रूद्रयामलम् प्रथम पटल ३

रूद्रयामलम् प्रथम पटल ३     

रुद्रयामलम् प्रथम (१) पटल भाग-३ में मनुष्य जन्म का दुर्लभत्व (१५४- १६४), आन्तरिक ज्ञान (१६५--१७१) विद्युत्‌ के समान आयु की चञ्चलता (९७२--१७८) एवं व्रती का लक्षण (१७८--१८७)। इसके बाद गुरु के माहात्म्य और उनकी कृपा के विषय में कहा गया है (१८८-१९१) । साधक की आत्मा ही बन्धु है और धर्मशील मनुष्य ही श्रेष्ठ है (१९१-१९६)। पुन: (१९७- २९२) श्लोक तक भावत्रय की प्रशंसा की गई है। २१३ से २२० में पीठ प्रशंसा और भावज्ञान का माहात्म्य वर्णित है। फिर (२२१--२४४) गुरु की महिमा और उनके प्रति कर्तव्य बताए गए है ।

रूद्रयामलम् प्रथम पटल अंतिम भाग

रूद्रयामलम् प्रथम पटल अंतिम भाग              

रुद्रयामल १ पटल भाग ३

तंत्र शास्त्ररूद्रयामल

रूद्रयामलम्

(उत्तरतन्त्रम्)

अथ प्रथमः पटलः

भाग- ३  

मनुष्यजन्मस्य दुर्लभत्वम्

मानुषं सफलं जन्म सर्वशास्त्रेषु गोचरम् ।

चतुरशीतिलक्षेषु शरीरेषु शरीरिणाम् ॥१५४॥

न मानुष्यं विनान्यत्र तत्त्वज्ञानं तु विद्यते ।

मनुष्य जन्म का दुर्लभत्व- चौरासी लाख योनियों वाले शरीरों में जीव का मनुष्य योनि में जन्म लेना सफल है, ऐसा सभी शस्त्रों में कहा गया है, क्योंकि मनुष्य शरीर के अतिरिक्त और किसी भी योनि में तत्त्वज्ञान नहीं होता ॥१५४ - १५५॥

कदाचिल्लभ्यते जन्म मानुष्यं पुण्यसञ्चयात् ॥१५५॥

सोपानीभूतमोक्षस्य मानुष्यं जन्म दर्लभम् ।

मानुषेषु च शंसन्ति सिद्धयः स्युः प्रधानिकाः ॥१५६॥

अणिमदिगुणोपेतास्माद् देवो नरोत्तमः ।

किन्तु जब बहुत बड़े पुण्य का सञ्चय होता है तब कदाचित मनुष्य शरीर प्राप्त होता है । मोक्ष का सापान रूप मनुष्य जन्म होन दुर्लभ है । मनुष्य शरीर में ही प्रधान प्रधान सिद्धियाँ होती हैं । यह मनुष्य शरीर अणिमादि गुणों से संयुक्त है । इसलिये ( अधिमादि सिद्धियों से युक्त ) उत्तम मनुष्य साक्षाद् ‍ देवता है ॥१५५ - १५७॥

विना देहेन कस्यापि पुरुषार्थो न लभ्यते ॥१५७॥

तस्माच्छरीरं संरक्ष्य नित्यं ज्ञानं प्रसाधय ।

बिना शरीर धारण किये धर्मकामादि पुरुषार्थ का प्राप्त संभव नहीं है । इसलिये शरीर की रक्षा करके ही मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये ॥१५७ - १५८॥

मानुषं ज्ञाननिकरं ज्ञानात्मानं परं विदुः ॥१५८॥

मुनयो मौनशीलाश्च मुनितन्त्रदिगोचरम् ।

मानुषः सर्वगामी च नित्यस्थाननिराकुलः ॥१५९॥

(मित्र)मन्त्रजापं योगजापं कृत्वा पापनिवारणम् ।

परं मोक्षमवाप्नोति मानुषो नात्र संशयः ॥१६०॥

यह मनुष्य ज्ञान का खजाना है और ज्ञानात्मक है - ऐसा अभियुक्त जनों का कहाना है । मुनि के क्रिया कलाप को जानने वाला मुनि, मौन रुप शील धारण करणे वाला है, वह सर्वगमन करने वाला, नित्य एक स्थान में निराकुल रहने वाला वह मन्त्र ( मित्र ) जाप तथा योगजाप कर अपने पाप को दूर कर देता है और परब्रह्म की प्राप्ति रूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है इसमें रञ्च मात्र भी संशय नहीं है ॥१५८ - १६०॥

मयोक्तनि च तन्त्राणि मद्भक्ता ये पठन्ति च ।

पठित्वा कुरुते कर्म कृत्वा मत्सन्निधिं व्रजेत् ॥१६१॥

मदुक्तानि च शास्त्राणि न ज्ञात्वा साधको यदि ।

अन्यशास्त्राणि सम्बोध्य कोटिवर्षेण सिद्ध्यति ॥१६२॥

जो मेरे भक्त मेरे द्वारा कहे गए तन्त्रों को पढ़ते हैं और पढ़कर तदनुसार कर्म करते है वे मेरी सन्निधि को प्राप्त करते हैं । जो साधक मेरी भक्तिं करते हैं किन्तु मेरे द्वारा कहे गये तन्त्रों एवं शास्त्रों का ज्ञान न कर अन्य शास्त्रों का ज्ञान करते हैं वे करोड़ों वर्षों में सिद्ध होते है ॥१६१ - १६२॥

