नरसिंह स्तुति
नृसिंह रूपधारी भगवान विष्णु का यह प्रह्लादकृत
नरसिंह स्तुति श्रीविष्णुपुराण के प्रथमांश अध्याय १९ के श्लोक ६४-८६ तथा
अध्याय-२० के श्लोक ९-१३ में वर्णित है। इसके पाठ से मनुष्य राज्यलक्ष्मी,
बहुत से पुत्र पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर, कर्माधिकार के क्षीण होनेपर पुण्य-पाप से रहित हो भगवान का ध्यान करते हुए
उनके परम निर्वाणपद प्राप्त करता है। पूर्णिमा, अमावास्या,
अष्टमी अथवा द्वादशी को इसे पढने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है
। जिस प्रकार भगवान ने प्रल्हादजी की सम्पूर्ण आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार
वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं।
नरसिंह स्तुति श्रीविष्णुपुराणे प्रह्लादकृता
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते
पुरुषोत्तम ।
नमस्ते सर्वलोकात्मन्नमस्ते
तिग्मचक्रिणे ॥१॥
प्रल्हादजी बोले ;–
हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है । हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । हे
सर्वलोकात्मन ! आपको नमस्कार है । हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो ! आपको बारंबार
नमस्कार है ।
नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय
च ।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो
नमः ॥२॥
गो-ब्राह्मण-हितकारी ब्रह्मण्यदेव
भगवान कृष्ण को नमस्कार है । जगत-हितकारी श्रीगोविंद को बारंबार नमस्कार है । ६५
ब्रह्मत्वे सृजते विश्वं स्थितौ
पालयते पुनः ।
रुद्ररूपाय कल्पान्ते नमस्तुभ्यं
त्रिमूर्तये ॥३॥
आप ब्रह्मारूप से विश्व की रचना
करते है,
फिर उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरूप से पालन करते है और अंत में
रुद्ररूप से संहार करते है – ऐसे त्रिमूर्तिधारी आपको
नमस्कार है ।
देवा यक्षासुराः सिद्धा नागा
गन्धर्वकिन्नराः ।
पिशाचा राक्षसाश्चैव मनुष्याः
पशवस्तथा ॥४॥
पक्षिणः स्थावराश्चैव
पिपीलिकसरीसृपाः ।
भूम्यापोऽग्निर्नभो वायुः शब्दः
स्पर्शस्तथा रसः ॥५॥
रूपं गन्धो मनो बुद्धिरात्मा
कालस्तथा गुणाः ।
एतेषां परमार्थश्च
सर्वमेतत्त्वमच्युत ॥६॥
हे अच्युत ! देव,
यक्ष, असुर, सिद्ध,
नाग, गन्धर्व, किन्नर,
पिशाच, राक्षस, मनुष्य,
पशु, पक्षी, स्थावर,
पिपीलिका (चींटी ), सरीसृप, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, मन, बुद्धि, आत्मा, काल और गुज- इन सबके पारमार्थिक रूप आप ही है,
वास्तव में आप ही ये सब है ।
विद्याविद्ये भवान्सत्यमसत्यं त्वं
विषामृते ।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च कर्म
वेदोदितं भवान् ॥७॥
आप ही विद्या और अविद्या,
सत्य और असत्य तथा विष और अमृत है तथा आप ही वेदोक्त प्रवृत्त और
निवृत्त कर्म है ।
समस्तकर्मभोक्ता च कर्मोपकरणानि च ।
त्वमेव विष्णो सर्वाणि सर्वकर्मफलं
च यत् ॥८॥
हे विष्णो ! आप ही समस्त कर्मों के
