रूद्रयामल द्वितीय पटल भाग २

रूद्रयामल द्वितीय पटल भाग २

रुद्रयामल द्वितीय पटल भाग- २  में कुलाचार विधि अतर्गत गुरु का ध्यान एवं पूजन कर पुनः गुरुस्तोत्र और गुरुस्तव की फलश्रुति वर्णित है (३८-४९)।

रूद्रयामलम् द्वितीय पटल द्वितीय भाग

रूद्रयामलम् द्वितीय पटल भाग- २

रूद्रयामलम् द्वितीय: पटल: द्वितीय: भाग

रुद्रयामल तंत्र पटल २ भाग २   

रूद्रयामलम्

(उत्तरतन्त्रम्)

अथ द्वितीय पटल - गुरूस्तोत्र

तंत्र शास्त्ररूद्रयामल

गुरुस्तोत्र

प्राणायाम कर इस प्रकार प्रार्थना करे –

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२२॥

चराचर में व्याप्त रहने वाले और अखण्ड मण्डल स्वरूप वाले ( जो ब्रह्म है उस ) तत्पद ( ब्रह्म ) के स्थान का जिसने दर्शन कराया उन श्री गुरु को हमारा नमस्कार है ॥२२॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥२३॥

देवतायाः दर्शनस्य कारणं करुणानिधिम् ।

सर्वसिद्धिप्रदातारं श्रीगुरुं प्रणमाम्यहम् ॥२४॥

जिन्होने अपनी ज्ञानाञ्जन की शलाका से अज्ञान रुपी अन्धकार से अन्धे लोगों के चक्षु में प्रकाश दे कर उसे खोल दिया है उन गुरु को नमस्कार है । जो देवता के दर्शन में एक मात्र कारण तथा करुणा के निधान हैं, सब प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाले उन श्री गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ ॥२३ - २४॥

वराभयकरं नित्यं श्वेतपद्मनिवासिनम् ।

महाभयनिहन्तारं गुरुदेव नमाम्यहम् ॥२५॥

महाज्ञानाच्छापिताङु नराकारं वरप्रदम् ।      

चतुर्वर्गप्रदातारं स्थूलसूक्ष्मद्वयान्वितम् ॥२६॥

अपने हाथों में वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए, श्वेत पद्‍मासन पर आसीन तथा महाभय ( अहङ्कार ) का विनाश करने वाले एवं नित्य ऐसे गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ । जिनका एक एक श्री अङ्ग महान्‍ ज्ञान से आच्छादित है, जो मात्र आकृति से ही मनुष्य हैं, न केवल वरदाता किन्तु चतुवर्ग के भी प्रदाता हैं ॥२५ - २६॥

सदानन्दमयं देवं नित्यानन्दं निरञ्जनम् ।

शुद्धसत्त्वमयं सर्वं नित्यकालं कुलेश्वरम् ॥२७॥

ब्रह्मारन्ध्रे महापद्मे तेजोबिम्ब निराकुले ।

योगिभिर्ध्यानगम्ये च चक्रे शुक्ले विराजिते ॥२८॥

सहस्त्रदलसङ्काशे कर्णिकामध्यमध्यके ।

महाशुक्लभासुरार्ककोटिकोटिमहौजसम् ॥२९॥

सर्वपीठस्थममलं परं हंसं परात्परम् ।

वेदोध्दाकरं नित्यं काम्यकर्मफलप्रदम् ॥३०॥

सदा मनःशक्तिमयालयस्थानं पदद्वयम् ।

शरज्ज्योत्स्नाजलामालाभिरिन्दुकोटिवन्मुखम् ॥३१॥

स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारों में विद्यमान, सदानन्दमय, नित्यानन्द, निरञ्जन, शुद्ध सत्त्व गुण से युक्त साधकों के लिए सर्वत्र और नित्य काल अर्थात् ‍ कुलेश्वर हैं । ब्रह्मरन्ध्र महामद्‍म में योगियों के द्वारा ध्यानगम्य, अत्यन्त निराकुल, तेजोबिम्ब स्वरूप श्वेताकार महा पद्‍मरूप शुक्ल चक्र जिसमें सहस्त्रदल है उसकी कर्णिका के मध्य भाग में विराजित महाशुक्ल, भासमान, करोड़ों सूर्य के समान प्रभा वाले, स्वच्छ पीठ पर आसीन, परात्पर वेदोद्धारकर्ता, नित्यस्वरूप, काम्य कर्मों का फल देने वाले, परमहंस स्वरूप, जिनके दोनों चरण कमल मन की शक्ति तथा माया के विलय के स्थान हैं तथा जिनका मुख शरच्चन्द्रिका के रशिमजाल समूहों वाले करोडों चन्द्रविम्बों के समान हैं ॥२६ - ३१॥

