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कर्मकाण्ड

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तारा हृदय स्तोत्र

तारा हृदय स्तोत्र

तारा हृदय स्तोत्र समस्त पापों का नाश करने वाला है । महादु:ख तथा महासंकट में, प्राणों का संशय होने पर और घोर महाभय में इस उत्तम स्तोत्र का पाठ करना चाहिये ।

श्रीमदुग्रताराहृदयस्तोत्रम्

तारा हृदय स्तोत्र

श्रीताराहृदयम्

श्रीमदुग्रताराहृदयस्तोत्रम्

श्रीशिव उवाच ।

श्रृणु पार्वति भद्रं ते लोकानां हितकारकम् ।

कथ्यते सर्वदा गोप्यं ताराहृदयमुत्तमम् ॥ १॥

श्री शिव बोले : हे पार्वती ! तुम्हारा कल्याण हो । संसार का कल्याण करने वाला गोपनीय उत्तम तारा हृदय स्तोत्र मैं बता रहा हूं।

श्रीपार्वत्युवाच ।

स्तोत्रं कथं समुत्पन्नं कृतं केन पुरा प्रभो ।

कथ्यतां सर्वसद्वृत्तं कृपां कृत्वा ममोपरि ॥ २॥

श्री पार्वती बोलीं : हे प्रभो ! यह स्त्रोत कैसे उत्पन्न हुआ ? किसने इसे बताया ? यदि मेरे पर आप की कृपा हो तो यह सब समाचार आप मुझे बतायें।

श्रीशिव उवाच ।

रणे देवासुरे पूर्वं कृतमिन्द्रेण सुप्रिये ।

दुष्टशत्रुविनाशार्थं बलवृद्धियशस्करम् ॥ ३॥

श्री शिव बोले : हे सुप्रिये! बहुत पहले देवासुर संग्राम में इन्द्र ने दुष्ट शत्रुओं के विनाश के लिए, बलवर्धक और यशस्कर इस स्तोत्र को बनाया था ।  

श्रीताराहृदयम् 

विनियोगः ।

ॐ अस्य श्रीमदुग्रताराहृदयस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीभैरवऋषिः ।

