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सदा ही धर्म-श्री और यश, नीरोग-विद्या, पुत्र-मित्र तथा विनय से सम्पन्न और दीर्घ
जीवन निर्भय और प्रसन्न होकर जीता है ।
ललिता स्तवराजः
॥ ललिता स्तवराज ब्रह्माण्डमहापुराण
अंतर्गत् ॥
देवा ऊचुः
जय देवि जगन्मातर्जय देवि परात्परे
।
जय कल्याणनिलये जय कामकलात्मिके ॥
३.१३.१॥
देवों ने कहा-हे पर से भी परे! हे
देवि ! आप तो इस समस्त जगत् की माता हैं, आपकी
जय हो। आप तो सबके कल्याण करने का स्थल है और आप कामकला का स्वरूप वाली है,
आपकी जय हो ।
जयकारि च वामाक्षि जय कामाक्षि
सुन्दरि ।
जयाखिलसुराराध्ये जय कामेशि मानदे ॥
३.१३.२॥
हे परम सुन्दर नेत्रों वाली! हे कामाक्षि!
हे सुन्दरि! आप जय करने वाली हैं। आप समस्त सुरों की आराधन करने के योग्य हैं । हे
कामेशि ! आप मान देने वाली हैं आपकी जय हो-जय हो ।
जय ब्रह्ममये देवि ब्रह्मात्मकरसात्मिके
।
जय नारायणि परे नन्दिताशेषविष्टपे ॥
३.१३.३॥
हे ब्रह्ममये ! हे देवि ! आप तो
ब्रह्मात्मक रस के स्वरूप वाली हैं। हे नारायणि ! आप परा हैं जो सम्पूर्ण स्वर्ग
वासियों के द्वारा वन्दित हैं ।
जय श्रीकण्ठदयिते जय
श्रीललितेऽम्बिके ।
जय श्रीविजये देवि
विजयश्रीसमृद्धिदे ॥ ३.१३.४॥
आप श्री कण्ठ (शिव) की दायिता हैं
आपकी जय हो । हे श्री ललिताम्बिके ! हे देवि ! आप श्री की विजय तथा श्री की
समृद्धि का प्रदान करने वाली है।
जातस्य जायमानस्य इष्टापूर्तस्य
हेतवे ।
नमस्तस्यै त्रिजगतां पालयित्र्यै
परात्परे ॥ ३.१३.५॥
हे पर से भी परे! जो जन्म धारण कर
चुका है और जन्म लेने वाला है आप उसके इष्टा पूर्त्त की हेतु हैं। तीनों जगतों की
पालन करने वाली उन आपके लिए हमारा सबका नमस्कार है ।
कलामुहूर्तकाष्ठाहर्मासर्तुशरदात्मने
।
नमः सहस्रशीर्षायै सहस्रमुखलोचने ॥
३.१३.६॥
कला-काष्ठा-मुहूर्त-दिन-मास-ऋतु और
वर्षों के स्वरूप वाली आप हैं। सहस्र शीर्ष-मुख और लोचनों वाली आपके लिए हमारा
प्रणाम है ।
नमः सहस्रहस्ताब्जपादपङ्कजशोभिते ।
अणोरणुतरे देवि महतोऽपि महीयसि ॥
३.१३.७॥
आप सहस्र हाथ-चरण कमलों से परम
शोभित हैं। आप अणु तथा महान् से भी अधिक महान् से भी अधिक महान् है। हे देवि !
