कालसर्प योग

कालसर्प योग

सभी ग्रह यदि राहु और केतु के मध्य में आ जाय तो 'कालसर्प योग' की सृष्टि होती है। कालसर्प योग दो प्रकार के होते हैं। एक उदित गोलार्द्ध और दूसरा अनुदित गोलार्द्ध । उदित गोलार्द्ध को ग्रस्त योग कहते हैं तथा अनुदित को मुक्त योग कहते हैं।

लग्न में राहु तथा सप्तम में केतु हो, सारे ग्रह 7/8/9/10/11/12 वे स्थानॉ में हो तो यह उदित कालसर्प योग कहलाता है। राहु-केतु का भ्रमण हमेशा उल्टा चलता है। इस योग में सभी ग्रह क्रमशः राहु के मुख में आते चले जायेंगे।

कालसर्पयोग

राहु-केतु का सर्पयोग से सम्बन्ध

पौराणिक मत के अनुसार राहु' नामक राक्षस का मस्तक कट कर गिर जाने भी वह जीवित है एवं केतु उसी राक्षस का धड़ है। राहु और केतु एक ही शरीर के दो अंग हैं। चुगली करने के कारण सूर्य-चन्द्र को ग्रहण कर ग्रसित कर, सृष्टि में भय फैलाते हैं। ज्योतिष में राहु को 'सर्प' कहा गया है और केतु उसी सर्प की पूंछ है। बृहत्संहिता में लिखा है कि-

"मुख पुच्छ विभक्ताङ्गं भुजङ्गमाकारमुपदिशन्त्यन्ये"

"मुख और पुच्छ से विभक्त है अंग जिसका ऐसा जो सर्प का आकार है, वही राहु का आकार है।"

'कामरत्न' में सर्प को ही 'काल' कहा है तथा यह काल ही 'मृत्यु' है।

न पश्येद्वीक्ष्यमाणेऽपि काल दृष्टो न संशयः ॥47॥

सर्पदंशोविषनास्ति कालदृष्टो न संशयः ॥50॥

'मानसागरी' में अरिष्टयोगों पर चर्चा करते हुए में लिखा है-

लग्नाच्च सप्तमस्थाने शनि-राहु संयुतौ

सर्पेण बाधा तस्योक्ता शय्यायां स्वपितोपि च ॥

अर्थात् सातवें स्थान में यदि शनि-सूर्यराहु की युति होती है तो पलंग(शय्या) पर सोते हुए व्यक्ति को भी सांप काट जाता है फलित ज्योतिष पर निरन्तर अध्ययन-अनुसंधान करने वाले आचार्यों ने जब देखा कि सर्प के मुख-पुच्छ अर्थात राहु-केतु के मध्य सारे ग्रह अवस्थित हों तो जातक का जीवन ज्यादा कष्टमय रहता है, तो इसे कालसर्पयोग' की संज्ञा दे दी होगी वस्तुतः कालसर्पयोग 'सर्पयोग' का ही परिष्कृत स्वरूप है।

कालसर्प योग की प्राचीनता

महर्षि पराशर ने फलित ज्योतिष में 'सर्पयोग' की चर्चा करते हुए कहा कि सूर्य, शनि व मंगल- ये तीनों पापग्रह यदि तीन केन्द्र स्थानों में 1/4/7/10 में हो और शुभग्रह केन्द्र से भिन्न स्थानों में हो तो 'सर्पयोग' की सृष्टि होती है।

केन्द्रत्रयगतैः सौम्ये पापैर्वा दलसंज्ञकौ।

क्रमान्याभुजंगाख्यौ शुभाशुभफलप्रदौ॥अ. 36/पृ. 197

बृहत्पाराशर के अनुसार 'सर्पयोग' में जन्म लेने वाला व्यक्ति कुटिल, क्रूर, निर्धन, दुःखी, दीन एवं पराये अन्न पर निर्भर रहने वाला जातक होता है। यथा-

विषयाः क्रूरा निःस्वानित्यं दुखार्दिता सुदीनाश्च ।

परभक्षपाननिरताः सर्वप्रभवा भवन्ति नराः॥ -अ. 36/पृ. 200

महर्षि बादरायण, भगवान गर्ग, मणित्थ ने भी जलयोग के अन्तर्गत सर्पयोग को पुष्ट किया है।

