Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2021
(800)
-
▼
August
(70)
- उच्छिष्ट गणपति सहस्रनामस्तोत्रम्
- उच्छिष्ट गणेश स्तोत्र
- उच्छिष्ट गणपति
- श्रीकृष्ण कवचम्
- कृष्णचन्द्राष्टकम्
- श्रीकृष्णद्वादशनामस्तोत्रम्
- नागपत्नीकृत कृष्णस्तुतिः
- श्रीकृष्ण कवचम्
- श्रीकृष्णस्तवराज
- राधामाधव प्रातः स्तवराज
- श्रीकृष्ण ब्रह्माण्ड पावन कवच
- श्रीयुगलकिशोराष्टक
- श्रीकृष्णस्तोत्रम्
- श्रीकृष्णशरणाष्टकम्
- श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्र
- कृष्ण जन्म स्तुति
- गर्भगतकृष्णस्तुति
- कृष्णाष्टकम्
- अद्वैताष्टकम्
- आनन्द चन्द्रिका स्तोत्रम्
- अच्युताष्टकम्
- मधुराष्टकम्
- वैदिक हवन विधि
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 17
- डी पी कर्मकांड भाग-१८ नित्य होम विधि
- डी पी कर्मकांड भाग-१७ कुशकंडिका
- भैरव
- रघुवंशम् छटवां सर्ग
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 16
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड– अध्याय 15
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 14
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 13
- हिरण्यगर्भ सूक्त
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 12
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 11
- कालसर्प दोष शांति मुहूर्त
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 10
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 09
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 08
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 07
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 06
- कालसर्प योग शांति प्रार्थना
- नागसहस्रनामावलि
- सदाशिवाष्टकम्
- सशक्तिशिवनवकम्
- सदाशिव शाकिनी कवचम्
- भैरव स्तुति
- शिवाष्टकम्
- शिवमहापुराण –रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 05
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 04
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 03
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 02
- शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता प्रथम-सृष्टिखण्ड...
- डी पी कर्मकांड भाग- १५ क्षेत्रपाल
- अग्न्युत्तारण प्राण-प्रतिष्ठा
- देवी देवताओं का गायत्री मन्त्र
- कालसर्प योग
- मार्तण्ड भैरव अष्टोत्तरशत नामावलि
- मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
- बटुक भैरव कवचम्
- नागराज अष्टोत्तरशतनामावलिः
- ब्रह्मस्तोत्रम्
- ब्रह्मस्तोत्रम् अथवा पञ्चरत्नस्तोत्रम्
- ब्रह्माष्टोत्तरशतनामावलिः
- श्रीमद्भागवतमहापुराण- चतुर्थ स्कन्ध- अध्याय- २४ (च...
- श्रीमहाकाल भैरव कवचम्
- महाकाल भैरव कवचम्
- श्रीब्रह्मकवचम्
- भैरवाष्टकम्
- मानसिक पूजा
-
▼
August
(70)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
शिवमहापुराण –
रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 10
इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 09 पढ़ा, अब शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 10 दसवाँ अध्याय श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं भोग-मोक्ष-दान का अधिकार देकर भगवान् शिव का अन्तर्धान होना।
शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः १०
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय
10
शिवपुराणम् | संहिता
२ (रुद्रसंहिता)
| खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)
परमेश्वर उवाच ।।
अन्यच्छृणु हरे विष्णो शासनं मम
सुव्रत।।
सदा सर्वेषु लोकेषु मान्यः पूज्यो
भविष्यसि।। १ ।।
शिवजी बोले —
उत्तम व्रत का पालन करनेवाले हे हरे ! हे विष्णो ! अब आप मेरी दूसरी
आज्ञा सुनें । उसका पालन करने से आप सदा समस्त लोकों में माननीय और पूजनीय होंगे ॥
१ ॥
ब्रह्मणा निर्मिते लोके यदा दुखं
प्रजायते ।।
तदा त्वं सर्वदुःखानां नाशाय तत्परो
भव ।। २ ।।
ब्रह्माजी के द्वारा रचे गये लोक
में जब कोई संकट उत्पन्न हो, तब आप उन
सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने के लिये सदा तत्पर रहना ॥ २ ॥
सहायं ते करिष्यामि सर्वकार्ये च
दुस्सहे ।।
तव शत्रून्हनिष्यामि
दुस्साध्यान्परमोत्कटान् ।। ३ ।।
मैं सम्पूर्ण दुस्सह कार्यों में
आपकी सहायता करूंगा । आपके दुर्जेय और अत्यन्त उत्कट शत्रुओं को मैं मार गिराऊँगा
॥ ३ ॥
विविधानवतारांश्च गृहीत्वा
कीर्तिमुत्तमाम् ।।
विस्तारय हरे लोके तारणाय परो भव ।।
४ ।।
हे हरे ! आप नाना प्रकार के अवतार
धारण करके लोक में अपनी उत्तम कीर्ति का विस्तार कीजिये और संसार में प्राणियों के
उद्धार के लिये तत्पर रहिये ॥ ४ ॥
गुणरूपो
ह्ययं रुद्रो ह्यनेन वपुषा सदा ।।
कार्यं करिष्ये लोकानां तवाशक्यं न
संशयः ।। ५ ।।
गुणरूप धारणकर मैं रुद्र निश्चित ही
अपने इस शरीर से संसार के उन कार्यो को करूंगा, जो
आपसे सम्भव नहीं हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५ ॥
रुद्रध्येयो भवांश्चैव भवद्ध्येयो
हरस्तथा ।।
युवयोरन्तरन्नैव तव रुद्रस्य किंचन
।। ६ ।।
आप रुद्र के ध्येय हैं और रुद्र
आपके ध्येय हैं । आप दोनों में और आप तथा रुद्र में कुछ भी अन्तर नहीं है ॥ ६ ॥
वस्तुतश्चापि चैकत्वं वरतोऽपि तथैव
च ।।
लीलयापि महाविष्णो सत्यं सत्यं न
संशयः ।। ७ ।।
हे महाविष्णो ! लीला से भेद होने पर
भी वस्तुतः आपलोग एक ही तत्त्व हैं । यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ७ ॥
रुद्रभक्तो नरो यस्तु तव निंदां
करिष्यति ।।
तस्य पुण्यं च निखिलं द्रुतं भस्म
भविष्यति ।। ८ ।।
जो मनुष्य रुद्र का भक्त होकर आपकी
निन्दा करेगा, उसका सारा पुण्य तत्काल भस्म हो
जायगा ॥ ८ ॥
नरके पतनं तस्य
त्वद्द्वेषात्पुरुषोत्तम ।।
मदाज्ञया भवेद्विष्णो सत्यं सत्यं न
संशयः ।। ९ ।।
हे पुरुषोत्तम विष्णो ! आपसे द्वेष
करने के कारण मेरी आज्ञा से उसको नरक में गिरना पड़ेगा । यह सत्य है,
सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ ९ ॥
लोकेऽस्मिन्मुक्तिदो नॄणां
भुक्तिदश्च विशेषतः ।।
ध्येयः पूज्यश्च भक्तानां निग्रहानुग्रहौ
कुरु ।। १० ।।
आप इस लोक में मनुष्यों के लिये
विशेषतः भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले और भक्तों के ध्येय तथा पूज्य होकर
