शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 08

शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड अध्याय 08  

इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] अध्याय 07 पढ़ा, अब शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड अध्याय 08 आठवाँ अध्याय ब्रह्मा और विष्णु को भगवान् शिव के शब्दमय शरीर का दर्शन।

शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 08

शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०८

शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] अध्याय 08

शिवपुराणम् | संहिता २ (रुद्रसंहिता) | खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)

ब्रह्मोवाच ।।

एवं तयोर्मुनिश्रेष्ठ दर्शनं कांक्षमाणयोः ।।

विगर्वयोश्च सुरयोः सदा नौ स्थितयोर्मुने ।। १।।

ब्रह्माजी बोले मुनिश्रेष्ठ नारद ! इस प्रकार हम दोनों देवता गर्वरहित हो निरन्तर प्रणाम करते रहे । हम दोनों के मन में एक ही अभिलाषा थी कि इस ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए परमेश्वर प्रत्यक्ष दर्शन दें ॥ १ ॥

दयालुरभवच्छंभुर्दीनानां प्रतिपालकः ।।

गर्विणां गर्वहर्ता च सवेषां प्रभुरव्ययः ।।२।।

दीनों के प्रतिपालक, अहंकारियों का गर्व चूर्ण करनेवाले तथा सबके प्रभु अविनाशी शंकर हम दोनों पर दयालु हो गये ॥ २ ॥

तदा समभवत्तत्र नादो वै शब्दलक्षणः ।।

ओमोमिति सुरश्रेष्ठात्सुव्यक्तः प्लुतलक्षणः ।।३।।

उस समय वहाँ उन सुरश्रेष्ठ से ओम्-ओम् ऐसा शब्दरूप नाद प्रकट हुआ, जो स्पष्टरूप से प्लुत स्वर में सुनायी दे रहा था ॥ ३ ॥

किमिदं त्विति संचिंत्य मया तिष्ठन्महास्वनः ।।

विष्णुस्सर्वसुराराध्यो निर्वैरस्तुष्टचेतसा ।। ४ ।।

जोर से प्रकट होनेवाले उस शब्द के विषय में यह क्या है’ — ऐसा सोचते हुए समस्त देवताओं के आराध्य भगवान् विष्णु मेरे साथ सन्तुष्टचित्त से खड़े रहे । वे सर्वथा वैरभाव से रहित थे ॥ ४ ॥

लिंगस्य दक्षिणे भागे तथापश्यत्सनातनम् ।।

आद्यं वर्णमकाराख्यमुकारं चोत्तरं ततः ।। ५ ।।

मकारं मध्यतश्चैव नादमंतेऽस्य चोमिति ।।

उन्होंने लिंग के दक्षिण भाग में सनातन आदिवर्ण अकार का दर्शन किया । तदनन्तर उत्तर भाग में उकार का, मध्यभाग में मकार का और अन्त में ओम्’ — इस नाद का साक्षात् दर्शन किया ॥ ५१/२ ॥

सूर्यमंडलवद्दृष्ट्वा वर्णमाद्यं तु दक्षिणे ।।६।।

उत्तरे पावकप्रख्यमुकारमृषि सत्तम ।।

शीतांशुमण्डलप्रख्यं मकारं तस्य मध्यतः ।।७।।

हे ऋषिश्रेष्ठ ! दक्षिण भाग में प्रकट हुए आदिवर्ण अकार को सूर्य-मण्डल के समान तेजोमय देखकर उन्होंने उत्तर भाग में उकार वर्ण को अग्नि के समान देखा । हे मुनिश्रेष्ठ ! इसी तरह उन्होंने मध्यभाग में मकार को चन्द्रमण्डल के समान देखा ॥ ६-७ ॥

