६ ॥
मम सर्वकार्यजातं साधयद्वितयं ततः।
सर्वदुष्टदुर्जनान्ते मुखानि
कीलयद्वयम् ॥ ७७ ॥
घेत्रयं हात्रयं वर्मत्रितय फवयं
ततः ।
वहिनप्रियान्तो मन्त्रोऽयं
मालासंज्ञोऽखिलेष्टदः ॥ ७८ ॥
अष्टाशीत्युत्तराः पञ्चशतवर्णा मनोः
स्मृताः।
महोपद्रवसंपाते स्मृतोऽयं दुःखनाशनः
॥ ७९ ॥
फिर ‘अञ्जनागर्भसंभूत श्री रामलक्ष्मणानन्दक’, फिर ‘रकपि’, ‘सैन्यप्राकार’, फिर ‘सुग्रीवसख्यका’ के बाद ‘रणबालिनिबर्हण
कारण द्रोणपर्व’ के बाद ‘तोत्पाटन’
इतना कहना चाहिए । फिर ‘अशोक वन वि’ के बाद, ‘दारणाक्षकुमारकच्छेदन’ के बाद फिर ‘वन’ शब्द, फिर ‘रक्षाकरसमूहविभञ्जन’, फिर ‘ब्रह्मारस्त्र
ब्रह्मशक्ति ग्रस’ और ‘न लक्ष्मण’
के बाद ‘शक्तिभेदनिवारण’ तथा ‘विशलौषधि’ वर्ण के बाद ‘समानयन बालोदितभानु’, फिर ‘मण्डलग्रसन’
के बाद ‘मेघनाद होम’ फिर
‘विध वंसन’ यह पद बोलना चाहिए । फिर ‘इन्द्रजिद्वधकार’ के बाद, ‘णसीतारक्षक
राक्षसीसंघ’, विदारण’, फिर ‘कुम्भकर्णादिवध’ शब्दो के बाद, ‘परायण’, यह पद बोलना चाहिए । फिर ‘श्री रामभक्ति’ के बाद ‘तत्पर-समुद्र-व्योम
द्रुमलंघन महासामर्घमहातेजःपुञ्जविराजमान’ स्बद, तथा ‘स्वामिवचसंपादितार्जुन’ के
बाद ‘संयुगसहाय’ एवं ‘कुमार ब्रह्मचारिन्’ पद कहना चाहिए । फिर ‘गम्भीरशब्दो’ के बाद अत्रि (द), वायु(य) , फिर ‘दक्षिणाशा’,
पद, तथा ‘मार्तण्डमेरु’
शब्न्द के बाद ‘पर्वत’ शब्द
कहना चाहिए । फिर ‘पीठेकार्चन’ शब्द के
बाद ‘सकल मन्त्रागमार्चाय मम सर्वग्रहविनाशन सर्वज्वरोच्चाटन
और ‘सर्वविषविनाशन सर्वापत्ति निवारण सर्वदुष्ट’ इतना पढना चाहिए । फिर ‘निबर्हण’ पद, तथा ‘सर्वव्याघ्रादिभय’,
उसके बाद ‘निवारण सर्वशत्रुच्छेदन मम परस्य च
त्रिभुवन पुंस्त्रीनपुंसकात्मकं सर्वजीव’ पद के बाद ‘जातं’, फिर ‘वशय’ यह पद दो बार, फिर ‘ममाज्ञाकारक’
के बाद दो बार ‘संपादय’, फिर ‘नाना नाम’ शब्द, फिर ‘धेयान् सर्वान् राज्ञः स" इतना पद कहना
चाहिए । फिर ‘परिवारन्मम सेवकान्’ फिर
दो बार ‘कुरु’, फिर ‘सर्वशस्त्रास्त्र वि’ के बाद ‘षाणि’,
तदनन्तर दो बार ‘विध्वंसय’ फिर दीर्घत्रयान्विता माया (ह्रां ह्रीं ह्रूँ), फिर
हात्रय (हा हा हा) एहि युग्म (एह्येहि), विलोमक्रम से
