शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता प्रथम-सृष्टिखण्ड – अध्याय 01
इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता पढ़ा, अब शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता प्रथम-सृष्टिखण्ड – अध्याय 01 पहला अध्याय ऋषियों के प्रश्न के उत्तर में श्रीसूतजी द्वारा नारद-ब्रह्म-संवाद की अवतारणा।
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [ प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय
01
शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०१
शिवपुराणम् | संहिता
२ (रुद्रसंहिता)
| खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)
।। श्रीगणेशायः नमः ।।
।। श्रीगौरीशंकराभ्यां नमः ।।
।। श्री साम्बसदाशिवाय नमः ।।
अथ द्वितीया रुद्रसंहिता प्रारभ्यते
।।
विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु
हेतुमेकं गौरीपतिं विदिततत्त्वमनन्तकीर्तिम् ।
मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यरूपं
बोधस्वरूपममलं हि शिवं नमामि ॥१ ॥
जो विश्व की उत्पत्ति-स्थिति और लय
आदि के एकमात्र कारण हैं, गिरिराजकुमारी उमा
के पति हैं, तत्त्वज्ञ हैं, जिनकी
कीर्ति का कहीं अन्त नहीं है, जो माया के आश्रय होकर भी उससे
अत्यन्त दूर हैं, जिनका स्वरूप अचिन्त्य है, जो बोधस्वरूप हैं तथा निर्विकार हैं, उन भगवान् शिव
को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥
वन्दे
शिवन्तम्प्रकृतेरनादिम्प्रशान्तमेकम्पुरुषोत्तमं हि ।।
स्वमायया कृत्स्नमिदं हि सृष्ट्वा
नभोवदन्तर्बहिरास्थितो यः ।।२ ।।
मैं स्वभाव से ही उन अनादि,
शान्तस्वरूप, पुरुषोत्तम शिव की वन्दना करता
हूँ, जो अपनी माया से इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करके आकाश
की भाँति इसके भीतर और बाहर भी स्थित हैं ॥ २ ॥
वन्देतरस्थं निजगूढरूपं
शिवंस्वतस्स्रष्टुमिदम्विचष्टे ।।
जगन्ति नित्यम्परितो भ्रमंति
यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवत्तम् ।। ३ ।।
जैसे लोहा चुम्बक से आकृष्ट होकर
उसके पास ही लटका रहता है, उसी प्रकार ये सारे
जगत् सदा सब ओर जिसके आस-पास ही भ्रमण करते हैं, जिन्होंने
अपने से ही इस प्रपंच को रचने की विधि बतायी थी, जो सबके
भीतर अन्तर्यामीरूप से विराजमान हैं तथा जिनका अपना स्वरूप अत्यन्त गूढ़ है,
उन भगवान् शिव की मैं सादर वन्दना करता हूँ ॥ ३ ॥
व्यास उवाच ।।
जगतः पितरं शम्भुञ्जगतो मातरं
शिवाम् ।।
तत्पुत्रश्च
गणाधीशन्नत्वैतद्वर्णयामहे ।।४।।
व्यासजी बोले —
जगत् के पिता भगवान् शिव, जगन्माता कल्याणमयी
पार्वती तथा उनके पुत्र गणेशजी को नमस्कार करके हम इस पुराण का वर्णन करते हैं ॥ ४
॥
एकदा मुनयस्सर्वे नैमिषारण्य वासिनः
।।