प्राणियों का निग्रह और अनुग्रह कीजिये ॥ १० ॥
इत्युक्त्वा मां च धातारं हस्ते
धृत्वा स्वयं हरिम् ।।
कथयामास दुःखेषु सहायो भव सर्वदा ।।
११ ।।
ऐसा कहकर भगवान् शिव ने मेरा हाथ
पकड़ लिया और श्रीविष्णु को सौंपकर उनसे कहा — आप
संकट के समय सदा इनकी सहायता करते रहें ॥ ११ ॥
सर्वाध्यक्षश्च सर्वेषु
भुक्तिमुक्तिप्रदायकः ।।
भव त्वं सर्वथा
श्रेष्ठस्सर्वकामप्रसाधकः ।। १२ ।।
सबके अध्यक्ष होकर आप सभी को भक्ति
और मुक्ति प्रदान करें तथा सर्वदा समस्त कामनाओं के साधक एवं सर्वश्रेष्ठ बने रहें
॥ १२ ॥
सर्वेषां प्राणरूपश्च भव त्वं च
ममाज्ञया ।।
संकटे भजनीयो हि स रुद्रो
मत्तनुर्हरे ।। १३ ।।
हे हरे ! यह मेरी आज्ञा है कि आप
सबके प्राणस्वरूप होइये और संकटकाल आने पर निश्चय ही मेरे शरीररूप उस रुद्र का भजन
कीजिये ॥ १३ ॥
त्वां यस्समाश्रितो नूनं मामेव स
समाश्रितः।।
अंतरं
यश्च जानाति निरये पतति ध्रुवम् ।। १४ ।।
जो आपकी शरण में आ गया,
वह निश्चय ही मेरी शरण में आ गया । जो मुझमें और आपमें अन्तर समझता
है, वह अवश्य ही नरक में गिरता है ॥ १४ ॥
आयुर्बलं शृणुष्वाद्य त्रिदेवानां
विशेषतः ।।
संदेहोऽत्र न कर्त्तव्यो
ब्रह्मविष्णु हरात्मनाम् ।।१५ ।।
अब आप तीनों देवताओं के आयुबल को
विशेषरूप से सुनिये । ब्रह्मा, विष्णु और शिव
की एकता में [किसी प्रकारका] सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ १५ ॥
चतुर्युगसहस्राणि ब्रह्मणो
दिनमुच्यते ।।
रात्रिश्च तावती तस्य
मानमेतत्क्रमेण ह ।। १६ ।।
एक हजार चतुर्युग को ब्रह्मा का एक
दिन कहा जाता है और उतनी ही उनकी रात्रि होती है । इस प्रकार क्रम से यह ब्रह्मा
के एक दिन और एक रात्रि का परिमाण है ॥ १६ ॥
तेषां त्रिंशद्दिनेर्मासो
द्वादशैस्तैश्च वत्सरः।।
शतवर्षप्रमाणेन ब्रह्मायुः
परिकीर्तितम्।।१७।।
इस प्रकार के तीस दिनों का एक मास
और बारह मासों का एक वर्ष होता है । सौ वर्ष के परिमाण को ब्रह्मा की आयु कहा गया
है ॥ १७ ॥
ब्रह्मणो वर्षमात्रेण दिनं
वैष्णवमुच्यते ।।
सोऽपि वर्षशतं यावदात्ममानेन
जीवति।।१८।।
ब्रह्मा के एक वर्ष के बराबर विष्णु
का एक दिन कहा जाता है । वे विष्णु भी अपने सौ वर्ष के प्रमाण तक जीवित रहते हैं ॥
१८ ॥
वैष्णवेन तु वर्षेण दिनं रौद्रं
भवेद्ध्रुवम्।।
हरो वर्षशते याते नररूपेण
संस्थितः।।१९।।
विष्णु के एक वर्ष के बराबर रुद्र
का एक दिन होता है । भगवान् रुद्र भी उस मान के अनुसार नररूप में सौ वर्ष तक स्थित
रहते हैं ॥ १९ ॥
यावदुच्छ्वसितं वक्त्रे
सदाशिवसमुद्भवम् ।।
पश्चाच्छक्तिं समभ्येति
यावन्निश्वसितं भवेत् ।। २० ।।
निःश्वासोच्छ्वसितानां च सर्वेषामेव
देहिनाम् ।।
ब्रह्मविष्णुहराणां च
गंधर्वोरगरक्षसाम् ।।२१।।
एकविंशसहस्राणि शतैः षड्भिश्शतानि
च।।
अहोरात्राणि चोक्तानि प्रमाणं
सुरसत्तमौ ।।२२।।
तदनन्तर शिव के मुख से एक श्वास
निकलता है । और जब तक वह निकलता रहता है, तबतक
वह शक्ति को प्राप्तकर पुनः जब नि:श्वास लेते हैं, तबतक
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गन्धर्व, नाग और राक्षस आदि सभी देहधारियों के
नि:श्वास और उच्छ्वास को बाहर और भीतर ले जाने के क्रम की संख्या हे सुरसत्तम !