पञ्चकूट (ह्सौं ह्स्ख्फ्रें ह्स्त्रौं ख्फ्रें ह्स्फ्रें) और फिर ‘सर्वशत्रून’, तदनन्तर दो बार हन (हन हन), फिर ‘परद’ के बाद ‘लानि परसैन्यानि’, फिर क्षोभय यह पद दो बार (क्षोभय
क्षोभय), फिर ‘मम सर्वकार्यजातं’
तथा २ बार कीलय (कीलय कीलय), फिर घेत्रय (घे
घे घे), फिर हात्रय (हा हा हा), वर्म
त्रितय (हुं हुं हुं), फिर ३ बार फट् और इसके अन्त में
वह्रिप्रिया, (स्वाहा) लगाने से सर्वाभीष्टकारक ५८८ अक्षरों
का हनुन्माला मन्त्र बनता है । महान् से महान् उपद्रव होने पर मन्त्र के जप से
सारे दुःख नष्ट हो जाते हैं ॥५४-७९॥
विमर्श - हनुमन्माला मन्त्र का
स्वरुप इस प्रकार है - ‘ॐ ऐं श्रीं
ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ह्स्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ॐ नमो हनुमते प्रकटपराकरम
आक्रान्त दिङ्मण्डलयशोवितान धवलीकृतजगत्त्रितय वज्रदेह ज्वलदन्गि सूर्यकोटि
समप्रभतनूरुह रुद्रावतार लंकापुरीदहनोदधिलंघन दशग्रीवशिरःकृतान्तक सीताश्वासन
वायुसुत अञ्जनागर्भसंभूत श्रीरामलक्ष्मणानन्दकर कपिसैन्यप्राकार सुग्रीवसख्यकारण
बालिनिबर्हण-कारण द्रोणपर्वतोत्पाटन अशोकवनविदारण अक्षकुमारकच्छेदन
वनरक्षाकरसमूहविभञ्जन ब्रह्यास्त्रब्रह्यशक्तिग्रसन लक्ष्मणशक्तिभेदेनिवारण
विशल्यौषधिसमानयन बालोदितभानुमण्डलग्रसन मेघनादहोमविध्वंसन इन्द्राजिद्वधकाराण
सीतारक्षक राक्षासंघविदारण कुम्भकर्णादि-वधपरायण श्रीरामभक्तितत्पर
समुद्रव्योमद्रुमलंघन महासामर्घ्य महातेजःपुञ्जविराजमान स्वामिवचनसंपादित
अर्जुअनसंयुगसहाय कुमारब्रह्मचारिन् गम्भीरशब्दोदय दक्षिणाशामार्तण्ड
मेरुपर्वतपीठेकार्चन सकलमन्त्रागमाचार्य मम सर्वग्रहविनाशन सर्वज्वरोच्चाटन
सर्वविषविनाशन सर्वापत्तिनिवारण सर्वदुष्टनिबर्हण सर्वव्याघ्रादिभयनिवारण
सर्वशत्रुच्छेदन प्रम परस्य च त्रिभुवन पुंस्त्रीनपुंसकात्मकसर्वजीवजातं वशय वशय
मम आज्ञाकारक्म संपादय संपादय नानानामध्येयान् सर्वान् राज्ञः सपरिवारान् मम
सेवकान् कुरु कुरु सर्वशस्त्रास्त्रविषाणि विध्वंसय विध्वंसय ह्रां ह्रीं ह्रूं
ह्रां ह्रां एहि एहि ह्सौं ह्स्ख्फ्रें ह्स्त्रौं ख्फ्रें ह्सफ्रें सर्वशत्रून हन
