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गोपाल सहस्रनाम स्तोत्र
यह श्रीगोपाल सहस्रनाम स्तोत्र साधकों
का कल्याण करनेवाला, महारोगों का निवारण करनेवाला, पापसमूहों का तथा दरिद्रता का नाश
करनेवाला और अंत में गोलोकधाम प्राप्त करानेवाला है।
॥ॐ श्रीपरमात्मने नमः॥
श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्रम्
पार्वत्युवाच-
कैलासशिखरे रम्ये गौरी पृच्छति
शङ्करम् ।
ब्रह्माण्डाखिलनाथस्त्वं
सृष्टिसंहारकारकः ॥ १॥
पार्वती बोलीं-एक बार मनोरम कैलास पर्वत
के शिखर पर विराजमान भगवान् शंकरजी से भगवती गौरी पूछने लगीं कि आप समग्र
ब्रह्माण्ड के एकमात्र नाथ हैं और सृष्टि तथा संहार करनेवाले हैं ॥१॥
त्वमेव पूज्यसे
लोकैर्ब्रह्मविष्णुसुरादिभिः ।
नित्यं पठसि देवेश कस्य स्तोत्रं
महेश्वर ॥ २॥
हे महेश्वर! हे देवेश! जब सभी लोग
एवं ब्रह्मा, विष्णु आदि देवगण भी आपकी
आराधना करते हैं, तब आप नित्य किसका स्तवन किया करते हैं?
॥२॥
आश्चर्यमिदमाख्यानं जायते मयि शङ्कर
।
तत्प्राणेश महाप्राज्ञ संशयं छिन्धि
मे प्रभो ॥ ३॥
हे शंकर! मुझे इसमें महान् आश्चर्य
हो रहा है। अतः हे प्राणेश! हे महाप्राज्ञ! हे शिव! मेरे सन्देह का निवारण
कीजिये॥३॥
श्रीमहादेव उवाच-
धन्यासि कृतपुण्यासि पार्वति
प्राणवल्लभे ।
रहस्यातिरहस्यं च यत्पृच्छसि वरानने
॥ ४॥
स्त्रीस्वभावान्महादेवि पुनस्त्वं
परिपृच्छसि ।
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः
॥ ५॥
श्रीमहादेवजी बोले-हे पार्वति! हे
प्राणवल्लभे! तुम धन्य हो, कृतार्थ हो जो कि
हे वरानने! तुम इस परम रहस्यमय बात को पूछ रही हो। हे महादेवि! तुम स्त्रीस्वभाव से
ही बार-बार मुझसे इस रहस्य को पूछ रही हो; इस गूढ़ रहस्य को
प्रयत्नपूर्वक अति गोपनीय रखना चाहिये॥४-५॥
दत्ते च सिद्धिहानिः
स्यात्तस्माद्यत्नेन गोपयेत् ।
इदं रहस्यं परमं पुरुषार्थप्रदायकम्
॥ ६॥
यह परम रहस्य धर्म-अर्थ आदि
पुरुषार्थों को देनेवाला है। इसे किसी अनधिकारी व्यक्ति को देने से सिद्धि की हानि
होती है,
इसलिये प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिये॥६॥
धनरत्नौघमाणिक्यं तुरङ्गं च
गजादिकम् ।
ददाति स्मरणादेव महामोक्षप्रदायकम्
॥ ७॥
तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्वावहिता
प्रिये ।
योऽसौ निरञ्जनो देवः चित्स्वरूपी
जनार्दनः ॥ ८॥
संसारसागरोत्तारकारणाय नृणाम् सदा ।
श्रीरङ्गादिकरूपेण त्रैलोक्यं
व्याप्य तिष्ठति ॥ ९॥
यह रहस्य स्मरणमात्र से ही धन,
रत्नसमूह, माणिक्य, हाथी,
घोड़े आदि वस्तुओं को दे देता है और महान् मोक्ष प्रदान करनेवाला
है। हे प्रिये! उसी रहस्य को मैं तुम्हें बताऊँगा, एकाग्रचित्त
होकर सुनो। जो चिद्रूप निर्विकार भगवान् जनार्दन हैं, वे
मनुष्यों को संसार सागर से पार उतारने के लिये सदा श्रीरंगादि रूपों में तीनों
लोकों को व्याप्त करके स्थित रहते हैं॥७-९॥
ततो लोका महामूढा
विष्णुभक्तिविवर्जिताः ।
निश्चयं नाधिगच्छन्ति पुनर्नारायणो
हरिः ॥ १०॥
निरञ्जनो निराकारो भक्तानां
प्रीतिकामदः ।
वृन्दावनविहाराय गोपालं रूपमुद्वहन्
॥ ११॥
मुरलीवादनाधारी राधायै प्रीतिमावहन्
।
अंशांशेभ्यः समुन्मील्य
पूर्णरूपकलायुतः ॥ १२॥
तथापि भगवान् विष्णु को भक्ति से
रहित महामूर्ख लोग उन पर दृढ़ विश्वास नहीं करते। उन निर्विकार,
निराकार तथा भक्तों के प्रिय मनोरथ पूर्ण करनेवाले नारायण श्रीहरि ने
ही वृन्दावन में विहार करने के लिये गोपालरूप धारण किया, श्रीराधिकाजी
की प्रसन्नता के लिये वेणुवादन का आश्रय लिया और अपने अंशांशों से समन्वित होकर
षोडशकलात्मक पूर्णरूप धारण किया॥१०-१२ ।।
श्रीकृष्णचन्द्रो भगवान्
नन्दगोपवरोद्यतः ।
धरणीरूपिणीमातृयशोदानन्ददायकः ॥ १३॥
श्रीकृष्णचन्द्रजी साक्षात् भगवान्
थे। गोपों में श्रेष्ठ नन्दजी उनके पिता थे और आनन्द देनेवाली साक्षात्
