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- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड– अध्याय 15
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
शिवमहापुराण –
रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 11
इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 10 पढ़ा, अब शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 11 ग्यारहवाँ अध्याय शिव पूजन की विधि तथा उसका फल।
शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ११
शिवपुराणम् | संहिता
२ (रुद्रसंहिता)
| खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय
11
ऋषय ऊचुः ।।
सूतसूत महाभाग व्यासशिष्य नमोस्तु
ते ।।
श्राविताद्याद्भुता शैवकथा परमपावनी
।। १ ।।
ऋषि बोले —
हे व्यासशिष्य महाभाग सूतजी ! आपको नमस्कार है, आज आपने भगवान् शिव की अद्भुत एवं परम पवित्र कथा सुनायी है ॥ १ ॥
तत्राद्भुता महादिव्या
लिंगोत्पत्तिः श्रुता शुभा ।।
श्रुत्वा यस्याः प्रभावं च दुःखनाशो
भवेदिह।।२।।
उसमें अद्भुत,
महादिव्य तथा कल्याणकारिणी लिंगोत्पत्ति हमलोगों ने सुनी, जिसके प्रभाव को सुनने से इस लोक में दुःखों का नाश हो जाता है ॥ २ ॥
ब्रह्मनारदसंवादमनुसृत्य दयानिधे।।
शिवार्चनविधिं ब्रूहि येन तुष्टो
भवेच्छिवः ।।३।।
हे दयानिधे ! ब्रह्मा और नारदजी के
संवाद के अनुसार आप हमें शिवपूजन की वह विधि बताइये, जिससे भगवान् शिव सन्तुष्ट होते हैं ॥ ३ ॥
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः
शूद्रैर्वा पूज्यते शिवः।।
कथं कार्यं च तद् ब्रूहि यथा
व्यासमुखाच्छ्रुतम् ।। ४ ।।
ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — सभी शिव की पूजा करते हैं । वह पूजन कैसे करना चाहिये ? आपने व्यासजी के मुख से इस विषय को जिस प्रकार सुना हो, वह बताइये ॥ ४ ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तेषां शर्मदं
श्रुतिसंमतम्।।
उवाच सकलं प्रीत्या मुनि
प्रश्नानुसारतः ।। ५ ।।
महर्षियों का वह कल्याणप्रद एवं
श्रुतिसम्मत वचन सुनकर सूतजी उन मुनियों के प्रश्न के अनुसार सब बातें
प्रसन्नतापूर्वक बताने लगे ॥ ५ ॥
सूत उवाच ।।
साधु पृष्टं भवद्भिश्च तद्रहस्यं
मुनीश्वराः ।।
तदहं कथयाम्यद्य यथाबुद्धि
यथाश्रुतम् ।। ६ ।।
सूतजी बोले —
मुनीश्वरो ! आपलोगों ने बहुत अच्छी बात पूछी है, परंतु वह रहस्य की बात है । मैंने इस विषय को जैसा सुना है और जैसी मेरी
बुद्धि है, उसके अनुसार आज कह रहा हूँ ॥ ६ ॥
भवद्भिः पृच्छयते तद्वत्तथा व्यासेन
वै पुरा।।
पृष्टं सनत्कुमाराय तच्छ्रुतं
ह्युपमन्युना ।।७।।
जैसे आपलोग पूछ रहे हैं,
उसी तरह पूर्वकाल में व्यासजी ने सनत्कुमारजी से पूछा था । फिर उसे
उपमन्युजी ने भी सुना था ॥ ७ ॥
ततो व्यासेन वै श्रुत्वा
शिवपूजादिकं च यत् ।।
मह्यं च पाठितं तेन लोकानां
हितकाम्यया ।। ८ ।।
तब व्यासजी ने शिवपूजन आदि जो भी था,
उसे सुनकर लोकहित की कामना से मुझे पढ़ा दिया था ॥ ८ ॥
तच्छ्रुतं चैव कृष्णेन ह्युपमन्योर्महात्मनः
।।
तदहं कथयिष्यामि यथा
ब्रह्मावदत्पुरा।।९।।
इसी विषय को भगवान् श्रीकृष्ण ने
