डी पी कर्मकांड भाग-१८ नित्य होम विधि

डी पी कर्मकांड भाग-१८ नित्य होम विधि

इससे पूर्व आपने डी पी कर्मकांड की सीरिज में भाग- १७ कुशकंडिका पढ़ा । अब डी पी कर्मकांड भाग-१८ में नित्य होम विधि पढ़ेंगे। प्रातःकाल स्नान, सन्ध्या और तर्पण आदि के अनन्तर नित्य होम होता है । नित्य होम प्रात: और सायंकाल करना चाहिये ।

डी पी कर्मकांड भाग-१८ नित्य होम विधि

डी पी कर्मकांड भाग-१८ दैनिक नित्य होम-विधि:

पवित्र आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर आचमन और प्राणायाम कर के अपनी दायें हाथ की अनामिका अङगुली में कुश की पवित्री धारण करें और जल लेकर निम्नलिखित संकल्प करें---

देशकालौ संकीत्य अमुकगोत्र: अमुकशर्माऽहं अमुकवर्माऽहम्, अमुकगुप्तोऽहम् श्रीपरमेश्वरप्रीतये सायंप्रातर्होमं करिष्ये ।

पश्चात् वेदी अथवा ताम्र-कुण्ड में पञ्चभूसंस्कार करना चाहिये । तीन कुशों से भूमि अथवा ताम्र-कुण्ड का दक्षिण से उत्तर की ओर परिमार्जन करे और उन कुशों को ईशानकोण में फेक दें । पश्चात् गोमय और जल से लेपन करें । अनन्तर स्त्रुवा अथवा तीन कुशों द्वारा उत्तरोत्तर क्रम से तीन-तीन पूर्वाग्र रेखाएँ करें । उल्लेखन क्रम से अनामिका और अङ्गुष्ठ से तीन बार मृत्तिका उठाकर ईशानकोण में फेंक दें, फिर वहाँ जल छिडकें । इस प्रकार संस्कार करके निम्नाङ्कित मन्त्र से वहाँ अग्नि ले आवें ।

अग्न्याहरणमन्त्र

अन्वग्निरित्यस्य पुरोधा ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दोऽग्निर्देवता अग्न्यानयने विनियोग: ।

ॐ अन्न्वग्निरुषसामग्ग्रमक्ख्यदन्न्वहानि प्प्रथमो जातवेदा: ।

अनुसूर्य्यस्य पुरुत्रा चरश्मीननु द्यावापृथिवी ऽआततन्थ ॥

अर्थ-जिन अग्निदेव ने उष:काल के प्रारम्भ में क्रमश: प्रकाश फैलाया, फिर समस्त उत्पन्न वस्तुओं का ज्ञान रखनेवाले जिन प्रमुख देव ने दिनों को अभिव्यक्त किया तथा सूर्य की किरणों को अनेक रंग-रूपों में प्रकाशित किया और जो प्रकाश एवं पृथिवी को सब ओर से व्याप्त किये हुए हैं, उन अग्निदेव का हम साश्नात्कार कर रहे हैं।’                                                                      

इसके बाद निम्नाङ्कित मन्त्र पढकर पूर्वोक्त वेदी अथवा ताम्रकुण्ड में अग्नि की स्थापना करें- 

अग्निस्थापन मन्त्र

पृष्टो दिवीत्यस्य कुत्सऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दो वैश्वानरो देवता अग्निम्थापने विनियोग: ।

