शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 05
इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय
04 पढ़ा, अब शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता
सृष्टिखण्ड – अध्याय 05 पाँचवाँ अध्याय
नारदजी का शिवतीर्थों में भ्रमण, शिवगणों को शापोद्धार की
बात बताना तथा ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्माजी से शिवतत्त्व के विषय में प्रश्न करना
।
शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०५
शिवपुराणम् | संहिता
२ (रुद्रसंहिता)
| खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय
05
सूत उवाच ।।
अंतर्हिते हरौ विप्रा नारदो
मुनिसत्तमः ।।
विचचार महीं पश्यञ्छिवलिंगानि
भक्तितः ।। १ ।।
सूतजी बोले —
महर्षियो ! भगवान् श्रीहरि के अन्तर्धान हो जाने पर मुनिश्रेष्ठ
नारद शिवलिंगों का भक्तिपूर्वक दर्शन करते हुए पृथ्वी पर विचरने लगे ॥ १ ॥
पृथिव्या अटनं कृत्वा
शिवरूपाण्यनेकशः ।।
ददर्श प्रीतितो विप्रा
भुक्तिमुक्तिप्रदानि सः ।। २ ।।
ब्राह्मणो ! भूमण्डल पर घूम-फिरकर
उन्होंने भोग और मोक्ष देनेवाले बहुत से शिवलिंगों का प्रेमपूर्वक दर्शन किया ॥ २
॥
अथ तं विचरंतं कौ नारदं
दिव्यदर्शनम् ।।
ज्ञात्वा शंभुगणौ तौ तु
सुचित्तमुपजग्मतुः ।। ३ ।।
दिव्यदर्शी नारदजी भूतल के तीर्थों
में विचर रहे हैं । और इस समय उनका चित्त शुद्ध है — यह जानकर वे दोनों शिवगण उनके पास गये ॥ ३ ॥
शिरसा सुप्रणम्याशु गणावूचतुरादरात्
।।
गृहीत्वा चरणौ तस्य शापोद्धारेच्छया
च तौ ।। ४ ।।
वे दोनों शिवगण शाप से उद्धार की
इच्छा से आदरपूर्वक मस्तक झुकाकर भली-भाँति प्रणाम करके मुनि के दोनों पैर पकड़कर
आदरपूर्वक उनसे कहने लगे — ॥ ४ ॥
शिवगणावूचतुः ।।
ब्रह्मपुत्र सुरर्षे हि शृणु
प्रीत्या वयोर्वचः ।।
तवापराधकर्तारावावां विप्रौ न
वस्तुतः ।। ५ ।।
शिवगण बोले —
हे ब्रह्मपुत्र देवर्षे ! प्रेमपूर्वक हम दोनों की बातों को सुनिये
। वास्तव में हम दोनों ही आपका अपराध करनेवाले हैं, ब्राह्मण
नहीं हैं ॥ ५ ॥
आवां हरगणौ विप्र तवागस्कारिणौ मुने
।।
स्वयम्बरे राजपुत्र्या मायामोहितचेतसा
।। ६ ।।
त्वया दत्तश्च नौ शापः
परेशप्रेरितेन ह ।।
ज्ञात्वा कुसमयं तत्र मौनमेव हि
जीवनम् ।। ७ ।।
हे मुने ! हे विप्र ! आपका अपराध
करनेवाले हम दोनों शिव के गण हैं । राजकुमारी श्रीमती के स्वयंवर में आपका चित्त
माया से मोहित हो रहा था । उस समय परमेश्वर की प्रेरणा से आपने हम दोनों को शाप दे
दिया । वहाँ कुसमय जानकर हमने चुप रह जाना ही अपनी जीवन-रक्षा का उपाय समझा ॥ ६-७
॥
स्वकर्मणः फलं प्राप्तं कस्यापि न
हि दूषणम् ।।
सुप्रसन्नो भव विभो कुर्वनुग्रहमद्य
नौ ।। ८ ।।
इसमें किसी का दोष नहीं है । हमें
अपने कर्म का ही फल प्राप्त हुआ है । प्रभो ! अब आप प्रसन्न होइये और हम दोनों पर