महात्मा उपमन्यु से सुना था । पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नारदजी से इस विषय में जो
कुछ कहा था, वही इस समय मैं कहूँगा ॥ ९ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
शृणु नारद वक्ष्यामि संक्षेपाल्लिंगपूजनम्
।।
वक्तुं वर्षशतेनापि न शक्यं
विस्तरान्मुने ।।१०।।
एवं तु शांकरं रूपं मुखं स्वच्छं
सनातनम् ।।
पूजयेत्परया भक्त्या
सर्वकामफलाप्तये ।।११।।
ब्रह्माजी बोले —
हे नारद ! मैं संक्षेप में लिंगपूजन की विधि बता रहा हूँ, सुनिये । हे मुने ! इसका वर्णन सौ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता है ।
जो भगवान् शंकर का सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है, सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति के लिये उसका उत्तम भक्तिभाव से पूजन करे
॥ १०-११ ॥
दारिद्र्यं रोगदुःखं च पीडनं
शत्रुसंभवम् ।।
पापं चतुर्विधं तावद्यावन्नार्चयते
शिवम् ।।१२।।
दरिद्रता,
रोग, दुःख तथा शत्रुजनित पीड़ा — ये चार प्रकार के पाप-कष्ट तभी तक रहते हैं, जबतक
मनुष्य भगवान् शिव का पूजन नहीं करता है ॥ १२ ॥
सम्पूजिते शिवे देवे सर्वदुःखं
विलीयते ।।
संपद्यते सुखं सर्वं
पश्चान्मुक्तिरवाप्यते ।।१३।।
भगवान् शिव की पूजा होते ही सारे
दुःख विलीन हो जाते हैं और समस्त सुखों की प्राप्ति हो जाती है । तत्पश्चात् [समय
आनेपर उपासक की] मुक्ति भी हो जाती है ॥ १३ ॥
ये वै मानुष्यमाश्रित्य मुख्यं
संतानतस्सुखम् ।।
तेन पूज्यो महादेवः
सर्वकार्यार्थसाधकः ।।१४।।
जो मानवशरीर का आश्रय लेकर मुख्यतया
सन्तानसुख की कामना करता है, उसे चाहिये कि
सम्पूर्ण कार्यों और मनोरथों के साधक महादेवजी की पूजा करे ॥ १४ ॥
ब्राह्मणाः क्षत्रिया
वैश्याश्शूद्राश्च विधिवत्क्रमात् ।।
शंकरार्चां प्रकुर्वंतु
सर्वकामार्थसिद्धये।।१५।।
ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी सम्पूर्ण कामनाओं
तथा प्रयोजनों की सिद्धि के लिये क्रम से विधि के अनुसार भगवान् शंकर की पूजा करें
॥ १५ ॥
प्रातःकाले समुत्थाय मुहूर्ते
ब्रह्मसंज्ञके।।
गुरोश्च स्मरणं कृत्वा शंभोश्चैव
तथा पुनः ।।१६।।
तीर्थानां स्मरणं कृत्वा ध्यानं चैव
हरेरपि ।।
ममापि निर्जराणां वै मुन्यादीनां
तथा मुने।१७।।
ततः स्तोत्रं शुभं नाम
गृह्णीयाद्विधिपूर्वकम् ।।
प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर
गुरु तथा शिव का स्मरण करके पुनः तीर्थों का चिन्तन करके भगवान् विष्णु का ध्यान
करे । हे मुने ! इसके बाद मेरा, देवताओं का और
मुनि आदि का भी स्मरण-चिन्तन करके स्तोत्र-पाठपूर्वक शंकरजी का विधिपूर्वक नाम ले
॥ १६-१७१/२ ॥
ततोत्थाय मलोत्सर्गं दक्षिणस्यां
चरेद्दिशि ।। १८ ।।
एकान्ते तु विधिं
कुर्यान्मलोत्सर्गस्स यच्छ्रुतम् ।।
तदेव कथयाम्यद्य शृण्वाधाय मनो
मुने।।१९।।
उसके बाद शय्या से उठकर निवासस्थान
से दक्षिण दिशा में जाकर मलत्याग करे । हे मुने ! एकान्त में मलोत्सर्ग करना
चाहिये । उससे शुद्ध होने के लिये जो विधि मैंने सुन रखी है,
आप लोगों से उसीको आज कहता हूँ, मन को एकाग्र
करके सुनें ॥ १८-१९ ॥
शुद्धां मृदं द्विजो लिप्यात्पंचवारं
विशुद्धये ।।
क्षत्रियश्च चतुर्वारं वैश्यो
वरत्रयं तथा ।।२०।।