पृथिवीस्वरूपा यशोदा उनकी माता थीं ॥१३॥
द्वाभ्यां प्रयाचितो नाथो देवक्यां
वसुदेवतः ।
ब्रह्मणाऽभ्यर्थितो देवो देवैरपि
सुरेश्वरि ॥ १४॥
हे सुरेश्वरि! [कृष्णावतार के
पूर्व] देवकी तथा वसुदेव-इन दोनों ने परात्पर प्रभु से प्रार्थना की थी। कि आपके
सदृश हमारे पुत्र हो। ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं ने भी [पृथिवी का भार उतारने के
लिये] भगवान्से प्रार्थना की थी कि वसुदेवजी के द्वारा देवकी के गर्भ से आप अवतार
ग्रहण करें॥१४॥
जातोऽवन्यां मुकुन्दोऽपि
मुरलोवेदरेचिका ।
तया सार्द्धं वचः कृत्वा ततो जातो
महीतले ॥ १५॥
तब वे मुकुन्द भी पूर्व में दिये
गये वचन का पालन करने के लिये पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। मुरली की ध्वनि का विस्तार
करनेवाली जो राधिका हैं, उन्हीं के साथ वे
नारायण पृथ्वी तल पर अवतीर्ण हुए॥ १५ ॥
संसारसारसर्वस्वं श्यामलं
महदुज्ज्वलम् ।
एतज्ज्योतिरहं वेद्यं चिन्तयामि
सनातनम् ॥ १६॥
[हे देवि!] संसार सार के सर्वस्व,
श्यामवर्ण, अत्यन्त उज्ज्वल कान्तिवाले,
जानने योग्य तथा शाश्वत उसी ज्योति का मैं चिन्तन करता हूँ॥१६॥
गौरतेजो विना यस्तु
श्यामतेजस्समर्चयेत् ।
जपेद्वा ध्यायते वापि स भवेत् पातकी
शिवे ॥ १७॥
स ब्रह्महा सुरापी च स्वर्णस्तेयी च
पञ्चमः ।
एतैर्दोषैर्विलिप्येत
तेजोभेदान्महीश्वरि ॥ १८॥
हे शिवे! जो मनुष्य गौरतेज
(श्रीराधिका)-को छोड़कर श्यामतेज (श्रीकृष्ण)-का पूजन,
जप अथवा ध्यान करता है अर्थात् युगल-उपासना की मर्यादा को भंग करता
है, वह पातकी होता है। वह ब्रह्महत्यारा, सुरापान करनेवाला, स्वर्ण की चोरी करनेवाला,
[गुरुतल्पगामी] तथा इन सबसे संसर्ग रखनेवाला पाँचवाँ महापातकी होता
है। हे महेश्वरि! इन दोनों में तेज-भेद करने से वह व्यक्ति इन दोषों का भागी होता
है॥१७-१८॥
तस्माज्ज्योतिरभूद् द्वेधा
राधामाधवरूपकम् ।
तस्मादिदं महादेवि गोपालेनैव
भाषितम् ॥ १९॥
अतः हे महादेवि! 'युगल-उपासना के लिये मेरी ही ज्योति राधा-माधव के रूप में दो प्रकार की हो
गयी'-ऐसा स्वयं श्रीगोपाल ने कहा है ॥ १९ ॥
दुर्वाससो मुनेर्मोहे कार्तिक्यां
रासमण्डले ।
ततः पृष्टवती राधा सन्देहभेदमात्मनः
॥ २०॥
कार्तिक पूर्णिमा को [वृन्दावनधाम में]
रासमण्डल का अवलोकन कर जब महर्षि दुर्वासाजी को मोह व्याप्त हो गया था,
उस समय श्रीराधिकाजी को अपने तथा श्रीकृष्ण में भेद होने का सन्देह
उत्पन्न हुआ और उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा था ॥ २० ॥
निरञ्जनात्समुत्पन्नं मयाऽधीतं
जगन्मयि ।
श्रीकृष्णेन ततः प्रोक्तं राधायै
नारदाय च ॥ २१॥
ततो नारदतस्सर्वे विरला वैष्णवा
जनाः ।
कलौ जानन्ति देवेशि गोपनीयं
प्रयत्नतः ॥ २२॥
[हे भगवन् !] मुझे ऐसा विदित है कि
निर्विकार ब्रह्म से उत्पन्न यह सम्पूर्ण जगत् मुझमें अधिष्ठित है। तब भगवान्
श्रीकृष्ण ने राधिकाजी तथा देवर्षि नारदजी को यह रहस्य बताया। तदनन्तर उन नारदजी से
अन्यान्य वैष्णवों ने इस रहस्य को जाना और कलियुग में अन्य लोग भी इसे जान गये। हे
देवेशि! इस रहस्य को प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। २१-२२।।
शठाय कृपणायाथ दाम्भिकाय सुरेश्वरि
।
ब्रह्महत्यामवाप्नोति तस्माद्यत्नेन
गोपयेत् ॥ २३॥
हे सुरेश्वरि! जो इस रहस्य को दुष्ट,
कृपण अथवा पाखण्डी व्यक्ति को बताता है; वह
ब्रह्महत्या के समान पाप का भागी होता है, अतएव
प्रयत्नपूर्वक इसे गोपनीय रखना चाहिये॥ २३ ॥
पाठ करने की विधि
श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्रम् पाठ का
विनियोग
अस्य श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य
श्रीनारद ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीगोपालो देवता, कामो बीजम्, माया शक्तिः, चन्द्रः कीलकम्, श्रीकृष्णचन्द्रभक्तिरूपफलप्राप्तये
श्रीगोपालसहस्त्रनामजपे विनियोगः॥