वाञ्छतिरिक्तदातारं सर्वसिद्धीश्वरं गुरुम् ।

भजामि तन्मयो भूत्त्वा तं हंसमण्डलोपरि ॥३२॥

आत्मानं च निराकारं साकारं ब्रह्मरुपिणम् ।

महाविद्यामहामन्त्रदातारं परमेश्वरम् ॥३३॥

सर्वासिद्धिप्रदातारं गुरुदेवं नमाम्यहम् ।

कायेन मनसा वाचा ये नमन्ति निरन्तरम् ॥३४॥

जो वाञ्छा से भी अतिरिक्त फल देने वाले तथा सभी सिद्धियों के ईश्वर हैं, इस प्रकार के हंस मण्डल के ऊपर विराजमान श्री गुरु का मैं एकाग्रचित्त से भजन करता हूँ । जो आत्मस्वरुप, निराकार, साकार ब्रह्म के स्वरुप, महाविद्या, महामन्त्र के प्रदाता हैं, परमेश्वर हैं, समस्त सिद्धियों को देने वाले हैं - ऐसे गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ॥३२ - ३४॥

अवश्यं श्रीगुरोः पादाम्भोरुहे ते वसन्ति हि ।

प्रभाते कोटिपुण्यञ्च प्राप्नोति साधकोत्तमः ॥३५॥

मध्याहने दशलक्षञ्च सायाहने कोटिपुण्यदम् ।

जो साधक अपने श्री गुरु के चरण कमलों में काय, मन और वाणी से निरन्तर नमन करते हैं वे श्रीगुरु के उन चरण कमलों में अवश्य ही निवास करते हैं । उत्तम साधक को प्रभात में नमस्कार करने से करोड़ों गुना पुण्य, मध्याह्न में दश लक्ष गुना पुण्य तथा सायङ्काल में नमस्कार करने से करोड़ों गुना फल प्राप्त होता है ॥३४ - ३६॥

प्रातःकाले पठेत् स्तोत्रं ध्यानं वा सुसमाहितः ॥३६॥

तदा सिद्धिमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ॥३७॥

जो लोग प्रातःकाल में एकाग्रचित्त हो कर निम्न गुरुस्तोत्र का पाठ करते हैं अथवा उनका ध्यान करते हैं, वे अवश्य ही सिद्धि प्राप्त करते हैं । साधक को इसमें विचार की आवश्यकता नहीं है ॥३६ - ३७॥

शिरसि सितपङ्कजे तरुणकोटिचन्द्रप्रभं

वराभयकराम्बुजं सकलदेवतारुपिणम् ।

भजामि वरदं गुरुं किरणचारुशोभाकुलं

प्रकाशितपदद्वयाम्बुजमलक्तकोटिप्रभम् ॥३८॥

गुरुस्तोत्र --- शिरः प्रदेश में श्वेत कमल पर पूर्णमासी के करोड़ों चन्द्रमा के समान प्रकाशमान, हाथ में वर और अभय की मुद्रा से युक्त करकमल वाले, सर्वदेव स्वरूप, वरदाता, जिनके दोनों चरण कमल करोड़ों अलाक्तक प्रभा के समान ( अरुणिम हुए से ) प्रकाशित हैं ऐसे मनोहर किरणों की शोभा से व्याप्त श्री गुरुदेव का मैं भजन करता हूँ ॥३८॥

जगद्भयानिवारणं भुवनभोगमोक्षप्रदम्

गुरोः पादयुगाम्बुज जयति यत्र योगे जयम् ।

भजामि परमं गुरुं नयनपद्ममध्यस्थितं

भवाब्धिभयनाशनं शमनरोगकालक्षयम् ॥३९॥

संसार के सम्पूर्ण भय को दूर करने वाले, इस लोक के समस्त भोग तथा परलोक में मोक्ष देने वाले, जिसके मिल जाने पर जय की प्राप्ति होती है, इस प्रकार के परम गुरु के दोनों चरण कमलों का मैं भजन करता हूँ, जो नेत्र कमलों के मध्य में स्थित हैं, संसार समुद्र के भय को नाश करने वाले हैं तथा रोगों को शान्त करने वाले एवं शरीर की क्षीणता को दूर करने वाले है ॥३९॥