हन परदलानि परसैन्यानि क्षोभय क्षोभय मम सर्वकार्यजातं साधय साधय
सर्वदुष्टदुर्जनमुखानि कीलय कीलय घे घे घे हा हा हा हुं हुं हुं फट् फट् फट्
स्वाहा - मालामन्त्रोऽयमष्टाशीत्याधिक पञ्चशतवर्णः; ॥५४-७९॥
हनूमन्मन्त्रान्तरकथनम्
द्वादशान्तिमान वर्णान्
षट्त्यक्त्वैकं तथादिमम् ।
पञ्चकूटात्मको मन्त्रो निखिलाऽभीष्टसाधकः
॥ ८० ॥
पूर्व में कहे गये द्वादशाक्षर
मन्त्र (द्र० १३. १ - ३) के अन्तिम ६ वर्णों को (हनुमते नमः) तथा प्रारम्भ के एक
वर्ण हौ को छोडकर जो पञ्च कूटात्मक मन्त्र बनता है वह साधक के सर्वाभीष्ट
को पूर्ण कर देता है ॥८०॥
विमर्श - पञ्चकूट का स्वरुप
- ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ॥८०॥
मुनीरामोऽथ गायत्रीछन्दो देवः
कपीश्वरः।
इस मन्त्र के राम ऋषि,
गायत्री छन्द तथा कपीश्वर देवता हैं ॥८१॥
विमर्श - विनियोगः - अस्य
श्रीहनुमत पञ्चकूट मन्त्रस्य रामचन्द्रऋषिः गायत्रीच्छन्दः कपीश्वरो देवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे
जपे विनियोगः ॥८१॥
पञ्चबीजैः समस्तेन षडङ्ग मुनिभिः
स्मृतम् ॥ ८१॥
रामदूतो लक्ष्मणान्ते
प्राणदाताञ्जनासुतः।
सीताशोकविनाशोऽथ लंकाप्रासादभञ्जनः
॥ ८२॥
हनूमदाद्याः पञ्चैते बीजाद्या
डेसमन्विताः।
षडङ्गमन्त्राः
संदिष्टा ध्यानपूजादिपूर्ववत् ॥८३॥
पञ्चकूटात्मक बीज तथा समस्त
मन्त्रों के क्रमशः - हनुमते रामदूताय लक्ष्मण प्राणदात्रे अञ्जनासुताय
सीताशोकविनाशाय, लंकाप्रासादभञ्जनाय रुप
चतुर्थ्यन्त शब्दों को प्रारम्भ में लगाने से इस मन्त्र का षडङ्गन्यास मन्त्र
बन जाता है । इस मन्त्र का ध्यान (द्र०१३. ८) तथा पूजापद्धति (द्र १३. १०-१३)
पूर्ववत् है ॥८१-८३॥
विमर्श - षडङ्गन्यासं- ह्स्फ्रें हनुमते हृदयाय नमः,
ख्फें रामदूताय शिरसे स्वाहा, ह्स्त्रौं लक्ष्मणप्राणदात्रे
शिखायै वषट्,
ह्स्ख्फ्रें अञ्जनासुताय कवचाय हुम्,
ह्सौं सीताशोक विनाशाय नेत्रत्रयाय वौषट्,
ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ
ह्स्ख्फ्रें ह्सौं लंकाप्रासादभञ्जनाय अस्त्राय फट् ॥८१-८३॥
षडङ्गन्यासादिकथनम्
तारो वाक्कमलामाया
दीर्घत्रयसमन्विताः!
