शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 13

शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड अध्याय 13  

इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] अध्याय 12 पढ़ा, अब शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड अध्याय 13 तेरहवाँ अध्याय शिवपूजन की सर्वोत्तम विधि का वर्णन।

शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 13

शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः १३

शिवपुराणम् | संहिता २ (रुद्रसंहिता) | खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)

शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] अध्याय 13

ब्रह्मोवाच ।।

अतः परं प्रवक्ष्यामि पूजाविधिमनुत्तमम् ।।

श्रूयतामृषयो देवास्सर्वकामसुखावहम् ।। १ ।।

ब्रह्माजी बोले अब मैं पूजा की सर्वोत्तम विधि बता रहा हूँ, जो समस्त अभीष्ट सुखों को सुलभ करानेवाली है । हे देवताओ तथा ऋषियो ! आपलोग ध्यान देकर सुनें ॥ १ ॥

ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय संस्मरेत्सांबकं शिवम् ।।

कुर्यात्तत्प्रार्थनां भक्त्या सांजलिर्नतमस्तकः ।। २ ।।

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ देवेश उत्तिष्ठ हृदयेशय ।।

उत्तिष्ठ त्वमुमास्वामिन्ब्रह्माण्डे मंगलं कुरु ।। ३ ।।

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः ।।

त्वया महादेव हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।। ४ ।।

उपासक को चाहिये कि वह ब्राह्म मुहूर्त में उठकर जगदम्बा पार्वतीसहित भगवान् शिव का स्मरण करे तथा हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर भक्तिपूर्वक उनसे इस प्रकार प्रार्थना करे हे देवेश्वर ! उठिये, उठिये । मेरे हृदय में शयन करनेवाले देवता ! उठिये । हे उमाकान्त ! उठिये और ब्रह्माण्ड में सबका मंगल कीजिये । मैं धर्म को जानता हूँ, किंतु मेरी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती, मैं अधर्म को जानता हूँ, परंतु मैं उससे दूर नहीं हो पाता । हे महादेव ! आप मेरे हृदय में स्थित होकर मुझे जैसी प्रेरणा देते हैं, वैसा ही मैं करता हूँ ॥ २-४ ॥

इत्युक्त्वा वचनं भक्त्या स्मृत्वा च गुरुपादके ।।

बहिर्गच्छेद्दक्षिणाशां त्यागार्थं मलमूत्रयोः ।। ५ ।।

भक्तिपूर्वक यह वचन कहकर और गुरु के चरणों का स्मरण करके गाँव से बाहर दक्षिण दिशा में मलमूत्र का त्याग करने के लिये जाय ॥ ५ ॥

देहशुद्धिं ततः कृत्वा स मृज्जलविशोधनैः ।।

हस्तौ पादौ च प्रक्षाल्य दंतधावनमाचरेत् ।। ६ ।।

इसके बाद मिट्टी और जल से शरीर की शुद्धि करके दोनों हाथों और पैरों को धोकर दन्तधावन करे ॥ ६ ॥

दिवानाथे त्वनुदिते कृत्वा वै दंतधावनम्।।

मुखं षोडशवारं तु प्रक्षाल्यांजलिभिस्तथा ।। ७ ।।

षष्ठ्याद्यमाश्च तिथयो नवम्यर्कदिने तथा ।।

वर्ज्यास्सुरर्षयो यत्नाद्भक्तेन रदधावने ।।८।।

सूर्योदय होने से पहले ही दातौन करके मुँह को सोलह बार जल की अँजलियों से धोये । हे देवताओ तथा ऋषियो ! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावास्या और नवमी तिथियों तथा रविवार के दिन शिवभक्त को यत्नपूर्वक दातौन को त्याग देना चाहिये ॥ ७-८ ॥

यथावकाशं सुस्नायान्नद्यादिष्वथवा गृहे ।।

देशकालाविरुद्धं च स्नानं कार्यं नरेण च ।।९।।

अवकाश के अनुसार नदी आदि में जाकर अथवा घर में ही भली-भाँति स्नान करे । मनुष्य को देश और काल के विरुद्ध स्नान नहीं करना चाहिये ॥ ९ ॥