अनुष्टुप् छन्दः । श्रीमदुग्रतारादेवता । स्त्रीं बीजम् । हूं शक्तिः ।

नमः कीलकम् । सकलशत्रुविनाशार्थे पाठे विनियोग ॥

॥ ऋष्यादिन्यासः ॥

श्रीभैरव ऋषये नमः शिरसि ।

अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे ।

श्रीमदुग्रतारा देवतायै नमः हृदि ।

स्त्रीं बीजाय नमः गुह्ये ।

हूं शक्तये नमः नाभौ ।

नमः कीलकाय नमः पादयोः ।

सकल शत्रुविनाशार्थे पाठे विनियोगाय नमः अञ्जलौ ॥

॥ इति ऋष्यादिन्यासः ॥

॥ अथ करन्यासः ॥

ॐ स्त्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।

ॐ हूं मध्यमाभ्यां नमः ।

ॐ त्रीं अनामिकाभ्यां नमः ।

ॐ ऐं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।

ॐ हंसः करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ॥

॥ इति करन्यासः ॥

॥ अथ हृदयादिषडङ्गन्यासः ॥

ॐ स्त्रीं हृदयाय नमः ।

ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।

ॐ हूं शिखायै वषट् ।

ॐ त्रीं कवचाय हुम् ।

ॐ ऐं नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॐ हंसः अस्त्राय फट् ॥ 

॥ इति हृदयादिषडङ्गन्यासः ॥

॥ अथ ध्यानम् ॥

ॐ ध्यायेत्कोटिदिवाकरद्युतिनिभां बालेन्दुयुक्शेखरां

रक्ताङ्गीं रसनां सुरक्तवसनां पूर्णेन्दुबिम्बाननाम् ।

पाशं कर्त्रीमहाङ्कुशादि दधतीं दोर्भिश्चतुर्भिर्युतां

नानाभूषणभूषितां भगवतीं तारां जगत्तारिणीम् ॥ ४॥

॥ इति ध्यानम् ॥

श्रीमदुग्रताराहृदयस्तोत्रम् 

एवं ध्यात्वा शुभां तारां ततस्यु हृदयं पठेत् ॥

तारिणी तत्त्वनिष्ठानां सर्वतत्त्वप्रकाशिका ।

रामाभिन्ना पराशक्तिः शत्रुनाशं करोतु मे ॥ ५॥

इससे ध्यान करके शुभ तारा हृदय स्तोत्र का पाठ करे । तत्त्वज्ञों को मोक्ष प्रदान करने वाली, समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करने वाली, राम से अभिन्न परा शक्ति मेरे शत्रुओं का नाश करे।

सर्वदा शत्रुसंरम्भे तारा मे कुरुतां जयम् ।

स्त्रीं त्रींस्वरूपिणी देवी त्रिषु लोकेषु विश्रुता ॥ ६॥    

शत्रुओं की भीड़ में तारा मुझे विजय प्रदान करें। स्त्रीं त्रीं स्वरूपिणी देवी तीनों लोकों में विश्रुत है।

तव स्नेहान्मयाख्यातं न पैशुन्यं प्रकाश्यताम् ।

श्रृणुदेवि तव स्नेहात् तारानामानि तत्त्वतः ॥ ७॥

वर्णयिष्यामि गुप्तानि दुर्लभानि जगत्त्रये ।

तुम्हारे स्नेह से मैंने बताया है। मैंने कोई कुटिल्ता प्रकट नहीं की है। हे देवि ! तुम्हारे स्नेह से मैं तीनों लोक में जो तारा के गुप्त और दुर्लभ नामों को बताऊँगा उन्हें तुम सुनो ।

तारिणी तरला तारा त्रिरूपा तरणिप्रभा ॥ ८॥

सत्त्वरूपा महासाध्वी सर्वसज्जनपालिका ।

रमणीया रजोरूपा जगत्सृष्टिकरी परा ॥ ९॥

तमोरूपा महामाया घोररावां भयानका ।

कालरूपा कालिकाख्या जगद्विध्वंसकारिका ॥ १०॥

तत्त्वज्ञानपरानन्दा तत्त्वज्ञानप्रदाऽनघा ।

रक्ताङ्गी रक्तवस्त्रा च रक्तमालाप्रशोभिता ॥ ११॥

सिद्धिलक्ष्मीश्च ब्रह्माणी महाकाली महालया ।

नामान्येतानि ये मर्त्त्याः सर्वदैकाग्रमानसाः ॥ १२॥

प्रपठन्ति प्रिये तेषां किङ्करत्वं करोम्यहम् ।

जो मनुष्य एकाग्रमन होकर इन नामों का पाठ करते हैं उनका मैं दास हो जाता हूँ ।          

तारां तारपरां देवीं तारकेश्वरपूजिताम् ॥ १३॥

तारिणीं भवपाथोधेरुग्रतारां भजाम्यहम् ।

स्त्रीं ह्रीं हूं त्रीं फट् मन्त्रेण जलं जप्त्वाऽभिषेचयेत् ॥ १४॥

सर्वे रोगाः प्रणश्यन्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।

त्रीं स्वाहान्तैर्महामन्त्रैश्चन्दनं साधयेत्ततः ॥ १५॥

तिलकं कुरुते प्राज्ञो लोको वश्यो भवेत्प्रिये ।

तारां तारापरां देवीं तारकेश्वरपूजिताम्‌ । तारिणीं भवपाथोधेरुग्रतारां भजाम्यहम्‌ ।स्त्री हीं हूं त्रीं फट्इस मन्त्र से जल को अभिमन्त्रित करके अभिषेक करने से सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । यह मैं सत्य कहता हूं सत्य कहता हूं। हे प्रिये! स्त्रीं स्वाहाइस मन्त्र से चन्दन को अभिमन्त्रित करके जो प्राज्ञ तिलक करे उसके वश में सारा संसार हो जाता है।