पञ्चकूटानि मन्त्रोऽयं'
रुद्रार्णोऽभीष्टसिद्धिदः ॥ ८४॥
अर्चनात्पूर्ववच्चास्य परो
मन्त्रोऽभिधीयते ।
तार (ॐ),
वाक् (ऐं), कमला (श्रीं), माया दीर्घत्रयाद्या (ह्रां ह्रीं हूँ), तथा पञ्चकूट
(ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ ह्सौं) लगाने से ११ अक्षरों का अभीष्ट सिद्धिदायक
मन्त्र बनता है । इस मन्त्र का ध्यान तथा पूजा पद्धति (१३. ८, १३. १०-१३) पूर्ववत हैं ॥८४-८५॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ‘ॐ ऐं श्रीं ह्रां
ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ ह्स्ख्फ्रें ह्स्ॐ (११) ॥८४-८५॥
हृदयं भगवान्ङन्तं आञ्जनेयमहाबलौ ॥
८५॥
तद्वद्वहिनप्रियान्तोऽयं
मनुरष्टादशाक्षरः ।
अब इस मन्त्र के अतिरिक्त अन्य
मन्त्र कहते हैं - नम, फिर भगवान् आञ्जनेय
तथा महाबल का चतुर्थ्यन्त (भगवते, आञ्जनेयाय महाबलाय),
इसके अन्त में वहिनप्रिया (स्वाहा) लगाने से अष्टादशाक्षर अन्य
मन्त्र बन जाता है ॥८५-८६॥
अष्टादशाक्षार मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहा ॥८५-८६॥
मुनिरीश्वर एवास्यानुष्टुप्छन्दः
समीरितम् ॥ ८६ ॥
हनूमान्देवता बीजं हुं
शक्तिर्वह्निवल्लभा ।
विनियोग एवं न्यास
- उपर्युक्त अष्टादशाक्षर मन्त्र के ईश्वर ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, और हनुमान् देवता हैं, हुं बीज तथा अग्निप्रिया (स्वाहा) शक्ति हैं ॥८६-८७॥
आञ्जनेयो रुद्रमूर्तिर्वायुपुत्रस्तथैव
च ॥ ८७॥
अग्निगर्भो रामदूतो
ब्रह्मास्त्रविनिवारणः ।
एतैर्डेन्तैः षडङ्गानि कृत्वा
ध्यायेत्कपीश्वरम् ॥ ८८ ॥
आञ्जनेय,
रुद्रमूर्ति, वायुपुत्र, अग्निगर्भ, रामदूत तथा ब्रह्मस्त्रविनिवारन इनमें
चतुर्थ्यन्त लगाकर षडङ्गन्यास कर कपीश्वर का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए ॥८७-८८॥
विमर्श - विनियोग- अस्य
श्रीहनुमन्मन्त्रस्य ईश्वरऋषिरनुष्टुप् छन्दः हनुमान् देवता हुं बीजं स्वाहा
शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जप विनियोगः ।
षडङ्गन्यास विधि
- ॐ आञ्जनेयाय हृदयाय नमः,
रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा, ॐ आञ्जनेयाय हृदयाय नमः, अग्निगर्भाय कवचाय हुम्
रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् ब्रह्मास्त्रविनिवारणाय अस्त्राय फट्
॥८७-८८॥
ध्यानकथनम्
दहनतप्तसुवर्णसमप्रभं
भयहरं हृदये विहिताञ्जलिम् ।
श्रवणकुण्डलशोभिमुखाम्बुजं
नमतवानरराजमिहाद्भुतम् ॥८९॥
अब उक्त मन्त्र का ध्यान
कहते हैं - मैं तपाये गये सुवर्ण के समान, जगमगाते
हुये, भय को दूर करने वाले, हृदय पर
अञ्जलि बाँधे हुये, कानों में लटकते कुण्डलों से शोभायमान
मुख कमल वाले, अद्भुत स्वरुप वाले वानरराज को प्रणाम करता
हूँ ॥८९॥
अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं दशांशं
जुहुयात्तिलैः।