रवेर्दिने तथा श्राद्धे संक्रान्तौ ग्रहणे तथा ।।

महादाने तथा तीर्थे ह्युपवासदिने तथा।।१०।।

अशौचेप्यथवा प्राप्ते न स्नायादुष्णवारिणा ।।

यथा साभिमुखंस्नायात्तीर्थादौ भक्तिमान्नरः ।। ११ ।।

रविवार, श्राद्ध, संक्रान्ति, ग्रहण, महादान, तीर्थ, उपवास-दिवस अथवा अशौच प्राप्त होने पर मनुष्य गर्म जल से स्नान न करे । शिवभक्ति से युक्त मनुष्य तीर्थ आदि में प्रवाह के सम्मुख होकर स्नान करे ॥ १०-११ ॥

तैलाभ्यंगं च कुर्वीत वारान्दृष्ट्वा क्रमेण च ।।

नित्यमभ्यंगके चैव वासितं वा न दूषितम्।।१२।।

जो नहाने के पहले तेल लगाना चाहे, उसे विहित एवं निषिद्ध दिनों का विचार करके ही तैलाभ्यंग करना चाहिये । जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तेल लगाता हो, उसके लिये किसी भी दिन तैलाभ्यंग करना दोषपूर्ण नहीं है । अथवा जो तेल इत्र आदि से वासित हो, उसका लगाना किसी भी दिन दूषित नहीं है ॥ १२ ॥

श्राद्धे च ग्रहणे चैवोपवासे प्रतिपद्दिने ।।

अथवा सार्षपं तैलं न दुष्येद्ग्रहणं विना ।।१३।।

श्राद्ध, ग्रहण, उपवास और प्रतिपदा के दिन तेल नहीं लगाना चाहिये । सरसों का तेल ग्रहण को छोड़कर किसी भी दिन दूषित नहीं होता ॥ १३ ॥

देशं कालं विचार्यैवं स्नानं कुर्याद्यथा विधि ।।

उत्तराभिमुखश्चैव प्राङ्मुखोप्यथवा पुनः।। १४ ।।

इस तरह देश-काल का विचार करके ही विधिपूर्वक स्नान करे । स्नान के समय अपने मुख को उत्तर अथवा पूर्व की ओर रखना चाहिये ॥ १४ ॥

उच्छिष्टेनैव वस्त्रेण न स्नायात्स कदाचन ।।

शुद्धवस्त्रेण संस्नायात्तद्देवस्मरपूर्वकम् ।। १५ ।।

उच्छिष्ट वस्त्र धारण करके स्नान कभी न करे । शुद्ध वस्त्र धारण करके इष्टदेव का स्मरण करते हुए स्नान करना चाहिये ॥ १५ ॥

परधार्य्यं च नोच्छिष्टं रात्रौ च विधृतं च यत् ।।

तेन स्नानं तथा कार्यं क्षालितं च परित्यजेत् ।। १६ ।।

जिस वस्त्र को दूसरे ने धारण किया हो तथा जिसे स्वयं रात में धारण किया गया हो, उससे तभी स्नान किया जा सकता है, जब उसे धो लिया गया हो ॥ १६ ॥

तर्पणं च ततः कार्यं देवर्षिपितृतृप्तिदम् ।।

धौतवस्त्रं ततो धार्यं पुनराचमनं चरेत् ।।१७।।

इसके पश्चात् देवताओं, ऋषियों तथा पितरों को तृप्ति देनेवाला तर्पण करना चाहिये । उसके बाद धुला हुआ वस्त्र पहने और आचमन करे ॥ १७ ॥

शुचौ देशे ततो गत्वा गोमयाद्युपमार्जिते ।।

आसनं च शुभं तत्र रचनीयं द्विजोत्तमाः ।। १८ ।।

शुद्धकाष्ठसमुत्पन्नं पूर्णं स्तरितमेव वा ।।

चित्रासनं तथा कुर्यात्सर्वकामफलप्र दम् ।।१९।।             

हे श्रेष्ठ द्विजो ! तदनन्तर गोबर आदि से लीपपोतकर स्वच्छ किये हुए शुद्ध स्थान में जाकर वहाँ सुन्दर आसन की व्यवस्था करे । वह आसन विशुद्ध काष्ठ का बना हुआ, पूरा फैला हुआ तथा चित्रमय होना चाहिये । ऐसा आसन सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देनेवाला है ॥ १८-१९ ॥

यथायोग्यं पुनर्ग्राह्यं मृगचर्मादिकं च यत् ।।

तत्रोपविश्य कुर्वीत त्रिपुंड्रं भस्मना सुधीः ।।२०।।

उसके ऊपर बिछाने के लिये यथायोग्य मृगचर्म आदि ग्रहण करे । शुद्ध बुद्धिवाला पुरुष उस आसन पर बैठकर भस्म से त्रिपुण्ड्र लगाये ॥ २० ॥

