recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 04

शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड अध्याय 04  

इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] अध्याय 03 पढ़ा, अब शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड अध्याय 04 चौथा अध्याय नारदजी का भगवान् विष्णु को क्रोधपूर्वक फटकारना और शाप देना, फिर माया के दूर हो जाने पर पश्चात्तापपूर्वक भगवान् के चरणों में गिरना और शुद्धि का उपाय पूछना तथा भगवान् विष्णु का उन्हें समझा-बुझाकर शिव का माहात्म्य जानने के लिये ब्रह्माजी के पास जाने का आदेश और शिव के भजन का उपदेश देना ।

शिवमहापुराण –रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 04

शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०४

शिवपुराणम् | संहिता २ (रुद्रसंहिता) | खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)

शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] अध्याय 04

ऋषय ऊचुः ।।

सूत सूत महाप्राज्ञ वर्णिता ह्यद्भुता कथा ।।

धन्या तु शांभवी माया तदधीनं चराचरम् ।। १ ।।

ऋषिगण बोले हे महाप्राज्ञ ! हे सूत ! आपने बड़ी अद्भुत कथा का वर्णन किया है । भगवान् शंकर की माया धन्य है । यह चराचर जगत् उसी के अधीन है ॥ १ ॥

गतयोर्गणयोश्शंभोस्स्वयमात्मेच्छया विभोः।।

किं चकार मुनिः क्रुद्धो नारदः स्मरविह्वलः ।। २ ।।

भगवान् शंकर के वे दोनों गण जब अपनी इच्छा से [कहीं अन्यत्र] चले गये, तब कामविह्वल और [अपमान से] क्रुद्ध मुनि नारद ने क्या किया ? ॥ २ ॥

सूत उवाच ।।

विमोहितो मुनिर्दत्त्वा तयोश्शापं यथोचितम् ।।

जले मुखं निरीक्ष्याथ स्वरूपं गिरिशेच्छया ।। ३ ।।

सूतजी बोले शिव की इच्छा से विमोहित [उस राजकुमारी के प्रति विशेष आसक्ति होने के कारण अन्य अर्थ-अनर्थ के ज्ञान से रहित] मुनि ने उन दोनों को यथोचित शाप देकर जल में अपना मुख और स्वरूप देखा ॥ ३ ॥

शिवेच्छया न प्रबुद्धः स्मृत्वा हरिकृतच्छलम् ।।

क्रोधं दुर्विषहं कृत्वा विष्णुलोकं जगाम ह ।। ४ ।।

उवाच वचनं कुद्धस्समिद्ध इव पावकः ।।

दुरुक्तिगर्भितं व्यङ्गः नष्टज्ञानश्शिवेच्छया ।। ५ ।।

शिव-इच्छा के कारण उन्हें ज्ञान नहीं हुआ और विष्णु के द्वारा किये गये छल का स्मरण करके दुःसह क्रोध में आकर वे उसी समय विष्णुलोक में जा पहुँचे । शिव की इच्छा से ज्ञान-शून्य तथा समिधायुक्त जल रही अग्नि के समान क्रुद्ध वे [नारद] विष्णु से अत्यन्त अप्रिय व्यंग्य वचन कहने लगे ॥ ४-५ ॥

नारद उवाच ।।

हे हरे त्वं महादुष्टः कपटी विश्वमोहनः ।।

परोत्साहं न सहसे मायावी मलिनाशयः ।। ६ ।।

नारदजी बोले हे हरे ! तुम बड़े दुष्ट हो, कपटी हो और समस्त विश्व को मोह में डाले रहते हो । दूसरों का उत्साह तुमसे सहा नहीं जाता । तुम मायावी हो और तुम्हारा अन्तःकरण मलिन है ॥ ६ ॥

मोहिनीरूपमादाय कपटं कृतवान्पुरा ।।

असुरेभ्योऽपाययस्त्वं वारुणीममृतं न हि ।।७।।

पूर्वकाल में तुमने मोहिनीरूप धारण करके कपट किया, असुरों को वारुणी मदिरा पिलायी और उन्हें अमृत नहीं पीने दिया ॥ ७ ॥

चेत्पिबेन्न विषं रुद्रो दयां कृत्वा महेश्वरः ।।

भवेन्नष्टाऽखिला माया तव व्याजरते हरे ।। ८ ।।

छल-कपट में ही रत रहनेवाले हे हरे ! यदि महेश्वर रुद्र दया करके विष न पी लेते, तो तुम्हारी सारी माया उसी दिन समाप्त हो जाती ॥ ८ ॥