इस श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्रमन्त्र के
ऋषि नारदजी हैं, छन्द अनुष्टुप् है, श्रीगोपालजी इसके देवता हैं, काम इसका बीज, माया इसकी शक्ति है तथा चन्द्र इसका कीलक है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के
भक्तिरूपी फल की प्राप्ति के लिये श्रीगोपालसहस्रनाम के जप में इसका विनियोग है।
अथवा
ॐ ऐं क्लीं बीजम्,
श्रीं ह्रीं शक्तिः, श्रीवृन्दावननिवासः
कीलकम्, श्रीराधाप्रियं परं ब्रह्मेति मन्त्रः, धर्मादिचतुर्विधपुरुषार्थसिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ॐ ऐं क्लीं इसका बीज,
श्रीं ह्रीं शक्ति, श्रीवृन्दावननिवास कीलक और
श्रीराधाप्रिय परब्रह्म मन्त्र है। धर्मादि चतुर्विधपुरुषार्थसिद्धि के लिये जप में
इसका विनियोग है।
श्रीगोपाल सहस्र नाम स्तोत्रम्
करन्यास
ॐ क्लां अनष्ठाभ्यां नमः-
कहकर दोनों अंगूठों का स्पर्श करे।
ॐ क्लीं तर्जनीभ्यां नमः-कहकर
दोनों तर्जनियों का स्पर्श करे।
ॐ क्लं मध्यमाभ्यां नम:-कहकर
दोनों मध्यमाओं स्पर्श करे।
ॐ क्लैं अनामिकाभ्यां नमः-कहकर
दोनों अनामिकाओं का स्पर्श करे।
ॐ क्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः-कहकर
दोनों कनिष्ठिकाओं का स्पर्श करे।
ॐ क्ल: करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:-कहकर
दोनों करतलों का स्पर्श करे।
हृदयादिन्यास
ॐ क्लां हृदयाय नमः-कहकर
हृदय का स्पर्श करे।
ॐ क्लीं शिरसे स्वाहा-कहकर
सिर का स्पर्श करे।
ॐ क्लू शिखायै वषट्-कहकर
शिखा का स्पर्श करे।
ॐ क्लैं कवचाय हुम्-कहकर
भुजाओं का स्पर्श करे।
ॐ क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट्-कहकर
तीनों नेत्रों का स्पर्श करे।
ॐ क्ल: अस्त्राय फट्-कहकर
चारों दिशाओं में चुटकी बजाकर हथेली पर दो अंगुलियों से आघात करे।
श्रीगोपाल सहस्त्रनाम स्तोत्रम्
अथ ध्यानम्
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्षःस्थले
कौस्तुभं
नासाग्रेवरमौक्तिकं करतले वेणुं करे
कङ्कणम् ॥
सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे
च मुक्तावलिम्
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते
गोपालचूड़ामणिः ॥ १॥
जिनके मस्तक पर कस्तूरी का तिलक है,
वक्षःस्थल में कौस्तुभमणि है, नासिकाग्र में
अति सुन्दर मोती का आभूषण (बुलाक) है, करतल में वंशी है,
हाथों में कंकण हैं, सम्पूर्ण शरीर में
हरिचन्दन का लेप हुआ है और कण्ठ में मनोहर मोतियों की माला है, व्रजांगनाओं से घिरे हुए ऐसे गोपालचूडामणि की बलिहारी है॥१॥
फुल्लेन्दीवरकान्तिमिन्दुवदनं
बर्हावतंसप्रियं
श्रीवत्साङ्कमुदारकौस्तुभधरं
पीताम्बरं सुन्दरम् ॥
गोपीनां नयनोत्पलार्चिततनुं
गोगोपसङ्घावृतं
गोविन्दं कलवेणुवादनपरं
दिव्याङ्गभूषं भजे ॥ २॥
प्रफुल्ल नीलकमल के समान जिनकी
श्याम मनोहर कान्ति है, मुखमण्डल की चारुता
चन्द्रबिम्ब को भी विलज्जित करती है, मोरपंख का मुकुट
जिन्हें अधिक प्रिय है, जिनका वक्ष स्वर्णमयी श्रीवत्सरेखा से
समलंकृत है, जो अत्यन्त तेजस्विनी कौस्तुभमणि धारण करते हैं
और रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं, गोपसुन्दरियों के
नयनारविन्द जिनके श्रीअंगों की सतत अर्चना करते हैं, गौओं
तथा गोपकिशोरों के संघ जिन्हें घेरकर खड़े हैं तथा जो दिव्य अंगभूषा से विभूषित हो
मधुरातिमधुर वेणुवादन में संलग्न हैं, उन परम सुन्दर गोविन्द
का मैं भजन करता हूँ ॥ २॥
गोपाल सहस्र नाम स्तोत्रम्
॥ अथ श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्रम्
॥
ॐ क्लीं देवः कामदेवः
कामबीजशिरोमणिः ।
श्रीगोपालो महीपालो सर्ववेदाङ्गपारगः
॥ १॥
धरणीपालकोधन्यः पुण्डरीकः सनातनः
।
गोपतिर्भूपतिः शास्ता प्रहर्ता
विश्वतोमुखः ॥ २॥
आदिकर्ता महाकर्ता महाकालः
प्रतापवान् ।
जगज्जीवो जगद्धाता जगद्भर्ता
जगद्वसुः ॥ ३॥
मत्स्यो भीमः कुहूभर्ता हर्ता