शुक्तौ रजतविभ्रान्तिर्यथा भवति भैरव ।

तथान्यदर्शनेभ्यश्च भुक्ति मुक्तिञ्च काड्‌क्षति ॥१६३॥

यत्र भोगस्तत्र मोक्षो द्वयं कुत्र न सिद्ध्यति ।

मम श्रीपादुकाम्भोजे सेवको मोक्षभोगगः ॥१६४॥

हे महाभैरव ! जिस प्रकार शुक्ति में रजत का भ्रत हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य भ्रम वश अन्य दर्शनों से भुक्ति और मुक्ति दानों चाहता है । जहाँ भोग होता है वहाँ दूसरा मोक्ष कैसे रह सकता है क्योंकि दोनों का एकत्र रहना सिद्ध नहीं है । किन्तु मेरे चरणकमलों का वह सेवक मोक्ष और भोग दोनों का भागी होता है ॥१६३ - १६४॥

बाह्यद्रष्टा प्रगृहणाति आकाशस्थिततेजसम् ।

ब्रह्मण्डज्ञानद्रष्टा च देशाण्डस्थं प्रपश्यति ॥१६५॥

बाह्मद्रष्टा साधक देखने के लिये आकाश में रहने वाले तेज को ग्रहण करता है । किन्तु सारे ब्रह्माण्ड के ज्ञान का द्रष्टा अपने आन्तर ज्ञान से समस्त प्रदेशों और ब्रह्माण्ड का दर्शन करता है ॥१६५॥

घटप्रत्यक्षसमगे आलोको व्यञ्जको यथा ।

बिना घटत्त्वयोगेन न प्रत्यक्षो यथा घटः ॥१६६॥

इतरादू भिद्यमानेऽपि न भेदमुपगच्छति ।

पुरुषे नैव भेदोऽस्ति विना शक्तिं कथञ्चन ॥१६७॥

जिस प्रकार घट का प्रत्यक्ष करने के लिये प्रकाश की आवश्यकता होती है । फिर भी जैसे घटत्व ज्ञान के बिना घटा का प्रत्यक्ष नहीं होता और इतरघट से उस घट के भिन्न होने पर भी उसे घट भेद दिखाई नहीं पड़ता, उसी प्रकार पुरुषों में भी भेद है, किन्तु बिना शक्ति के वह दिखाई नहीं पड़ता ॥१६६ - १६७॥

शक्तिहीनो यथा देही निर्बलो योगविवर्जितः ।

ज्ञानहीनस्तथात्मानं न पश्यति पदद्वयम् ॥१६८॥

स्वभावं नाधिगच्छन्ति संसारज्ञानमोहिताः ।

अभिपश्यति सश्लोको यद्भावं परिभाव्यते ॥१६९॥

जिस प्रकार शक्तिहीन जीव निर्बल और वाणी में असमर्थ होता है उसी प्रकार पुं - शक्तिहीन अपने अज्ञान और अपनी आत्मा - दोनों को नहीं जानता । संसार के अज्ञान से मोहित प्राणी अपने आत्मस्वरूप को नहीं पहचानते और अज्ञान में पडे़ हुये वे जड़ ज्ञान का दर्शन भी नहीं कर पाते ॥१६८ - १६९॥

ईश्वरस्यापि दूतस्य यमराजस्य बन्धनम् ।

निधनं चानुगच्छन्ति दृष्ट्‌वा च तनुजं धनम् ॥१७०॥

लोको मोहसुरां पीत्त्वा न वेत्ति हितमात्मनः ।

सम्पदः स्वप्नमेव स्याद् यौवनं कुसुमोपमम् ॥१७१॥

वे ईश्वर के दूत यमराज के बन्धन में पडे़ रहते हैं तथा अपने पुत्र और धन को देखते देखते मृत्यु को प्राप्त करते हैं । यह संसार मोहरूपी मदिरा पी कर इतना उन्मत्त हो जाता है कि उसे अपना हित दिखाई नहीं देता । सारी संपत्ति स्वप्न है । जवानी भी फूल के समान थोडे़ दिन विकसित रहने वाली है ॥१७० - १७१॥

तडिच्चपलमायुष्यं कस्याप्यज्ञानतो धुतिः ।

शतं जीवति मर्त्यश्च निद्रा स्यादर्धहारिणी ॥१७२॥    

अर्धं हरति कामिन्याः शक्तिअबुद्धिप्रतापिनी ।

असद्‍वृत्तिश्च मूढानां हन्त्यायुषमहर्निशम् ॥१७३॥

आयु बिजली के समान चञ्चल है । इस अज्ञान से भला किसे धैर्य हो सकता है । अधिक से अधिक वह सौ वर्ष तक जीता है । उसमें भी उसकी आधी आयु निद्रा में बीत जाती है । ताप उत्पन्न करने वाली कामिनी में आसक्त बुद्धि उसकी आधी आयु ले बीतती है । इतना ही नहीं, उसकी असद‍वृत्ति दिन रात उसके आयु को नष्ट करने में लगी रहती है ॥१७२ - १७३॥