जपस्तपस्तथा दानं त्रिपुण्ड्रात्सफलं भवेत् ।।

अभावे भस्मनस्तत्र जलस्यादि प्रकीर्तितम् ।।२१।।

त्रिपुण्ड्र से जप, तप तथा दान सफल होते हैं । भस्म के अभाव में त्रिपुण्ड्र का साधन जल आदि बताया गया है ॥ २१ ॥

एवं कृत्वा त्रिपुंड्रं च रुद्राक्षान्धारयेन्नरः ।।

संपाद्य च स्वकं कर्म पुनराराधयेच्छिवम् ।। २२ ।।

इस तरह त्रिपुण्डू करके मनुष्य रुद्राक्ष धारण करे और अपने (सन्ध्योपासना आदि) नित्यकर्म का सम्पादन करके पुनः शिव की आराधना करे ॥ २२ ॥

पुनराचमनं कृत्वा त्रिवारं मंत्रपूर्वकम् ।।

एकं वाथ प्रकुर्याच्च गंगाबिन्दुरिति ब्रुवन्।।२३।।

तत्पश्चात् तीन बार मन्त्रपूर्वक आचमन करे अथवा गंगाबिन्दुः’ — ऐसा उच्चारण करते हुए एक बार आचमन करे ॥ २३ ॥

अन्नोदकं तथा तत्र शिवपूजार्थमाहरेत् ।।

अन्यद्वस्तु च यत्किंचिद्यथाशक्ति समीपगम् ।।२४।।

तत्पश्चात् वहाँ शिव की पूजा के लिये अन्न और जल लाकर रखे । दूसरी कोई भी जो वस्तु आवश्यक हो, उसे यथाशक्ति जुटाकर अपने पास रखे ॥ २४ ॥

कृत्वा स्थेयं च तत्रैव धैर्यमास्थाय वै पुनः ।।

अर्घं पात्रं तथा चैकं जलगंधाक्षतैर्युतम् ।। २५ ।।

दक्षिणांसे तथा स्थाप्यमुपचारस्य क्लृप्तये ।।

गुरोश्च स्मरणं कृत्वा तदनुज्ञामवाप्य च ।। २६ ।।

संकल्पं विधिवत्कृत्वा कामनां च नियुज्य वै ।।

पूजयेत्परया भक्त्या शिवं सपरिवारकम् ।।२७।।

इस प्रकार पूजन-सामग्री का संग्रह करके वहाँ धैर्य धारण करके जल, गन्ध और अक्षत से युक्त एक अर्घ्यपात्र लेकर उसे दाहिने भाग में रखे, उससे उपचार की सिद्धि होती है । फिर गुरु का स्मरण करके उनकी आज्ञा लेकर विधिवत् सकाम संकल्प करके पराभक्ति से सपरिवार शिव का पूजन करे ॥ २५-२७ ॥

मुद्रामेकां प्रदर्श्यैव पूजयेद्विघ्नहारकम्।।

सिंदुरादिपदार्थैश्च सिद्धिबुद्धिसमन्वितम् ।।२८।।

लक्षलाभयुतं तत्र पूजयित्वा नमेत्पुनः।।

चतुर्थ्यंतैर्नामपदैर्नमोन्तैः प्रणवादिभिः ।।२९।।

एक मुद्रा दिखाकर सिन्दूर आदि उपचारों द्वारा सिद्धि-बुद्धिसहित विघ्नहारी गणेश का पूजन करे । लक्ष और लाभ से युक्त गणेशजी का पूजन करके उनके नाम के आदि में प्रणव तथा अन्त में नमः जोड़कर नाम के साथ चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग करते हुए नमस्कार करे । यथा ॐ गणपतये नमः अथवा ॐ लक्षलाभयुताय सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः ॥ २८-२९ ॥

क्षमाप्यैनं तदा देवं भ्रात्रा चैव समन्वितम् ।।

पूजयेत्परया भक्त्या नमस्कुर्यात्पुनः पुनः ।। ३० ।।

तदनन्तर उनसे क्षमाप्रार्थना करके पुनः भाई कार्तिकेयसहित गणेशजी का पराभक्ति से पूजन करके उन्हें बारंबार नमस्कार करे ॥ ३० ॥

द्वारपालं सदा द्वारि तिष्ठंतं च महोदरम् ।।

पूजयित्वा ततः पश्चात्पूजयेद्गिरिजां सतीम् ।।३१।।

तत्पश्चात् सदा द्वार पर खड़े रहनेवाले महोदर का पूजन करके सती-साध्वी गिरिराजनन्दिनी उमा की पूजा करे ॥ ३१ ॥