ॐ पृष्ट्टो दिवि पृष्ट्टोऽग्नि: पृथिव्व्यां पृष्ट्टो व्विश्वा ऽओषधीरा विवेश ।

वैश्वानर: सहसा पृष्टोऽग्नि: स नो दिवा स रिषस्पातु नक्तम् ॥

अर्थ-द्युलोक में कौन आदिंत्यरूप से तप रहा है ? इस प्रकार जिनके विषय में मुमुक्षुओं ने प्रश्न किया है प्रथिवी अर्थात अन्तरिक्षलोक में कौन विद्युत्रूप से प्रकाशमान हो रहा है?--- इस प्रकार जिनके सम्बन्ध में जलार्थी लोगों द्वारा प्रश्न किया गया है, जो सम्पूर्ण ओषधियों व्रीहि-यव आदि अन्नों में व्याप्त होकर मनुष्यों की जिज्ञासा के विषय हो रहे हैं अर्थात् ताप, फलपरिपाक और प्रकाश के द्वारा कौन समस्त प्राणियों का उपकार और उनके जीवन की रक्षा कर रहा है ? इस प्रकार जिन्हें जानने के लिये लोग प्रश्न करते हैं तथा यज्ञ में अश्वर्युद्वारा बलपूर्वक मन्थन करने पर यह किसके लिये मन्थन किया जा रहा है?--- ऐसा लोगों ने जिनके विषय में प्रश किया है, वे वैश्वानर अग्निदेव दिन में और रात्रि में भी हमें नाश से वचावें ।

तदनन्तर निम्नाङ्कित मन्त्रों से अग्नि का उपस्थान करें ।

उपस्थान मन्त्र

समिधाग्निमिति तं त्वेति च देवा ऋषयो गायत्री छन्दोऽग्निर्देवता अग्न्युपस्थाने विनियोग: ।     

ॐ समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम् ।

आस्मिन् हव्या जुहोतन ॥

अर्थ-हे ऋत्विग्गण ! आपलोग घृताक्त समिधा से अग्निदेव की परिचर्या करें तथा आतिथ्यकर्म से पूजनेयोग्य उन अग्निदेव को घी से प्रज्वलित करें । फिर इस प्रज्वलित अग्नि में सब ओर नाना प्रकार के हषिष्य का हवन करें ।

ॐ तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन व्वर्द्धयामसि ।

बृहच्छोचा यविष्टय ॥                                                             

अर्थ-हे अङ्गिर:--- हे गतिशील अग्निदेव ! प्रसिद्ध गुणों से युक्त आपको हम समिधा और घी से प्रज्बलित-कर रहे हैं । हे निर्जर देव ! आप अत्यन्त देदीप्यमान होइये

इसके पञ्चात् नीचे लिखे व्याहृतियोंसहित तीन मन्त्रों से अग्नि को प्रज्षलित करे । 

अग्नि-प्रज्वाला मन्त्र

त्रिव्याह्रतीनां प्रजापतिऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांस्यग्निवायुसूर्या देवता:, ता

सवितुरिति कण्व ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्द: सविता देवता

तत्सवितुरिति विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता

विश्वानि देवेति नारायण ऋषिर्गायत्री छन्द: सविता देवता सन्धुक्षणे विनियोग: ।

ॐ भूर्भुव: स्व: ।

ॐ ता, सवितुर्व्वरेण्यस्य चित्रामाऽहं व्वृणे सुमतिं व्विश्वजन्याम् ।                                          

यामस्य कण्ण्वो ऽअदुहत् प्रपीना, सहस्त्रधारां पयसा महीं गाम् ॥

अर्थ-मैं वरण करनेयोग्य सविता की विचित्र नाना प्रकारे के मनोवाञ्छित फल देने में समर्थ तथा सब लोगों का हित साधन करनेवाली उस कल्याणमयी बुद्धि को अंगीकार करता हूँ, जिस गौरूपा बुद्धि का कण्व ऋषि ने दोहन किया था तथा जो अत्यन्त पुष्ट सहस्त्रों क्षीरधाराओं से युक्त और दूध से परिपूर्ण है ।

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।

धियो यो न: प्रचोदयात् ॥

अर्थ-हम स्थावर-जङ्गमरूप सम्पूर्ण विश्व को उत्पन्न करनेवाले उन निरतिशय प्रकाशमय परमेश्वर के भजने योग्य तेज का ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करते हैं ।

ॐ विश्वानि देव सवितद्र्दुरितानि परासुव ।

यद् भद्रं तन्न ऽआसुव ॥

अर्थ-हे सूर्यदेव ! सम्पूर्ण पाप दूर कर दो और जो कल्याणमय वस्तु है हमेंत्र प्राप्त कराओं ।