बाल्यरोगजरादुःखैः सर्वं तदपि निष्फलम् ।

स्त्रीपुत्तपितृमात्रादिसम्बन्धः केन हेतुना ॥१७४॥

दुःखमूलो हि संसारः स यस्यास्ति स दुःखितः ।

अस्य त्यागः कृतो येन स सुखी नात्र संशयः ॥१७५॥

इस प्रकार कभी अज्ञान से, कभी रोग से और कभी बुढा़पे के दुःख से उसकी सारी आयु बीत जाती है । उससे वह कुछ भी फल नहीं प्राप्त करता । स्त्री, पुत्र, पिता एवं मातादि का सम्बन्ध किस कारण करना चाहिये, जब संसार दुःख का मूल ही है । इसलिये जो अपने हृदय में संसार को बसाता है वह दुःखी है । जिसने इस संसार का त्याग कर दिया, वही सुखी है, इसमें संशय नहीं है ॥१७४ - १७५॥

सुखदुःखपरित्यागी कर्मणा किं न लभ्यते ।

लोकाचारभयार्थं हि यः करोति क्रियाविधिम् ॥१७६॥

ब्रह्मज्ञाताहमखिले ये जपन्ति निरादराः ।

सांसरिकसुखासक्तं ब्रह्मज्ञोस्मीति वादिनम् ॥१७७॥

त्यजेत् तं सततं धीरश्चाण्डालमिव दूरतः ।

सुख दुःख का परित्याग कर देने वाला महापुरुष अपने कर्म से क्या नहीं प्राप्त कर लेता । जो लोकाचार के भय से सांसारिक कार्य करता रहता है और बिना श्रद्धा के अपने को इस संसार में ब्रह्म का ज्ञाता मानता है और सांसारिक सुख में आसक्त होकर भी अपने को ब्रह्मज्ञोऽस्मि ऐसा मानता है धैर्यवान पुरुष को उसे सदैव चाण्डाल के समान दूर से ही त्याग कर देना चाहिये ॥१७६ - १७८॥

गृहारण्यसमालोके गतव्रीडा दिगम्बराः ॥१७८॥

चरन्ति गर्दभाद्याश्च व्रतिनस्ते भवन्ति किम् ।

तृणपर्णोदकाहाराः सततं वनवासिनः ॥१७९॥

घर में अथवा अरण्य में निर्लज्ज नङ्गे गर्दभादि चरते रहते हैं तो क्या उससे वे व्रती कहे जा सकते हैं ? वन में रह कर निरन्तर तृण और पत्ते का आहार करने वाले हरिणादि जङ्गली जीव क्या तपस्वी कहे जा सकते हैं? ॥१७८ - १७९॥

हरिणादिमृगाश्चैव तापासास्ते भवन्ति किम् ।

शीतवातातपसहा भक्ष्याभक्ष्यसमा अपि ॥१८०॥

चरन्ति शूकराद्याश्च व्रतिनस्ते भवन्ति किम् ।

शीत, वात और घाम सहने वाले तथा भक्ष्याभक्ष्य को समान समझने वाले शूकर आदि चरते रहते हैं क्या उससे वे व्रती कहे जायेंगे ? ॥१८० - १८१॥

आकाशे पक्षिणः सर्वे भूतप्रेतादयोऽपि च ॥१८१॥

चरन्ति रात्रिगाः सर्वे खेचराः किं महेश्वराः ।

आकाश में सभी पक्षी उड़ते रहते हैं भूत प्रेतादि भी आकाश मार्ग से चलते रहते हैं तो क्या रात्रि में गमन करने वाले ये सभी खेचर महेश्वर कहे जायँगे ? ॥१८१ - १८२॥

आजन्ममरणान्तञ्च गङुदितटनीस्थिताः ॥१८२॥

मण्डूकमत्स्यप्रमुखा व्रतिनस्ते भवन्ति किम् ।

एतज्ज्ञाननिविष्टाङा यदि गच्छन्ति पण्डिताः ॥१८३॥

तथापि कर्मदोषेण नरकस्था भवन्ति हि ।

कौटिल्यालससंसर्गवर्जिता ये भवन्ति हि ॥१८४॥

प्राप्नुवन्ति मम स्थानं मम भक्तिपरायणाः ।

ऊद्र्ध्वं व्रजन्ति भूतानि शरीरमतिवाहिकम् ॥१८५॥

जन्म से ले कर मरण पर्यन्त गङ्गादि सुरसरितों में रहने वाले माण्डूक एवं मत्स्यादि प्रमुख जन्तु क्या व्रती कहे जायेंगे ? इस प्रकार के ज्ञान का विवेचन कर यदि पण्डितजन अज्ञ बने हुए हैं, तो भी कर्म दोष से उनके हाथ कुछ नहीं लगता और वे अन्ततः नरकगामी ही होते हैं । किन्तु कुटिलता, आलस्य और संसर्ग दोषों को छोड़कर जो मेरी भक्ति में लगे रहते हैं, वे मेरा स्थान प्राप्त कर लेते हैं ॥१८२ - १८५॥