वाराहमूर्तिमान् ।
नारायणो हृषीकेशो गोविन्दो
गरुडध्वजः ॥ ४॥
गोकुलेन्द्रो महीचन्द्रः
शर्वरीप्रियकारकः ।
कमलामुखलोलाक्षः पुण्डरीकः शुभावहः
॥ ५॥
दुर्वासाः कपिलो भौमः
सिन्धुसागरसङ्गमः ।
गोविन्दो गोपतिर्गोपः
कालिन्दीप्रेमपूरकः ॥ ६॥
गोपस्वामी गोकुलेन्द्रो
गोवर्धनवरप्रदः ।
नन्दादिगोकुलत्राता दाता
दारिद्र्यभञ्जनः ॥ ७॥
सर्वमङ्गलदाता च सर्वकामप्रदायकः ।
आदिकर्ता महीभर्ता सर्वसागरसिन्धुजः
॥ ८॥
गजगामी गजोद्धारी कामी कामकलानिधिः
।
कलङ्करहितश्चन्द्रो बिम्बास्यो
बिम्बसत्तमः ॥ ९॥
मालाकारः कृपाकारः कोकिलस्वरभूषणः ।
रामो नीलाम्बरो देवो हली
दुर्दममर्दनः ॥ १०॥
सहस्राक्षपुरीभेत्ता महामारीविनाशनः
।
शिवः शिवतमो भेत्ता बलारातिप्रपूजकः
॥ ११॥
कुमारीवरदायी च वरेण्यो मीनकेतनः ।
नरो नारायणो धीरो राधापतिरुदारधीः ॥
१२॥
श्रीपतिः श्रीनिधिः श्रीमान् मापतिः
प्रतिराजहा ।
वृन्दापतिः कुलग्रामी धामी ब्रह्म
सनातनः ॥ १३॥
रेवतीरमणो रामः प्रियश्चञ्चललोचनः ।
रामायणशरीरोऽयं रामो रामः
श्रियःपतिः ॥ १४॥
शर्वरः शर्वरी शर्वः सर्वत्र
शुभदायकः ।
राधाराधयिताराधी राधाचित्तप्रमोदकः
॥ १५॥
राधारतिसुखोपेतः राधामोहनतत्परः ।
राधावशीकरो राधाहृदयाम्भोजषट्पदः ॥
१६॥
राधालिङ्गनसम्मोहः राधानर्तनकौतुकः
।
राधासञ्जातसम्प्रीतो
राधाकाम्यफलप्रदः ॥ १७॥
वृन्दापतिः कोशनिधिः कोकशोकविनाशनः
।
चन्द्रापतिः चन्द्रपतिः
चण्डकोदण्डभञ्जनः ॥ १८॥
रामो दाशरथी रामः भृगुवंशसमुद्भवः ।
आत्मारामो जितक्रोधो मोहो मोहान्धभञ्जनः
॥ १९॥
वृषभानुभवो भावः काश्यपिः
करुणानिधिः ।
कोलाहलो हली हाली हेली हलधरप्रियः ॥
२०॥
राधामुखाब्जमार्ताण्डः भास्करो
रविजा विधुः ।
विधिर्विधाता वरुणो वारुणो
वारुणीप्रियः ॥ २१॥
रोहिणीहृदयानन्दो वसुदेवात्मजो बली
।
नीलाम्बरो रौहिणेयो जरासन्धवधोऽमलः ॥
२२॥
नागो नवाम्भो विरुदो वीरहा वरदो बली
।
गोपथो विजयी विद्वान् शिपिविष्टः
सनातनः ॥ २३॥
परशुरामवचोग्राही वरग्राही श्रृगालहा
।
दमघोषोपदेष्टा च रथग्राही सुदर्शनः
॥ २४॥
वीरपत्नीयशस्त्राता
जराव्याधिविघातकः ।
द्वारकावासतत्त्वज्ञः हुताशनवरप्रदः
॥ २५॥
यमुनावेगसंहारी नीलाम्बरधरः प्रभुः
।
विभुः शरासनो धन्वी गणेशो गणनायकः ॥
२६॥
लक्ष्मणो लक्षणो लक्ष्यो
रक्षोवंशविनाशनः ।
वामनो वामनीभूतोऽवामनो वामनारुहः ॥
२७॥
यशोदानन्दनः कर्त्ता
यमलार्जुनमुक्तिदः ।
उलूखली महामानी दामबद्धाह्वयी शमी ॥
२८॥
भक्तानुकारी भगवान् केशवो बलधारकः ।
केशिहा मधुहा मोही वृषासुरविघातकः ॥
२९॥
अघासुरविनाशी च पूतनामोक्षदायकः ।
कुब्जाविनोदी भगवान्
कंसमृत्युर्महामखी ॥ ३०।
अश्वमेधो वाजपेयो गोमेधो नरमेधवान्
।
कन्दर्पकोटिलावण्यश्चन्द्रकोटिसुशीतलः
॥ ३१॥
रविकोटिप्रतीकाशो वायुकोटिमहाबलः ।
ब्रह्मा ब्रह्माण्डकर्ता च
कमलावाञ्छितप्रदः ॥ ३२॥
कमला कमलाक्षश्च कमलामुखलोलुपः ।
कमलाव्रतधारी च कमलाभः पुरन्दरः ॥
३३॥
सौभाग्याधिकचित्तोऽयं महामायी
मदोत्कटः ।
तारकारिः सुरत्राता मारीचक्षोभकारकः
॥ ३४॥
विश्वामित्रप्रियो दान्तो रामो
राजीवलोचनः ।
लङ्काधिपकुलध्वंसी विभीषणवरप्रदः ॥
३५॥
सीतानन्दकरो रामो वीरो वारिधिबन्धनः
।
खरदूषणसंहारी साकेतपुरवासवान् ॥ ३६॥
चन्द्रावलीपतिः कूलः केशिकंसवधोऽमलः
।
माधवो मधुहा माध्वी माध्वीको माधवो
विधुः ॥ ३७॥
मुञ्जाटवीगाहमानः
धेनुकारिर्धरात्मजः ।
वंशीवटविहारी च गोवर्धनवनाश्रयः ॥
३८॥
तथा तालवनोद्देशी भाण्डीरवनशङ्खहा ।
तृणावर्तकृपाकारी वृषभानुसुतापतिः ॥
३९॥
राधाप्राणसमो राधावदनाब्जमधुव्रतः ।
गोपीरञ्जनदैवज्ञः लीलाकमलपूजितः ॥
४०॥
क्रीडाकमलसन्दोहः
गोपिकाप्रीतिरञ्जनः ।
रञ्जको रञ्जनो रङ्गो रङ्गी
रङ्गमहीरुहः ॥ ४१॥
कामः कामारिभक्तोऽयं पुराणपुरुषः
कविः ।
नारदो देवलो भीमो बालो
बालमुखाम्बुजः ॥ ४२॥
अम्बुजो ब्रह्मसाक्षी च योगी
दत्तवरो मुनिः ।
ऋषभः पर्वतो ग्रामो नदीपवनवल्लभः ॥
४३॥
पद्मनाभः सुरज्येष्ठी ब्रह्मा
रुद्रोऽहिभूषितः ।