अनुग्रह कीजिये ॥ ८ ॥
सूत उवाच ।।
वच आकर्ण्य गणयोरिति
भक्त्युक्तमादरात् ।।
प्रत्युवाच मुनिः प्रीत्या
पश्चात्तापमवाप्य सः ।। ९ ।।
सूतजी बोले —
उन दोनों गणों के द्वारा भक्तिपूर्वक कहे गये वचनों को सुनकर
पश्चात्ताप करते हुए देवर्षि नारद प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ ९ ॥
नारद उवाच ।।
शृणुतं मे महादेव गणा मान्यतमौ
सताम् ।।
वचनं सुखदं मोहनिर्मुक्तं च
यथार्थकम्।।! १०।।
नारदजी बोले —
आप दोनों महादेव के गण हैं और सत्पुरुषों के लिये परम सम्माननीय हैं,
अतः मेरे मोहरहित एवं सुखदायक यथार्थ वचन को सुनिये ॥ १० ॥
पुरा मम
मतिर्भ्रष्टासीच्छिवेच्छावशात् युवम् ।।
सर्वथा मोहमापन्नश्शप्तवान्वां
कुशेमुषिः ।। ११ ।।
पहले निश्चय ही शिवेच्छावश मेरी
बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी और मैं सर्वथा मोह के वशीभूत हो गया था । इसीलिये आप
दोनों को कुबुद्धिवाले मैंने शाप दे दिया ॥ ११ ॥
यदुक्तं तत्तथा भावि तथापि शृणुतां
गणौ ।।
शापोद्धारमहं वच्मि क्षमथा मघमद्य
मे ।। १२ ।।
हे शिवगणो ! मैंने जो कुछ कहा है,
वह वैसा ही होगा, फिर भी मेरी बात सुनें । मैं
आपके लिये शापोद्धार की बात बता रहा हूँ । आपलोग आज मेरे अपराध को क्षमा कर दें ॥
१२ ॥
वीर्यान्मुनिवरस्याप्त्वा
राक्षसेशत्वमादिशम् ।।
स्यातां विभवसंयुक्तौ बलिनो
सुप्रतापिनौ ।। १३ ।।
मुनिवर विश्रवा के वीर्य से जन्म
ग्रहण करके आप सम्पूर्ण दिशाओं में प्रसिद्ध [कुम्भकर्ण-रावण] राक्षसराज का शरीर
प्राप्त करेंगे और बलवान्, वैभव से युक्त तथा
परम प्रतापी होंगे ॥ १३ ॥
सर्वब्रह्मांडराजानौ शिवभक्तौ
जितेन्द्रियौ ।।
शिवापरतनोर्मृत्युं प्राप्य स्वं
पदमाप्स्यथः ।। १४ ।।
समस्त ब्रह्माण्ड के राजा होकर
शिवभक्त एवं जितेन्द्रिय होंगे और शिव के ही दूसरे स्वरूप श्रीविष्णु के हाथों
मृत्यु पाकर फिर आप दोनों अपने पद पर प्रतिष्ठित हो जायँगे ॥ १४ ॥
सूत उवाच ।।
इत्याकर्ण्य मुनेर्वाक्यं नारदस्य
महात्मनः ।।
उभौ हरगणौ प्रीतौ स्वं पदं
जग्मतुर्मुदा ।। १५ ।।
सूतजी बोले —
हे महर्षियो ! महात्मा नारदमुनि की यह बात सुनकर वे दोनों शिवगण
प्रसन्न होकर सानन्द अपने स्थान को लौट गये ॥ १५ ॥
नारदोऽपि परं प्रीतो
ध्यायञ्छिवमनन्यधीः ।।
विचचार महीं
पश्यञ्छिवतीर्थान्यभीक्ष्णशः ।। १६ ।।
नारदजी भी अत्यन्त आनन्दित हो अनन्य
भाव से भगवान् शिव का ध्यान तथा शिवतीर्थों का दर्शन करते हुए बारम्बार भूमण्डल
में विचरने लगे ॥ १६ ॥
काशीं प्राप्याथ स मुनिः सर्वोपरि
विराजिताम् ।।
शिवप्रियां शंभुसुखप्रदां
शम्भुस्वरूपिणीम् ।। १७ ।।
अन्त में वे सबके ऊपर विराजमान
काशीपुरी में गये, जो शिवजी की प्रिय,
शिवस्वरूपिणी एवं शिव को सुख देनेवाली है ॥ १७ ॥’
दृष्ट्वा काशीं
कृताऽर्थोभूत्काशीनाथं ददर्श ह ।।