निजदेहाभिशापेन नानारुपो भवेन्नरः ।

शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः ॥१८६॥

इह दुश्चरितैः केचित् केचित् पूर्वकृतैस्तथा ।

प्राप्नुवन्ति दुरात्मानो नरा रुपविपर्ययम् ॥१८७॥

ऐसे तो सारे प्राणी अतिवाहिक शरीर धारण कर ऊपर जाते ही हैं । क्योंकि अपने देह के कर्मानुसार मनुष्य नाना रूप में जन्म लेता है । ( शरीर से होने वाले कर्म से कोई जीव दुष्ट गति प्राप्त करता है ) । किसी का दुश्चरित्र इस जन्म का होता है तो किसी का पूर्वजन्म का होता है । ( पूर्वजन्म का ) दुरात्मा मनुष्य जन्म में भी रूपविपर्यय (कुरूपता) प्राप्त करता है ॥१८६ - १८७॥

गुरुपादविहीना ये ते नश्यन्ति ममाज्ञया ।

गुरुर्मूलं हि मन्त्राणा गुरुर्मूलं परन्तपः ॥१८८॥

गुरोः प्रसादमात्रेण सिद्धिरेव न संशयः ।

जो गुरुचरणकृपा से रहित हैं वे मेरी आज्ञा से विनष्ट हो जाते हैं । वस्तुतः गुरुचरण पादुका नष्ट होने से रक्षा करती है अतः गुरुचरण सेवा सबसे बडा़ तप है । गुरु के प्रसन्न होने मात्र से सारी सिद्धि प्राप्त हो जाती है इसमें संशय नहीं ॥१८८ - १८९॥

अहं गुरुरहं देवो मन्त्रार्थोऽस्मि न संशयः ॥१८९॥

भेदका नरकं यान्ति नानाशास्त्रार्थवर्जिताः ।

सर्वासामेव विद्यानां दीक्षा मूलं यथा प्रभो ॥१९०॥

गुरुमूलस्वतन्त्रस्य गुरुरात्मा न संशयः ।

मैं ही गुरु हूँ, मैं ही देव हूँ, मैं ही मन्त्रार्थ हूँ, नाना शास्त्रों के अर्थ को न जानने वाले जो लोग इनमें भिन्न बुद्धि रखते हैं वे नरक में पड़ते हैं । हे प्रभो ! सभी विद्याओं की प्राप्ति का मूल जैसे दीक्षा है, वैसे ही स्वतन्त्र का मूल गुरु है किं बहुना गुरु ही आत्मा है इसमें संशय नहीं ॥१८९ - १९१॥

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥१९१॥

आत्मना क्रियते कर्म भावसिद्धिस्तदा भवेत् ।

हीनाङी कपटी रोगी बहवाशी शीलवर्जित् ॥१९२॥  

मय्युपासनमास्थाय उपविद्यां सदाभ्यसेत् ।

धनं धान्यं सुतं वित्तं राज्यं ब्राह्मणभोजनम् ॥१९३॥

शुभार्थं सम्प्रयोक्तव्यं नान्यचिन्ता वृथाफलम् ।

नित्यश्राद्धरतो मर्त्यो धर्मशालो नरोत्तमः ॥१९४॥

अपनी ही आत्मा अपना बन्धु है और अपनी ही आत्मा अपना शत्रु है । अपने द्वारा जिस कर्म को जिस भाव से किया जाता है उसी भाव से सिद्धि मिलती है । चाहे हीनाङ्ग, कपटी, रोगी एवं बहुभोजी तथा शीलरहित ही साधक क्यों न हो मेरी उपासना करते हुये उसे उपविद्या का अभ्यास करते रहना चाहिये । धन, धान्य, सुत, वित्त, राज्य तथा ब्राह्मण भोजन अपने कल्याण के लिये प्रयुक्त करना चाहिये । अन्य की चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकी वह निष्फल है । नित्यश्राद्ध करने वाला धर्मशील मनुष्य सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ है ॥१९१ - १९४॥

महीपालः प्रियाचारः पीठभ्रमणतत्परः ।

पीठे पीठे महाविद्यादर्शनं यदि लभ्यते ॥१९५॥        

तदा तस्य करे सर्वाः सिद्धयोऽव्यक्तमण्डलाः ।

अकस्माज्जायते सिद्धिर्महामायाप्रसादतः ॥१९६॥

पवित्र आचरण वाला, मेरे सिद्धपीठों में भ्रमण करने वाला महीपाल यदि मेरे उन उन पीठों में जाकर मेरा दर्शन करे, तो अव्यक्त( सूक्ष्म ) मण्डल में रहने वाली समस्त सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं, क्योंकि महामाया के प्रसन्न होने पर अकस्मात् सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥१९५ - १९६॥

महावीरो महाधीरो दिव्यभावस्थितोऽपि वा ।

अथवा पशुभावस्थो मन्त्रपीठं विवासयेत् ॥१९७॥     

क्रियायाः फलदं प्रोक्तं भावत्रयमनोरमम‍ ।

तथा च युगभावेन दिव्यवीरेण भैरव ॥१९८॥

भाव प्रशंसा -- अथवा, महावीरभाव में अथवा महाधीर साधक को दिव्यभाव में स्थित होने से सिद्धि मिलती है, अथवा पशुभाव में स्थित मन्त्रज्ञ साधक मुझे अपने हृदयरूपी पीठ में निवास करावे तब सिद्धि प्राप्त होती है । मनोरमभावत्रय ( पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव ) ही क्रिया को सफल बनाते हैं अथवा हे भैरव ! दिव्यभाव और वीरभाव भी क्रिया को फलवती बनाते हैं ॥१९७ - १९८॥