गतिस्स कपटा तेऽतिप्रिया विष्णो विशेषतः ।।

साधुस्वभावो न भवान्स्वतंत्रः प्रभुणा कृतः ।।९।।

हे विष्णो ! कपटपूर्ण चाल तुम्हें अधिक प्रिय है । तुम्हारा स्वभाव अच्छा नहीं है, भगवान् शंकर ने तुम्हें स्वतन्त्र बना दिया है ॥ ९ ॥

कृतं समुचितन्नैव शिवेन परमात्मना।।

तत्प्रभावबलं ध्यात्वा स्वतंत्रकृतिकारकः।।१ ० ।।

त्वद्गतिं सुसमाज्ञाय पश्चात्तापमवाप सः ।।

परमात्मा शंकर के द्वारा ऐसा करके अच्छा नहीं किया गया और तुम उनके प्रभावबल को जानकर स्वतन्त्र होकर कार्य करते रहते हो । तुम्हारी इस चाल-ढाल को समझकर अब वे (भगवान् शिव) भी पश्चात्ताप करते होंगे ॥ १०१/२ ॥

विप्रं सर्वोपरि प्राह स्वोक्तवेद प्रमाणकृत् ।। ११ ।।

तज्ज्ञात्वाहं हरे त्वाद्य शिक्षयिष्यामि तद्बलात् ।।

यथा न कुर्याः कुत्रापीदृशं कर्म कदाचन ।। १२ ।।

अपनी वाणीरूप वेद की प्रामाणिकता स्थापित करनेवाले महादेवजी ने ब्राह्मण को सर्वोपरि बताया है । हे हरे ! इस बात को जानकर आज मैं बलपूर्वक तुम्हें ऐसी सीख दूंगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कर्म नहीं कर सकोगे ॥ ११-१२ ॥

अद्यापि निर्भयस्त्वं हि संगं नापस्तरस्विना ।।

इदानीं लप्स्यसे विष्णो फलं स्वकृतकर्मणः ।। १३।।

अबतक किसी तेजस्वी पुरुष से तुम्हारा पाला नहीं पड़ा था, इसलिये आजतक तुम निडर बने हुए हो, परंतु हे विष्णो ! अब तुम्हें अपने द्वारा किये गये कर्म का फल मिलेगा ॥ १३ ॥

इत्थमुक्त्वा हरिं सोथ मुनिर्माया विमोहितः ।।

शशाप क्रोधनिर्विण्णो ब्रह्मतेजः प्रदर्शयन्।। १४।।

भगवान् विष्णु से ऐसा कहकर मायामोहित नारद मुनि अपने ब्रह्मतेज का प्रदर्शन करते हुए क्रोध से खिन्न हो उठे और शाप देते हुए बोले ॥ १४ ॥

स्त्रीकृते व्याकुलं विष्णो मामकार्षीर्विमोहकः ।।

अन्वकार्षीस्स्वरूपेण येन कापट्यकार्यकृत् ।।१५।।

तद्रूपेण मनुष्यस्त्वं भव तद्दुःखभुग्घरे ।।

यन्मुखं कृतवान्मे त्वं ते भवंतु सहायिनः ।। १६ ।।

त्वं स्त्रीवियोगजं दुःखं लभस्व परदुःखदः ।।

मनुष्यगतिकः प्रायो भवाज्ञानविमोहितः ।। १७।।

हे विष्णो ! तुमने स्त्री के लिये मुझे व्याकुल किया है । तुम इसी तरह सबको मोह में डालते रहते हो । यह कपटपूर्ण कार्य करते हुए तुमने जिस स्वरूप से मुझे संयुक्त किया था, उसी स्वरूप से हे हरे ! तुम मनुष्य हो जाओ और स्त्री के लिये दूसरों को दुःख देनेवाले तुम भी स्त्री के वियोग का दुःख भोगो । तुमने जिन वानरों के समान मेरा मुँह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक हों । तुम दूसरों को [स्त्री-विरह का] दुःख देनेवाले हो, अतः स्वयं भी तुम्हें स्त्री के वियोग का दुःख प्राप्त हो और अज्ञान से मोहित मनुष्यों के समान तुम्हारी स्थिति हो ॥ १५-१७ ॥