केन्द्रत्रयगतैः पापै सौम्यैर्वा दलसंज्ञितौ।

द्वौयोगो सर्पमालाख्यौ विनष्टेष्टफलप्रदौ॥-बृहत्पाराशर अ. 36/पृ. 371

बृहत्जातक 'नाभसयोग' पर इस योग को वराहमिहिर द्वारा भी अपने ग्रन्थों में उदधृत किया गया। आचार्य कल्याणवर्मा ने 'सारावली' में स्पष्ट किया (अध्याय 11, पृ.154) कि प्रायः सर्प की स्थिति पूर्ण वृत न होकर वक्र ही रहती है। अतः तीन केन्द्रों तक में ही सीमित सर्पयोग की व्याख्या उचित प्रतीत नहीं होती। उनका मानना था कि चारों केन्द्र, किंवा केन्द्र व त्रिकोणों से वेष्ठित पापग्रह की उपस्थिति भी सर्पयोग की सृष्टि करती है। जातकतत्त्वम्, जातकदीपक, ज्योतिष रत्नाकर, जैन ज्योतिष के अनेक प्राचीन-ग्रंथों में कालसर्प योग के दृष्टान्त मिलते हैं।

कालसर्प योग का प्रभाव

कालसर्प योग में जन्मे व्यक्ति को प्रायः बुरे स्वप्न आते हैं। स्वप्न में सांप दिखलाई पड़ते हैं। रात को चमकना, पानी से डरना तथा ऐसे जातक को अकाल मृत्यु का भय रहता है। नींद में चमकना, हमेशा कुछ-न-कुछ अशुभ होने की आशंका मन में रहना, नाग का दीख पड़ना, उसे मारना, उसके टुकड़े होते देखना, नदी-तालाब, कुएं व समुद्र का पानी दीखना, पानी में गिरना और बाहर आने का प्रयत्न करना, झगड़ा होते देखे और खुद झगड़े में उलझ जाये, मकान गिरते देखना, वृक्ष से फल गिरते देखना । स्वप्न में विधवा स्त्री दीखे, चाहे वह स्वयं के परिवार की ही  क्यों न हो। जिनके पुत्र जीवित नहीं रहते हैं, उन्हें स्वप्न में स्त्री की गोद में मृतबालक दिखलाई पड़ता है। नींद में सोते हुए ऐसा लगे कि शरीर पर सांप रेंग रहा हो पर जागने पर कुछ भी नहीं। छोटे बच्चे बुरे स्वप्न के कारण बिस्तर गीला कर देते हैं। ये सभी स्वप्न अशुभ हैं तथा कालसर्पयोग की स्थिति को स्पष्ट करते हैं।

कालसर्प योग का प्रमुख लक्षण एवं प्रत्यक्ष प्रभाव संतान अवरोध, गृहस्थ में प्रतिपल कलह, धनप्राप्ति की बाधा एवं मानसिक अशान्ति के रूप में प्रकट होता है।

कालसर्प योग या दोष के प्रकार

कालसर्प योग भी कई प्रकार के होते हैं। लग्न से लेकर बारह भाव तक यह बारह प्रकार का होता है।

१. विष्णु अथवा अनन्त कालसर्प योग

विष्णु अथवा अनन्त कालसर्प योग
लग्न से लेकर सप्तम भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण विष्णु अथवा अनन्त कालसर्प योग बनता है। इस योग का दुष्प्रभाव स्वास्थ्य आकृति रंग त्वचा सुख स्वभाव धन बालों पर पडता है,इसके साथ छोटे भाई बहिनों छोटी यात्रा में दाहिने कान पर कालरबोन पर कंधे पर स्नायु मंडल पर, पडौसी के साथ सम्बन्धों पर अपने को प्रदर्शित करने पर सन्तान भाव पर बुद्धि और शिक्षा पर परामर्श करने पर पेट के रोगों पर हाथों पर किसी प्रकार की योजना बनाने पर विवेक पर शादी सम्बन्ध पर वस्तुओं के अचानक गुम होजाने,रज और वीर्य वाले कारणों पर याददास्त पर किसी प्रकार की साझेदारी और अनुबन्ध वाले कामों पर पिता और पिता के नाम पर विदेश यात्रा पर उच्च शिक्षा पर धर्म और उपासना पर तीर्थ यात्रा पर पौत्र आदि पर पडता है।

