डी पी कर्मकांड भाग-१७ कुशकंडिका

डी पी कर्मकांड भाग-१७ कुशकंडिका

इससे पूर्व आपने डी पी कर्मकांड की सीरिज में भाग- १६ अग्न्युत्तारण पढ़ा । अब डी पी कर्मकांड भाग-१७ में कुशकंडिका पढ़ेंगे।कुशकंडिका संज्ञा स्त्री० [सं० कुशकंडिका ] वेदी पर या कुंड में अग्निस्थापन करने की आनुष्ठानिक क्रिया, जिसका विधान ऋग्वेदियों, यजुर्वेदियों और सामवेदियों के लिये भिन्न भिन्न है । इसमें होम करनेवाला कुशासन पर बैठ दाहिने हाथ में कुश लेकर उसकी नोक से वेदी पर रेखा खींचता जाता है ।

डी पी कर्मकांड भाग-१७ कुशकंडिका

डी पी कर्मकांड भाग-१७ कुशकंडिका

वेदी और अग्निस्थापन

आचार्यो वा यजमानो मंडपे गत्वा होम संभारान्संगृह स्पंडिल कुर्यात्।

आचार्य यज्ञ मण्डप में जाकर हवन की सामग्री को एकत्र कर हवानार्थ वेदी (चौकी) बनायें।

तत आचार्यो वा यजमानः स्वहस्तमात्र परिमित स्थंडिलं निर्माय चतुरस्त्र चतुरंगलोन्नतमेकषंगुलोन्नतं वा स्थंडिलं कुर्यात् ।

फिर आचार्य या यजमान अपने हाथ के प्रमाण से बालू रेत से हवन के वेदी २४ अंगुल चौरस और चार अंगुल ऊंची बनायें।

स्थंडिलादक्षिणतः बाहुमात्रं भूमि त्यक्ता ब्रह्मार्थ वेदि कुर्यात् वा पीठ संस्थापयेत् ।

फिर वेदी के दक्षिण की ओर एक हाथ जगह छोड़कर ब्रह्माजी के लिए बालू रेत की २४ अंगूल चौरस ४ अंगुल ऊंची वेदी बनायें या चौकी रखें।

ततः आचार्यों वा यजमानः त्रोन्कुशानादाय स्थण्डिले पंच भूसंस्कारान्कुर्यात् ।

फिर आचार्य तीन दर्भो को दाहिने हाथ में उत्तराग्र हवन की वेदी पर ५ तरह की निम्न विधि करें ।

तस्त्रिभिर्दर्भैः परिसमा परिसमूह्य परिसमुह्य परिसमुह्य

फिर ३ दर्भो को दाहिने हाथ में उत्तराग्र लेकर हवन की वेदी पर पश्चिम से पूर्व की ओर ३ बार बुहारे।

गोमयोदकाम्यामुपलिप्य, उपलिप्य, उपलिप्य ।

वेदी को गाय के गोबर सहित जल से लीपे ।

ततः स्रुवमूलेन प्रादेशमात्रमुल्लिख्य उल्लिख्य

फिर स्रुवा की डंडी से वेदी पर पश्चिम से पूर्व की ओर प्रदेशमात्र ३ रेखा करें।

अनामिकांगुष्ठाभ्यामुद्धृत्य, उद्धृत्य, उद्धत्य

वेदी पर ३ रेखाओं से उभरी हुई मिट्टी को दाहिने हाथ की अनामिका उंगली व अंगुष्ठ से उठाकर वेदी के बाहर  ईशान कोण में फेंके।

उदकेनाभ्युक्ष्य अभ्युक्ष्य अभ्युक्ष्य ।

दाहिने हाथ में जल लेकर हवन की वेदी पर पश्चिम से पूर्व की तरफ एक-एक रेखा पर जल धारा करें। फिर ३ दर्भों पूर्वाग्र कर वेदी के मध्य में एक-एक रेखा पर एक-एक दर्भ रखें। फिर दर्भ पर उपले रख कर अग्नि स्थापित करें।

डी पी कर्मकांड भाग-१७ कुशकंडिका

पात्रासादनम्

पवित्रच्छेननानि त्रीणि (तीन दर्भ पंखुडी)

पवित्रे द्वे (दो दर्भ पंखुड़ी)

प्रोक्षणी पात्रं (लकड़ी का पात्र । पीतल का)

आज्यस्थाली (घृत पात्र भगोना)

चरुस्थाली (तांबे का पात्र)

सम्मार्जन कुशाः पंच (पांच दर्भ पंखुडी)

उपयमन कुशा: सप्त (सात दर्भ पंखुडी)

समिधयस्त्रिस्रः (पलास ३ समिधाएं)

स्रुवः (श्रुवा हवनार्थ)

आज्यं (घी)

स्थालीपाकस्य तण्डुला (चावल)

पूर्ण पात्रं (चावल भरा पात्र)

दक्षिणा

प्रणीता पात्रं (कटोरी बड़ी । भगोना)