वैष्णवे पूजयेत् पीठे
पूर्ववत्कपिनायकम् ॥ ९० ॥
पुरश्चरण
- इस मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए । तदनन्तर तिलों से उसका दशांश होम करना
चाहिए । वैष्णव पीठ पर कपीश्वर का पूजन करना चाहिए । पीठ पूजा तथा आवरण पूजा
(१३.१०-०१३) श्लोक में द्रष्टव्य है ॥९०॥
हनूमन्मन्त्रान्तर-तद्विधिविविधप्रयोगवर्णनम्
जितेन्द्रियो नक्तभोजी प्रत्यहं
साष्टकं शतम् ।
जपित्वा क्षुद्ररोगेभ्यो मुच्यते
दिवसत्रयात् ॥ ९१॥
भतप्रेतपिशाचादिनाशायैवं समाचरेत ।
महारोगनिवृत्त्यै तु सहस्रं
प्रत्यहं जपेत् ॥ ९२॥
अब काम्य प्रयोग कहते हैं -
साधक इस मन्त्र के अनुष्ठान करते समय इन्द्रियों को वश में रखे । केवल रात्रि में
भोजन करे । जो साधक व्यवधान रहित मात्र तीन दिन तक उस १०९ की संख्या में इस
का जप करता है वह तीन दिन मे ही क्षुद्र
रोगों से छुटकारा पा जाता है । भूत, प्रेत
एवं पिश्चाच आदि को दूर करने के लिए भी उक्त मन्त्र का प्रयोग करना चाहिए । किन्तु
असाध्य एवं दीर्घकालीन रोगों से मुक्ति पाने के लिए प्रतिदिन एक हजार की
संख्या में जप आवश्यक है ॥९१-९२॥
यतोशनोऽयुतं नित्यं
जपन्ध्यायन्कपीश्वरम ।
राक्षसौघं विनिघ्नन्तमचिराज्जयति
द्विषम् ॥९३॥
नियमित एक समय हविष्यान्न भोजन करते
हुये जो साधक राक्षस समूह को नष्ट करते हुये कपीश्वर का ध्यान कर प्रतिदिन १०
हजार की संख्या में जप करता है वह शीघ्र ही शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है
॥९३॥
सुग्रीवेण समं रामं संदधानं स्मरन्कपिम्
।
प्रजप्यायुतमेतस्य सन्धिं
कुर्य्याविरुद्धयोः ॥ ९४॥
सुग्रीव के साथ राम की मित्रता
कराये हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये
इस मन्त्र का १० हजार की संख्या में जप करने से शत्रुओं के साथ सन्धि करायी
जा सकती है ॥९४॥
लंका दहन्तं तं ध्यायन्नयुतं
प्रजपेन्मनुम् ।
शत्रूणां प्रदहेद् ग्रामानचिरादेव
साधकः ॥ ९५ ॥
लंकादहन करते हुये
कपीश्वर का ध्यान करते हुये जो साधक इस मन्त्र का दश हजार करता है,
उसके शत्रुओं के घर अनायास जल जाते हैं ॥९५॥
प्रयाणसमये ध्यायन्हनूमन्तं मनुं
जपन् ।
योयातिसोऽचिरात् स्वेष्टं साधयित्वागृह
व्रजेत् ॥९६॥
जो साधक यात्रा के समय हनुमान् जी
का ध्यान कर इस मन्त्र का जप करता हुआ यात्रा करता है वह अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण
कर शीघ्र ही घर लौट आता है ॥९६॥
यः कपीशं सदा गेहे पूजयेज्जपतत्परः।
आयुर्लक्ष्म्यौ प्रवर्द्धते तस्य
नश्यन्त्युपद्रवाः ॥ ९७ ॥
जो व्यक्ति अपने घर में सदैव
हनुमान् जी की पूजा करता है और इस मन्त्र का जप करता है उसकी आयु और संपत्ति नित्य
बढती रहती है तथा समस्त उपद्रव अपने आप नष्ट हो जाते है ॥९७॥
शार्दूलतस्करादिभ्यो रक्षेन्मनुरयं
स्मृतः।
प्रस्वापकाले चौरेभ्यो
दुष्टस्वप्नादपि धुवम् ॥ ९८ ॥