प्रपश्यन्ति महावीराः पशवो हीनजातयः ।

न पश्यन्ति कलियुगे शास्त्रभिभूतचेतसः ॥१९९॥

अपि वर्षसहस्त्रेण शास्त्रान्तं नैव गच्छति ।

तर्काद्यनेकशास्त्राणि अल्पायुर्विघ्नकोटयः ॥२००॥

हीन जाति में उत्पन्न पशुभाव वाले तथा वीर भाव वाले मुझे प्राप्त करते हैं । किन्तु शास्त्रों से अभिभूत चित्त वाले इस कलियुग में मेरा दर्शन नहीं प्राप्त कर सकते । कोई हजारों वर्ष पर्यन्त लगे रहने पर भी शास्त्रों का अन्त नहीं प्राप्त कर सकता । एक तो तर्कादि अनेक शास्त्र हैं और अपेक्षाकृत मनुष्य की आयु अत्यन्त स्वल्प है तथा उसमें भी करोडों विघ्न हैं ॥१९९ - २००॥

तस्मात् सारं विजानीयात् क्षीरं हंस इवाम्भसि ।

कलौ च दिववीराभ्यां नित्यं तद्गतचेतसः ॥२०१॥

महाभक्ताः प्रपश्यन्ति महाविद्यापरं पदम् ।

इस कारण जिस प्रकार हंस जल में से क्षीर को अलग कर लेता है उसी प्रकार शास्त्रों के सार का ज्ञान कर लेना चाहिए । इस घोर कलियुग में दिव्य और वीरभाव के सहारे अपने चित्त का महाविद्या में लगाये हुये मेरे महाभक्त महाविद्या के परम पद का दर्शन कर लेते हैं ॥२०१ - २०२॥

साधवो मौनशीलाश्च सदा साधनतत्पराः ॥२०२॥

दिव्यवीरस्वभावेन पश्यन्ति मत्पदाम्बुजम् ।

भावद्वयं ब्राह्मणांना महासत्फलकाङ्‌क्षिणाम् ॥२०३॥

अथवा चावधूतानां भावद्वयमुदाह्रतम् ।

भावद्वयप्रभावेण महायोगी भवेन्नरः ॥२०४॥

मुर्खोऽपि वाक्पतिः श्रेष्ठी भावद्वयप्रसादतः ।

मौन धारण करने वाले सर्वदा साधन में लगे हुये सज्जन दिव्य और वीरभाव के स्वभाव से मेरे चरण कमलों का दर्शन कर लेते हैं । बहुत बडे़ उत्तम फल की आकांक्षा रखने वाले ब्राह्मणों को दो भाव ग्राह्य है अथवा अवधूतों के लिये भी दो ही भाव कहे गये हैं । इन दो भाव के प्रभाव से साधक मनुष्य महायोगी हो जाता है । किं बहुना, भाव द्वय को सिद्ध कर लेने पर मूर्ख भी वाचस्पति हो जाता है ॥२०२ - २०५॥

ये जानन्ति महादेव मम तन्त्रार्थसाधनम् ॥२०५॥

भावद्वयं हि वर्णानां ते रुद्रा नात्र संशयः ।

भावुको भक्तियोगेन्द्रः सर्वभावज्ञसाधनः ॥२०६॥

उन्मत्तजडवन्नित्यं निजतन्त्रार्थपारगः ।

हे महादेव ! जो तन्त्रार्थ से सिद्ध किये गये सभी वर्णों के लिए विहित दो भाव को जानते हैं, वे साक्षात् ‍रुद्र हैं, इसमें संशय नहीं । भावद्वय सभी भावज्ञों का साधन है । भाव को जानने वाले साधक भक्तियोग के इन्द्र हैं वे अपने तन्त्रार्थ के पारदर्शी होते हैं । नित्या उन्मत्त और जड़ के समान बने रहते हैं ॥२०५ - २०७॥

वृक्षो वहति पुष्पाणि गन्धं जानाति नासिका ॥२०७॥

पठन्ति सर्वशास्त्राणि दुर्लभा भावबोधकाः ।

प्रज्ञाहीनस्य पठनमन्धस्यादर्शदर्शनम् ॥२०८॥

प्रज्ञावतो धर्मशास्त्रं बन्धनायोपकल्पते ।

( जो भाव नहीं जानते वे इस प्रकार हैं ) जैसे वृक्ष फूल धारण करता है किन्तु उसकी गन्ध नासिका ही जानती है। इसी प्रकार तत्त्वशास्त्र के पढ़ने वाले तो बहुत हैं पर भाव के जानकार कोई कोई होते हैं । जिस प्रकार बुद्धिहीन की पढा़ई और अन्धे को आदर्श ( दर्पण ) का दर्शन , व्यर्थ होता है उसी प्रकार प्रज्ञावानों को भी धर्मशास्त्र का ज्ञान बन्धन का कारण हो जाता है ॥२०७ - २०९॥