इति शप्त्वा हरिं मोहान्नारदोऽज्ञानमोहितः ।।

विष्णुर्जग्राह तं शापं प्रशंसञ्शांभवीमजाम् ।। १८ ।।

अज्ञान से मोहित हुए नारदजी ने मोहवश श्रीहरि को जब इस तरह शाप दिया, तब उन विष्णु ने शम्भु की माया की प्रशंसा करते हुए उस शाप को स्वीकार कर लिया ॥ १८ ॥

अथ शंभुर्महालीलो निश्चकर्ष विमोहिनीम ।।

स्वमायां मोहितो ज्ञानी नारदोप्यभवद्यया ।। १९ ।।

तदनन्तर महालीला करनेवाले शम्भु ने अपनी उस विश्वमोहिनी माया को, जिसके कारण ज्ञानी नारदमुनि भी मोहित हो गये थे, खींच लिया ॥ १९ ॥

अंतर्हितायां मायायां पूर्ववन्मतिमानभूत् ।।

नारदो विस्मितमनाः प्राप्तबोधो निराकुलः ।। २० ।।

उस माया के तिरोहित होते ही नारदजी पूर्ववत् शुद्ध बुद्धि से युक्त हो गये । उन्हें पूर्ववत् ज्ञान प्राप्त हो गया और उनकी सारी व्याकुलता जाती रही । इससे उनके मन में बड़ा विस्मय हुआ ॥ २० ॥

पश्चात्तापमवाप्याति निनिन्द स्वं मुहुर्मुहुः ।।

प्रशशंस तदा मायां शांभवीं ज्ञानिमोहिनीम् ।। २१ ।।

वे पश्चात्ताप करके बार-बार अपनी निन्दा करने लगे । उस समय उन्होंने ज्ञानी को भी मोह में डालनेवाली भगवान् शम्भु की माया की सराहना की ॥ २१ ॥

अथ ज्ञात्वा मुनिस्सर्वं मायाविभ्रममात्मनः ।।

अपतत्पादयोर्विष्णोर्नारदो वैष्णवोत्तमः ।। २२ ।।

तदनन्तर यह जानकर कि माया के कारण ही मैं भ्रम में पड़ गया था, वैष्णवशिरोमणि नारदजी भगवान् विष्णु के चरणों में गिर पड़े ॥ २२ ॥

हर्य्युपस्थापितः प्राह वचनं नष्ट दुर्मतिः ।।

मया दुरक्तयः प्रोक्ता मोहितेन कुबुद्धिना ।। २३ ।।

दत्तश्शापोऽपि तेनाथ वितथं कुरु तं प्रभो ।।

महत्पापमकार्षं हि यास्यामि निरयं धुवम् ।। २४ ।।

कमुपायं हरे कुर्यां दासोऽहं ते तमादिश ।।

येन पापकुलं नश्येन्निरयो न भवेन्मम ।। २५ ।।

भगवान् श्रीहरि ने उन्हें उठाकर खड़ा कर दिया । उस समय अपनी दुर्बुद्धि नष्ट हो जाने के कारण वे बोले माया से मोहित होने के कारण मेरी बुद्धि बिगड़ गयी थी, इसलिये मैंने आपके प्रति बहुत दुर्वचन कहे हैं । हे नाथ ! मैंने आपको शाप तक दे डाला है । हे प्रभो ! उस शाप को आप मिथ्या कर दीजिये । हाय ! मैंने बहुत बड़ा पाप किया है, अब मैं निश्चय ही नरक में पडुँगा । हे हरे ! मैं आपका दास हूँ । अतः बताइये, मैं क्या उपाय-कौन-सा प्रायश्चित्त करूं, जिससे मेरा पाप-समूह नष्ट हो जाय और मुझे नरक में न गिरना पड़े ॥ २३-२५ ॥

इत्युक्त्वा स पुनर्विष्णोः पादयोर्मुनिसत्तमः ।।

पपात सुमतिर्भक्त्या पश्चात्तापमुपागतः ।। २६ ।।

अथ विष्णुस्तमुत्थाप्य बभाषे सूनृतं वचः ।।

ऐसा कहकर शुद्ध बुद्धिवाले मुनिशिरोमणि नारदजी पुनः भक्तिभाव से भगवान् विष्णु के चरणों में गिर पड़े । उस समय उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था । तब श्रीविष्णु उन्हें उठाकर मधुर वाणी में कहने लगे ॥ २६१/२ ॥

