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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
भैरव स्तुति
गोरक्षसंहिता के प्रथम पटलान्तर्गत
भगवान श्री भैरव की बहुत ही सुन्दर स्तुति दिया गया है। नित्य भाव व श्रद्धा सहित
इस स्तुति के माध्यम से भक्त के मन में भैरव की सुन्दर छवि उबरने लगेगी और भैरव
तत्त्व समाहित होकर उनकी सभी इच्छाएँ भगवान भैरव की कृपा से पूर्ण होगी।
देवीकृता भैरव स्तुतिः
नित्यानन्दं परं शान्तं निष्कलं च
निरामयम् ।
व्योमातीतं परं शून्यं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ १॥
परात्परतरं शान्तं
शुद्धमत्यन्तनिर्मलम् ।
भूतं येन जगत्सर्वं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ २॥
इडापिङ्गलयोर्मध्ये
निश्वाशोच्छ्वासचारिणम् ।
द्वादशान्ते लयं यस्य भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ ३॥
कुण्डल्यां तु लयं यस्य परान्ते
विलयं पुनः ।
हरत्यमृतरूपेण भैरवं तं नमाम्यहम् ॥
४॥
अकुलाकुलसम्भूतं
कुलोत्पत्तिविवर्जितम् ।
विश्वरूपं परं नित्यं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ ५॥
कलाकलङ्करहितं निर्विकारं निरञ्जनम्
।
शून्याच्छून्यतरं शून्यं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ ६॥
आपातालमूर्ध्निस्थं
कन्दनालसमास्तृतम् ।
हंसरूपं निराभासं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ ७॥
आकाशज्योतिमारूढं व्योमातीतं
निरामयम् ।
व्योमव्यापि परंव्योम भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ ८॥
चन्द्रार्कवह्निमध्यस्थं
दृष्टादृष्टैकगोचरम् ।
रूपारूपविनिर्मुक्तं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ ९॥
नाडिकार्णवसम्भूतं
मन्त्रजालप्रकाशस्थ ।
अतीतगोचरं शम्भुं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ १०॥
हकारार्द्धं परं सूक्ष्मं परानन्दं
परात्परम् ।
परस्यान्ते परे लीनं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ ११॥
घण्टिकान्ते परं शान्तं
ब्रह्मरन्ध्रविनिर्गतम् ।
आकाशं निर्मलं सूक्ष्मं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ १२॥
अखण्डनिर्मलं शुद्धं कला
कल्पविवर्जितम् ।
नित्यं प्रमेयरहितं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ १३॥
यथा भानुगता
रश्मिमर्व्यापयेन्निखिलं जगत् ।
तथा सर्वगतं देवं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ १४॥
नादान्तबिन्दुसंलीनं
शक्त्यातीतमगोचरम् ।
मालिन्यङ्गसमुद्भूतं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ १५॥
अनिलानलसंयुक्तं व्यापकं परमेश्वरम्
।
भुवनत्रयसंलीनं भैरवं तं नमाम्यहम्
॥ १६॥
अकारादिक्षकारान्तं
कुलपिण्डसमुद्भवम् ।
कारात्रिशस्वरूपस्थं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ १७॥
यथा जलगता सूर्यश्चन्द्रश्चाप्सु
व्यवस्थितः ।
तथा सर्वगतं देवं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ १८॥
यथा चाग्निगतं तेजो यथा वायुः
स्वरूपतः ।
तथा सर्वगतं देवं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ १९॥
पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाश एव च
।
पञ्चभूतगतं देवं भैरवं तं नमाम्यहम्
॥ २०॥
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धतन्मात्रपञ्चकम्
।
एतद्व्याप्य स्थितं देवं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ २१॥
वाक्पाणिपादपायूपस्थपञ्चकसंस्थितम्
।
पञ्चकर्मेन्द्रियैः संस्थं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ २२॥
श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा
घ्राणं चैव तु पञ्चमम् ।
पञ्चेन्द्रियसुसम्भूतं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ २३॥
कामः क्रोधस्तथा लोभो मोहश्चैव
चतुष्टयम् ।
अन्तःकरणसम्भूतं भैरवं तं नमाम्यहम्
॥ २४॥
पक्षिकीटैस्तथा
वृक्षैर्लतागुल्मसरीसृपैः ।
सवं व्याप्य स्थितं शम्भुं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ २५॥
विकल्पकल्परहितं कल्पनातीतगोचरम् ।
विकल्परहितं शान्तं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ २६॥
युगान्तं युगरूपेण अक्षयं
चाव्यवस्थितम् ।
सर्वव्यापि परं ब्रह्म भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ २७॥
सर्वतत्त्वगतं सूक्ष्मं
ज्ञानध्यानपरायाणम् ।
निर्लक्षं परमं शुद्धं भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ २८॥
सिद्धमातरर्योगिन्यैर्गुह्यकैः
पालकैस्तथा ।
पूजितं पादपद्मं च भैरवं तं
नमाम्यहम् ॥ २९॥
एवं देव्या स्तुतः शम्भुः
परानन्दाकुलेक्षणम् ।
भैरवो हृष्टमनसा
प्रोत्फुल्लकमलानन्ः ॥ ३०॥
प्रसन्नो वरदो देवो वाक्यं चेदमुवाच
ह ।
साधु साधु महाभागे तुष्टोऽहं भक्तवत्सले
॥ ३१॥
॥ इति गोरक्षसंहितायां प्रथमः पटलान्तर्गते भैरवस्तुतिः समाप्ता ॥
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