तत्त्वमीदृगिति भवेदिति शास्त्रार्थनिश्चयः ॥२०९॥

अहं कर्ताऽहमात्मा च सर्वव्यापी निराकुलः ।

मनसेति स्वभावञ्च चिन्तयत्यपि वाक्पतिः ॥२१०॥

यह तत्त्व इस प्रकार हो सकता है यही शास्त्रार्थ का निश्चयज्ञान है । इस प्रकार वाक् ‌ पति अपने मन से मैं कर्त्ता हूँ, मैं आत्मा हूँ, मैं सर्वव्यापी हूँ इस प्रकार के स्वभाव की चिन्ता करते हैं ॥२०९ - २१०॥

सौदामिनीतेजसो वा सहस्त्रवर्षकं यदा ।

प्रपश्यति महाज्ञानी एकचन्द्रं सह्स्त्रकम् ॥२११॥

कोटिवर्षशतेनापि यत्फलं लभते नरः ।

एकक्षणमङ्‌घ्ररजो ध्यात्वा तत्फलमश्नुते ॥२१२॥

जब सौदामनी के समान (क्षणिक) तेज से युक्त शास्त्र ज्ञानी एक सहस्त्रवर्ष पर्यन्त देखता है तभी (तन्त्रवेत्ता एवं भावज्ञ) महाज्ञानी एक चन्द्र को सहस्त्र चन्द्र के समान देखता है । करोड़ों वर्ष तक इस प्रकार तपस्या करने से मनुष्य जो फल प्राप्त करता है वह सभी फल मेरे चरणों के रज का एक क्षण मात्र ध्यान करने से उसे प्राप्त हो जाता है ॥२११ - २१२॥

विचेद्यादि सर्वत्र केवलानन्दवर्धनम् ।

कामरुपं महापीठं त्रिकोणाधारतैजसम् ॥२१३॥

जलबुद्बुद्शब्दान्तमनन्तमङुलात्मकम‍ ।

स भवेन्मम दासेन्द्रो गणेशगुहवत्प्रियः ॥२१४॥

यदि कोई आनन्द बढा़ने वाले एवं त्रिकोण के आधार में (कुण्डलिनी) स्थित तेज वाले मेरे कामरूप पीठ में, जहाँ जल के बुदबुद के समान शब्द होता है तथा जो अनन्त मङ्गलात्मक है, वहाँ सर्वत्र विचरण करे तो वह गणेश और कार्त्तिकेय के समान मेरा प्रिय बन कर मेरा दास हो जाता है और भक्तों में इन्द्र बन जाता है ॥२१३ - २१४॥

कंकालाख्या - साट्‌टहासा - विकटाक्षोपपीठकम् ।

विचरेत् साधकश्रेष्ठो मत्पादाब्जं यदीच्छति ॥२१५॥

ज्वालामुखीमहापीठं मम प्रियमतर्कवित् ।

यो भ्रमेन्मम तुष्टयर्थं स योगी भवति धुवम् ॥२१६॥

यदि कोई साधक मेरे चरणकमलों को प्राप्त करना चाहता है तो साट्टहास एवं विकटाक्ष रूप उपपीठ, जिसका नाम कङ्काल है वहाँ पर विचरण करे । ज्वालामुखी नाम का महापीठ मेरा अत्यन्त प्रिय है जो मेरी संतुष्टि के लिये वहाँ भ्रमण करता है वह निश्चय ही योगी हो जाता है ॥२१५ - २१६॥

भावद्वयादिनिकरं ज्वालामुख्यादिपीठकम् ।

भ्रमन्ति ये साधकेन्द्रास्ते सिद्धा नात्र संशयः ॥२१७॥  

भावात् परतरं नास्ति त्रैलोक्यसिद्धिमिच्छाताम् ।

भावो हि परमं ज्ञानं ब्रह्मज्ञानमनुत्तमम् ॥२१८॥

दोनों भावों का खान रूप ज्वालामुख्यादिपीठ में जो साधकेन्द्र भ्रमण करते हैं वे अवश्य ही सभी साधकों में श्रेष्ठ एवं सिद्ध हो जाते हैं इसमें संशय नहीं । त्रैलोक्य की सिद्धि चाहने वालों के लिये भाव से बढ़ कर और कोई पदार्थ नहीं क्योंकि भाव ही परमज्ञान और सर्वोत्तम ब्रह्मज्ञान है ॥२१७ - २१८॥

कोटिकन्याप्रदानेन वाराणस्यां शताटनैः ।

किं कुरुक्षेत्रगमने यदि भावो न लभ्यते ॥२१९॥        

गयायां श्राद्धदानेन नानापीठाटनेन किम् ।

नानाहोमैः क्रियाभिः किं यदि भावो न लभ्यते ॥२२०॥

भावेन ज्ञानमुत्पन्नं ज्ञानान्मोक्षमवाप्नुयात् ।

यदि भाव का ज्ञान नहीं हुआ तो करोड़ों कन्या दान से किं वा वाराणसी की सौ बार परिक्रमा से अथवा कुरुक्षेत्र में यात्रा करने से क्या लाभ ? भावद्वयज्ञान के बिना गया में श्राद्ध एवं दान से या अनेक पीठों में भ्रमण करने से भी कोई लाभ नहीं । बहुत क्या कहें, यदि भाव ज्ञान नहीं हुआ तो अनेक प्रकार के होम और क्रिया से भी क्या ? भाव से ज्ञान उत्पन्न होता है । ज्ञान होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥२१९ - २२१॥