विष्णुरुवाच ।।

न खेदं कुरु मे भक्त वरस्त्वं नात्र संशयः ।। २७ ।।

शृणु तात प्रवक्ष्यामि सुहितं तव निश्चयात् ।

निरयस्ते न भविता शिवश्शं ते विधास्यति ।। २८ ।।

विष्णु बोले हे तात ! खेद मत कीजिये । आप मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं, इसमें संशय नहीं है । मैं आपको एक बात बताता हूँ, सुनिये । उससे निश्चय ही आपका परम हित होगा, आपको नरक में नहीं जाना पड़ेगा । भगवान् शिव आपका कल्याण करेंगे ॥ २७-२८ ॥

यदकार्षीश्शिववचो वितथं मदमोहितः ।।

स दत्तवानीदृशं ते फलं कर्म फलप्रदः ।। २९ ।।

आपने मद से मोहित होकर जो भगवान् शिव की बात नहीं मानी थी उसकी अवहेलना कर दी थी, उसी अपराध का ऐसा फल भगवान् शिव ने आपको दिया है, क्योंकि वे ही कर्मफल के दाता हैं ॥ २९ ॥

शिवेच्छाऽखिलं जातं कुर्वित्थं निश्चितां मतिम् ।।

गर्वापहर्ता स स्वामी शंकरः परमेश्वरः ।। ३० ।।।

आप अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लीजिये कि भगवान् शिव की इच्छा से ही यह सब कुछ हुआ है । सबके स्वामी परमेश्वर शंकर ही गर्व को दूर करनेवाले हैं ॥ ३० ॥

परं ब्रह्म परात्मा स सच्चिदानंदबोधनः ।।

निर्गुणो निर्विकारो च रजस्सत्वतमःपर ।। ३१ ।।

वे ही परब्रह्म हैं, परमात्मा हैं, उन्हीं का सच्चिदानन्दरूप से बोध होता है, वे निर्गुण हैं, निर्विकार हैं और सत्त्व, रज तथा तम इन तीनों गुणों से परे हैं ॥ ३१ ॥

स एवमादाय मायां स्वां त्रिधा भवति रूपतः ।।

ब्रह्मविष्णुमहेशात्मा निर्गुणोऽनिर्गुणोऽपि सः ।। ३२ ।।

वे ही अपनी माया को लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन रूपों में प्रकट होते हैं । निर्गुण और सगुण भी वे ही हैं ॥ ३२ ॥

निर्गुणत्वे शिवाह्वो हि परमात्मा महेश्वरः ।।

परं ब्रह्माव्ययोऽनंतो महादेवेति गीयते ।। ३३ ।।

निर्गुण अवस्था में उन्हीं का नाम शिव है । वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनन्त और महादेव आदि नामों से कहे जाते हैं ॥ ३३ ॥

तत्सेवया विधिस्स्रष्टा पालको जगतामहम् ।।

स्वयं सर्वस्य संहारी रुद्ररूपेण सर्वदा ।। ३४ ।।

उन्हीं की सेवा से ब्रह्माजी जगत् के स्रष्टा हुए हैं, मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ और वे स्वयं ही रुद्ररूप से सदा सबका संहार करते हैं ॥ ३४ ॥

साक्षी शिवस्वरूपेण मायाभिन्नस्स निर्गुणः ।।

स्वेच्छाचारी संविहारी भक्तानुग्रहकारकः ।। ३५ ।।

वे शिवस्वरूप से सबके साक्षी हैं, माया से भिन्न और निर्गुण हैं । स्वतन्त्र होने के कारण वे अपनी इच्छा के अनुसार चलते हैं । उनका विहार-आचार, व्यवहार उत्तम है और वे भक्तों पर दया करनेवाले हैं ॥ ३५ ॥

शृणु त्वं नारद मुने सदुपायं सुखप्रदम् ।।

सर्वपापापहर्त्तारं भुक्तिमुक्तिप्रदं सदा ।। ३६ ।।

हे नारद मुने ! मैं आपको एक सुन्दर उपाय बताता हूँ, जो सुखद, समस्त पापों का नाश करनेवाला और सदा भोग एवं मोक्ष देनेवाला है, आप उसे सुनिये ॥ ३६ ॥