इस मन्त्र के जप से साधक की
व्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं से तथा तस्करादि उपद्रवी तत्त्वों से रक्षा होती है ।
इतना ही नहीं सोते समय इस मन्त्र के जप से चोरों से रक्षा तो होती रहती ही है
दुःस्वप्न भी दिखाई नहीं देते ॥९८॥
उदररोगनाशकमन्त्रकथनम्
पवनद्वितयं सद्यो जातयुक्तं हनूपदम्
।
महाकालः शशांकाढ्यः कामिकाफलफः
क्रिया ॥ ९९॥
सनेत्राणान्तमीनो गसात्वतोगित आयुरा
।
षलोहितं रुडाहेति वेदनेत्राक्षरो
मनुः ॥ १०० ॥
अब प्लीहादिउदररोगनाशक मन्त्र का
उद्धार कहते हैं - ध्रुव (ॐ), फिर सद्योजात
(ओ) सहिन पवनद्वय (य) अर्थात् ‘यो यो’, फिर ‘हनू’ पद, फिर ‘शशांक’ (अनुस्वार) सहित
महाकाल (मं), कामिका (त) तथा ‘फलक’,
पद, फिर सनेत्रा क्रिया (लि), णान्त (त), मीन (ध) एवं ‘ग’
वर्ण, फिर ‘सात्वत’
(ध) तथा ‘गित आयु राष’ फिर
लोहित (प) तथा रुडाह लगाने से २४ अक्षरों का मन्त्र बनता है ॥९९-१००॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ‘ॐ यो यो हनूमन्तं
फलफलित धग धगितायुराषपरुडाह’ (२४) ॥९९-१००॥
प्लीहारोगनाशकप्रयोगकथनम्
प्लीहारोगहरश्चास्य मुन्याचं
पूर्ववन्मतम् ।
प्लीहयुक्तोदरे स्थाप्यं
नागवल्लीदलं शुभम् ॥ १०१॥
तदुपर्यष्टगुणितं
वस्त्रमाच्छादयेत्ततः ।
वंशज शकलं तस्योपरि मुञ्चेत्कपिं
स्मरन् ॥ १०२ ॥
आरण्यप्रस्तरोत्पन्ने वह्नौ यष्टिं
प्रतापयेत् ।
बदरीतरुसम्भूतां मन्त्रेणानेन
सप्तशः॥ १०३ ॥
तया संताडयेद्वशं शकलं जठरस्थितम् ।
सप्तकृत्वः प्लीहरोगो नश्यत्येव
नृणां क्षणात् ॥ १०४ ॥
प्रयोग विधि
- इस मन्त्र के ऋषि आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है । प्लीहा वाले रोगी के पेट पर
पान रखे । उसको उसका आठ गुना कपडा फैलाकर आच्छादित करे,
फिर उसके ऊपर हनुमान् जी का ध्यान करते हुये बाँस का टुकडा रखे,
फिर जंगल के पत्थर पर उत्पन्न बेर की लकडियों से जलायी गई अग्नि में
मूलमन्त्र का जप करते हुये ७ बार यष्टि को तपाना चाहिए । उसी यष्टि से पेट पर रखे
बाँस के टुकडे को सात बार संताडित करना चाहिए । ऐसा करने से प्लीहा रोग
शीघ्र दूर हो जाता है ॥१०१-१०४॥
शत्रुविजयकरप्रयोगकथनम्
पुच्छाकारे सुवसने लेखिन्या
कोकिलोत्थया ।
अष्टगन्धैर्लिखेदूपं कपिराजस्य
सुन्दरम् ॥ १०५॥
तन्मध्येष्टादशाणं तु शत्रुनामयुतं
लिखेत् ।
तेन मन्त्राभिजप्तेन शिरो बद्धन
भूमिपः॥ १०६ ॥
जयत्यरिगणं सर्व दर्शनादेव
निश्चितम् ।
अब विजयप्रद प्रयोग कहते हैं
- पूँछ जैसी आकृति वाले वस्त्र पर कोयल के पंखे से अष्टगन्ध द्वारा हनुमान् जी की
मनोहर मूर्ति निर्माण करना चाहिए । उसके मध्य में शत्रु के नाम से युक्त
अष्टादशाक्षर मन्त्र लिखाना चाहिए । फिर उस वस्त्र को इसी मन्त्र से अभिमन्त्रित
कर राजा शिर पर उसे बाँधकर युद्धभूमि में जावे, तो