आनर्च परम प्रीत्या परमानन्दसंयुतः
।। १८ ।।
काशीपुरी का दर्शन करके नारदजी
कृतार्थ हो गये । उन्होंने भगवान् काशीनाथ का दर्शन किया और परम प्रीति एवं
परमानन्द से युक्त हो उनकी पूजा की ॥ १८ ॥
स मुदः सेव्यतां काशीं कृतार्थो
मुनिसत्तमः ।।
नमन्संवर्णयन्भक्त्या
संस्मरन्प्रेमविह्वलः ।। ।।१९।।
ब्रह्मलोकं जगामाथ शिवस्मरणसन्मतिः
।।
शिवतत्त्वं विशेषेण ज्ञातुमिच्छुस्स
नारदः ।। २० ।।
नत्वा तत्र विधिं भक्त्या स्तुत्वा
च विविधैस्तवैः ।।
पप्रच्छ शिवत्तत्वं शिवसंभक्तमानसः
।।२१।।
काशी का सानन्द सेवन करके वे
मुनिश्रेष्ठ कृतार्थता का अनुभव करने लगे और प्रेम से विह्वल हो उसका नमन,
वर्णन तथा स्मरण करते हुए ब्रह्मलोक को गये । निरन्तर शिव का स्मरण
करने से शुद्ध-बुद्धि को प्राप्त देवर्षि नारद ने वहाँ पहुँचकर विशेषरूप से
शिवतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से ब्रह्माजी को भक्तिपूर्वक नमस्कार
किया और नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करके उनसे शिवतत्त्व के विषय
में पूछा । उस समय नारदजी का हृदय भगवान् शंकर के प्रति भक्तिभावना से परिपूर्ण था
॥ १९-२१ ॥
नारद उवाच ।।
ब्रह्मन्ब्रह्मस्वरूपज्ञ पितामह
जगत्प्रभो ।।
त्वत्प्रसादान्मया सर्वं
विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम् ।। २२ ।।
नारदजी बोले —
‘हे ब्रह्मन् ! परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप को जाननेवाले हे पितामह
! हे जगत्प्रभो ! आपके कृपाप्रसाद से मैंने भगवान् विष्णु के उत्तम माहात्म्य का
पूर्णतया ज्ञान प्राप्त किया है ॥ २२ ॥
भक्तिमार्गं ज्ञानमार्गं तपोमार्गं
सुदुस्तरम् ।।
दानमार्गञ्च तीर्थानां मार्गं च
श्रुतवानहम् ।। २३ ।।
न ज्ञातं शिवतत्त्वं च पूजाविधिमतः
क्रमात् ।।
चरित्रं विविधं तस्य निवेदय मम
प्रभो ।। २४ ।।
भक्तिमार्ग,
ज्ञानमार्ग, अत्यन्त दुस्तर तपोमार्ग, दानमार्ग तथा तीर्थमार्ग का भी वर्णन सुना है, परंतु
शिवतत्त्व का ज्ञान मुझे अभी तक नहीं हुआ है । मैं भगवान् शंकर की पूजा-विधि को भी
नहीं जानता । अतः हे प्रभो ! आप क्रमशः इन विषयों को तथा भगवान् शिव के विविध
चरित्रों को मुझे बताने की कृपा करें ॥ २३-२४ ॥
निर्गुणोऽपि शिवस्तात सगुणश्शंकरः
कथम् ।।
शिवतत्त्वं न जानामि
मोहितश्शिवमायया ।।२५।।
हे तात ! शिव तो निर्गुण होते हुए
भी सगुण हैं । यह कैसे सम्भव है । शिव की माया से मोहित होने के कारण मैं शिव के
तत्त्व को नहीं जान पा रहा हूँ ॥ २५ ॥
सृष्टेः पूर्वं कथं शंभुस्स्वरूपेण
प्रतिष्ठितः ।।
सृष्टिमध्ये स हि कथं क्रीडन्संवर्तते
प्रभुः ।। २६ ।।
तदन्ते च कथं देवस्स तिष्ठति
महेश्वरः ।।
कथं प्रसन्नतां याति शंकरो लोकशंकरः
।। २७ ।।
सृष्टि के पूर्व भगवान् शंकर किस
स्वरूप से अवस्थित रहते हैं और सृष्टि के मध्य में कैसी क्रीडा करते हुए स्थित