तस्योपरि तदाऽपश्यच्छुद्धस्फटिकसुप्रभम् ।।

तुरीयातीतममलं निष्कलं निरुपद्रवम् ।। ८ ।।

निर्द्वंद्वं केवलं शून्यं बाह्याभ्यंतरवर्जितम् ।।

स बाह्यभ्यंतरे चैव बाह्याभ्यंतरसंस्थितम् ।। ९ ।।

आदिमध्यांतरहितमानंदस्यापिकारणम् ।।

सत्यमानन्दममृतं परं ब्रह्मपरायणम् ।। १० ।।

तदनन्तर उसके ऊपर शुद्ध स्फटिक मणि के समान निर्मल प्रभा से युक्त, तुरीयातीत, अमल, निष्कल, निरुपद्रव, निर्द्वन्द्व, अद्वितीय, शून्यमय, बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से रहित, बाह्याभ्यन्तर-भेद से युक्त, जगत् के भीतर और बाहर स्वयं ही स्थित, आदि, मध्य और अन्त से रहित, आनन्द के आदिकारण तथा सबके परम आश्रय, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परब्रह्म का साक्षात्कार किया ॥ ८-१० ॥

कुत एवात्र संभूतः परीक्षावोऽग्निसंभवम् ।।

अधोगमिष्याम्यनलस्तंभस्यानुपमस्य च ।। ११ ।।

वेदशब्दोभयावेशं विश्वात्मानं व्यचिंतयत् ।।

तदाऽभवदृषिस्तत्र ऋषेस्सारतमं स्मृतम् ।।१२।।

 [उस समय श्रीहरि यह सोचने लगे कि] यह अग्निस्तम्भ यहाँ कहाँ से प्रकट हुआ है ? हम दोनों फिर इसकी परीक्षा करें । मैं इस अनुपम अग्निस्तम्भ के नीचे जाऊँगा । ऐसा विचार करते हुए श्रीहरि ने वेद और शब्द दोनों के आवेश से युक्त विश्वात्मा शिव का चिन्तन किया । तब वहाँ एक ऋषि प्रकट हुए, जो ऋषिसमूह के परम साररूप माने जाते हैं ॥ ११-१२ ॥

तेनैव ऋषिणा विष्णुर्ज्ञातवान्परमेश्वरम् ।।

महादेवं परं ब्रह्म शब्दब्रह्मतनुं परम् ।।१३।।

उन्हीं ऋषि के द्वारा परमेश्वर श्रीविष्णु ने जाना कि इस शब्दब्रह्ममय शरीरवाले परम लिंग के रूप में साक्षात् परब्रह्मस्वरूप महादेवजी ही यहाँ प्रकट हुए हैं ॥ १३ ॥

चिंतया रहितो रुद्रो वाचो यन्मनसा सह ।।

अप्राप्य तन्निवर्तंते वाच्यस्त्वेकाक्षरेण सः ।।१४।।

ये चिन्तारहित अथवा अचिन्त्य रुद्र हैं, जहाँ जाकर मनसहित वाणी उसे प्राप्त किये बिना ही लौट आती है, उस परब्रह्म परमात्मा शिव का वाचक एकाक्षर प्रणव ही है, वे इसके वाच्यार्थ रूप हैं ॥ १४ ॥

एकाक्षरेण तद्वाक्यमृतं परमकारणम् ।।

सत्यमानन्दममृतं परं ब्रह्म परात्परम् ।। १५ ।।

उस परम कारण, ऋत, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परात्पर परब्रह्म को इस एकाक्षर के द्वारा ही जाना जा सकता है ॥ १५ ॥