श्रीफल द्वयम् (नारियल)

ततो ब्रह्म वरणं ब्रह्माणं संपूजयेत् (५० दर्भों की एक चटू बनाकर ब्रह्मा की चौकी पर वस्त्र बिछा कर रखें व पूजा करें)

ॐ ब्रह्मणे नमः गंधं समर्पयामि

ॐ ब्रह्मणे नमः अक्षतान्समर्पयामि

ॐ ब्रह्मणे नमः पुष्पादि समर्पयामि

ॐ ब्रह्मणे नमः वस्त्रं समर्पयामि

ॐ ब्रह्मणे नम: फल दक्षिणां समर्पयामि

दक्षिणतो ब्रह्मासनम् ।

हवन की चौकी के दक्षिण भाग में ब्रह्मा को स्थापित करें फिर तीन दर्भों को पूर्वाग्र करके ब्रह्माजी की चौकी पर रखें।

उत्तरतः प्रणीतासनम् ।

३ दर्भों को पूर्वाग्र कर अग्नि के उत्तर में-प्रणीता के लिए आसन रखें।

तत्र ब्रह्मोपवेशनम- ब्रह्माजी के चटू को वस्त्रादि सहित उठाकर ब्रह्मा की चौकी पर रखें।

ततः प्रणीतास्थानम्-फिर अग्नि के उत्तर में बिछाये हुए दर्भों पर प्रणीतापात्र रखें, फिर यजमान हाथ जोड़कर ब्रह्मा जी से कहे-

यावत् कर्म समाप्यते, तावत् त्वं ब्रह्मा भव ।

ओं भवामि ।

ब्रह्मानुरातो यजमानः प्रणीतापात्रं प्रणयेत् ।

ॐ प्रणयः ओं प्रणय: ओं प्रणयः ।

फिर यजमान ब्रह्मा की आज्ञा लेकर 'ॐ प्रणयः ३' इन मंत्रों को पढ़ता हुआ प्रणीता पात्र में जल डाले।

ईशानादि पूर्वाग्नैदर्भ रेकमुष्ठया परिस्तरणम्।

फिर यजमान एक मुट्ठी दर्भों को दाहिने हाथ में लेकर क्रमशः ईशान कोण से पूर्व, अग्नि, दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायव्य और उत्तर तक क्रम से बिछाए।

द्विस्त्रिच्छेद्यः त्रीणित्याज्यानि द्वेग्राह्ये

फिर यजमान अग्र सहित दो दर्भों को दाहिने हाथ से बाएं हाथ में ले फिर ३ को उत्तराग्र करके दाएं से बाएं हाथ के दो दर्भों के ऊपर अगली तरफ प्रादेश मात्र (एक बालिस्त) जगह छोड़कर ३ दर्भों को रखें फिर तीन दर्भों से दो दर्भों के ऊपर दो बार लपेट लेवे फिर दो दर्भों के मूल से तीन दर्भो के अगली तरफ दो बार लपेट देवे । फिर दो के मूल को दोनों हाथों की अनामिकाओं और अंगुष्ठों से तोड़ देवे फिर बाए हाथ के सभी दर्भों को फेंक दे और दाहिने हाथ के दो दर्भों को रख दें। इन्हें पवित्रा कहते हैं।

सपवित्र हस्तेन प्रणीतोदकेन प्रोक्षिण्यां त्रिः पूर्णम् ।

फिर दो पवित्रों सहित दाहिने हाथ से प्रणीता के जल को प्रोक्षणी पात्र में डालें।

द्वाभ्यां अनामिकांगुष्ठाभ्यां उत्तराग्रे पवित्रे गृहीत्वा प्रोक्षणी जलेन त्रिरुत्पवनम्।

फिर दो पवित्रों को उत्तराग्र करके दोनों हाथों की अनामिकाओं और अंगुष्ठों से लेकर कर प्रोक्षणी के जल को तीन बार हिलाएं।

ततः प्रोक्षणी पात्रं वामहस्ते गृहीत्वा दक्षिणानामिकांगुष्ठाभ्यां मूल देशे पवित्रे गृहीत्वा तमिरद्भिस्तासां प्रोक्षणम् । सादित पात्राणां एकैकस्य प्रोक्षणम् ।

अब प्रोक्षणीपात्र को बाएं हाथ में लेकर दाहिने हाथ की अनामिका और अंगुष्ठ से दो पवित्रों को मूल से लेकर प्रोक्षणी के जल से भिगोकर स्थापित की हुई वस्तुओं पर छींटा डालें।

प्रणीतारन्योर्मध्ये प्रोक्षणीपात्रं निधाय ।

दो पवित्रों सहित प्रोक्षणी पात्र को वेदी और प्रणीता के मध्य रखें-

आज्यस्थाल्यामाज्यनिर्वापः चरुस्थाल्यां तण्डूलनिर्वाल्यतंडुलानि त्रि प्रक्षाल्य यजमान: चरुं गृहीत्वा ब्रह्मा वा पत्नी आज्यं गृहीत्वा अग्ना वधिश्रित्य मध्ये चरो रधि श्रयणं दक्षिणतः आज्याधि श्रयणं कुशान्प्रज्वाल्य आज्योपरि प्रदक्षिणे भ्रामयित्वा अग्नौ निपेत् ।

