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मन्त्रमहोदधिः
अथ द्वाविंशः तरङ्गः
अरित्र
नित्यार्चनविधिवर्णनम्
स्ववामाग्रे तु
षट्कोणवृत्तभूपुरवेष्टितम् ।
कृत्वा त्रिकोणमूर्वाग्रं
स्तम्भयेच्छखमुद्रया ॥ १॥
अब पूर्वप्रतिज्ञात अर्घ्यस्वरुप
कहते हैं - अपने वामाग्र भाग में त्रिकोण, उसके
बाद षट्कोण, फिर वृत्त तदुपरि चतुरस्त्र रुप मन्त्र लिखकर
शड्खमुद्रा से उसे स्तम्भित करना चाहिए ॥१॥
विमर्श - शड्खमुद्रा का लक्षण
- बायें हाथ के अंगूठे को दाहिनी मुट्ठी में रक्खें, दाहिनी मुट्ठी को ऊर्ध्वमुख रखकर उसके अंगूठे को फैलाए । बायें हाथ की सभी
उंगालियों को एक दूसरे के साथ सटा कर फैला दे । अब बायें हाथ की फैली उंगलियों को
दाहिनी ओर घुमा कर दाहिने हाथ के अंगूठे का स्पर्श करे तब यह शड्ख मुद्रा
कहलाती हैं ॥१॥
पुष्पाक्षतैः षडङ्गानि
तत्राग्न्यादिषु पूजयेत् ।
अस्त्रक्षालितमाधारं
तत्रादध्यान्मनुं जपन् ॥ २॥
घटस्थापनप्रकारवर्णनम्
मं वह्निमण्डलायेति ततो दशकलात्मने
।
अमुकायेति पात्रान्ते सनाय नम
इत्यपि ॥ ३॥
चतुर्विंशति वर्णोऽयमाधारस्थापने
मनुः ।
उस यन्त्र के आग्नेयादि कोणों में पुष्प तथा अक्षतों षड्ङ्ग पूजा करनी चाहिए । फिर ‘फट्’ इस अस्त्र मन्त्र से प्रक्षालित आधार पात्र को वक्ष्यमाण मन्त्र का उच्चारण करते हुये त्रिकोण पर स्थापित कर देना चाहिए । ‘(ॐ) मं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने देवार्घ्यपात्रासनाय नमः’ । यह २४ अक्षर का आधारपात्र स्थापित करने का मन्त्र है ॥२-४॥
आधारे पूर्वकाष्ठादि दशा.त्पावकीः
कलाः ॥ ४॥
स्वमन्त्रक्षालितं शङ्ख
स्थापयेन्मनुमुच्चरन् ।
अं सूर्यमण्डलायान्ते द्वादशेति
कलात्मने ॥ ५॥
अमुकायेति पात्राय
नमोन्तस्यक्षिवर्णवान् ।
तदनन्तर आधारपात्र पर पूर्वादि दिशाओं
में (धूम्रार्चिष् आदि) अग्निकलाओं का तत्तनामों द्वारा पूजन करना चाहिए । फिर
आधारपात्र के ऊपर अस्त्र मन्त्र से प्रक्षालित शड्ख को ‘(ॐ) अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने देवार्घ्यपात्राय नमः’,
इस २३ अक्षरों के मन्त्र से स्थापित करना चाहिए ॥४-६॥
शङ्खस्थापनमन्त्रोऽयं तारः कामो
महाजलः॥ ६॥
चराय वर्मफट् स्वाहा पाञ्चजन्याय
हृन्मनुः।
शङ्खस्य विंशत्यर्णाढ्यस्तेन
प्रक्षालयेत्तु तम् ॥ ७॥
अमुक देव के स्थान पर अपने इष्ट
देवता का चतुर्थ्यन्त नाम (राम, कृष्ण,
दुर्गा, गणेश, शिव
आदि का चतुर्थ्यन्त) उच्चारण करना चाहिए । पुनः तार (ॐ),
काम (क्लीं), एवं ‘माहाजलचराय
हुं फट् स्वाहा पाञ्चजन्याय नमः’, इस २० अक्षर के मन्त्र से
शड्ख को प्रक्षालित कर देना चाहिए ॥६-७॥
कलाद्वादश सूर्यस्य शङ्खोपरि यजेत्
क्रमात् ।
विलोमा मातृकां मूलं विलोमं च
पठञ्जलैः ॥ ८॥
आपूर्य मनुनेष्ट्वा तं तत्राचेदैन्दवीः
कला ।
ॐ सोममण्डलायान्ते षोडशान्ते
कलात्मने ॥ ९ ॥
तदनन्तर शड्ख के ऊपर (तापिनी आदि)
द्वादश सूर्यकलाओं का पूजन करना चाहिए । पश्चात् विलोम मातृकाओं एवं विलोम मन्त्र
‘ॐ सोममण्डलाय षोडशकलात्मने देवार्घ्यामृताय नमः’
बोलते हुये उसमें जल भर कर इस मन्त्र से जल का पूजन कर उसमें
चन्द्रमा की अमृतादि १६ कलाओं का पूजन करना चाहिए ॥८-९॥
अमुकार्घ्यामृतायेति
हृन्मनुश्चार्घ्यपूजने ।
आवाह्येत्तत्र तीर्थानि तन्मन्त्रैः
सृणिमुद्रया ॥ १० ॥
रविमण्डलतः स्वीयहृदो देवमथावयेत् ।
अष्टकृत्वो जपेन्मन्त्रं स्पृष्ट्वा
जलमनन्यधीः ॥ ११॥
अप्सु विन्यस्य चाङ्गानि हृदा
संपूजयेदपः ।
मूलं जपेदष्टशतं च्छादयन्
मत्स्यमुद्रया ॥ १२ ॥
पुनः उस अर्घ्यादिक में अंकुश
मुद्रा प्रदर्शित कर ‘गङ्गे च यमुने
चैव’ इस मन्त्र से तीर्थो
का आवाहन करना चाहिए । फिर जल का स्पर्श करते हुये एकाग्रचित्त हो ८ बार मूलमन्त्र
का जप करना चाहिए । पश्चात् जल में अङ्गन्यास कर हृदय (नमः) मन्त्र से पुनः उसका
पूजन करना चाहिए । फिर मत्स्य मुद्रा से उसे आच्छादित कर १०८ बार मूल
मन्त्र का करना चाहिए ॥१०-१२॥
संरक्षेदस्त्रमन्त्रेण च्छोटिकामुद्रया
जलम् ।
मुद्रया चावगुण्ठिन्या वर्मणा
त्ववगुण्ठयेत् ॥ १३ ॥
अमृतीकृत्य गोमुद्रां
कुर्वन्नमृतबीजतः ।
सरोधिन्या सन्निरुध्य तत्र मुद्राः
प्रदर्शयेत् ॥ १४ ॥
शङ्खमौसल चक्राख्या परमीकृत्य
तत्पुनः ।
महामुद्रां विरचयन्योनि मुद्रां च
दर्शयेत् ॥ १५॥
फिर अस्त्र (फट्) मन्त्र से मुद्रा
द्वारा रक्षा करनी चाहिए । वर्म (हुं) मन्त्र से अवगुण्ठनी मुद्रा द्वारा
उसे गोंठ देना चाहिए । पुनः धेनुमुद्रा से अमृतीकरण करने के बाद अमृत बीज
(वं) मन्त्र से संरोधिनी मुद्रा प्रदर्शित करते हुये संरोधन कर शड्ख,
मुशल एवं चक्र मुद्रायें कर महामुद्रा से परमीकरण करना चाहिए
। तदनन्तर योनि मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१३-१५॥
कृष्णमन्त्रे गालिनी च रामे
गरुडमुद्रिकाम् ।
शङ्खाद् दक्षिण दिग्भागे
प्रोक्षणीपात्रपूरणम् ॥ १६ ॥
कृष्ण मन्त्र
के अनुष्ठान में गालिनी मुद्रा तथा राम मन्त्र के अनुष्ठान में गरुड
मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१६॥
कृत्वार्ष्याम्ब्वत्र निक्षिप्य
तेनोक्षेत्रिर्निजां तनुम् ।
प्रजपन मूलगायत्री पूजावस्तु च यं
तथा ॥ १७ ॥
पाद्याचमनपात्रे च
दध्यादय॑स्तथोत्तरे ।
शड्ख के दक्षिण दिशा में प्रोक्षणी
पात्र में जल भर कर अर्घ्य पात्र से उसमें थोडा जल डाल कर अपने शरीर का तीन बार
प्रोक्षण करना चाहिए । फिर मूलमन्त्र एवं गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते
हुये पूजा सामग्री को भी प्रोक्षित करना चाहिए । उस स्थापित की उत्तर दिशा
में पाद्य एवं आचमन पात्र स्थापित करना चाहिए ॥१६-१८॥
एवमर्च्यविधिः प्रोक्तः सर्वसाधारणो
मया ॥ १८ ॥
यहाँ तक सभी देवताओं के पूजन में
प्रयुक्त विशेषार्घ्य स्थापन की सामान्य विधि मैने कही ॥१८॥
विहाय शंकरं सूर्यमये शङ्खः
प्रशस्यते ।
भगवान् शंकर
एवं सूर्यदेव को छोडकर अन्य समस्त देवताओं के अर्घ्य के लिए शड्ख पात्र
प्रशस्त माना गया है ॥१९॥
विमर्श - अर्घ्य पात्र स्थापन की
संक्षेप विधि -
पूर्व में आधार पात्र स्थापन की
विधि २२. १-३ में कह आये हैं । उस स्थापित आधार पात्र के पूर्वादि दश दिशाओं में अग्नि
की १० कलाओं का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा –
ॐ रं वहिनमण्डलाय दशकलात्मने नमः ।
ॐ यं धूम्रार्चिषे नमः,
ॐ रं रुष्मायै नमः, ॐ लं ज्वलिन्यै नमः,
ॐ वं ज्वालिन्यै नमः, ॐ शं विस्फुलिंगिन्यै नमः, ॐ षं सुश्रियै नमः
ॐ स्म स्वरुपायै नमः, ॐ हं कपिलायै नमः, ॐ ळं हव्यवाहायै नमः
फिर ‘ॐ क्लीं महाजलचराय हुं फट् स्वाहा पाञ्चजन्याय नमः’
इस मन्त्र से सामान्यार्घ्यक जल से शड्ख को प्रक्षालित करना चाहिए
। तदनन्तर ‘अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने
अमुकार्घ्यपात्राय नमः’ इस मन्त्र से आधार पात्र पर शड्ख
को स्थापित करना चाहिए ।
फिर उस शड्ख पर सूर्य की
द्वादश कलाओं का तत्तन्नामों से इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा –
ॐ कं भं तपिन्यै नमः,
ॐ खं बं तापिन्यै नमः,
ॐ गं फं धूम्रायै नमः ॐ घं पं मरीच्यै नमः,
ॐ डं नं ज्वालिन्यै नमः ॐ चं धं रुच्यै नमः,
ॐ छं दं सुषुम्णायै नमः ॐ जं थं भोगदायै नमः
ॐ झं तं विश्वायै नमः, ॐ ञं णं बोधिन्यै नमः,
ॐ टं ढं धारिण्यै नमः ॐ ठं डं क्षमायै नमः
तत्पश्चात् क्षं ळं हं शं ... आं अं
पर्यन्त विलोम मातृका से तथा विलोम मूलमन्त्र बोलते हुये शड्ख में जल भर कर ‘ॐ सोममण्डलाय षोडशकलात्मने अमुकार्घ्यामृताय नमः’,
मन्त्र से लाल चन्दन एवं पुष्पादि से उस जल का पूजन करना चाहिए ।
फिर चन्द्रमा की १६ कलाओं का
नाम उनके मन्त्रों से इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा –
ॐ अं अमृतायै नमः, ॐ आं मानदायै नमः,
ॐ इं पूषायै नमः, ॐ ईं तुष्ट्यै नमः, ॐ उं पुष्ट्यै नमः,
ॐ ऊं रत्यै नमः, ॐ ऋं धृत्यै नमः, ॐ ऋं शशिन्यै नमः,
ॐ लृं चण्डिकायै नमः, ॐ लृं कान्त्यै नमः, ॐ एं ज्योत्स्नायै नमः,
ॐ ऐं श्रियै नमः, ॐ ओं प्रीत्यै नमः, ॐ औं अङ्गदायै नमः,
ॐ अं पूर्णायै नमः, ॐ पूर्णामृतायै नमः
तदनन्तर
- ॐ गङ्गे यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन्
सन्निधिं कुरु ॥
ॐ ब्रह्मण्डोदरतीर्थानि
करस्पृष्टानि ते रवे ।
तेम सत्येन मे देव तीर्थं देहि
दिवाकर ॥
इस मन्त्र को पढकर अंकुश मुद्रा
द्वारा सूर्य मण्डल से अर्घ्योदक में तीर्थो का आवाहन कर हृदय में भी अपने
इष्टदेवता का आवाहन करना चाहिए । फिर जल का स्पर्श कर एकाग्रचित्त से ८ बार
मूलमन्त्र का जप कर जल में षडङ्गन्यास कर ‘नमः’
मन्त्र से जल का पूजन करना चाहिए ।
फिर मत्स्य मुद्रा से उसे
आच्छादित कर मूलमन्त्र का १०८ बार जप करना चाहिए । शेष श्लोकार्थ में स्पष्ट है ।
अब विशेषार्घ्य स्थापन के प्रसङ्ग में आई हुई मुद्राओं का लक्षण प्रदर्शित करते
हैं -
शड्ख मुद्रा का लक्षण
- द्रष्टव्य २२. १-२।
अंकुशमुद्रा
- दोनों मध्यमाओं को सीधा रखते हुए दोनों तर्जनियों को मध्य पोर के पस परस्पर
बाँधे । अब तर्जनियों को थोडा झुकाकर एक दूसरे को खींचे । यह अंकुश मुद्रा है ।
मत्स्यमुद्रा
- बाई हथेली को दाहिने हाथ के पृष्ठ भाग
पर रक्खे और फिर दोनों अड्गुठों को हथेली को पार करते हुए मिलाए । यह मत्स्य
मुद्रा है ।
छोटिकामुद्रा
- तर्जनी एवं अङ्गूठे के घर्षण से चुटकी बजाने को छोटिका मुद्रा कहते है ।
अवगुण्ठनमुद्रा
- दायें हाथ की मुट्ठी बाँध कर तर्जनी को अधोमुख करके पुनः उसे नियमित रुप से
आगे-पीछे करने से ‘अवगुण्ठन मुद्रा’
बनती है ।
धेनुमुद्रा
- बायें हाथ की मध्यमा को दाहिने हाथ की तर्जनी से और बायें हाथ की अनामिका को
दाहिने हाथ की कनिष्ठिका से मिलाये । इस प्रकार मिली अनामिका और कनिष्ठा को अङ्गुठे
से दबा कर उनसे बायें कन्धों का स्पर्श करे । यह धेनु मुद्रा हैं ।
सन्निरोधन मुद्रा -
दोनों हाथों की मुट्ठी को एक साथ आश्लिष्ट कर सन्निधान में दोनों अङ्गूठों को ऊपर
करना तन्त्रवेत्ताओं के द्वारा सन्निरोधन मुद्रा कही गई है । वही सन्निरोधनी ‘अङ्गगुष्ठगर्भिणी’ भी कही गई है ।
मुसलमुद्रा
- दोनों हाथों की मुठ्ठी बाँधे फिर दाहिनी मुट्ठी को बायें पर रक्खे । इसे मुसल मुद्रा कहते हैं
।
चक्रमुद्रा
- दोनों हाथों को इस प्रकार सम्मुख रक्खे कि दोनों हथेलियाँ ऊपर हों । फिर दोनों
हाथों की उंगलियों को मोड कर मुटिठयाँ बना लेवे । अब दोनों अङ्ग्गूठों को झुका कर
परस्पर स्पर्श कराये और दोनों तर्जनियों को छोड कर दोनों हाथों की उंगलियों को
फैला दे । अंगूठे की ही भाँति दोनों तर्जनियाँ भी एक दूसरे का स्पर्श करती है । इस
चक्र मुद्रा कहते हैं ।
महामुद्रा
- दोनों अंगूठों को एक दूसरे के साथ ग्रथित करके दोनों हाथों की उँगलियों को
प्रसारित कर देने से परमीकरण के लिए विद्वानों के द्वारा महामुद्रा कही गई है ।
योनिमुद्रा
- दोनों कनिष्ठिकाओं को, तथा तर्जनी और
अनामिकाओं को बाँधे । अनामिका को मध्यमा से पहले किञ्चित मिलाये और फिर उन्हें
सीधा कर दे । अब दोनों अंगूठों को एक दूसरे पर रक्खे । यह योनि मुद्रा है ।
गालिनीमुद्रा
- दोनों हथेलियों को एक दूसरे पर रक्खे । कनिष्ठिकाओं को इस प्रकार मोडे कि वे
अपनी-अपनी हथेलियों का स्पर्श करें । तर्जनी, मध्यमा
और अनामिका उँगलियाँ सीधी और परस्पर मिली रहें । यह शड्ख बजाने की गालिनी मुद्रा
है ।
गरुडमुद्रा
- दोनों हाथों के पृष्ठ भाग को एक दूसरे से मिला लें । अब नीचे की ओर लटके हुए
दोनों हाथों की तर्जनी और कनिष्ठिका को एक दूसरे के साथ ग्रथित करे । इसी स्थिति
में दोनों हाथों की अनामिका और मध्यमाओं को उल्टी दिशाओं में किसी पक्षी के पंखों
की भाँति ऊपर नीचे जब किया जाय तब विष्णु का सन्तोषवर्धन करने वाली गरुड मुद्रा
होती है ॥१९॥
हेमरूप्योदुम्बराब्जरीतिदारुमृदुद्भवम्
॥ १९ ॥
पालाशं पद्मपत्रं वा स्मृतं
पाधादिभाजनम् ।
अशक्तावन्यपात्रेण पाद्यादीनि
निवेदयेत् ॥ २०॥
अब पाद्यादि पात्रों का वर्णन
कहते हैं -
सुवर्ण चाँदी ताँबा पीतल पलाश के
पत्ते अथवा कमल मे पत्तों से बने पाद्य आदि के पात्र श्रेष्ठ कहे गये है । अशक्त
होने पर पाद्य पात्र अपने इष्ट देवता को निवेदन करना चाहिए ॥१९-२०॥
देहमयपीठेऽन्तर्यागकरणविधिः
अन्तर्यागं ततः कुर्यात् पीठे
देहमये सुधीः ।
न्यासस्थानेषु
मण्डूकमुख्यान्गन्धादिभिर्यजेत् ॥ २१ ॥
पीठमन्त्रान्तमन्त्रेण हृदये
स्वेष्टदेवताम् ।
अब अन्तर्याग की प्रक्रिया
कहते हैं - विद्वान् साधक को अपने देहमय पीठ पर अन्तर्याग करना चाहिए । पीठ न्यास
में कहे गये स्थानों पर (द्र० २१. १५८-१६५) मण्डूकादि देवताओं का गन्धादि उपचारों
से पूजन करना चाहिए । फिर पीठ मन्त्र से अपने हृदय में इष्ट देवता का पूजन करना
चाहिए ॥२१-२२॥
कुण्डलीमथ चोत्थाप्य द्वादशान्ते
परं नयेत् ॥ २२ ॥
तदुत्थामृतधाराभिः प्रीणयेत्
स्वेष्टदेवताम् ।
जपं कृत्वा निवेद्यास्मै मनसा न
विसर्जयेत् ॥ २३ ॥
तदनन्तर आधार चक्र से कुण्डलिनी
को ऊपर उठाकर ब्रह्मरन्ध्र में वर्तमान परब्रह्म के पास ले जाना चाहिए और
वहाँ से टपकती हुई अमृत धारा से इष्टदेव को तृप्त करना चाहिये,
और जप कर उन्हें सारा जप समर्पित करना चाहिए । मन से उनका कभी
विर्सजन नहीं करना चाहिए ॥२२-२३॥
मूर्द्धहृत्पादगुह्येषु तनौ पुष्पाञ्जलीन्
क्षिपेत् ।
अन्तर्यागं विधायेत्थं
बाह्यपूजनमाचरेत् ॥ २४ ॥
बाह्यपूजने पीठादिपूजाविधिवर्णनम्
अन्तर्यागबहिर्यागौ गृहस्थः
सर्वमाचरेत् ।
आद्यमेव ब्रह्मचारी वानप्रस्थो
यतिस्तथा ॥ २५ ॥
फिर शिर,
हृदय, पैर, गुदाङ्ग एवं
समग्र शरीर पर पुष्पाञ्जलियाँ प्रत्यर्पित करनी चाहिए । इस तरह अन्तर्याग करके
वाह्यपूजन करना चाहिए । इस प्रकार गृहस्थ को अन्तर्याग और बहिर्याग दोनों करने का
अधिकार है । किन्तु ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और यति को मात्र
अन्तर्याग ही करना चाहिए ॥२४-२५॥
वर्द्धन्यां प्रक्षिपेत्
किञ्चिदर्घोदकमनन्यधीः ।
प्राणानायम्य मूलेन वामे गुरुचयं
नमेत् ॥ २६ ॥
दक्षिणे च गणेशान पीठपूजामथाचरेत ।
दिनिर्मिते यन्त्रे यद्वा
चन्दननिर्मिते ॥ २७॥
बाह्य पूजा विधि
- सर्वप्रथम साधक एकाग्र होकर अर्घ्यादिक का जल वर्द्धनी में डाले,
फिर मूलमन्त्र से प्राणायाम कर अपनी बायीं ओर गुरुपंक्ति को
तथा दाहिनी ओर गणपति को प्रणाम कर पीठ पूजा प्रारम्भ करे ॥२६-२७॥
स्वर्ण आदि से निर्मित अथवा चन्दन
लिखित यन्त्र पर मण्डूक से परतत्त्वान्त देवताओं का पूजन कर आठो दिशाओं में
तथा मध्य में पीठशक्तियों का पूजा करे ॥२७॥
मण्डूकात्परतत्त्वान्त दिङ्मध्ये
पीठशक्तयः।
पथिव्यनन्तरं पूज्यः
क्षीराब्धिर्माधवे श्रिया ॥ २८ ॥
इक्षसिन्धु
गणेशेस्यादन्यत्रामृतसागरः।
अग्निराक्षसवाय्वीशकोणे धर्मादयः
स्मृताः ॥ २९ ॥
लक्ष्मी
के साथ विष्णु पूजन करते समय क्षीर सागर का,गणेश पूजन काल में इक्षुसागर का तथा अन्य
देवताओं के पूजन में सागर का पूजन कर ॥२८-२९॥
इन्द्रकीनाशवरुणसोमाशासु नादिकाः ।
धर्मादिपूजने प्राची तथैवावरणार्चने
॥ ३०॥
पूजकस्य पुरः कल्प्याः शक्रादिषु
यथास्वकम् ।
फिर यन्त्र के आग्नेय,
नैऋत्य, वायव्य और ईशान कोणों में धर्म,
ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य का पूजन करे तथा
फिर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर
दिशाओं में अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य