पप्रच्छुर्वरया भक्त्या सूतन्ते
शौनकादयः ।। ५ ।।
एक समय की बात है,
नैमिषारण्य में निवास करनेवाले शौनक आदि सभी मुनियों ने उत्तम
भक्तिभाव के साथ सूतजी से पूछा — ॥ ५ ॥
ऋषय ऊचुः ।।
विद्येश्वरसंहितायाः श्रुता सा
सत्कथा शुभा ।।
साध्यसाधनखंडा ख्या रम्याद्या
भक्तवत्सला ।।६।।
ऋषिगण बोले —
[हे सूतजी !] विद्येश्वरसंहिता की जो साध्य-साधन-खण्ड नामवाली शुभ
तथा उत्तम कथा है, उसे हमलोगों ने सुन लिया । उसका आदिमाग
बहुत ही रमणीय है तथा वह शिवभक्तों पर भगवान् शिव का वात्सल्य-स्नेह प्रकट
करनेवाली है ॥ ६ ॥
सूत सूत महाभाग चिरञ्जीव सुखी भव ।।
यच्छ्रावयसि नस्तात शांकरीं परमां
कथाम् ।। ७ ।।
पिबन्तस्त्वन्मुखाम्भोजच्युतं
ज्ञानामृतम्वयम्।।
अवितृप्ताः पुनः
किंचित्प्रष्टुमिच्छामहेऽनघ ।।८।।
हे महाभाग ! हे सूतजी ! हे तात ! आप
हमलोगों को सदाशिव भगवान् शंकर की उत्तम कथा का श्रवण करा रहे हैं,
अतएव आप चिरकाल तक जीवित रहें और सदा सुखी रहें । आपके मुखकमल से
निकल रहे ज्ञानामृत का पूर्ण रूप से पान करते हुए भी हमलोग तृप्त नहीं हो पा रहे
हैं, इसलिये हे अनघ (पुण्यात्मा) ! हम सब पुनः कुछ पूछना
चाहते हैं ॥ ७-८ ॥
व्यासप्रसादात्सर्वज्ञो प्राप्तोऽसि
कृतकृत्यताम् ।।
नाज्ञातम्विद्यते किंचिद्भूतं भब्यं
भवच्च यत्।।९।।
भगवान् व्यास की कृपा से आप सर्वज्ञ
एवं कृतकृत्य हैं । आपके लिये भूत-भविष्य और वर्तमान का कुछ भी अज्ञात नहीं है
अर्थात् सब कुछ आपको ज्ञात है ॥ ९ ॥
गुरोर्व्यासस्य सद्भक्त्या समासाद्य
कृपां पराम् ।।
सर्वं ज्ञातं विशेषेण सर्वं सार्थं
कृतं जनुः ।।१०।।
अपनी सद्भक्ति के द्वारा गुरु
व्यासजी से परमकृपा को प्राप्तकर आप विशेष रूप से सब कुछ जान गये हैं और अपने
सम्पूर्ण जीवन को भी कृतार्थ कर लिया है ॥ १० ॥
इदानीं कथय प्राज्ञ शिवरूपमनुत्तमम्
।।
दिव्यानि वै चरित्राणि
शिवयोरप्यशेषतः ।।११।।
हे विद्वन् ! अब आप भगवान् शिव के
परम उत्तम स्वरूप का वर्णन कीजिये । साथ ही शिव और पार्वती के दिव्य चरित्रों का
पूर्णरूप से श्रवण कराइये ॥ ११ ॥
अगुणो गुणतां याति कथं लोके
महेश्वरः ।।
शिवतत्त्वं वयं सर्वे न जानीमो
विचारतः ।।१२।।
निर्गुण महेश्वर लोक में सगुणरूप
कैसे धारण करते हैं ? हम सबलोग विचार
करने पर भी शिव के तत्त्व को नहीं समझ पाते ॥ १२ ॥
सृष्टेः पूर्वं कथं
शंभुस्स्वरूपेणावतिष्ठते ।।
सृष्टिमध्ये स हि कथं
क्रीडन्संवर्त्तते प्रभुः ।।१३।।
तदन्ते च कथन्देवस्स तिष्ठति
महेश्वरः ।।
कथम्प्रसन्नतां याति शंकरो
लोकशंकरः।।१४।।
सृष्टि के पूर्व में भगवान् शिव किस
प्रकार अपने स्वरूप से स्थित होते हैं, पुनः
सृष्टि के मध्यकाल में वे भगवान् किस तरह क्रीड़ा करते हुए सम्यक् व्यवहार करते
हैं । सृष्टिकल्प का अन्त होने पर वे महेश्वरदेव किस रूप में स्थित रहते हैं ?