चंदनैः कुंकुमैश्चैव धूपैर्दीपैरनेकशः ।।

नैवेद्यैर्विविधैश्चैव पूजयित्वा ततश्शिवम्।।३२।।

नमस्कृत्य पुनस्तत्र गच्छेच्च शिवसन्निधौ।।

यदि गेहे पार्थिवीं वा हैमीं वा राजतीं तथा ।। ३३ ।।

धातुजन्यां तथैवान्यां पारदां वा प्रकल्पयेत् ।।

नमस्कृत्य पुनस्तां च पूजयेद्भक्तितत्परः ।।३४।।

तस्यां तु पूजितायां वै सर्वे स्युः पूजितास्तदा ।।

चन्दन, कुंकुम तथा धूप, दीप आदि अनेक उपचारों तथा नाना प्रकार के नैवेद्यों से शिवा का पूजन करके नमस्कार करने के पश्चात् साधक शिवजी के समीप जाय । यथासम्भव अपने घर में मिट्टी, सोना, चाँदी, धातु या अन्य [द्रव्य] पारे आदि की शिवप्रतिमा बनाये और उसे नमस्कार करके भक्तिपरायण होकर पूजा करे । उसकी पूजा हो जानेपर सभी देवता पूजित हो जाते हैं ॥ ३२-३४१/२॥

स्थापयेच्च मृदा लिंगं विधाय विधिपूर्वकम् ।।३५।।

कर्तव्यं सर्वथा तत्र नियमास्स्वगृहे स्थितैः ।।

प्राणप्रतिष्ठां कुर्वीत भूतशुद्धिं विधाय च ।।३६।।

मिट्टी का शिवलिंग बनाकर विधिपूर्वक उसकी स्थापना करे । अपने घर में रहनेवाले लोगों को स्थापनासम्बन्धी सभी नियमों का सर्वथा पालन करना चाहिये । भूतशुद्धि करके प्राणप्रतिष्ठा करे ॥ ३५-३६ ॥

दिक्पालान्पूजयेत्तत्र स्थापयित्वा शिवालये ।।

गृहे शिवस्सदा पूज्यो मूलमंत्राभियोगतः ।।३७।।

शिवालय में दिक्पालों की भी स्थापना करके उनकी पूजा करे । घर में सदा मूलमन्त्र का प्रयोग करके शिव की पूजा करनी चाहिये ॥ ३७ ॥

तत्र तु द्वारपालानां नियमो नास्ति सर्वथा ।।

गृहे लिंगं च यत्पूज्यं तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम् ।। ३८ ।।

घर में द्वारपालों के पूजन का सर्वथा नियम नहीं है; क्योंकि घर में जिस शिवलिंग की पूजा की जाती है, उसमें सभी देवता प्रतिष्ठित रहते हैं ॥ ३८ ॥

पूजाकाले च सांगं वै परिवारेण संयुतम् ।।

आवाह्य पूजयेद्देवं नियमोऽत्र न विद्यते ।। ३९ ।।

घर पर होनेवाली शिव की पूजा के समय अंगोंसहित तथा सपरिवार उन सदाशिव का आवाहन करके पूजन किया जाय, ऐसा कोई नियम नहीं है ॥ ३९ ॥

शिवस्य संनिधिं कृत्वा स्वासनं परिकल्पयेत् ।।

उदङ्मुखस्तदा स्थित्वा पुनराचमनं चरेत् ।। ४० ।।

भगवान् शिव के समीप ही अपने लिये आसन की व्यवस्था करे । उस समय उत्तराभिमुख बैठकर आचमन करे ॥ ४० ॥

प्रक्षाल्य हस्तौ पश्चाद्वै प्राणायामं प्रकल्पयेत् ।।

मूलमंत्रेण तत्रैव दशावर्तं नयेन्नरः ।। ४१ ।।       

उसके बाद दोनों हाथों का प्रक्षालन करके प्राणायाम करे । प्राणायाम-काल में मनुष्य को मूलमन्त्र की दस आवृत्तियाँ करनी चाहिये ॥ ४१ ॥

पंचमुद्राः प्रकर्तव्याः पूजावश्यं करेप्सिताः ।।

एता मुद्राः प्रदर्श्यैव चरेत्पूजाविधिं नरः ।।४२।।

हाथों से पाँच मुद्राएँ दिखाये । यह पूजा का आवश्यक अंग है । इन मुद्राओं का प्रदर्शन करके ही मनुष्य पूजाविधि का अनुसरण करे ॥ ४२ ॥