भोक्ता और उनकी सामग्री है तथा सर्व कर्मों के जितने भी फल है वे सब भी आप ही है ।
मय्यन्यत्र तथान्येषु भूतेषु
भुवनेषु च ।
तवैव व्याप्तिरैश्वर्यगुणसंसूचिकी
प्रभो ॥९॥
हे प्रभो ! मुझमें तथा अन्यत्र
समस्त भूतों और भुवनों में आपही के गुण और ऐश्वर्य की सूचिका व्याप्ति हो रही है।
त्वां योगिनश्चिन्तयन्ति त्वां
यजन्ति च याजकाः
हव्यकव्यभुगेकस्त्वं
पितृदेवस्वरूपधृक् ॥१०॥
योगिगण आपही का ध्यान करते है और
याज्ञिकगण आपही का यजन करते है, तथा पितृगण और
देवगण के रूप से एक आप ही हव्य और कव्य के भोक्ता है ।
रूपं महत्ते स्थितमत्र विश्वं ततश्च
सूक्ष्मं जगदेतदीश ।
रूपाणि सर्वाणि च भूतभेदास्तेष्वन्तरात्माख्यमतीव
सूक्ष्मम् ॥११॥
हे ईश ! यह निखिल ब्रह्माण्ड ही
आपका स्थूलरप है, उससे सूक्ष्म यह
संसार (पृथ्वीमंडल) है, उससे भी सूक्ष्म ये भिन्न-भिन्न
रूपधारी समस्त प्राणी है; उनमें भी जो अंतरात्मा है वह और भी
अत्यंत सूक्ष्म है ।
तस्माच्च सूक्ष्मादिविशेषणानामगोचरे
यत्परमात्मरूपम् ।
किमप्यचिन्त्यं तव रूपमस्ति तस्मै
नमस्ते पुरुषोत्तमाय ॥१२॥
उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि
विशेषणों का अविषम आपका कोई अचिन्त्य परमात्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप आपको
नमस्कार है ।
सर्वभूतेषु सर्वात्मन्या शक्तिरपरा
तव ।
गुणाश्रया नमस्तस्यै शाश्वतायै
सुरेश्वर ॥१३॥
हे सर्वात्मन ! समस्त भूतों में
आपकी जो गुणाश्रया पराशक्ति है, हे सुरेश्वर !
उस नित्यस्वरूपिणी को नमस्कार है।
यातीतगोचरा वाचां मनसां चाविशेषणा ।
ज्ञानिज्ञानपरिच्छेद्या तां वन्दे
स्वेश्वरीं पराम् ॥१४॥
जो वाणी और मन के परे है,
विशेषरहित तथा ज्ञानियों के ज्ञान से परिच्छेद्य है उस स्वतंत्रा
पराशक्ति की मैं वन्दना करता हूँ ।
ऊँ नमो वासुदेवाय तस्मै भगवते सदा ।
व्यतिरिक्तं न यस्यास्ति
व्यतिरिक्तोऽखिलस्य यः ॥१५॥
ॐ उन भगवान् वासुदेव को सदा नमस्कार
है,
जिनसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त
(असंग) है ।
नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै
महात्मने ।
नाम रूपं न यस्यैको
योऽस्तित्वेनोपलभ्यते ॥१६॥
जिनका कोई भी नाम अथवा रूप नहीं है
और जो अपनी सत्तामात्र से ही उपलब्ध होते है उन महात्मा को नमस्कार है,
नमस्कार है, नमस्कार है ।
यस्यावताररूपाणिसमर्चन्ति दिवौकसः
अपश्यन्तः परं रूपं नमस्तस्मै
महात्मने ॥१७॥
जिनके पर-स्वरूप को न जानते हुए ही
देवतागण उनके अवतार-शरीर को सम्यक अर्चन करते है उन महात्मा को नमस्कार है ।
योऽन्तस्तिष्ठन्नशेषस्य पश्यतीशः
शुभाशुभम् ।
तं सर्वसाक्षिणं विश्वं नमस्ये
परमेश्वरम् ॥१८॥
जो ईश्वर सबके अंत:करणों में स्थित
होकर उनके शुभाशुभ कर्मों को देखते है उन सर्वसाक्षी विश्वरूप परमेश्वर को मैं
नमस्कार करता हूँ ।
नमोऽस्तु विष्णवे तस्मै
यस्याभिन्नमिदं जगत् ।
ध्येयः स जगतामाद्यः स प्रसीदतु
मेऽव्ययः ॥१९॥
जिनसे यह जगत सर्वथा अभिन्न है उन
श्रीविष्णुभगवान् को नमस्कार है वे जगत के आदिकारण और योगियों के ध्येय अव्यय हरि