२. अजैकपाद अथवा कुलिक कालसर्प योग

अजैकपाद अथवा कुलिक कालसर्प योग
द्वितीय स्थान से अष्टम भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण अजैकपाद अथवा कुलिक कालसर्प योग बनता है। इसका प्रभाव धन,परिवार दाहिनी आंख नाखूनों खरीदने बेचने के कामों में आभूषणों में वाणी में भोजन के रूपों में कपडों के पहिनने में आय के साधनों में जीभ की बीमारियों में नाक दांत गाल की बीमारियों में धन के जमा करने में मित्रता करने में नया काम करने में भय होने शत्रुता करवाने कर्जा करवाने बैंक आदि की नौकरी करने कानूनी शिक्षा को प्राप्त करवाने नौकरी करने नौकर रखने अक्समात चोट लगने कमर की चोटों या बीमारियों में चाचा या मामा परिवार के प्रति पेशाब की बीमारियों में व्यवसाय की जानकारी में राज्य के द्वारा मिलने वाली सहायताओं में सांस की बीमारियों में पीठ की हड्डी में पुरस्कार मिलने में अधिकार को प्राप्त करने में किसी भी प्रकार की सफ़लता को प्राप्त करने में अपना असर देता है.

३. अहिर्बुन्ध अथवा वासुकि कालसर्प योग

अहिर्बुन्ध अथवा वासुकि कालसर्प योग
तृतीय से नवम भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण अहिर्बुन्ध अथवा वासुकि कालसर्प योग की उत्पत्ति होती है। ग्रहों का स्थान राहु केतु के एक तरफ़ कुंडली में होता है। यह योग किसी भी प्रकार के बल को या तो नष्ट करता है अथवा उत्तेजित दिमाग की वजह से कितने ही अनर्थ कर देता है।

४. कपाली या शंखपाल कालसर्प योग

कपाली या शंखपाल कालसर्प योग
चतुर्थ से लेकर दशम भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण कपाली या शंखपाल कालसर्प योग बनता है। यह माता मन और मकान के लिये दुखदायी होता है,जातक को मानसिक रूप से भटकाव देता है।

५. हर या पद्म कालसर्प योग

हर या पद्म कालसर्प योग
पंचम से लेकर एकादश भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण हर या पद्म कालसर्प योग बनता है। इस योग के कारण जातक को संतान या तो होती नही अगर होती है तो अल्प समय में नष्ट होजाती है।

६. बहुरूप या महापद्म कालसर्प योग

बहुरूप या महापद्म कालसर्प योग
छटवां से लेकर बारहवां भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण बहुरूप या महापद्म कालसर्प योग बनता है। जातक अपने नाम और अपनी बात के लिये कोई भी योग्य अथवा अयोग्य कार्य कर सकता है,जातक की पत्नी या पति बेकार की चिन्ताओं से ग्रस्त होता है,साथ जातक के परिवार में अचानक मुसीबतें या तो आजाती है या खत्म हो जाती है,धन की बचत को झूठे लोग चोर या बीमारी या कर्जा अचानक खत्म करने के लिये इस दोष को मुख्य माना जाता है।

७. त्र्यम्बक या तक्षक कालसर्प योग

त्र्यम्बक या तक्षक कालसर्प योग
सप्तम से लेकर प्रथम भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण त्र्यम्बक या तक्षक कालसर्प योग बनता है। यह योग जीवन के लिये सबसे घातक कालसर्प योग होता है,त्र्यम्बक का मतलब त्रय+अम्ब+क=तीन देवियों (सरस्वती,काली,लक्ष्मी) का रूप कालरूप हो जाना। इस योग के कारण जीवन को समाप्त करने के लिये और जीवन में किसी भी क्षेत्र की उन्नति शादी के बाद अचानक खत्म होती चली जाती है,जातक सिर धुनने लगता है,उसके अन्दर चरित्रहीनता से बुद्धि का विनाश,अधर्म कार्यों से और धार्मिक स्थानों से अरुचि के कारण लक्ष्मी का विनाश,तथा हमेशा दूसरों के प्रति बुरा सोचने के कारण संकट में सहायता नही मिलना आदि पाया जाता है।

८. अपाराजित या करकट या कर्कोटक कालसर्प योग

अपाराजित या करकट या कर्कोटक कालसर्प योग

अष्टम से लेकर द्वितीय भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण अपाराजित या करकट या कर्कोटक कालसर्प योग बनता है। यह योग भी शादी के बाद ही अचानक धन की हानि जीवन साथी को तामसी कारणों में ले जाने और अचानक मौत देने के लिये जाना जाता है,इस योग के कारण जातक जो भी काम करता है वह शमशान की राख की तरह से फ़ल देते है,जातक का ध्यान शमशान सेवा और म्रुत्यु के बाद के धन को प्राप्त करने में लगता है,अचानक जातक कोई भी फ़ैसला जीवन के प्रति ले लेता है,यहां तक इस प्रकार के ही जातक अचानक छत से छलांग लगाते या अचानक गोली मारने से मरने से मृत्यु को प्राप्त होते है,इसके अलावा जातक को योन सम्बन्धी बीमारियां होने के कारण तथा उन रोगों के कारण जातक का स्वभाव चिढ चिढा हो जाता है,और जातक को हमेशा उत्तेजना का कोपभाजन बनना पडता है,संतान के मामले में और जीवन साथी की रुग्णता के कारण जातक को जिन्दगी में दुख ही मिलते रहते हैं।