इत्युक्त्वास्त्वसंशयं सर्वं शंकरसद्यशः ।।

शतनामशिवस्तोत्रं सदानन्यमतिर्जप ।। ३७ ।।

यज्जपित्वा द्रुतं सर्वं तव पापं विनश्यति ।।

अपने समस्त संशयों को त्यागकर आप भगवान् शंकर के सुयश का गान कीजिये और सदा अनन्यभाव से शिव के शतनामस्तोत्र का पाठ कीजिये । जिसका पाठ करने से आपके समस्त पाप शीघ्र ही नष्ट हो जायँगे ॥ ३७१/२ ॥

इत्युक्त्वा नारदं विष्णुः पुनः प्राह दयान्वितः ।। ३८ ।।

मुने न कुरु शोकं त्वं त्वया किंचित्कृतं नहि ।।

स्वेच्छया कृतवान्शंभुरिदं सर्वं न संशयः ।। ३९ ।।

इस प्रकार नारद से कहकर दयालु भगवान् विष्णु ने उनसे पुनः कहा हे मुने ! आप शोक न करें । आपने तो कुछ किया ही नहीं है । यह सब तो भगवान् शंकर ने अपनी इच्छा से किया है । इसमें शंका नहीं है ॥ ३८-३९ ॥

अहार्षित्त्वन्मतिं दिव्यां काम क्लेशमदात्स ते।।

त्वन्मुखाद्दापयांचक्रे शापं मे स महेश्वरः ।। ४० ।।

उन्होंने ही आपकी दिव्य बुद्धि का हरण कर लिया था । उन्होंने ही आपको काम का कष्ट भी दिया और उन्हीं भगवान् शंकर ने आपके मुख से मुझे यह शाप भी दिलाया है ॥ ४० ॥

इत्थं स्वचरितं लोके प्रकटीकृतवान् स्वयम् ।।

मृत्युंजयः कालकालो भक्तोद्धारपरायणः ।। ४१ ।।

इस प्रकार उन्होंने संसार में अपने चरित्र को स्वयं प्रकट किया है [इसमें अन्य किसीका दोष नहीं है] । वे मृत्यु को जीतनेवाले, काल के भी काल और भक्तों का उद्धार करने में तत्पर रहनेवाले हैं ॥ ४१ ॥

न मे शिवसमानोस्ति प्रियः स्वामी सुखप्रदः ।।

सर्वशक्तिप्रदो मेऽस्ति स एव परमेश्वरः ।। ४२ ।।

मुझे शिव के समान अन्य कोई प्रिय नहीं है । वे ही मेरे स्वामी हैं, सुख और शक्ति देनेवाले हैं । वे महेश्वर ही मेरे सब कुछ हैं ॥ ४२ ॥

तस्योपास्यां कुरु मुने तमेव सततं भज ।।

तद्यशः शृणु गाय त्वं कुरु नित्यं तदर्चनम् ।। ४३ ।।

हे मुने ! आप उन्हीं की उपासना करें, सदैव उन्हीं का भजन करें, उन्हीं के यश का श्रवण और गान करें तथा नित्य उन्हीं की अर्चना करें ॥ ४३ ॥

कायेन मनसा वाचा यश्शंकरमुपैति भो ।।

स पण्डित इति ज्ञेयस्स जीवन्मुक्त उच्यते ।। ४४ ।।

हे मुने ! जो शरीर, मन तथा वाणी से शंकर को प्राप्त कर लेता है, वही पण्डित है ऐसा जानना चाहिये और वही जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ४४ ॥

शिवेति नामदावाग्नेर्महापातकप र्वताः ।।

भस्मीभवन्त्यनायासात्सत्यं सत्यं न संशयः ।।४५।।

शिव-नामरूपी इस दावाग्नि से महापातकरूपी पर्वत अनायास ही जलकर भस्म हो जाते हैं, यह पूर्णतया सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४५ ॥

पापमूलानि दुःखानि विविधान्यपि तान्यतः ।।

शिवार्चनैकनश्यानि नान्य नश्यानि सर्वथा ।। ४६ ।।

संसार में पापों के मूलभूत जितने भी प्रकार के दुःख हैं, वे सर्वथा मात्र शिवपूजन से ही नष्ट हो जाते हैं । अन्य उपायों से [उनका] नाश सम्भव नहीं है ॥ ४६ ॥