तथा अनैश्वर्य का पूजन करना चाहिए । साधक को धर्मादि की पूजा तथा आवरण पूजा में
प्राची दिशा से आरम्भ करनी चाहिए । ‘पूज्य पूजकयोर्मघ्ये प्राचीकल्पः’
- ऐसा धर्मशास्त्र का वचन हैं, जिस प्रकार
इन्द्रादि दिक्पालों की पूजा प्राची से प्रारम्भ होती है ॥२८-३१॥
पीठशक्तिध्यानकथनम्
श्वेताकृष्णारुणापीता श्यामा
रक्तासितांसिता ॥ ३१॥
रक्ताम्बराऽभयधरा ध्येयाः स्युः
पीठशक्तयः ।
फिर श्वेत,
कृष्ण, अरुण, पीत,
श्याम, रक्त, श्वेत,
कृष्ण और रक्त वस्त्र धारण किये हुये तथा अभय मुद्रा वाली
पीठ शक्तियों का ध्यान करना चाहिए ॥३१-३२॥
शालग्रामे मणौ यन्त्रे नित्यपूजां
समाचरेत् ॥ ३२ ॥
हेमादिप्रतिमायां वा स्थापितायां यथाविधि
।
अङगुष्ठादि वितस्त्यन्त प्रमाणा
प्रतिमा गृहे ॥ ३३ ॥
पूज्यानदग्धा भिन्ना वा नोदर्ध्वाधोदृड्
न वक्रिका ।
लिङ्ग वा लक्षणोपेतं तत्रावाहमाचारेत्
॥ ३४ ॥
मूलमच्चार्य
हृदयात्सुषुम्नावर्त्मना सह ।
द्वारेण ब्रह्मारन्ध्रस्य नासारन्ध्रे
विनिर्गतम् ॥ ३५॥
शालग्राम
में, मणि में तथा में नित्यपूजा का विधान है । सुवर्णादि निर्मित प्रतिमा
अथवा सविधि स्थापित प्रतिमा का भी प्रतिदिन पूजन करना चाहिए। अंगूठे से लेकर १
बलिश्त की प्रतिमा का घर में भी पूजन किया जा सकता है । जली,
टूटी, उँची - नीची दृष्टि वाली तथा वक्र आकृति
की प्रतिमा का पूजन निषिद्ध है ॥३२-३४॥
सर्वलक्षण संयुक्त शिव लि्ङ्ग का पूजन घर में करना चाहिए और उसमें आवाहन भी करना चाहिए ॥३४॥
पुष्पाञ्जलौ मातृकाब्जे योजयित्वा
विनिक्षिपेत ।
मूत्तौं पुष्पाञ्जलिं
चैतदावाहनमुदीरितम् ॥ ३६ ॥
मूल मन्त्र का उच्चारण करते हुये
हृदय से सुषुम्ना मार्ग द्वारा ब्रह्मरन्ध्र में स्थित इष्टदेव को,
नासारन्ध्र से पुनः उन्हें निकाल कर, मातृका
यन्त्र पर स्थापित पुष्पाञ्जलि में एकीकृत कर उन्हें मूर्ति पर समर्पित कर देना
चाहिए । इस क्रिया को आवाहन कहते हैं ॥३५-३६॥
शालग्रामे स्थिरायां वा
नावाहनविसर्जने ।
आह्वानाद्युपचारेषु श्लोकाञ्छम्भूदितान्
पठेत् ॥ ३७ ॥
आत्मसंस्थमजं शुद्धं त्वामहं परमेश्वर ।
अरण्यामिव हव्यांशं
मूर्तावावाहयाम्यहम् ॥ ३८ ॥
शालग्राम शिला
में अथवा अचल प्रतिष्ठित मूर्ति में न तो आवाहन करना चाहिए और न तो विर्सजन ही
करना चाहिए । मूर्ति में आवाहनादि उपचारों से पूजा करते समय शंकर जी द्वारा कहे
गये इस श्लोक का उच्चारण करना चाहिए –
आत्मसंस्थमज्म त्वामहं परमेश्वर ।
अरण्यामिव हव्यांश
मूर्तावावाहयाप्यहम् ॥३७-३८॥
पञ्चायतनपूजाविधिवर्णनम्
पञ्चायतनपक्षे तु मध्ये विष्णुं
समर्चयेत् ।
अग्निनिर्ऋतिवायव्येशानेषु गणनायकम्
॥ ३९ ॥
रविं शिवां शिवं मध्ये
गणेशश्चेच्छिवं शिवाम् ।
अब पञ्चायतन में देवताओं के
स्थापन का क्रम कहते हैं -
पञ्चायतन के पक्ष में,
मध्य में विष्णु की पूजा होती है । फिर अग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, और ईशान कोण
में क्रमशः गणेश, रवि, शक्ति
और शिव का स्थापन, कर पूजा करनी
चाहिए ॥३९-४०॥
रविं विष्णु रवौ मध्ये
विघ्नाजनगजेश्वरान् ॥ ४० ॥
भवान्यां मध्य
संस्थायामीशविघ्नार्कमाधवान् ।
हरे मध्यगते
सूर्यगणेशगिरिजाच्युतान् ॥ ४१ ॥
मध्य में गणेश को स्थापित कर
पूजा करनी हो तो उक्त कोणों में क्रमशः शिव, शक्ति,
रवि और विष्णु का, रवि मध्य में हो तो उक्त
कोणों में गणेश, विष्णु, शक्ति और शिव
का, शक्ति, मध्य में हो तो उक्त कोणों
में शिव, गणेश, सूर्य और विष्णु का तथा
शिव मध्य में होने पर क्रमशः रवि, गणेश, शक्ति और अच्युत का पूजन करना चाहिए ॥४०-४१॥
गणेश
रवि विष्णु शिव
शक्ति |
शिव
रवि गणेश विष्णु
शक्ति |
गणेश विष्णु रवि शिव
शक्ति |
शिव
गणेश शक्ति विष्णु
रवि |
रवि
गणेश शिव विष्णु
शक्ति |
सम्पूज्यादौ मध्यगतं गणेशादि ततो यजेत् ।
गणेशे मध्यसंस्थे तु पूजयेद्
भास्करादितः ॥ ४२ ॥
काण्डानुसमयेनात्र पूजा प्रोक्ता
मनीषिभिः ।
सर्वप्रथम मध्यगत देव का पूजन करने
के बाद ही गणेशादि की पूजा करनी चाहिए । मध्य में गणेश होने पर उनका पूजन कर पुनः
रवि आदि के पूजन का विधा है । यहाँ प्राचीन मनीषियों ने काण्डानुसमय विधि से पूजा
बतलाई है - एक देवता का पूजाकाण्ड समाप्त कर दूसरे देवता का अर्चनकाण्ड ‘काण्डानुसमय’ कहा जाता है
॥४२-४३॥
आवाहनाद्युपचारमन्त्रमुद्रादिकथनम्
विधायावाहनं चेत्थमावाहन्या तु
मुद्रयाः ॥ ४३ ॥
संस्थापिन्या स्थापयेत्तु मूलान्ते
श्लोकमुच्चरन् ।
तवेयं महिमा मूर्तिस्तस्यां त्वां
सर्वगं प्रभो ॥ ४४ ॥
भक्तिस्नेहसमाकृष्टं
दीपवत्स्थापयाम्यहम् ।
ऊहः कार्यों भवान्यादौ
श्लोकेष्वावाहनादिषु ॥ ४५ ॥
अब पूजा का क्रम कहते है -
आवाहनी मुद्रा
से इस प्रकार इष्टदेव का आवाहन कर मूल मन्त्र के साथ
‘तवेयं महिमामूर्तिस्तस्यां त्वां
सर्वगं प्रभो ।
भक्तिस्नेहसमाकुष्टं
दीपवत्स्थापयाम्यहम्’ ॥
इस श्लोक को बोलते हुये संस्थापनी
मुद्रा से मूर्ति स्थापित करनी चाहिए । अपने इष्टदेव का पूजन करते समय
आवाहनादि के लिए भवानी, गणेश, रवि तथा विष्णु का ऊहापोह कर लेना चाहिए ॥४३-४५॥
विमर्श - आवाहन मुद्रा -
दोनों हाथों से अञ्जलि बाँध कर दोनों अंगूठों को अपनी-अपनी अनामिकाओं के मूल
पर्वों पर निक्षिप्त करना चाहिए । विद्वज्जन इसे आवाहनी मुद्रा कहते हैं ।
स्थापनी मुद्रा
- उक्त आवाहनी मुद्रा बनाकर उसे अधोमुख कर
देने से स्थापनी मुद्रा निष्पन्न होती है ॥४३-४५॥
मूलश्लोको पठन् कुर्यादासनं
चोपवेशनम् ।
सर्वान्तर्यामिणे देव सर्वबीजमयं
शुभम् ॥ ४६ ॥
स्वात्मस्थाय परं शुद्धमासनं
कल्पयाम्यहम् ।
अस्मिन्वरासने देव
सुखासीनोऽक्षरात्मक ॥ ४७ ॥
अब आसनदान तथा उपवेशन कहते
हैं - मूलमन्त्र के साथ ‘सर्वान्तर्यामिणे
देव सर्वबीजमय्म शुभम्, स्वात्मस्थाय पदं शुद्धमासनं
कल्पयाम्यहम्’ - यह श्लोक बोलकर,
आसन देना चाहिए । पुनः मूलमन्त्र के साथ ‘अस्मिन्वरासने
देव सुखसीनोऽक्षरात्मक प्रतिष्ठितो भवेश त्वं प्रसीद परमेश्वर’ यह श्लोक बोलकर उपवेशन कराना चाहिए ॥४६-४७॥
प्रतिष्ठितो भवेश त्वं प्रसीद
परमेश्वर ।
मूलं श्लोकं ततः कुर्यात् सन्निधानं
स्वमुद्रया ॥ ४८ ॥
अनन्या तव देवेश मूर्तिशक्तिरियं
प्रभो ।
सान्निध्यं कुरु तस्यां त्वं
भक्तानुग्रहतत्परः ॥ ४९ ॥
सन्निधान मूल मन्त्र के साथ - ‘अनन्या तव देवेश मूर्तिशक्तिरियं प्रभो सानिध्यं कुरु तस्यां त्वं
भक्तानुग्रहतत्परः’ - इस श्लोक को बोलकर सन्निधान
मुद्रा से सन्निधान करना चाहिए ॥४८-४९॥
विमर्श - सन्निधानमुद्रा का
लक्षण - तन्त्रवेत्ताओं के द्वारा दोनों मुट्ठियों को एक साथ मिलाना और दोनों
अंगूठों को ऊपर उठाना सन्निधान मुद्रा कही गई है ॥४८-४९॥
पठन्मूलं तथा श्लोकं सन्निरुध्यात्
स्वमुद्रया ।
आज्ञया तव देवेश
कृपाम्भोधेगुणाम्बुधे ॥ ५० ॥
अब सन्निरोधन कहते हैं - मूल
मन्त्र के साथ’ आज्ञया तव ... निरुणघ्मि
पितर्गुरौ पर्यन्त श्लोक बोलते हुये सन्निरोधमुद्रा
द्वारा सन्निरोधन करना चाहिए ॥५०॥
आत्मानन्दैक तृप्तं त्वां निरुणध्मि
पितर्गुरो ।
मुद्रया सम्मुखी कुर्यान्मूलं
श्लोकं च संपठन् ॥ ५१॥
अज्ञानाद् दुर्मनस्त्वाद्वा
वैकल्यात् साधनस्य च ।
यदपूर्ण भवेत् कृत्य तदप्यभिमुखो भव
॥ ५२ ॥
सम्मुखीकरण
- मूलमन्त्र के साथ ‘अज्ञानाद्
दुर्मनस्त्वाद्वा ... भव’ पर्यन्त
श्लोक पढकर सम्मुखी मुद्रा द्वारा सम्मुखीकरण करना चाहिए ॥५१-५२॥
विमर्श - सम्मुखीकरणमुद्रा
- हृदय पर बंधी हुई अञ्जली रखना
सम्मुखीकरणमुद्रा कही गयी है ॥५१-५२॥
कुर्वीत मूलश्लोकाभ्यां प्रार्थन्या
मुद्रयार्चने ।
दृशापीयूषवर्षिण्या पूरयन्यज्ञविष्टरम्
॥ ५३॥
मूतौं वा यज्ञसंपूर्तेः स्थिरो भव
महेश्वर ।
न्यसेत् षडङ्ग देवाङ्गे सकलीकरणं
सुधीः ॥ ५४ ॥
अब सकलीकरण कहते है -
मूलमन्त्र के साथ ‘दृशापीयूष...