मुझपर प्रसन्न हो ।
यत्रोतमेतत्प्रोतं च
विश्वमक्षरमव्ययम् ।
आधारभूतः सर्वस्य स प्रसीदतु मे
हरिः ॥२०॥
जिनमे यह सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है
वे अक्षर,
अव्यय और सबके आधारभूत हरि मुझपर प्रसन्न हो ।
ऊँ नमो विष्णवे तस्मै नमस्तस्मै
पुनः पुनः ।
यत्र सर्वं यतः सर्वं यः सर्वं
सर्वसंश्रयः ॥२१॥
ॐ जीनमे सब कुछ स्थित है,
जिनसे सब उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार है,
उन श्रीविष्णुभगवान को नमस्कार है, उन्हें
बारंबार नमस्कार है ।
सर्वगत्वादनन्तस्य स एवाहमवस्थितः ।
मत्तः सर्वमहं सर्वं मयि सर्वं
सनातने ॥२२॥
भगवान अनंत सर्वगामी है;
अत: वे ही मेरे रूपसे स्थित है, इसलिये यह
सम्पूर्ण जगत मुझही से हुआ है, मैं ही यह सब कुछ हूँ और मुझ
सनातन में ही यह सब स्थित है ।
अहमेवाक्षयो नित्यः
परमात्मात्मसंश्रयः ।
ब्रह्मसंज्ञोऽहमेवाग्रे तथान्ते च
परः पुमान् ॥२३॥
मैं ही अक्षय,
नित्य और आत्माधार परमात्मा हूँ; तथा मैं ही
जगत के आदि के अंत में स्थित ब्रह्मसंज्ञक परमपुरुष हूँ ।
ऊँ नमः परमार्थार्थ स्थूलसूक्ष्म
क्षराक्षर ।
व्यक्ताव्यक्त कलातीत सकलेश निरञ्जन
॥२४॥
प्रल्हादजी कहने लगे ;–
हे परमार्थ ! हे अर्थ (दृश्यरूप ) ! हे स्थूलसूक्ष्म
(जाग्रत-स्वप्रदृश्यस्वरूप) ! हे क्षराक्षर (कार्य-कारणरूप ) हे व्यक्ताव्यक्त
(दृश्यादृश्यस्वरूप ) ! हे कलातीत ! हे सकलेश्वर ! हे निरंजन देव ! आपको नमस्कार
है ।
गुणाञ्जन गुणाधार निर्गुणात्मन्
गुणस्थित ।
मूर्त्तामूर्तमहामूर्ते
सूक्ष्ममूर्ते स्फुटास्फुट ॥२५॥
हे गुणों को अनुरंजित करनेवाले ! हे
गुणाधार ! हे निर्गुणात्मन ! हे गुणस्थित ! हे मूर्त और अमूर्तरूप महामुर्तिमन !
हे सूक्ष्ममूर्ते ! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरुप ! (आपको नमस्कार है ] ।
करालसौम्यरूपात्मन्विद्याऽविद्यामयाच्युत
।
सदसद्रूपसद्भाव सदसद्भावभावन ॥२६॥
हे विकराल और सुंदररूप ! हे विद्या
और अविद्यामय अच्युत ! हे सदसत (कार्यकारण) रूप जगत के उद्भवस्थान और सदसज्जगत के
पालक ! ।
नित्यानित्यप्रपञ्चात्मन्निष्प्रपञ्चामलाश्रित
।
एकानेक नमस्तुभ्यं वासुदेवादिकारण
॥२७॥
हे नित्यानित्य (आकाशघटादिरूप )
प्रपंचात्मन ! हे प्रपंच से पृथक रहनेवाले हे ज्ञानियों के आश्रयरूप ! हे
एकानेकरूप आदिकारण वासुदेव ! ।
यः स्थूलसूक्ष्मः प्रकटप्रकाशो यः
सर्वभूतो न च सर्वभूतः ।
विश्वं यतश्चैतदविश्वहेतोर्नमोऽस्तु
तस्मै पुरुषोत्तमाय ॥२८॥
जो स्थूल-सूक्ष्मरूप और स्फुट-प्रकाशमय है, जो अधिष्ठानरूप से सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुत: सम्पूर्ण भूतादि से परे है, विश्व के कारण न होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है, उन पुरुषोत्तम भगवान को नमस्कार है ।
"इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे एकोनविंशतितमोऽध्याय च विशोऽध्याय नरसिंह स्तुति समाप्त"
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