शूद्रो द्विवारं च मृदं
गृह्णीयाद्विधिशुद्धये ।।
गुदे वाथ सकृल्लिंगे वारमेकं
प्रयत्नतः ।। २१ ।।
ब्राह्मण [गुदाकी] शुद्धिके लिये
पाँच बार मिट्टी का लेप करे और धोये । क्षत्रिय चार बार,
वैश्य तीन बार और शूद्र दो बार विधिपूर्वक गुदा की शुद्धि के लिये
उसमें मिट्टी लगाये । लिंग में भी एक बार प्रयत्नपूर्वक मिट्टी लगानी चाहिये ॥
२०-२१ ॥
दशवारं वामहस्ते सप्तवारं
द्वयोस्तथा ।।
प्रत्येकम्पादयोस्तात त्रिवारं
करयोः पुनः ।। २२ ।।
तत्पश्चात् बायें हाथ में दस बार और
दोनों हाथों में सात बार मिट्टी लगाये । हे तात ! प्रत्येक पैर में तीन-तीन बार
मिट्टी लगाये, फिर दोनों हाथों में भी तीन बार
मिट्टी लगाकर धोये ॥ २२ ॥
स्त्रीभिश्च शूद्रवत्कार्यं
मृदाग्रहणमुत्तमम्।।
हस्तौ पादौ च प्रक्षाल्य
पूर्ववन्मृदमाहरेत् ।।२३।।
स्त्रियों को शूद्र की भाँति अच्छी
तरह मिट्टी लगानी चाहिये । हाथ-पैर धोकर पूर्ववत् शुद्ध मिट्टी का संग्रह करना
चाहिये ॥ २३ ॥
दंतकाष्ठं ततः
कुर्यात्स्ववर्णक्रमतो नरः ।।२४।।
विप्रः कुर्याद्दंतकाष्ठं
द्वादशांगुलमानतः।।
एकादशांगुलं राजा वैश्यः कुर्याद्दशांगुलम्
।।२५।।
शूद्रो नवागुलं कुर्यादिति मानमिदं
स्मृतम् ।।
कालदोषं विचार्य्यैव मनुदृष्टं
विवर्जयेत् ।।२६।।
इसके बाद मनुष्यको अपने वर्ण के
अनुसार दातौन करना चाहिये । ब्राह्मण को बारह अँगुल की दातौन करनी चाहिये ।
क्षत्रिय ग्यारह अँगुल, वैश्य दस अँगुल और
शूद्र नौ अँगुल की दातौन करे । दातौन का यह मान बताया गया है । मनुस्मृति के
अनुसार कालदोषका विचार करके ही दातौन करे या त्याग दे ॥ २४-२६ ॥
षष्ट्याद्यामाश्च नवमी व्रतमस्तं
रवेर्दिनम्।।
तथा श्राद्धदिनं तात निषिद्धं
रदधावने ।। २७ ।।
हे तात ! षष्ठी,
प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी,
व्रत का दिन, सूर्यास्त का समय, रविवार तथा श्राद्धदिवस — ये दन्तधावन के लिये
वर्जित हैं ॥ २७ ॥
स्नानं तु विधिवत्कार्यं तीर्थादिषु
क्रमेण तु ।।
देशकालविशेषेण स्नानं कार्यं
समंत्रकम् ।। २८ ।।
[दन्तधावनके पश्चात्] तीर्थ आदि में
विधिपूर्वक स्नान करना चाहिये, विशेष देश-काल
आनेपर मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नान करना चाहिये ॥ २८ ॥
आचम्य प्रथमं तत्र धौतवस्त्रेण
चाधरेत् ।।
एकान्ते सुस्थले स्थित्वा
संध्याविधिमथाचरेत् ।।२९ ।।
[स्नान के पश्चात्] पहले आचमन करके धुला हुआ
वस्त्र धारण करे । फिर सुन्दर एकान्त स्थल में बैठकर सन्ध्याविधि का अनुष्ठान करे
॥ २९ ॥
यथायोग्यं विधिं कृत्वा
पूजाविधिमथारभेत् ।।
मनस्तु सुस्थिरं कृत्वा पूजागारं
प्रविश्य च ।।३०।।
पूजाविधिं समादाय स्वासने
ह्युपविश्य वै ।।
न्यासादिकं विधायादौ पूजयेत्क्रमशो
हरम्।।३१।।
यथायोग्य सन्ध्याविधि करके पूजा का
कार्य आरम्भ करे । मन को सुस्थिर करके पूजागृह में प्रवेशकर वहाँ पूजनसामग्री लेकर
सुन्दर आसन पर बैठे । पहले न्यास आदि करके क्रमशः महादेवजी की पूजा करे ॥ ३०-३१ ॥
प्रथमं च गणाधीशं द्वारपालांस्तथैव
च ।।
दिक्पालांश्च सुसंपूज्य पश्चात्पीठं
प्रकल्पयेत् ।। ३२ ।।
[शिव की पूजासे] पहले गणेशजी की,
द्वारपालों की और दिक्पालों की भली-भाँति पूजा करके बाद में देवता