महेश्वर; पर्यन्त श्लोक पढते
हुये प्रार्थिनी मुद्रा द्वारा इष्टदेव का पूजन करना चाहिए । देवता के अङ्गो में
षडङ्गन्यास को विद्वान् लोग सकलीकरण कहते हैं ॥५३-५४॥
मूलं श्लोकं पठन् कुर्यादवगुण्ठं
स्वमुद्रया ।
अव्यक्तवाङ्मनश्चक्षुः
श्रोत्रदूरामितद्युते ॥ ५५॥
अब अवगुण्ठन कहते हैं -
मूलमन्त्र के साथ ‘अव्यक्त... सर्वतः’
पर्यन्त श्लोक पढते हुये अवगुण्ठन करना चाहिए ॥५५॥
विमर्श - अवगुण्ठन मुद्रा -
(द्र० २२. १९) ॥५५॥
स्वतेजः पञ्जरेणाशु वेष्टितो भव
सर्वतः ।
गोमुद्रयामृतीकृत्य विदध्यात्
परमाकृतिम् ॥ ५६ ॥
अमृतीकरण एवं परमीकरण
- धेनुमुद्रा से अमृतीकरण करने के बाद महामुद्रा प्रदर्शित करते हुये परमीकरण करना
चाहिए । फिर इष्टदेव का स्वागत करना चाहिए ॥५६॥
विमर्श - धेनुमुद्रा,
महामुद्रा - (द्र० २२. १९)
॥५६॥
महामुद्रां विरचयस्ततः
स्वागतमाचरेत् ।
मूलमन्त्र तथा श्लोकं
पठस्तद्गतमानसः ॥ ५७॥
यस्य दर्शनमिच्छन्ति देवाः
स्वाभीष्टसिद्धये ।
तस्मै ते परमेशाय स्वागतं स्वागतं च
ते ॥ ५८ ॥
ततः सुस्वागतं कुर्यान्मूलश्लोकौ
समुच्चरन् ।
कृतार्थोऽनुगृहीतोऽस्मि सफलं जीवितं
मम ॥ ५९ ॥
आगतो देवदेवेश सुस्वागतमिदं पुनः ।
स्वागत एवं सुस्वागत मूल मन्त्र के
साथ ‘यस्य ... स्वागतं च तें’ पर्यन्त
श्लोक पढते हुये निज इष्ट देव का स्वागत करना चाहिये । फिर मूल मन्त्र के साथ - ‘कृतार्थो... सुस्वागतमिदं पुनः’ पर्यन्त (द्र०
५९, ६०) श्लोक पढते हुये इष्टदेव का सुस्वागत करना चाहिए
॥५७-५९॥
पाद्यद्रव्यकथनम्
श्यामाकविष्णुक्रान्ताब्जदूर्वाः
पाद्यजले क्षिपेत् ॥ ६०॥
मूलश्लोकनमोमन्त्रैः पाद्यं
पादाम्बुजेंऽर्पयेत् ।
यद्भक्तिलेश सम्पर्कात्
परमानन्दविग्रहम् ॥ ६१ ॥
तस्मै ते चरणाब्जाय पाद्यं शुद्धाय
कल्पये ।
पाद्यसमर्पण विधि
- श्यामाक, विष्णुक्रान्ता (अपराजिता),
कमल एवं दूर्वा पाद्य जल में मिलाना चाहिए । फिर मूल मन्त्र के साथ ‘यद्भक्तिलेशशुद्धाय कल्पये पर्यन्त (द्र०
२२.६१) श्लोक पढ के अन्त में नमः जोड कर इष्टदेव के चरण कमलों में पाद्य समर्पित
करना चाहिए ॥६०-६२॥
आचमनीयद्रव्यकथनम्
लवङ्गजातिककोल प्रक्षिप्याचमनीयके ॥
६२॥
दद्यादाचमनं वक्त्रे
मूलश्लोकसुधाक्षरैः।
वेदानामपि वेद्याय देवानां
देवतात्मने ॥ ६३ ॥
आचामं कल्पयामीश शुद्धानां
शुद्धिहेतवे ।
आचमन विधि
- लवंग,
जायफल और कंकोल ये तीन वस्तुये, आचमनीय जल में
मिलाना चाहिए । फिर मूल मन्त्र पढकर ‘वेदानामपि...शुद्धिहेतवे’
पर्यन्त (द्र० २२. ६३) श्लोक कहकर इष्टदेव को आचमन देना चाहिए
॥६२-६४॥
अर्घ्यद्रव्यकथनम्
अर्घ्यपात्रे क्षिपेद्
दूर्वास्तिलदर्भाग्रसर्षपान् ॥ ६४ ॥
यवपुष्पाक्षतान्गन्धं तेनार्य
मूर्ध्नि चाचरेत् ।
मूलश्लोकशिरोमन्त्रैः देवस्य
मनुवित्तमः ॥ ६५ ॥
तापत्रयहरं दिव्यं परमानन्दलक्षणम् ।
तापत्रय विनिर्मुक्तं तवाऱ्या
कल्पयाम्यहम् ॥ ६६ ॥
अर्ध्यदान विधि
- अर्घ्यपात्र में दूर्वा, तिल, कुशा का अग्रभाग, सर्षप, यव,
पुष्प, अक्षत एवं कुंकुम डालना चाहिए। फिर मूल
मन्त्र के साथ ‘तापत्रहरं’ से ‘कल्पयाम्यहम्’ (द्र० २२. ६६) पर्यन्त श्लोक के
अन्त में स्वाहा पढकर देवता को शिर पर अर्घ्य देना चाहिए ॥६४-६६॥
मधुपर्कद्रव्यकथनम्
पात्रे तु मधुपर्कस्य दध्याज्यमधु च
क्षिपेत् ।
मूलश्लोकसुधामन्त्रैर्दद्यात्तं
वदने प्रभोः॥ ६७ ॥
सर्वकालुष्यहीनाय परिपूर्णसुखात्मने
।
मधुपर्कमिदं देव कल्पयामि प्रसीद मे
॥ ६८ ॥
पुनराचमनं दद्यान्मूलश्लोकान्तरं
पठन् ।
मधुपर्कदान विधि
- मधुपर्क के पात्र में दही, घी एवं शहद
डालना चाहिए फिर मूल मन्त के साथ ‘सर्वकालुष्य...प्रसीद
में’ (द्र० २२. ६८) पर्यन्त श्लोक पढकर अन्त में ‘वं’यह सुधा बीज बोलते हुये इष्टदेव के मुख में मधुपर्क
समर्पित करना चाहिए ॥६७-६९॥
उच्छिष्टोप्यशुचिर्वापि यस्य
स्मरणमात्रतः ॥ ६९ ॥
शुद्धिमाप्नोति तस्मै ते
पुनराचमनीयकम् ।
स्नानवस्त्राभरणाद्युपचारकथनम्
स्नानवस्त्रोपवीतान्ते
नैवेद्यान्तेऽपि तत्स्मृतम् ॥ ७० ॥
पाद्यादिवस्त्वभावे तु
तत्स्मरन्नक्षतान्क्षिपेत् ।
पुनराचमन विधि
- मूल मन्त्र के साथ ‘उच्छिष्टो...पुनराचमनीयकम्’
पर्यन्त (द्र०२२. ६९-७०) श्लोक पढ्कर पुनराचमनीय समर्पित करना चाहिए
। इसी प्रकार स्नान, वस्त्र तथा यज्ञोपवीत एवं नैवेद्य के
बाद भी पुनराचमनीय देना चाहिए । पाद्य आदि वस्तुओं के अभाव में उनका स्मरण कर
मात्र अक्षत चढा देना चाहिए ॥६९-७१॥
गन्धतैलं ततो दद्यान्मूलश्लोकं
पठन्सुधीः ॥ ७१॥
स्नेहं गृहाण स्नेहेन लोकनाथ महाशय ।
सर्वलोकेषु शुद्धात्मन् ददामि
स्नेहमुत्तमम् ॥ ७२ ॥
तैल उद्वर्तन एवं स्नान विधि
- मूल मन्त्र के साथ ‘स्नेहं गृहाण...
स्नेहमुतमम्’ (द्र० २२. ७२)
पर्यन्त श्लोक पढकर सुगन्धित तेल लगाना चाहिए ॥७१-७२॥
हरिद्राद्यैस्तमुद्वर्त्य
स्नापयेदुभयं पठन् ।
परमानन्दबोधाब्धि निमग्ननिजमूर्तये
॥ ७३ ।।
फिर हरिद्रा लेपन करने के
बाद निज इष्टदेव को मूल मन्त्र के साथ ‘परमानन्द...कल्पयाम्यमीशते’
पर्यन्त (द्र० २२.७३-७४) श्लोक पढकर स्नान करना चाहिए ॥७१-७३॥
साङ्गोपाङ्गमिदं स्नानं
कल्पयाम्यहमीशते ।
ततः सहस्र शखेन शतं वाशक्तितोऽपि वा
॥ ७४ ।।
अभिषेक विधि
- इसके बाद एक हजार अथवा १ सौ अथवा यथा शक्ति शड्ख से सुगन्धित जल से मूल मन्त्र
बोलते हुये इष्ट देवता का अभिषेक करना चाहिए ॥७४॥
गन्धयुक्तोदकैरीशमभिषिञ्चेन्मनु
स्मरन् ।
पठन्मूलं ततः श्लोकौ
दद्याद्वस्त्रोत्तरीयके ॥ ७५ ।।
मायाचित्र पटच्छन्ननिजगुह्योरुतेजसे
।
निरावरणविज्ञानवासस्ते कल्पयाम्यहम्
॥ ७६ ॥
यमाश्रित्य महामाया जगत्सम्मोहिनी
सदा ।
तस्मै ते परमेशाय
कल्पयाम्युत्तरीयकम् ॥ ७७ ॥
पीतं विष्णौ सितं शम्भौ रक्तं
विघ्नार्कशक्तिषु ।
सच्छिद्रं मलिनं जीणं
त्यजेत्तैलादिदूषितम् ॥ ७८ ॥
उपवीतं भूषणानि प्रयच्छेदुभयं पठन् ।
वस्त्र एवं उत्तरीय दान विधि
- मूलमन्त्र के साथ ‘मायाचित्र’
से ‘कल्पयाम्यहम्’ पर्यन्त (द्र० २२. ७६) श्लोक पढते हुये वस्त्र प्रदान करना चाहिए । फिर
मूल मन्त्र के साथ यमाश्रित्य...उत्तरीयकम्’ पर्यन्त
(द्र० २२. ७७) श्लोक पढकर इष्टदेव को उत्तरीय प्रदान करना चाहिए । विष्णु
को पीतवर्ण का, सदाशिव को श्वेत
वर्ण का, गणपति, सूर्य एवं शक्ति को रक्त वर्ण का वस्त्र प्रिय है । फटा हुआ, मैला, पुराना एवं तैलादि दूषित वस्त्र पूजा में
सर्वथा त्याज्य हैं ॥७५-७९॥
यस्य शक्तित्रयेणेदं सम्प्रोतमखिलं
जगत् ॥ ७९ ॥
यज्ञसूत्राय तस्मै ते यज्ञसूत्रं
प्रकल्पये ।
स्वभावसुन्दराङ्गाय
नानाशक्त्याश्रयाय ते ॥ ८०॥
उपवीत एवं आभूषण समर्पण विधि
- मूलमन्त्र के साथ ‘यस्य...यज्ञसूत्रं
प्रकल्पये’ पर्यन्त (द्र० २२.
७९-८०) श्लोक पढकर यज्ञोपवीत चढाना चाहिए । इसके बाद पुनः मूलमन्त्र के साथ ‘स्वभाव...कल्पयाम्यमरार्चितम्’ पर्यन्त (द्र०२२.