एकाक्षरादकाराख्याद्भगवान्बीजकोण्डजः ।।

एकाक्षरादुकाराख्याद्धरिः परमकारणम्।।१६।।

एकाक्षरान्मकाराख्याद्भगवान्नीललोहितः ।।

सर्गकर्ता त्वकाराख्यो ह्युकाराख्यस्तु मोहकः ।।१७।।

मकाराख्यस्तु यो नित्यमनुग्रहकरोऽभवत्।।

मकाराख्यो विभुर्बीजी ह्यकारो बीज उच्यते ।। १८ ।।

उकाराख्यो हरिर्योनिः प्रधानपुरुषेश्वरः ।।

बीजी च बीजं तद्योनिर्नादाख्यश्च महेश्वरः ।। १९ ।।

प्रणव के एक अक्षर अकार से जगत् के बीजभूत अण्डजन्मा भगवान् ब्रह्मा का बोध होता है । उसके दूसरे एक अक्षर उकार से परमकारणरूप श्रीहरि का बोध होता है और तीसरे एक अक्षर मकार से भगवान् नीललोहित शिव का ज्ञान होता है । अकार सृष्टिकर्ता है, उकार मोह में डालनेवाला है और मकार नित्य अनुग्रह करनेवाला है । मकार-बोध्य सर्वव्यापी शिव बीजी [बीजमात्रके स्वामी] हैं और अकारसंज्ञक मुझ ब्रह्मा को बीज कहा जाता है । उकारसंज्ञक श्रीहरि योनि हैं । प्रधान और पुरुष के भी ईश्वर जो महेश्वर हैं, वे बीजी, बीज और योनि भी हैं । उन्हीं को नाद कहा गया है ॥ १६-१९ ॥

बीजी विभज्य चात्मानं स्वेच्छया तु व्यवस्थितः ।।

अस्य लिंगादभूद्बीजमकारो बीजिनः प्रभोः ।। 2.1.8.२० ।।

बीजी अपनी इच्छा से ही अपने बीज को अनेक रूपों में विभक्त करके स्थित हैं । इन बीजी भगवान् महेश्वर के लिंग से अकाररूप बीज प्रकट हुआ ॥ २० ॥

उकारयोनौ निःक्षिप्तमवर्द्धत समंततः।।

सौवर्णमभवच्चांडमावेद्य तदलक्षणम् ।। २१ ।।

जो उकाररूप योनि में स्थापित होकर सब ओर बढ़ने लगा, वह सुवर्णमय अण्ड के रूप में ही बताने योग्य था । उसका अन्य कोई विशेष लक्षण नहीं लक्षित होता था ॥ २१ ॥

अनेकाब्दं तथा चाप्सु दिव्यमंडं व्यवस्थितम्।।

ततो वर्षसहस्रांते द्विधाकृतमजोद्भवम् ।।२२।।

अंडमप्सु स्थितं साक्षाद्व्याघातेनेश्वरेण तु ।।

तथास्य सुशुभं हैमं कपालं चोर्द्ध्वसंस्थितम् ।।२३।।

वह दिव्य अण्ड अनेक वर्षों तक जल में ही स्थित रहा । तदनन्तर एक हजार वर्ष के बाद उस अण्ड के दो टुकड़े हो गये । जल में स्थित हुआ वह अण्ड अजन्मा ब्रह्माजी की उत्पत्ति का स्थान था और साक्षात महेश्वर के आघात से ही फूटकर दो भागों में बँट गया था । उस अवस्था में ऊपर स्थित हुआ उसका सुवर्णमय कपाल बड़ी शोभा पाने लगा ॥ २२-२३ ॥

जज्ञे सा द्यौस्तदपरं पृथिवी पंचलक्षणा ।।

तस्मादंडाद्भवो जज्ञे ककाराख्यश्चतुर्मुखः ।।२४।।

वही द्युलोक के रूप में प्रकट हुआ तथा जो उसका दूसरा नीचेवाला कपाल था, वही यह पाँच लक्षणों से युक्त पृथिवी है । उस अण्ड से चतुर्भुज ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनकी संज्ञा है ॥ २४ ॥

स स्रष्टा सर्वलोकानां स एव त्रिविधः प्रभुः ।।

एवमोमोमिति प्रोक्तमित्याहुर्यजुषां वराः ।।२५।।

वे समस्त लोकों के स्रष्टा हैं । इस प्रकार वे भगवान् महेश्वर ही ’, ‘और म्’ — इन त्रिविध रूपों में वर्णित हुए हैं । इसी अभिप्राय से उन ज्योतिर्लिंगस्वरूप सदाशिव ने ओम्’, ‘ओम्’ — ऐसा कहा यह बात यजुर्वेद के श्रेष्ठ मन्त्र कहते हैं ॥ २५ ॥