स वैदिकस्य पुण्यात्मा स धन्यस्स बुधो मुने ।।

यस्सदा कायवाक्चित्तैश्शरणं याति शंकरम् ।। ४७ ।।

हे मुने ! वही वैदिक है, वही पुण्यात्मा है, वही धन्य है और वही बुद्धिमान् है, जो सदा शरीर, वाणी और मन से भगवान् शंकर की शरण में चला जाता है ॥ ४७ ॥

भवंति विविधा धर्मा येषां सद्यःफलोन्मुखाः ।।

तेषां भवति विश्वासस्त्रिपुरांतकपूजने ।। ४८ ।।

जिनके विविध प्रकार के धर्मकृत्य तत्काल फलोन्मुख (फल देनेवाले) होते हैं, उनका पूर्ण विश्वास त्रिपुर के विनाशक शिव में होता है ॥ ४८ ॥

पातकानि विनश्यंति यावंति शिवपूजया ।।

भुवि तावंति पापानि न संत्येव महामुने ।।४९।।

महामुने ! शिव की पूजा से जितने पाप नष्ट हो जाते हैं, उतने पाप तो पृथ्वी में हैं ही नहीं ॥ ४९ ॥

ब्रह्महत्यादिपापानां राशयोप्यमिता मुने ।।

शिवस्मृत्या विनश्यंति सत्यंसत्यं वदाम्यहम् ।।५०।।

हे मुने ! ब्रह्महत्यादि पापों की अपरिमित राशियाँ भी शिव का स्मरण करने से नष्ट हो जाती हैं, यह मैं पूर्ण सत्य कह रहा हूँ ॥ ५० ॥

शिवनामतरीं प्राप्य संसाराब्धिं तरंति ते।।

संसारमूलपापानि तस्य नश्यंत्यसंशयम्।।५१।।

शिव-नाम का कीर्तन करनेवाले लोग ही शिवनाम की नौका से संसाररूपी सागर को पार कर जाते हैं । संसार का मूल पाप-समूह है, उसका नाश नामकीर्तन से निश्चित ही हो जाता है ॥ ५१ ॥

संसारमूलभूतानां पातकानां महामुने ।।

शिवनामकुठारेण विनाशो जायते ध्रुवम् ।। ५२ ।।

हे महामुने ! शिवनामरूपी कुठार से संसार के मूलभूत पापों का नाश अवश्य हो जाता है ॥ ५२ ॥

शिवनामामृतं पेयं पापदावानलार्दितैः ।।

पापदावाग्नितप्तानां शांतिस्तेन विना न हि ।।५३।।

पापरूपी दावानल से दग्ध हुए लोगों को शिवनामरूपी अमृत पीना चाहिये, पाप की दावाग्नि से तपे हुए लोगों को उसके बिना शान्ति देने का कोई अन्य उपाय नहीं मिल सकता ॥ ५३ ॥

शिवेति नामपीयूषवर्षधारापरिप्लुतः ।।

संसारदवमध्यपि न शोचति न संशयः ।।५४।।

शिव-इस नाम की अमृतमयी वर्षा की धारा से नहाये हुए लोग संसार के पापों की दावाग्नि के मध्य रहते हुए भी शोक नहीं करते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ५४ ॥

न भक्तिश्शंकरे पुंसां रागद्वेषरतात्मनाम् ।।

तद्विधानां हि सहसा मुक्तिर्भवति सर्वथा ।।५५।।

राग-द्वेष में निरन्तर लगे रहनेवाले लोगों की शिव के प्रति भक्ति नहीं होती है, किंतु इसके विपरीत अर्थात् पापों से विरत रहनेवाले लोगों की मुक्ति तो निश्चित ही होती है ॥ ५५ ॥

अनंतजन्मभिर्येन तपस्तप्तं भविष्यति।।

तस्यैव भक्तिर्भवति भवानी प्राणवल्लभे।।५६।।

जिसने अनन्त जन्मों में अपनी तपस्या से शरीर को जलाया होगा, उसीकी भक्ति भवानीप्राणवल्लभ शिव के लिये सम्भव है ॥ ५६ ॥

जातापि शंकरे भक्तिरन्यसाधारणी वृथा।।

परं त्वव्यभिचारेण शिवभक्तिरपेक्षिता ।।५७।।

भगवान् शिव के प्रति अनन्यतापूर्वक की गयी शिव-नाम-भक्तिके अतिरिक्त अन्य साधारण भक्ति व्यर्थ ही हो जाती है ॥ ५७ ॥