गणानां त्राणकर्ता च गणेशो ग्रहिलो
ग्रही ॥ ४४॥
गणाश्रयो गणाध्यक्षः
क्रोडीकृतजगत्त्रयः ।
यादवेन्द्रो द्वारकेन्द्रो
मथुरावल्लभो धुरी ॥ ४५॥
भ्रमरः कुन्तली कुन्तीसुतरक्षो
महामखी ।
यमुनावरदाता च काश्यपस्य वरप्रदः ॥
४६॥
शङ्खचूडवधोद्दामो गोपीरक्षणतत्परः ।
पाञ्चजन्यकरो रामी त्रिरामी वनजो
जयः ॥ ४७॥
फाल्गुनः फाल्गुनसखो विराधवधकारकः ।
रुक्मिणीप्राणनाथश्च सत्यभामाप्रियङ्करः
॥ ४८॥
कल्पवृक्षो महावृक्षः दानवृक्षो
महाफलः ।
अङ्कुशो भूसुरो भावो भ्रामको भामको
हरिः ॥ ४९॥
सरलः शाश्वतो वीरो यदुवंशी
शिवात्मकः ।
प्रद्युम्नो बलकर्ता च प्रहर्ता
दैत्यहा प्रभुः ॥ ५०॥
महाधनी महावीरो वनमालाविभूषणः ।
तुलसीदामशोभाढ्यो जालन्धरविनाशनः ॥
५१॥
शूरः सूर्यो मृतण्डश्च भास्करो
विश्वपूजितः ।
रविस्तमोहा वह्निश्च बाडवो वडवानलः
॥ ५२॥
दैत्यदर्पविनाशी च गरुडो गरुडाग्रजः
।
गोपीनाथो महानाथो
वृन्दानाथोऽविरोधकः ॥ ५३॥
प्रपञ्ची पञ्चरूपश्च लतागुल्मश्च
गोपतिः ।
गङ्गा च यमुनारूपो गोदा वेत्रवती
तथा ॥ ५४॥
कावेरी नर्मदा ताप्ती गण्डकी
सरयूस्तथा ।
राजसस्तामसस्सत्त्वी सर्वाङ्गी
सर्वलोचनः ॥ ५५॥
सुधामयोऽमृतमयो योगिनीवल्लभः शिवः ।
बुद्धो बुद्धिमतां श्रेष्ठो
विष्णुर्जिष्णुः शचीपतिः ॥ ५६॥
वंशी वंशधरो लोकः विलोको मोहनाशनः ।
रवरावो रवो रावो बलो बालबलाहकः ॥
५७॥
शिवो रुद्रो नलो नीलो लाङ्गली
लाङ्गलाश्रयः ।
पारदः पावनो हंसो हंसारूढो जगत्पतिः
॥ ५८॥
मोहिनीमोहनो मायी महामायो महामखी ।
वृषो वृषाकपिः कालः कालीदमनकारकः ॥
५९॥
कुब्जाभाग्यप्रदो वीरः रजकक्षयकारकः
।
कोमलो वारुणो राजा जलजो जलधारकः ॥
६०॥
हारकः सर्वपापघ्नः परमेष्ठी पितामहः
।
खड्गधारी कृपाकारी राधारमणसुन्दरः ॥
६१॥
द्वादशारण्यसम्भोगी शेषनागफणालयः ।
कामः श्यामः सुखश्रीदः श्रीपतिः
श्रीनिधिः कृती ॥ ६२॥
हरिर्नारायणो नारो नरोत्तम
इषुप्रियः ।
गोपालीचित्तहर्ता च कर्त्ता
संसारतारकः ॥ ६३॥
आदिदेवो महादेवो गौरीगुरुरनाश्रयः ।
साधुर्मधुर्विधुर्धाता
त्राताऽक्रूरपरायणः ॥ ६४॥
रोलम्बी च हयग्रीवो
वानरारिर्वनाश्रयः ।
वनं वनी वनाध्यक्षः महावन्द्यो
महामुनिः ॥ ६५॥
स्यामन्तकमणिप्राज्ञो विज्ञो
विघ्नविघातकः ।
गोवर्द्धनो वर्द्धनीयः वर्द्धनो
वर्द्धनप्रियः ॥ ६६॥
वर्द्धन्यो वर्द्धनो वर्द्धी वार्द्धिष्णुः
सुमुखप्रियः ।
वर्द्धितो वृद्धको वृद्धो
वृन्दारकजनप्रियः ॥ ६७॥
गोपालरमणीभर्ता साम्बकुष्ठविनाशकः ।
रुक्मिणीहरणः प्रेमप्रेमी
चन्द्रावलीपतिः ॥ ६८॥
श्रीकर्ता विश्वभर्ता च नरो नारायणो
बली ।
गणो गणपतिश्चैव दत्तात्रेयो
महामुनिः ॥ ६९॥
व्यासो नारायणो दिव्यो भव्यो
भावुकधारकः ।
श्वःश्रेयसं शिवं भद्रं भावुकं
भाविकं शुभम् ॥ ७०॥
शुभात्मकः शुभः शास्ता प्रशास्ता
मेघानादहा ।
ब्रह्मण्यदेवो
दीनानामुद्धारकरणक्षमः ॥ ७१॥
कृष्णः कमलपत्राक्षः कृष्णः
कमललोचनः ।
कृष्णः कामी सदा कृष्णः
समस्तप्रियकारकः ॥ ७२॥
नन्दो नन्दी महानन्दी मादी मादनकः
किली ।
मिली हिली गिली गोली गोलो गोलालयो
गुली ॥ ७३॥
गुग्गुली मारकी शाखी वटः पिप्पलकः
कृती ।
म्लेच्छहा कालहर्त्ता च यशोदायश एव
च ॥ ७४॥
अच्युतः केशवो विष्णुः हरिः सत्यो
जनार्दनः ।
हंसो नारायणो लीलो नीलो भक्तिपरायणः
॥ ७५॥
जानकीवल्लभो रामः विरामो विघ्ननाशनः
।
सहभानुर्महाभानुः वीरबाहुर्महोदधिः
॥ ७६॥
समुद्रोऽब्धिरकूपारः पारावारः
सरित्पतिः ।
गोकुलानन्दकारी च प्रतिज्ञापरिपालकः
॥ ७७॥
सदारामः कृपारामः महारामो धनुर्धरः
।
पर्वतः पर्वताकारो गयो गेयो
द्विजप्रियः ॥ ७८॥
कम्बलाश्वतरो रामो रामायणप्रवर्तकः
।
द्यौर्दिवो दिवसो दिव्यो भव्यो भावि
भयापहः ॥ ७९॥
पार्वतीभाग्यसहितो भर्ता
लक्ष्मीविलासवान् ।
विलासी साहसी सर्वी गर्वी
गर्वितलोचनः ॥ ८०॥
मुरारिर्लोकधर्मज्ञः जीवनो
जीवनान्तकः ।
यमो यमादियमनो यामी यामविधायकः ॥
८१॥
वसुली पांसुली पांसुः
पाण्डुरर्जुनवल्लभः ।
ललिता चन्द्रिकामाली माली