के लिये पीठ की स्थापना करे ॥ ३२ ॥
अथ वाऽष्टदलं कृत्वा पूजाद्रव्यं
समीपतः ।।
उपविश्य ततस्तत्र उपवेश्य शिवम्
प्रभुम् ।।३३।।
आचमनत्रयं कृत्वा प्रक्षाल्य च पुनः
करौ ।।
प्राणायामत्रयं कृत्वा मध्ये
ध्यायेच्च त्र्यम्बकम् ।। ३४ ।।
पंचवक्त्रं
दशभुजं शुद्धस्फटिकसन्निभम् ।।
सर्वाभरणसंयुक्तं
व्याघ्रचर्मोत्तरीयकम् ।। ३५ ।।
अथवा
अष्टदलकमल बनाकर पूजाद्रव्य के समीप बैठकर उस कमल पर ही भगवान् शिव को समासीन करे
। तत्पश्चात् तीन बार आचमन करके पुनः दोनों हाथ धोकर तीन प्राणायाम करके मध्यम
प्राणायाम अर्थात् कुम्भक करते समय त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव का इस प्रकार ध्यान
करे — उनके पाँच मुख हैं, दस भुजाएँ हैं, शुद्ध स्फटिक के समान उनकी कान्ति है, वे सब प्रकार
के आभूषणों से विभूषित हैं तथा वे व्याघ्रचर्म का उत्तरीय ओढ़े हुए हैं ।॥ ३३-३५ ॥
तस्य सारूप्यतां स्मृत्वा दहेत्पापं
नरस्सदा ।।
शिवं ततः समुत्थाप्य
पूजयेत्परमेश्वरम् ।।३६।।
उनके सारूप्य की भावना करके मनुष्य
सदा के लिये अपने पाप को भस्म कर डाले । [इस प्रकार की भावनासे युक्त होकर] वहाँ
पर शिव को प्रतिष्ठापितकर उन परमेश्वर की पूजा करे ॥ ३६ ॥
देहशुद्धिं ततः कृत्वा मूल मंत्रं
न्यसेत्क्रमात् ।।
सर्वत्र प्रणवेनैव
षडंगन्यासमाचरेत्।।३७।।
शरीरशुद्धि करके मूलमन्त्र का
क्रमशः न्यास करे अथवा सर्वत्र प्रणव से ही षडंगन्यास करे ॥ ३७ ॥
कृत्वा हृदि प्रयोगं च ततः पूजां
समारभेत् ।।
पाद्यार्घाचमनार्थं च पात्राणि च
प्रकल्पयेत्।।३८।।
इस प्रकार हृदयादि न्यास करके पूजा
आरम्भ करे । पाद्य, अर्घ्य और आचमन के
लिये पात्रों को तैयार करके रखे ॥ ३८ ॥
स्थापयेद्विविधान्कुंभान्नव
धीमान्यथाविधि।।
दर्भैराच्छाद्य तैरेव
संस्थाप्याभ्युक्ष्य वारिणा ।।३९।।
तेषु तेषु च सर्वेषु क्षिपेत्तोयं
सुशीतलम्।।
प्रणवेन क्षिपेत्तेषु
द्रव्याण्यालोक्य बुद्धिमान् ।।४०।।
उशीरं चन्दनं चैव पाद्ये तु
परिकल्पयेत् ।।
जातीकं कोलकर्पूरवटमूल तमालकम्
।।४१।।
चूर्णयित्वा यथान्यायं
क्षिपेदाचमनीयके ।।
एतत्सर्वेषु पात्रेषु
दापयेच्चन्दनान्वितम् ।।४२।।
बुद्धिमान् पुरुष विधिपूर्वक
भिन्न-भिन्न प्रकार के नौ कलश स्थापित करे । उन्हें कुशाओं से ढककर कुशाओं से ही
जल लेकर उन सबका प्रोक्षण करे । उन-उन सभी पात्रों में शीतल जल डाले । तत्पश्चात्
बुद्धिमान् पुरुष देख-भालकर प्रणवमन्त्र के द्वारा उनमें इन द्रव्यों को डाले । खस
और चन्दन को पाद्यपात्र में रखे । चमेली के फूल, शीतलचीनी, कपूर, बड़ की जड़
तथा तमाल — इन सबको यथोचितरूप से [कूट-पीसकर चूर्ण बनाकर
आचमनीय पात्र (पंचपात्र)-में डाले । यह सब चन्दनसहित सभी पात्रों में डालना चाहिये
॥ ३९-४२ ॥
पार्श्वयोर्देवदेवस्य नंदीशं तु
समर्चयेत् ।।
गंधैर्धूपैस्तथा दीपैर्विविधैः
पूजयेच्छिवम्।।४३।।
देवाधिदेव महादेवजी के पार्श्वभाग
में नन्दीश्वर का पूजन करे । गन्ध, धूप,
दीप आदि विविध उपचारों से शिव की पूजा करे ॥ ४३ ॥
लिंगशुद्धिं ततः कृत्वा मुदा युक्तो
नरस्तदा ।।
यथोचितं तु मंत्रौघैः
प्रणवादिर्नमोंतकैः ।।४४।।
कल्पयेदासनं स्वस्तिपद्मादि प्रणवेन
तु ।।
तस्मात्पूर्वदिशं
साक्षादणिमामयमक्षरम् ।। ४५ ।।