दीपं कृत्वा तदा तत्र नमस्कारं गुरोरथ ।।

बध्वा पद्मासनं तत्र भद्रासनमथापि वा ।। ४३ ।।

उत्तानासनकं कृत्वा पर्यंकासनकं तथा ।।

यथासुखं तथा स्थित्वा प्रयोगं पुनरेव च ।।४४।।

कृत्वा पूजां पुराजातां वट्टकेनैव तारयेत् ।।

यदि वा स्वयमेवेह गृहे न नियमोऽस्ति च ।।४५।।

तदनन्तर वहाँ दीप निवेदन करके गुरु को नमस्कार करे और पद्मासन या भद्रासन बाँधकर बैठे अथवा उत्तानासन या पर्यंकासन का आश्रय लेकर सुखपूर्वक बैठे और पुनः पूजन का प्रयोग करे । पुराने समय में तो पत्थर की बटिया की ही श्रद्धापूर्वक पूजा करके लोग भवसागर से पार हो जाते थे । यदि वे शुद्ध रूप में स्वयमेव घर में विद्यमान हैं, तो उसके लिये कोई नियम की आवश्यकता नहीं है ॥ ४३-४५ ॥

पश्चाच्चैवार्घपात्रेण क्षारयेल्लिंगमुत्तमम् ।।

अनन्यमानसो भूत्वा पूजाद्रव्यं निधाय च ।।४६।।

पश्चाच्चावाहयेद्देवं मंत्रेणानेन वै नरः ।।

तत्पश्चात् अर्ध्यपात्र से उत्तम शिवलिंग का प्रक्षालन करे । मन को भगवान् शिव से अन्यत्र न ले जाकर पूजासामग्री को अपने पास रखकर निम्नांकित मन्त्रसमूह से महादेवजी का आवाहन करे ॥ ४६१/२ ॥

कैलासशिखरस्थं च पार्वतीपतिमुत्तमम् ।। ४७ ।।

यथोक्तरूपिणं शंभुं निर्गुणं गुणरूपिणम् ।।

पंचवक्त्रं दशभुजं त्रिनेत्रं वृषभध्वजम् ।। ४८ ।।

कर्पूरगौरं दिव्यांगं चन्द्रमौलिं कपर्दिनम् ।।

व्याघ्रचर्मोत्तरीयं च गजचर्माम्बरं शुभम् ।। ४९ ।।

वासुक्यादिपरीतांगं पिनाकाद्यायुधान्वितम् ।।।

सिद्धयोऽष्टौ च यस्याग्रे नृत्यंतीह निरंतरम् ।।५० ।।

जयजयेति शब्दश्च सेवितं भक्त पूजकैः ।।

तेजसा दुःसहेनैव दुर्लक्ष्यं देवसेवितम् ।। ५१ ।।

शरण्यं सर्वसत्त्वानां प्रसन्नमुखपंकजम् ।।

वेदैश्शास्त्रैर्यथा गीतं विष्णुब्रह्मनुतं सदा ।। ५२ ।।

भक्तवत्सलमानंदं शिवमावाहयाम्यहम्।।

एवं ध्वात्वा शिवं साम्बमासनं परिकल्पयेत् ।।५३।।

जो कैलास के शिखर पर निवास करते हैं, पार्वतीदेवी के पति हैं, समस्त देवताओं से उत्तम हैं, जिनके स्वरूप का शास्त्रों में यथावत् वर्णन किया गया है, जो निर्गुण होते हुए भी गुणरूप हैं, जिनके पाँच मुख, दस भुजाएँ और प्रत्येक मुखमण्डल में तीन-तीन नेत्र हैं, जिनकी ध्वजा पर वृषभ चिह्न अंकित है, जिनके अंग की कान्ति कर्पूर के समान गौर है, जो दिव्यरूपधारी, चन्द्रमारूपी मुकुट से सुशोभित तथा सिर पर जटाजूट धारण करनेवाले हैं, जो हाथी की खाल पहनते हैं और व्याघ्रचर्म ओढ़ते हैं, जिनका स्वरूप शुभ है, जिनके अंगों में वासुकि आदि नाग लिपटे रहते हैं, जो पिनाक आदि आयुध धारण करते हैं, जिनके आगे आठों सिद्धियाँ निरन्तर नृत्य करती रहती हैं, भक्तसमुदाय जय-जयकार करते हुए जिनकी सेवामें लगे रहते हैं, दुस्सह तेज के कारण जिनकी ओर देखना भी कठिन है, जो देवताओं से सेवित हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों को शरण देनेवाले हैं, जिनका मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ है, वेदों और शास्त्रों ने जिनकी महिमा का यथावत् गान किया है, विष्णु और ब्रह्मा भी सदा जिनकी स्तुति करते हैं तथा जो भक्तवत्सल हैं, उन परमानन्दस्वरूप शिव का मैं आवाहन करता हूँ ।इस प्रकार साम्बशिव का ध्यान करके उनके लिये आसन दे ॥ ४७-५३ ॥