मालाम्बुजाश्रयः ॥ ८२॥
अम्बुजाक्षो महायज्ञः दक्षः
चिन्तामणिः प्रभुः ।
मणिर्दिनमणिश्चैव केदारो बदरीश्रयः
॥ ८३॥
बदरीवनसम्प्रीतः व्यासः सत्यवतीसुतः
।
अमरारिनिहन्ता च सुधासिन्धुविधूदयः
॥ ८४॥
चन्द्रो रविः शिवः शूली चक्री चैव
गदाधरः ।
श्रीकर्ता श्रीपतिः श्रीदः श्रीदेवो
देवकीसुतः ॥ ८५॥
श्रीपतिः पुण्डरीकाक्षः पद्मनाभो
जगत्पतिः ।
वासुदेवोऽप्रमेयात्मा केशवो
गरुडध्वजः ॥ ८६॥
नारायणः परं धाम देवदेवो महेश्वरः ।
चक्रपाणिः कलापूर्णो वेदवेद्यो
दयानिधिः ॥ ८७॥
भगवान् सर्वभूतेशो गोपालः सर्वपालकः
।
अनन्तो निर्गुणो नित्यो निर्विकल्पो
निरञ्जनः ॥ ८८॥
निराधारो निराकारः निराभासो
निराश्रयः ।
पुरुषः प्रणवातीतो मुकुन्दः
परमेश्वरः ॥ ८९॥
क्षणावनिः सार्वभौमो वैकुण्ठो
भक्तवत्सलः ।
विष्णुर्दामोदरः कृष्णो माधवो
मथुरापतिः ॥ ९०॥
देवकीगर्भसम्भूतो यशोदावत्सलो हरिः
।
शिवः सङ्कर्षणः शम्भुर्भूतनाथो
दिवस्पतिः ॥ ९१॥
अव्ययः सर्वधर्मज्ञः निर्मलो
निरुपद्रवः ।
निर्वाणनायको नित्यो
नीलजीमूतसन्निभः ॥ ९२॥
कलाक्षयश्च सर्वज्ञः कमलारूपतत्परः
।
हृषीकेशः पीतवासा वसुदेवप्रियात्मजः
॥ ९३॥
नन्दगोपकुमारार्यः नवनीताशनो विभुः
।
पुराणपुरुषः श्रेष्ठः शङ्खपाणिः
सुविक्रमः ॥ ९४॥
अनिरुद्धश्चक्ररथः
शार्ङ्गपाणिश्चतुर्भुजः ।
गदाधरः सुरार्तिघ्नो गोविन्दो
नन्दकायुधः ॥ ९५॥
वृन्दावनचरः शौरिर्वेणुवाद्यविशारदः
।
तृणावर्तान्तको भीमसाहसी बहुविक्रमः
॥ ९६॥
शकटासुरसंहारी बकासुरविनाशनः ।
धेनुकासुरसंहारी पूतनारिर्नृकेसरी ॥
९७॥
पितामहो गुरुस्साक्षात्
प्रत्यगात्मा सदाशिवः ।
अप्रमेयः प्रभुः
प्राज्ञोऽप्रतर्क्यः स्वप्नवर्द्धनः ॥ ९८॥
धन्यो मान्यो भवो भावो धीरः शान्तो
जगद्गुरुः ।
अन्तर्यामीश्वरो दिव्यो दैवज्ञो
देवसंस्तुतः ॥ ९९॥
क्षीराब्धिशयनो धाता
लक्ष्मीवांल्लक्ष्मणाग्रजः ।
धात्रीपतिरमेयात्मा
चन्द्रशेखरपूजितः ॥ १००॥
लोकसाक्षी जगच्चक्षुः
पुण्यचारित्रकीर्तनः ।
कोटिमन्मथसौन्दर्यः जगन्मोहनविग्रहः
॥ १०१॥
मन्दस्मिताननो गोपो
गोपिकापरिवेष्टितः ।
फुल्लारविन्दनयनः
चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥ १०२॥
इन्दीवरदलश्यामो बर्हिबर्हावतंसकः ।
मुरलीनिनदाह्लादः
दिव्यमाल्याम्बरावृतः ॥ १०३॥
सुकपोलयुगः सुभ्रूयुगलः सुललाटकः ।
कम्बुग्रीवो विशालाक्षो
लक्ष्मीवाञ्छुभलक्षणः ॥ १०४॥
पीनवक्षाश्चतुर्बाहुश्चतुर्मूर्तिस्त्रिविक्रमः
।
कलङ्करहितः शुद्धः
दुष्टशत्रुनिबर्हणः ॥ १०५॥
किरीटकुण्डलधरः कटकाङ्गदमण्डितः ।
मुद्रिकाभरणोपेतः कटिसूत्रविराजितः
॥ १०६॥
मञ्जीररञ्जितपदः सर्वाभरणभूषितः ।
विन्यस्तपादयुगलो दिव्यमङ्गलविग्रहः
॥ १०७॥
गोपिकानयनानन्दः पूर्णचन्द्रनिभाननः
।
समस्तजगदानन्दः सुन्दरो लोकनन्दनः ॥
१०८॥
यमुनातीरसञ्चारी राधामन्मथवैभवः ।
गोपनारीप्रियो दान्तो गोपीवस्त्रापहारकः
॥ १०९॥
श्रृङ्गारमूर्तिः श्रीधामा तारको
मूलकारणम् ।
सृष्टिसंरक्षणोपायः
क्रूरासुरविभञ्जनः ॥ ११०॥
नरकासुरसंहारी मुरारिररिमर्दनः ।
आदितेयप्रियो दैत्यभीकरो यदुशेखरः ॥
१११॥
जरासन्धकुलध्वंसी कंसारातिः
सुविक्रमः ।
पुण्यश्लोकः कीर्तनीयः यादवेन्द्रो
जगन्नुतः ॥ ११२॥
रुक्मिणीरमणः
सत्यभामाजाम्बवतीप्रियः ।
मित्रविन्दानाग्नजितीलक्ष्मणासमुपासितः
॥ ११३॥
सुधाकरकुले जातोऽनन्तप्रबलविक्रमः ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्नो द्वारकापत्तने
स्थितः ॥ ११४॥
भद्रासूर्यसुतानाथो
लीलामानुषविग्रहः ।
सहस्रषोडशस्त्रीशो भोगमोक्षैकदायकः
॥ ११५॥
वेदान्तवेद्यः संवेद्यो वैद्यो
ब्रह्माण्डनायकः ।
गोवर्द्धनधरो नाथः सर्वजीवदयापरः ॥
११६॥
मूर्तिमान् सर्वभूतात्मा
आर्तत्राणपरायणः ।
सर्वज्ञः सर्वसुलभः
सर्वशास्त्रविशारदः ॥ ११७॥
षड्गुणैश्वर्यसम्पन्नः पूर्णकामो
धुरन्धरः ।
महानुभावः कैवल्यदायको लोकनायकः ॥
११८॥
आदिमध्यान्तरहितः
शुद्धसात्त्विकविग्रहः ।
असमानः समस्तात्मा शरणागतवत्सलः ॥
११९॥