यस्या साधारणी शंभौ भक्तिरव्यभिचारिणी।।

तस्यैव मोक्षस्सुलभो नास्येतिन्य मतिर्मम।।५८।।

भगवान् शिव के प्रति जिसकी भक्ति एकनिष्ठ तथा असाधारण होती है, उसको ही मोक्ष प्राप्त होता है । अन्य के लिये वह सुलभ नहीं है ऐसा मेरा विश्वास है ॥ ५८ ॥

कृत्वाप्यनंतपापानि यदि भक्तिर्महेश्वरे ।।

सर्वपापविनिर्मुक्तो भवत्येव न संशयः।।५९।।

अनन्त पाप करने के पश्चात् भी यदि प्राणी भगवान् शंकर में भक्ति करने लगता है, तो वह सभी पापों से निर्मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५९ ॥

भवंति भस्मसाद्वृक्षादवदग्धा यथा वने ।।

तथा भवंति दग्धानि शांकराणामघान्यपि ।।६०।।

जिस प्रकार वन में दावाग्नि से वृक्ष [जलकर] भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिव-भक्तों के पाप भी [शिवभक्ति के प्रभाव से] नष्ट हो जाते हैं ॥ ६० ॥

यो नित्यं भस्मपूतांगो शिवपूजोन्मुखो भवेत्।।

स तरत्येव संसारमपारमतिदारुणम्।।६१।।

जो मनुष्य नित्य अपने शरीर को भस्म से पवित्रकर शिव की पूजा में लगा रहता है, वह महान् कष्ट देनेवाले संसाररूपी अपार सागर को निश्चित ही पार कर जाता है ॥ ६१ ॥

ब्रह्मस्वहरणं कृत्वा हत्वापि ब्राह्मणान्बहून् ।।

लिप्यते नरः पापैर्विरूपाक्षस्य सेवकः ।। ६२ ।।

ब्राह्मणों का धन हरण करके और बहुत से ब्राह्मणों की हत्या करके भी जो मनुष्य विरूपाक्ष भगवान् शंकर की सेवामें लग जाता है, उसे उन पापों से लिप्त नहीं होना पड़ता ॥ ६२ ॥

विलोक्य वेदानखिलाञ्छिवस्यैवार्चनम्परम् ।।

संसारनाशनोपाय इति पूर्वैर्विनिश्चितम् ।।६३।।

सम्पूर्ण वेदों का अवलोकन करके पूर्ववर्ती विद्वानों ने यही निश्चय किया है कि भगवान् शिव की पूजा ही संसार-बन्धन के नाश का उपाय है ॥ ६३ ॥

अद्यप्रभृति यत्नेन सावधानो यथाविधि।।

साम्बं सदाशिवं भक्त्या भज नित्यं महेश्वरम्।।६४।।

 [हे मुने!] आज से यत्नपूर्वक सावधान रहकर विधि-विधान के साथ भक्तिभाव से नित्य जगदम्बा पार्वतीसहित महेश्वर सदाशिव का भजन कीजिये ॥ ६४ ॥

आपादमस्तकं सम्यक् भस्मनोद्धूल्य सादरम् ।।

सर्वश्रुतिश्रुतं शैवम्मंत्रञ्जप षडक्षरम् ।।६५।।

पैर से लेकर सिर तक भस्म का लेपन करके सम्यक् रूप से आदरपूर्वक सभी श्रुतियों से सुने गये षडक्षर शैवमन्त्र (ॐ नमः शिवाय)-का जप कीजिये ॥ ६५ ॥

सवार्ङ्गेषु प्रयत्नेन रुद्राक्षाञ्छिववल्लभान्।।

धारयस्वातिसद्भक्त्या समन्त्रम्विधिपूर्वकम् ।।६६।।

प्रयत्नपूर्वक [बताये गये नियमानुसार] भगवान् । शिव के प्रिय रुद्राक्ष को धारण करके अत्यन्त सद्भक्ति से ही सविधि मन्त्र का जप करना चाहिये ॥ ६६ ॥

शृणु शैवीं कथां नित्यं वद शैवीं कथां सदा ।।

पूजयस्वातियत्नेन शिवभक्तान्पुनः पुनः ।। ६७ ।।

नित्य शिव की ही कथा सुनिये और कहिये । अत्यन्त यत्न करके बारम्बार शिव-भक्तों का पूजन किया कीजिये ॥ ६७ ॥