चतुर्थ्यंतपदेनैव सर्वं कुर्याद्यथाक्रमम् ।।

ततः पाद्यं प्रदद्याद्वै ततोर्घ्यं शंकराय च ।।५४।।

ततश्चाचमनं कृत्वा शंभवे परमात्मने ।।

पश्चाच्च पंचभिर्द्रव्यैः स्नापयेच्छंकरं मुदा ।।५५।।

चतुर्थ्यन्त पद से ही क्रमशः सब कुछ अर्पित करे । [यथा साम्बाय सदाशिवाय नमः आसनं समर्पयामि इत्यादि ।] तत्पश्चात् भगवान् शंकर को पाद्य और अर्घ्य दे । तदनन्तर परमात्मा शम्भु को आचमन कराकर पंचामृत-सम्बन्धी द्रव्यों द्वारा प्रसन्नतापूर्वक शंकर को स्नान कराये ॥ ५४-५५ ॥

वेदमंत्रैर्यथायोग्यं नामभिर्वा समंत्रकैः ।।

चतुर्थ्यंतपदैर्भक्त्या द्रव्याण्येवार्पयेत्तदा ।।५६।।

तथाभिलषितं द्रव्यमर्पयेच्छंकरोपरि ।।

ततश्च वारुणं स्नानं करणीयं शिवाय वै ।।५७।।

वेदमन्त्रों अथवा समन्त्रक चतुर्थ्यन्त नामपदों का उच्चारण करके भक्तिपूर्वक यथायोग्य समस्त द्रव्य भगवान् को अर्पित करे । अभीष्ट द्रव्य को शंकर के ऊपर चढ़ाये । फिर भगवान् शिव को जलधारा से स्नान कराये ॥ ५६-५७ ॥

सुगंधं चंदनं दद्यादन्यलेपानि यत्नतः ।।

ससुगंधजलेनैव जलधारां प्रकल्पयेत् ।।५८।।

वेदमंत्रैः षडंगैर्वा नामभी रुद्रसंख्यया ।।

यथावकाशं तां दत्वा वस्त्रेण मार्जयेत्ततः ।। ५९ ।।

स्नान के पश्चात् उनके श्रीअंगों में सुगन्धित चन्दन तथा अन्य द्रव्यों का यत्नपूर्वक लेप करे । तत्पश्चात् सुगन्धित जल से ही उनके ऊपर जलधारा गिराकर अभिषेक करे । वेदमन्त्रों, षडंगों अथवा शिव के ग्यारह नामों द्वारा यथावकाश जलधारा चढाकर वस्त्र से शिवलिंग को अच्छी तरह पोछे ॥ ५८-५९ ॥

पश्चादाचमनं दद्यात्ततो वस्त्रं समर्पयेत ।।

तिलाश्चैव जवा वापि गोधूमा मुद्गमाषकाः ।।६०।।

अर्पणीयाः शिवायैव मंत्रैर्नानाविधैरपि।।

ततः पुष्पाणि देयानि पंचास्याय महात्मने ।। ६१ ।।

तदनन्तर आचमन प्रदान करे और वस्त्र समर्पित करे । नाना प्रकार के मन्त्रों द्वारा भगवान् शिव को तिल, जौ, गेहूँ, मूंग और उड़द अर्पित करे । फिर पाँच मुखवाले परमात्मा शिव को पुष्प चढ़ाये ॥ ६०-६१ ॥