प्रकाशितसुपङ्कजे मृदुलषोडशाख्ये प्रभुं

परापरगुरुं भजे सकलबाह्यभोगप्रदम् ।

विशालनयनाम्बुजद्वयतडित्प्रभामण्डलं

कडारमणिपाटलेन्दुबिन्दुकम् ॥४०॥

अत्यन्त कोमल षोडश दल नाम वाले, विकसित पङ्कज पर विराजमान प्रभुं एवं समस्त बाह्म भोग संपादन करने वाले श्रेष्ठ गुरु का मैं भजन करता हुँ । जिनके दोनों विशाल नेत्र कमलों से विद्युत्प्रभापुञ्ज इस प्रकार निर्गत हो रहा है मानो पीले वर्ण के मणियों के समूहरुपी चन्द्रमा से चिनगारी के कण प्रकाशित हो रहे हों उन गुरु का मैं भजन करता हूँ ॥४०॥

चलाचलकलेवरं प्रचपलदले द्वादशे

महौजसमुमापतेर्विगतदक्षभागे ह्रदि ।

प्रभाकरशतोज्ज्वलं सुविमलेन्दुकोट्‌याननं

भजामि परमेष्ठिनं गुरुमतीव वारोज्ज्वलम् ॥४१॥

उमापति शङ्कर के दक्षिण भाग में हृदय पर विराजमान‍, हिलते हुए द्वादश कमल पर चलाचल कलेवर वाले परमेष्ठी गुरु का मैं भजन करता हूँ । जो हमारी गति तथा हमारे आलाम्बन हैं जिनका मुख सैकडो़ सूर्य समान उज्ज्वल तथा स्वच्छ, करोड़ों चन्द्रमा के समान मनोहर तथा अत्यन्त तेजस्वी रूप से विराजमान हैं उन गुरु का मैं भजन करता हूँ ॥४१॥

गुर्वाद्यञ्च शुभं मदननिदहनं हेममञ्जरीसारं

नानाशब्दाद् भुताहलादितपरिजनाच्चारुच्चारुचक्रत्रिभङम् ।

नित्यं ध्यायेत् प्रभाते अरुणशतघटाशोभनं योगगम्यं

नाभौ पद्मेऽतिकान्ते दशदलमणिभे भाव्यते योगिभिर्यत् ॥४२॥

नाभि स्थान में मणि के समान चमकीले द्वादश पत्र वाले, कमल पर योगीजन जिनका ध्यान करते हैं, प्रभात में सैकड़ों अरुणघटा के समान लाल वर्ण से सुशोभित, योगगम्य उस तेज का ध्यान करना चाहिए जो सुवर्ण निर्मित मञ्जीर का सार, काम को भस्म करने वाला, अपने अदभुत शब्दों से परिजनों को आहलाद उत्पन्न करने के कारण अत्यन्त मनोहर, वक्र तथा तीन भंगियो वाला है उस कल्याणकारी आदि गुरु(शङ्कर) को मेरा नमस्कार है॥४२॥

या माता मयदानवादिस्वभुजा निर्वाणसीमापुरे

स्वाधिष्ठाननिकेतने रसदले वैकुण्ठमूले मया ।

जन्मोद्धारविकारसुप्रहरिणी वेदप्रभा भाव्यते

कन्दर्पीर्पितशान्तियोनिजननी विष्णुप्रिया शाङकरी ॥४३॥

स्वाधिष्ठान में स्थित ६ पत्तों वाले कमल पर अधिष्ठित तथा वैकुण्ठमूल में मय दानवादि के द्वारा अपनी भुजा से निर्मित, निर्वाण, सीमापुर में निवास करने वाली, जो माता जीवों को जन्म से उद्धार करती है, उनके विकारों को नष्ट करती हैं, वेद प्रभा के समान भासमान, कन्दर्प के द्वारा समर्पित, अतिशान्ति की योनि, सबकी माता, सबका कल्यण करने वाली एवं विष्णु प्रिया हैं, उन ( महालक्ष्मी स्वरुपा ) देवी को नमस्कार है ॥४३॥