आपके लिए हमारा नमस्कार है ।
परात्परतरे मातस्तेजस्तेजीयसामपि ।
अतलं तु भवेत्पादौ वितलं जानुनी तव
॥ ३.१३.८॥
हे माता ! आप पर से भी परे हैं और
जो भी तेज धारण करने वाले हैं उनका भी तेज आप ही हैं। यह अतल लोक आपके दोनों चरण
हैं और वितल लोक आपके दोनों जानु हैं ।
रसातलं कटीदेशः कुक्षिस्ते धरणी
भवेत् ।
हृदयं तु भुवर्लोकः स्वस्ते
मुखमुदाहृतम् ॥ ३.१३.९॥
रसातल आपका कटिभाग है और यह धरणी
आपकी कुक्षि हैं। आपका मुख स्वलोक है तथा भुवर्लोक आपका हृदय है।
दृशश्चन्द्रार्कदहना दिशस्ते
बाहवोऽम्बिके ।
मरुतस्तु तवोच्छ्वासा वाचस्ते
श्रुतयोऽखिलाः ॥ ३.१३.१०॥
चन्द्र-सूर्य और अग्नि आपके नेत्र
हैं। वायु आपके अच्छ्वास हैं और श्रुति (कान) आपकी वाणी है ।
क्रीडा ते लोकरचना सखा ते चिन्मयः
शिवः ।
आहारस्ते सदानन्दो वासस्ते हृदये
सताम् ॥ ३.१३.११॥
यह समस्त लोकों की रचना आपकी
क्रीड़ा है और ज्ञान से परिपूर्ण भगवान् शिव ही आपके सखा है। सर्वदा आनन्द का रहना
हो आपका आहार हैं तथा आपका निवास स्थल सत्पुरुषों का हृदय है ।
दृश्यादृश्यस्वरूपाणि रूपाणि
भुवनानि ते ।
शिरोरुहा घनास्ते तु तारकाः
कुसुमानि ते ॥ ३.१३.१२॥
ये समस्त भुवन ही आपके देखने के
योग्य और अदृश्य रूप हैं। ये घन ही आपके केश हैं तथा तारागण आपके केशों में लगे
हुए पुष्प हैं ।
धर्माद्या बाहवस्ते
स्युरधर्माद्यायुधानि ते ।
यमाश्च नियमाश्चैव करपादरुहास्तथा ॥
३.१३.१३॥
ये धर्म आदि सब आपकी भुजाएं हैं और
अधर्म आदि सब आपके आयुध हैं। समस्त यम और नियम आपके कर और पाद के ।
स्तनौ स्वाहास्वधाऽऽकरौ
लोकोज्जीवनकारकौ ।
प्राणायामस्तु ते नासा रसना ते
सरस्वती ॥ ३.१३.१४॥
स्वाहा और स्वधा के आकार वाले ही
आपके दो स्तन है जो लोकों के उज्जीवन करने वाले हैं। प्राणायाम ही आपकी नासिका है
तथा सरस्वती देवी ही आपकी रचना है ।
प्रत्याहारस्त्विन्द्रियाणि ध्यानं
ते धीस्तु सत्तमा ।
मनस्ते धारणाशक्तिर्हृदयं ते
समाधिकः ॥ ३.१३.१५॥
आपका प्रत्याहार ही इन्द्रियाँ हैं
और ध्यान ही परम श्रेष्ठ बुद्धि है। आपकी धारणा शक्ति ही मन है और आपका हृदय
समाधिक है ।
महीरुहास्तेऽङ्गरुहाः प्रभातं वसनं
तव ।
भूतं भव्यं भविष्यच्च नित्यं च तव
विग्रहः ॥ ३.१३.१६॥
पर्वत ही आपके अङ्गरुह हैं और
प्रभात आपका वसन है । भूत-भव्य-भविष्य और नित्य आपका विग्रह है ।
यज्ञरूपा जगद्धात्री विश्वरूपा च
पावनी ।
आदौ या तु दयाभूता ससर्ज निखिलाः
प्रजाः ॥ ३.१३.१७॥
जगत् की धात्री आप यत्र स्वरूप वाली
हैं और परम पावनी विश्व के रूप वाली हैं। जिसने आदि काल में दया के स्वरूप वाली होकर
इन समस्त प्रजाओं का सृजन किया था ।
हृदयस्थापि लोकानामदृश्या
मोहनात्मिका ॥ ३.१३.१८॥
आप सवके हृदयों में स्थित भी रहती
हुई मोहन स्वरूप वाली लोकों के लिए अदृश्य हैं ।
नामरूपविभागं च या करोति स्वलीलया ।
तान्यधिष्ठाय तिष्ठन्ती
तेष्वसक्तार्थकामदा ।
नमस्तस्यै महादेव्यै सर्वशक्त्यै नमोनमः
॥ ३.१३.१९॥
आप अपने नामों का और रूप का विभाग
अपनी ही लीला से किया करती है। आप उनमें अधिष्ठित रहकर ही स्थित रहा करती है और
उनमें जो असक्त हैं उनके अर्थ और कामनाओं के प्रदान करने वाली हैं। उन महादेवी के