अप्रमादेन सततं शिवैकशरणो भव ।।

शिवार्चनेन सततमानन्दः प्राप्यते यतः ।।६८।।

प्रमाद से रहित होकर सदा एकमात्र शिव की शरण में रहिये, क्योंकि शिव के पूजन से ही निरन्तर आनन्द प्राप्त होता रहता है ॥ ६८ ॥

उरस्याधाय विशदे शिवस्य चरणाम्बुजौ ।।

शिवतीर्थानि विचर प्रथमं मुनिसत्तम ।।६९।।

हे मुनिश्रेष्ठ ! अपने हृदय में भगवान् शिव के उज्ज्वल चरणारविन्दों की स्थापना करके पहले शिव के तीर्थों में विचरण कीजिये ॥ ६९ ॥

पश्यन्माहात्म्यमतुलं शंकरस्य परात्मनः ।।

गच्छानन्दवनं पश्चाच्छंभुप्रियतमं मुने ।।७० ।।

हे मुने ! इस प्रकार परमात्मा शंकर के अनुपम माहात्म्य का दर्शन करते हुए अन्त में आनन्दवन (काशी) जाइये, वह स्थान भगवान् शिव को बहुत ही प्रिय है ॥ ७० ॥

तत्र विश्वेश्वरं दृष्ट्वा पूजनं कुरु भक्तितः ।।

नत्वा स्तुत्वा विशेषेण निर्विकल्पो भविष्यसि ।।७१।।

वहाँ विश्वनाथजी का दर्शन करके भक्तिपूर्वक उनकी पूजा कीजिये । विशेषतः उनकी स्तुति-वन्दना करके आप निर्विकल्प (संशयरहित) हो जायँगे ॥ ७१ ॥

ततश्च भवता नूनं विधेयं गमनं मुने ।।

ब्रह्मलोके स्वकामार्थं शासनान्मम भक्तितः ।। ७२ ।।

हे मुने ! इसके बाद आपको मेरी आज्ञा से भक्तिपूर्वक अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये निश्चय ही ब्रह्मलोक में जाना चाहिये ॥ ७२ ॥

नत्वा स्तुत्वा विशेषेण विधिं स्वजनकं मुने ।।

प्रष्टव्यं शिवमाहात्म्यं बहुशः प्रीतचेतसा ।।७३।।

हे मुने ! वहाँ अपने पिता ब्रह्माजी की विशेषरूप से स्तुति-वन्दना करके आपको प्रसन्नतापूर्ण हृदय से बारम्बार शिव-महिमा के विषय में प्रश्न करना चाहिये ॥ ७३ ॥

स शैवप्रवरो ब्रह्मा माहात्म्यं शंकरस्य ते ।।

श्रावयिष्यति सुप्रीत्या शतनामस्तवं च हि ।।७४।।

ब्रह्माजी शिव-भक्तों में श्रेष्ठ हैं, वे आपको अत्यन्त प्रसन्नता के साथ भगवान् शंकर का माहात्म्य और शतनामस्तोत्र सुनायेंगे ॥ ७४ ॥

अद्यतस्त्वं भव मुने शैवश्शिवपरायणः ।।

मुक्तिभागी विशेषेण शिवस्ते शं विधास्यति ।। ७५ ।।

हे मुने ! आज से आप शिवाराधन में तत्पर रहनेवाले शिवभक्त हो जाइये और विशेषरूप से मोक्ष के भागी बनिये । भगवान् शिव आपका कल्याण करेंगे॥ ७५ ॥

इत्थं विष्णुर्मुनिं प्रीत्या ह्युपदिश्य प्रसन्नधीः ।।

स्मृत्वा नुत्वा शिवं स्तुत्वा ततस्त्वंतरधीयत ।।७६।।

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखंडे सृष्ट्युपाख्याने नारदस्य विष्णूपदेशवर्णनो नाम चतुर्थोऽध्यायः ।।४।।

इस प्रकार प्रसन्नचित्त हुए भगवान् विष्णु नारदमुनि को प्रेमपूर्वक उपदेश देकर शिवजी का स्मरण, वन्दन और स्तवन करके वहाँ से अन्तर्धान हो गये ॥ ७६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में नारद-विष्णु-उपदेश-वर्णन नामक चतुर्थ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥

शेष जारी .............. शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]