उत्पत्तिस्थितिसंहारकारणं
सर्वकारणम् ।
गम्भीरः सर्वभावज्ञः
सच्चिदानन्दविग्रहः ॥ १२०॥
विष्वक्सेनः सत्यसन्धः सत्यवाक्
सत्यविक्रमः ।
सत्यव्रतः सत्यरतः सर्वधर्मपरायणः ॥
१२१॥
आपन्नार्तिप्रशमनः द्रौपदीमानरक्षकः
।
कन्दर्पजनकः प्राज्ञो जगन्नाटकवैभवः
॥ १२२॥
भक्तिवश्यो गुणातीतः
सर्वैश्वर्यप्रदायकः ।
दमघोषसुतद्वेषी बाणबाहुविखण्डनः ॥
१२३॥
भीष्मभक्तिप्रदो दिव्यः
कौरवान्वयनाशनः ।
कौन्तेयप्रियबन्धुश्च
पार्थस्यन्दनसारथिः ॥ १२४॥
नारसिंहो महावीरः स्तम्भजातो महाबलः
।
प्रह्लादवरदः सत्यो
देवपूज्योऽभयङ्करः ॥ १२५॥
उपेन्द्र इन्द्रावरजो वामनो
बलिबन्धनः ।
गजेन्द्रवरदः स्वामी
सर्वदेवनमस्कृतः ॥ १२६॥
शेषपर्यङ्कशयनः वैनतेयरथो जयी ।
अव्याहतबलैश्वर्यसम्पन्नः
पूर्णमानसः ॥ १२७॥
योगेश्वरेश्वरः साक्षी क्षेत्रज्ञो
ज्ञानदायकः ।
योगिहृत्पङ्कजावासो योगमायासमन्वितः
॥ १२८॥
नादबिन्दुकलातीतश्चतुर्वर्गफलप्रदः
।
सुषुम्नामार्गसञ्चारी
देहस्यान्तरसंस्थितः ॥ १२९॥
देहेन्द्रियमनःप्राणसाक्षी
चेतःप्रसादकः ।
सूक्ष्मः सर्वगतो देही
ज्ञानदर्पणगोचरः ॥ १३०॥
तत्त्वत्रयात्मकोऽव्यक्तः कुण्डली
समुपाश्रितः ।
ब्रह्मण्यः सर्वधर्मज्ञः शान्तो
दान्तो गतक्लमः ॥ १३१॥
श्रीनिवासः सदानन्दः
विश्वमूर्तिर्महाप्रभुः ।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः
सहस्रपात् ॥ १३२॥
समस्तभुवनाधारः समस्तप्राणरक्षकः ।
समस्तसर्वभावज्ञो गोपिकाप्राणवल्लभः
॥ १३३॥
नित्योत्सवो नित्यसौख्यो
नित्यश्रीर्नित्यमङ्गलः ।
व्यूहार्चितो जगन्नाथः
श्रीवैकुण्ठपुराधिपः ॥ १३४॥
पूर्णानन्दघनीभूतः गोपवेषधरो हरिः ।
कलापकुसुमश्यामः कोमलः शान्तविग्रहः
॥ १३५॥
गोपाङ्गनावृतोऽनन्तो
वृन्दावनसमाश्रयः ।
वेणुवादरतः श्रेष्ठो देवानां
हितकारकः ॥ १३६॥
बालक्रीडासमासक्तो नवनीतस्य तस्करः
।
गोपालकामिनीजारश्चौरजारशिखामणिः ॥
१३७॥
परञ्ज्योतिः पराकाशः परावासः
परिस्फुटः ।
अष्टादशाक्षरो मन्त्रो व्यापको
लोकपावनः ॥ १३८॥
सप्तकोटिमहामन्त्रशेखरो देवशेखरः ।
विज्ञानज्ञानसन्धानस्तेजोराशिर्जगत्पतिः
॥ १३९॥
भक्तलोकप्रसन्नात्मा
भक्तमन्दारविग्रहः ।
भक्तदारिद्र्यदमनो भक्तानां
प्रीतिदायकः ॥ १४०॥
भक्ताधीनमनाः पूज्यः
भक्तलोकशिवङ्करः ।
भक्ताभीष्टप्रदः
सर्वभक्ताघौघनिकृन्तनः ॥ १४१॥
अपारकरुणासिन्धुर्भगवान् भक्ततत्परः
॥ १४२॥
॥ इति गोपाल सहस्रनामस्तोत्रम्
सम्पूर्णम् ॥
श्रीगोपाल सहस्रनाम स्तोत्र
श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्रम् माहात्म्यम्
इति श्रीराधिकानाथसहस्र नामकीर्तनम्
।
स्मरणात्पापराशीनां खण्डनं
मृत्युनाशनम् ॥१॥
वैष्णवानां प्रियकर महारोगनिवारणम् ।
ब्रह्महत्या सुरापानं परस्त्रीगमनं
तथा ॥२॥
परद्रव्यापहरणं परद्वेषसमन्वितम् ।
मानसं वाचिकं कायं यत्पापं
पापसम्भवम् ॥३॥
सहस्त्रनामपठनात्सर्वं नश्यति
तत्क्षणात् ।
इस प्रकार यह
श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्र है, जिसके स्मरण
करने मात्र से पापसमूहों का तथा मृत्यु का नाश हो जाता है। यह
श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्र विष्णुभक्तों का कल्याण करनेवाला तथा महारोगों का निवारण
करनेवाला है। ब्रह्महत्या, सुरापान, परस्त्रीगमन,
दूसरे के द्रव्य का हरण, दूसरों से द्वेष,
मन-वाणी शरीर से कृत पाप तथा जिस किसी भी प्रकार से जो पाप होता है,
वह सब इस सहस्रनाम के पढ़ने से उसी क्षण नष्ट हो जाता है॥१-४ अ॥
महादारिद्र्ययुक्तो यो वैष्णवो
विष्णुभक्तिमान् ॥४॥
कार्तिक्यां सम्पठेद्रात्रौ
शतमष्टोत्तरं क्रमात् ।
पीताम्बरधरो
धीमान्सुगन्धिपुष्पचन्दनैः॥५॥
पुस्तकं पूजयित्वा तु
नैवेद्यादिभिरेव च ।
राधाध्यानाङ्कितो धीरो
वनमालाविभूषितः॥६॥
शतमष्टोत्तरं देवि
पठेन्नामसहस्त्रकम् ।
जो वैष्णव महान् दरिद्रता से युक्त
है,
उसे विष्णुभक्ति से सम्पन्न होकर कार्तिक महीने में रात्रिकाल में