८०-८१) श्लोक पढकर इष्टदेव को विविध आभूषण समर्पित करना चाहिए ॥७९-८०॥
भूषणानि विचित्राणि
कल्पयाम्यमरार्चितम् ।
मूलमन्त्रेण पुटितमेकैकं
मातृकाक्षरम् ॥ ८१॥
लोकमोहन न्यास विधि
- मूलमन्त्र से संपुटित मातृकाक्षरों (वर्णमाला) के एक एक अक्षर का देवता के अङ्गो
पर न्यास करना चाहिए । इसे लोकमोहन न्यास कहते हैं ॥८१॥
विन्यसेद देवताङ्गेषु योगोऽयं
लोकमोहनः।
कनिष्ठया पात्रसंस्थं पूर्ववद्
गन्धमर्पयेत् ॥ ८२ ॥
परमानन्दसौभाग्यपूरिपूर्णदिगन्तरम्
।
गृहाण परमं गन्धं कृपया परमेश्वर ॥
८३ ॥
ततः कनिष्ठागुष्ठाभ्यां गन्धमुद्रां
प्रदर्शयेत् ।
गन्धदान विधि
- मूल मन्त्र के साथ ‘परमानन्दसौभाग्य...
कृपया परमेश्वर’ पर्यन्त (द्र०
२२. ८३) श्लोक बोलते हुये कनिष्ठा अंगुली से पात्र में रखे गए गन्ध ले कर गन्ध
समर्पण करना चाहिए । फिर कनिष्ठा और अंगूठ मिलाकर गन्ध मुद्रा प्रदर्शित
करनी चाहिए ॥८२-८४॥
मूलंश्लोकं पठन्नानापुष्पाणि
विनिवेदयेत् ॥ ८४ ॥
तुरीयवनसंभूतं नानागुणमनोहरम् ।
पुष्पसमर्पण विधि
- मूल मन्त्र के साथ ‘तुरीयवन संभूतं ...
गृह्यतामिदमुत्तम्म पर्यन्त’ (द्र०
२२. ८५) श्लोक पढकर नानाविध पुष्प समर्पित करना चाहिए । फिर तर्जनी एवं अंगूठे को
मिलाकर पुष्प मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥८४-८५॥
अमन्दसौरभं पुष्पं
गृह्यतामिदमुत्तमम् ॥ ८५॥
तजन्यगुष्ठयोगेन पुष्पमुद्रां
प्रदर्शयेत् ।
विहितनिषिद्धपुष्पपूजाकथनम्
अक्षतानाधत्तूरौ विष्णौ
नैवार्पयेत्सुधीः ॥ ८६ ॥
बन्धूक केतकी कुन्द केसरं कुटजं
जपाम् ।
शंकरे नार्पयेद्विद्वान्मालतीं
यूथिकामपि ॥ ८७॥
शक्तौ दूर्वार्कमन्दारान् मालूरं
तगरं रवौ ।
विनायके तु तुलसी नार्पयेज्जातुचिद्
बुधः ॥ ८८ ॥
श्वेतं पीतं हरेरिष्टं रक्तं
रविगणेशयोः ।
अब तत्तद्देवताओं के पूजन में वर्जित
पुष्प कहते हैं - बुद्धिमान साधक विष्णु को अक्षत,
आक एवं धतूरा का पुष्प न चढावे । बन्धूक (दुपहरिया), केतकी, कुन्द, मौलिसिरी कुटज(कौरैय),
जयपर्ण, मालती, एवं जूही
के पुष्प शिव को न चढावे । दूब, धतूरा, मन्दार, हरसिङार, बेल दुर्गा
पर नहीं चढाना चाहिए । इसी प्रकार सूर्य को तगर और गणपति को तुलसी पत्र
कभी भी न समर्पित करे । श्वेत तथा पीत वर्ण के पुष्प विष्णु को प्रिय है ।
रक्त वर्ण के पुष्प सूर्य एवं गणेश जी के लिए प्रशस्त माने गये हैं
॥८५-८९॥
निर्गन्धं केशकीटादि दषितं
चोग्रगन्धकम् ॥ ८९ ॥
मलिनं तुच्छसंस्पृष्टमाघ्रातं
स्वविकासितम् ।
अशुद्धभाजनानीतं स्नात्वानीतं च
याचितम् ॥ ९० ॥
शुष्कं पर्युषितं कृष्णं भूमिगं
नार्पयेत्सुमम् ।
अब निषिद्ध पुष्प कहते हैं -
गन्धरहित,
केश एवं कीट, दूषित, उग्रगन्धि,
मलिन, नीच व्यक्ति से संस्पृष्ट आघ्रात,
अपने प्रयन्त से विकास को प्राप्त, अशुद्धपात्र
में रखे गये, स्नान कर आर्द्र
वस्त्र से लाये गये, याचित, सूखे हुये,
वासी, काले वर्ण के, पृथ्वी
पर नीचे गिरे हुये फूलों को देवता नहीं चढाना चाहिए
॥८९-९१॥
चंपक कमलं त्यक्त्वा कलिकामपि
वर्जयेत ॥ ९१॥
कुरण्टकं काञ्चनार वर्जयेद्
बृहतीयुगम् ।
पुष्पं पत्रं फलं देवे न
प्रदद्यादधोमुखम् ॥ ९२ ॥
पुष्पाञ्जलौ न तद्दोषस्तथा
पर्युषितस्य च ।
चम्पा और कमल की कलियों को छोडकर
अन्य पुष्पों की कलियाँ पूजा में वर्जित हैं । कुरण्टक,
कचनार और दोनों प्रकार के बृहती पुष्प भी पूजा में वर्जित माने गये
हैं । पुष्प, पत्र फल अधोमुख कर देवता को नहीं चढाना चाहिए ।
पुष्पाञ्जलि में पर्युषित तथा अघोमुख पुष्पों, का दोष नही
माना जाता ॥९१-९३॥
तुलसीबकुलो वृक्षश्चम्पकश्च सरोजिनी
॥ ९३ ॥
बिल्वकल्हारदमनास्तथामरुबकः कुशः।
दूर्वाहिवल्यपामार्गविष्णक्रान्तामनिद्रमाः
॥ ९४॥
पूजा में ग्राह्य पत्र,
तुलसी, मौलसिरी, चम्पा,
कमलिनी, बेल, कल्हार
(श्वेत कमल), दमनक, महुआ, कुशा, दूर्वा, नागवल्ली,
अपामार्ग, विष्णुकान्ता, अगस्त्य तथा आँवला इनके पत्तों से देवताओं की पूजा प्रशस्त कही गई है
॥९३-९४॥
धात्रीयुतानामेतेषां पत्रैः
कुर्यात्सुरार्चनम् ।
जम्बूदाडिमजम्बीरतितिणी बीजपूरकाः ॥
९५॥
रम्भाधात्री च बदरीरसालः पनसोऽपि च
।
एषां फलैर्यजेद्देवं तुलसी तु हरेः
प्रिया ॥ ९६ ॥
सुर्वणपुष्पं तुलसी नैवनिर्माल्यतां
व्रजेत् ।
अब प्रशस्त फलों को कहते हैं
- जामुन,
अनार, नींबू, इमली,
बिजौरा, केला, आँवला,
वैर, आम तथा कटहल के फलों से देव पूजा करनी
चाहिए । तुलसी तो विष्णुप्रिया है, अतः अमलतास का
पुष्प तथा तुलसी ये दोनों कभी निर्माल्य नहीं होते ॥९५-९७॥
पुष्पपूजा विधायेत्थं
कुर्यादावरणार्चनम् ॥ ९७ ॥
अङ्गादि दिक्पहेत्यन्तं ततो
धूपादिकं चरेत् ।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयं
शिरः ॥ ९८ ॥
शिखां कवचमाराध्य नेत्रमग्रे
प्रपूजयेत् ।
दिक्ष्वस्त्रमनदेव्यस्ता ध्यातव्या
वामलोचनाः ॥ ९९ ॥
सिताश्वेतासितास्तिस्रो
रक्ताइष्टाभयान्विताः ।
स्वदिक्षु प्रयजेद्
दिक्पाजातिहेत्यादि संयुतान् ॥ १०० ॥
आवरणपूजाप्रकारप्रयोगकथनम्
तारादि
निजबीजाद्यास्तत्प्रयोगोऽधुनोच्यते ।
अब आवरणार्चन का विधान कहते
हैं - इस प्रकार पुष्प पूजा करने के बाद षडङ्गपूजा से प्रारम्भ कर दिक्पाल
तथा उनके आयुधों की पूजापर्यन्त आवरण पूजा करनी चाहिए । इसके बाद धूप,
दीप आदि उपचारों से अपने इष्टदेव का पूजन करना चाहिए । आग्नेय,
नैऋत्य, वायव्य तथा ईशान कोणों में हृदय,
शिर, शिखा एवं कवच का पूजन कर अग्रभाग में
नेत्र तथा दिशाओं में अस्त्र पूजा करनी चाहिए । अङ्गपूजा करते समय ३ श्वेत वर्ण
वाली तथा ३ रक्तवर्ण वाली इस प्रकार कुल ६ अङ्ग देवियों का ध्यान करना चाहिए । ये
अङ्ग देवियाँ अत्यन्त मनोहर स्त्री वेष में सुशोभित है और हाथों में वर तथा अभय
धारण किये हुये हैं । इसके बाद अपनी अपनी दिशाओं में जाति (वाहन) और आयुधों के साथ
दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इनके पूजा मन्त्रों के प्रारम्भ में तार (ॐ) तथा
अपने अपने बीजाक्षरों (लं रं मं क्षं वं यं सं हं ह्रीं आं) को लगाना चाहिए
॥९७-१०१॥
तारं बीजमथेन्द्रायामुकाधिपतये ततः
॥ १०१॥
सायुधाय सवाहान्ते नायसान्ते परीति
च ।
वारायान्ते सशक्तीतिकायामुकपदं ततः॥
१०२॥
पार्षदाय नमोन्तोऽयं दिक्पालानां
मनुः स्मृतिः ।
इन्द्रायेति पदस्थाने
वढ्यादिपदमुच्चरेत् ॥ १०३ ॥
आद्यामुकपदस्थाने
क्रमाज्जातीर्वदेत्सुधीः ।
सुरतेजः प्रेतरक्षः सलिलप्राणतारकाः
॥ १०४ ॥
भूताहिलोका विज्ञेया आशापालकजातयः ।
पार्षदात् पूर्वममुकस्थाने
स्यात्स्वेष्टदेवता ॥ १०५ ।।
बीजानि पूर्वमुक्तानि
वाहनान्यायुधान्यपि ।
या तु तोयपयोर्मध्येऽनन्तं
पूर्वेशयोऽस्तु कम् ॥ १०६ ॥
प्रत्यावृत्ति क्षिपेदे देवे पुष्पं
मन्त्रमिमं जपन् ।
अभीष्टसिद्धि मे देहि शरणागतवत्सल ॥
१०७॥
भक्त्या समर्पये
तुभ्यमिदमावरणार्चनम् ।
आह्वानाधुपचारेषु प्रत्येकं
पुष्पपाथसी ॥ १०८ ॥
उसकी प्रयोग विधि इस प्रकार
है - तार (ॐ), फिर अपना बीजाक्षर, फिर इन्द्राय इत्यादि, फिर ‘अमुकाधिपतये सायुधाय सवाहनाय सपरिवाराय सशक्तिकाय’ के बाद ‘अमुक पदाय’, फिर
‘अमुकपार्षदाय’, इसके अन्त में
नमः लगाने से दिक्पालों के पूजा मन्त्र बन जाते है । इन्द्राय के बाद अन्य
दिक्पालों की पूजा करते समय उसके स्थान में आग्नेय आदि पद का ऊहापोह कर लेना चाहिए
। अमुक पद के स्थान में उनकी जाति बोलनी चाहिए । सुरतेज, प्रेत,
रक्ष, जल, प्राण,
नक्षत्र, भूत, नाग और लोक ये १० दिक्पालों की जातियाँ है ।
पार्षदाय के पहले आये अमुक के स्थान पर अपने इष्टदेव का नाम उच्चारण करना चाहिए ।
इनके बीज, वाहन और आयुध पहले कह आये हैं । निऋति और वरुण
के बीज में अनन्त का तथा पूर्व और ईशान के मध्य में ब्रह्मा के पूजन से दश