दिन-रात में मिलाकर इक्कीस हजार का सौ गुना एवं छ: सौ अर्थात् इक्कीस लाख छः सौ
कही गयी है ॥ २०-२२ ॥
षड्भिच्छवासनिश्वासैः पलमेकं
प्रवर्तितम् ।।
घटी षष्टि पलाः प्रोक्ता सा षष्ट्या
च दिनं निशा ।।२३।।
छः उच्छ्वास और छः निःश्वास का एक
पल होता है । साठ पलों की एक घटी और साठ घटीप्रमाण को एक दिन और रात्रि कहते हैं ॥
२३ ॥
निश्वासोच्छ्वासितानां च परिसंख्या न
विद्यते ।।
सदाशिवसमुत्थानमेतस्मात्सोऽक्षयः
स्मृतः ।। २४ ।।
सदाशिव के निःश्वासों और उच्छ्वासों
की गणना नहीं की जा सकती है । अतः शिवजी सदैव प्रबुद्ध और अक्षय हैं ॥ २४ ॥
इत्थं रूपं त्वया तावद्रक्षणीयं
ममाज्ञया ।।
तावत्सृष्टेश्च कार्यं वै कर्तव्यं विविधैर्गुणैः
।।२५।।
मेरी आज्ञा से तुम्हें अपने विविध
गुणों के द्वारा सृष्टि के इस प्रकार के होनेवाले कार्यों की रक्षा करनी चाहिये ॥
२५ ॥
ब्रह्मोवाच।।
इत्याकर्ण्य वचश्शंभोर्मया च
भगवान्हरिः।।
प्रणिपत्य च विश्वेशं प्राह मंदतरं
वशी ।। २६ ।।
ब्रह्माजी बोले —
हे देवर्षे ! भगवान् शिव का यह वचन सुनकर सबको वश में करनेवाले
भगवान् विष्णु मेरे साथ विश्वनाथ को प्रणाम करके मन्द स्वर में उनसे कहने लगे —
॥ २६ ॥
विष्णुरुवाच ।।
शंकर श्रूयतामेतत्कृपासिंधो जगत्पते
।।
सर्वमेतत्करिष्यामि भवदाज्ञावशानुगः
।। २७ ।।
विष्णुजी बोले —
हे शंकर ! हे करुणासिन्धो ! हे जगत्पते ! मेरी यह बात सुनिये । मैं
आपकी आज्ञा के अधीन रहकर यह सब कुछ करूंगा ॥ २७ ॥
मम ध्येयस्सदा त्वं च भविष्यसि न
चान्यथा ।।
भवतस्सर्वसामर्थ्यं लब्धं चैव पुरा
मया ।। २८ ।।
आप ही मेरे सदा ध्येय होंगे,
इसमें अन्यथा नहीं है । मैंने पूर्वकाल में भी आपसे समस्त सामर्थ्य
प्राप्त किया था ॥ २८ ॥
क्षणमात्रमपि स्वामिंस्तव ध्यानं
परं मम ।।
चेतसो दूरतो नैव निर्गच्छतु कदाचन
।। २९ ।।
हे स्वामिन् ! क्षणमात्र भी आपका
श्रेष्ठ ध्यान मेरे चित्त से कभी दूर न हो ॥ २९ ॥
मम भक्तश्च यः स्वामिँस्तव निंदा
करिष्यति ।।
तस्य वै निरये वासं प्रयच्छ नियतं
ध्रुवम् ।। ३० ।।
हे स्वामिन् ! मेरा जो भक्त आपकी
निन्दा करे, उसे आप निश्चय ही नरकवास प्रदान
करें ॥ ३० ॥
त्वद्भक्तो यो भवेत्स्वामिन्मम
प्रियतरो हि सः ।।
एवं वै यो विजानाति तस्य मुक्तिर्न
दुर्लभा ।। ३१ ।।
हे नाथ ! जो आपका भक्त है,
वह मुझे अत्यन्त प्रिय है । जो ऐसा जानता है, उसके
लिये मोक्ष दुर्लभ नहीं है ॥ ३१ ॥
महिमा च मदीयोद्य वर्द्धितो भवता
ध्रुवम् ।।
कदाचिदगुणश्चैव जायते क्षम्यतामिति
।। ३२ ।।
आज आपने निश्चय ही मेरी महिमा बढ़ा
दी है,
यदि कभी कोई अवगुण आ जाय, तो उसे क्षमा करें ॥
३२ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
तदा शंभुस्तदीयं हि श्रुत्वा
वचनमुत्तमम् ।।