लोककल्याणकारी शंकर कैसे प्रसन्न होते हैं ॥ १३-१४ ॥
स प्रसन्नो महेशानः किं प्रयच्छति
सत्फलम् ।।
स्वभक्तेभ्यः परेभ्यश्च तत्सर्वं
कथयस्व नः ।।१५।।
सद्यः प्रसन्नो
भगवान्भवतीत्यनुशश्रुम।।
भक्तप्रयासं स महान्न पश्यति
दयापरः।।१६।।
प्रसन्न हुए महेश्वर अपने भक्तों
तथा दूसरों को कौन-सा उत्तम फल प्रदान करते हैं ? यह सब हमसे कहिये । हमने सुना है कि भगवान् शिव शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं
। वे महान् दयालु हैं, इसलिये वे अपने भक्तों का कष्ट नहीं
देख सकते ॥ १५-१६ ॥
ब्रह्माविष्णुर्महेशश्च त्रयो
देवाश्शिवांगजाः ।।
महेशस्तत्र पूर्णांशस्स्वयमेव
शिवोऽपरः ।। १७ ।।
तस्याविर्भावमाख्याहि चरितानि
विशेषतः ।।
उमाविर्भावमाख्याहि तद्विवाहं तथा
प्रभो ।। १८ ।।
तद्गार्हस्थ्यं विशेषेण तथा लीलाः
परा अपि ।।
एतत्सर्वं तदन्यच्च कथनीयं त्वयाऽनघ
।।१९।।
ब्रह्मा,
विष्णु और महेश — ये तीनों देवता शिव के ही
अंग से उत्पन्न हुए हैं । इनमें महेश तो पूर्णाश हैं, वे
स्वयं ही दूसरे शिव हैं । आप उनके प्राकट्य की कथा तथा उनके विशेष चरित्रों का
वर्णन कीजिये । हे प्रभो ! आप उमा के आविर्भाव और उनके विवाह की भी कथा कहिये ।
विशेषतः उनके गार्हस्थ्यधर्म का और अन्य लीलाओं का भी वर्णन कीजिये । हे निष्पाप
सूतजी ! ये सब तथा अन्य बातें भी आप बतायें ॥ १७-१९ ॥
व्यास उवाच।।
इति पृष्टस्तदा तैस्तु सूतो
हर्षसमन्वितः।
स्मृत्वा शंभुपदांभोजम्प्रत्युवाच
मुनीश्वरान् ।।२०।।
व्यासजी बोले —
उनके ऐसा पूछने पर सूतजी प्रसन्न हो उठे और भगवान् शंकर के चरणकमलों
का स्मरण करके मुनीश्वरों से कहने लगे — ॥ २० ॥
सूत उवाच ।।
सम्यक्पृष्टं भवद्भिश्च धन्या यूयं
मुनीश्वराः।।
सदाशिवकथायां वो यज्जाता नैष्ठिकी
मतिः ।।२१।।
सदाशिवकथाप्रश्नः
पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि ।।
वक्तारं पृच्छकं
श्रोतॄञ्जाह्नवीसलिलं यथा ।। २२ ।।
सूतजी बोले —
हे मुनीश्वरो ! आपलोगों ने बड़ी उत्तम बात पूछी है । आपलोग धन्य हैं,
जो कि भगवान् सदाशिव की कथा में आपलोगों की आन्तरिक निष्ठा हुई है,
सदाशिव से सम्बन्धित कथा वक्ता, पूछनेवाले और
सुननेवाले — इन तीनों प्रकार के पुरुषों को गंगाजी के समान
पवित्र करती है ॥ २१-२२ ॥
शंभोर्गुणानुवादात्को विरज्येत
पुमान्द्विजाः ।
विना पशुघ्नं
त्रिविधजनानन्दकरात्सदा।।२३।।
गीयमानो वितृष्णैश्च भवरोगौषधोऽपि
हि ।।
मनःश्रोत्राभिरामश्च
यत्तस्सर्वार्थदस्स वै ।।२४।।
हे द्विजो ! पशुओं की हिंसा
करनेवाले निष्ठुर कसाई के सिवा दूसरा कौन पुरुष तीनों प्रकार के लोगों को सदा
आनन्द देनेवाले शिव-गुणानुवाद को सुनने से ऊब सकता है । जिनके मन में कोई तृष्णा
नहीं है,
ऐसे महात्मा पुरुष भगवान् शिव के उन गुणों का गान करते हैं; क्योंकि वह संसाररूपी रोग की दवा है, मन तथा कानों
को प्रिय लगनेवाला है और सम्पूर्ण मनोरथों को देनेवाला है ॥ २३-२४ ॥
कथयामि यथाबुद्धि भवत्प्रश्नानुसारतः
।।
शिवलीलां प्रयत्नेन द्विजास्तां
शृणुतादरात् ।। २५ ।।
हे ब्राह्मणो ! आपलोगों के प्रश्न
के अनुसार मैं यथाबुद्धि प्रयत्नपूर्वक शिवलीला का वर्णन करता हूँ,
आपलोग आदरपूर्वक सुनें ॥ २५ ॥
भवद्भिः पृच्छ्यते यद्वत्तत्तथा
नारदेन वै ।।
पृष्टं पित्रे प्रेरितेन हरिणा
शिवरूपिणा ।। २६ ।।
ब्रह्मा श्रुत्वा सुतवचश्शिवभक्तः
प्रसन्नधीः ।।
जगौ शिवयशः प्रीत्या
हर्षयन्मुनिसत्तमम् ।। २७ ।।
जैसे आपलोग पूछ रहे हैं,
उसी प्रकार नारदजी ने शिवरूपी भगवान् विष्णु से प्रेरित होकर अपने
पिता ब्रह्माजी से पूछा था । अपने पुत्र नारद का प्रश्न सुनकर शिवभक्त ब्रह्माजी