वह अपने शत्रुओं को देखते देखते निश्चित ही जीत लेता है (अष्टादशाक्षर मन्त्र द्र०
१३. १८) ॥१०५-१०७॥
युद्धे जिगीषुनृपतिः पूर्वोक्तं
लेखयेद् ध्वजे ॥ १०७ ॥
ध्वजमादायोपरागे
संस्पर्शान्मोक्षणावधि ।
मातृका जापयेत्पश्चाद्दशांशेन च हावयेत्
॥ १०८ ॥
सर्षपैस्तिलसंमित्रैः
संस्पर्शान्मोक्षणावधि ।
गजस्थं तं ध्वजं दृष्ट्वा
पलायन्तेऽरयो चिरात् ॥ १०९ ॥
अब विजयप्रदध्वज कहते हैं -
युद्ध में अपने शत्रुओं पर विजय चाहने वाला राजा शत्रु के नाम एवं अष्टादशाक्षर
मन्त्र के साथ पूर्ववत् हनुमान् जी का चित्र ध्वज पर लिखे । उस ध्वज को लेकर
ग्रहण के समय स्पर्शकाल से मोक्षकाल पर्यन्त मातृकाओं का जप करे,
तथा तिलमिश्रित सरसों से स्पर्शकाल से मोक्षकालपर्यन्त दशांश होम
करे, फिर उस ध्वज को हाथी के ऊपर लगा देवे तो हाथी के ऊपर
लगे उस ध्वज को देखते ही शत्रुदल शीघ्र भाग जात है ॥१०७-१०९॥
हनूमद्यन्त्रकथनम्
अथो हनुमतो यन्त्रं वक्ष्ये
रक्षाविधायकम् ।
लिखेदष्टदलं पा
साध्याख्यायुतकर्णिकम् ॥ ११० ॥
दलेष्वष्टार्णमालिख्य मालामन्त्रेण
वेष्टयेत् ।
तद बहिर्मायया वेष्टय
प्राणास्थापनमाचरेत ॥ १११ ॥
अब रक्षक यन्त्र कहते हैं -
अष्टदल कमल बनाकर उसकी कर्णिका में साध्य नाम (जिसकी रक्षा की इच्छा हो) लिखना
चाहिए । तदनन्तर दलों में अष्टाक्षर मन्त्र लिखना चाहिए । तदनन्तर वक्ष्यमाण माला
मन्त्र से उसे परिवेष्टित करना चाहिए । उसको भी महाबीज (ह्रीं) से परिवेष्टित कर
इसमें प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए ॥११०-१११॥
लिखितं स्वर्णलेखिन्या दले
भूर्जतरोः शुभे ।
रोचनाकुंकुमाभ्यां तु वेष्टितं
कनकादिभिः॥ ११२ ॥
सम्पातसाधितं यन्त्रं भुजे वा
मूर्ध्नि धारयेत् ।
शुभ कमलदल को भोजपत्र पर सुर्वण की
लेखनी से गोरोचन और कुंकुम मिलाकर उक्त यन्त्र लिखना चाहिए । संपात साधित होम
द्वारा सिद्ध इस यन्त्र को स्वर्ण अदि से परिवेष्टित (सोने या चाँदी का बना हुआ
गुटका में डालकर) भुजा या मस्तक पर उसे धारण करना चाहिए ॥११२-११३॥
रणे जयमवाप्नोति व्यवहारे दुरोदरे ॥
११३ ॥
ग्रहैर्विघ्नैर्विषैः शस्त्रैश्चौरै
वाभिभूयते ।
रोगान्सर्वानपाकृत्य चिरञ्जीवति
भाग्यवान् ॥ ११४ ॥
इसकें धारण करने से मनुष्य युद्ध
व्यवहार एवं जूए में सदैव विजयी रहता है ग्रह, विघ्न,
विष, शस्त्र, तथा चौरादि
उसका कुछ बिगाड नहीं सकते । वह भाग्यशाली तथा नीरोग रहकर दीर्घकालपर्यन्त जीवित
रहता है ॥११३-११४॥
हनूमदष्टाक्षरमन्त्रः
वियदग्नियुतं 'दीर्घषट्काचं तारसम्पुटम् ।
अष्टार्णो मन्त्र आख्यातो
मालामन्त्रोऽयं कथ्यते ॥ ११५॥
अब अष्टाक्षर मन्त्र का उद्धार
करते हैं - अग्नि (र्) सहित वियत् (ह्), इनमें
दीर्घ षट्क (आं ईं ऊं ऐं औं अः) लगाकर उसे तार से संपुटित कर देने पर अष्टाक्षर
मन्त्र निष्पन्न हो जाता है ॥११५॥
विमर्श - मन्त्र का स्वरुप -