लिए बारम्बार नमस्कार है और सर्वशक्ति को बारबार प्रणाम है।
(या देवी परमाशक्तिः
परब्रह्माभिधायिनी ।
ब्रह्मानन्दाभिदायिन्यै तस्यै
देव्यै नमो नमः ॥)
यदाज्ञया प्रवर्तन्ते
वह्निसूर्येन्दुमारुताः ।
पृथिव्यादीनि भूतानि तस्यै देव्यै
नमोनमः ॥ ३.१३.२०॥
जिसकी आज्ञा से ही ये अग्नि-सूर्य
तथा चन्द्रमा अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त हुआ करते हैं और प्रृथिवी आदि ये भूत
भी कार्यरत रहा करते हैं उस देवी के लिये बारम्बार प्रणाम है ।
या ससर्जादिधातारं
सर्गादावादिभूरिदम् ।
दधार स्वयमेवैका तस्यै देव्यै
नमोनमः ॥ ३.१३.२१॥
जिसने आदि धाता का सृजन किया था और
जिसने सर्ग के आदि काल में आदि भू का रूप धारण किया था तथा इस सबको स्वयं एक ही ने
धारण किया था उस देवी के लिए अनेक वार प्रणाम है ॥
यथा धृता तु धरणी ययाऽऽकाशममेयया ।
यया धृता यस्यामुदेति सविता तस्यै
देव्यै नमोनमः ॥ ३.१३.२२॥
(यदन्तरस्थं त्रिदिवं
यदाधारोऽन्तरिक्षकः ।
यन्मयश्चाखिलो लोकः तस्य देवै नमो
नमः ॥)
यत्रोदेति जगत्कृत्स्नं यत्र
तिष्ठति निर्भरम् ।
यत्रान्तमेति काले तु तस्यै देव्यै
नमोनमः ॥ ३.१३.२३॥
जिसने इस धरणी को धारण किया है और
जिस अमेया ने इस आकाश को धारण किया है जिसमें सविता समुदित होता है उस महादेवी यह
अन्त को प्राप्त हो जाता है उस देवी के लिए बार-बार नमस्कार निवेदित है ।
नमोनमस्ते रजसे भवायै नमोनमः
सात्त्विकसंस्थितायै ।
नमोनमस्ते तमसे हरायै नमोनमो
निर्गुणतः शिवायै ॥ ३.१३.२४॥
आप रजो रूपा भवा के लिए मेरा
नमस्कार है तथा सात्विक संस्थिता के लिए नमस्कार है। तमोरूपहरा आपको नमस्कार है। निर्गुण
स्वरूपा शिवा आपको प्रणाम है ।
नमोनमस्ते जगदेकमात्रे नमोनमस्ते
जगदेकपित्रे ।
नमोनमस्तेऽखिलरूपतन्त्रे
नमोनमस्तेऽखिलयन्त्ररूपे ॥ ३.१३.२५॥
आप इस सम्पूर्ण जात् की एक ही माता
हैं ऐसी आपको बारम्बार नमस्कार है। इस जगत् की आप ही एकमात्र पिता अर्थात् जनक हैं
ऐसी आपके लिए अनेक बार नमस्कार हैं। आपका यह सम्पूर्ण स्वरूप तन्त्र है तथा आप
अखिल यन्त्र रूपा हैं ऐसी आप की सेवा में अनेकश: हमारा प्रणाम निवेदित है ।
नमोनमो लोकगुरुप्रधाने
नमोनमस्तेऽखिलवाग्विभूत्यै ।
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै जगदेकतुष्ट्यै
नमोनमः शाम्भवि सर्वशक्त्यै ॥ ३.१३.२६॥
आप लोक गुरु की प्रधान हैं ऐसी अखिल
वाग् की विभूति के लिए हमारा बार-बार प्रणाम है । लक्ष्मी के लिए तथा जगत की एक
तुष्टि के लिए हमारा बारम्बार नमस्कार है। हे शाम्भवि ! सर्वशक्ति आपको प्रणाम है
।
अनादिमध्यान्तमपाञ्चभौतिकं
ह्यवाङ्मनोगम्यमतर्क्यवैभवम् ।
अरूपमद्वन्द्वमदृष्टगोचरं
प्रभावमग्र्यं कथमम्ब वर्णये ॥ ३.१३.२७॥
हे अम्ब ! आपका प्रभाव अत्युत्तम है
तथा अनादि मध्यान्त हैं-- अपाञ्च भौतिक है वाणी मन से अगम्य है और अप्रतकर्य वैभव
वाला है। वह रूप तथा द्वन्द्व से रहित है एवं दृष्टिगोचर नहीं है,
मैं किस प्रकार से इसका वर्णन करूं ।
प्रसीद विश्वेश्वरि विश्ववन्दिते
प्रसीद विद्येश्वरि वेदरूपिणि ।
प्रसीद मायामयि मन्त्राविग्रहे
प्रसीद सर्वेश्वरि सर्वरूपिणि ॥ ३.१३.२८॥
हे विश्वेश्वरि ! हे विश्व वन्दिते!