यजुषां वचनं श्रुत्वा ऋचः समानि सादरम् ।।

एवमेव हरे ब्रह्मन्नित्याहुश्चावयोस्तदा ।।२६।।

यजुर्वेद के श्रेष्ठ मन्त्रों का यह कथन सुनकर ऋचाओं और साममन्त्रों ने भी हमसे आदरपूर्वक यह कहा हे हरे ! हे ब्रह्मन् ! यह बात ऐसी ही है ॥ २६ ॥

ततो विज्ञाय देवेशं यथावच्छक्तिसंभवैः ।।

मंत्रं महेश्वरं देवं तुष्टाव सुमहोदयम्।।२७।।

इस तरह देवेश्वर शिव को जानकर श्रीहरि ने शक्तिसम्भूत मन्त्रों द्वारा उत्तम एवं महान् अभ्युदय से शोभित होनेवाले उन महेश्वर देव का स्तवन किया ॥ २७ ॥

एतस्मिन्नंतरेऽन्यच्च रूपमद्भुतसुन्दरम् ।।

ददर्श च मया सार्द्धं भगवान्विश्वपालकः ।। २८ ।।

इसी बीच में विश्वपालक भगवान् विष्णु ने मेरे साथ एक और भी अद्भुत एवं सुन्दर रूप को देखा ॥ २८ ॥

पंचवक्त्रं दशभुजं गौरकर्पूरवन्मुने ।।

नानाकांति समायुक्तं नानाभूषणभूषितम् ।। २९ ।।

हे मुने ! वह रूप पाँच मुखों और दस भुजाओं से अलंकृत था । उसकी कान्ति कर्पूर के समान गौर थी । वह नाना प्रकार की छटाओं से और भाँति-भाँति के आभूषणों से विभूषित था ॥ २९ ॥

महोदारं महावीर्यं महापुरुषलणम् ।।

तं दृष्ट्वा परमं रूपं कृतार्थोऽभून्मया हरिः ।।३०।।

उस परम उदार, महापराक्रमी और महापुरुष के लक्षणों से सम्पन्न अत्यन्त उत्कृष्ट रूप का दर्शन करके मेरे साथ श्रीहरि कृतार्थ हो गये ॥ ३० ॥

अथ प्रसन्नो भगवान्महेशः परमेश्वरः ।।

दिव्यं शब्दमयं रूपमाख्याय प्रहसन्स्थितः ।। ३१ ।।

तत्पश्चात् परमेश्वर भगवान् महेश प्रसन्न होकर अपने दिव्य शब्दमय रूप को प्रकट करके हँसते हुए खड़े हो गये ॥ ३१ ॥

अकारस्तस्य मूर्द्धा हि ललाटो दीर्घ उच्यते ।।

इकारो दक्षिणं नेत्रमीकारो वामलोचनम् ।।३२।।।।

 [ह्रस्व] अकार उनका मस्तक और दीर्घ अकार ललाट है । इकार दाहिना नेत्र और ईकार बायाँ नेत्र है ॥ ३२ ॥

उकारो दक्षिणं श्रोत्रमूकारो वाम उच्यते ।।

ऋकारो दक्षिणं तस्य कपोलं परमेष्ठिनः ।।३३।।

वामं कपोलमूकारो लृ लॄ नासापुटे उभे।।

एकारश्चोष्ठ ऊर्द्ध्वश्च ह्यैकारस्त्वधरो विभोः ।।३४।।

उकार को उनका दाहिना और ऊकार को बायाँ कान बताया जाता है । ऋकार उन परमेश्वर का दायाँ कपोल है और ॠकार उनका बायाँ कपोल है । लृ और ॡ ये उनकी नासिका के दोनों छिद्र हैं । एकार उन सर्वव्यापी प्रभु का ऊपरी ओष्ठ है और ऐकार अधर है ॥ ३३-३४ ॥

ओकारश्च तथौकारो दन्तपंक्तिद्वयं क्रमात् ।।

अमस्तु तालुनी तस्य देवदेवस्य शूलिनः ।।३५।।

ओकार तथा औकार ये दोनों क्रमशः उनकी ऊपर और नीचे की दो दंतपंक्तियाँ हैं । अं और अः उन देवाधिदेव शूलधारी शिव के दोनों तालु हैं ॥ ३५ ॥

