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देवीरहस्य पटल ५७
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के पटल ५७ में हवन विधि निरूपण के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् सप्तपञ्चाशत्तमः पटलः होमविधिः
Shri Devi Rahasya Patal 57
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य संतावनवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् सप्तपञ्चपञ्चाशत्तम
पटल
देवीरहस्य पटल ५७ हवन विधि
अथ सप्तपञ्चाशत्तमः पटलः
रात्रिजपविधिः
श्रीभैरव उवाच
अथ होमविधिं वक्ष्ये सर्वतन्त्रेषु
गोपितम् ।
दुर्गारहस्यकं सारं मन्त्रराजस्य पार्वति
॥ १ ॥
ध्यात्वा देवीं परां दुर्गां गुरुं
ध्यात्वा सशक्तिकम् ।
जपेच्छ्रीचक्रपुरतो निशीथे मन्त्रमीश्वरि
॥२॥
अयुतं लक्षमेकं वा दशांशं
होममाचरेत् ।
कोटिलक्षप्रजतस्य मन्त्रस्य
सुरसुन्दरि ॥ ३ ॥
विना दशांशहोमेन न तत्फलमवाप्नुयात्
।
विना श्मशानगमनं नित्यहोमजपादयः ॥ ४
॥
रात्रिजपविधि—
श्री भैरव ने कहा कि हे पार्वति! अब मैं सभी तन्त्रों में गोपित,
दुर्गामन्त्रराज रहस्य के सारभूत हवन-विधान का वर्णन करता हूँ। परा
दुर्गा देवी और गुरु का ध्यान करके श्रीचक्र के आगे निशीथ में दश हजार मन्त्र का
जप करे या एक लाख जप करे। इसका दशांश हवन करे हे सुरसुन्दरि ! करोड़ लक्ष जप करने
पर भी बिना दशांश हवन के उसका फल नहीं मिलता है। भैरवशाप के प्रभाव से श्मशान गये
बिना नित्य जप हवन से भी कलियुग में सिद्धि नहीं मिलती।। १-४ ।।
देवीरहस्य पटल ५७ -
होमादिदशांशनिर्णयः
न सिद्ध्यन्ति वरारोहे कलौ भैरवशापतः
।
घृतपायसमृद्वीका गुडपुष्पसिताशरैः॥५॥
होमो दशांशतः कार्यो जपस्य
सुरवन्दिते ।
पञ्चामृतेन देवेशि तद्दशांशेन
तर्पयेत् ॥६॥
तर्पयित्वा दशांशेन पञ्चामृतमुखं
सुधीः ।
तद्दशांशेन देवेशि ह्यष्टगन्धेन
मार्जयेत् ॥७॥
भोजयित्वा दशांशेन दीक्षितांश्च
द्विजोत्तमान् ।
ततो देवि पुरश्चर्याफलमाप्नोति
साधकः ॥८ ॥
अन्यथा सिद्धिहानिः
स्याज्जप्तस्यापि मनोः सदा ।
होमादि दशांश निर्णय - हे
सुरखन्दिने! घी, पायस, किसमिस,
गुड़, पुष्प, सिता और
श्वेत चन्दन के मिश्रण से जप का दशांश हवन करे। हवन का दशांश तर्पण पञ्चामृत से
करे। तर्पण का दशांश मार्जन अष्टगन्ध से करे उसका दशांश ब्राह्मण-भोजन कराये। ऐसा
करने पर ही साधक को पुरश्चरण का फल प्राप्त होता है। ऐसा नहीं करके सदा मन्त्र
जपते रहने से सिद्धि की हानि होती है ।।५-८।।
श्रीदेव्युवाच
यस्य नो भवति शक्तिहोंमं कर्तुं
दशांशतः ।
स कथं क्रियते होमं तद्वदस्व
महेश्वर ॥ ९ ॥
श्री देवी ने कहा कि हे महेश्वर! जिसमें दशांश हवन करने की शक्ति न हो वह हवन कैसे करेगा? इसे स्पष्ट कीजिये ।।९।।
देवीरहस्य पटल ५७ -
होमाशक्तस्य श्मशानसाधनयुक्तिः
श्रीभैरव उवाच
यस्य होमं शिवे कर्तुं
शक्तिर्नास्ति दशांशतः ।
तस्य युक्तिं ब्रवीम्यद्य कौलिकानां
हिताय च ॥ १० ॥