इसका क्रम से एक सौ आठ बार पाठ करना चाहिये। हे देवि! बुद्धिमान्को चाहिये कि
पीताम्बर धारण करके तथा वनमाला से विभूषित होकर गन्ध, पुष्प,
चन्दन तथा नैवेद्य आदि से गोपालसहस्रनामस्तोत्र पुस्तक की पूजा करके
राधा के ध्यान में लीन होकर धैर्यपूर्वक इस सहस्रनाम का एक सौ आठ बार पाठ करे॥४-७
अ ॥
तुलसीमालया युक्तो वैष्णवो
भक्तितत्परः॥७॥
रविवारे च शुक्रे च द्वादश्यां
श्राद्धवासरे ।
ब्राह्मणं पजयित्वा च भोजयित्वा
विधानतः॥८॥
यः पठेद्वैष्णवो नित्यं स याति हरिमन्दिरम्
।
जो वैष्णव तुलसीमाला धारण करके
भक्तिपूर्वक रविवार, शुक्रवार, द्वादशीतिथि को अथवा श्राद्ध के दिन विधान के साथ ब्राह्मण का पूजन करके
उन्हें भोजन कराकर इस गोपालसहस्रनाम का नित्य पाठ करता है, वह
विष्णुलोक को प्राप्त होता है । ७-९ अ ॥
कृष्णेनोक्तं राधिकायै मयि प्रोक्तं
पुरा शिवे ॥९॥
नारदाय मया प्रोक्तं नारदेन
प्रकाशितम् ।
मया त्वयि वरारोहे
प्रोक्तमेतत्सुदुर्लभम् ॥१०॥
हे शिवे! इसे पहले श्रीकृष्ण ने
राधिका से कहा था, उसी को मैंने तुमसे
कह दिया। इस रहस्य को मैंने नारदजी से कहा और नारदजी ने इसका [सम्पूर्ण संसार में]
प्रचार किया। हे वरारोहे! इस अत्यन्त दुर्लभ रहस्य को मैंने तुमसे कहा है ।। ९-१०
॥
गोपनीयं प्रयत्नेन न प्रकाश्यं
कथञ्चन ।
शठाय पापिने चैव लम्पटाय विशेषतः
॥११॥
न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं
कदाचन ।
देयं शिष्याय शान्ताय
विष्णुभक्तिरताय च ॥१२॥
इस रहस्य को प्रयत्नपूर्वक गुप्त
रखना चाहिये और किसी प्रकार भी प्रकट नहीं करना चाहिये। इसे किसी मूर्ख,
पापी और विशेषरूप से लम्पट व्यक्ति को कभी भी नहीं प्रदान करना
चाहिये, अपितु शान्तस्वभाव तथा विष्णु की भक्ति से युक्त
शिष्य को ही इसका उपदेश करना चाहिये ॥ ११-१२ ॥
गोदानब्रह्मयज्ञादेर्वाजपेयशतस्य च ।
अश्वमेधसहस्त्रस्य फलं पाठे भवेद्
ध्रुवम् ॥१३॥
इस सहस्रनामस्तोत्र के पाठ करने से
गोदान,
ब्रह्मयज्ञ आदि, सैकड़ों वाजपेय एवं हजारों
अश्वमेधयज्ञों के करने का फल निश्चित रूप से प्राप्त होता है ॥ १३ ॥
एकादश्यां नरः स्नात्वा
सुगन्धिद्रव्यतैलकैः।
आहारं ब्राह्मणे दत्त्वा दक्षिणां
स्वर्णभूषणम् ॥१४॥
तत आरम्भकर्ताऽस्मात् सर्वं
प्राप्नोति मानवः।
शतावृत्तं सहस्त्रं च यः
पठेद्वैष्णवो जनः॥१५॥
श्रीवृन्दावनचन्द्रस्य
प्रसादात्सर्वमाप्नुयात् ।
सुगन्धित द्रव्यों का तैल लगाकर जो
व्यक्ति एकादशी के दिन स्नान करके ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा तथा सुवर्ण का
आभूषण प्रदान करने के अनन्तर गोपालसहस्रनामस्तोत्र पाठ का प्रारम्भ करता है,
वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। जो वैष्णव व्यक्ति इसकी एक सौ अथवा
एक हजार आवृत्ति करता है, वह श्रीवृन्दावनचन्द्र भगवान्
श्रीकृष्ण की कृपा से सब कुछ प्राप्त कर लेता है ॥ १४-१६ अ ॥
यद्गृहे पुस्तकं देवि पूजितं चैव
तिष्ठति ॥१६॥
न मारी न च दुर्भिक्षं नोपसर्गभयं
क्वचित् ।
सर्यादिभतयक्षाद्या नश्यन्ति नात्र
संशयः॥१७॥
श्रीगोपालो महादेवि वसेत्तस्य गृहे
सदा ।
गृहे यत्र सहस्रं च नाम्नां तिष्ठति
पूजितम् ॥१८॥
हे देवि! जिस घर में इस
सहस्रनामस्तोत्र पुस्तक की नित्य पूजा होती है; वहाँ
महामारी, दुर्भिक्ष तथा किसी प्रकार के उपद्रव का भय नहीं
रहता और सर्प, भूत, यक्ष आदि नष्ट हो
जाते हैं; इसमें संशय नहीं है। हे महादेवि! जिसके घर में इस
सहस्त्रनाम पुस्तक की नित्य पूजा होती रहती है, उसके घर में
गोपाल श्रीकृष्ण सदा निवास करते हैं । १६-१८॥
॥ इति श्रीसम्मोहनतन्त्र
पार्वतीश्वरसंवादे श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्रस्य माहात्म्यं सम्पूर्णम्॥
॥ इस प्रकार श्रीसम्मोहनतन्त्र के अन्तर्गत पार्वती-ईश्वर-संवाद में श्रीगोपालसहस्रनामस्तोत्र का माहात्म्य पूर्ण हुआ।
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