लघिमा दक्षिणं चैव महिमा पश्चिमं तथा
।।
प्राप्तिश्चैवोत्तरं पत्रं
प्राकाम्यं पावकस्य च।।४६।।
ईशित्वं नैर्ऋतं पत्रं वशित्वं
वायुगोचरे।।
सर्वज्ञत्वं
तथैशान्यं कर्णिका सोम उच्यते ।। ४७ ।।
फिर प्रसन्नतापूर्वक लिंगशुद्धि
करके मनुष्य उचित रूप से मन्त्रसमूहों के आदि में ‘प्रणव’ तथा अन्त में ‘नमः’
पद जोड़कर उनके द्वारा [इष्टदेवके लिये] अथवा प्रणव का उच्चारण करके
स्वस्ति, पद्म आदि आसन की कल्पना करे । पुनः यह भावना करे कि
इस कमल का पूर्वदल साक्षात् अणिमा नामक ऐश्वर्यरूप तथा अविनाशी है । दक्षिणदल
लघिमा है । पश्चिमदल महिमा है । उत्तरदल प्राप्ति है । अग्निकोण का दल प्राकाम्य
है । नैऋत्यकोण का दल ईशित्व है । वायव्यकोण का दल वशित्व है । ईशानकोण का दल
सर्वज्ञत्व है और उस कमल की कर्णिका को सोम कहा जाता है ॥ ४४-४७ ॥
सोमस्याधस्तथा सूर्यस्तस्याधः
पावकस्त्वयम्।।
धर्मादीनपि तस्याधो भवतः कल्पयेत्
क्रमात् ।। ४८ ।।
अव्यक्तादि चतुर्दिक्षु सोमस्यांते
गुणत्रयम् ।।
सद्योजातं प्रवक्ष्यामीत्यावाह्य
परमेश्वरम् ।। ४९ ।।
वामदेवेन मंत्रेण
तिष्ठेच्चैवासनोपरि ।।
सान्निध्यं रुद्रगायत्र्या अघोरेण
निरोधयेत् ।। ५० ।।
ईशानं सर्वविद्यानामिति मंत्रेण
पूजयेत्।।
पाद्यमाचनीयं च विधायार्घ्यं
प्रदापयेत्।।५१।।
इस सोम के नीचे सूर्य है,
सूर्य के नीचे यह अग्नि है और अग्नि के भी नीचे धर्म आदि की क्रमशः
कल्पना करे । इसके पश्चात् चारों दिशाओं में अव्यक्त आदि की तथा सोम के नीचे तीनों
गुणों की कल्पना करे । इसके बाद ‘ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि’
इत्यादि मन्त्र से परमेश्वर शिव का आवाहन करके ‘ॐ वामदेवाय नमः’ इत्यादि वामदेवमन्त्र से उन्हें आसन
पर विराजमान करे । फिर ‘ॐ तत्पुरुषाय विद्महे’ इत्यादि रुद्रगायत्री द्वारा इष्टदेव का सान्निध्य प्राप्त करके उन्हें ‘ॐ अघोरेभ्योऽथ’ इत्यादि अघोर मन्त्र से वहाँ निरुद्ध
करे । तत्पश्चात् ‘ॐ ईशानः सर्वविद्यानाम्’ इत्यादि मन्त्र से आराध्य देव का पूजन करे । पाद्य और आचमनीय अर्पित करके
अर्घ्य दे ॥ ४८-५१ ॥
स्थापयेद्विधिना रुद्रं
गंधचंदनवारिणा ।।
पञ्चागव्यविधानेन
गृह्यपात्रेऽभिमंत्र्य च।। ।।५२।।
प्रणवेनैव गव्येन स्नापयेत्पयसा च
तम् ।।
दध्ना च मधुना चैव तथा चेक्षुरसेन
तु।।५३।।
घृतेन तु यथा पूज्य सर्वकामहितावहम्
।।
पुण्यैर्द्रव्यैर्महादेवं
प्रणवेनाभिषेचयेत्।। ५४ ।।
तत्पश्चात् गन्ध और चन्दनमिश्रित जल
से विधिपूर्वक रुद्रदेव को स्नान कराये । फिर पंचगव्यनिर्माण की विधि से पाँचों
द्रव्यों को एक पात्र में लेकर प्रणव से ही अभिमन्त्रित करके उन मिश्रित
गव्यपदार्थों द्वारा भगवान् को स्नान कराये । तत्पश्चात् पृथक्-पृथक् दूध,
दही, मधु, गन्ने के रस
तथा घी से नहलाकर समस्त अभीष्टों के दाता और हितकारी पूजनीय महादेवजी का प्रणव के
उच्चारणपूर्वक पवित्र द्रव्यों द्वारा अभिषेक करे ॥ ५२-५४ ॥
पवित्रजलभाण्डेषु मंत्रैः तोयं
क्षिपेत्ततः ।।
शुद्धीकृत्य यथान्यायं सितवस्त्रेण
साधकः ।।५५।।।
साधक श्वेत वस्त्र से उस जल को
यथोचित रीति से छान ले और पवित्र जलपात्रों में मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल डाले ॥ ५५