दिक्पाल संख्या पूर्ण हो जाती है ॥१०१-१०८॥
विमर्श - दिक्पालों की पूजा के
मन्त्र - ॐ लं इन्द्राय सुराधिपतये सायुधाय सवाहनाय सपरिवाराय सशक्तिकाय
ममामुकेष्टदेवता पार्षदाय नमः ।
ॐ रं अग्नये तेजोधिपतये सायु० सवाह०
सपरि० सशक्ति० ममामुकेष्टदेवता पार्षदाय नमः । ॐ मं यमाय प्रेताधिपतये... नमः । ॐ
क्षं निऋतये रक्षिधपितये... नमः । ॐ वं वरुणाय जलाधिपतये ... नमः । ॐ यं वायवे
प्राणाधिपतये ... नमः । ॐ सं सोमाय नक्षत्रधिपतये... नमः । ॐ हं ईशानाय भूताधिपतये
... नमः । ॐ ह्रीं अनन्तयाय नागाधिपतये... नमः । ॐ आं ब्रह्मणे लोकाधिपतये... नमः
॥९७-१०८॥
प्रत्येक देवता के आवाहनादि
प्रत्येक उपचार में जल तथा पुष्प चढाना चाहिए । फिर हाथ धो कर अन्य उपचारों से
पूजा करनी चाहिए ॥१०८॥
दत्वा प्रक्षाल्य च करमुपचारान्तरं
चरेत् ।
धूपदीपविधिविशेषकथनम्
धूपपात्रस्थिताङ्गारे क्षिप्त्वागुरुपुरादिकम्
॥ १०९ ॥
पात्रमस्त्रेण सम्प्रोक्ष्य हृदा
पुष्पं समर्पयेत् ।
संस्पृशन्वामतर्जन्या मूलश्लोकं च
संपठेत् ॥ ११० ॥
वनस्पतिरसोपेतो गन्धाढ्यः सुमनोहरः
।
आप्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं
प्रतिगृह्याताम् ॥ १११ ॥
साङ्गाय सपरीत्यन्ते वाराय डेन्तदेवता
।
धूपं समर्पयामीति नमोन्तं
मन्त्रमुच्चरन् ॥ ११२ ॥
शङ्खाम्बु प्रक्षिपेद् भूमौ
धूपमुद्रां प्रदर्शयेत् ।
तर्जन्यगुष्ठयोगेन घण्टामर्चेत्
स्वमन्त्रतः ॥ ११३ ॥
धूपदान विधि
- धूप पात्र में स्थित अङ्गार पर अगर तथ गुग्गुल रख कर ‘फट्’ मन्त से पात्र का प्रक्षालन कर ‘नमः’ मन्त्र से पुष्प समर्पित करना चाहिए । फिर
बायें हाथ की तर्जनी से धूप पात्र का स्पर्श करते हुये मूल मन्त्र के साध ‘वनस्पतिरसोपेतो गन्धाढयः सुमनोहरः’ । आघ्रेयः
सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्’ - इस मन्त्र को पढकर ‘साङ्गाय’, ‘सपरिवाराय; ‘अमुक देवताय
धूपं सर्मपयामि नमः’ - इस मन्त्र को बोलते हुये शड्ख के जल
को भूमि पर छोडना चाहिए तथा दाहिने हाथ की तर्जनी और अंगूठे को मिलाकर धूप
मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए । फिर अपने मन्त्र से घण्टा का पूजन करना चाहिए ।
तदनन्तर धूप देना चाहिए ॥१०९-११३॥
जयध्वनि मन्त्रमातः स्वाहान्तः
सदशाक्षरः ।
वादयन्वामहस्तेन
कीर्तयन्देवतागुणान् ॥ ११४ ॥
धूपयेद् दक्षहस्तेन देवतानाभिदेशतः ।
जलं पुष्पाञ्जलिं
दद्याद्दीपदानमपीदृशम् ॥ ११५ ॥
‘जयध्वनिमन्त्रमातः
स्वाहा’ - इस दशाक्षर मन्त्र
से घण्टा का पूजन करना चाहिए । फिर बायें हाथ से घण्टा बजाते हुये, इष्टदेव की स्तुति करते हुये दाहिने हाथ से देवता की नाभि के पास धूप देनी
चाहिए । फिर शड्ख का जल तथा पुष्पाञ्जलि देनी चाहिए । दीप दान में भी इसी प्रकार
प्रोक्षणादि क्रिया करनी चाहिए ॥११४-११५॥
वाममध्यया स्पर्शो मूलश्लोकस्य
कीर्तनम् ।
सुप्रकाशो महादीपः सर्वतस्तिमिरापहः
॥ ११६ ॥
सबाह्याभ्यन्तरं ज्योतिर्दीपोऽयं
प्रतिगृह्यताम् ।
धूपस्थाने दीपपदं
मध्यमाङ्गुष्ठयोगतः ॥ ११७ ।।
दीपमुद्रा दर्शनं च तद्दानं
नेत्रदेशतः ।
भूरिपक्षे तु वर्तीनां विषमावर्तिका
मताः ॥ ११८ ॥
घृतदीपो दक्षिणे स्यात् तैलदीपस्तु
वामतः।
सितवर्तियुतो दक्षे वामाङ्गे
रक्तवर्तिकः ॥ ११९ ॥
अत्रान्यद्भूपवज्ज्ञेयं ततो
नैवेद्यमर्पयेत् ।
अब दीपदान में विशेष कहते
हैं - बायें हाथ की मध्यमा अंगुलि से दीप स्पर्श करते हुये मूल मन्त्र के साथ ‘सुप्रकाशी महादीपः ... प्रतिगृह्यताम’
पर्यन्त (द्र० २२. ११६-११७) मन्त्र पढकर, पूर्वोक्त
धूप मन्त्र के धूप के स्थान पर ‘दीप पद लगाकर ‘साङ्गाय सपरिवाराय ‘अमुक देवतायै दीपं दर्शयामि नमः’
से दीप प्रदर्शित करना चाहिए । तदनन्तर मध्यमा और अंगूठे को मिलाकर दीप-मुद्रा
दिखानी चाहिए । देवता के नेत्रों के पास तक दीप को उँचो उठाकर प्रदर्शित करने का
विधान है । दीपक में अनेक बत्ती होने पर उनकी संख्या विषम होनी चाहिए। घृत का दीपक
दाहिने भाग में तथा तेल का दीपक बायें भाग में स्थापित करना चाहिए । दक्षिण के दीप
में सफेद बत्ती तथा बायें भाग के दीपक में रक्त वर्ण की बत्ती लगानी चाहिए । इसमें
भी जल प्रक्षेपादि सारि क्रिया धूप की ही तरह करनी चाहिए । इसके बाद नैवेद्य
समर्पित करना चाहिए ॥११६-१२०॥
नैवेद्यसमर्पणविधिवर्णनम्
स्वर्णादिभाजने साज्यं पायसं
शर्करादिकम् ॥ १२० ॥
परिवेष्य यथाशक्ति प्रोक्षेत्
कैरस्त्रमन्त्रितैः ।
नैवेद्य समर्पण विधि
- सुवर्ण आदि पात्र में यथाशक्ति घी के साथ पायस और शर्करादि पदार्थ परोस कर ‘फट्’ मन्त्र से जल द्वारा प्रोक्षण करना चाहिए
॥१२०-१२१॥
चक्रमुद्रामथारच्य
प्रोक्षेत्तन्मन्त्रितैर्जलैः ॥ १२१॥
वायुबीजेनार्कवारं
ततस्तज्जातमारुतैः ।
नैवेद्यदोषं संशोष्य चिन्तयेद्
दक्षिणे करे ॥ १२२ ॥
फिर चक्रमुद्रा बना कर
मूलमन्त्र से अभिमन्त्रित विशेषार्घ्य के जल से अभिमन्त्रित कर वायुबीज (यं) से
द्वादश बार जल से पुनः उस नैवेद्य का प्रोक्षण करना चाहिए । इस प्रकार नैवेद्य के
दोषों का शोषण कर दहिने हाथ के तलवें पर अग्निबीज (रं) का ध्यान करना चाहिए
॥१२१-१२२॥
अग्निबीजं तस्य पृष्ठे वामं करतलं
न्यसेत् ।
तं दर्शयित्वा
नैवेद्येतदुत्थेनाग्निनाखिलम् ॥ १२३ ।।
नैवेद्यदोष सन्दह्या
ध्यायेद्वामकरेंऽमृतम् ।
तत्पृष्ठे दक्षिणं हस्तं कृत्वा
तत्र प्रदर्शयेत् ॥ १२४ ॥
आप्लावितं स्मरेद् भोज्यं
बीजोत्थामृतधारया ।
फिर उस करतल पर अपना बायाँ हाथ रखना
चाहिए । इस मुद्रा को दिखा कर उससे उत्पन्न अग्नि द्वारा नैवेद्य के सारे दोषों को
जलाकर,
फिर बायीं हथेली में अमृत बीज (वं) का ध्यान करना चाहिए, तथा उस हथेली के पीछे हाथ रखकर, नैवेद्य दिखाकर,
उस अमृत बीज से उत्पन्न अमृतधारा से नैवेद्य को आप्लावित करना
चाहिये ॥१२३-१२५॥
प्रोक्ष्य मूलेन
तत्स्पृष्ट्वाऽष्टशो मूलमनुं जपन् ॥ १२५ ॥
दर्शयित्वा धेनुमुद्रां
गन्धपुष्पैस्तदर्चयेत् ।
देवे पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा तेजो
देवमुखोत्थितम् ॥ १२६ ॥
विचिन्त्य वामाङ्गुष्ठेन स्पृशेन्नैवेद्यभाजनम्
।
दक्षहस्ते जलं धृत्वा मूलश्लोकं
शिरः पठेत् ॥ १२७ ॥
सत्पात्रसिद्ध
सुहविर्विविधानेकभक्षणम् ।
निवेदयामि देवेश सानुगाय गृहाण तत्
॥ १२८ ॥
साङ्गायेत्यादिकं प्रोच्य
जलमुत्सृज्य भूतले ।
नैवेद्यमुद्रामगुष्ठनामिकाभ्यां
प्रदर्शयेत् ॥ १२९ ॥
फिर ८ बार मूल मन्त्र का जप करते
हुये,
नैवेद्य का स्पर्श कर, धेनुमुद्रा प्रदर्शित कर, गन्ध और पुष्प चढाना चाहिए । इस
प्रकार इष्टदेव को पुष्पाञ्जलि समर्पित कर, उनके मुख से
निकले हुये तेज का ध्यान कर, बायें अंगूठे से नैवेद्य पात्र
का स्पर्श करना चाहिए । अब दाहिने हाथ में जल लेकर, मूल
मन्त्र के साथ ‘सत्पात्र सिद्धं ... गृहाण तत्; पर्यन्त (द्र० २२. १२५) श्लोक पढकर ‘साङ्गाय
सपरिवाराय अमुकदेवतायै नैवेद्यं निवेदयामि नमः’ - कहकर,
भूमि पर जल छोडकर, अंगूठा और अनामिका मिलाकर नैवेद्य
मुद्रा प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१२५-१२९॥
सपुष्पाभ्यां कराभ्यां त्रिः
प्रोद्धरन्भक्ष्यभाजनम् ।
निवेदयामि भवते जुषाणेदं हविर्हरे ॥
१३० ॥
षोडशार्णानिमान् प्रोच्य
ग्रासमुद्रां प्रदर्शयेत् ।
वामहस्तेन पद्माभां प्राणाद्या
दक्षिणेन तु ॥ १३१॥
फिर हाथ में फूल ले कर नैवेद्य को ३
बार ऊपर उठाते हुये ‘निवेदयामि भवते
जुषाणेदं हविर्हरे’ इस षोडशाक्षर
मन्त्र का उच्चारण करते हुये बायें हाथ से कमल जैसी ग्रास मुद्रा और दाहिने
हाथ से प्राण आदि मुद्रायें प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१३०-१३१॥
कनिष्ठानामिकागुष्ठैर्मुद्रा
प्राणस्य कीर्तिता ।