शुभेऽह्नि सायं देवेशि
गत्वोपवनमण्डलम् ।
श्मशानं सम्मुखं धृत्वा पृष्ठे वा
परमेश्वरि ।। ११ ।।
श्मशानं प्रणमेद्भक्त्या साधकः
साधकैः समम् ।
ज्वालाकरालवदने कल्पान्तदहनप्रिये ॥
१२ ॥
प्राणिप्राणालयोद्भूते चिते
मेऽनुग्रहं कुरु ।
इति नत्वा महादेवि ज्ञात्वा
दिग्भूतभैरवान् ॥ १३ ॥
निवसेत् तत्र रात्रौ तु
कुर्याद्धोमं कुलेश्वरि ।
होम में अशक्त होने पर श्मशान
साधन-विधि - श्री भैरव ने कहा कि हे शिवे! जिसमें दशांश हवन करने की शक्ति नहीं है,
उसकी युक्ति कौलिकों के हित के लिये मैं कहता हूँ । शुभ दिन में
सायंकाल में श्मशान के सामने उपवन मण्डल में जाये। श्मशान की ओर मुख या पृष्ठ रखकर
साधक भक्तिपूर्वक प्रणाम करे और प्रार्थना करे-
ज्वालाकरालवदने कल्पान्तदहनप्रिये ।
प्राणिप्राणलयोद्भूते चिते
मेऽनुग्रहं कुरु ।।
करालज्वाला मुख वाली,
कल्पान्तदहनप्रिये! प्राणियों के प्राणों के लय होने से उत्पन्न
चिते! तुम मुझपर कृपा करो हे महादेवि! इस प्रकार प्रणाम करके सभी दिशाओं में भूत
भैरवों को उपस्थित जानकर रात्रि में वहीं निवास करे एवं हवन करे।। १०-१३।।
देवीरहस्य पटल ५७ -
श्मशानार्चनम्
ऐशान्यां दिशि देवेशि श्रीचक्रं तु
विभावयेत् ॥ १४ ॥
संपूज्य
विधिवन्मन्त्रैर्दिक्पालांस्तत्र पार्वति ।
गणेशं पूजयेत्तत्र पूजयेत्
कुलयोगिनीः ।।१५।।
तत्पूर्वतः खनेत् कुण्डं हुनेदाज्यं
च विद्यया ।
त्रिकोणं कुण्डमीशानि
हस्ताधोगाधमद्रिजे ।। १६ ।।
हस्तैकविस्तृतं विश्वक्
तस्मिंश्चक्रं विभावयेत् ।
बिन्दु त्रिकोणं षट्कोणं वसुपत्रं
त्रिवर्तुलम् ॥ १७॥
भूगृहाङ्कं मयाख्यातं वह्निचक्रं
कुलार्चिते ।
गणेशधर्मवरुणाः कुबेरसहितास्ततः ॥
१८ ॥
पूजनीया विशेषेण गन्धाक्षतप्रसूनकैः
।
ब्राह्मयादिमातरः पूज्या
असिताद्याश्च भैरवाः ।। १९ ।।
वसुपत्रेषु संपूज्या वह्निचक्रे महेश्वरि
।
माया च मोहिनी चैव तृतीया च
मनोन्मना ॥ २० ॥
मुक्तकेशी च मातङ्गी मदिराक्षी
षडश्रके ।
त्रिकोणे यमुना गङ्गा संपूज्या च
सरस्वती ॥ २१ ॥
बिन्दौ दुर्गा च संपूज्या गन्धपुष्पाक्षतैः
शिवे ।
बिन्दावरणिमामन्त्र्य मूलमन्त्रेण
मान्त्रिकः ॥ २२ ॥
श्मशान पूजन - हे देवि ! ईशान दिशा
में श्रीचक्र अंकित करे। विधिवत् मन्त्रों से दिक्पालों की पूजा करे। गणेश
और योगिनी का पूजन करे। उसके पूर्व भाग में कुण्ड निर्मित कर मूल विद्या से
गाय के घी से हवन करे। एक हाथ लम्बी और एक हाथ गहरा त्रिकोण कुण्ड बनावे। कुण्ड
में चक्र अंकित करे। बिन्दु, त्रिकोण,
षट्कोण, वृत्तत्रय और भूपुर से अग्निचक्र बनता
है। उसमें गणेश, धर्मराज, वरुण और
कुबेर का पूजन गन्धाक्षतपुष्प से करे। ब्राह्मी आदि मातृकाओं का पूजन असिताङ्गादि
भैरवों के साथ करे। इनका पूजन अग्निचक्र के आठ दलों में करे। षट्कोण में माया,
मोहिनी, मनोन्मना, मुक्तकेशी,
मातङ्गी और मदिराक्षी का पूजन करे। त्रिकोण में गङ्गा, यमुना, सरस्वती का पूजन
करे। बिन्दु में दुर्गा का पूजन गन्धाक्षत, पुष्प से