॥
तावद्दूरं न कर्तव्यं न यावच्चन्दनं
क्षिपेत् ।।
तंदुलैस्सुन्दरैस्तत्र
पूजयेच्छंकरम्मुदा ।। ५६ ।।
कुशापामार्गकर्पूर जातिचंपकपाटलैः
।।
करवीरैस्सितैश्चैव
मल्लिकाकमलोत्पलैः ।।५७।।
अपूर्वपुष्पैर्विविधैश्चन्दनाद्यैस्तथैव
च ।।
जलेन जलधाराञ्च कल्पयेत्परमेश्वरे
।। ५८ ।।
जलधारा तबतक बन्द न करे,
जबतक इष्टदेव को चन्दन न चढ़ाये । तब सुन्दर अक्षतों द्वारा
प्रसन्नतापूर्वक शंकरजी की पूजा करे । उनके ऊपर कुश, अपामार्ग,
कपूर, चमेली, चम्पा,
गुलाब, श्वेत कनेर, बेला,
कमल और उत्पल आदि भाँति-भाँति के अपूर्व पुष्पों एवं चन्दन से उनकी
पूजा करे । परमेश्वर शिव के ऊपर जल की धारा गिरती रहे, इसकी
भी व्यवस्था करे ॥ ५६-५८ ॥
पात्रैश्च विविधैर्देवं स्नापयेच्च
महेश्वरम् ।।
मंत्रपूर्वं प्रकर्तव्या पूजा
सर्वफलप्रदा ।। ५९ ।।
जल से भरे भाँति-भाँति के पात्रों
द्वारा महेश्वर को स्नान कराये । इस प्रकार मन्त्रोच्चारणपूर्वक समस्त फलों को
देनेवाली पूजा करनी चाहिये ॥ ५९ ॥
मंत्राँश्च तुभ्यं ताँस्तात
सर्वकामार्थसिद्धये ।।
प्रवक्ष्यामि समासेन सावधानतया शृणु
।।६० ।।
हे तात ! अब मैं आपको समस्त
मनोवांछित कामनाओं की सिद्धि के लिये उन [पूजासम्बन्धी] मन्त्रों को भी संक्षेप
में बता रहा हूँ, सावधानी के साथ
सुनिये ॥ ६० ॥
पाठयमानेन मंत्रेण तथा वाङ्मयकेन
च।।
रुद्रेण नीलरुद्रेण सुशुक्लेन सुभेन
च ।।६१।।
होतारेण तथा शीर्ष्णा शुभेनाथर्वणेन
च ।।
शांत्या वाथ
पुनश्शांत्यामारुणेनारुणेन च ।। ६२ ।।
अर्थाभीष्टेन साम्ना च तथा
देवव्रतेन च।। ६३ ।।
रथांतरेण पुष्पेण सूक्तेन युक्तेन च
।।
मृत्युंजयेन मंत्रेण तथा पंचाक्षरेण
च ।। ६४ ।।
पावमानमन्त्र से,
‘वाङ्म०’ इत्यादि मन्त्र से, रुद्रमन्त्र से, नीलरुद्रमन्त्र से, सुन्दर एवं शुभ पुरुषसूक्त से, श्रीसूक्त से,
सुन्दर अथर्वशीर्ष के मन्त्र से, ‘आ नो भद्रा०’
इत्यादि शान्तिमन्त्र से, शान्तिसम्बन्धी
दूसरे मन्त्रों से, भारुण्ड मन्त्र और अरुणमन्त्रों से,
अर्थाभीष्टसाम तथा देवव्रतसाम से, ‘अभि त्वा०’
इत्यादि रथन्तरसाम से, पुरुषसूक्त से, मृत्युंजयमन्त्र से तथा पंचाक्षरमन्त्र से पूजा करे ॥ ६१-६४ ॥
जलधाराः सहस्रेण शतेनैकोत्तरेण वा
।।
कर्तव्या वेदमार्गेण नामभिर्वाथ वा
पुनः ।।६५ ।।
एक सहस्र अथवा एक सौ एक जलधाराएँ
वैदिक विधि से शिव के नाममन्त्र से प्रदान करे ॥ ६५ ॥
ततश्चंदनपुष्पादि रोपणीयं शिवोपरि
।।
दापयेत्प्रणवेनैव मुखवासादिकं तथा
।। ६६ ।।
तदनन्तर भगवान् शंकर के ऊपर चन्दन
और फूल आदि चढ़ाये । प्रणव से ताम्बूल आदि अर्पित करे ॥ ६६ ॥
ततः स्फटिकसंकाशं देवं
निष्कलमक्षयम् ।।
कारणं सर्वलोकानां सर्वलोकमयं परम्
।। ६७ ।।
ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रविष्ण्वाद्यैरपि
देवैरगोचरम् ।।
वेदविद्भिर्हि वेदांते त्वगोचर मिति
स्मृतम् ।। ६८ ।।
आदिमध्यान्तरहितं भेषजं
सर्वरोगिणाम् ।।
शिवतत्त्वमिति ख्यातं शिवलिंगं
व्यवस्थितम् ।। ६९ ।।
प्रणवेनैव मंत्रेण
पूजयेल्लिंगमूर्द्धनि ।।
धूपैर्दीपैश्च नैवैद्यैस्ताम्बूलैः
सुन्दरैस्तथा ।। ७० ।।
नीराजनेन रम्येण यथोक्तविधिना ततः
।।
नमस्कारैः
स्तवैश्चान्यैर्मंत्रैर्नानाविधैरपि ।। ७१ ।।