का चित्त प्रसन्न हो गया और वे उन मुनिश्रेष्ठ को हर्ष प्रदान करते हुए
प्रेमपूर्वक भगवान् शिव के यश का गान करने लगे ॥ २६-२७ ॥
व्यास उवाच ।।
सूतोक्तमिति तद्वाक्यमाकर्ण्य
द्विजसत्तमाः ।।
पप्रच्छुस्तत्सुसंवादं
कुतूहलसमन्विताः ।। २८ ।।
व्यासजी बोले —
सूतजी के द्वारा कथित उस वचन को सुनकर वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण
आश्चर्यचकित हो उठे और उन लोगों ने उस विषय को उनसे पूछा — ॥
२८ ॥
ऋषय ऊचुः ।।
सूत सूत महाभाग शैवोत्तम महामते ।।
श्रुत्वा तव वचो रम्यं चेतो
नस्सकुतूहलम् ।। २९ ।।
ऋषिगण बोले —
हे सूतजी ! हे महाभाग ! हे शिवभक्तों में श्रेष्ठ ! हे महामते !
आपके सुन्दर वचन को सुनकर हमारे हृदय में कौतूहल हो रहा है ॥ २९ ॥
कदा बभूव
सुखकृद्विधिनारदयोर्महान् ।।
संवादो यत्र गिरिशसु लीला भवमोचिनी
।।३०।।
ब्रह्मा और नारद का यह महान् सुख
देनेवाला संवाद कब हुआ था, जिसमें संसार से
मुक्ति प्रदान करनेवाली शिवलीला वर्णित है ॥ ३० ॥
विधिनारदसंवादपूर्वकं शांकरं यशः ।।
ब्रूहि नस्तात तत्प्रीत्या तत्तत्प्रश्नानुसारतः
।।३१।।
हे तात ! प्रेमपूर्वक नारद के
द्वारा पूछे गये उन-उन प्रश्नों के अनुसार भगवान् शंकर के यश का गुणानुवाद
करनेवाले ब्रह्मा और नारद के संवाद का वर्णन करें ॥ ३१ ॥
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां मुनीनां
भावितात्मनाम् ।।
सूतः प्रोवाच सुप्रीतस्तत्संवादानुसारतः
।। ३२ ।।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां प्रथमखंडे सृष्ट्युपाख्याने मुनिप्रश्नवर्णनो नाम प्रथमोऽध्यायः ।।
१ ।।
आत्मज्ञानी उन मुनियों के ऐसे वचन
को सुनकर प्रसन्न हुए सूतजी उस ब्रह्मा-नारद-संवाद के अनुसार [कही गयी शिवकथाको]
कहने लगे ॥ ३२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके
अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिताके सृष्टिखण्डमें मुनि-प्रश्न-वर्णन नामक पहला अध्याय
पूर्ण हुआ॥१॥
शेष जारी .............. शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ०२
![शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 01 शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 01](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg0gRR5M7mBuQDJL6A66daMjzzA3bkZU_xOFFd-3wuGJtL6I6euIDQTs2LOk14K0DOWgpeLYE7fb7m32CN91cFOZ8BXV3NMQQ93h4L7ZPcJLtK0JkYfJcMOz_xMMY3Jnd9dvUt12OFSs1mw/s16000/%25E0%25A4%25B6%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25B9%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A3+%25E2%2580%2593+%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AF+%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%25B9%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25BE+%255B%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A5%25E0%25A4%25AE-%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2583%25E0%25A4%25B7%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%259F%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%2596%25E0%25A4%25A3%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A1%255D+%25E2%2580%2593+%25E0%25A4%2585%25E0%25A4%25A7%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AF%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25AF+01+++.webp)
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