करे हे शिवे ! बिन्दु के आवरणदेवताओं का पूजन मूल मन्त्र से मान्त्रिक को करना
चाहिये ।। १४- २२ ।।
वह्निमावाह्य मूलेन तदावाहनमुद्रया
।
ॐ रूंरामग्नये स्वाहा मन्त्रेणेति
सुरेश्वरि ॥ २३ ॥
वह्निं मूलेन संस्कृत्य कृत्वाज्यं
घृतमीश्वरि ।
दशांशहोमसङ्कल्पं कुर्यान्मन्त्रस्य
साधकः ॥ २४ ॥
मालया दहने दद्यादाहुतीनां शतत्रयम्
।
आहुती: क्षत्रियन्यस्तास्तत्र वह्नौ
हुनेत् प्रिये ॥ २५॥
पुष्पैः फलैराज्यमिश्रैस्ततो
दद्याद् बलिं प्रिये ।
मकारैः पञ्चभिर्देवि पुनर्जप्त्वा च
पूर्ववत् ॥ २६॥
आहुतीनां शतं दद्यादष्टोत्तरमधोमुखः
।
ततः साधकचक्रस्य क्षत्रियस्य च
पार्वति ॥ २७ ॥
पूजां विधाय
चक्रेऽस्मिंस्तोषयेन्नुतिभिर्गुरुम् ।
आशीर्भिर्वर्धयेत् क्षत्रं येनाशु
क्षोणिपो भवेत् ॥ २८ ॥
क्षत्रियोऽपि वदेत् तत्र
पुरश्चर्याफलं मनोः ।
लभस्व साधक श्रेष्ठं ततः
पूर्णाहुतिं हुनेत् ॥ २९ ॥
आवाहन मुद्रा द्वारा मूल मन्त्र से
अग्नि का आवाहन करे। अग्नि का संस्कार 'ॐ रूं
रां अग्नये स्वाहा' मन्त्र से करे।
घी को भी संस्कृत करे। मूल मन्त्रजप के दशांश हवन का संकल्प करे। प्रज्ज्वलित
अग्नि में माला से तीन सौ आहुतियाँ डाले। क्षत्रिय या अन्य सभी इसी प्रकार हवन फूल
फल में आज्य मिश्रित करके करें हवन के बाद बलि प्रदान करे। फिर पूर्ववत् जप करके
पञ्चमकारों से एक सौ आठ आहुति अधोमुख रूप में डाले। चक्र का क्षत्रिय साधक पूजा
करे अपने गुरु को सन्तुष्ट करे। प्रणाम करे। गुरु के आशीर्वाद से क्षत्रिय के
क्षेत्र की वृद्धि होती है और वह क्षोणिपति होता है। क्षत्रिय गुरु से अपने
पुरश्चरण- फल को बताये और गुरु कहे कि साधक श्रेष्ठ ! इच्छित फल लाभ करो। तब
पूर्णाहुति प्रदान करे ।। २३-२९।।
ततो वर्म पठेद् देवि येन देवीमयो
भवेत् ।
ततो देवीं च सशिवां मन्त्री
संहारमुद्रया ॥ ३० ॥
साधकांस्तर्पयित्वादौ भक्ष्यपानादिभिः
प्रिये ।
विसृज्य साधकान् देवीं सशिवां
सपरिच्छदाम् ।
पुरश्चर्याफलं प्राप्य साधको
मुक्तिभाग् भवेत् ॥ ३१ ॥
इसके बाद कवच का पाठ करे। इससे साधक
देवीमय होता है। इसके बाद साधक देवी और साधकों को भक्ष्य-पान अदि से तर्पित करे।
साधकों और देवी को परिच्छदों सहित विसर्जित करे। पुरश्चरण का फल प्राप्त करके साधक
मोक्ष का भाजन होता है ।। ३०-३१।।
देवीरहस्य पटल ५७ -
पटलोपसंहारः
इत्येष पटलो दिव्यो मन्त्रपूजामयो
ध्रुवः ।
सर्वतत्त्वैकनिलयो गोपनीयो
मुमुक्षुभिः ॥३२॥
यह पटल दिव्य और मन्त्र-पूजामय हैं।
सभी तत्त्वों का आलय है एवं मुमुक्षुओं से भी गोपनीय है ।। ३२ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये होमविधिनिरूपणं नाम सप्तपञ्चाशत्तमः पटलः ॥५७॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में होमविधि निरूपण नामक सप्तपञ्चाशत्तम पटल पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 58
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