इसके बाद जो स्फटिकमणि के समान
निर्मल,
निष्कल, अविनाशी, सर्वलोककारण,
सर्वलोकमय, परमदेव हैं, जो
ब्रह्मा, इन्द्र, उपेन्द्र, विष्णु आदि देवताओं को भी गोचर न होनेवाले, वेदवेत्ता
विद्वानों के द्वारा वेदान्त में [मन-वाणीसे] अगोचर बताये गये हैं, जो आदि-मध्य-अन्त से रहित, समस्त रोगियों के लिये
औषधरूप, शिवतत्त्व के नाम से विख्यात तथा शिवलिंग के रूप में
प्रतिष्ठित हैं, उन भगवान् शिव का शिवलिंग के मस्तक पर
प्रणवमन्त्र से ही पूजन करे । धूप, दीप, नैवेद्य, सुन्दर ताम्बूल, सुरम्य
आरती, स्तोत्रों तथा नाना प्रकार के मन्त्रों एवं नमस्कारों
द्वारा यथोक्त विधि से उनकी पूजा करे ॥ ६७-७१ ॥
अर्घ्यं दत्त्वा तु पुष्पाणि
पादयोस्सुविकीर्य च ।।
प्रणिपत्य च देवेशमात्मनाराधयेच्छिवम्
।।७२।।
तत्पश्चात् अर्घ्य देकर भगवान् के
चरणों में फूल बिखेरकर और साष्टांग प्रणाम करके देवेश्वर शिव की आराधना करे ॥ ७२ ॥
हस्ते गृहीत्वा पुष्पाणि समुत्थाय
कृतांजलिः ।।
प्रार्थयेत्पुनरीशानं मंत्रेणानेन
शंकरम् ।। ७३ ।।
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं
मया ।।
कृतं
तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर ।।७४।।
इसके बाद हाथ में फूल लेकर खड़ा हो
करके दोनों हाथ जोड़कर इस मन्त्र से सर्वेश्वर शंकर की पुनः प्रार्थना करे —
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया । कृतं तदस्तु सफलं कृपया
तव शंकर ॥ हे शिव ! मैंने अनजान में अथवा जान-बूझकर जो जप-पूजा आदि सत्कर्म किये
हों, वे आपकी कृपा से सफल हों ॥ ७३-७४ ॥
पठित्वैवं च पुष्पाणि शिवोपरि मुदा
न्यसेत् ।।
स्वस्त्ययनं ततः कृत्वा ह्याशिषो
विविधास्तथा ।।७५।।
मार्जनं तु ततः कार्यं शिवस्योपरि
वै पुनः ।।
नमस्कारं ततः क्षांतिं पुनराचमनाय च
।।७६
अघोच्चारणमुच्चार्य नमस्कारं
प्रकल्पयेत् ।।
प्रार्थयेच्च पुनस्तत्र
सर्वभावसमन्वितः ।।७७।।
शिवे भक्तिश्शिवे भक्तिश्शिवे
भक्तिर्भवे भवे ।।
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम
।।७८।।
इस प्रकार पढ़कर भगवान् शिव के ऊपर
प्रसन्नतापूर्वक फूल चढ़ाये । तत्पश्चात् स्वस्तिवाचन१ करके नाना प्रकार की आशीः२
प्रार्थना करे । फिर शिव के ऊपर मार्जन3
करना चाहिये । इसके बाद नमस्कार करके अपराध के लिये क्षमाप्रार्थना४ करते हुए
पुनरागमन के लिये विसर्जन५ करना चाहिये । इसके बाद अघोर मन्त्र६ का उच्चारण करके
नमस्कार करे । फिर सम्पूर्ण भाव से युक्त होकर इस प्रकार प्रार्थना करे —प्रत्येक जन्म में शिव में मेरी भक्ति हो, शिव में
भक्ति हो, शिव में भक्ति हो । आपके अतिरिक्त दूसरा कोई मुझे
शरण देनेवाला नहीं है । हे महादेव ! आप ही मेरे लिये शरणदाता हैं ॥ ७५-७८ ॥
इति संप्रार्थ्य देवेशं
सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।।
पूजयेत्परया भक्त्या
गलनादैर्विशेषतः ।। ७९ ।।
इस प्रकार प्रार्थना करके पराभक्ति
के द्वारा सम्पूर्ण सिद्धियों के दाता देवेश्वर शिव का पूजन करे । विशेषतः गले की
ध्वनि से भगवान् को सन्तुष्ट करे ॥ ७९ ॥
नमस्कारं ततः कृत्वा परिवारगणैस्सह
।।
प्रहर्षमतुलं लब्ध्वा कार्यं
कुर्याद्यथासुखम् ।। ८० ।।
तत्पश्चात् परिवारजनों के साथ