इस प्रकार इन मन्त्रों से अग्नि को प्रज्वलित करके बाएँ हाथ में तीन कुश रक्खें और खडा होकर प्रादेशमात्र लम्बी तीन घृताक्त समिधाएँ अग्नि में छोडें ।

 समिन्धन-मन्त्र

अग्निसमिन्धन का मन्त्र इस प्रकार है---

पुनस्त्वेति प्रजापतिऋषिस्त्रिष्टुपछन्दोऽग्निर्देवता अग्निसमिन्धने विनियोग: । 

पुनस्त्वाऽऽदित्या रुद्रा व्वसव: समिन्धताम्पुनर्ब्ब्रह्माणो व्वसुनीथ यज्ञै: ।

घृतेन त्वन्तन्न्वं व्वर्धयस्व सत्त्या: सन्तु यजमानस्य कामा: ॥

अर्थ-हे अग्निदेव ! आदित्य, रुद्र और वसुगण तुम्हें पुन: उद्दीप्त करें । हे वसुनीथ (घननायक) ! ऋत्विक् और यजमानरूप ब्राह्मण लोग यज्ञों के द्वारा तुम्हें फिर से प्रज्वलित करें तथा तुम भी हमारे अर्पण किये हुए घी से अपने शरीर को बढाओ प्रज्वलित करो और तुम्हारे प्रज्वलित होने पर यजमान की कामनाएँ पूर्ण हों ।

फिर बैठकर जल से अग्नि का पर्युश्नण करे और घृत, दधि, खीर अथवा घृताक्त यव, चावल या तिल आदि से अथवा मधुर फल से निम्नलिखित मन्त्रों द्वारा चार आहुतियाँ दें ।

सायंहोम

ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम ।

ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम ।

प्रातर्होम

ॐ सूर्याय स्वाहा, इदं सूर्याय न मम ।

ॐ प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम ।

इसके पश्चात् अग्नि की प्रदक्षिणा करके प्रणाम करें और---

त्र्यायुषमिति नारायण ऋषिरुष्णिक् छन्द आशीर्देवता भस्मधारणे विनियोग: ।

ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने: कश्यपस्य त्र्यायुषम् ।

यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नो ऽअस्तु त्र्यायुषम् ॥

अर्थ-जमदग्नि ऋषि और कश्यप मुनि का जो तीनों बाल्य, यौवन, जरा अवस्थाओं की आयु का समूह है तथा इन्द्र आदि देवताओं की जो तीनों बाल्य, कुमार और यौवन अवस्थाओं की आयु का समाहार है, वह हमें प्राप्त हो।

इस मन्त्र से होम के भस्म को क्रमश: ललाट, ग्रीवा, दक्षिण बाहुमूल और हृदय में लगावें । इसके बाद निम्नाङ्कित श्लोक पढकर न्यूनतापूर्ति के लिये भगवान् से प्रार्थना करें ।

ॐ प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् ।

स्मरणादेव तद्विष्णो: सम्पूर्ण स्यादिति श्रुति: ॥

यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु ।

न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥

अर्थ-यज्ञ में कर्म करनेवालों का जो कर्म प्रमादवश विधि से च्युत हो जाय, वह भगवान् विष्णु के स्मरणमात्र से ही पूर्ण हो सकता है, ऐसा श्रुति का वचन है ।

जिनके स्मरण और नामोचारण से तप, यज्ञ आदि क्रियाओं में न्यूनता की तत्काल पूर्ति हो जाती है, उन भगवान् अच्युत को मैं प्रणाम करता हूँ ।

ॐ विष्णवे नम: । ॐ विष्णवे नम: । ॐ विष्णवे नम: ।

अन्त में निम्नाङ्कित वाक्य कह कर यह हवन-कर्म भगवान् को अर्पण करें ।

कृतेनानेत नित्यहोमकर्मणा श्रीपरमेश्वर: प्रीयताम्, न मम ।

डी पी कर्मकांड भाग-१८ नित्य होम-विधि समाप्त । 

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1 Comments

  1. Very good and कल्याणकारी जानकारी से भरा,मैं आभारी हूं,I like so much,

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