प्रतिवक्त्रं यथाध्यानं यथायोग्याभिलाषतः ।।

कमलैश्शतपत्रैश्च शंखपुष्पैः परैस्तथा ।।६२।।

कुशपुष्पैश्च धत्तूरैर्मंदारैर्द्रोणसंभवैः ।।

तथा च तुलसीपत्रैर्बिल्वपत्रैर्विशेषतः ।।६३।।

पूजयेत्परया भक्त्या शंकरं भक्तवत्सलम् ।।

सर्वाभावे बिल्वपत्रमपर्णीयं शिवाय वै ।।६४।।

प्रत्येक मुख पर ध्यान के अनुसार यथोचित अभिलाषा करके कमल, शतपत्र, शंखपुष्प, कुशपुष्प, धतूर, मन्दार, द्रोणपुष्प, तुलसीदल तथा बिल्वपत्र के द्वारा पराभक्ति के साथ भक्तवत्सल भगवान् शंकर की विशेष पूजा करे । अन्य सब वस्तुओं का अभाव होने पर शिव को केवल बिल्वपत्र ही अर्पित करे ॥ ६२-६४ ॥

बिल्वपत्रार्पणेनैव सर्वपूजा प्रसिध्यति ।।

ततस्सुगंधचूर्णं वै वासितं तैलमुत्तमम् ।। ६५ ।।

अर्पणीयं च विविधं शिवाय परया मुदा ।।

ततो धूपं प्रकर्तव्यो गुग्गुलागुरुभिर्मुदा ।।६६।।

बिल्वपत्र समर्पित होने से ही शिव की पूजा सफल होती है । तत्पश्चात् सुगन्धित चूर्ण तथा सुवासित उत्तम तैल, इत्र आदि विविध वस्तुएँ बड़े हर्ष के साथ भगवान् शिव को अर्पित करे । तदनन्तर प्रसन्नतापूर्वक गुग्गुल और अगुरु आदि से धूप निवेदित करे ॥ ६५-६६ ॥

दीपो देयस्ततस्तस्मै शंकराय घृतप्लुतः ।।

अर्घं दद्यात्पुनस्तस्मै मंत्रेणानेन भक्तितः ।।६७।।

कारयेद्भावतो भक्त्या वस्त्रेण मुखमार्जनम् ।।

रूपं देहि यशो देहि भोगं देहि च शंकर।।६८।।

भुक्तिमुक्तिफलं देहि गृहीत्वार्घं नमोस्तु ते।।

ततो देयं शिवायैव नैवेद्यं विविधं शुभम्।।६९।।

तदनन्तर शंकरजी को घृतपूर्ण दीपक दे । इसके बाद निम्न मन्त्र से भक्तिपूर्वक पुनः अर्घ्य दे और भक्तिभाव से वस्त्रद्वारा उनके मुख का मार्जन करे —‘हे शंकर ! आपको नमस्कार है । आप इस अर्घ्य को स्वीकार करके मुझे रूप दीजिये, यश दीजिये, सुख दीजिये तथा भोग और मोक्ष का फल प्रदान कीजिये ।इसके बाद भगवान् शिव को भाँति-भाँति के उत्तम नैवेद्य अर्पित करे ॥ ६७-६९ ॥

तत आचमनं प्रीत्या कारयेद्वा विलम्बतः ।।

ततश्शिवाय ताम्बूलं सांगोपाङ्गं विधाय च ।।७०।।

कुर्यादारार्तिकं पञ्चवर्तिकामनुसंख्यया ।।

पादयोश्च चतुर्वारं द्विःकृत्वो नाभिमण्डले ।। ७१ ।।

एककृत्वे मुखे सप्तकृत्वः सर्वाङ्गं एव हि ।।

ततो ध्यानं यथोक्तं वै कृत्वा मंत्रमुदीरयेत् ।। ७२ ।।

इसके पश्चात् प्रेमपूर्वक शीघ्र आचमन कराये । तदनन्तर सांगोपांग ताम्बूल बनाकर शिव को समर्पित करे । इसके अनन्तर पाँच बत्ती की आरती बनाकर भगवान् को दिखाये । पैरों में चार बार, नाभिमण्डल के सामने दो बार, मुख के समक्ष एक बार तथा सम्पूर्ण अंगों में सात बार आरती दिखाये । तत्पश्चात् यथोक्त ध्यान करके मन्त्र का उच्चारण करे ॥ ७०-७२ ॥

यथासंख्यं यथाज्ञानं कुर्यान्मंत्रविधिन्नरः ।।

गुरूपदिष्टमार्गेण कृत्वा मंत्रजपं सुधीः ।। ७३ ।।

गुरूपदिष्टमार्गेण कृत्वा मन्त्रमुदीरयेत् ।।

यथासंख्यं यथाज्ञानं कुर्यान्मंत्रविधिन्नरः ।। ७४ ।।

बुद्धिमान् मनुष्य को गुरु के द्वारा बताये गये नियम के अनुसार ही मन्त्र का जप करना चाहिये । अथवा अपने ज्ञान के अनुसार जितनी संख्या में हो सके, उतनी संख्या में ही मन्त्रों का विधिवत् उच्चारण करे ॥ ७३-७४ ॥