आत्मनो मनसा देव्यागुरोरीश्वरमुच्यते ॥२२१॥

ध्यानं संयोजन प्रोक्तं मोक्षमात्ममनोलयम् ।

गुरु महिमा --- आत्मा से, मन से एवं वाणी से गुरु ईश्वर कहा जाता है । ध्यान ही सायुज्य है और मन को लय कर देना मोक्षकहा जाता है ॥२२१ - २२२ ॥

गुरोः प्रसादमात्रेण शक्तितोषो महान् भवेत् ॥२२२॥

शक्तिसन्तोषमात्रेण मोक्षमाप्नोति साधकः ।

गुरु की प्रसन्नता मात्र से यहाँ ( कुण्डलिनी ) शक्ति अत्यन्त संतुष्ट हो जाती है और जब साधक पर शक्ति संतुष्ट हो जाती है तो उसे मोक्षअवश्य प्राप्त हो जाता है ॥२२२ - २२३॥

गुरुमूलं जगत्सर्वं गुरुमूलं परन्तपः ॥२२३॥

गुरोः प्रसादमात्रेण मोक्षमाप्नोति सद्वशी ।

इस सारे संसार का मूल गुरु है । समस्त तपस्याओं का मूल गुरु है । उत्तम और जितेन्द्रिय साधक गुरु के प्रसन्न होने मात्र से मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥२२३ - २२४॥

न लङ्‌घयेद् गुरोराज्ञामुत्तरं न वदेत् तथा ॥२२४॥

दिवारात्रौ गुरोराज्ञां दासवत् परिपालयेत् ।

उक्तानुक्तेषु कार्येषु नोपेक्षां कारयेद् बुधः ॥२२५॥

इसलिये साधक गुरु की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे तथा उनका उत्तर न दे । दिन रात दास के समान गुरु की आज्ञा का पालन करे। बुद्धिमान साधक उनके कहे गये अथवा बिना कहे कार्यों की उपेक्षा न करे ॥२२४ - २२५॥

गच्छतः प्रयतो गच्छेद् गुरोराज्ञां न लङ्वयेत् ।

न श्रृणोति गुरोर्वाक्यं श्रृणुयाद् वा पराङ्‌मुखः ॥२२६॥

अहितं वा हितं वापि रौरवं नरकं व्रजेत् ।

आज्ञाभङु गुरोर्दैवाद् यः करोति विबुद्धिमान् ॥२२७॥

प्रयाति नरकं घोरं शूकरत्वमवाप्नुयात् ।

उनके चलते रहने पर स्वयं भी नम्रतापूर्वक उनका अनुगमन करे और उनकी आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे । जो गुरु की अहितकारी अथवा हितकारी बात नहीं सुनता अथवा सुन कर अपना मुंह फेर लेता है वह रौरव नरक में जाता है । दैवात् ‍ यदि बुद्धिरहित पुरुष अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह घोर नरक में जाता है और शूकर योनि प्राप्त करता है ॥२२६ - २२८॥

आज्ञाभङुं तथा निन्दां गुरोरप्रियवर्तनम् ॥२२८॥

गुरुरोहञ्च यः कुर्यात तत्संसर्गं न कारयेत् ।

गुरुद्रव्याभिलाषी च गुरुस्तीगमनानि च ॥२२९॥

पातकञ्च भवेत् तस्य प्रायश्चित्तं न कारयेत् ।

गुरुं दुष्कृत्य रिपुवन्निर्हरेत् परिवादतः ॥२३०॥

अरण्ये निर्जन देशे स भवेद् ब्रह्मराक्षसः ।

जो गुरु की आज्ञा का उल्लङ्घन, गुरुनिन्दा, गुरु को चिढा़ने वाला, अप्रिय व्यवहार तथा गुरुद्रोह करता है उसका संसर्ग कभी नहीं करना चाहिये । जो गुरु के द्रव्य को चाहता है, गुरु की स्त्री के साथ सङ्गम करता है उसे बहुत बडा़ पाप लगता है अतः उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं है । जो निन्दा के द्वारा गुरु का शत्रुवत् अहित करता है वह अरण्य में एवं निर्जन स्थान में ब्रह्मराक्षस होता है ॥२२८ - २३१॥

पादुकाम आसनं वस्त्रं शयनं भूषणानि च ॥२३१॥

दृष्ट‌वा गुरुं नमस्कृत्य आत्मभोगं न कारयेत् ।

सदा च पादुकामन्त्रं जिहवाग्रे यस्य वर्तते ॥२३२॥

अनायासेन धर्मार्थकाममोक्षं लभेन्नरः ।

श्रीगुरोश्चरणाम्भोज ध्यायेच्चैव सदैव तम् ॥२३३॥

भक्तये मुक्तये वीरं नान्यभक्तं ततोऽधिकम् ।

गुरु का खडा़ऊँ, आच्छादन, वस्त्र, शयन तथा उनके आभूषण देखकर उन्हे नमस्कार करे और अपने कार्य में कभी भी उसका उपयोग न करे । जिस मनुष्य के जिह्वा के अग्रभाग में सदैव गुरुपादुका मन्त्र विद्यमान रहता है वह अनायास ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । शिष्य को अपने भोग तथा मोक्ष के लिये गुरु के चरण कमलों का सदैव ध्यान करना चाहिये । हे वीर भैरव ! उससे बढ़ कर अन्य कोई भक्ति नहीं है ॥२३१ - २३४॥