नमस्कार करके अनुपम प्रसन्नता प्राप्त करके समस्त [लौकिक] कार्य सुखपूर्वक करता
रहे ॥ ८० ॥
एवं यः पूजयेन्नित्यं
शिवभक्तिपरायणः ।।
तस्य वै सकला सिद्धिर्जायते तु पदे
पदे ।। ८१ ।।
जो इस प्रकार शिवभक्तिपरायण होकर
प्रतिदिन पूजन करता है, उसे अवश्य ही पग-पग
पर सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है ॥ ८१ ॥
वाग्मी स जायते तस्य मनोभी ष्टफलं
ध्रुवम् ।।
रोगं दुःखं च शोकं च ह्युद्वेगं
कृत्रिमं तथा ।। ८२ ।।
कौटिल्यं च गरं चैव यद्यदुःखमुपस्थितम्
।।
तद्दुःखं नाश यत्येव शिवः शिवकरः
परः ।।८३।।
वह उत्तम वक्ता होता है तथा उसे
मनोवांछित फल की निश्चय ही प्राप्ति होती है । रोग, दुःख, शोक, दूसरों के निमित्त
से होनेवाला उद्वेग, कुटिलता, विष तथा
अन्य जो-जो कष्ट उपस्थित होता है, उसे कल्याणकारी परम शिव
अवश्य नष्ट कर देते हैं ॥ ८२-८३ ॥
कल्याणं जायते तस्य शुक्लपक्षे यथा
शशी ।।
वर्द्धते सद्गुणस्तत्र ध्रुवं
शंकरपूजनात् ।।८४।।
उस उपासक का कल्याण होता है । जैसे
शुक्लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ता है, वैसे ही शंकर
की पूजा से उसमें अवश्य ही सद्गुणों की वृद्धि होती है ॥ ८४ ॥
इति पूजाविधिश्शंभोः प्रोक्तस्ते
मुनिसत्तम ।।
अतः परं च शुश्रूषुः किं प्रष्टासि
च नारद ।। ८५ ।।
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने
शिव की पूजा का विधान आपको बताया । हे नारद ! अब आप और क्या पूछना तथा सुनना चाहते
हैं ?
॥ ८५ ॥
इति श्रीशिवमहापुराणे द्विती यायां
रुद्रसंहितायां प्रथमखण्डे सृष्ट्युपाख्याने शिवपूजाविधिवर्णनो नामैकादशोऽध्यायः
।। ११ ।।
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के
अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान में
शिवपूजाविधिवर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥
१. ‘ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति
नस्तार्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥’ इत्यादि
स्वस्तिवाचन सम्बन्धी मन्त्र हैं। २. ‘काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी
शस्यशालिनी । देशोऽयं क्षोभरहितो ब्राह्मणाः सन्तु निर्भयाः ॥ सर्वे च सुखिनः
सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत् ॥’
इत्यादि आशीः प्रार्थनाएँ हैं। ३. ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुव:’ (यजु० ११ । ५०-५२) इत्यादि तीन मार्जन-मन्त्र कहे गये हैं। इन्हें पढ़ते
हुए इष्टदेवपर जल छिड़कना ‘मार्जन’ कहलाता
है। ४. ‘अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। तानि सर्वाणि
मे देव क्षमस्व परमेश्वर ॥’ इत्यादि क्षमाप्रार्थनासम्बन्धी
श्लोक हैं। ५. ‘यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम् ।
अभीष्टफलदानाय पुनरागमनाय च ॥’ इत्यादि विसर्जनसम्बन्धी
श्लोक हैं। ६. अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो
नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥
शेष जारी .............. शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः १२
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