रहते हैं । सृष्टि के अन्त में वे देव महेश्वर किस प्रकार से रहते हैं और संसार का
कल्याण करनेवाले वे सदाशिव किस प्रकार प्रसन्न रहते हैं ॥ २६-२७ ॥
संतुष्टश्च स्वभक्तेभ्यः परेभ्यश्च
महेश्वरः ।।
किं फलं यच्छति विधे तत्सर्वं
कथयस्व मे ।। २८ ।।
सद्यः प्रसन्नो
भगवान्भवतीत्यनुसंश्रुतम् ।।
भक्तप्रयासं स महान्न पश्यति दयापरः
।। २९ ।।
हे विधाता ! वे सन्तुष्ट होकर अपने
भक्तों और अन्य लोगों को कैसा फल देते हैं, वह
सब हमें बतायें । मैंने सुना है कि वे भगवान् तत्काल प्रसन्न हो जाते हैं ।
परमदयालु वे भक्त के कष्ट को नहीं देख पाते हैं ॥ २८-२९ ॥
ब्रह्मा विष्णुर्महेशश्च त्रयो
देवाश्शिवांशजाः ।।
महेशस्तत्र पूर्णांशस्स्वयमेव शिवः
परः ।। ३० ।।
ब्रह्मा,
विष्णु और महेश — ये तीनों देव शिव के ही अंश
हैं । महेश उनमें पूर्ण अंश हैं और स्वयं में वे परात्पर शिव है ॥ ३० ॥
तस्याविर्भावमाख्याहि चरितानि
विशेषतः ।।
उमाविर्भावमाख्याहि तद्विवाहं तथा
विभो ।।३१।।
आप उन महेश्वर शिव के आविर्भाव एवं
उनके चरित्र को विशेष रूप से कहें । हे प्रभो ! [इस कथा के साथ ही] उमा
(पार्वती)-के आविर्भाव और उनके विवाह की भी चर्चा करें ॥ ३१ ॥
तद्गार्हस्थ्यं विशेषेण तथा लीलाः
परा अपि।।
एतत्सर्वं तथान्यच्च कथनीयं त्वयानघ
।।३२।।
उनके गृहस्थ आश्रम और उस आश्रम में
की गयी विशिष्ट लीलाओं का वर्णन करें । हे निष्पाप ! इन सब [कथाओं]-के साथ अन्य जो
कहनेयोग्य बातें हैं, उनका भी वर्णन करें
॥ ३२ ॥
तदुत्पत्तिं विवाहं च शिवायास्तु
विशेषतः।।
प्रब्रूहि मे प्रजानाथ गुहजन्म तथैव
च।।३३।।
हे प्रजानाथ ! उन (शिव) और शिवा के
आविर्भाव एवं विवाह का प्रसंग विशेष रूप से कहें तथा कार्तिकेय के जन्म की कथा भी
मुझे सुनायें ॥ ३३ ॥
बहुभ्यश्च श्रुतं पूर्वं न
तृप्तोऽस्मि जगत्प्रभो।।
अतस्त्वां शरणं प्राप्तः कृपां कुरु
ममोपरि ।।३४।।
हे जगत्प्रभो ! पहले बहुत लोगों से
मैंने ये बातें सुनी हैं, किंतु तृप्त नहीं
हो सका हूँ, इसीलिये आपकी शरण में आया हूँ । आप मुझपर कृपा
करें’ ॥ ३४ ॥
इति श्रुत्वा वचस्तस्य
नारदस्यांगजस्य हि।।
उवाच वचनं तत्र ब्रह्मा
लोकपितामहः।।३५।।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां प्रथमखंडे सृष्ट्युपाख्याने नारदप्रश्नवर्णनोनाम
पञ्चमोऽध्यायः।।५।।
अपने पुत्र नारद की यह बात सुनकर
लोकपितामह ब्रह्मा वहाँ इस प्रकार कहने लगे — ॥
३५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के
अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान का
नारद-प्रश्न-वर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥
शेष जारी .............. शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०६
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