हे वेदों के स्वरूप वाली! आप प्रसन्न होइये। हे मायामयि! हे मन्त्रों के विग्रह
वाली! हे सर्वेश्वरि ! हे सर्वरूपिणि ! आप प्रसन्न होइए ।
इति स्तुत्वा महादेवीं देवाः सर्वे
सवासवाः ।
भूयो भूयो नमस्कृत्य शरणं
जग्मुरञ्जसा ॥ ३.१३.२९॥
इस प्रकार से बहुत से बहुत लम्बी
स्तुति करके इन्द्र के सहित समस्त देवगण महादेवी को बार-बार प्रणाम करके तुरन्त ही
जगदम्बा के शरण में चले गये थे ।
ततः प्रसन्ना सा देवी प्रणतं
वीक्ष्य वासवम् ।
वरेण च्छन्दयामास वरदाखिलदेहिनाम् ॥
३.१३.३०॥
फिर वह देवी परम प्रसन्न हो गयी थी
और उसने इन्द्र को अपने चरणों में प्रणत देखा था। फिर समस्त देहणारियों को वरदान
देने वाली देवी ने उसको वरदान देने के लिए कहा था ।
इन्द्र उवाच
यदि तुष्टासि कल्याणि वरं
दैत्येन्द्रपीडिताः ।
दुर्धरं जीवितं देहि त्वां गताः
शरणार्थिनः ॥ ३.१३.३१॥
इन्द्र ने कहा-हे कल्याणि ! यदि आप
मुझ पर सुप्रसन्न हैं तो मैं तो देत्येन्द्र से पीड़ित है। मुझे यही वरदान देवें कि
मेरा दुर्धर जीवित होवे। हम लोग आपकी शरण में समागत हैं।
श्रीदेव्युवाच
अहमेव विनिर्जित्य भण्डं
दैत्यकुलोद्भवम् ।
अचिरात्तव दास्यामि त्रैलोक्यं
सचराचरम् ॥ ३.१३.३२॥
श्री देवी ने कहा-मैं स्वयं ही
दैत्य कुल में समुत्पन्न भण्ड को विनिर्जित करके धरा से लेकर तीनों लोकों को
जिसमें सभी चर-अचर है तुझको दे दूंगी ।
निर्भया मुदिताः सन्तु सर्वे
देवगणास्तथा ।
ये स्तोष्यन्ति च मां भक्त्या
स्तवेनानेन मानवाः ॥ ३.१३.३३॥
भाजनं ते भविष्यन्ति धर्मश्रीयशसां
सदा ।
विद्याविनयसम्पन्ना नीरोगा
दीर्घजीविनः ॥ ३.१३.३४॥
फिर समस्त देवगण निर्भय और प्रसन्न
होंगे और जो मनुष्य सदा ही धर्म-श्री और यश के भाजन होंगे तथा वे नीरोग-विद्या तथा
विनय से सम्पन्न और दीर्घ जीवन होंगे।३३-३४।
पुत्रमित्रकलत्राढ्या भवन्तु
मदनुग्रहात् ।
इति लब्धवरा देवा देवेन्द्रोऽपि
महाबलः ॥ ३.१३.३५॥
आमोदं परमं जग्मुस्तां विलोक्य
मुहुर्मुहुः ॥ ३.१३.३६॥
वे मेरे अनुग्रह से पुत्र-मित्र और
कलत्र से सुसम्पन्न होंगे। इस रीति से देवगण और महान बलवान देवेन्द्र भी वर
प्राप्त करने वाले होगये थे और बारम्बार उस जगदम्बा का दर्शन करके परमाधिक आनन्द
को प्राप्त हो गये थे।३५-३६॥
इति श्रीब्रह्माण्डमहापुराणे
उत्तरभागे हयग्रीवागस्त्यसंवादे ललितोपाख्याने
ललितास्तवराजो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥
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