उवाच विष्णुं सुप्रीत्या क्षम्या
तेऽगुणता मया ।। ३३ ।।
ब्रह्माजी बोले —
तदनन्तर विष्णु के द्वारा कहे गये श्रेष्ठ वचन को सुनकर शिवजी ने
अत्यन्त प्रीतिपूर्वक विष्णु से कहा कि मैंने आपके अवगुणों को क्षमा कर दिया है ॥
३३ ॥
एवमुक्त्वा हरिं नौ स कराभ्यां
परमेश्वरः ।।
पस्पर्श सकलांगेषु कृपया तु
कृपानिधिः ।।३४।।
विष्णु से ऐसा कहकर उन कृपानिधि
परमेश्वर ने कृपापूर्वक अपने हाथों से हम दोनों के सम्पूर्ण अंगों का स्पर्श किया ॥
३४ ॥
आदिश्य विविधान्धर्मान्सर्वदुःखहरो
हरः ।।
ददौ
वराननेकांश्चावयोर्हितचिकीर्षया।। ३५ ।।
सर्वदुःखहारी सदाशिव ने नाना प्रकार
के धर्मों का उपदेशकर हम दोनों के हित की इच्छा से अनेक प्रकार के वर दिये ॥ ३५ ॥
ततस्स भगवाञ्छंभुः कृपया भक्तवत्सलः
।।
दृष्टया संपश्यतो शीघ्रं
तत्रैवांतरधीयतः ।। ३६ ।।
इसके बाद भक्तवत्सल भगवान् शम्भु
कृपापूर्वक हमारी ओर देखकर हम दोनों के देखते-देखते शीघ्र वहीं अन्तर्धान हो गये ॥
३६ ॥
तदा प्रकृति
लोकेऽस्मिँल्लिंगपूजाविधिः स्मृतः ।।
लिंगे
प्रतिष्ठितश्शंभुर्भुक्तिमुक्तिप्रदायकः ।। ३७ ।।
तभी से इस लोक में लिंगपूजा का
विधान प्रचलित हुआ है । लिंग में प्रतिष्ठित भगवान् शिव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं
॥ ३७ ॥
लिंगवेदिर्महादेवी लिंगं
साक्षान्महेश्वरः ।।
लयनाल्लिंगमित्युक्तं तत्रैव निखिलं
जगत् ।। ३८ ।।
शिवलिंग की वेदी महादेवी का स्वरूप
है और लिंग साक्षात् महेश्वर है । लयकारक होने के कारण ही इसे लिंग कहा गया है;
इसमें सम्पूर्ण जगत् स्थित रहता है ॥ ३८ ॥
यस्तु लैंगं पठेन्नित्यमाख्यानं
लिंगसन्निधौ ।।
षण्मासाच्छिवरूपो वै नात्र कार्या
विचारणा ।। ३९ ।।
जो शिवलिंग के समीप स्थिर होकर
नित्य इस लिंग के आख्यान को पढ़ता है, वह
छः मास में ही शिवरूप हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं करना
चाहिये ॥ ३९ ॥
यस्तु लिंगसमीपे तु कार्यं
किंचित्करोति च ।।
तस्य पुण्यफलं वक्तुं न शक्नोमि
महामुने ।। ४० ।।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां प्रथमखंडे सृष्ट्युपाख्याने परम शिवतत्त्ववर्णनं नाम दशमोऽध्यायः
।। १० ।।
हे महामुने ! जो शिवलिंग के समीप
कोई भी कार्य करता है, उसके पुण्यफल का
वर्णन करने में मैं समर्थ नहीं हूँ ॥ ४० ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके
अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपाख्यान में
परमशिवतत्त्ववर्णन नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥
शेष जारी .............. शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः ११
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: