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कर्मकाण्ड

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देवीरहस्य पटल ५८

देवीरहस्य पटल ५८    

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ५८  में चक्रपूजा विधि निरूपण के विषय में बतलाया गया है।

देवीरहस्य पटल ५८

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् अष्टापञ्चाशत्तमः पटलः चक्रार्चनम्

Shri Devi Rahasya Patal 58   

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य अट्ठावनवाँ पटल

रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् अष्टापञ्चाशत्तम पटल

देवीरहस्य पटल ५८ चक्र पूजन विधिः

अथाष्टापञ्चाशत्तमः पटलः

चक्रार्चनम्

श्री भैरव उवाच

अधुना चक्रपूजां ते वक्ष्यामि नगनन्दिनि ।

येन दुर्गा कलौ शीघ्रं वरदा भवति प्रिये ॥ १ ॥

चक्रपूजा - श्री भैरव बोले- हे पार्वति ! अब मैं चक्रपूजा का कथन करता हूँ, जिससे कलियुग में दुर्गा शीघ्र वरदायिनी होती है ।। १ ।।

देवीरहस्य पटल ५८ - चक्रार्चने साधकनिर्णयः

एकादशावधि देवि साधकाः परमार्थदाः ।

एकादशापि चक्रे तु वर्णिताः साधकाः शुभाः ॥ २ ॥

उत्तमा नव देवेशि मध्यमाः पञ्च साधकाः ।

अधमास्तु त्रयो देवि न पुज्याश्चक्रमध्यगाः ॥ ३ ॥

विना चक्रार्चनं नैव नित्यपूजाजपादयः ।

फलदा योगिनीशापात् तस्माच्चक्रं प्रपूजयेत् ॥४॥

चक्रार्चन में साधक निर्णय-चक्र में सम्मिलित ग्यारह साधक परमार्थदायक होते हैं। नव साधक उत्तम और पाँच साधक मध्यम होते हैं। पूजाचक्र में तीन साधक अधम होते हैं। बिना चक्रार्चन के नित्य पूजा जप आदि फलदायक नहीं होते। ऐसा शाप योगिनियों ने दिया है। इसलिये चक्रपूजन अवश्य करना चाहिये ।। २-४ ।।

देवीरहस्य पटल ५८ - चक्रार्चनकालः आसनार्चान्ते कुम्भस्थापनञ्च

कुहू पूर्णेन्दुसंक्रान्ति चतुर्दश्यष्टमीषु च ।

नवम्यां मङ्गले मन्दे चक्रपूजा शुभप्रदा ॥ ५ ॥

साधकाश्च सुतीर्थ्याश्च मिलिताः शिवमन्दिरे ।

देवतायतने वापि शून्ये शृङ्गाटकेऽथ वा ॥ ६ ॥

दिग्भूतभैरवान् देवि विचार्य पुरसाधकः ।

उपविश्यासने देवि संशोध्य वीरमण्डले ॥७॥

साधकानुपविश्यात्र कुर्यात् संकल्पमादरात् ।

न्यासं विधाय सर्वाङ्गे भूतशुद्ध्यादिकं चरेत् ॥८ ॥

तत्र प्राणान् प्रतिष्ठाप्य श्रीचक्रं पूजयेच्छिवे ।

आत्मश्रीचक्रयोर्मध्ये कुम्भस्थापनमाचरेत् ॥९॥

चक्रार्चन का काल एवं स्थान- अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, चतुर्दशी, अष्टमी, नवमी में मंगलवार या शनिवार हो तो चक्रपूजा शुभकारक होती है। सुतीर्थ मिलने पर शिवमन्दिर में या देवालय में या शून्य चौराहे पर दिग्भूत भैरवों का विचार करके साधक आसन का शोधन करके वीरमण्डल में साधकों को बैठाये एवं स्वयं भी बैठे। तदनन्तर सङ्कल्प, न्यास करके सर्वाङ्ग में भूतशुद्धि आदि करे। तब प्राणप्रतिष्ठा करके श्रीचक्र का पूजन करे। अपने और श्रीचक्र के बीच में कलश का स्थापन करे ।। ५-९ ।।