यजमान पात्र में घृत डालकर एक कटोरी में चावल डाले फिर उन्हें ३ बार धोकर चावलों की कटोरी को दाहिने हाथ में ले फिर ब्रह्मा या आचार्य घृत कटोरी को अपने दाहिने हाथ में ले फिर यजमान चावलों की कटोरी को अग्नि के बीच में रखे, आचार्य घृत पात्र को दक्षिण की ओर फिर रख दें। एक दर्भ को यजमान जलावे व जलते हुए दर्भ को चावलों और घृत के चारों ओर घुमाकर अग्नि में होम दे।

कांसे की थाली या अन्य पात्र में कंकुम का स्वस्तिक करके सुवासिनी को देवें।

सुवासिनी धूम्र रहित अग्नि को लेकर साखिये वाले थाली में रखें फिर दूसरी थाली से अग्नि को ढककर यजमान को आकर दे, यजमान दोनों थालियों को दाहिने हाथ में लेकर अग्नि को उघाड़ कर अग्नि वाली थाली को पूर्व की ओर अपने सामने करके

'ॐ आपो देवासऽईमहे वामं प्रपत्यध्वरे,

अवोदेवासय्आशिषो यज्ञियासो हवामहे ।

शिखिनामानमग्नि आवाहयामि स्थापयामि।

मन्त्र पढ़ते हुए वेदी के मध्य में अग्नि को स्थापित करें। ततो वह्नि पात्रे फलाक्षतदक्षिणा: प्रक्षिप्य सुवासिन्यं समर्पयेत यजमान अग्नि वाले पात्र में सुपारी, अक्षत, दक्षिणा डालकर उस कन्या को दे दे।  

तत उत्थायोपयमन कुशानादाय वाम हस्ते गृहीत्वा दक्षिण हस्ते समिधस्तिस्रः आदाय घृतेनाभिधर्य प्रजापति मनसा ध्यात्वा तुष्णीमग्नौ क्षिपेत्।

खडे होकर उपयमन कुशा सात दर्भों को दाहिने हाथ में ले और फिर दाहिने हाथ में पलास की ३ समिधाओं को पूर्वोक्त लेकर घृत से भिगोकर खड़े होकर मन में ब्रह्मा का ध्यान करके चुप से ३ समिधाओं को अग्नि में होम दें।

तत उपविश्य सपवित्र प्रोक्षण्युदकेन प्रदक्षिण क्रमेणाग्नि पर्युक्षेत् ।

फिर नीचे बैठ कर दो पवित्रों सहित प्रोक्षणी पात्र को दाहिने हाथ में लेकर अग्नि के चारों तरफ ईशान से उत्तर पर्यन्त जल की धारा करें।

पवित्रे प्रणीता पात्रे निधाय प्रोक्षणी पात्रं स्वस्थाने निदध्यात्।।

फिर प्रोक्षणी के दो पवित्रों को प्रणीता पात्र में रखकर प्रोक्षणी पात्र को पुनः उसी स्थान पर रखे।

ततः पातित दक्षिण जानुर्ब्रह्मान्वारब्धः समिद्धत्तमेऽग्नो स्रुवेणाज्याहुतिर्जुहुयात् ।।

यजमान दाहिने घुटने को भूमि से लगाकर बैठे फिर ब्रह्माजी से आज्ञा लकर अग्नि को प्रज्वलित करके स्रुवा को दाहिने हाथ में लेकर घृत से भरकर निम्न मंत्रों में से एक-एक मंत्र पढ़कर हवन करें।

तत्राधारादारभ्य नवा ज्याहुतिषु तत्तदादेत्यन्तरम् स्रुवावस्थितं हुतशेषं प्रोक्षणीपात्रे प्रक्षिपेत् ।

फिर एक-एक आहुति के पीछे स्रुवा में रही हुई घृत की बूंद को प्रोक्षणी पात्र में डालता रहे।

तूष्णी ओंप्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये न मम।

यह एक आहुति चुपके से मंत्र पढ़ कर देवे न मम मन में ही बोले।

अब उच्च स्वर में-

ॐ इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय न मम ।

ॐ अग्ने स्वाहा। इदं अग्ने न मम ।

ॐ सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय न मम । 

ॐ भुवः स्वाहा। इदं वायवे न मम ।

ॐ स्वः स्वाहा। इदं सूर्याय न मम ।

हाथ में जल व अक्षत लेकर –

इमानि हवनीयद्रव्याणि या या यक्षमाणदेवतास्ताभ्यस्ताभ्य: मया परित्यक्तानि न मम यथादेवतानि सन्तु।

इति डी पी कर्मकांड भाग-१७ कुशकंडिका ।।

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