तर्जनी मध्यमाङ्गुष्ठैरपानस्य तु सा
स्मृता ॥ १३२ ॥
अनामा मध्यमाङ्गुष्ठरुदानस्य च
मुद्रिका ।
तर्जन्यनामामध्याभिः
साङ्गुष्ठाभिश्चतुर्थिका ॥ १३३ ॥
सर्वाभिः ससमानस्य प्राणाद्यान
केंद्विठान्वितान् ।
तारपूर्वाञ्जपन्मुद्राः प्राणादीनां
प्रदर्शयेत् ॥ १३४ ॥
अब प्राणादि मुद्राओं को
कहते हैं - कनिष्ठिका, अनामिका एवं अंगूठे
को मिलाने से प्राणमुद्रा, तर्जनी मध्यमा एवं अंगूठा
मिलाने से अपान मुद्रा, अनामिका, मध्यमा और अंगूठे को मिलाने से उदान मुद्रा, तर्जनी,
अनामिका मध्यमा, और अंगूठा को मिलाने से समान
मुद्रा बनती है, चतुर्थ्यन्त प्राण आदि (प्राणय, अपानाय, उदानाय, व्यानाय तथा
समानाय) के अन्त में स्वाहा तथा प्रारम्भ में प्रणव लगाने से बने मन्त्रों का जप
करते हुये प्राणादि मुद्रायें प्रदर्शित करनी चाहिए ॥१३२-१३४॥
ततो जवनिकां कृत्वा
ब्रह्मेशाद्यैरिदं पठेत् ।
पद्यं शालेभक्तमिति मूलमन्त्रं च
सप्तधा ॥ १३५॥
प्रतिसीरामपाकृत्य दद्याच्छलोकं
पठञ्जलम् ।
समस्तदेव देवेश सर्वतृप्तिकरं परम्
॥ १३६ ॥
अखण्डानन्द सम्पूर्ण गृहाण
जलमुत्तमम् ।
फिर पर्दा खींचकर ‘ब्रह्मेशाद्यैः परित ऊरुभिः सूपविष्टै समेतैर्लक्ष्म्याशिञ्जद्वलकरया
सादरं वीज्यमानः लीलानर्मप्रहसनमुखैर्व्याप्नुवन्पंक्ति मध्य्म भुड्क्ते
पात्रेकनकघटिते षड्रसं श्रीरमेश । शालेर्भक्त सुपक्वं शिशिरसितं पायसापूपसूप्म
लेह्यं पेयं च चोष्यं सितममृतफल्म पूरिकाद्यं सुखाद्यम् आज्य्म प्राज्यं सभोज्यं
नयनरुचिकरं राजिकैलामरीचे स्वादीयः शाकराजी परिकरममृताहार जोषञ्जुषस्व’ । इसके बाद पर्दा ऊपर हटा कर ‘समस्त देव देवेश सर्वतृप्तिकरं परम् । अखण्डानन्द संपूर्णं गृहाण
जलमुत्तमम्’ इस श्लोक से आचमनीय के लिए जल
देना चाहिए ॥१३५-१३७॥
स्थण्डिलेग्निमुपाधाय
वैश्वदेवक्रियां चरेत् ॥ १३७ ।।
मूलेन वीक्ष्य चास्त्रेण कृत्वा
प्रोक्षणताडने ।
कुशैस्तद्वर्मणाभ्युक्ष्य
पूर्ववत्स्थापयेच्छुचिम् ॥ १३८ ॥
स्थण्डिल (वेदी) पर
अग्निस्थापन कर वैश्वदेव क्रिया करनी चाहिए । मूल मन्त्र से अग्नि को देखकर
अस्त्र (फट्) मन्त्र से प्रेक्षण एवं कुशाओं से ताडन करना चाहिए (द्र० १. १११-११२)
‘हुम्’ मन्त्र से सेचन कर पूर्ववत् वहाँ अग्नि की
स्थापना करनी चाहिए (द्र० १. ११३. १२२-१२४) ॥१३७-१३८॥
तन्मन्त्रेण तमभ्यर्ध्याहूय
तत्रेष्टदेवताम् ।
पूजयेद् गन्धपुष्पैस्तां
महाव्याहृतिभिस्ततः ॥ १३९ ॥
हुत्वा व्यस्त समस्ताभिराहुतीनां
चतुष्टयम् ।
अन्नैर्मूलेन जुहुयात्पञ्चविंशति
संख्यया ॥ १४० ।।
उस ‘वैश्वानर’ मन्त्र से उनका पूजन करना चाहिए (द्र० १.
१२९) फिर इष्टदेव का आवाहन कर गन्ध एवं पुष्पों से उनका भी पूजन करना चाहिए । फिर
महाव्याहृति से होम कर व्यस्त (अलग-अलग) और समस्त (एक साथ) व्याहृतियों से ४ आहुतियाँ
देनी चाहिए । इसकी बाद मूल मन्त्र से अन्न की २५ आहुतियाँ देनी चाहिए ॥१३९-१४०॥
फिर व्याहृतियों से होमकर इष्टदेव
की मूर्ति में इष्टदेव को नियोजित करना चाहिए फिर अग्नि का विसर्जन कर इष्टदेव को
आचमन के लिए जल देना चाहिए ॥१४१॥
तेजः संयोज्य देवस्य निर्गत
देववक्त्रतः ।
नैवेद्याशं तदुच्छिष्टभोजिने
विनिवेदयेत् ॥ १४२ ॥
इष्टदेव के मुख से निकले हुये तेज
को नैवेद्य में संयोजित कर उसका कुछ भाग उच्छिष्ट भोजी को दे देना चाहिए
॥१४२॥
उच्छिष्टभोजिदेवताकथनम्
विष्वक्सेनो हरेरुक्तश्चण्डेश्वर
उमापतेः ।
विकर्तनस्य चण्डांशुर्वक्रतुण्डो
गणेशितुः ॥ १४३॥
शक्तरुच्छिष्टचाण्डाली स्मृता
उच्छिष्टभोजिनः ।
अब तत्तद्देवताओं के उच्छिष्ट
भोजियों का नाम कहते हैं -
विष्णु के विष्वक्सेन,
शिव के चण्डेश्वर, रवि के चण्डांशु, गणेश के वक्रतुण्ड और शक्ति के उच्छिष्टचाण्डाली उच्छिष्टभोजी कहे गये हैं
॥१४३-१४४॥
आर्तिकताम्बूलाधुपचारकथनम्
ततो लवणमुत्तार्य कुर्यादारार्तिकं
सुधीः ॥ १४४ ॥
अथो निवेद्य ताम्बूलं
दर्शयेच्छत्रचामरे ।
पठेद् देवमना भूत्वा
सार्द्धश्लोकचतुष्टयम् ॥ १४५ ॥
आरती एवं ताम्बूल - इसके बाद साधक
को आरती तन्मय होकर ‘बुद्धि सवासना ...
तवोपकरणात्मना’ पर्यन्त ४ श्लोक
१४६-१४८ पढकर देवाधिदेव की स्तुति करनी चाहिए ॥१४४-१४५॥
बुद्धिः सवासनाक्लृप्ता दर्पणं
मङ्गलानि च ।
मनोवृत्तिर्विचित्रा ते नृत्यरूपेण
कल्पिता ॥ १४६ ॥
ध्वनयो गीतरूपेण शब्दवाद्यप्रभेदतः ।
छत्राणि नवपद्मानि कल्पितानि मया
प्रभो ॥ १४७ ॥
सुषुम्णा ध्वजरूपेण प्राणाद्याश्चामरात्मना
।
स्तुति श्लोकों का अर्थ
- हे प्रभो मै बुद्धिरुप दर्पण तथा वासना रुप मङ्गल एवं अपने विचित्र विचित्र
मनोवृत्तियों को नृत्यरुप में आप को समर्पित करता हूँ । शब्द रुपी बाजे के साथ
विविध ध्वनि रुप गीत, नवीन विकसित पद्म
रुप छत्र, सुषुम्ना रुप ध्वज आप को तथा अपने पञ्च प्राणों को
देव रुप से आप को समर्पित करता हूँ ॥१४६-१४८॥
अहंकारो गजत्वेन वेगः क्लृप्तोरथात्मना
॥ १४८॥
इन्द्रियाण्यश्वरूपाणि
शब्दादिरथवर्मना ।
मनः प्रग्रहरूपेण बुद्धिः
सारथिरूपतः ॥ १४९ ॥
सर्वमन्यत्तथा क्लृप्त
तवोपकरणात्मना ।
श्लोकानेतान् पठित्वा तु
मूलमन्त्रमनन्यधीः ॥ १५० ॥
अपने अहंकार रुप गज के मन के वेग
रुपी रथ को जिसमें इन्द्रियों के घोडे जुते हुये है जो शब्दादि रुप मार्ग में चलने
वाले है जिनमें मन का लगाम, तथा बुद्धि रुप
सारथी जुडे हुये है उन्हे भी आप को समर्पित करता हूँ । इसके अतिरिक्त और भी मेरा
जो सर्वस्व है उन सभी को उपकरण रुप में आप को समर्पित हूँ ॥१४८-१५०॥
यशाशक्ति जपित्वा तं मन्त्रेण
विनिवेदयेत् ।
क्षिपन्नघस्य पानीयं देवता दक्षिणे
करे ॥ १५१॥
गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं
गृहाणास्मत्कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देव
त्वत्प्रसादात्त्वयि स्थितिः ॥ १५२ ॥
कीर्तितः श्लोकरूपोऽयं मन्त्रो
जपनिवेदने ।
दत्त्वापराङ्मुखं चायं पुष्पैः शङ्ख
प्रपूजयेत् ॥ १५३॥
इन श्लोकों से स्तुति करने के
पश्चात् साधक तन्मय हो कर मूलमन्त्र का यथाशक्ति जप कर देवता के दाहिने हाथ में
विशेषार्घ्य का जल देकर ‘गुह्याति
...त्वयि स्थितिः’ पर्यन्त (द्र०
२२. १५२) श्लोक पढकर जप निवेदन करे । फिर पीछे की ओर अर्घ्य देकर शड्ख का पूजन
करना चाहिए ॥१५१-१५३॥
दण्डवत्प्रणिपत्येशं देवे
कुर्यात्प्रदक्षिणाः ।
देवपरत्वेन प्रदक्षिणासंख्याकथनम्
अजेश शक्ति गणपभास्कराणां
क्रमादिमाः ॥ १५४ ॥
वेदार्द्धचन्द्रवन्यन्त्यद्रि
संख्याः स्युः सर्वसिद्धये ।
प्रदक्षिणाविधि
- अपने इष्टदेव को दण्डवत् प्रणाम कर उनकी प्रदक्षिणा करनी चाहिए । विष्णु की चार,
शिव की आधी, शक्ति की एक, गणेश की तीन एवं सूर्यनारायण की सात परिक्रमायें सर्वसिद्धिलाभ के लिए
करनी चाहिए ॥१५४-१५५॥
स्तुत्वा ब्रह्मार्पणाख्येन
मनुनाऽऽत्मानमर्पयेत् ॥ १५५ ॥
ब्रह्मार्पणमन्त्रकथनम्
इतः पूर्व प्राणबुद्धि
देहधर्माधिकारतः ।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यन्तेऽवस्थासु
मनसा वदेत् ॥ १५६ ॥
वाचा च हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण
शिश्नतस्ततः ।
मेषोनन्तान्वितो यत्स्मृतं यदुक्तं
च यत्कृतम् ॥ १५७ ॥
तत्सर्व प्रोच्य ब्रह्मार्पणं
भवत्वग्निवल्लभा ।
मा मदीयं च सकलं हरये ते समर्पये ॥
१५८ ॥
तारस्तत्सदिति प्रोक्तो
ब्रह्मार्पणमनुर्बुधैः ।
प्रणवादिईयशीत्यर्णो
देवतात्मसमर्पणे ॥ १५९ ॥
इसके बाद स्तुति ब्रह्मर्पण मन्त्र
से आत्म निवेदन करना चाहिए । ‘इतः पूर्व्म
प्राणबुद्धिदेहधर्माधिकारतः जाग्रत्स्वसुषुप्त्यवस्थासु मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण
शिश्ने’ के बाद अनन्तान्वित (ए) से युक्त मेष ()न), फिर ‘यं यत्स्मृतं यदुक्तं तत्सर्व्म ब्रहमर्पण भवतु