या भाषाननकुण्डली कुलपथाच्छामाभशोभाकरी

मूले पद्मचतुर्दले कुलवर्ता निःश्वासदेशाश्रिता ।

साक्षात्काङ्‌क्षितकल्पवृक्ष लतिका सूद्भाषयन्ती प्रिया

नित्या योगिभयापहा विषहरा गुर्वम्बिका भाव्यते ॥४४॥

मूलाधार में चतुर्दल पद्‍म पर अधिष्ठित, कुल में निवास करने वाली, निःश्वास देश में समाश्रित, जिसका मुख कुण्डली (सर्पिणी) के समान भासमान है, जो कुल पथ में अत्यन्त प्रकाश से शोभा करने वाली तथा वाञ्छा की कल्पलतिका है, नित्या तथा योगी जनों के भय को दूर करने वाली, विषहारिणी एवं श्रेष्ठ अम्बिका के रूप में ध्यान गम्य है उन मा को नमस्कार है ॥४४॥

ऊद्र्ध्वाम्भोरुहनिःसृतामृतघटी मोदोद्वलाप्लाविता

गुर्वास्या परिपातु सूक्ष्मपथगा तेजोमयी भास्वती ।

सूक्ष्मा साधागोचरामृतमयी मूलदिशीर्षाम्बुजे

पूर्णा चेतसि भाव्यते भुवि कदा माता सदोद्धर्वामगा ॥४५॥

जो मूलाधार से शीर्षस्थ सहस्त्रदल कमल पर्यन्त ऊपर की ओर रहने वाले कमल से उत्पन्न, अमृतमय कलश से आमोदातिरेक पूर्वक आप्लावित हैं वो गुरुमुखी देवी हमारी रक्षा करें । जो सुषुम्ना रुप सूक्ष्मपथ से चलने वाली, तेजोमयी, भासमान होती हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म योगसाधन से गोचरा एवं अमृतमयी है, ऐसी परम सुन्दरी मातृभूता पराम्बा कब चेतनापुरी की भूमि में हमारे द्वारा ध्यातव्य होंगी ? ॥४५॥

स्थितिपालनयोगेन ध्यानेन पूजनेन वा ।

यः पठेत् प्रत्यहं व्याप्य स देवो न तु मानुषः ॥४६॥

गुरुस्तव की फलश्रुति --- वह स्थिति तथा पालनकर्ता हैं, इस प्रकार के बुद्धियोगपूर्वक ध्यान से अथवा पूजन से जो साधक इस गुरुस्तव का प्रातःकाल में पाठ करता है, वह वस्तुतः देवता है, मनुष्य कदापि नहीं है ॥४६॥

कल्याणं धनधान्यं च कीर्तिमायुर्यशःश्रियम् ।

सायाहने च प्रभाते च पठेद्यदि सुबुद्धिमान् ॥४७॥

स भवेत् साधकश्रेष्ठः कल्पद्रुमकलेवरः ।

यदि कोई श्रेष्ठ साधक सायङ्काल अथवा प्रभातकाल में इस स्तोत्र का पाठ करे तो वह कल्याण का भागी, धन - धान्य, कीर्ति, आयु तथा श्री प्राप्त करता हैं । वह बुद्धिमानों में श्रेष्ठ होता है और कल्पवृक्ष के समान कामनाओं की पूर्ति करने वाला होता है ॥४७ - ४८॥

स्तवस्यास्यः प्रसादेन वागीशत्वमवाप्नुयात् ॥४८॥

पशुभावस्थिता ये तु ते‍पि सिद्धाः न संशयः ।

बहुत क्या कहना ? इस स्तोत्र की कृपा से वह वाचस्पतित्त्व प्राप्त करता है । किं बहुना पशुभाव में स्थित सभी ध्यातव्य इस स्तव के प्रभाव से सिद्ध हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं ॥४८ - ४९॥

॥इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने गुरुस्तोत्र च गुरुस्तव: फलश्रुति: भैरवीभैरवसंवादे द्वितीयः पटलः ॥२॥

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल उत्तरतन्त्र का द्वितीय पटल भाग २ समाप्त हुआ ॥२ ॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र द्वितीय पटल भाग- ३ 

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