९. वृषाकपि या शंखचूड कालसर्प योग

वृषाकपि या शंखचूड कालसर्प योग

नवम से लेकर तृतीय भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण वृषाकपि या शंखचूड कालसर्प योग बनता है। इस योग के अन्दर जातक धर्म में झाडू लगाने वाला होता है,सामाजिक मर्यादा उसके लिये बेकार होती है,जातक का स्वभाव मानसिक आधार पर लम्बा सोचने में होता है,लोगों की सहायता करने और बडे भाई बहिनों के लिये हानिकारक माना जाता है,जातक की पत्नी को या पति को उसके शरीर सहित भौतिक जिन्दगी को सम्भालना पडता है,जातक को ज्योतिष और पराशक्तियों के कारकों पर बहस करने की आदत होती है,जातक के घर में या तो लडाइयां हुआ करती है अथवा जातक को अचानक जन्म स्थान छोड कर विदेश में जाकर निवास करना पडता है।

१०. शम्भु या घातक कालसर्प योग

शम्भु या घातक कालसर्प योग

दशम से लेकर चतुर्थ भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण शम्भु या घातक कालसर्प योग बनता है। इस योग के कारण जातक को या तो दूसरों के लिये जीना पडता है अथवा वह दूसरों को कुछ भी जीवन में दे नही पाता है,जातक का ध्यान उन्ही कारकों की तरफ़ होता है जो विदेश से धन प्रदान करवाते हों अथवा धन से सम्बन्ध रखते हों जातक को किसी भी आत्मीय सम्बन्ध से कोई मतलब नही होता है। या तो वह शिव की तरह से शमशान में निवास करता है,या उसे घर परिवार या समाज से कोई लेना देना नही रहता है,जातक को शमशानी शक्तियों पर विश्वास होता है और वह इन शक्तियों को दूसरों पर प्रयोग भी करता है।

११. कपर्दी या विषधर कालसर्प योग

कपर्दी या विषधर कालसर्प योग

एकादश से लेकर पंचम भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण कपर्दी या विषधर कालसर्प योग बनता है। इसकी यह पहिचान भी होती है कि जातक के कोई बडा भाई या बहिन होकर खत्म हो गयी होती है,जातक के पिता को तामसी कारकों को प्रयोग करने की आदत होती है जातक की माँ अचानक किसी हादसे में खत्म होती है,जातक की पत्नी या पति परिवार से कोई लगाव नही रखते है,अधिकतर मामलों में जातक के संतान अस्पताल और आपरेशन के बाद ही होती है,जातक की संतान उसकी शादी के बाद सम्बन्ध खत्म कर देती है,जातक का पालन पोषण और पारिवारिक प्रभाव दूसरों के अधीन रहता है।

१२. रैवत या शेषनाग कालसर्प योग

रैवत या शेषनाग कालसर्प योग

द्वादश से लेकर षष्ठ भाव पर्यंत राहू-केतु के मध्य या केतु-राहू के मध्य फंसे ग्रहों के कारण रैवत या शेषनाग कालसर्प योग बनता है। जातक उपरत्व वाली बाधाओं से पीडित रहता है,जातक को बचपन में नजर दोष से भी शारीरिक और बौद्धिक हानि होती है,जातक का पिता झगडालू और माता दूसरे धर्मों पर विश्वास करने वाली होती है,जातक को अकेले रहने और अकेले में सोचने की आदत होती है,जातक कभी कभी महसूस करता है कि उसके सिर पर कोई भारी बजन है और जातक इस कारण से कभी कभी इस प्रकार की हरकतें करने लगता है मानों उसके ऊपर किसी आत्मा का साया हो,जातक के अन्दर सोचने के अलावा काम करने की आदत कम होती है,कभी जातक भूत की तरह से काम करता है और कभी आलसी होकर लम्बे समय तक लेटने का आदी होता है,जातक का स्वभाव शादी के बाद दूसरों से झगडा करने और घर के परिवार के सदस्यों से विपरीत चलने का होता है,जातक की होने वाली सन्तान अपने बचपन में दूसरों के भरोसे पलती है।

आगे पढ़ें...........कालसर्प योग या दोष शांति।

Post a Comment

0 Comments