कादिपंचाक्षराण्यस्य पञ्च हस्ताश्च दक्षिणे ।।

चादिपंचाक्षराण्येवं पंच हस्तास्तु वामतः ।। ३६ ।।

क आदि पाँच अक्षर उनके दाहिने पाँच हाथ हैं । और च आदि पाँच अक्षर बायें पाँच हाथ हैं ॥ ३६ ॥

टादिपंचाक्षरं पादास्तादिपंचाक्षरं तथा ।।

पकार उदरं तस्य फकारः पार्श्व उच्यते ।।३७।।

बकारो वामपार्श्वस्तु भकारः स्कंध उच्यते ।।

मकारो हृदयं शंभोर्महादेवस्य योगिनः ।।३८।।

ट आदि और त आदि पाँच-पाँच अक्षर उनके पैर हैं । पकार पेट है । फकार को दाहिना पार्श्व बताया जाता है । और बकार को बायाँ पार्श्व । भकार को कंधा कहा जाता है । मकार उन योगी महादेव शम्भु का हृदय है ॥ ३७-३८ ॥

यकारादिसकारान्ता विभोर्वै सप्तधातवः ।।

हकारो नाभिरूपो हि क्षकारो घ्राण उच्यते ।।३९।।

य से लेकर स तक [य, , , , , ष तथा स ये सात अक्षर] सर्वव्यापी शिव की सात धातुएँ हैं । हकार को उनकी नाभि और क्षकार को नासिका कहा जाता है ॥ ३९ ॥

एवं शब्दमयं रूपमगुणस्य गुणात्मनः।।

दृष्ट्वा तमुमया सार्द्धं कृतार्थोऽभून्मया हरिः ।।४०।।

इस प्रकार निर्गुण एवं गुण-स्वरूप परमात्मा के शब्दमय रूप को भगवती उमासहित देखकर श्रीहरि मेरे साथ कृतार्थ हो गये ॥ ४० ॥

एवं दृष्ट्वा महेशानं शब्दब्रह्मतनुं शिवम् ।।

प्रणम्य च मया विष्णुः पुनश्चापश्यदूर्द्ध्वतः।।४१।।

इस प्रकार शब्द ब्रह्ममय-शरीरधारी महेश्वर शिव का दर्शन पाकर मेरे साथ श्रीहरि ने उन्हें प्रणाम करके पुनः ऊपर की ओर देखा ॥ ४१ ॥

ॐकारप्रभवं मंत्रं कलापंचकसंयुतम् ।।

शुद्धस्फटिकसंकाशं शुभाष्टत्रिंशदक्षरम् ।। ४२ ।।

उस समय उन्हें पाँच कलाओं से युक्त, ओंकारजनित, शुद्ध स्फटिक मणि के समान सुन्दर, अड़तीस अक्षरोंवाले मन्त्र का साक्षात्कार हुआ ॥ ४२ ॥

मेधाकारमभूद्भूयस्सर्वधर्मार्थसाधकम् ।।

गायत्रीप्रभवं मंत्रं सहितं वश्यकारकम् ।। ४३ ।।

चतुर्विंशतिवर्णाढ्यं चतुष्कालमनुत्तमम् ।।

अथ पंचसितं मंत्रं कलाष्टक समायुतम् ।। ४४ ।।

पुनः सम्पूर्ण धर्म तथा अर्थ का साधक, बुद्धिस्वरूप, अत्यन्त हितकारक और सबको वश में करनेवाला गायत्री नामक महान् मन्त्र लक्षित हुआ । वह चौबीस अक्षरों तथा चार कलाओं से युक्त श्रेष्ठ मन्त्र है । पंचाक्षरमन्त्र (नमः शिवाय) आठ कलाओं से युक्त है ॥ ४३-४४ ॥

आभिचारिकमत्यर्थं प्रायस्त्रिंशच्छुभाक्षरम् ।।

यजुर्वेदसमायुक्तं पञ्चविंशच्छुभाक्षरम् ।।४५।।

अभिचारसिद्धि के लिये प्रयोग किया जानेवाला मन्त्र तीस अक्षरों से सम्पन्न है, किंतु यजुर्वेद में प्रयुक्त मन्त्र पच्चीस सुन्दर अक्षरों का ही है ॥ ४५ ॥