देवीरहस्य पटल ५८ - कुम्भार्चाक्रमः

गौडी माध्वी तथा पैष्टी चासवं पूजयेच्छिवे ।

एतेषां रसमादाय तत्त्वतो भैरवार्चने ॥ १० ॥

आनन्दरसपूजायां तुष्यते परमेश्वरी ।

विप्राश्च क्षत्रिया वैश्याः शूद्राः पूज्याश्च पार्वति ।। ११ ।।

गौडी विप्रेषु शुभदा माध्वी क्षत्रेषु चोत्तमा ।

वैश्येषु शुभदा पैष्टी शूद्रेषु शुभमासवम् ॥१२॥

ब्रह्मक्षत्रियवैश्यानामानन्दस्तु शुभावहः ।

आसवं दूरतस्त्याज्यं साधकैस्तु मुमुक्षुभिः ॥ १३ ॥

कलश-अर्चनक्रम - कलश में गौड़ी, माध्वी और पैष्टी आसव भरकर उसका पूजन करे। भैरव-अर्चन में ये आवश्यक तत्त्व हैं। आनन्द रस द्वारा पूजन करने से परमेश्वरी सन्तुष्ट होती है। मण्डल में विप्रा, क्षत्रिया वैश्या और शूद्रा सभी पूज्य हैं। गौड़ी विप्रों के लिये शुभद है। माध्वी क्षत्रियों के लिये उत्तम है। पैष्टी वैश्यों के लिये शुभद है तथा शूद्रों के लिये आसव शुभ होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिये आनन्द शुभावह है। मोक्ष के इच्छुक साधकों के लिये आसव दूर से ही त्याज्य है ।। १०-१३।।

अभावे तु सुरानन्दरसानां परमेश्वरि ।

मधुना पूजयेद् देवि देवमानन्दभैरवम् ॥ १४ ॥

द्रव्यं संशोध्य देवेशि मकारान् पञ्च शोधयेत् ।

श्रीचक्राग्रेऽर्चयेत् तत्र साधकान् भैरवागमे ॥ १५ ॥

तत्र संपूज्य यन्त्रेशं देवमावाह्य भैरवम् ।

योगिनीः पूजयेत् तत्र वटुकं पूजयेत् ततः ।। १६ ।।

गणेशं क्षेत्रपालांश्च पूजयेच्चक्रनायिकाम् ।

सन्तर्प्य देवान् पितॄंश्च मुनीन् वेदान् महेश्वरि ॥१७॥

श्रीचक्राग्रे जपेन्मूलं पठेत् कवचमीश्वरि ।

मन्त्रनामसहस्त्र च स्तोत्रं पुण्यं पठेत्ततः ॥ १८ ॥

रसानन्द रसों के अभाव में मधु से पूजन देव, देवी और आनन्दभैरव का करे। हे देवि! द्रव्यों का शोधन करके पञ्च मकारों का शोधन करे। श्रीचक्र के आगे साधकों का अर्चन करे। इस पूजा के बाद यन्त्र में यन्त्रेश देव का आवाहन करे। तब भैरव, योगिनी, बटुक, गणेश एवं क्षेत्रपाल का पूजन करे तब चक्रनायिकाओं का पूजन करे। हे महेश्वरि ! देवताओं, पितरों, मुनियों, वेदों का तर्पण करने के पश्चात् श्रीचक्र के आगे मूलमन्त्र का जप करके कवच का पाठ करे। तदनन्तर मन्त्रनामसहस्र और पवित्र स्तोत्र का पाठ करे।। १४-१८।।

देवीरहस्य पटल ५८ - बलिदानानन्तरं तर्पणम्

ततो देव्यै बलिं दत्त्वा साधकांस्तर्पयेच्छिवे ।

भैरवांस्तर्पयेच्चाष्टौ दीक्षितांस्तर्पयेत्ततः ॥ १९ ॥

बलि-तर्पण - तदनन्तर देवी को बलि प्रदान करे। साधकों का तर्पण करे। आठों भैरवों का तर्पण करे। दीक्षितों का तर्पण करे।। १९ ।।