स्त्रीं ह्रीं त्रीं स्वाहा मन्त्रेण श्मशानं भस्ममन्त्रयेत् ॥ १६॥

शत्रोर्गृहे प्रतिक्षिप्त्वा शत्रोर्मृत्युर्भविष्यति ।

स्त्रीं ह्रीं त्रीं स्वाहाइस मन्त्र से श्मशान के भस्म को अभिमन्त्रित करके उसे शत्रु के घर में फेंक देने से उस शत्रु की मृत्यु हो जाती है ।

ह्रीं हूं स्त्रीं फडन्तमन्त्रैः पुष्पं संशोध्य सप्तधा ॥ १७॥

उच्चाटनं नयत्याशु रिपूणां नैव संशयः । 

'ह्रीं हूं स्त्री फट्‌'” इस मन्त्र से फूल को सात बार अभिमंत्रित करके प्रयोग करने से शत्रुओं में उच्चाटन कर देता है, इसमें कोई संशय नहीं है।

स्त्रीं त्रीं ह्रीं मन्त्रवर्येण अक्षताश्चाभिमन्त्रिताः ॥ १८॥

तत्प्रतिक्षेपमात्रेण शीघ्रमायाति मानिनी।

स्त्रीं त्रीं ह्रींइस श्रेष्ठ मंत्र से अक्षतों को अभिमंत्रित करके उसके प्रक्षेप मात्र से मानिनी आ जाती है ।  

(हंसः ॐ ह्रीं स्त्रीं हूं हंसः)

इति मन्त्रेण जप्तेन शोधितं कज्जलं प्रिये ॥ १९॥

तस्यैव तिलकं कृत्वा जगन्मोहं समाचरेत् ।

हे प्रिये ! हंस: ऊँ ह्रीं स्त्रीं हूं हंसः”” इस मन्त्र से अभिमंत्रित तथा शोधित काजल का जो तिलक लगाता है वह सारे संसार का मोहन कर डालता है।

तारायाः हृदयं देवि सर्वपापप्रणाशनम् ॥ २०॥

वाजपेयादियज्ञानां कोटिकोटिगुणोत्तरम् ।

हे देवि! तारा हृदय स्तोत्र समस्त पापों का नाश करने वाला है । वाजपेय आदि यज्ञों से करोड़ों गुना श्रेष्ठ है।

गङ्गादिसर्वतीर्थानां फलं कोटिगुणात्स्मृतम् ॥ २१॥

महादुःखे महारोगे सङ्कटे प्राणसंशये ।

महाभये महाघोरे पठेत्स्तोत्रं महोत्तमम् ॥ २२॥

गङ्गा आदि सभी तीर्थों से भी करोड़ों गुना अधिक इसका फल होता है । महादु:ख तथा महासंकट में, प्राणों का संशय होने पर और घोर महाभय में इस उत्तम स्तोत्र का पाठ करना चाहिये ।

सत्यं सत्यं मयोक्तं ते पार्वति प्राणवल्लभे।

गोपनीयं प्रयत्नेन न प्रकाश्यमिदं क्वचित् ॥ २३॥

हे प्राणवल्लभे पार्वति ! मैं यह सत्य करता हूं, सत्य कहता हूं। इसे प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना तथा कहीं प्रकाशित मत करना ।

॥ इति श्रीभैरवीतन्त्रे शिवपार्वतीसम्वादे श्रीमदुग्रताराहृदयं सम्पूर्णम् ॥

इति श्री भैरवीतन्त्रोक्त शिवपार्वती सम्वादस्थ तारा हृदय स्तोत्र समाप्त ।

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