‘ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौं ह्रः औ’ ॥११५॥
हनूमन्मालामन्त्रः
वजकायवज्रतुण्डकपिलेत्यथ पिङ्गला ।
ऊर्ध्वकेशमहावर्णबलरक्तमुखेति च ॥
११६ ॥
तडिज्जिवमहारौद्रदंष्ट्रोत्कटकहद्वयम्
।
करालिने महादृढप्रहारिन्निति
वर्णकाः ॥ ११७ ॥
लंकेश्वरवधायान्ते महासेतुपदं ततः ।
बन्धान्ते च महाशैलप्रवाहगगने चर ॥
११८ ॥
एह्येहि भगवन्नन्ते महाबलपराक्रम ।
भैरवाज्ञापयैह्येहि महारौद्रपदं
पुनः ॥ ११९ ॥
दीर्घपुच्छेन वर्णान्ते
वेष्ट्यान्ते तु वैरिणम् ।
भञ्जयद्वितयं हुं फट्
प्रणवादिसमीरितः ॥ १२० ॥
बाणनेन्दुवर्णोऽयं
मालामन्त्रोऽखिलेष्टदः ।
युद्धे जप्तो जयं दद्याद् व्याधौ
व्याधिविनाशनः ॥ १२१॥
अब मालामन्त्र का उद्धार
कहते हैं - वज्रकाय वज्रतुण्ड कपिल, फिर
पिङ्गल ऊर्ध्वकोष महावर्णबल रक्तमुख तडिज्जिहव महारौद्रदंष्ट्रोत्कटक, फिर दो बार ह (ह ह), फिर ‘करालिने
महादृढप्रहारिन्’ ये पद, फिर ‘लंकेश्वरवधाय’ के बाद ‘महासेतु’
एवं ‘बन्ध’, फिर ‘महाशैल प्रवाह गगने चर एह्येहि भगवान्’ के बाद ‘महाबलपराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्रदीर्घपुच्छेन वेष्टय वैरिणं
भञ्जय भञ्जय हुं फट्’, इसके प्रारम्भ में प्रणव लगाने से १५
अक्षरों का सर्वर्थदायक माला मन्त्र निष्पन्न होता है ॥११६-१२१॥
विमर्श - इस मन्त्र का स्वरुप
इस प्रकार है - ॐ वज्रकाय बज्रतुण्डकपिल पिङ्गल ऊर्ध्वकेश महावर्णबल रक्तमुख
तडिज्जिहव महारौद्र दंष्टोत्कटक ह ह करालिने महादृढ प्रहारिन् लंकेश्वरवधाय
महासेतुबन्ध महाशैलप्रवाह गगनेचर एह्येहिं भगवन् महाबल पराक्रम भैरवाज्ञापय
एह्येहि महारौद्र दीर्घपुच्छेन वेष्टय् वैरिणं भञ्जय भञ्जय हुं फट् । रक्षायन्त्र
के लिए विधि स्पष्ट है ॥११६-१२१॥
युद्ध काल में मालामन्त्र का जप
विजय प्रदान करता है तथा रोग में जप करने से रागों को दूर करता है ॥१२१॥
अष्टार्णमालामन्त्रयोः
स्वतन्त्रत्वकथनम्
अष्टार्णमालामन्वोस्तु मुन्याद्या
तु पूर्ववत् ।
भूरिणा किमिहोक्तेन सर्व
दद्यात्कपीश्वरः ॥ १२२ ॥
अष्टाक्षर एवं मालामन्त्र के ऋषि
छन्द तथा देवता पूर्ववत् हैं पूजा तथा प्रयोग की विधि पूर्ववत् है । इनके विषय में
बहुत कहने की आवश्यकता नहीं है । कपीश्वर हनुमान् जी सब कुछ अपने भक्तों को देते
हैं ॥१२२॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ हनुमन्मन्त्रकथनं नाम त्रयोदशस्तरङ्गः॥ १३ ॥
॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित
मन्त्रमहोदधि के त्रयोदश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुवेर मालवीय के द्वितीय आत्मज
डॉ० सुधाकर मालवीयकृत 'अरित्र' नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ १३ ॥
आगे पढ़ें- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १४
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