एकग्रामे स्थितः शिष्यो गत्वा तत्सन्निधिं सदा ॥२३४॥

एकदेशे स्थितः शिष्यो गत्वा तत्सन्निधिं सदा ।

सप्तयोजविस्तीर्णं मासैकं प्रणमेद् गुरुम् ॥२३५॥

यदि शिष्य और गुरु एक ही ग्राम में निवास करते हों तो शिष्य को चाहिये कि वह तीनों संध्या में जाकर अपने गुरु को प्रणाम करे । यदि एक ही देश में गुरु और शिष्य के निवास में सात योजन का अन्तर हो तो शिष्य को महीने में एक बार जा कर उन्हें प्रणाम करना चाहिये ॥२३४ - २३५॥

श्रीगुरोश्चरणाम्भोज यस्यां दिशि विराजते ।

तस्यां दिशि नमस्कुर्यात् कायेन मनसा धिया ॥२३६॥

विद्याङुमासनं मन्त्रं मुद्रां तन्त्रादिक प्रभो ।

सर्वं गुरुमुखाल्लब्ध्वा सफलं नान्यथा भवेत् ॥२३७॥

श्री गुरु का चरण कमल जिस दिशा में विद्यमान हो उस दिशा में शरीर से (दण्डवत् प्रणाम द्वारा), मन से तथा बुद्धि से नमस्कार करे । हे प्रभो ! वेदाङ्गादि विद्या, पद‍मासनादि आसन, मन्त्र, मुद्रा और तन्त्रादि ये सभी गुरु के मुख से प्राप्त होने पर सफल होते हैं अन्यथा नहीं ॥२३६ - २३७॥

कम्बले कोमले वापि प्रासादे संस्थिते तथा ।

दीर्घकाष्ठेऽथवा पृष्ठे गुरुञ्चैकासनं त्यजेत् ॥२३८॥

श्रीगुरोः पादुकामन्त्रं मूलमन्त्रं स्वपादुकाम् ।

शिष्याय नैव देवेश प्रवेदद् यस्य कस्यचित् ॥२३९॥

कम्बल पर, कोमल स्थान (चारपाई आदि) पर, प्रासाद पर, दीर्घ काष्ठ पर अथवा किसी की पीठ पर गुरु के साथ एव आसन पर न बैठे । हे देवेश ! श्री गुरु का पादुका मन्त्र, उनका दिया हुआ मूल मन्त्र और अपना पादुका मन्त्र जिस किसी के शिष्य को नहीं बताना चाहिये ॥२३८ - २३९॥

यद् यदात्महितं वस्तु तद्द्रव्यं नैव वञ्चयेत् ।

गुरोर्लब्ध्वा एकवर्णं तस्य तस्यापि सुव्रत ॥२४०॥ 

भक्ष्यं वित्तानुसोरण गुरुमुदि‌दश्य यत्कृतम् ।

स्वल्पैरपि महत्तुल्यं भुवनाद्यं दरिद्रताम् ॥२४१॥

सर्वस्वमपि यो दद्याद् गुरुभक्तिविवर्जितः ।

नरकान्तवाप्नोति भक्तिरेव हि कारणम् ॥२४२॥

जो अपनी हित में आने वाली वस्तु हो उसे न दे कर गुरु को कदापि प्रवञ्चित नहीं करना चाहिये । हे सुव्रत ! न केवल दीक्षागुरु को, किन्तु जिससे एक अक्षर का भी ज्ञान किया हो उसको भी प्रवञ्चित न करे । गुरु के उद्‍देश्य से अपने वित्तानुसार जो भक्ष्य निर्माण किया जाता है उसका स्वल्पभाग भी बहुत महान् ‍ होता है । किन्तु जो गुरु की भक्ति से विवर्जित भुवनादि, किं बहुना, सर्वस्व भी प्रदान करे तो वह दरिद्रता और नरक प्राप्त करता है क्योंकि दान में भक्ति ही कारण है ॥३४० - २४२॥

गुरुभक्त्या च शुक्रत्वभक्त्या शूकरो भवेत् ।

गुरुभक्तः परं नास्ति भक्तिशास्त्रेषु सर्वतः ॥२४३॥

गुरुपूजां विना नाथ कोटिपुण्यं वृथा भवेत् ॥२४४॥

गुरु में भक्ति रखने से ऐन्द्र (महेन्द्र) पद तथा भक्ति न रखने से शूकरत्व प्राप्त होता है । सभी जगह भक्तिशास्त्र में गुरु भक्ति से बढ़ कर और कोई उत्कृष्ट नहीं है । हे नाथ ! गुरु पूजा के बिना करोड़ों पुण्य व्यर्थ हो जाते हैं इसलिये गुरुभक्ति करनी चाहिये ॥२४३ - २४४॥

॥इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने सर्वविद्यानुष्ठाने सिद्धिमन्त्रप्रकरणे भैरवीभैरवसंवादे प्रथमः पटलः ॥१॥

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल उत्तरतन्त्र का प्रथम पटल भाग ३ समाप्त हुआ ॥३॥

श्रीरुद्रयामलम् प्रथम पटल समाप्त हुआ ॥

शेष जारी............रूद्रयामल तन्त्र द्वितीय पटल    

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