स्तोत्रैर्नानाविधैः प्रीत्या स्तुवीत वृषभध्वजम् ।।

ततः प्रदक्षिणां कुर्याच्छिवस्य च शनैश्शनैः ।। ७५ ।।

प्रेमपूर्वक नाना प्रकार के स्तोत्रों से वृषभध्वज शंकर की स्तुति करे । तत्पश्चात् धीरे-धीरे शिव की परिक्रमा करे ॥ ७५ ॥

नमस्कारांस्ततः कुर्यात्साष्टांगं विधिवत्पुमान् ।।

ततः पुष्पांजलिदेंयो मंत्रेणानेन भक्तितः।।७६।।

शंकराय परेशाय शिवसंतोषहेतवे।।

अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाद्यद्यत्पूजादिकं मया ।। ७७ ।।

कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर ।।

तावकस्त्वद्गतप्राण त्वच्चित्तोहं सदा मृड ।। ७८ ।।

इति विज्ञाय गौरीश भूतनाथ प्रसीद मे ।।

भूमौ स्खलितवादानां भूमिरेवावलंबनम् ।।७९।।

त्वयि जातापराधानां त्वमेव शरणं प्रभो ।।

इसके बाद भक्त पुरुष साष्टांग प्रणाम करे और शिव की प्रसन्नता के लिये उन परमेश्वर शंकर को इस मन्त्र से भक्तिपूर्वक पुष्पांजलि दे — ‘हे शंकर ! मैंने अज्ञान से या जान-बूझकर जो-जो पूजन आदि किया है, वह आपकी कृपा से सफल हो । हे मृड ! मैं आपका हूँ, मेरे प्राण सदा आपमें लगे हुए हैं, मेरा चित्त सदा आपका ही चिन्तन करता है ऐसा जानकर हे गौरीनाथ ! हे भूतनाथ ! आप मुझपर प्रसन्न होइये । हे प्रभो ! धरती पर जिनके पैर लड़खड़ा जाते हैं, उनके लिये भूमि ही सहारा है, उसी प्रकार जिन्होंने आपके प्रति अपराध किये हैं, उनके लिये भी आप ही शरणदाता हैं ॥ ७६-७९१/२ ॥

इत्यादि बहु विज्ञप्तिं कृत्वा सम्यग्विधानतः ।।८०।।

पुष्पांजलिं समर्प्यैव पुनः कुर्यान्नतिं मुहुः।।

स्वस्थानं गच्छ देवेश परिवारयुतः प्रभो।।८१।।

पूजाकाले पुनर्नाथ त्वया गंतव्यमादरात्।।

इस प्रकार बहुविध प्रार्थना करके उत्तम विधि से पुष्पांजलि अर्पित करने के पश्चात् पुनः भगवान् को बार-बार नमस्कार करे । [तत्पश्चात् यह बोलकर विसर्जन करना चाहिये] स्वस्थानं गच्छ देवेश परिवारयुतः प्रभो । पूजाकाले पुनर्नाथ त्वया गंतव्यमादरात् । हे देवेश ! हे प्रभो ! अब आप परिवारसहित अपने स्थान को जायँ । नाथ ! जब पूजा का समय हो, तब पुनः आप आदरपूर्वक पधारें॥ ८०-८११/२ ॥

इति संप्रार्थ्य वहुशश्शंकरं भक्तवत्सलम्।।८२।।

विसर्जयेत्स्वहृदये तदपो मूर्ध्नि विन्यसेत्।।

इस प्रकार भक्तवत्सल शंकर की बारम्बार प्रार्थना करके उनका विसर्जन करे और उस जल को अपने हृदय में लगाये तथा मस्तक पर चढ़ाये ॥ ८२१/२ ॥

इति प्रोक्तमशेषेण मुनयः शिवपूजनम् ।।

भुक्तिमुक्तिप्रदं चैव किमन्यच्छ्रोतुमर्हथ ।।८३।।

हे ऋषियो ! इस तरह मैंने शिवपूजन की सारी विधि बता दी, जो भोग और मोक्ष को देनेवाली है । अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ८३ ॥

इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथमखंडे सृष्ट्युपाख्याने शिवपूजन वर्णनो नाम त्रयोदशोध्यायः ।। १३ ।।

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम सृष्टिखण्ड में सृष्टि-उपाख्यान में शिवपूजनवर्णन नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥

शेष जारी .............. शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः १४

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