देवीरहस्य पटल ५८ - पात्रार्चनम्

उत्तमं नव पात्राणि पञ्च पात्राणि मध्यमम् ।

अधमं त्रीणि पात्राणि चैकपात्रं न पूजयेत् ॥ २० ॥

प्रवृत्ते भैरवे तन्त्रे सर्वे वर्णा द्विजातयः ।

निवृत्ते भैरवे तन्त्रे सर्वे वर्णाः पृथक् पृथक् ॥२१॥

पात्र अर्चन - अर्चन के क्रम में नव पात्र उत्तम, पाँच पात्र मध्यम एवं तीन पात्र अधम माने गये हैं। एक पात्र से पूजन कभी नहीं करना चाहिये। भैरव तन्त्र में प्रवृत्त होने पर सभी वर्ण द्विज हो जाते हैं एवं चक्रार्चन के बाद सभी पुनः अलग-अलग वर्ण के हो जाते हैं ।। २०-२१।।

देवीरहस्य पटल ५८ - कन्यापूजनम्

नव कन्याः समभ्यर्च्य वीरेशो भैरवार्चने ।

रेतसा तर्पयेद् देवीं कुलकोटिं समुद्धरेत् ॥ २२ ॥

शक्त्युच्छिष्टं पिबेद् द्रव्यं वीरोच्छिष्टं तु चर्वणम् ।

मकारपञ्चसंयुक्तं कुर्याच्छ्रीचक्रमण्डलम् ॥ २३ ॥

स्वगुरुं पूजयेत् तत्र तर्पयेच्छक्तितः परम् ।

तोषयित्वा गुरुं देवि दक्षिणाभिश्च वन्दनैः ।

तदाज्ञां शिरसादाय कुर्यादानन्दमात्मनः ॥ २४ ॥

कन्या पूजन - भैरवार्चन में वीरेश नव कन्याओं का अर्चन करे। वीर्य से देवी का तर्पण करके करोड़ों कुल का उद्धार करे। शक्ति का जूठा मद्यपान करे। वीर के जूठे मुद्रादि का चर्वण करे। श्रीचक्रमण्डल को पञ्च मकार से युक्त करे। तब शक्ति के अनुसार अपने गुरु का पूजन करे। वन्दना और दक्षिणा से गुरु को सन्तुष्ट करे। तत्पश्चात् उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर आनन्दपूर्वक विहार करे ।। २२-२४ ।।

वामे रामा रमणकुशला दक्षिणे चालिपात्र-

मग्रे मुद्रा चणकवटुकौ सूकरस्योष्णशुद्धिः ।

तन्त्री वीणा सरसमधुरा सगुरोः सत्कथायां

वामाचार: परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ॥ २५ ॥

रमणकुशला रमणी बाँयें भाग में, दाँयें हाथ में मद्यपात्र, आगे चना के बड़े का मुद्रा, सूकर की उष्ण शुद्धि, तन्त्री वीणा, सरस मधुर, सद्गुरु की सत्कथा से युक्त यह वामाचार परम गहन है और योगियों द्वारा भी अगम्य है ।। २५ ।।

देवीरहस्य पटल ५८ - पटलोपसंहारः

इतीदं चक्रसर्वस्वं गुह्यं तत्त्वात्मकं परम् ।

तव भक्त्या मयाख्यातं गोपनीयं मुमुक्षुभिः ॥ २६ ॥

यह चक्रसर्वस्व है। यह गुह्य और परम तत्त्वात्मक है। हे देवि! तुम्हारी भक्ति के कारण मैंने इसका वर्णन किया है। यह मुमुक्षुओं के लिये भी गोपनीय है ।। २६ ।।

इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये चक्रपूजा- निरूपणमष्टापञ्चाशत्तमः पटलः ॥ ५८ ॥

इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में चक्रपूजा निरूपण नामक अष्टापञ्चाशत्तम पटल पूर्ण हुआ।

आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 59 

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