स्वाहा’, फिर ‘मां मदीयं च सकलं हरये
ते समर्पये’ तथा अन्त में तार (ॐ) तथा तत्सत् एवं प्रारम्भ
में प्रणव लगाने से ८२ अक्षरों का ब्रह्मर्पण मन्त्र देवता को आत्मसमर्पण करने के
लिए कहा गया है ॥१५५-१५९॥
विमर्श - ब्रह्मार्पण मन्त्र का
स्वरुप - ॐ इतः पूर्वं प्राणबुद्धिदेह धर्माधिकारतो
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थासु मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्ब्यामुदरेण शिश्नेन
यत्स्मृतं यदुक्तं यत्कृतं तत्सर्वं ब्रह्मार्पणं भवतु स्वाहा मां मदीयं च सकलं
हरये ते समर्पये ॐ तत्सत् (८२ अक्षर न होकर ८४ है) ॥१५५-१५९॥
देवस्य संहारमुद्रया हृदये स्थापनम्
संहारमुद्रया देवं संहरेर्द्धृदये
निजे ।
अन्यस्मिन्दैवते कार्य ऊहो हरिपदे
बुधैः ॥ १६० ॥
इसके बाद संहारमुद्रा दिखाकर,
अपने इष्टदेव को हृदय में स्थापित करे । अन्य देवता के ब्रह्मार्पण
में ‘हरये’ के स्थान पर उस देवता का
चतुर्थ्यन्त ऊह कर लेना चाहिए ॥१६०॥
ब्रह्मायज्ञपूर्वकयोगक्षेमादिकथनम्
एवं सम्पूज्य देवेशं ब्रह्मायज्ञ
समाचरेत् ।
योगक्षेमं ततः कृत्वा मध्याह्न
स्नानमाचरेत् ॥ १६१ ॥
इष्टदेव का पूजन करने के बाद ब्रह्म
यज्ञ (वेदाध्ययन) करना चाहिए । फिर योगक्षेम (व्यावसायिक एवं घर के कार्य) करने के
बाद मध्याह्न में स्नान करना चाहिए ॥१६१॥
पूजाया आवश्यकत्वादिकथनम्
स्मार्त तान्त्रं च पूर्वोक्तं
सन्ध्यातर्पणमप्यथ ।
सम्पूज्य पूर्ववद्देवं
वैश्वदेवादिकं चरेत् ॥ १६२ ।।
देवप्रसादं भुञ्जीत सम्भोज्य
ब्राह्मणोत्तमान ।
आचम्य देवं संस्मृत्य पुराणं
श्रृणुयात्सुधीः ॥ १६३ ।।
फिर पूर्वोक्त रीति से स्मार्त्त
एवं तान्त्रिक (स्नान द्र० १.३) सन्ध्या एवं तर्पण बलि-वैश्वदेव आदि
सारा कार्य करना चाहिए । तदनन्तर ब्राह्मणों को भोजन करा कर देवतानिवेदित प्रसाद
का स्वयं भोजन करना चाहिए । तत्पश्चात् आचमनादि एवं देव स्मरण कर पुराणों का पाठ
एवं श्रवण करना चाहिए ॥१६२-१६३॥
सन्ध्याहोमं निर्वृत्य देवं
सम्पूज्य पूर्ववत् ।
शयीतशुद्धशय्यायां भुक्त्वाल्पं
देवतां स्मरन् ॥ १६४॥
अब सायं पूजन का विधान करते
है -
सन्ध्याकाल का हवन संपादन कर
पुनः पूर्वोक्त विधि से इष्टदेव का पूजन कर, थोडा
भोजन कर, देवता का स्मरण करे । फिर शुद्ध शय्या पर सो जाना
चाहिए ॥१६४॥
एवं यः पूजयेद् देवं त्रिकालं
धर्ममाचरन् ।
न जातुवैरिभिर्युःखै पीड्यते
हरिरक्षितः ॥ १६५ ॥
जो व्यक्ति इस प्रकार धर्माचरण करते
हुये त्रिकाल देव पूजन करता है वह कभी भी शत्रुओं एवं दुःखों से पीडित नहीं
होता उसके इष्टदेव स्वयं उसकी रक्षा करते है ॥१६५॥
त्रिकालं पूजनाशक्तैः कार्य
द्विःसकृदप्यदः ।
विशेषेण यजेद्देवं संक्रान्त्यादिषु
पर्वसु ॥ १६६ ।।
दशभिः पञ्चभिर्वापि पूजयेदुपचारकैः
।
अशक्तः कारयेत्पूजां
दद्यादर्चनसाधनम् ॥ १६७ ॥
दानाशक्तः समर्चस्तं
पश्येत्तत्परमानसः ।
साधनाभाविनीत्रासीदौर्बोधीसूतक्यातुरीभेदेन
पञ्चप्रकारपूजाकथनम्
साधनाऽभाविनी त्रासी दौर्बोधी सौतकी
तथा ॥ १६८ ॥
आतुरी पञ्चधोक्तासौ पूजा सा
कीर्त्यते क्रमात् ।
त्रिकाल पूजा में असमर्थ होने पर
व्यक्ति को मात्र प्रातः एवं सायं द्विकाल ही देवता का पूजन करना चाहिए ।
संक्रान्ति आदि पर्वो पर विशेष रुप से त्रिकाल पूजन करना चाहिए । असमर्थ व्यक्ति
को दशोपचार अथवा पञ्चोपचार से पूजन करना चाहिए । अथवा सर्वथा अशक्त होने पर उपचार
सामग्री दूसरों दो देकर उसी से पूजा करा लेनी चाहिए । यदि उपचार देने में भी
असमर्थ हो तो एकाग्रचित्त हो दूसरे के द्वार पर होने वाली पूजा स्वयं देखना चाहिए
॥१६६-१६९॥
विमर्श - दशोपचार -
पाद्यार्घ्यचमनीय्म च मधुपर्काचमनस्तथा ।
गन्धादयो नैवेद्यान्ता उपचारा
दशात्मकाः ॥
पञ्चोपचार
- गन्धपुष्पं च धूप्म च दीपं नैवेद्यमेव च ।
प्रदद्यात्परमेशानि पूजा
पञ्चोपचारिका ॥१६६-१६८॥
पूजासाधनवस्तूनामभावान्मनसैव या ॥
१६९ ॥
पूजाम्भसा साधनं यत्साधनाभाविनी तु
सा ।
त्रस्तः सम्पूजयेद्देवं
यथालब्धोपचारकैः ॥ १७० ॥
मानसैर्वापि सा त्रासी शेया
सम्पूर्णसिद्धिदा ।
साधानाभेद और लक्षण
- अभाविनी, त्रासी दौर्बोधी, सौतिकी तथा आतुरी इन भेदों से साधना के ५ भेद कहे गये है ।
अब इनके लक्षण कहते हैं -
१-२पूजा के उपकरणों के अभाव में मन
से अथवा जल मात्र से जो पूजा की है उसे अभाविनी साधना कहते हैं । त्रस्त
व्यक्ति तत्कालोपलब्ध अथवा मानसोपचारों से जो पूजा करता है उसे त्रासी साधना
कहते हैं । ऐसी साधना सब प्रकार की सिद्धि देती है ॥१६९-१७१॥
बालावृद्धाः स्त्रियो
मूर्खादुर्बोधास्तत्कृता तु या ॥ १७१॥
यथाज्ञानं परार्चासौ दौर्बोधी
कीर्तिता बुधैः।
सूतकी तु नरः स्नात्वा सन्ध्यां
स्वां मानसी चरेत् ॥ १७२ ॥
३. बालक,वृद्ध, स्त्री, मुर्ख एवं
अनजान व्यक्तियों के द्वारा उनकी जानकारी के अनुसार यथाशक्ति की जाने वाली पूजा दौर्बौधी
साधना कही जाती है । सूतक में पडा हुआ व्यक्ति स्नान कर केवल मानसिक सन्ध्या
करे ॥१७१-१७२॥
मानसैर्वार्चयेत्कामी निष्कामः
सर्वमाचरेत् ।
सौतक्युक्ताऽऽतुरी रोगान्नस्नायान्न
च पूजयेत् ॥ १७३ ॥
विलोक्य मूर्ति देवस्य यदि वा
सूर्यमण्डलम् ।
सकृन्मूलमनु जप्त्वा तत्र पुष्पं
विनिक्षिपेत् ॥ १७४ ॥
४. सकाम होने पर मानसिक पूजन करे,
निष्काम होने पर सव कार्य करे - यह सौतिकी साधना है । रोगी
व्यक्ति को स्नान एवं पूजा दोनों वर्जित है । वह देवता की मूर्ति अथवा सूर्यमण्डल
का दर्शन कर एक बार मूल मन्त्र का जप कर केवल पुष्प चढा देवे ॥१७३-१७४॥
ततो रोगे गते स्नात्वा पूजयित्वा
गुरून्द्विजान् ।
पूजाविच्छेददोषो मे मास्त्विति
प्रार्थयेत तान् ॥ १७५॥
तेभ्यश्चाशिषमादाय देवेशं
पूर्ववद्यजेत् ।
आतुरी कीर्तिता पूजाः पञ्चैवं
नारदोदिताः ॥ १७६ ॥
५. फिर रोग की समाप्ति हाने पर
स्नान कर पश्चात् गुरु एवं ब्राह्मणों की पूजा कर ‘पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगे’ ऐसी प्रार्थना करनी
चाहिए । उन गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर पूर्वोक्त विधि से अपने इष्टदेव का यजन
करना चाहिए । इस साधना को आतुरी साधना कहते हैं । ये पाँचों साधनायें ब्रह्मार्षि नारद के द्वारा कही गई है ॥१७५-१७६॥
स्वयं सम्पाद्य सर्वाणि श्रद्धया
साधनानि यः ।
पूजयेत्तत्परो देवं स लभेताखिलं
फलम् ॥ १७७ ॥
पूजनेन फलार्द्ध स्यादन्यदत्तैस्तु
साधनैः ।
तस्मात्स्वयं समानीय साधनान्यर्चनं
चरेत् ॥ १७८ ॥
पूजा की सारी सामग्री स्वयं एकत्रित
कर जो व्यक्ति तन्मय होकर अपने इष्टदेव की पूजा करता है उसे संपूर्ण फल प्राप्त
होता है । अन्य व्यक्तियों द्वारा सड्गृहित उपचारों से पूजा करने पर साधक को
मात्र आधा फल प्राप्त होता है । इसलिए पूजा की सारी सामग्री का संभार स्वयं ला कर
पूजा करनी चाहिए ॥१७७-१७८॥
देवपूजाविहीनो यः स नरो नरके पचेत्
।
यथाकथञ्चिदेवार्चा विधेया
श्रद्धयान्वितैः ॥ १७९ ॥
क्योंकि देवपूजा न करने पर नरक
की प्राप्ति होती है अतः व्यक्ति को देवता के प्रति आस्था एवं श्रद्धा रख कर देव
पूजन ही चाहिए ॥१७९॥
॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते
मन्त्रमहोदधौ देवा निरूपणं नाम द्वाविंशस्तङ्गः ॥ २२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित
मन्त्रमहोदधि के द्वाविंश तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज
डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'अरित्र'
नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ २२ ॥
आगे पढ़ें- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २३
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