कलाष्टकसमा युक्तं सुश्वेतं शांतिकं तथा ।।

त्रयोदशकलायुक्तं बालाद्यैस्सह लोहितम् ।। ४६ ।।

बभूवुरस्य चोत्पत्तिवृद्धिसंहारकारणम् ।।

वर्णा एकाधिकाः षष्टिरस्य मंत्रवरस्य तु ।। ४७ ।।

यह आठ कलाओं से युक्त तथा सुश्वेत मन्त्र है, जिसका प्रयोग शान्तिकर्म की सिद्धि के लिये किया जाता है । इस मन्त्र के अतिरिक्त तेरह कलाओं से युक्त जो श्रेष्ठ मन्त्र है, वह बाल, युवा और वृद्ध आदि अवस्थाओं में आनेवाले क्रम के अनुसार उत्पत्ति, पालन तथा संहार का कारणरूप है । इसमें इकसठ वर्ण होते हैं ॥ ४६-४७ ॥

पुनर्मृत्युंजयं मन्त्रं पञ्चाक्षरमतः परम् ।।

चिंतामणिं तथा मंत्रं दक्षिणामूर्ति संज्ञकम् ।। ४८ ।।

इसके पश्चात् विष्णु ने मृत्युंजयमन्त्र, पंचाक्षरमन्त्र, चिन्तामणिमन्त्र (क्ष्म्यौं’–यह चिन्तामणिमन्त्र है।) तथा दक्षिणामूर्तिमन्त्र (ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्तये मह्यं मेधां प्रयच्छ स्वाहा।’) को देखा ॥ ४८ ॥

ततस्तत्त्वमसीत्युक्तं महावाक्यं हरस्य च ।।

पञ्चमंत्रांस्तथा लब्ध्वा जजाप भगवान्हरिः ।। ४९ ।।

इसके बाद भगवान् विष्णु ने शंकर को तत्त्वमसि वही तुम हो’ — यह महावाक्य कहा । इस प्रकार उक्त पंचमन्त्रों को प्राप्त करके वे भगवान् श्रीहरि उनका जप करने लगे ॥ ४९ ॥

अथ दृष्ट्वा कलावर्णमृग्यजुस्सामरूपिणम् ।।

ईशानमीशमुकुटं पुरुषाख्यं पुरातनम् ।। ५० ।।

अघोरहृदयं हृद्यं सर्वगुह्यं सदाशिवम् ।।

वामपादं महादेवं महाभोगीन्द्रभूषणम् ।। ५१ ।।

विश्वतः पादवन्तं तं विश्वतोक्षिकरं शिवम् ।।

ब्रह्मणोऽधिपति सर्गस्थितिसंहारकारणम् ।। ५२ ।।

तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिस्साम्बं वरदमीश्वरम् ।।

मया च सहितो विष्णुर्भगवांस्तुष्टचेतसा ।। ५३ ।।

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे सृष्ट्युपाख्याने शब्दब्रह्मतनुवर्णनो नामाष्टमोऽध्यायः ।। ८ ।।

इसके पश्चात् ऋक्, यजुः, सामरूप वर्णों की कलाओं से युक्त, ईशान, ईशों के मुकुट, पुरातन, पुरुष, अघोरहृदय, मनोहर, सर्वगुह्य, सदाशिव, ताण्डव-नृत्यादि कालों में वामपादपर अवस्थित रहनेवाले, महादेव, महान् सर्पराजको आभूषणके रूपमें धारण करनेवाले, चारों ओर चरण और नेत्रवाले, कल्याणकारी, ब्रह्माके अधिपति, सृष्टि-स्थिति-संहार के कारणभूत, वरदायक साम्बमहेश्वर को देखकर भगवान् विष्णु प्रसन्न मन से प्रिय वचनों द्वारा मेरे साथ उनकी स्तुति करने लगे ॥ ५०-५३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान में शब्दब्रह्म-तनु-वर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥   

शेष जारी .............. शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०  

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